हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

56 – भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण


आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृति अलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।  
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी। 

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है। 

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध 

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पल से मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।  

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके। 

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

चाँद शर्मा

 

 

55 – योरुप में भारतीय रोशनी


योरूपीय देशों के लोग तुर्कों तथा पश्चिम ऐशिया के सम्पर्क में तो थे ही। योरूप के बुद्धिजीवियों ने ‘प्रथम-जागृति’ के समय लैटिन और ग्रीक पुस्तकों को अपनाया। उस के पश्चात उन्हों ने अरबी तथा फारसी के ग्रंथों को अनुवादित किया जो संस्कृत ग्रंथों से पहले ही प्रभावित हो चुके थे। प्रारम्भ में योरूप वासियों की गति विधियाँ ग्रंथों को अनुवादित करने और उन की प्रतिलिपियाँ बनाने तक ही सीमित रहीं। धीरे धीरे उन्हें अरबी-फारसी के ग्रन्थों में उन्हें भारतीय मौलिकता का ज्ञान हुआ। उस के पश्चात ही कई अरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत गर्न्थों का अनुवाद योरुपियन भाषाओं में किया गया और योरूप में ज्ञान की नयी रौशनी फैलने लगी जिसे ‘रिनेसाँ’ का युग कहा जाता है।

विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान

गणित –  1100 ईस्वी में रोबर्ट चेस्टर नामक अंग्रेज़ ने स्पेन की यात्रा की। उस ने वहाँ अलख्वारिस्मी की पुस्तक का लेटिन में अनुवाद किया। जिस के फलस्वरुप नये गणित के रुप में दशमलव पद्धति और अंकों के ‘स्थान’ (पोजीश्नल नोटेशन) से योरुपीय वासी परिचित हुये जो प्रारम्भ में योरुप वासियों को समझ नही पडे थे। नयी भारतीय पद्धति तथा अंकों को समझने में उन्हें देर लगी थी। वह दशमलव को क्रियात्मक ढंग से प्रयोग नहीं कर सके थे। बाद में जब डच गणितिज्ञ्य साईमन स्टेवन (1548-1620) ने दशामलव पद्धति को विस्तार से अपना पुस्तक लाथिन्डे में सझाया तो योरुपवासी भी दशमलव का प्रयोग करने लगे। साईमन स्टेवन के पश्चात मागिनी और क्रिस्टोफर क्लाडिस ने दशमलव पद्धति को अपनी कृतियों में प्रयोग किया। तत्पश्चात 1621 ईस्वी में बैकेट ने अरबी भाषा से अर्थमैटिका का अनुवाद लेटिन भाषा में किया।   

अंक गणित – अल मामोन ने 820 ईस्वी में अबू जफर मुहम्मद मूसा अलख्वारिस्मी (780-850) को बग़दाद में निमन्त्रित किया था। वह बग़दादी प्रतिनिधि मण्डलों की अगुवायी कर के दो बार भारत गया तथा वहाँ के विदूानों को मिल कर उन से कई ग्रन्थों की हस्तलिपियाँ ले कर वापिस आया। उन्हीं के आधार पर उस नें अरबी भाषा में ‘किताब अलजबर वा मुकाबला’ लिखी जिस का सारांशिक अर्थ जमा और घटाने की परिक्रिया से गिनती करना था। अलजबरा इसी परिक्रिया का संक्षिप्त लेटिन नाम है। कालान्तर इसी ग्रन्थ का लेटिन अनुवाद योरुप के विश्व विद्यालयों में गणित शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।   

लोगरिद्म तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धति – 825 ईस्वी में अबू जफर अलख्वारिस्मी ने लोगरिद्म शून्य पद्धति तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धतिपर ऐक पुस्तक लिखी जो ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस का लेटिन अनुवाद ‘अलगोरिदमी डि न्यूमरो इन्डोरम के नाम से छपा था। जिस समय स्पेन पर अरबों का अधिकार था उस समय इस पुस्तक का अरबी संस्करण स्पेन भी ले जाया गया था।

