हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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18 – आदर्श जीवन का निर्माण


स्वयं जीना पशुता है और दूसरों को भी जीने देना ही धर्म है। यही मानव धर्म का मूलमंत्र है। सात्विकिता तथा आदर्शों के बिना हिन्दू के लिये जीवन व्यर्थ होता है। हिन्दू जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। हिन्दू धर्म में कुछ मानवीय मर्यादाओं को जीवन पद्धति के रूप में पिरोया गया है ताकि उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास निरन्तर चलता रहै। प्रथम गुरु के नाते माता अपने शिशु को आदर्शवादी वीरों की कहानियाँ सुना कर उसे भी आदर्शवादी वीर बनने की प्रेरणा देती है। पशु पक्षियों से प्रेम करना, पेड़ पौधों की रक्षा करना, अपने से बड़ों का आदर करना आदि कथाओं और दृष्टान्तों दूारा सिखाया जाता है। माता-पिता सकारात्मिक विचारों का बीजारोपन बच्चों में अपने कुल की मर्यादाओं के अनुसार अपने घर में यम-नियम से अवगत करवा कर शुरु करते हैं जिस में खानपान, बैठना उठना भले बुरे का फर्क सभी कुछ शामिल है। यही संस्कारों की प्रथम पादान है जिस पर आगे चल कर चरित्र का दुर्ग निर्माण होता है।

मर्यादाओं के आधार-यम और नियम 

हमारे ऋषियों ने जीवन के आदर्शों तथा समाज की मर्यादाओं को संक्षिप्त कर के दो सूत्रों में बाँध दिया है जिन्हें ‘यम’ और ‘नियम’ कहते हैं। बालक को ‘यम-नियम’ घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष क्रिया से सिखाये जाते हैं जो बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम पादान है। उन्हीं की आधारशिला पर जीवन का निर्माण आरम्भ होता है।

यम – यम आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त हैं। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमारे जीवन में तथा समाज में अधिकतर समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी, ना ही जीवन में कोई तनाव या हताशा उपजे गी। यम समाज कल्याण के लिये मानवीय मूल्यों के निम्नलिखित पाँच सिद्धान्त हैं –

  1. अहिंसा अहिंसा से तात्पर्य है कि किसी भी जीव को मन से, वचन से तथा कर्म से दुःख ना दिया जाय तथा उस की इच्छा के विरुद्ध उस से कुछ भी ना करवाया जाये। उस के ऊपर कोई प्रतिबन्ध ना लगाया जाये। अहिंसा का सिद्धान्त ही जियो और जीने दो का मूल मन्त्र है। किन्तु यदि अहिंसा की भावना कर्तव्य पालन में बाधा डाले तो वही अहिंसा कायरता बन जाती है जिस का त्याग करना चाहिये।
  2. सत्य सत्य का तात्पर्य है कि हम अपनी सभी क्रियाओं में, लेन-देन में, बोल-चाल में सत्यता पर अडिग रहें तथा कभी भी मन से, वचन से, कर्म से झूठ और छलावे का आश्रय ना लें। किन्तु यह ना भूलें कि कभी कभी झूठ के बोझ तले दबाये गये सत्य को बाहर निकाल कर मनवाने के लिये शक्ति की आवश्यकता भी पडती है।
  3. अस्तेय – अस्तेय का तात्पर्य है कि हम दूसरों के साधनो को हडपने की चेष्टा, इच्छा या प्रयत्न कभी ना करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधिरित रख कर संतुष्ट रहैं। अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि ना करें।
  4. ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि हम अपनी सभी इन्द्रीयों पर नियन्त्रण रख कर प्राकृतिक जीवन जियें। उन सभी विचारों, क्रियाओं तथा वस्तुओं का प्रयोग जीवन में कभी ना करें जो अप्राकृतिक तथा निजि कर्तव्यों से विमुख होने के लिये प्ररेरित करने वाली हौं। ब्रह्मचर्य का पालन आयु पर्यन्त करना होता है।
  5. अपरिग्रह – अपरिग्रह का तात्पर्य है कि हम अपनी निजि आवश्यक्ताओं को भी नियन्त्रण में रखें तथा भौतिक वस्तुओं से अधिक मोह ना करें। इच्छाओं को नियन्त्रण में रखें, अन्यथा पूरा जीवन वस्तुओं को चाहने, जुटाने तथा संग्रह करने में ही व्यतीत हो जाये गा। जीवन जितना सादगी भरा होगा उतना ही सुखदायक भी हो गा।

