हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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56 – भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण


आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृति अलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।  
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी। 

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है। 

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध 

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पल से मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।  

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके। 

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

चाँद शर्मा

 

 

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

53 – भारतीय बुद्धिमता की चमक


विदेशी इतिहासकारों का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी विदेशों से विद्यार्थी भारत स्थित तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे। इस के विपरीत भारत के स्नात्क शिक्षा का प्रसारण करने के लिये  ही विदेशों में जाते थे।

लार्ड मैकाले की भारत में शिक्षा प्रसारण नीति के बाद जो भी इतिहास की पुस्तकें भारत के स्कूलों और कालेजों में पढाई जाने लगीं थीं उन में सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व काल का इतिहास ही नदारद था। केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि मगध सम्राट महा पद्म घनानन्द की सैनिक शक्ति की आहट मात्र से सिकन्दर के सैनिक इतने डर गये थे कि उन्हों ने अपने विश्व विजेता को स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया। लेकिन नन्द वँश या उस से पहले के वँशों के बारे में कोई उल्लेख अंग्रेज़ी इतिहास में नहीं मिलते। ऐसा तो हो नहीं सकता कि ऩन्द जैसा शक्तिशाली साम्राज्य ऐक ही वर्ष में पैदा हो गया था जिस से विश्व विजेता सिकन्दर की सैना भी डर जाये।

वह कौन थे जिन्हों ने तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्व विद्यालय स्थापित किये थे? सपेरे? लुटेरे, या फिर अन्धविशवासी? किन्तु इन सभी प्रश्नो पर इतिहास मौन है। पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर पूर्व इतिहास को माइथोलोजी बता कर उसे नकार रखा है और उसी दिशा में हमारी पहचान को मिटाने की भरसक कोशिशें आज भी जारी हैं। दुर्भाग्यवश मैकाले शिक्षानीति के दुष्प्रभाव के कारण अपने देश के नक्काल ‘बुद्धिजीवी’ भी अंग्रेज़ी इतिहास को ही सत्य मान कर अपने साँस्कृतिक इतिहास को भुलाना स्वीकार कर बैठे हैं। हमारे इतिहास पर काला पर्दा डालने के पीछे ईसाईयों की स्वार्थी कुटिल नीति और सोची समझी साजिश थी।

सत्य को दबाया तो गया परन्तु विदेशी सर्जित इतिहास में से भी भारत के गौरवमय तथ्य सिर उठा कर सत्य को छिपाने के प्रमाण स्वरूप बोलते हैं।

योरुप की प्रथम जागृति

भारत की समृद्धि तथा विकास के चर्चे तो यूनान तथा सभी देशों में सिकन्दर के भारत आगमन से पूर्व ही थे। सिकन्दर भारत के सीमावर्ती पंजाब क्षेत्र के तक्षशिला विश्व विद्यालय से अति प्रभावित था। उसी से प्रेरणा ले कर सिकन्दर ने मिस्त्र में सिकन्दरिया (एलेग्ज़ेन्डरिया) नाम के विश्व विद्यालय का निर्माण करवाया था जो कालान्तर भारतीय तथा यूनानी विद्या प्रसार के केन्द्र के तौर पर विकसित हो गया। इस के पश्चात ही सिकन्दर ने मिस्त्र, ऐशिया माईनर, ईरान, बेकटीरिया तथा उत्तर पश्चिमी भारत के प्रान्तों को मिला कर अपनी हैलेनिस्टिक ऐम्पायर स्थापित की थी जिस के माध्यम से भारतीय कलाओं और ज्ञान विज्ञान का यूनान की ओर निर्यात बढ गया।

प्रचुर संख्या में भारतीय ग्रन्थों का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया तथा उन्हे सिकन्दरिया के पुस्कालय में रखा गया। सिकन्दर अपने साथ कई बुद्धिजीवियों और ब्राह्मणों को भी यूनान ले गया था । कालान्तर सिकन्दरिया मैडिटरेनियन प्रदेश में ऐक महत्वशाली महानगर के रूप में विकसित हुआ। वहाँ का पुस्कालय तथा पुरातत्वालय योरुप का प्रथम अन्तराष्ट्रीय विद्याध्यन केन्द्र बन गया था। योरुपीय देशों की प्रथम जागृति की शुरात यहीं से हुयी थी।

सिकन्दर के यूनानी सिपाहियों ने भारतीय तथा ईरानी महिलाओं से विवाह भी किये थे और उन्हें अपने साथ स्वदेश ले गये थे। दोनो देशों के बीच व्यापारिक तथा राजनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गये थे। सिकन्दर के उत्तराधिकारी सैल्युकस ने तो अपनी पुत्री का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दिया था और उसी के फलस्वरूप यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने लगा था। मैगस्थनीज़ ने भारत के गौरवशाली वातावर्ण के इतिहास पाश्चात्य बुद्धजीवियों के लिये लिख छोडा है।

पाईथागोरस

य़ोरुप में विद्या के आधुनिकीकरण की नींव पाईथागोरस ने भारतीय गणित को यूनान में प्रसारित कर के डाली थी। पाईथागोरस की जीवनी उस की मृत्यु के लगभग दो शताब्दी पश्चात टुकडों में उजागर हुयी जिस से पता चलता है कि उस का जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व ऐशिया माईनर के ऐक दूीप सामोस पर हुआ था। संगीत और जिमनास्टिक की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वह मिस्त्र चला गया और बेबीलोन तथा उस के आसपास के क्षेत्रों में कुछ काल तक रहा था। उस क्षेत्र में भारतीय दर्शन ज्ञान, उपनिष्दों, गणित तथा रेखागणित का प्रसार और प्रभाव था सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय स्थापित होने से पूर्व ही था। भारतीय संगीत के धरातल पर ही पाईथागोरस ने पाशचात्य संगीत पद्धति की आधार शिला बनाई थी।

जब पाईथागोरस भारतीय प्रभाव के क्षेत्र में था तब ईरान ने मिस्त्र पर आक्रमण किया। पाईथागोरस को भी बन्दियों के साथ ईरान ले जाया गया । कालान्तर पाईथागोरस ईरान से पंजाब तक भारत में भी गया जहाँ उस ने यूनानी रीति रिवाज और वस्त्र त्याग कर भारत के पहाडी ढंग के टराउजर्स की तरह के परिधान अपना लिये थे। उसी तरह का परिधान पहने महारज कनिष्क को भी ऐक प्रतिमा में दिखाया गया है जो अफगानिस्तान में पाई गई थी। प्रतिमा में सम्राट कनिष्क को डबल ब्रेस्टिड कोट के साथ टराउजर्स पहने दिखाया गया है। यूनान में उस समय तक टराउजर्स नहीं पहनी जाती थीँ। टराउजर्स की ही तरह के पायजामे और सलवारें भारत ईरान घाटी में पहने जाते थे। अतः पाईथागोरस ने भारतीय रेखागणित के साथ साथ भारतीय वेश भूषा भी योरुप में प्रचिल्लत की थी।

भारतीय विचारघारा का प्रसार

लगभग बीस वर्षों तक पूर्वी देशों में रहने के उपरांत पाईथागोरस योरुप वापस जा कर इटली के क्रोटोन प्रान्त में रहने लगा। वहाँ पर यूनानी भाषा का प्रचार भी था। उस ने अपने मित्रों तथा शिष्यों की ऐक मणडली बनाई। उस टोली ने संसार को विश्व स्तरीय परिवार  – वसुदैव कुटम्बकम् के अनुरूप प्रचार किया तथा निजि जीवन में अनुशासित रहने पर भी बल दिया। 

पाईथागोरस ने पुनर्जीवन में विभिन्न शरीर पाने के भारतीय विचार को भी व्यक्त किया। उस ने अपने पुनर्जन्मों के समर्ण रखने का दावा किया तथा सभी जीवों में ऐकीकरण का भारतीय सिद्धान्त दोहराया। अपनी टोली के सदस्यों को जीवों  के प्रति दया और अहिंसा का बर्ताव करने को कहा। पाईथागोरस का कथन था कि जो जीवों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करे गा वह पुनर्जन्म अनुसार अगला जन्म पशु योनि में लेगा।