खगोल विज्ञान

अल बत्तानी (850-929) को योरुप में अलबत्तगिनस कहा जाता है। उस ने भारतीय खगोल शास्त्र, दर्शन शास्त्र, पतंजली योग सूत्रों तथा गणित का अध्यन किया था। उस ने श्रीमद् भागवद् गीता, सांख्य करिका, सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश, हिन्दू पुनर्जन्म चक्र आदि का आलोचनात्मिक विशलेशण भी किया था। उस ने ट्रिग्नोमैट्री पद्धति का विस्तार कर के भारतीय विचारों की पुष्टि की तथा स्वीकारा कि पृथ्वी और सूर्य का अन्तर वर्ष में घटता बढता रहता है। किन्तु इस्लामी कट्टर पंथियों के डर से उस ने अपने स्वीकृत तथ्यों को परिभाषित कर दिया था कि “वैसा हिन्दू सोचते हैं ”। उदाहरणत्या उस ने कहा कि “हिन्दू मानते हैं कि सृष्टि की आयु 5 खरब वर्ष है जो कि उस के निजी ईस्लामी विचारों में ग़लत है”। अमेरिका के विषय में हिन्दूओं की भूगौलिक जानकारी के संदर्भ में भी उस ने कहा कि हिन्दू मानते हैं कि ऐक महादूीप रोम शहर से डायगनली विपरीत दिशा में है। यही विचार बाद में लेटिन में अनुवाद किये गये जिन से प्रभावित हो कर कोलम्बस आदि भारत की खोज के लिये पश्चिम जाने के लिये प्ररेरित हो गये थे और उस ने अमेरिका को ढूंड निकाला।

असेट्रोलेब्स 

आर्य भट्ट का जीवनकाल 475-550 ईस्वी का है। सर्वप्रथम उन्हों ने ही खोज निकाला था कि चन्द्र तथा अन्य ग्रह सूर्य की रौशनी से ही चमकते हैं, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है। उन्हों ने ही गृहण के कारणों का विशलेशण किया और यह निष्कर्ष भी निकाला कि ग्रहों की सूर्य परिक्रमा गोल ना हो कर अण्डाकार होती है। आर्य भट्ट की गणना अनुसार पृथ्वी का व्यास 8316 मील बताया और इसी गणना से पाश्चात्य खगोल शास्त्री भी उत्साहित हुये। उस के पश्चातः-

  • 1050 ईस्वी में असेट्रोलेब्स ऐशिया से योरुप में प्रविष्ट हुये जहाँ उन का प्रयोग अक्षाँश तथा देशान्तर रेखाओं के निर्माण में किया गया। बाद में उन का प्रयोग समुद्र पर अपनी स्थिति और समय जानने कि लिये भी किया जाने लगा जिस से नाविकों के कार्य में गति आ गयी।   
  • बाथ निवासी अदिलार्ड (1075-1160) ने समुद्री जहाज़ के दूारा नये पूर्वी मार्ग से इसाई अधिकृत सीरिया तट तक की यात्रा की। उस ने अरबी भाषा में अनुवादित मूल यूक्लिड का लेटिन भाषा में अनुवाद भी किया।
  • ईटली वासी गेरार्ड ग्रीमोना ग्रीक तथा अरबी दोनो भाषायें जानता था। 1175 ईस्वी में उस ने पटोल्मी की खगौलिक कृति ‘दि अलमागेस्ट का लेटिन में अनुवाद किया। इस उनुवाद के फलस्वरूप पटोल्मी की भ्रमात्मिक जानकारी का प्रसार भी हुआ। इस के अतिरिक्त गेरार्ड ग्रीमोना ने गालेन, अरस्तु, यूक्लिड तथा अलख्वारिस्मी की कृतियों को भी अरबी भाषा से लेटिन में अनुवाद किया।
  • 1190 ईस्वी में यहूदी दार्शनिक मोज़ेज माइमोनिडस ने अरस्तु की दार्शनिक विचारों से प्रेरित हो कर दि गाईड फार दि परपलेक्सड.’ की रचना की।

नक्षत्रों के मान चित्र तथा तालिकायें

भारतीय ज्ञान पर आधिरित खगोल शास्त्र सम्बन्धी प्राचीनत् आँकडे तथा मानचित्र बग़दाद में कनक नामक भारतीय के दूारा लाये गये थे। बग़दाद से वह स्पेन के रास्ते से योरुप पहुँचे। 1126 ईस्वी में स्पेन में उन का लेटिन  अनुवाद किया गया था। उन आँकडों तथा मानचित्रों को योरुपीय देशों में खगोल जानकारी के क्षेत्र की अमूल्य प्राप्ति  माना गया। उन के फलस्वरुपः