देखने में यह सिद्धांत बहुत साधारण से दिखते हैं किन्तु यदि विचार करें तो हमारे जीवन के शत प्रति शत कष्ट और तनाव तभी आते हैं जब स्वार्थ वश हम इन सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं या दूसरे लोग हमारे प्रति इन सिद्धान्तों का पालन नहीं करते। यदि सभी लोग इन सिद्धान्तों को स्वेच्छा से अपना लें तो समस्त समाज सुखमय बन सकता है। माता पिता स्वयं उदाहरण बन कर यदि अपनी संतान में इस प्रकार के संस्कारों का बीजारोपण करें तो जीवन में हताशा निराशा कभी नहीं आये गी।

नियम – यमों का दैनिक जीवन शैली में पालन करना आवश्यक है जिस के लिये संकल्प तथा अनुशासन ज़रूरी है। अनुशासन स्वेच्छित होना चाहिये। अतः निरन्तर अभ्यास के लिये  नियम बनाये गये हैं जिन का पालन माता पिता तथा प्राथमिक गुरू के सानिध्य में हो सके और नियम जीवन की दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन जायें। अनुशासित मानवीय जीवन के लिये पाँच नियम इस प्रकार हैं

  1. शौच – शौच का सम्बन्ध स्वच्छता से है। मानव को अपना शरीर, रहवास, कार्यशाला, पर्यावरण साफ रखने चाहियें। इन के अतिरिक्त अपने विचार, मन, वाणी तथा आचरण को भी स्वच्छ रखना चाहिये। पर्यावरण से विचार, विचारों से क्रियायें, तथा क्रियाओं से प्रतिक्रियायें जन्म लेती हैं। स्वच्छता के बिना जीवन दूषित हो जाता है।
  2. संतोष – संतोष से तात्पर्य है कि मानव अपनी इच्छाओं तथा आकाँक्षाओं पर नियन्त्रण रखे। उन की पूर्ति जहाँ तक निजि सामर्थ्य से हो सके उसी पर संतोष करे। इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम कर्म करना ही छोड़ दे। कर्म अवश्य करे परन्तु यदि वाँछित फल ना मिले तो हताश होने के बजाय संतोष पूर्वक कर्म करते रहैं।
  3. तप – तप से तात्पर्य है कि मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कठिन से कठिन परिश्रम से ना हिचकिचाये। जीवन में कठिनाईयाँ झेलने की क्षमता तप से ही आती है। किसी क्रिया को बार बार करते रहना, इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण करते हुये कडा परिश्रम करते रहना ही तप कहलाता है। भूख पर उपवास से, वाणी पर मौन वृत से, भावनाओं पर ब्रह्मचर्य और शरीरिक विपदाओं पर योग साधना से ही विजय पायी जाती है। तप स्वेच्छा से ही किया जाता है। जो मानव अपने आप पर नियन्त्रण कर लेता है वही सर्वत्र विजयी होता है।
  4. स्वाध्याय – स्वाध्याय से तात्पर्य है कि बचपन से ही अपने विकास की ओर हम स्वयं प्रेरित हो तथा जिज्ञासु बनें। ज्ञान प्राप्ति के लिये स्वयं यत्न करे। गुणी, शिक्षित और सदाचारी लोगों का संग और उन का अनुसरण करें।
  5.   ईश्वरीय प्राणिधाना – ईश्वरीय प्राणिधाना से तात्पर्य है कि मानव सर्वथा गर्वरहित रहे। अपने कर्मों तथा उपलब्धियों को ईश्वरीय शक्ति के आधीन ही समझें।

