हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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2. आदि-मानव धर्म के जन्मदाता


जिस तरह किसी ऐक वैज्ञिानिक को विज्ञान के जन्मदाता होने का श्रेय नहीं दिया जा सकता, उसी तरह स्नातन धर्म का जन्मदाता कोई ऐक व्यक्ति नहीं था। आदिवासी मानवों से शुरू होकर कई ऋषियों ने तथ्यों का परीक्षण  कर के मानव धर्म की विचार धारा के तथ्यों का संकलन किया है। य़ह किसी ऐक व्यक्ति, परिवार या जाति का धर्म नहीं है।

पहला सत्य है कि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। दूसरा सत्य यह है कि सभी पशु-पक्षी अपने शरीर सम्बन्धी कार्य अपने मन की प्रतिक्रियाओं से प्ररेरित हो कर करते हैं तथा इन प्रतिक्रियाओं का स्त्रोत्र भी उन का सर्जन कर्ता ही है।

 पशु-पक्षियों की स्मृति शरीरिक आकार तथा आवश्यक्ताओं के अनुसार सीमित होती है। जब उन्हें भूख लगती है तभी वह भोजन को ढूंडते हैं। कोई खतरा होता है तो वह अपने आप को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल अपनी ही तरह के दूसरे पशु-पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं। उन के भीतर भी भूख, लालच, ईर्षा, वासना, क्रोध, भय और प्रेम आदि की भावनायें तो होती हैं लेकिन परियावरण ही उन्हें सोने, प्रजन्न करने तथा नवजातों के सरंरक्षण के लिये प्रेरित करता है। वह प्राकृतिक प्ररेणा से ही अपने अपने मनोभावों की व्यक्ति तथा पूर्ति के लिये कर्म करते हैं। मनोभावों पर उन का कोई नियन्त्रण नहीं होता। निर्धारित समय से पहले या पीछे वह प्रजन्न नहीं कर सकते। वह अपना भला-बुरा केवल कुछ सीमा तक ही सोच सकते हैं लेकिन किसी दूसरे के लिये तो वह कुछ नहीं सोच सकते।

दैनिक क्रिया नियन्त्रण कर्ता 

जड़ और चैतन्य, दोनो ही परियावरण का अभिन्न अंग हैं। परियावरण का सन्तुलन बनाये रखने के लिये सृजनकर्ता ने ही पूर्व-निर्धारित उद्देष्य से उन की गतिविधियाँ निर्धारित तथा नियन्त्रित कर दी हैं। किसी स्वचालित उपक्रम की भाँति सभी जीव अपने अपने  निर्धारित कर्तव्यों की पूर्ति के लिये स्वयं ही प्रेरित तथा क्रियाशील होते हैं। जैसे सिंह वन में पशुओं की संख्या नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार सागर में बड़ी मच्छलियाँ छोटी मच्छलियों की संख्या नहीं बढ़नें देतीं। साँप चूहों आदि को घटाते हैं और स्वयं शिकारी पक्षियओं का भोजन बन जाते हैं। केंचुए वृक्षों के आस-पास की भूमि को नर्म कर के वनस्पतियों की भोजन-पोषण में सहायता करते हैं।

पशु-पक्षियों की प्राकृतिक मनोदिशा ही उन का निर्धारित कर्तव्य पत्र है। भले ही वह अपने कर्तव्य के महत्व को ना समझते हों, परन्तु कोई प्राणी यदि अपने निर्धारित कर्म को ना करे तो सृष्टि में उस प्राणी का आस्तीत्व ही बेकार हो जाये गा। कुछ जीव निजि कर्तव्यों का निर्वाह दिन के समय करते हैं तो कुछ रात्रि में अपना दाईत्व निभाने के लिये निकल पड़ते हैं। उन्हें वैसा करने के लिये सृजनकर्ता ने ही प्ररेरित किया है तथा सक्ष्म भी बनाया हैं। कर्तव्य निभाने के लिये उन्हें कोई बुलावा नहीं भेजता – रात्रि के समय वह स्वयं ही अपना अपना दाईत्व सम्भाल लेते हैं। एक बिच्छू, साँप या सिहं अपने शिकार को मार ही डाले गा भले ही कुछ क्षण पूर्व उसी प्राणी ने उन की जान भी बचाई हो। उन के कर्म से किसी का भला हो या बुरा, पशु पक्षियों को कभी अहंकार या आत्म ग्लानि नहीं होती क्योंकि वह अपने सभी कार्य सृजनकर्ता के आदेशानुसार ही करते हैं।