  • 1272 ईस्वी में अलफोंसाईन टेबल्स (नक्षत्रों की तालिकायें) टोलेडो स्पेन में बनाये गये जिन से ग्रहों की चाल तथा स्थिति की जानकारी मिलती थी।
  • उन्हीं मानचित्रों को प्रकाशित करने में 200 वर्ष का समय लगा तथा 1483 में प्रकाशित होने के पश्चात उन की जानकारी का विस्तरित प्रयोग होने लगा। प्रकाशन की क्रिया को समपन्न करने के लिये उस समय के चोटी के खगोलशास्त्रियों को सहायतार्थ केस्टाईल के अलफैंन्सो दशम ने ऐकत्रित किया था। 

पृथ्वी की गति 

आर्य भट्ट की पृथ्वी सम्बन्धी खोज से सभी सहमत थे कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है तथा पृथ्वी का व्यास 8316 मील है। 1224 ईस्वी में अबदुल्लाउर रऊमी ने ‘मुजामुल बुलदान’ नामक भूगौलिक बृहदकोष (ज्योग्राफिकल ऐनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया। उस क् पश्चात 1440 में कासानस ने पृथ्वी के निरन्तर गतिमान रहने के सिद्धान्त की व्याख्या की और कहा कि अंतरीक्ष अति विस्तरित है। इन्हीं विचारों को ऐडविन हब्बल नें बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में दोहराया और कहा कि ग्रह पृथ्वी से बाहर की ओर फैल कर सृष्टि को विस्तरित करते जा रहे हैं । यह वही बात थी जो भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ शताब्दियों पूर्व से ही कहते चले आ रहे थे।

न्यूटन का अग्रज

सर्वप्रथम गति के विभिन्न आँकलन विशेषका दर्शन शास्त्र में किये गये थे परन्तु प्रस्थापदा ने इस विज्ञान का छटी शताब्दी में विस्तार से विशलेषण किया। उस के अनुसंघानों का आधार ग्रहों की गति, ध्रुवीकरण और आकर्षण था। उस की व्याख्या का आधार गति की तीव्रता तथा लचीलापन भी था जिस का प्रभाव विपरीत दिशा में पडता था। यह सिद्धान्त न्यूटन के ‘ला आफ मोशन का अग्रज था।

चिकित्सा विज्ञान

औषधि तथा शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत तथा चरक के समय से ही महत्वशील प्रगति हो चुकी थी। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने स्नायु तन्त्र, हृदय की धमनियों तथा अन्य शरीरिक द्रव्यों के बारे में विस्तरित उल्लेख कर दिये थे। उन्हें पाचन क्रिया, तथा उस में सहायक द्रव्यों और भोजन को रक्त में परिवर्तित होने की पूर्ण जानकारी थी। पाशचात्य जानकारी तो इन विषयों पर उजागर ही नहीं हुयी थी। उन को इस विषय पर बहुत समय पश्चात ज्ञान हुआ।

  • औषधि शास्त्र ईटली केऔषध शास्त्री पीयट्रो डी अबानो (1200-1300) ने कोंसिलेटर डिफरेंशिया रम् नामक पुस्तक लिखी जो यूनानी और अरब वासियों की चिकित्सा जानकारी का मिश्रण मात्र थी। उस ने मस्तिष्क को स्नायु तन्त्र का केन्द्र तथा हृदय को रक्त शिराओं का स्त्रोत्र बताया। ईसाई कट्टरपंथियों ने उसे ‘जादूगर’ घोषित कर दिया तथा उसे चर्च विचारधारा के विरुद्ध जानकारी प्रसारित करने के अपराध में स्पेनिश कोर्ट ने मृत्यु दण्ड दे दिया।
  • मानव शरीर ऐन्ड्रियाज विसालिया ने 1543 में मानव शरीर के सम्बन्ध में ऐक पुस्तक लिखी जिसका नाम – औन दि स्टरक्चर आफ ह्यूमन बाडीथा। उस ने समस्त जानकारी चोरी छिपे मृत शीरीरों को काट काट कर प्राप्त की थी जो उस समय अपराध मानी जाती थी। परन्तु कालान्तर उस की कृति ने मानव शरीर सम्बन्धी कई योरुपीय भ्रानतियों को दूर करने में सहायता की।
  • रक्त प्रवाह विलियम हार्वे ने1628 ईस्वी में मानव शरीर में रक्त संचालन क्रिया की जानकारी दी जिस से य़ोरूप के आधुनिक ज्ञान का जन्म हुआ। हार्वे से पूर्व रक्त संचलन क्रिया के बारे में पाश्चात्य देशों में कई भ्रानतियाँ थीं। उदाहरणत्या अरस्तु के मतानुसार “रक्त लिवर में उत्पन्न होता था ”। अन्य लोगों के मतानुसार शरीर में रक्त हल्के झटकों के साथ गतिमान होता है। हार्वे ने पहली बार रक्त तथा हृदय का यथार्थ उल्लेख किया। उस ने यह जानकारी भी दि कि स्तनधारी जीव अण्डों से पैदा होते हैं। परन्तु उस के सिद्धान्त को स्वीकारने में लोगों को 150 वर्ष लगे।