पाईथागोरस के प्रचार के फलस्वरूप यूनान में बुद्धिजीवियों का समाज जिन में सुकरात, अफलातून, अरस्तु (क्रमशः सोक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टोटल) आदि तथा कई अन्य उस के विचारों का उनुमोदन करने लगे। उन्हों ने भारतीय परम्परा के चार महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु का अनुमोदन तो किया किन्तु आकाश का यथार्थ नहीं समझ पाये। अतः यूनानी बुद्धिजीवियों ने आकाश तत्व का प्रतिपादन महाभूतों में नहीं किया।

योरूपीय जागरुक्ता के प्रेरक

जिन ग्रन्थों और सिद्धान्तों ने सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय के माध्यम से पाश्चात्य जगत में विचार क्रान्ति को प्रोत्साहन दे कर योरुप वासियों की प्रथम चेतना या प्रथम जागृति (फर्स्ट अवेकनिंग) को जगाया उन में से कुछ मुख्य भारतीय विषय इस प्रकार हैं –

  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में काम करने वाले ऐक यूनानी खगोल शास्त्री अरिस्टारक्स ने  300 –250 में सौर मण्डल का सिद्धान्त घोषित किया जो कालान्तर शताब्दियों पश्चात कोपरनिकस नें भी अपनाया और उसे विकसित किया।
  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में ही काम करने वाले ऐक अन्य यूनानी खगोल शास्त्री इराटोस्थनीज ने 250-200 में आकाश का ऐक मानचित्र बनाया जिस में 675 तारे दिखाये। उस ने पृथ्वी का व्यास भी नापा जो लगभग आधुनिक आँकडों के समीप मिलता जुलता था।  
  • रोमन सैना के साथ काम करने वाले ऐक य़ूनानी चिकित्साशास्त्री डियोकोरिडिस 01 –100 ने वनस्पतियों का अध्ययन कर के उन से औषधि तैयार करने पर शोध किया और डी माटेरा मैडिका नाम का ऐक ग्रन्थ रचा जिसे बाद में अरब वासियों ने भी संरक्षित किया। वह योरुप का प्रथम औषधि ग्रन्थ था तथा उस में 600 पौधों और 1000 औषधियों का उल्लेख किया गया था।
  • मिस्त्र में खगोल शास्त्री पटोल्मी (127 ईस्वी) ने पटोल्मी सिद्धान्त की व्याख्या कर के पृथ्वी को स्थिर और ग्रहों को पृथ्वी की परिक्रमा करते उल्लेखित किया। पाश्चात्य जगत में पटोल्मी सिद्धान्त का यही भ्रमात्मिक सिद्धानत 16 वी शताब्दी तक मान्य रहा। इस भ्रम का निकोलस कोपरनिकस ने खण्डन किया था और कहा कि सौर मण्डल का केन्द्र पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है जो केन्द्र में स्थिर है। वास्तव में तो यह सिद्धान्त भी प्राचीन भारतीय उल्लेखों के सामने अधूरा ही था क्यों कि भारतीय अपने सूर्य को भी अस्थिर घोषित कर चुके थे और कोटि कोटि ब्रह्माण्डों की घोषणा भी कर चुके थे।
  • ईसा के 200 वर्ष पश्चात पलोटिनस नें अपनी रचना इनीडस में जगत को ऐक ही स्त्रोत्र से व्यक्त हो रही श्रंखलाओं की कडी बताया। उस का कथन हिन्दू मतानुसार यय़ार्थ के अधिक निकट था।

सिकंद्रिया का विनाश

47 ईस्वी में जुलियस सीजर तथा पोम्पी महान के बीच युद्ध हुआ जिस के फलस्वरूप सिकन्द्रीया पुस्तकालय जल गया। ज्ञान के क्षेत्र में यह मानवता के लिये बहुत बडी दुर्घटना थी क्यों कि इस विनाश में 40,000 से अधिक ग्रन्थ अग्नि में क्षति ग्रस्त हो गये थे।

दूसरी शताब्दी में रोम ऐक महाशक्ति के रूप में उजागर हुआ। नये नये ईसाई रंग में डूबे रोम-वासियों ने यूनानी सभ्यता के सभी चिन्हों और उन की अर्जित अथवा संकलित की हुई ज्ञान सम्पदा का विनाश कर दिया। रोम वासियों ने अपने राज्य का विस्तार उत्तरी अफरीका, ऐशिया माईनर तथा दक्षिणी योरूप तक फैला दिया जिस के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के सभी अंश जो चर्च की सम्मति से मेल नहीं खाते थे नष्ट कर दिये गये। यूनानी नगर ध्वस्त कर दिये गये, ज्ञान अर्जन – सर्जन रुक गये तथा बुद्धिजीवी मार डाले गये। कुछ थोडे यूनानी बुद्धिजीवी जान बचा कर योरुप के अन्य भागों में छिप सकने में सफल हो गये थे। वह कुछ ग्रंथों को अपने साथ ले जा पाये थे और चोरी छिपे बिजेन्टिन काल तक गुप्त ढंग से शोध कार्य करते रहै।

529 ईस्वी में जसटिन लेन ले ऐथेंस (यूनान) में अफलातून (प्लेटो) की अकादमी के बचे खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये और यूनानी ज्ञान भण्डार योरुप से पूर्णत्या मिट गये। ईसाईयो ने पेगनिज्म फैलाने का आरोप लगा कर बुद्धिजीवियों को मार डाला और उन के ग्रन्थ नष्ट कर दिये। इस प्रकार आज ज्ञान विज्ञान का ढिंढोरा पीटने वाले ईसाईयों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपना विनाशात्मिक योगदान दिया जो इतिहास के पृष्टों पर सुरक्षित है।

जो यूनानी बुद्धिजीवी संयोगवश बच सके थे उन्हों ने ईरान में शरण ली तथा वनवास में ही उन्हों ने अपनी अकादमी स्थापित कर के निजि ज्ञान यात्रा जारी रखी।

योरुपीय जागृति 

आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप में 14-15 वीं शताब्दी में हुआ जिसे उन के अपने इतिहास में पुनर्जागृति (रिनेसाँ) कहा जाता है। प्राचीन ग्रंथ फिर से खोज निकाले गये जिन में से युक्लिड की ज्योमैट्री, पटोल्मी की जियोग्राफी तथा गालेन की मेडिसन मुख्य थीं। यह वह समय था जब भारत में तुगलक तथा लोधी वंशजकों का राज्य था और उत्तर – पश्चिम दिशा से मुगलों के आक्रमण भी हो रहे थे। राजनैतिक उथल पथल तथा राजकीय संरक्षण के अभाव के कारण भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान भी लुप्त अवस्था में पहुँच चुका था।

यह वह काल था जब पूर्व में सूर्यास्त हो कर पश्चिम दिशा से उदय हो रहा था। भारत में मुसलिम शासकों ने अन्धकार युग फैला दिया था। हिन्दू ज्ञान विज्ञान ग्रन्थों के ढेर कुफर के नाम से जलाये जा रहे थे तथा हिन्दू बुद्धजीवियों का कत्ले आम साधारण दिनचर्या की बात बन चुकी थी। सभी वर्गों से सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणों का हो रहा था।

सौभाग्य से उस समय कुछ ग्रन्थ विनाश से बचा लिये गये थे। कुछ भारत से बाहर ले जाये जा चुके थे और वहाँ भी बचा लिये गये थे। उन्हीं ग्रन्थों से आधुनिक विज्ञान के अंकुर ने योरुप में पुनर्जन्म लिया और उस को रिनेसाँ का नाम दिया गया। जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद फैला तो योरुपीय संयोजकों ने उसी ज्ञान को अपना व्याख्यात कर के उन पर नये स्रजनकर्ताओं के नाम लिख दिये। भारतीय विद्या भण्डारों का हस्तान्तिकरण हो गया।

चाँद शर्मा

 