सृष्टि में जीवन के आधार 

समस्त सृष्टि का चलन स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। सभी कुछ ताल-मेल से चलता है। सभी कार्य पूर्वनिर्धारित समयनुसार अपने आप ही निश्चित समय पर होते रहते हैं। सूर्य प्रति दिन समयनुसार पूर्व दिशा से निकलता है और पश्चिम दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में अस्त नहीं होता। सभी गृह-नक्षत्र अपनी अपनी परिधि में सीमित हो कर निर्धारित गति में अनादि काल से घूम रहे हैं। सागर जल का अक्ष्य भण्डार अपनें में समेटे रहते हैं। जल को स्वच्छ एवं शुद्ध रखने के लिये पूरी जल-राशि को दिन में दो बार ज्वार भाटे के माध्यम से उलट-पलट किया जाता है। निर्धारित समय पर ही प्रति वर्ष धरती सूर्य के समीप जाकर अतिरिक्त ऊष्णता गृहण करती है ताकि धरती पर अनाज और फल पक सकें। सागर जल से नमक की मात्रा छुड़वा कर पय जल में परिवर्तित करने के लिये जल बादलों के अन्दर भरा जाता है। वायु बादलों को सहस्त्रों मील दूर उठा ले जाती है तथा वर्षा कर के पृथ्वी पर उसी जल को जलाश्यों में भरवा देती है। बचा हुआ जल नदियों के रास्ते पुनः सागर में विलीन हो जाता है।  सोचने की बात है यही कार्य किसी सरकारी अधिकारी या ठेकेदार को सौंपा गया होता तो क्या वह कैसे करता। 

सृष्टि के प्राणियों की कार्य सुविधा के लिये सूर्य पूरी पृथ्वी पर रौशनी फैला देता है तथा रात्रि के समय चन्द्र शीतल रौशनी के साथ उदय होता है और रात्रि में काम करने वालों के लिये रौशनी का प्रबन्ध कर देता है। साथ ही साथ सागर जल को उलट-पलट कर जल का शुद्धिकरण भी करवा देता है। सृष्टि की सभी प्रणालियाँ सहस्त्रों वर्षो से पूर्ण सक्ष्मता के साथ कार्य कर रही हैं । जब किसी प्रणाली में कोई त्रुटि आ जाती है तो प्रकृति अपने आप उसे दूर भी कर देती है। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार से निरन्तर चलता रहता है। 

सृष्टि कर्ता की खोज

अतः विचार करने की बात है कि सृष्टि में कोई तो केन्द्रीय शक्ति अवश्य है जिस ने इतनी सूक्ष्म, सक्ष्म तथा स्शक्त कार्य पद्धति  निर्माण की है। इतनी स्वचालिता आज भी विज्ञान के  बस में नही है। वैज्ञानिक तथा बुद्धिजीवी केवल कुछ तत्वों को जानते हैं जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश सृष्टि के मुख्य तत्व हैं। लेकिन इन के अतिरिक्त कई अज्ञात् तत्व और भी है जो इस विशाल प्रणाली को सुचारू ढंग से चला रहे है। विज्ञान तत्वों की खोज और पहचान कर के कारण तथा क्रिया में सम्बन्ध स्थापित करने में धीरे धीरे सफल हो रहा है लेकिन विज्ञान ने किसी नये अथवा पुराने तत्व को बनाया नहीं है। विज्ञान अभी तक सभी तत्वों को खोज भी नहीं पाया है। 