ललित कलायें

ओपेरा का जन्म कालीदास के समय में भारत मे ही हुआ था। फ्रैड्रिक दूतीय ने भारतीय तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन दिया। फ्रैड्रिक को 1220 में पवित्र रोमन शासक बनाया गया था । उस के समीप दार्शनिकों, विदूानों तथा बगदाद और सीरिया से आये साधू संतों का जमावडा लगा रहता था। इस के अतिरिक्त भारत और ईरान से नर्तकियों का भी जमावडा रहता था। इस कारण कई भारतीय नृत्यों का समावेश पाश्चात्य नृत्य कला में भी हुआ। भारतीय परमपराओं ने ईटली के ओपेरा को भी प्रभावित किया।

जब हमारे पूर्वज उन्नति के शिखर पर रह चुके थे तो उस की तुलना में उन्नीसवीं शताब्दी तक अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन रात को ‘भालू की खाल’ ओढ कर सोते थे और उन के सम्बन्धी मृग चर्म से अपने शरीर ढकते थे। य़ोरुपीय देश अपनी कालोनियों के स्थानीय निवासियों को लूटने, उन का धर्मान्तरण करवाने और उन्हें गुलाम बना कर बेचने के कारोबार में ही लगे हुये थे।   

चाँद शर्मा

 

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

53 – भारतीय बुद्धिमता की चमक


विदेशी इतिहासकारों का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी विदेशों से विद्यार्थी भारत स्थित तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे। इस के विपरीत भारत के स्नात्क शिक्षा का प्रसारण करने के लिये  ही विदेशों में जाते थे।

लार्ड मैकाले की भारत में शिक्षा प्रसारण नीति के बाद जो भी इतिहास की पुस्तकें भारत के स्कूलों और कालेजों में पढाई जाने लगीं थीं उन में सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व काल का इतिहास ही नदारद था। केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि मगध सम्राट महा पद्म घनानन्द की सैनिक शक्ति की आहट मात्र से सिकन्दर के सैनिक इतने डर गये थे कि उन्हों ने अपने विश्व विजेता को स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया। लेकिन नन्द वँश या उस से पहले के वँशों के बारे में कोई उल्लेख अंग्रेज़ी इतिहास में नहीं मिलते। ऐसा तो हो नहीं सकता कि ऩन्द जैसा शक्तिशाली साम्राज्य ऐक ही वर्ष में पैदा हो गया था जिस से विश्व विजेता सिकन्दर की सैना भी डर जाये।

वह कौन थे जिन्हों ने तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्व विद्यालय स्थापित किये थे? सपेरे? लुटेरे, या फिर अन्धविशवासी? किन्तु इन सभी प्रश्नो पर इतिहास मौन है। पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर पूर्व इतिहास को माइथोलोजी बता कर उसे नकार रखा है और उसी दिशा में हमारी पहचान को मिटाने की भरसक कोशिशें आज भी जारी हैं। दुर्भाग्यवश मैकाले शिक्षानीति के दुष्प्रभाव के कारण अपने देश के नक्काल ‘बुद्धिजीवी’ भी अंग्रेज़ी इतिहास को ही सत्य मान कर अपने साँस्कृतिक इतिहास को भुलाना स्वीकार कर बैठे हैं। हमारे इतिहास पर काला पर्दा डालने के पीछे ईसाईयों की स्वार्थी कुटिल नीति और सोची समझी साजिश थी।