 

45 – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति


“संगीत है शक्ति ईश्वर की हर सुर में बसे हैं राम

रागी जो सुनाये राग मधुर, रोगी को मिले आराम।”

भारत में देवी देवताओं से ले कर साधारण मानवों तक हर किसी के जीवन में संगीत किसी ना किसी रूप में जुडा हुआ है। संगीत-रहित जीवन की कलपना केवल नारकीय जीवन के साथ ही करी जा सकती है। गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं को संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना गया है।

लिखित कला और विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी संगीत का स्थान विश्व में प्राचीनतम है। संगीत को विज्ञान तथा कला, दोनो के क्षेत्र में समान महत्व मिला है। जैसे दैविक शक्तियों को शस्त्रों के साथ जोडा गया है उसी प्रकार संगीत के वाद्य यंत्रो और नृत्यों को भी देवी देवताओं के साथ जोडा गया है। भगवान शिव डमरू की ताल के साथ ताँडव नृत्य करते हैं, तो देवी सरस्वती वीणा वादिनी हैं। भगवान विष्णु के प्रतीक कृष्ण वँशी की तान सुनाते हैं और रास नृत्य भी करते थे। देवऋषि नारद तथा राक्षसाधिपति रावण वीणा वादन में पारंगत हैं। गाँडीवधारी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुधर होने के साथ साथ नृत्य शिक्षक भी हैं। अप्सराओं तथा गाँधर्वों का तो संगीत कला के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान हैं। भारत में देवी देवताओं से ले कर जन साधारण तक सभी का जीवन संगीत मय है। हर कोई संगीत को जीवन का मुख्य अंग मानता है।

संगीत के प्राचीन ग्रन्थ

सामवेद के अतिरिक्त भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’ संगीत कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय संगीत पद्धति में ‘स्वरों’ तथा उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’ (इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट, वादन क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’ (रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।

वाद्य यन्त्र गायन का अनुसरण और संगत करते थे। वादक ऐकल प्रदर्शन (सोलो परफारमेंस) के अतिरिक्त जुगलबन्दी (ड्येट), तथा वाद्य वृन्द (आरकेस्ट्रा) में भी भाग लेते थे। वाद्य वृन्द में ‘तन्त्र-वाद्य’ (मिजराफ से बजाये जाने वाले), ‘तत-वाद्य’ ( गज से बजाये जाने वाले) ‘सुश्रिर-वाद्य’ (बाँसुरी आदि) तथा ‘घट-वाद्य’ ताल देने वाले वाद्य) आदि सभी वाद्य सम्मिलित थे। आज के सिमफनी आरकेस्ट्रा में भी वाद्यों के मुख्य अंग यही होते है क्यों कि ‘ब्रास (ट्रम्पेट आदि) और वुडविण्ड (कलारिनेट आदि) वाद्य भी सुश्रिर-वाद्यों की श्रेणी में आ जाते हैं।

संगीत का विकास और प्रसार

हिन्दू मतानुसार मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। नाद-साधन (म्यूजिकल साउँड) भी मोक्ष प्राप्ति का ऐक मार्ग है। नाद-साधन के लिये ऐकाग्रता, मन की पवित्रता, तथा निरन्तर साधना की आवश्यक्ता है जो योग के ही अंग हैं। आनन्द की अनुभूति ही संगीत साधना की प्राकाष्ठा है। संगीत के लिये भक्ति भावना अति सहायक है इस लिये संगीत आरम्भ से ही मन्दिरों, कीर्तनों (डिस्को), तथा सामूहिक परम्पराओं के साथ जुडा रहा है।  भारत का अनुसरण करते हुये पाश्चात्य देशों में भी संगीत का आरम्भ और विकास चर्च के आँगन से ही हुआ था फिर वह नाट्यशालाओं में विकसित हुआ, और फिर जनसाधारण के साथ लोकप्रिय संगीत (पापुलर अथवा पाप म्यूज़िक) बन गया।

छन्द-गायन तथा जातीय-गायन वैदिक काल से ही वैदिक परम्पराओं के साथ जुड गया था जिस का उल्लेख महाकाव्यों, और सामाजिक साहित्य में मिलता है। भारत में यह कला ईसा से कई शताब्दियाँ पूर्व ही पूर्णत्या विकसित हो चुकी थी। इसी सामूहिक कंठ-गायन को पाश्चात्य जगत में कोरल संगीत कहा जाता है।

वैदिक छन्द-गायन की परम्परायें लिखित थीं। छन्दोग्य उपनिष्द पुजारी वर्ग को समान गायन परिशिक्षण देने का महत्वपूर्ण माध्यम था। ‘समन’ का गायन और वीणा के माध्यम से वादन दोनो होते थे। मन्दिरों के प्राँगणों में नृत्य भी पूजा अर्चना का अंग था। मन्दिरों से पनप कर यह कला राजगृहों तथा उत्सवों को सजाने लग गयी और फिर समस्त सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मुस्लिम काल में संगीत राज घरानों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया था। 

प्रथम दशक में भारतीय संगीत सम्बन्धी साहित्य के कई मौलिक ग्रँथ उपलब्ध हैं जिन से संगीत के विकास का पता चलता है। सप्तवीं शताब्दी में मातँगा कृत ‘बृहदेशी’ ऐक मुख्य ग्रँथ है जिस में प्रथम बार ‘राग’ का वर्णन किया गया है। अन्य कृति शारंगदेव का ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’ है जो तेहरवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस में तत्कालिक शौलियों, पद्धतियों और परम्पराओं का विस्तरित उल्लेख है।

ईसा से 200-300 वर्ष पूर्व पिंगल ने संगीत पद्धति के क्षेत्र में योग्दान दिया है। उस के आलेखों में बाईनरी संख्या तथा ‘पास्कल-त्रिभुज’ का आलेख भी मिलता है। संगीत के क्षेत्र में ‘श्रुति’ (ध्वनि का सूक्षम रूप जो सुना और अनुसरन किया जा सके) का आधार वायु में आन्दोलन कारी तरंगें है जिन्हें ‘अनुराणना’ (टोनल हार्मनीज) कहा जाता है। दो या उस से अधिक श्रुतियों को मिला कर स्वरों की रचना भारत के संगीतिज्ञ्यों ने करी थी।

राग पद्धति

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति रागों पर आधारित है । रागों की उत्पत्ति ‘थाट’ से होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’ मानी गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’ थाटों का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, पूर्वी, मारवा और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव (मूड – थीम) का घोतक है। राग शब्द सँस्कृत के बीज शब्द ‘रंज’ से लिया गया है। अतः प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन करना अनिवार्य है अन्यथ्वा आपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता। हिन्दूस्तानी संगीत में प्रत्येक राग अपने निर्धारित समय पर अधिक प्रभावकारी होता है जबकि इस प्रकार की समय-सारणी पाश्चात्य संगीत में नहीं है।

गायक हो या वादक, वह निर्धारित सीमा के अन्दर रह कर ही  अपने मनोभावों का संगीत के माध्यम से प्रदर्शन करता है। इस के साथ साथ वह संगत करने वाले ताल वाद्य की समय सीमा में भी बन्धा रहता है। उसे का प्रदर्शन निर्धारित ‘आवृतियों’ में ही कर के दिखाना होता है। इस की तुलना में पाश्चात्य संगीत में गीतों के लिये किसी विशिष्ट समय की प्रतिबन्धित मर्यादा नहीं होती। समस्त पाश्चात्य संगीत भारत के पाँच थाटों में समा जाता है। हिन्दुस्तानी संगीत में ‘धुन’ (मेलोडी) की प्रधानता रहती है जबकि पाश्चात्य संगीत में संगत (हार्मनी) प्रधान है। दोनो का सम्बन्ध क्रमशः आत्मा और शरीर के जैसा है।   