यदि वैज्ञानिक एक चींटी का ही सर्जन करना चाहें जो सभी कार्य स्वाचालित ढ़ंग से करे तो उस में कितने ही उपकरण लगाने पड़ें गे तथा उस का आकार एक जेट विमान के जितना बडा होगा तथा उस की दैनिक देखभाल के लिये कई इंजिनियर तैनात करने पड़ेंगे। इतना करने के पश्चात भी वह चींटी कुछ सीमित कार्य ही कर सके गी और अपने जैसी दूसरी चींटी तो पैदा कर ही नहीं सके गी। ऐसे प्रोजेकट की लागत भी करोड़ों तक जाये गी।

धर्म की शुरूआत 

वैज्ञिानिक तथ्यों को जानना धर्म का आरम्भ मात्र है। हम जानते हैं कि पहले कोई घर या गाँव नहीं थे। आदि मानव वनों में रहते थे। विद्यालय, चिकित्सालय आदि भी नहीं थे। निस्संदेह वनों में निवास करने वाले आदि मानवों ने भी सोचा होगा कि कौन सृष्टि को चला रहा है। सोचते सोचते उन्हों ने उस अज्ञात् शक्ति को ईश्वर कहना शुरू कर दिया क्यों कि वह शक्ति सर्व-व्यापक, सर्व शक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। किसी ने उस शक्ति को देखा नहीं लेकिन महसूस तो अवश्य किया है। उस महाशक्ति की कार्य-कुशलता तथा दयालुता का आभास पा कर मानव आदि काल से ही उस महाशक्ति का आभारी हो कर उसे खोजने में लगा हुआ है। समस्त प्राणियों में आदि मानव ने ही सब से पहले महाशक्ति ईश्वर के बारे में सोचा और उसे ढूंडना शुरू किया। जिज्ञासा से प्रेरित होकर इसी के फलस्वरूप समस्त मानव जाति के लिये धर्म की शुरूआत भी आदि मानव ने करी।

वनवासी मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की गरज, चमक, छोटे बड़े जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु को आसपास देख कर चकित तथा भयभीत तो हुये, परन्तु सोचते भी रहे। अपने आस पास के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहे, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथायों का सृजन तथा संचय भी करते रहे ताकि वह दूसरों के साथ भी उन अज्ञात् रहस्यों की जानकारी का आदान-प्रदान कर सकें। इस प्रकार भारत में सब से पहले और बाद में संसार के अन्य भागों में जहाँ जहाँ मानव समूह थे, पौराणिक कथाओं की शुरूआत हुयी। कालान्तर कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्षक चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया।

आदि धर्म – स्नातन धर्म 

इस प्रकार रहस्यों की व्याख्या के प्रसार का उदय हुआ उस वैज्ञानिक परिक्रिया को आदि धर्म या स्नातन धर्म की संज्ञा दी गयी। कालान्तर वही हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया। दूसरे धर्म  स्नातन धर्म के बाद में आये। सभी आदि धर्मों का मूल स्त्रोत्र भारत से ही था। हिन्दू धर्म के साथ बहुत कुछ समान विचार-धाराऐं थीं। कालान्तर अज्ञानवश और स्वार्थ – वश योरूप वासियों ने स्थानीय आदि धर्मों को पैगनज़िम कहना शुरु कर दिया और मुसलमानों ने कुफ़र या जहालत कहा। वह यह नहीं समझ पाये कि धर्म सम्वन्धी उन के अपने कथन कितने तर्कहीन थे जब कि स्नातन धर्म का वैज्ञानिक आधार परम्परागत निजि अनुभूतियों पर टिका हुया था। स्नातन धर्म दूआरा व्याख्यित तथ्यों के प्रत्यक्ष प्रमाण दैनिक जीवन में स्वयं देखे जा सकते थे।