भारतवासी कानवेन्ट स्कूलों की चकाचौंध से बहुत प्रभावित रहते हैं लेकिन सोच कर देखें तो उन स्कूलों में भी भारतीय  यम नियम ही मोरल साईंस के नाम से सिखाये जाते हैं। अन्तर यह है कि वहाँ ब्रह्मचर्य पर विशोष महत्व नहीं दिया जाता और यही पाशचात्य जगत में मानसिक तनाव का मुख्य कारण है। विध्यार्थी जीवन से ही जब ब्रह्मचर्य का खण्डन, ड्रग्स, नशीले पदार्थ, समलैंगिक्ता, लिविंग इन रिलेशनशिप्स, गर्भ निरोधक, अनैतिक गर्भपात, और हिंसा आदि जीवन में बेतहाशा प्रवेश कर जाते हैं तो जीवन नकारात्मिक दिशा में चल पडता है। केवल निराश और हताशा जीवन के साथ चल पडती हैं।

यम तथा नियम किसी विशेष धर्म, जाति, या देश के लिये नहीं – अपितु समस्त मानव कल्याण के लिये हैं। यदि उन का पालन किया जाये तो कोई विद्यार्थी हताश हो कर आत्महत्या नहीं करे गा, ना ही कोई व्यस्क जीवन में तनाव और मानसिक-हीनता का शिकार होगा। यम-नियम का पालन करने वाले के कदम किसी भी परिस्थिति में नहीं डगमगायें गे।

यम-नियम के निरन्तर अभ्यास से निम्नलिखित व्यक्तिगत गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं जो सफल और सुखमय जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं –

  • धृति – अपने लक्ष्य पर अडिग रहने की क्षमता।
  • दया – मानव में दूसरों के प्रति संवेदना तथा दूसरों को भी जीने देने की भावना।
  • अर्जवा –सामाजिक सम्बन्धों में इमानदारी बर्तने का साहस।
  • मिताहार – स्वस्थ तथा सुखी जीवन का मूल-मंत्र।
  • हरि – अपने दोषों से सीख लेना निजि विकास की प्रथम पादान है।
  • दान – दूसरों के दुख तथा अपने सुखों को दूसरों के साथ बाँटनें की भावना।
  • आस्तिक्य – जीवन में निराशा मिटा कर आत्मविशवास भरने का गुण।
  • मति – तथ्यों, विचारों, कर्मों तथा निर्णयों का सूक्ष्म विशलेण करने का गुण।
  • वृतः – वृत पालन और संकल्प को दृढता से क्रियावन्त करने की क्षमता।
  • जप – तथ्यों के सूक्षम ज्ञान को समर्ण रखने की क्षमता।
  • धैर्य – प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में कृतसंकल्प रहने की क्षमता।
  • क्षमा – बदला लेने की परवर्ति तथा संकीर्णता से छुटकारा पाने की क्षमता।

प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था

काँनवेंट की तरह के रहवासी स्कूल भारत में इसाईयों के आगमन से पहिले ही थे जिन्हें गुरुकुल कहते थे। उन का खर्चा राजकीय सहायता, सामाजिक दान, तथा उन की निजि आन्तरिक अर्थ व्यवस्था से चलता था। गुरुजन विदूान तथा चरित्रवान होते थे और उन को समाज में सर्वोच्च सम्मान दिया जाता था। पाँच वर्ष की आयु पश्चात बालक-बालिकाओं को गुरुकुल में विद्या ग्रहण के लिये भेजा जाता था। कृष्ण – सुदामा तथा द्रुपद-द्रौणाचार्य का एक ही गुरुकुल में साथ साथ पढ़ना साक्षी हैं कि गुरुकुल का वातावरण भेद-भाव रहित था। आज की तरह विद्या बिकाऊ वस्तु नहीं थी। उसे गुरु की कृपा और आशीर्वाद समझ कर ही ग्रहण किया जाता था। गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज की तरह व्यापारिक सम्बन्ध नहीं थे।

