हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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शंकराचार्य तथा अन्य गुरू


“गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा ।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्मं, तस्मे श्री गुरवे नमः” ।।

आदि शंकराचार्य कि लिखे इस श्लोक का प्रयोग हमारे देश के आधुनिक गुरू-जन अपना प्रवचन शुरु करने से पहले करते हैं ताकि श्रोताओं को कोई गल्तफहमी ना रहै, वह इसी श्लोक को सुन कर आंखें बन्द करें, और क्षमता की परवाह किये बिना सामने बैठे गुरु को साक्षात ब्रह्मा, विष्णु या महेश की तरह  सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान और सर्व-व्यापक ईश्वर मान लें।

हिन्दू धर्माचार्यों की विमुखता

हिन्दूओं का दुर्भाग्य था हमारे धर्माचार्यों ने अपने आप को देश के राजनैतिक वातावरण से अलग थलग रख कर, अपने अध्यात्मिक उत्थान तथा मोक्ष की प्राप्ति में लगे रहै और कुछ ने अपने आर्थिक उत्थान की राह पकड ली।अगर हिन्दू धर्माचार्यों में राजनैतिक जागृति होती तो बटवारे के पश्चात उन्हें भारत को ऐक हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाने के लिये प्रयत्न करते रहना चाहिये था ताकि हिन्दू धर्म का सभी दिशाओं में बिखराव ना होता। घायल तथा बटवारे के कारण विक्षिप्त हिन्दू समाज धर्म निर्पेक्षता की ओर पलायन ना करता और हम मानसिक दिशा हीनता से बच जाते। आज हमारे सामने अल्प संख्यक तुष्टिकरण, धर्मान्तरण और कम्यूनिजम नक्सलवाद जैसी समस्यायें पैदा ना होतीं। इस दुनियां में कम से कम भारत ऐक हिन्दू देश के नाम का परचम लहराता। लेकिनदेश की विरासत को सम्भालने के बजाये धर्माचार्यों ने पूर्वज ऋषियों की सनतान कहलाने के बजाय गांधी को अपना ‘नया राष्ट्रपिता’मान लिया। धर्महीन नेहरू ने जब भारत के ‘स्वर्ण युग’को ‘गोबर युग’की उपाधि दी तो किसी धर्मगुरू ने आपत्ति नहीं जताई। सभी नेहरू परिवार की राजनैतिक अगुवाई के आगे नतमस्तक रहे और कई तो आज भी हैं। यहां तक कि जब सोनियां ने कहा “भारत हिन्दू देश नहीं है ”, राहुल ने कहा “भारत को सब से बडा खतरा भगवा आतन्कवाद से है”, और मनमोहन सिहं ने यह कह कर कि “देश के साधनों पर प्रथम हक अल्प-संख्यकों का है” उन के तुष्टिकरण के लिये सरकारी खज़ाने खोल दिये तो भी हमारे शंकराचार्य मौन साघे रहै। तुष्टिकरण के खर्चे का ‘जजिया टैक्स’अब सभी हिन्दू चुका रहै हैं।

चलो अब थोडे से गर्व की बात है इस निर्वाचन में कुछ धर्म गुरूओं ने राजनैतिक साहस बटोरा और अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की दिशा में खुल कर अपनी अपनी सोचानुसार राजनैतिक दलों का समर्थन भी किया। इस दिशा में पहल स्वामी राम देव ने करी। उन्हों ने योग को जनजन तक फैला कर योग का डंका दुनियां भर में बजवाया है लेकिन इनाम में उन्हे राजधानी दिल्ली के अन्दर ही जिल्लत के साथ त्रास्दी उठानी पडी। अधिकांश धर्माचार्यों ने राजनीति से मूहँ फैरना ही उचित समझा। अब स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती ने विधान सभा चुनावों से पहले वर्षों पुरानी सांई बाबा की पूजा पर प्रश्न चिन्ह लगाये हैं और उन के समर्थन में नागा साधु साईं भक्तों को सबक सिखाने के लिये तत्पर हो गये हैं। इस से हिन्दू समाज का विघटन होगा और ऐक नया हिन्दू विरोधी ‘साईं वोट बैंक’खडा हो जाये गा। इस से पहले स्वामी स्वरूपानन्द ने ‘हर हर मोदी’के नारे पर भी आपत्ति दर्ज करा कर अपनी राजनैतिक सोच जाहिर कर दी थी।