यह कितने आश्चर्य की बात है कि इसाई, मुसलिम तथा कुछ तथा-कथित हिन्दू दलित नेता वनवासियों को दूसरे धर्मों में परिवर्तित करने के लिये दुष्प्रचार करते हैं कि वनवासी अपने आप को हिन्दू ना कहें और हिन्दू धर्म से विमुख हो जायें। ऐसा हिन्दू धर्म की ऐकता नष्ट करने के लिये किया जाता है ताकि भारत पर इसाई या मुसलिम शासन कायम किया जा सके और दलित नेताओं को नेतागिरी मिली रहे। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में आज कोई अहिन्दू मत का प्रचार करे तो वह प्रगतिवादी बन जाता है और यदि किसी हिन्दू को भारत में हिन्दू ही बने रहने के लिये उत्साहित करे तो उसे कट्टर पंथी कहा जाता है।

मुख्यता स्नातन धर्म का सारांश प्रकृतिक जीवन जीना है जिस में सभी पशु पक्षी और मानव मिल-जुल कर आपसी भाई-चारे से रहें और समस्त विश्व को ऐक बडा़ परिवार जाने। आदि मानव दुआरा विकसित स्नातन धर्म वसुदैव कुटुम्बकुम का प्रेरणा स्त्रोत्र है जिस के जन्मदाता ऋषि-मुनी स्वयं वनवासी थे।

चाँद शर्मा

1 – सृष्टि और सृष्टिकर्ता


सृष्टि में सृजन-विसृजन का क्रम चलता रहता है। जिन तथ्यों को हम आज वैज्ञियानिक सत्य मानते हैं, उन की जानकारी का श्रेय उन लोगों को जाता है जिन्हें हम वनवासी कहते हैं। वही हमारे पूर्वज थे। वनवासियों ने निजि अनुभूतियों से प्राकृतिक तथ्यों का ज्ञान संचित कर के आने वाली पीढि़यों के लिये संकलन किया। वही ज्ञान आज के विज्ञान की आधारशिला हैं। 

सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने – बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन – विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जड़ और चैतन्य

सृष्टि में जीवन दो प्रकार के हैं – जड़ और चैतन्य। सभी प्रकार  की वनस्पतियां जड जीवन की श्रेणी में  आतीं हैं। इन का जीवन वातावरण पर निर्भर करता है। यदि वातावरण अनुकूल हो तो फलते फूलते हैं अन्यथा मर जाते हैं। जड़ जीवन के प्राणी स्वयं को अथवा वातावरण को बदल नहीं सकते और ना ही प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं।

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं

चैतन्य श्रैणी में पशु-पक्षी, जलचर तथा मानव आते हैं। इन का जीवन भी वातावरण पर आधारित है, किन्तु इन के पास जीवित रहने के अन्य विकल्प भी हैं। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने – आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं, अपने भोजन, आवास तथा सुरक्षा के लिये अन्य विकल्प भी ढूंड सकते हैं। जड़ प्राणी परिवर्तनशील  नहीं होते इस के विपरीत चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। 

मानव की श्रेष्ठता

मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। मानव मरूस्थल में, वनों में, पर्वतों पर, एवं अति-अधिक प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में भी जीवित रहने का क्षमता प्राप्त कर चुका है। वृक्षों को काट कर, नये वृक्ष उगा कर, दुर्गम क्षेत्रों में जल की व्वस्था कर के, भोजन के अतिरिक्त साधन जुटा कर, विद्युत उत्पादन कर के, रोगों के उपचार के लिये औषधियों की खोज कर के तथा अन्य कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

इन उपलब्धियों से मानव ने ना केवल अपने जीवन को परिवर्तित किया है बल्कि अन्य जड़ एवं चैतन्य प्राणियों के जीवन में भी अपना अधिकार बना लिया है। समस्त प्राणियों में श्रेष्टता प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप मानवों का यह उत्तरदाईत्व भी है कि वह अन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये परियावरण की रक्षा भी करें क्योंकि मानव पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों से अधिक सक्ष्म भी हैं।

प्राणियों में समानता 

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी के अन्दर निवास करती है तथा हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार विद्युत कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार विद्युत एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। विद्युत काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है। 