पाठ्यक्रम में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता था। गुरुकुल के वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के प्रथम चार अंगों (यम, नियम, आसन तथा पराणायाम) पर विशेष ध्यान दिया था। विद्यार्थीयों में उदण्डता का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। विद्यार्थियों को राजनीति का ज्ञान दिया जाता था किन्तु उन्हे आज की तरह का विद्यार्थी राजनैता बना कर स्वार्थी और महत्वकाँक्षी नहीं बनाया जाता था।

गुरुकुल में विद्यार्थियों को तथ्यों के साथ साथ प्रत्यक्ष और क्रियात्मिक  परिशिक्षण भी दिया जाता था। अस्त्र शस्त्र, सैनिक अभ्यास, तकनीकी शिक्षा तथा व्यवसाईक परिशिक्षण का भी प्रावधान होता था। शिक्षा  के स्तर का आँकलन करने के लिये परीक्षायें भी ली जाती थी।

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा केवल उन्हीं को दी जाती थी जिन में रुचि, जिज्ञासा तथा परिश्रम करने की क्षमता होती थी। इस में कोई शक नहीं कि शरीर के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति अपने माता पिता के संस्कार भी जन्म के अतिरिक्त घर के वातावरण से ग्रहण करता है। यही कारण था कि उच्च शिक्षा का आधार साधारणत्या जाति की पहचान के साथ जुडा था। आजकल भी उच्च शिक्षा में प्रवेश रुचि के आधार पर ही होता है जिसे एप्टीच्यूड टेस्ट कहते हैं। जिन में रुचि और परिश्रम की क्षमता नहीं होती वह उच्च शिक्षा से आज भी वँचित रहते हैं।

शिक्षा के पश्चात दीक्षान्त समारोह भी होता था। सफल विद्यार्थियों को यज्ञोपवीत पहना कर दीक्षा दी जाती थी कि वह स्दैव शिक्षा का समाज हित में स्दोप्योग ही करें गे तथा किसी अयोग्य तथा असामाजिक व्यक्ति को वह शिक्षा नहीं सिखायें गे। हमारे ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ शिक्षा का दुरोप्योग करने के कारण गुरु ने शिष्य को शापित कर के अथवा अन्य किसी तरह से उसे उच्च शिक्षा के प्रयोगात्मिक लाभ से वँचित कर दिया था।

प्राचीन भारत का शिक्षा तन्त्र आजकल की शिक्षा पद्धति की तरह ही उन्नत था किन्तु वह समाज कल्याण के आदर्श पर टिका था। आज का शिक्षा तन्त्र व्यक्तिगत स्वार्थों पर केन्द्रित है। आज के युग में परिशिक्षण संस्थानो का वातावरण हिंसा, उद्दण्डता नशीले पदार्थों का सेवन तथा अय्याशी के प्रसाधनों की वजह से दूषित हो चुका है। यदि उस को सुधारना है तो हमें प्रचीन भारतीय शिक्षण पद्धति के सिद्धान्तों को पुनर्जाग्रित करना होगा।

चाँद शर्मा

20 – व्यक्तित्व विकास


आजकल बड़े नगरों में व्यक्तित्व विकास के कई केन्द्र भारी फ़ीस ले कर युवाओं को नौकरियों के प्रशिक्षण देते हैं। वहाँ व्याख्यानों, गोष्ठियों  तथा सामूहिक वार्तालाप के माध्यम से युवाओं को अंग्रेज़ी में बातचीत करना तथा शिष्टाचार के गुर सिखाये जाते हैं। वास्तव में यह प्रशिक्षण सीमित होता है और किसी ना किसी नौकरी या पद विशेष के लिये ही कुछ सीमा तक उपयुक्त होता है। इसे मानवी व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता।