स्वर मालिका तथा लिपि

भारतीय संगीत शास्त्री अन्य कई बातों में भी पाश्चात्य संगीत कारों से कहीं आगे और प्रगतिशील थे। भारतीयों ने ऐक ‘सप्तक’ ( सात स्वरों की क्रमबद्ध लडी – ‘सा री ग म प ध और नि को 22 श्रुतियों (इन्टरवल) में बाँटा था जब कि पाश्चात्य संगीत में यह दूरी केवल 12 सेमीटोन्स में ही विभाजित करी गयी है। भारतीयों ने स्वरों के नामों के प्रथम अक्षर के आधार पर ‘सरगमें’ बनायी जिन्हें गाया जा सकता है। ईरानियों और उन के  पश्चात मुसलमानों ने भी भारतीय स्वर मालाओं (सरगमों) को अपनाया है। 

स्वरों की पहचान के लिये पाश्चात्य संगीतिज्ञों ने ग्यारहवीं शताब्दी में पहले ‘डो री मी फा सोल ला ती आदि शब्दों का प्रयोग किया, और फिर ‘ला ला’, ‘मम’ ‘ओ ओ’ आदि आवाजों का इस्तेमाल किया जिन का कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय समानता के विचार से अब पाश्चात्य संगीत के स्वर अंग्रेजी भाषा के अक्षरों से ही बना दिये गये हैं जैसे कि ‘ऐ बी सी डी ई एफ जी’ – लेकिन उन का भी संगीत के माधुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं। उन की आवाज की ऊँच-नीच और काल का अनुमान स्वर लिपि की रेखाओं (स्टेव) पर बने अनगिनित चिन्हों के माध्यम से ही लगाया जाता है। इस की तुलना में भारतीय स्वर लिपि को उन की लिखावट के अनुसार ही तत्काल गाया और बजाया जा सकता है। स्वरों के चिन्ह भी केवल बारह ही होते हैं। अन्य कई बातों में भी भारतीय संगीत पद्धति पाश्चात्य संगीत पद्धति से बहुत आगे है लेकिन उन सब का उल्लेख करना सामान्य रुचि का विषय नहीं है। 

भारतीय परम्पराओं का पश्चिम में असर

पाश्चात्य संगीत की थ्योरी के जनक का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तु को जाता है जो ईसा से 300 वर्ष पूर्व हुये थे। अब पिछले कई वर्षों से पाश्चात्य संगीतज्ञ्य भारतीय संगीत की परम्पराओं में दिलचस्पी ले रहे हैं। 22 श्रुतियों के भारतीय सप्तक को उन्हों नें 24 अणु स्वरों (माईक्रोटोन्स) में बाँटने की कोशिश भी करी है। वास्तव में उन्हों ने अपने 12 सेमीटोन्स को दुगुणा कर दिया है। उस के लिये ऐक नया की-बोर्ड (पियानो की तरह का वाद्य) बनाया गया था जिस में ऐक सफेद और ऐक काला परदा (की) जोडा गया था परन्तु वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। इस की तुलना में भारत के उच्च कोटि के वादक और गायक 22 श्रुतियों का सक्ष्मता के साथ प्रदर्शन करते हैं। सारंगी भारत का ऐक ऐसा वाद्य है जिस पर सभी माईक्रोटोन्स सुविधा पूर्वक निकाले जा सकते हैं। 

चतु्र्थ से छटी शताब्दी तक गुप्त काल में कलाओं का प्रदर्शन अपने उत्कर्श पर पहुँच चुका था। इस काल में संस्कृत साहित्य सर्वोच्च शिखर पर था और ओपेरानृत्य नाटिकाओं का भारत में विकास हुआ। इसी काल में संगीत की पद्धति का निर्माण भी हुआ। उसी का पुनरालोकन पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे ने पुनः आधुनिक काल में किया है जिसे अब हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति कहा जाता है। इस के अतिरिक्त दक्षिण भारत में कर्णाटक संगीत भी प्रचल्लित है। दोना पद्धतियों में समानतायें तथा विषमतायें स्वभाविक हैं।

भारतीय संगीत को जन-जन तक पहुँचाने में सिने जगत के संगीत निर्देशकों का प्रमुख महत्व है जिन में संगीतकार नौशाद का योग्दान महत्वशाली है जिन्हों ने इस में पाश्चात्य विश्ष्टताओं का समावेश सफलता से किया लेकिन भारतीय रूप को स्रवोपरि ही रखा।

भारतीय नृत्य कला

भारतीय नृत्य की गौरवशाली परम्परा ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है।  भारत का सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त नृत्य प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता काल की ऐक मुद्रा है जिस में ऐक नृत्याँगना को हडप्पा के अवशेषों पर नृत्य करते दिखाया गया है। भारत के लिखित इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से 200 ईसा पूर्व तक की कडी टूटी हुई है।

भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र अनुसार देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना करी थी कि वह संसार को ऐक ऐसी कला प्रदान करें जिस से वेदों का ज्ञान जनसाधारण में फैलाया जा सके। इस प्रकार शिव ने चारों वेदों से कुछ कुछ अंश ले कर ‘पँचम-वेद’ की रचना की जिसे ‘नाट्य’ कहा गया। शिव ने ऋगवेद से ‘नाद’, सामवेद से ‘स्वर’, अथर्व वेद से ‘अभिनय’ तथा यजुर्वेद से ‘गायन’ लिया। इसी लिये शिव को प्रदर्शन कलाओं का आराध्य देव माना जाता है।

शिव के अनुरोध पर पार्वती ने कोमल ‘लास्य’ शैली नृत्य का सृजन किया तथा असुर राजकुमारी ऊषा को इस की शिक्षा दी। ऊषा ने उस शैली को भारत के पश्चिमी भाग में प्रचिलित किया। इस शैली का प्रथम लास्य नृत्य इन्द्र के विजय-ध्वजारोहण समारोह पर किया गया था। असुरों ने जब वह नृत्य देखा तो उन्हों ने इसे नयी युद्धघोषणा समझ लिया तथा उन्हें ब्रह्मा जी ने समझा बुझा कर शान्त किया। ब्रह्मा जी ने आदेश दिया कि भविष्य में लास्य नृत्य केवल पृथ्वी पर ही किया जाये गा।

विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर के साथ लास्य नृत्य किया था तथा मुद्राओं के दूारा उसी का हाथ उस के सिर पर रखवा कर भस्मासुर को भस्म करवाया था। कृष्ण ने भी कालिया नाग मर्दन के समय और गोपियों के साथ जो रास नृत्य किया था वह भी लास्य नृत्य का ही अंग माना जाता है। शिव का अन्य नृत्य ताँडव नृत्य होता है जिस में रौद्र भाव प्रधान होता है।

भरत मुनि रचित नाट्य-शास्त्र की परिभाषानुसार नाट्य कला में मंच पर प्रदर्शित करने योग्य सभी विषय नृत्य की श्रेणा में आते हैं जैसे कि नृत्य के साथ साथ नाटक और संगीत। संगीत का नाट्य के साथ योग अवश्य है क्यों कि इस का नाटक में बहुत महत्व है।

नाट्य शास्त्रानुसार नृतः, नृत्य, और नाट्य में तीन पक्ष हैं –

  • नृतः केवल नृत्य है जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं। यही आजकल का ऐरोबिक नृत्य है।
  • नृत्य में भाव-दर्शन की प्रधानता है जिस में चेहरे, भंगिमाओं तथा मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है।
  • नाट्य में शब्दों और वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है।

भारत में कई शास्त्रीय नृत्य की की शैलियाँ हैं जिन में ‘भरत-नाट्यम’, ‘कथक’, ‘कथकली’, ‘मणिपुरी’, ‘कुचीपुडी’ मुख्य हैं लेकिन उन सब का विस्तरित वर्णन यहाँ प्रसंगिक नहीं।

इस के अतिरिक्त कई लोक नृत्य हैं जिन में गुजरात का ‘गरबा’, पंजाब का ‘भाँगडा’ तथा हरियाणा का ‘झूमरा’ मुख्य हैं। सभी लोक नृत्य भारतीय जन जीवन के किसी ना किसी पक्ष को उजागर करते हैं प्रमाणित करते हैं कि भारतीय जीवन पूर्णत्या संगीत मय है। 