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से विद्युत प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है। 

शरीरिक विभिन्नताओं के बावजूद सभी प्राणियों में बहुत सारी समानतायें भी हैं जिन के आधार पर हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि उन सभी का सर्जन स्त्रोत्र एक ही है। हर चैतन्य प्राणी के पास सूघंने के लिये एक ही नासिका है जो दो आँखों के मध्य में स्थित है, सुनने के लिये दो कान और बोलने के लिये एक ही मुख है, पकड़ने के लिये दो हाथ और चलने-फिरने के लिये दो ही पैर हैं। सभी प्राणियों में भोजन खाने, चबाने, पचाने, मल विसर्जन करने तथा अपने जैसे दूसरे जीव को उत्पन्न करने की एक समान प्रणाली है। सभी प्राणियों के शरीर के अंग उन के शरीर के आकार अनुसार अन्य अंगों के साथ ताल मेल रख के कार्य करते हैं और किसी जंगली घास की तरह नहीं उग पड़े। सभी अंग अत्यन्त सावधानी तथा कार्य-कुशलता के विचार से इस प्रकार अन्य अंगों के साथ संलग्न किये गये हैं कि सभी परिस्थितियों में शरीर को पूर्ण क्षमता प्रदान कर सकें। कुछ अंग आवश्यक्तानुसार शरीर के अन्दर से उपयुक्त समयोपरान्त ही प्रगट होते हैं जैसे कि दाँत आदि। 

समस्त प्राणियों के शरीर में सामन्यता एक जैसी क्रियात्मक प्रणालियां हैं जैसे कि रक्तसंचार, श्वास, पाचन तथा स्नायु प्रणाली इत्यादी। सभी प्रणालियाँ अपने कार्य-क्षैत्र की प्रतिक्रियायों को प्राप्त करने तथा विशलेश्न करने के पश्चात उन को आवश्यक्तानुसार दूसरे अंगों को भेजनें में सक्ष्म हैं। प्रणालियां स्वचालित हैं तथा किसी प्रणाली में पनपी त्रुटि अन्य प्रणालियों को भी प्रभावित करती है। इतना ही नही बल्कि एक ही जीवित शरीर में कितनी प्रकार के अन्य सूक्ष्म जीवाणु  भी पलते रहते हैं जैसे कि रक्तकण, शुक्राणु तथा रोगाणु। प्रत्येक जीवाणु की निजि आयु सीमा तथा शरीर है। कई जीवाणु बिना उपकरण के नंगी आँख से दिखायी तो नहीं देते लेकिन उन के अस्तीत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सहस्त्रों प्रकार की वनस्पतियां, कीटाणु, जीवाणु, मच्छलियाँ, पशु-पक्षी और वानर इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

मानवों के पास अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई प्रकार की शरीरिक तथा मानसिक क्षमतायें अधिक हैं। पशु-पक्षियों की तुलना में मानव ना केवल अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियन्त्रण रख सकते हैं अपितु अन्य प्राणियों की भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं पर भी नियन्त्रण रख सकते हैं। अपनी इच्छानुसार मानव दूसरों के अन्दर क्रोध, प्रेम, वासना, लोभ, तथा भय के भाव उत्पन्न कर उन्हें अपनी इच्छानुसार नियन्त्रित भी कर सकते हैं। मानव परियावर्ण में होने वाले बदलाव का पूर्वाभास कर के तथा परिणाम का विचार कर के अग्रिम कारवाई करने में भी सक्ष्म हैं। मानव दूसरे मानवों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों से भी विशेष प्रणाली दुआरा संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। मानव अपनी इच्छानुसार अपने निजि कार्यक्षैत्र का च्यन करते हैं और अपने को कार्यवन्त रखने के लिये उन्हों ने अपने आप को उच्चतर मानसिक शक्तियों से पूर्णतया सक्षम बना लिया हैं। 

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं।

चाँद शर्मा

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