हर व्यक्ति को पद तथा परिस्थितिनुसार कार्य प्रणाली भी बदलनी पड़ती है। प्रत्येक व्यवसाय की कार्य शैली तथा कार्य स्थल का वातावरण ऐक दूसरे से भिन्न होता है। अतः कार्य स्थल के वातावरण और कार्य शौली के अनुसार प्रत्येक कार्य वर्ग के लिये अलग अलग क्षमताओं की आवश्यक्ता भी पड़ती है। व्यक्ति तथा उस के कार्य क्षेत्र को आसानी से ऐक दूसरे के अनुकूल नहीं बदला जा सकता। व्यक्तित्व विकास के आधुनिक पाठयक्रम का क्षेत्र किसी ऐक व्यवसाय तक ही सीमित होता है।          

व्यक्तित्व विकास का मूल उद्दैश्य मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना होना चाहिये कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपना कार्य सक्ष्मता से कर सके। भारत की प्राचीन व्यक्तित्व विकास पद्धति इस कसौटी पर सक्ष्म है। 

क्रिया के निमित आवेश 

शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति के साथ साथ सभी जीव अपनी भावनाओं से भी प्रेरित हो कर अपने अपने कर्म करते हैं। हिन्दू विचारघारा में पाँच प्रकार की तीव्र भावनाओं के आवेशों की पहचान की गयी है जो समस्त जीवों में ऐक समान है। यह भावनायें हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में से किसी भी भावना का आवेश आते ही शरीर में ऐक प्रकार की रसायनिक क्रिया अपने आप आरम्भ हो जाती है जो मानव की बुद्धि को प्रभावित कर देती हैं। प्रभाव सकारात्मिक हो तो आवेश बुद्धि का सहायक बन कर कर्म का मार्ग भी दर्शाते हैं और उस के लिये साहस और क्षमता भी अर्जित कर देते हैं। ऐसी अवस्था में आवेश की रसायनिक क्रिया से प्रोत्साहित मानव अपनी जान की बाज़ी लगा कर दूसरे की जान बचाता है, ख्याति पाने के लिये असाध्य काम भी कर लेता है। आवेश के प्रभाव से ग्रस्त मानव में थोडे समय के लिये अदभुत क्षमता पैदा हो जाती हैं जिस पर बाद में मानव स्वयं ही अपनी छिपी हुई क्षमता पर आश्चर्य करने लगता है। यह आवेशों का सकारात्मिक पक्ष है।

इस के विपरीत यदि आवेश नकारात्मिक हों तो मानव चोरी, हत्या, बलात्कार, और कई बार आत्महत्या आदि करने को उद्यत हो उठता है। इस कारण से इन भावनात्मिक आवेशों को विकार भी कहा गया है और इन को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। इन्हीं विकारों के कारण पशु पक्षी भी सहवास, भोजन, ठिकाने, सुरक्षा तथा अपने प्रभाव के लिये मानवों की तरह ही लडते हैं। आवेश के नकारात्मिक प्रभाव से ग्रस्त मानव और पशु के स्वभाव तथा कर्म में कोई अन्तर नहीं होता।

आवेशों का जीवन में प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी ऐक अथवा अनेक आवेशों अथवा विकारों के प्रभाव के अधीन होता है। यही आवेश कई बार व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान भी बन जाते हैं। कुछ लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। कुछ उग्र स्वभाव के, कुछ कामुक तथा अप्राकृतिक आदतों के शिकार भी होते हैं। लोभ या मोह वश कुछ लोग सामाजिक तथा नैतिक मर्यादाओं को लाँघ कर अपने स्वजनो और मित्रों या किसी ऐक ही व्यक्ति का हित करने में लगे रहते हैं। कई लालच और लोभ में इतने ग्रस्त होते हैं कि उन के जीवन में अन्य कर्तव्यों का कोई महत्व नहीं रहता। आवेशों तथा विकारों में फर्क की लकीर अति सूक्षम होती है जैसे किसी असाध्य कार्य की पूर्ति स्वाभिमान बन जाती है तो किसी असाध्य कार्य को पूरा करने का केवल दावा करना अहंकार बन जाता है। क्रोध के आवेश में रण भूमि में शत्रु की हत्या करना वीरता है किन्तु क्रोध या अभिमान वश स्वार्थ के लिये किसी की हत्या करना दण्डनीय अपराध होता।