चाँद शर्मा

39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

35. भारत का भौतिक ज्ञान


दार्शिनक्ता और वैज्ञानिक्ता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ‘दार्शनिक’ आविष्कारों की कल्पना करता है जिसे ‘वैज्ञानिक’ साकार कर देता है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के जन्मदाता अरस्तु आदि भी दार्शनिक ही थे। विचार आविष्कारों से पूर्व उजागर होते हैं तथा दीर्घायु होते हैं। तकनीक विचारों को साकार करती है किन्तु उस में बदलाव तेजीं से आते हैं। नयी तकनीकें पुरानी तकनीकों का स्थान ले लेती हैं जैसे कि ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये आवाज को विद्युत तरंगों में बदल देने का विचार आज भी पुरातन है किन्तु उसे भेजने की तकनीक तार से आरम्भ हो कर, बेतार, मोबाईल फोन, सैटेलाईट चैनल आदि के कितने ही रूप ले चुकी है। दार्शनिक विचारों की कल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं।

भौतिक ज्ञान का आरम्भ 

आज भौतिक शास्त्र की पुस्तकों में पढाया जाता है कि “पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें ठोस, तरल, और गैस की श्रेणी में में रखा जा सकता है”। यह पदार्थों का केवल दिखावटी तथ्य है। आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है। 

वैदिक साहित्य में भौतिक ज्ञान

प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (प्रापरटीज), का वर्णन भी दिया गया है।

अथर्व वेद के अनुसार जगत में सात ‘तत्व’ – धरा, जल, तेज, वायु, क्षितिज, तन्मात्रा, और घमण्ड हैं। उन के अतिरिक्त तीन ‘गुण’ सत्तव, रज और तम हैं। इन्हीं सात पदार्थों और तीन गुणों के मिश्रण से 21 ‘पदार्थों’ की रचना होती है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, और मन, यह नौ ‘द्रव्य’ हैं जिन की विशेषतायें भौतिक शास्त्र की वैज्ञानिक भाषा में ही इस प्रकार से व्यक्त की गयी हैं –

पृथ्वी पृथ्वी में गन्ध, रस, रुप और स्पर्श चार गुण (प्रापरटीज) हैं जिन में से गन्ध मुख्य है।

जल – जल में रस, रूप और स्पर्श तीन गुण हैं जिन में से रस मुख्य है। जल की पहचान शीत स्पर्श है। जल में जो ऊष्णता होती है वह अग्नि की है।

अग्नि अग्नि की पहचान स्पर्श है, रूप और स्पर्श दो गुण हैं जिन में से रूप मुख्य है।

वायु – वायु की पहचान ऐक विलक्षण स्पर्श हैं।

आकाश – आकाश की पहचान शब्द है। जहाँ शब्द है वहाँ आकाश भी है। आकाश का कोई शरीर नहीं। कर्ण छिद्र के अन्दर का आकाश स्रोत्र है।

काल काल सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है जैसे – ‘यह जल्दी हो गया’ और ‘वह देर से हुआ’ आदि। व्यवहार के लिये पल, घडी, दिन, महीना, वर्ष, युग, भूत भविष्य और वर्तमान आदि अनेक भेद कल्पना से कर लिये जाते हैं।

दिशा व्यवहार के लिये दिशायें दस प्रकार की हैं जो काल की तरह ही सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होती हैं।

आत्मा आत्मा की पहचान चैतन्य ज्ञान है। ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं क्यों कि किसी इन्द्री के नष्ट हो जाने पर भी उस के पहले अनुभव किये हुए विषय की समृति रहती है। अनुभव करने वाला इन्द्रियों से भिन्न है। इच्छा, देूष, प्रयत्न, सुख दुःख भी शरीर से अलग हो कर आत्मा की पहचान कराते हैं।

मन मन इन्द्रियों की तरह सुख दुःख के ज्ञान का साधन है।

शुष्क वैज्ञानिक तथ्यों को मनोरंजक कथाओं के माध्यम से जन साधारण तक पहुँचाना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैं जैसे किः-

  • कृषि, चिकित्सा, खगोल तथा गणित, अंकगणित, और साँक्रमिक आदि से सम्बन्धित तथ्यों का भौतिक ज्ञान ऋगवेद 1-71-9,4-57-5 तथा सामवेद 121 में संकलित है। इस ज्ञान के प्रयोग से जन साधारण के दुःख दूर किये जा सकते हैं। (ऋगवेद 1-34-1 से 5, 5-77-4)
  • जल, वायु तथा अग्नि की विशेषतायें तथा विमानों और वाहनों के निर्माण के लिये उन के प्रयोग के बारे में उल्लेख किया गया है। (ऋगवेद 1-3-1,2,1-34-1,1-140-1)
  • अणु कणों, ईश्वर्य शक्ति तथा उस के गुणों के पदार्थों में समावेश के बारे में ऋगवेद 5-47-2 तथा सामवेद 222 में उल्लेख किया है।
  • भौतिक ज्ञान सम्बन्धी परिभाषायें तथा गुण यजुर्वेद 18-25 में उल्लेखित हैं।
  • आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का मत है कि सूर्य कि किरणें सीधी रेखा के विपरीत कमान की भाँति धरती पर उतरती हैं। यही तथ्य हमारे पूर्वजों ने कलात्मिक ढंग से बताया है – भुजंगनः मितः सप्तः तुर्गः – कि सूर्य  के रथ को सर्पों से बन्धे हुये सात घोडे खींच कर चलते हैं। सर्प सीधी लाईन में नहीं चलते टेढें मेढे़ चलते हैं।
  • सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। इसी प्रकार उन्हों ने रौशनी के सम्बन्ध में कहा है कि सूर्य की श्वेत किरणों में ही सात रंग छिपे होते हैं। अथर्व वेद में कहा है सप्तः सूर्य्स रसम्यः।
  • ऋगवेद’ में सूर्य के प्रकाश की गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य का प्रकाश आधे निमिष में 2 ,202 योजन की यात्रा करता है। एक योजन लगभग 9 मील के बराबर है जिस के अनुसार यह गति 185793.75 मील होती है जब कि सूर्य के प्रकाश की आधुनिक वैज्ञानिक गणना 187372 मील है।  
  • तरल रूप में जल, गैस रूप में बादल बन कर वर्षा करता है। पर्वत शिखरों पर ठोस रूप में बर्फ भी जल का परिवर्तित रूप है – यजुर्वेद
  • अग्नि दृष्यमान है। पृथ्वी पर अग्नि ज्वाला, लावा, और भस्म के रूप में स्थित है। आकाश में सूर्य, बादलों में विद्युत तथा जल में बडवा नल, वृक्षों में दावानल तथा देह में जीवन का रूप है। शक्ति रूप और स्थान बदलती है। अग्नि सभी वस्तुओं को शुद्ध करती है। (यजुर्वेद)
  • यद्यपि तम (अन्धेरा) काले रंग का है और चलता हुआ प्रतीत होता है तथापि उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। ‘प्रकाश का अभाव’ ही तम है। प्रकाश के ना होने से न दीखना ही उस में कालापन है। प्रकाश के आगे आगे चलने से ही अन्धेरा चलता हुआ प्रतीत होता है जैसे मानव के चलने से उस की छाया चलती हुई प्रतीत होती है।

भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान

भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।

अणु शक्ति – वैशिसिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु (ऐटम) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता ऐक ही स्त्रोत्र से हैं केवल मात्रा में फर्क है। जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु ऐक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

ध्वनि और रौशनी – सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते रहै कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। छटी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें  अलग अलग गति से निकलती हैं।

चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (इको) भी रहती है। वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।

आकर्षण शक्ति की खोज

यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।

  1. आर्य भट्ट सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को जानकारी दी थी  किः-
  • कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  • तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  • पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  • उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।
  • आर्य भट्ट में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन उल्लेख की है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। ऐक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञायानिकों की गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञायानिकों की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
  1. ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी)  ने नेगेटिव अंकों  तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
  2. वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है स्दैव चमकता है और शेष आधा भाग स्दैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
  3. भास्कर आचार्य भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः –

            मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

                      आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या

                                आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से ऐक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व ‘सिद्धान्त-शिरोमणि’ में दर्शाया जा चुका था।

ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है। 

चाँद शर्मा

31 – उच्च शिक्षा के संस्थान


हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय हिन्दू जीवन में जिज्ञासा को स्दैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

ज्ञान अर्जित की परिक्रिया

प्राथमिक ज्ञान माता-पिता के संरक्षण और घर के वातावरण में यम-नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्मों से शुरू होता था।

गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे कि पहले से रजिस्ट्रेशन कर के गुरू मन्त्र शिष्यों कान में पढे जायें ताकि कोई दूसरा उसी अच्छी बात को सुन ना ले। ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे। गुरू अपने शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।

ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे इकठ्ठे करना नहीं होता था बल्कि विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –

  • श्रृवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर गृहण करना,
  • मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
  • निद्यासना – ज्ञान को जीवन में क्रियात्मिक करना।

दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।

  • जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था।
  • जो दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
  • इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था। 

स्नात्कों का सम्मान

विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों में प्रमाणपत्र देने का रिवाज उस समय नहीं था, परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण थाः-

  • ‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
  • ‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
  • ‘आदित्य’ -44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।

आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कह सकते हैं। कालान्तर वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क टूट गया। 

ज्ञान की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता

वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महाकाव्यों के अतिरिक्त भारत में विद्या पढने पढाने का प्रावधान वैदिक काल से ही सक्षम मापदण्डों के आधार पर स्थापित हो चुके थे। जिस समय पृथ्वी के अन्य भागों में सभ्यता वनों से गाँवों की ओर जाने का केवल प्रयत्न मात्र ही कर रही थी उस समय से पूर्व भारत के ऋषि मुनियों, अशविनों (वैज्ञानिको) तथा बुद्धिजीवियों ने धरती को माप लिया था। उस से भी आगे उन्हों ने वर्ष को मासो, ऋतुओं, पखवाडों, दिवसों, पलों एवम विपलों (नेनो सैकिण्डों) में बाँट लिया था और आज का विज्ञान उन्हीं खोजों की पुष्टि मात्र ही कर रहा है। वेद ज्ञान केवल अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान ही नहीं है बल्कि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। ऋगवेद के कथन अनुसार विज्ञान के ज्ञान तथा उस के प्रत्यक्ष क्रियात्मिक प्रयोग के बिना दारिद्रता को समृद्धी में बदलना असम्भव है।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व ऐलोपैथी नाम का कोई विज्ञान विश्व में नहीं था परन्तु आयुर्वेद पद्धति से जटिल रोगों का भी  सफल उपचार होता था। जब विश्व की अन्य मानव जातियों को पृथ्वी के महादूीपों और महासागरों के बारे में ही पूर्ण जानकारी नहीं थी और वह जानवरों की खाल पहन कर खोह और गुफाओं में रहते थे और केवल मांसाहार पर ही निर्भर हो कर डार्क ऐज में जीवन व्यतीत कर रही थी तब भी वैदिक ज्ञान की पूर्णत्या वैज्ञिानिक धारणाओं के प्रमाण लिखित रूप में भारत को ज्ञात थे, उदाहरण स्वरूप जैसे किः-

  • सूर्य कभी उदय नहीं होता ना ही वह अस्त होता है। पृथ्वी सूर्य की परिकर्मा करती है जिस से सूर्योदय तथा सूर्यास्त का आभास होता है। (सामवेद 121)
  • सौर मण्डल के ग्रहों में आपसी ध्रुवाकर्षण के कारण पृथ्वी स्थिर रहती है  (ऋगवेद 1-103-2,1-115-4, 5-81-2)
  • पृथ्वी की धुरी को कभी ज़ंग नहीं लगता जिस पर पृथ्वी सदा घूमती रहती है। (ऋगवेद 1-164 – 29)
  • ऋगवेद में समय की गति का कालचक्र दिया गया है तथा भौतिक ज्ञान, कृषि विज्ञान, खगोल शास्त्र, गणित और अंक गणित का विवर्ण है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ग, चौदह भवनों, लोकों तथा छः महादूीपों, चार महासागरों का वर्णन मिलता है जो आज प्रत्य़क्ष रूप मे विद्मान हैं। भारत के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य की परिकर्मा के मार्ग को पहचाना, अन्य गृहों की गति की विस्तरित तथा प्रमाणित जानकारी दी और उन के पृथ्वी पर पडने वाले प्रभावों का आंकलन कर के उस ज्ञान को मानव के दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड दिया था।

प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों मे नव गृहों का आवाहन कर के उन को पूजित करना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि प्राचीन खगोल शास्त्री हमारे सौर मण्डल के सभी गृहों की गति, दशा, मार्ग और उन के प्रभाव को ना केवल जानते थे बल्कि उन के दुष्प्रभाव को दूर करने के उपाय भी विभिन्न प्रकार के रत्नों से करने में सक्षम थे। समस्त संसार में राशि चक्रों (ज़ोडेक साईन) का जो चित्रण भारत की जन्त्ररियों में देखने को उपलब्द्ध है वही आँकडे (डाटा) नासा की स्टार अलामेनिक में भी आज छपते हैं।

भारत के विशेषज्ञ्यों ने पदार्थों की भौतिकता, पशु पक्षियों की पैत्रिक श्रंखला, और वनस्पतियों तथा उन के बीजों का भी पूर्ण आँकलन किया था। वाल्मिकि रामायण में सभी जीवों की उत्पति तथा श्रंखला का विवरण दिया गया है जो पूर्णत्या विवेक संगित है और डारविन को भी अपनी खोज पर पुनः विचार करने की सलाह दे सकता है।

विज्ञान, चिकित्सा, तथा गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत की देन अदिूतीय है। भाषा, व्याकरण, धातु ज्ञान, रसायन, तथा मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत का योगदान सर्वाधिक है। यह तथ्य उस काल के हैं जब यूनान के दार्शनिक अरस्तु (एरिस्टोटल), सुकरात (सोक्रेटस), अफलातून (प्लेटो) आदि पैदा भी नहीं हुये थे लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार में उन्हें ही आधुनिक ज्ञान विज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है। .           

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान

प्राचीन भारत में शिक्षा के संस्थानों को गुरुकुल, आश्रम, विहार तथा परिष्द के नाम से जाना जाता था। ऐसे संस्थान देश भर में फैले हुये थे। राज तन्त्र की सहायता से विद्यार्थियों को बिना शुल्क परिशिक्षण तथा रहवास की सुविधायें प्राप्त थीं। उच्च शिक्षा के लिये तक्षशिला, काशी, विदर्भ, अजन्ता, नालन्दा, तथा विक्रमशिला (मगद्ध) में विश्विद्यालय थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। उच्च कोटि के आचार्यों, शिक्षकों, स्नातकों के नाम इन विश्वविद्यालयों से जुडे हुये हैं जिन में से व्याकरण रचिता पाणनि, शल्य चिकित्सा शास्त्री चरक, तथा नीतिज्ञ विष्णुगुप्त चाणक्य विश्विख्यात हैं। यह सभी अपने अपने ज्ञान क्षेत्रों मे यूनान तथा पाश्चात्य जगत के बुद्धि जीवियों के अग्रज थे। कुछ विश्वविख्यात विश्विद्यालय इस प्रकार थेः-