सत्य को दबाया तो गया परन्तु विदेशी सर्जित इतिहास में से भी भारत के गौरवमय तथ्य सिर उठा कर सत्य को छिपाने के प्रमाण स्वरूप बोलते हैं।

योरुप की प्रथम जागृति

भारत की समृद्धि तथा विकास के चर्चे तो यूनान तथा सभी देशों में सिकन्दर के भारत आगमन से पूर्व ही थे। सिकन्दर भारत के सीमावर्ती पंजाब क्षेत्र के तक्षशिला विश्व विद्यालय से अति प्रभावित था। उसी से प्रेरणा ले कर सिकन्दर ने मिस्त्र में सिकन्दरिया (एलेग्ज़ेन्डरिया) नाम के विश्व विद्यालय का निर्माण करवाया था जो कालान्तर भारतीय तथा यूनानी विद्या प्रसार के केन्द्र के तौर पर विकसित हो गया। इस के पश्चात ही सिकन्दर ने मिस्त्र, ऐशिया माईनर, ईरान, बेकटीरिया तथा उत्तर पश्चिमी भारत के प्रान्तों को मिला कर अपनी हैलेनिस्टिक ऐम्पायर स्थापित की थी जिस के माध्यम से भारतीय कलाओं और ज्ञान विज्ञान का यूनान की ओर निर्यात बढ गया।

प्रचुर संख्या में भारतीय ग्रन्थों का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया तथा उन्हे सिकन्दरिया के पुस्कालय में रखा गया। सिकन्दर अपने साथ कई बुद्धिजीवियों और ब्राह्मणों को भी यूनान ले गया था । कालान्तर सिकन्दरिया मैडिटरेनियन प्रदेश में ऐक महत्वशाली महानगर के रूप में विकसित हुआ। वहाँ का पुस्कालय तथा पुरातत्वालय योरुप का प्रथम अन्तराष्ट्रीय विद्याध्यन केन्द्र बन गया था। योरुपीय देशों की प्रथम जागृति की शुरात यहीं से हुयी थी।

सिकन्दर के यूनानी सिपाहियों ने भारतीय तथा ईरानी महिलाओं से विवाह भी किये थे और उन्हें अपने साथ स्वदेश ले गये थे। दोनो देशों के बीच व्यापारिक तथा राजनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गये थे। सिकन्दर के उत्तराधिकारी सैल्युकस ने तो अपनी पुत्री का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दिया था और उसी के फलस्वरूप यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने लगा था। मैगस्थनीज़ ने भारत के गौरवशाली वातावर्ण के इतिहास पाश्चात्य बुद्धजीवियों के लिये लिख छोडा है।

पाईथागोरस

य़ोरुप में विद्या के आधुनिकीकरण की नींव पाईथागोरस ने भारतीय गणित को यूनान में प्रसारित कर के डाली थी। पाईथागोरस की जीवनी उस की मृत्यु के लगभग दो शताब्दी पश्चात टुकडों में उजागर हुयी जिस से पता चलता है कि उस का जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व ऐशिया माईनर के ऐक दूीप सामोस पर हुआ था। संगीत और जिमनास्टिक की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वह मिस्त्र चला गया और बेबीलोन तथा उस के आसपास के क्षेत्रों में कुछ काल तक रहा था। उस क्षेत्र में भारतीय दर्शन ज्ञान, उपनिष्दों, गणित तथा रेखागणित का प्रसार और प्रभाव था सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय स्थापित होने से पूर्व ही था। भारतीय संगीत के धरातल पर ही पाईथागोरस ने पाशचात्य संगीत पद्धति की आधार शिला बनाई थी।

जब पाईथागोरस भारतीय प्रभाव के क्षेत्र में था तब ईरान ने मिस्त्र पर आक्रमण किया। पाईथागोरस को भी बन्दियों के साथ ईरान ले जाया गया । कालान्तर पाईथागोरस ईरान से पंजाब तक भारत में भी गया जहाँ उस ने यूनानी रीति रिवाज और वस्त्र त्याग कर भारत के पहाडी ढंग के टराउजर्स की तरह के परिधान अपना लिये थे। उसी तरह का परिधान पहने महारज कनिष्क को भी ऐक प्रतिमा में दिखाया गया है जो अफगानिस्तान में पाई गई थी। प्रतिमा में सम्राट कनिष्क को डबल ब्रेस्टिड कोट के साथ टराउजर्स पहने दिखाया गया है। यूनान में उस समय तक टराउजर्स नहीं पहनी जाती थीँ। टराउजर्स की ही तरह के पायजामे और सलवारें भारत ईरान घाटी में पहने जाते थे। अतः पाईथागोरस ने भारतीय रेखागणित के साथ साथ भारतीय वेश भूषा भी योरुप में प्रचिल्लत की थी।