धर्माचार्यों का निजि राजनैतिक झुकाव जिधर भी हो लेकिन देश की धर्महीन राजनीति में उन का का प्रत्यक्ष योग्दान सराहनीय है और आशा है अल्पसंख्यकों की तरह अब हिन्दू भी अपनी आस्थाओं के आधार पर अपने ही देश में राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हों गे तथा अपने समाज की समस्याओं का निवारण राजनेताओं से अधिकार स्वरूप मांगे गे। धर्माचार्य भी हिन्दू समाज के प्रति उत्तरदाई हों गे।

हिन्दू धर्म का विग्रह

सिकन्दर के आक्रमण से पहले भारत में जैन और बौद्ध धर्म के विहार और मठ आदि बन चुके थे। समय के साथ साथ समाज में कई कुरीतियां, अन्ध विशवास और आकर्मणतायें भी फैल गयी थीं। देश छोटे छोटे राज्यों में बट गया था। उस समय तक्षशिला के ऐक साधारण आचार्य चाण्क्य ने राजनैतिक ऐकता फिर से देश में जगा का सत्ता परिवर्तन किया था जिस के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त मौर्य ने शक्तिशाली भारत का पुनर्त्थान किया। लेकिन सम्राट अशोक का शासन समाप्त होते ही शक्तिशाली भारत फिर से कमजोर हो गया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई राजा संन्यास ले कर भिक्षुक बन स्वेछा से मठों में रहने लगे थे।

कई नागरिक भी घर-बार, व्यवसाय, तथा कर्म त्याग भिक्षु बन के मठों में रहने लगे थे। मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू कर्म की वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे। क्षत्रीय युवाओं ने शस्त्र त्याग कर भिक्षापात्र हाथों में पकड लिये और पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया था।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

आज बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हमारे देश की सामाजिक और राजनैतिक कुरीतियों को दूर करने के लिये और हिन्दू समाज को फिर से ऐक करने के लिये केरल में जन्में आदि शंकराचार्य ने बहुत महत्व पूर्ण भूमिका निभाई थी। केवल 32 वर्ष के जीवन काल में ही आदि शंकराचार्य ने हिन्दू समाज को संगठित रखने के लिये समस्त भारत की पदयात्रा करी थी और देश के चारों कोनों में ऐक ऐक शंकराचार्य की अध्यक्षता में चार मठ स्थापित किये थे जो आज दूआरका, जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी और बद्रिकाश्रम के नाम से जाने जाते हैं।

यह आदि शंकराचार्य का प्रताप था कि गुप्त काल के समय भारत में हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ। इस काल को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। तब अंग्रेजी के बिना ही हर क्षेत्र में प्रगति हुई थी। संस्कृत साहित्य में अमूल्य और मौलिक ग्रन्थों का सर्जन हुआ था तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी थी। दुनियां में भारत का विश्वगुरू कि तरह आदर सम्मान था और भारत को ऐक सैन्य तथा आर्थिक महा शक्ति होने के कारण ‘सोने की चिडिया’कहा जाता था।

लेकिन गुप्त वँश के पश्चात देश में फिर से सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और कई छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी। कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे भी उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया। यह सब इतिहास में है सिर्फ  बासी याद्दाशत को ताजा करने के लिये संक्षेप में दोहराया है।