  • तक्षशिला – ईसा के जन्म से सात सौ वर्ष पूर्व विश्व का प्रथम विश्विद्यालय तक्षशिला में स्थापित किया गया था। यह हिन्दू स्नात्कों का अग्रगामी शैक्षिक प्रतिष्ठान था। सिकन्दर महान के समय से पूर्व ही यह चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐक  ख्याति प्राप्त केन्द्र था। तक्षशिला में 10500 स्नात्कों के रहने का प्रबन्ध था तथा वहाँ 60 प्रकार के विषयों मे उच्च शिक्षा की व्यव्स्था थी। मुख्यता धर्म, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विज्ञान, गणित, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, राजनीति तथा संगीत शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने हेतु  बेबीलोन, यूनान, इराक, अरब, ईरान, सीरिया तथा चीन के छात्र आते थे।
  • विक्रमशिला – मगद्ध में गंगा तट पर स्थित विक्रमशिला प्रतिष्ठान खगोल शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था। वहां 8000 शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष तक फलता रहा। महाकवि कालीदास नें वहाँ के प्रशिक्षण के बारे में उल्लेख किया है तथा वहाँ काण्व ऋषि प्रकख्यात प्राचार्य कुलपति (वाईस चाँसलर) थे। 
  • अजन्ता – अजन्ता प्रतिष्ठान कला तथा वास्तु शास्त्र के लिये विश्व विख्यात था तथा आज भी वहाँ की भव्य कला कृतियाँ प्रमाण स्वरूप दर्शनीय हैं।
  • नालन्दा – नालन्दा विशवविद्यालय की स्थापना ईसा के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी तथा भारत में शिक्षण क्षैत्र का यह ऐक अदिूतीय कीर्तिमान था। अपने जीवनकाल में महात्मा बुद्ध कई बार नालन्दा गये थे। सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ऐवम बुद्धिजीवी फाह्यान भी नालन्दा में ठहरे थे तथा उन्हों ने वहाँ के .योगियों के पवित्र, सरल, कुशल प्रशिक्षण पद्धति का विस्तरित वर्णन अपने उल्लेखों में दिया है। नालन्दा में लगभग 2000 शिक्षक तथा विश्व भर के समस्त बुद्ध देशों से 10000 शिक्षार्थी रहते थे और यह विश्व स्तर का प्रतिष्टान था। यहां के प्राचार्यों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुभान्दु, असंगा, स्थिरमति, धर्मपाल, शिल्प्हद्र, शान्तिदेव, तथा पद्मसम्भव जैसे प्रकाणड विदूान उल्लेखनीय हैं।
  • ओदान्तपुरी – ओदान्तपुरी विशवविद्यालय भी नालन्दा के निकट था जिसे महाराज गोपाल ने स्थापित किया था जहाँ 12000 शिक्षार्थी शिक्षा पाते थे। मुस्लिम आक्राँताओं ने इस के चारों ओर बनी ऊँची चार दिवारी के कारण विशवविद्यालय को दुर्ग समझ कर ध्वस्त कर दिया और स्नातकों तथा आचार्यों को मार डाला।
  • जगद्दाला – जगद्दाला विशवविद्यालय राजा देवपाल (810-850) ने स्थापित किया था जहाँ बुद्धमत की तान्त्रिक पद्धति की शिक्षा दीक्षा होती थी। 1027 में मुस्लिम आक्राँताओं ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
  •  वल्लभी – वल्लभी विशवविद्यालय में बौध ह्यीनयान मत के अतिरिक्त राजनीति, कृषि, अर्थशास्त्र, और न्याय शास्त्र के पाठ्यक्रम की शिक्षा का प्रावधान था। इसे मैत्रिका वंश के राजाओं ने स्थापित किया था।

 विश्व ज्ञान को योगदान

आज हम आक्सफोर्ड, कैमब्रिज और हारवर्ड आदि विश्वविद्यालयों के नाम से प्रभावित हो कर भूल जाते हैं कि भारत में उन से भी भव्य विश्वविद्यालय थे। गुप्त वँश के सम्राटों ने भी बहुत से शिक्षा प्रशिष्ठानों को संरक्षण दिया तथा सम्राट अशोक और हर्ष वर्द्धन ने भी अपने शासन काल में मोनास्टरियों को संरक्षण प्रदान किया था।

भारत के विश्वविद्यालयों का मानव ज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। वहाँ के स्नात्कों, आचार्यों तथा बुद्धिजीवियों ने विद्या, कला और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अमूल्य तथा मौलिक योग दान दिया है जिस का प्रयोग आधुनिक वैज्ञानिक मानव विकास के लिये आधुनिक तकनीक और उपक्रमों से कर रहे है। कला और विज्ञान के हर क्षेत्र से सम्बन्धित मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे जिन में से अधिकाँश आज भी उप्लब्द्ध तथा प्रासंगिक हैं।

 दुर्भाग्य से शिक्षा के कई महान संस्थान धर्मान्धता के कारण मुसलिम लुटेरों ने ध्वस्त कर दिये। उन्हों ने सभी मोनास्टरीयों को और शिक्षण परिष्ठानों को नष्ठ कर डाला था। नालन्दा विश्वविद्यालय को 1193 में बख्तियार खिलजी ने जला दिया था और वहाँ के सभी बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। उसी प्रकार अन्य विश्वविद्यालय विनाशग्रस्त हो गये। मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे ‘कुफर’ की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। आज नालन्दा विशवविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का विचार अवश्य ही सराहनीय है।  

चाँद शर्मा

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

10 – हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ


हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। हिन्दू धर्म ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है। यह प्रत्येक हिन्दू की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, या कुछ एक को, अथवा सभी को पड़े, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है। सारांश यह कि हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठना बाध्य नहीं है।

संक्षिप्त समझने के लिये हिन्दूओं की प्राचीन पुस्तकों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः –

  • यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ
  • महा काव्य तथा इतिहास
  • सामाजिक ग्रंथ

1.    यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ


चार वेद ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्व-वेद तथा साम वेद स्नातन धर्म के मूल ग्रंथ हैं जो किसी एक ग्रंथाकार ने नहीं लिखे, अपितु कई परम ज्ञानी ऋषि मुनियों के अनुसंधान तथा उन की अनुभूतियों के संकलन हैं। वैदिक ज्ञान ऋषियों पर ईश्वर कृपा से उसी प्रकार प्रगट हुआ था जैसे साधारण मानव कुछ लिखने के लिये जब ऐकाग्र हो कर विचार करते हैं तो विचार अपने आप ही प्रगट होने लगते हैं। इस अवस्था को ईश्वरीय प्रेरणा कहा जाता है।

हिन्दूओं की आस्था है कि वैदिक ज्ञान ऋषियों को लिपि के स्वरूप में प्राप्त हुआ था। हो सकता है ऐसा विशवास किसी को अटपटा भी लगे किन्तु आज के युग में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कम्पयूटरों के माध्यम से साधारण मानव भी सम्पादित लेख लिपि की शक्ल में एक साथ कई स्थानों पर भेज सकते हैं तथा उस का छपा हुआ संस्करण प्राप्त भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटरों का साईज़ भी दिन प्रति दिन छोटा होता जा रहा है। टच स्क्रीन पर तो केवल छू कर ही वाँच्छित ज्ञान फारमेटिड रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अतः वैदिक ऋषियों को यदि लिपि के स्वरूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था तो यह अविशवास की बात भी नहीं। तकनीक बदलती रहती है लेकिन कानसेप्ट तो आज भी वही है। कुछ और समय पश्चात हिन्दूओं की वैदिक आस्था अपने आप ही और स्पष्ट हो जाये गी क्यों कि सर्व शक्तिमान ईश्वर के शब्द कोष में वैज्ञयानिकों वाला असम्भव शब्द नहीं होता।

वैदिक ज्ञान पहले तो श्रुति के रूप में गुरू-शिष्य सम्पर्क से वितरित होता रहा, पश्चात मर्हृषि वेद व्यास ने उस ज्ञान को लिखित रूप में संकलित किया। लिखित ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। कमप्यूटर की भाषा में आज कल वेद हार्ड कापी में भी उपलब्द्ध हैं।