भारतीय विचारघारा का प्रसार

लगभग बीस वर्षों तक पूर्वी देशों में रहने के उपरांत पाईथागोरस योरुप वापस जा कर इटली के क्रोटोन प्रान्त में रहने लगा। वहाँ पर यूनानी भाषा का प्रचार भी था। उस ने अपने मित्रों तथा शिष्यों की ऐक मणडली बनाई। उस टोली ने संसार को विश्व स्तरीय परिवार  – वसुदैव कुटम्बकम् के अनुरूप प्रचार किया तथा निजि जीवन में अनुशासित रहने पर भी बल दिया। 

पाईथागोरस ने पुनर्जीवन में विभिन्न शरीर पाने के भारतीय विचार को भी व्यक्त किया। उस ने अपने पुनर्जन्मों के समर्ण रखने का दावा किया तथा सभी जीवों में ऐकीकरण का भारतीय सिद्धान्त दोहराया। अपनी टोली के सदस्यों को जीवों  के प्रति दया और अहिंसा का बर्ताव करने को कहा। पाईथागोरस का कथन था कि जो जीवों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करे गा वह पुनर्जन्म अनुसार अगला जन्म पशु योनि में लेगा।

पाईथागोरस के प्रचार के फलस्वरूप यूनान में बुद्धिजीवियों का समाज जिन में सुकरात, अफलातून, अरस्तु (क्रमशः सोक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टोटल) आदि तथा कई अन्य उस के विचारों का उनुमोदन करने लगे। उन्हों ने भारतीय परम्परा के चार महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु का अनुमोदन तो किया किन्तु आकाश का यथार्थ नहीं समझ पाये। अतः यूनानी बुद्धिजीवियों ने आकाश तत्व का प्रतिपादन महाभूतों में नहीं किया।

योरूपीय जागरुक्ता के प्रेरक

जिन ग्रन्थों और सिद्धान्तों ने सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय के माध्यम से पाश्चात्य जगत में विचार क्रान्ति को प्रोत्साहन दे कर योरुप वासियों की प्रथम चेतना या प्रथम जागृति (फर्स्ट अवेकनिंग) को जगाया उन में से कुछ मुख्य भारतीय विषय इस प्रकार हैं –

  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में काम करने वाले ऐक यूनानी खगोल शास्त्री अरिस्टारक्स ने  300 –250 में सौर मण्डल का सिद्धान्त घोषित किया जो कालान्तर शताब्दियों पश्चात कोपरनिकस नें भी अपनाया और उसे विकसित किया।
  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में ही काम करने वाले ऐक अन्य यूनानी खगोल शास्त्री इराटोस्थनीज ने 250-200 में आकाश का ऐक मानचित्र बनाया जिस में 675 तारे दिखाये। उस ने पृथ्वी का व्यास भी नापा जो लगभग आधुनिक आँकडों के समीप मिलता जुलता था।  
  • रोमन सैना के साथ काम करने वाले ऐक य़ूनानी चिकित्साशास्त्री डियोकोरिडिस 01 –100 ने वनस्पतियों का अध्ययन कर के उन से औषधि तैयार करने पर शोध किया और डी माटेरा मैडिका नाम का ऐक ग्रन्थ रचा जिसे बाद में अरब वासियों ने भी संरक्षित किया। वह योरुप का प्रथम औषधि ग्रन्थ था तथा उस में 600 पौधों और 1000 औषधियों का उल्लेख किया गया था।
  • मिस्त्र में खगोल शास्त्री पटोल्मी (127 ईस्वी) ने पटोल्मी सिद्धान्त की व्याख्या कर के पृथ्वी को स्थिर और ग्रहों को पृथ्वी की परिक्रमा करते उल्लेखित किया। पाश्चात्य जगत में पटोल्मी सिद्धान्त का यही भ्रमात्मिक सिद्धानत 16 वी शताब्दी तक मान्य रहा। इस भ्रम का निकोलस कोपरनिकस ने खण्डन किया था और कहा कि सौर मण्डल का केन्द्र पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है जो केन्द्र में स्थिर है। वास्तव में तो यह सिद्धान्त भी प्राचीन भारतीय उल्लेखों के सामने अधूरा ही था क्यों कि भारतीय अपने सूर्य को भी अस्थिर घोषित कर चुके थे और कोटि कोटि ब्रह्माण्डों की घोषणा भी कर चुके थे।
  • ईसा के 200 वर्ष पश्चात पलोटिनस नें अपनी रचना इनीडस में जगत को ऐक ही स्त्रोत्र से व्यक्त हो रही श्रंखलाओं की कडी बताया। उस का कथन हिन्दू मतानुसार यय़ार्थ के अधिक निकट था।