कुछ आवेश माता पिता से संस्कारों के रूप में जन्मजात होते हैं तो कुछ संगति तथा रहवास के वातावरण के कारण अपने आप पनप उठते हैं। मानव की आवश्यक्ताये भी उस के अर्जित आवेशों के स्वभावानुकूल ही बनती हैं जिन की पूर्ति के लिये मानव कर्म करते रहते हैं और फल पाते हैं। किसी ऐक ही अच्छे या बुरे कर्म से मानव जीवन में अच्छे-बुरे कर्मों के अटूट चक्कर आरम्भ हो जाते हैं जहाँ से बाहर निकल पाना कई बार असम्भव भी हो जाता है। 

मानव के शरीर में जिस प्रकार का आवेश प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यक्ति का स्वभाव और व्यक्तित्व बन जाता है। कोई झगडालु, ईर्षालु, लालची, दबंग, डरपोक या रसिक आदि बन जाता है तो कोई वीर, निडर, दयालु और दानवीर बन जाता है। सभी मानव अपने अपने आवेशानुसार कर्म कर के उसी प्रकार के परिणाम भी भुगतते है। आवेश दुधारी तलवार की तरह हैं। आत्म सम्मान के आवेश से प्रेरित हो कर ही कुछ लोग वीरता और साहस के काम कर जाते है जिस के कारण व्यक्ति, परिवार और समाज गर्वित होता है और इस के विपरीत कुछ अहंकार के कारण छोटी सी बात पर ही दूसरों की हत्या कर देते हैं और फाँसी पर लटक जाते हैं। वह अपने परिवारों के लिये दुःख और लज्जा का कारण बन जाते हैं।

आवेश नियन्त्रण

मानव संसाधन विकास के पाठ्यक्रम में पाश्चात्य दार्शनिक अब्राहम मासलो की ‘नीड थियोरी पढाई जाती है और इस के अन्तर्गत निजि आवश्यक्ताओं की पूर्ति को ही कर्म का निमित माना गया है। अब्राहम मासलो के अनुसार निजि आवश्यक्तायें शारीरिक तथा मानसिक क्रमशः निम्न और उच्च श्रेणियों में विभाजित की गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिये मानवों को प्रेरणा मिलती है। लेकिन अब्राहम मासलो का ज्ञान और सिद्धान्त अधूरे हैं। उस में यह नहीं बताया गया कि आवश्यक्तायें जन्म ही क्यों लेती हैं ? इस तथ्य का उत्तर आवेशों के भारतीय सिद्धान्त में छुपा है। आवेशों के सक्रिय होने पर ही इच्छाओं और आवश्यक्ताओं का जन्म होता है जिन की पूर्ति के लिये पुरुषार्थ करना पडता है। इसीलिये इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने पर बल दिया जाता है।  

आवेशों को संतुलित रखना जरूरी है। यदि आवेशों पर नियन्त्रण ना किया जाय तो वह विकार बन कर सब से बडे शत्रु बन जाते हैं और जीव को विनाश की ओर धकेल देते हैं। अपने आवेशों को नियन्त्रित करना, तथा विपक्षी के नकारात्मिक आवेशों को अपनी इच्छानुसार सकारात्मिक बनाना ही किसी व्यक्ति की क्षमता और सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। इसी को दक्षता और कार्य निपुणता कहते हैं।