हमारे आधुनिक गुरू

आज फिर से हिन्दू धर्म के विघटन की जड यही ‘घर्म-गुरु’ हैं जिन्हें सिर्फ पैसा और बडे बडे आश्रम बनाने से मतलब है जहाँ वह अपना जीवन ऐश से गुजार सकें। यही गुरु आजकल आदि शंकराचार्य के श्लोक को रट कर हिन्दू समाज को गुमराह करने का काम करते हैं और अपने अपने चेलों को हिन्दू धर्म की मुख्य धारा से भटका कर उन्हें अपने बनाये हुये घटकों में बांट रहै हैं।अब तो यह महाठग ‘धर्म निर्पेक्ष’ बनने लग पडे हैं ताकि इन्हें ‘ग्लोबल मार्किट’ से चेले चेलियां मिल सकें। इन की दृष्टी में सिवाये इन के अपने घटक के, बाकी सभी धार्मिक औपचारितायें ढोंग होती हैं। इन में से अधिकतर कईयों ने किसी वेद, शास्त्र, उपनिष्द आदि का कोई अध्ययन नहीं किया होता और परम्परागत धर्म को नकारने के लिये सिर्फ ऊपर से चिकनी चुपडी बातें और मनघडंत कथायें सुनाते हैं।अपने ही नाम का कीर्तन कराते हैं,भक्तों से अपने चर्ण स्पर्ष करवाते हैं, गुरु दक्षिणा बटोरते हैं। अकसर गर्मियों में सैर करने अमेरिका आदि चले जाते हैं और वहाँ गुरुदक्षिणा डालरों में कमाते हैं। वहां उन्हों ने पहले सी ही अपने किसी स्थानीय भक्त को अपना ‘ऐजेन्ट’ मनोनीत किया होता है जो गुरू की फोटो रख कर गुरू महाराज का ‘प्री-रिकार्डिड’ प्रवचन और गीत सुनाता रहता है। इन गुरूजनो का देश के तत्कालिक आर्थिक,राजनैतिक, और प्रकृतिक विपदाओं से कोई सरोकार नहीं होता। इन का मकसद केवल अपने भक्तों की संख्या बढा कर अपने निजि धर्म की ब्रांचे खोलना मात्र ही होता है।

गुरूजनों का मेकअप उन की विदुत्ता और मानसिक्ता का प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब होता है। माथे पर कई रंगों के लेप, लम्बे काले (अकसर ‘डाई’ किये) बाल, भगवे रंग के बढिया डिजाईनर रेशमी कपडे, गले में मोटे मोटे रुद्राक्ष की मालायें,और हाथों में कई तरह की रत्न जडित चमतकारी अंगूठियां इन का सार्वजनिक पहरावा है। निजि रहवास और गाडी ऐयर कण्डीशन्ड होनी चाहिये। गुरू जी कंदमूल तो क्या, आम आदमियों के जैसा खाना नहीं खाते। उन के लियेभोजन बनाने और परोसने की जिम्मेदारी किसी खास चेला-चेली की रहती हैं। वह केवल ‘स्पेशल-प्रसाद’ से ही संतुष्ट हो कर जीवन बिताते हैं।आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टी से सामर्थवान चेले चेलियां ही गुरु महाराज से निजि तौर पर आशीर्वाद पा सकते हैं अन्य भक्तों को दूर से प्रणाम करने कहा जाता है। गीता ज्ञान बांटने के बावजूद साल में ऐक बार किसी आडिटोरियम में गुरू महाराज अपने चेलों से अपनी ‘नशवर देह’ का जन्मदिन भी मनवाते हैं।

नैतिक जीवन का ‘गुरूमन्त्र’ वह किसी ‘पासवर्ड’ की तरह अपने चेलों के कान में ही बताते हैं ताकि उस के ‘गुरूमन्त्र’ से किसी अन्य घटक के हिन्दू को फायदा ना पहुँचे और ‘ट्रेड-सीक्रेट’ बना रहै। सच पूछो तो इन धर्म गुरुओं का योग्दान आम हिन्दू समाज को कुछ नहीं है। यह केवल अपनी अपनी धर्म दुकाने चला रहै हैं और हिन्दू समाज को विघटन को और ले जा रहै हैं। अगर आज गुरु महाराज के पदचिन्हों पर सभी चलें – सिर, दाढी, मूंछ के बाल, माथे पर चन्दन का तिलक, और भगवे वस्त्र पहन कर सभी सरकारी कर्मचारी दफ्तरों में बैठ जायें तो इक्कीसवीं सदी में भारत की छवि का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