सिकंद्रिया का विनाश

47 ईस्वी में जुलियस सीजर तथा पोम्पी महान के बीच युद्ध हुआ जिस के फलस्वरूप सिकन्द्रीया पुस्तकालय जल गया। ज्ञान के क्षेत्र में यह मानवता के लिये बहुत बडी दुर्घटना थी क्यों कि इस विनाश में 40,000 से अधिक ग्रन्थ अग्नि में क्षति ग्रस्त हो गये थे।

दूसरी शताब्दी में रोम ऐक महाशक्ति के रूप में उजागर हुआ। नये नये ईसाई रंग में डूबे रोम-वासियों ने यूनानी सभ्यता के सभी चिन्हों और उन की अर्जित अथवा संकलित की हुई ज्ञान सम्पदा का विनाश कर दिया। रोम वासियों ने अपने राज्य का विस्तार उत्तरी अफरीका, ऐशिया माईनर तथा दक्षिणी योरूप तक फैला दिया जिस के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के सभी अंश जो चर्च की सम्मति से मेल नहीं खाते थे नष्ट कर दिये गये। यूनानी नगर ध्वस्त कर दिये गये, ज्ञान अर्जन – सर्जन रुक गये तथा बुद्धिजीवी मार डाले गये। कुछ थोडे यूनानी बुद्धिजीवी जान बचा कर योरुप के अन्य भागों में छिप सकने में सफल हो गये थे। वह कुछ ग्रंथों को अपने साथ ले जा पाये थे और चोरी छिपे बिजेन्टिन काल तक गुप्त ढंग से शोध कार्य करते रहै।

529 ईस्वी में जसटिन लेन ले ऐथेंस (यूनान) में अफलातून (प्लेटो) की अकादमी के बचे खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये और यूनानी ज्ञान भण्डार योरुप से पूर्णत्या मिट गये। ईसाईयो ने पेगनिज्म फैलाने का आरोप लगा कर बुद्धिजीवियों को मार डाला और उन के ग्रन्थ नष्ट कर दिये। इस प्रकार आज ज्ञान विज्ञान का ढिंढोरा पीटने वाले ईसाईयों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपना विनाशात्मिक योगदान दिया जो इतिहास के पृष्टों पर सुरक्षित है।

जो यूनानी बुद्धिजीवी संयोगवश बच सके थे उन्हों ने ईरान में शरण ली तथा वनवास में ही उन्हों ने अपनी अकादमी स्थापित कर के निजि ज्ञान यात्रा जारी रखी।

योरुपीय जागृति 

आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप में 14-15 वीं शताब्दी में हुआ जिसे उन के अपने इतिहास में पुनर्जागृति (रिनेसाँ) कहा जाता है। प्राचीन ग्रंथ फिर से खोज निकाले गये जिन में से युक्लिड की ज्योमैट्री, पटोल्मी की जियोग्राफी तथा गालेन की मेडिसन मुख्य थीं। यह वह समय था जब भारत में तुगलक तथा लोधी वंशजकों का राज्य था और उत्तर – पश्चिम दिशा से मुगलों के आक्रमण भी हो रहे थे। राजनैतिक उथल पथल तथा राजकीय संरक्षण के अभाव के कारण भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान भी लुप्त अवस्था में पहुँच चुका था।