आवेशों को साधना के माध्यम से, स्वेछिक अनुशासन से, यम नियमों से नियन्त्रित किया जा सकता है ताकि उन का साकारात्मिक लाभ उठाया जा सके। काम को ब्रह्मचर्य, स्वच्छता, और सदाचार से, क्रोध को सत्य और अहिंसा से, लोभ को संतोष और अस्तेय की भावना से, मोह को वैराग्य, निष्पक्ष्ता और कर्तव्य परायणता से, तथा अहंकार को अपारिग्रह, सरलता, ज्ञान शालीनता तथा सेवा सहयोग से वश में रखा जा सकता है। यम नियम का निरन्तर अभ्यास ही प्राणी को पशुता से मानवता की ओर ले जाता है। जब तक आलस्य और अज्ञान की परिवृतियों को यम नियम से नियन्त्रित नहीं किया जाये गा मानव का व्यक्तित्व संतुलित नहीं हो सकता।

स्वेच्छिक अनुशासन

हिन्दू समाज में निजि रुचि अनुसार व्यवसाय चुनने तथा स्वैच्छिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। अनुशासन को सैनिक तरीकों से लागू नहीं करवाया जाता। प्रत्याशी को आत्म-निरीक्षण, स्वैच्छिक अनुशासन तथा स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा फिर उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास  निरन्तर चलता रहता है। बालक को आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष सिखाये जाते है। यम नियम बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम एवमं महत्व पूर्ण कदम है। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम विश्व के किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म अनुयायी हों, हमारे जीवन की अधिकतर समस्यायें तो पैदा ही नहीं होंगी। यदि दूसरों के कारण समस्यायें उत्पन्न हो भी गयीं तो वह प्रभावित किये बिना अपने आप ही निषक्रिय भी हो जायें गी तथा यम नियमों का पालन करने वाले के जीवन में कोई तनाव और हताशा नहीं होगी।

आत्म विकास

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं उन में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि अनुसार किसी भी साधना का मार्ग अपने लिये चुन सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग साधना को अपना सकते हैं। भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुन सकते हैं। इसी प्रकार तर्कवादी राज योग से अपने निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संनयासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है।

सारांश यह है कि इस प्रकार से जो व्यक्तित्व निर्माण हो गा वह विश्व भर में सभी परिस्थितियों में सफल रहे गा। हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि आज भी भारत के विद्यार्थी विदेशों में सफल हैं जहाँ उन्हीं देशों के स्थानीय छात्र उन से स्पर्धा नहीं कर पाते। भारतीय सैनिक प्रथम तथा दूसरे महायुद्ध के कठिनत्म प्रदेशों में भी सक्षम रहै जब कि अन्य देशों के सैनिक उन कठिनाईयों को झेल नहीं पाये। वियतनाम जैसे छोटे देश के सामने अमेरिका जैसे समर्द्ध तथा शक्तिशाली देश के सैनिक समझोता कर के वहाँ से सुरक्षित निकलने का मार्ग खोजने के लिये मजबूर हो गये थे।  भारत का वाहन चालक विदेशों में भी धडल्ले से गाड़ी चला सकता है लेकिन एक विदेशी चालक अति-आधुनिक कार को अपने देश से बाहर नहीं चला सकता। इस प्रक्रिया में भारतीय व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक क्षमता छिपी हुयी है जो उसे सभी परिस्थितियों का सामना करने का हौसला देती है। यह गुणवत्ता आधुनिक तकनीक से नहीं उपजी अपितु इस का श्रेय भारतीय जीवन के उन मूल्यों को जाता है जो व्यक्ति को हर कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। भारतीय व्यकतित्व विकास पद्धति हर अग्नि परीक्षा में सफल होती रही है।  

तुलनात्मिक विशलेषण 

भारतीय पाठ्यक्रम में स्दैव आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता रहा है। गुरुकुल वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के दूारा व्यक्ति का विकास किया जाता था। उसी पद्धति का ही आज स्वामी रामदेव पुर्नप्रचार सफलता पूर्वक कर रहै हैं।