वैदिक ज्ञान केवल अध्यात्मिक ही नहीं अपितु उन सभी विषयों के बारे में था जो जीवन को प्रभावित करते हैं। वेदों में भौतिक, रसायन, राजनीति, कला-संस्कृति तथा अन्य कई विषय़ों पर मौलिक ज्ञान संचित है जो ऋषियों ने निजि अविष्कारिक यत्नों तथा अनूभूतियो सें संचित किया था। यह ज्ञान सूत्रों में उपलब्ध कराया गया है। आज की भाषा के एक्रोनिम्स की तरह सूत्रों की शैली सूक्ष्म होती है तथा स्मर्ण रखने के लिये सहायक होती है। किन्तु सूत्रों को विस्तार से पुनः व्याख्या कर के समझना पड़ता है।

वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औषधियों को सम्बोधन कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग कालान्तर अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जान कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था। संक्षेप में चार वेदों का मुख्य विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैः –

  • ऋगवेद ऋगवेद में अध्यात्मिक (स्पिरचुअल), मौलिक ज्ञान (फन्डामेंटल साईंस), विज्ञान (एप्लाईड साईंस), सृष्टि का भौतिक ज्ञान ( एस्ट्रो-फिज़िक्स) तथा प्रशासनिक (गवर्नेंस) आदि विषय वर्णित हैं।
  • यजुर्वेद यजुर्वेद में संसारिक, सामाजिक नीतियों, परम्पराओं, अधिकारों तथा कर्तव्य़ों की मौलिक रूप रेखा है। ऐक प्रकार से यह प्रोसीजुरल विषयों का ग्रंथ है।
  • साम वेद सामवेद में आराधना, दार्शनिक्ता, योग ज्ञान, तथा कलात्मिक विषय जैसे कि संगीत आदि वर्णित हैं।
  • अथर्व-वेद अथर्व वेद में चिकित्सा तथा शरीर सम्बन्धी विषय वर्णित हैं।

उप वेद प्रत्येक वेद के एक या एक से अधिक कई उप वेद हैं जिन में मूल अथवा अन्य विषयों पर अतिरिक्त ज्ञान है। उप वेदों के अतिरिक्त छः वेद-अंग भी हैं जो वेदों को समझने में सहायक हैं।

उपनिष्द – वेदों के संकलन के पश्चात भी कई ऋषियों ने  अपनी अनुभूतियों से ज्ञान कोष में वृद्धि की है। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना तथा उस में संशोधन भी किया है। इस प्रकार के ज्ञान को उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित किया गया है। उपनिष्दों की मूल संख्या लग भग 108 – 200 तक थी, किन्तु यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं की धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिया गया था। आज केवल 10 उपनिष्द ही उपलबद्ध हैं।

षट-दर्शन सृष्टि के आरम्भ से ही मानव निजि पहचान, सृष्टि, एवं सृष्टि कर्ता के बारे में जिज्ञासु रहा है और उन से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर ढूंडता रहा है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों की खोज ने ही हिन्दू आध्यात्मवाद की दार्शनिक्ता को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने अपनी अन्तरात्मा में झांका तथा सूक्ष्मता से गूढ मंथन कर के तथ्यों का दर्शन किया। प्रथक – प्रथक ऋषियों ने जो संकलन किया था उसी के आधार पर छः प्रमुख विचार धाराओं को षट-दर्शन कहा जाता है, जो भारतीय दार्शनिक्ता की अमूल्य धरोहर हैं। दर्शन शास्त्रों में बहुत सी समानतायें हैं क्योकि उन का मूल स्त्रोत्र उपनिष्द ही हैं।

2.    महा काव्य तथा इतिहास

प्राचीन काल में कवि ही महाकाव्यों के माध्यम से इतिहास का संरक्षण भी करते थे। भारत में कई महाकाव्य लिखे गये हैं। उन में रामायण तथा महाभारत का विशेष स्थान है। क्योंकि रामायण तथा महाभारत ने भारत के जन जीवन तथा उस की विचार धारा को अत्याधिक प्रभावित किया है।

रामायण – रामायण  की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की है तथा यह विश्व साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महा काव्य है। रामायण की कथा भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा है। राम का चरित्र कर्तव्य पालन में एक आदर्श पुत्र, पति, पिता तथा राजा के कर्तव्य पालन का प्रत्येक स्थिति के लिये एक कीर्तिमान है।  महा काव्य में केवल राम का पात्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का है और रामायण के अन्य पात्र मानव गुणों तथा अवगुणों की दृष्ठि से सामान्य हैं। वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा ले कर कई कवियों ने राम कथा पर महाकाव्यों की रचना की जिन में से गोस्वामी तुलसीदास कृत हिन्दी महा काव्य राम चरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय है। रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही एकमात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है। रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है तथा भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो।

महाभारतमहाभारत विश्व साहित्य का सब से विस्तरित ऐतिहासिक महाकाव्य है। मुख्यतः इस ग्रंथ में भारत के कितने ही वंशों की कथा को पिरोया गया है जो तत्कालित समय की घटनाओं तथा जीवन शैली का चित्रण करता है। इस महाकाव्य में हर पात्र मुख्य कथानक में निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ता है तथा मानव जीवन की उच्चता और नीचता को दर्शाता है। रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। रामायण और महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। जहाँ रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्र में विचरता है वहीं महाभारत का पटाक्षेप समस्त भारतवर्ष में फैला हुआ है। इस से प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक विस्तर्ति राष्ट्र था।

पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाओं में भी हिन्दू धर्म के विकास को भारत के राजनौतिक इतिहास तथा जन-जीवन की कथाओं के साथ संजोया गया है। पौराणिक कथायें देवी-देवताओं, महामानवों तथा जन साधारण के परस्पर सम्पर्कों का अदभुत मिश्रण हैं। कुछ कथायें यथार्थ में घटित एतिहासिक हैं तथा कुछ को बढा चढा कर भी दिखाया गया हैं। भारत का प्राचीन इतिहास आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अतः उस को पुनः ढूंडने के लिये पौराणिक इतिहास को आधार बना कर अन्य लिखित एतिहासिक कृतियों से तुलनात्मिक आंकलन किया जा सकता है। यदि हम पौराणिक कथाओं को इतिहास ना भी माने तो भी वह अपने आप में ऐक अमूल्य साहित्यक धरोहर हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिये।

3.    सामाजिक ग्रंथ

सामाजिक जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर कई मौलिक तथा विस्तरित ग्रंथ उपलब्ध हैं जैसे कि आयुर्वेद, व्याकरण, योग शास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि। उन सभी का वर्णन इस समय प्रासंगिक नहीं अतः केवल दो ही ग्रंथों को संक्षेप में यहाँ वर्णित किया है जिन्हों ने ना केवल भारतीय जीवन को अपितु समस्त विश्व के मानव जीवन को अत्याधिक प्रभावित किया है।

श्रीमद् भागवद् गीता मानव जीवन के हर पहलू से जुड़ी श्रीमद् भागवद् गीता सब से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथ है जो आज भी हर परिस्थिति में अपनाने योग्य है। गीता समस्त वैदिक तथा उपनिष्दों के ज्ञान का सारांश है तथा सहज भाषा में कर्तव्यपरायणता की शिक्षा देती है। यदि कोई किसी अन्य ग्रंथ को ना पढ़ना चाहे तो भी पूर्णतया सफल जीवन जीने के लिये केवल गीता की दार्शनिक्ता ही पर्याप्त है।

मनु स्मृति – मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं और संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्ष्म ग्रंथ अन्य. किसी भाषा में नहीं है।

हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को सभ्यता का अग्रज तथा विश्व गुरू माना जाता है।  किन्तु आज अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम पद्धति से पढ़े लिखे भारतीय युवाओं को अज्ञान के कारण अपने पूर्वजों पर गर्व और विशवास नहीं, और अपने आप पर भरोसा और साहस भी नहीं कि वह इस अनमोल विरासत को पुनः विश्व पटल पर सुशोभित कर सकें। वह मानसिक तौर पर प्रत्येक तथ्य को पाश्चात्य मापदण्डों से ही प्रमाणित करने के इतने ग़ुलाम हो चुके हैं कि मौलिक ग्रन्थ को अंग्रेज़ी प्रतिलिपि के आघार पर ही प्रमाणित करने की माँग करते हैं।

चाँद शर्मा

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