कोई हिन्दू नहीं जानता कि ऋषि वासिष्ठ, विशवमित्र या व्यास का जन्म कब हुआ था क्योंकि हमारे पुरातन ऋषि मुनि अपनी ‘मार्किटिंग’ करना नहीं जानते थे। किसी ऋषि-मुनि ने निजि ‘ब्रांड’ का समुदाय या घटक धर्म नहीं बनाया था। लेकिन इस तरह के पाखँडियों पर अंकुश लगाने, और समाज का सही दिशा में मार्गदर्शन करने के लिये आदि शंकराचार्य ने चारों मठों में ऐक ऐक शांकराचार्य की स्थापना करी थी।

आंकलन

क्या इस बात का आंकलन करना जरूरी नहीं कि जागरूक हिन्दू समाज की ऐसी दुर्दशा क्यों है। बहस होनी चाहिये कि आज की परिस्थिति में यह चारों शंकराचार्य हिन्दू समाज के उत्थान के लिये क्या योग्दान दे रहै है। चारों शंकराचार्य ने अपने अपने कार्य क्षेत्र में-

  • अन्धविशवास कुरीतियों, तथा हिन्दू विरोधी मिथ्या प्रचार के विरुध क्या किया है?
  • दलित समस्या, दहेज प्रथा, अन्य रीति रिवाजों या ड्रग, हिंसा, बलात्कार, तलाक, भ्रूण हत्या आदि के बारे में कभी कोई सक्षम सुझाव हिन्दू समाज को दिया है।
  • क्या कभी ‘वेलेन्टाईन-डे’ तरह की बाहरी कुरीतियों, ‘लिविंग-इन रिलेशनस’ आदि का सक्षम विरोध या समर्थन किया है।
  • मन्दिरों, प्राचीन धरोहरों और यात्रियों की सुवाधाओं की दिशा में भी क्या कोई प्रयत्न किया है।
  • आत्मा परमात्मा, भौतिक विज्ञान, आयुर्वेद या किसी अन्य विषय पर ने कोई ग्रंथ, ‘थियोरी ’ विश्व पटल पर रखी है ?
  • हिन्दू धर्म के प्रचार के लिये कितने पुस्तकालय या परिशिक्षण के लिये कोई कोर्स चलाये हैं ?
  • उच्च शिक्षा संस्थानों मेंभारतीय वैदिक संस्कृति के पाठन के लिये कोई ‘सिलेबस’ तैय्यार किया है जिसे प्रथम वर्ष से स्नातकस्तर तक क्रमशा ले जाया जा सके।इस का विशलेषण होना चाहिये कि क्या वह शिक्षा आधुनिक परिपेश की जरूरतों को ध्यान में रख कर दी जाये गी या सिर्फ ‘पौंगे-पण्डित’ ही तैय्यार करे गी। इस विषय पर आधुनिकता के माप दण्ड क्या और किस प्रकार निर्धारित किये जायें गे।
  • हिन्दू समाज को धर्मान्तरण और आतन्कवाद से सुरक्षित रखने के लिये उन्हों ने सरकार से क्या आशवासन मांगा है ?
  • जब दूसरे धर्मों के लोग ऐक वोट बैंक संगठित कर के इस देश में मनमाने तरीके से अपनी बात मनवा सकते हैं तो हिन्दू धर्म गुरू क्यों लाचार बने बैठे हैं?

आज के हिन्दू समाज में आम तौर पर यह धारणा है कि इन घटक गुरूओं की तरह हमारे शंकराचार्य भी केवल मठों तक ही सीमित हैं और आदि शंकराचार्य के युग में ही जी रहै हैं। आदि शंकराचार्य ने तो पैदल ही समस्त भारत के दूर दराज इलाकों का भ्रमण किया था परन्तु आज के जमाने में यातायात की सुविधायें होने के बावजूद हमारे आधुनिक शंकराचार्य सांप की तरह कुण्डली मार कर अपने मठों में ही जमे रहते हैं जबकि हिन्दू समाज धर्म निर्पेक्षता के बहाने तेजी से पलायनवाद की और जा रहा है। यह जरूरी है कि शंकराचार्य के योग्दान का हिन्दू समाज की जानकारी के लिये और इस संस्थान का आदर्श स्थापित करने के लिये आंकलन कर के प्रचारित किया जाये और हिन्दू धर्म गुरू परदे सा बाहर निकल कर धर्म रक्षा के लिये मैदान में खुले आम आयें।

चाँद शर्मा

 

 

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

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