आजकल व्यक्ति की वास्तविक कमियों को बनावटी ढंग से छुपा दिया जाता है उस में योग्यताओं को विकसित नहीं किया जाता। बनावटी शिष्टाचार, वेषभूषा तथा ‘वर्क कलचर केवल आवरण हैं जो असली पर्सनेलिटी को थोडी देर के लिये ढक देते हैं। पाश्चात्य व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को दूसरे मानव से प्रतिस्पर्धा करने के लिये उकसाती है। सदाचारी बनने के बजाय मानव स्वेच्छाचारी तथा पूर्ण स्वार्थी बन कर समाज में दूसरों को मात देने की राह पर चलने लगता है। वह समाज को जोडने के बजाय समाज को तोड़ कर निजि सफलता को ही प्राथमिकता देता है। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से यही क्रम आजकल हमारे विद्यालयों, दफतरों तथा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है जिस के कारण निराशा, हताशा तथा निरंकुशता का वातावरण ही समाज में पनप रहा है। हिन्दू व्यक्तित्व सृष्टि के सभी जीवों में एकीकरण ढूंडता है, प्रतिस्पर्धी नहीं।

हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को निजि कर्तव्यों की ओर प्रोत्साहित करती है निजि अधिकारों तथा स्वार्थों की ओर नहीं। निजि कर्तव्यों में सर्व प्रथम देश, समाज तथा परिवार की प्राथमिक्ता है और निजि स्वार्थ सभी के पश्चात आता है। दैनिक कार्य क्षैत्र में सर्वप्रथम पर्यावरण, पशु पक्षियों के प्रति उत्तरदाईत्व को स्थान दिया गया है। पाश्चात्य व्यवसायिक कम्पनियाँ जिस सामाजिक उत्तरदाईत्व की केवल चर्चा करती हैं वह भारतीयों ने दैनिक जीवन शैली में सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही अपना लिया था। विदेशों में कोई व्यक्ति स्वैच्छा से पीपल, बरगद या तुलसी के पौधै को पानी नहीं देता ना ही चींटियों से ले कर बड़े जानवरों के लिये गर्मी में पेय जल की व्यव्स्था ही करता है। भारत में यह कार्य किसी मजबूरी से नहीं अपितु निजि व्यक्तित्व की प्रेरणा से किया जाता है। मोक्ष (टोटल सेटिस्फेक्शन) की परिकल्पना व्यवसायिक संतुष्टि (जोब सेटिस्फेक्शन) से कहीं ऊँची परिकल्पना है। अतः हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को मानवता का अभिन्न अंग बनने को प्रेरित करती है तभी उस का पूर्ण वास्तविक विकास होता है – केवल नौकरी पाने के लिये विकास नहीं करवाया जाता।

जीवन में ऐकीकरण

आजकल हर व्यक्ति की ‘प्राईवेट लाईफ ‘और ‘प्बलिक लाईफ में ऐकीकरण नहीं होता। इस का अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति जो समाज में ईमानदार, सत्यवादी और चरित्रवान होने का दावा करता है वह अपने निजि जीवन में बेइमान, झूठा या व्यभिचारी भी रह सकता है। यह व्यकतित्व का विकास नहीं विनाश है क्यों कि अन्दर बाहर व्यक्ति को ऐक समान ही होना चाहिये।

ज्ञान को केवल प्राप्त कर लेना ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। शिक्षा तथा शिष्टता के सदाचारी गुणों को दैनिक क्रियाओं में निरन्तर अपनाना भी आवश्यक है। केवल यह जान लेना कि इमानदारी और सत्य का पालन करना चाहिये पर्याप्त नहीं जब तक इमानदारी और सत्य को मन, वचन तथा कर्म से जीवन के हर प्रत्यक्ष और अपर्त्यक्ष रूप में अपनाया और दर्शाया ना जाये। यम नियम तथा गीता के योग इन्हीं को व्यक्तित्व विकास की सीढियाँ मानते हैं।

पाश्चात्य जीवन पद्धति केवल कामचलाऊ नौकरी पाने के लिये ही विकसित करती है और मानव को ऐक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना कर स्वार्थी जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित करती है जबकि भारतीय जीवन शैली व्यक्ति को परिवार, समाज और पर्यावरण के कल्याण और पूर्ण विकास की ओर विकसित करती है।   

चाँद शर्मा 

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