यह वह काल था जब पूर्व में सूर्यास्त हो कर पश्चिम दिशा से उदय हो रहा था। भारत में मुसलिम शासकों ने अन्धकार युग फैला दिया था। हिन्दू ज्ञान विज्ञान ग्रन्थों के ढेर कुफर के नाम से जलाये जा रहे थे तथा हिन्दू बुद्धजीवियों का कत्ले आम साधारण दिनचर्या की बात बन चुकी थी। सभी वर्गों से सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणों का हो रहा था।

सौभाग्य से उस समय कुछ ग्रन्थ विनाश से बचा लिये गये थे। कुछ भारत से बाहर ले जाये जा चुके थे और वहाँ भी बचा लिये गये थे। उन्हीं ग्रन्थों से आधुनिक विज्ञान के अंकुर ने योरुप में पुनर्जन्म लिया और उस को रिनेसाँ का नाम दिया गया। जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद फैला तो योरुपीय संयोजकों ने उसी ज्ञान को अपना व्याख्यात कर के उन पर नये स्रजनकर्ताओं के नाम लिख दिये। भारतीय विद्या भण्डारों का हस्तान्तिकरण हो गया।

चाँद शर्मा

 

 

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

हिन्दू महा सागर – विषय सूची


(पढने के लिये रेखांकित शीर्षक पर कल्कि करें)

हिन्दू महा सागर – ऐक परिचय

प्रथम प्रकरण – विचारधारा

(सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। विभिन्नता केवल शरीरों में ही है।यही हिन्दू धर्म की मुख्य विचारघारा है।    संसार का प्रथम मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर आधारित था जो कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ।)           

  1. सृष्टि और सृष्टिकर्ता
  2. स्नातन धर्म के जन्मदाता
  3. सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध
  4. धर्म का विकास और महत्व
  5. स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता 

दूसरा प्रकरण – देवी देवता

(हिन्दू ऐक ही ईश्वर को निराकार मानते हुये उसे कई रूपों में साकार भी मानते हैं तथा जन साधारण को व्याख्या करने के लिये चिन्हों का प्रयोग भी करते हैं जो ईश्वरीय शक्ति के वैज्ञियानिक रूप को दर्शाते हैं। संसार की गति विधियों का जो विधान प्राचीन ऋषियों ने कल्पना तथा अनुभूतित तथ्यों के आधार पर किया उसी के अनुसार आज भी विश्व की सरकारें चलती हैं। सृष्टि के विधान में जब भी कोई कर्तव्य विमुख होता है और अधर्म बढने लगता है तो सृष्टिकर्ता सृष्टि के संचालन धर्म की पुनः स्थापना कर देते हैं।)

  1. निराकार की साकार प्रस्तुति 
  2. प्राकृति का व्यक्तिकरण
  3. संसार का प्रशासनिक विधान
  4. विष्णु के दस अवतार

तीसरा प्रकरण – हिन्दू साहित्य

तीसरा प्रकरण – मानव ज्ञान के मौलिक ग्रंथ

(कई धर्मों में आस्थाओं पर टिप्पणी करना अपराध माना जाता है किन्तु हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति वैचारिक रूप से स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ अनिवार्य हो। हिन्दू ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है लेकिन हिन्दू चाहे तो की किसी ऐक पुस्तक को, अथवा सभी को, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को विश्व गुरू माना जाता था। वेद, उपनिष्द, दर्शनशास्त्र, रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं किन्तु धर्म निर्पेक्षता के ढोंग के कारण भारत सरकार ने ही उन्हें केवल हिन्दू साहित्य समझ कर शिक्षा के क्षेत्रों में अछूता छोड़ दिया है।)                       

  1. हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ
  2. उपनिष्द – वेदों की व्याख्या
  3. दर्शनशास्त्र – तर्क विज्ञान
  4. समाजिक आधार – मनु समृति
  5. रामायण – प्रथम महाकाव्य
  6. विशाल महाभारत
  7. मानव इतिहास – पुराण
  8. पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म

चौथा प्रकरण – व्यक्तिगत जीवन

(जीवन में आदर्शों की आधारशिला यम नियम हैं। जिन के अभ्यास से गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं। सभी जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की भावनाओं से प्रेरित हो कर कर्म करते हैं। आवेश की प्रधानताओं के अनुसार ही व्यक्तित्व बनता है। आवेशों को साधना से नियन्त्रित और संतुलित किया जा सकता है। जीवन में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं जिन में से धर्म अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। जीवन को चार प्राकृतिक भागों में विभाजित किया है, जिन्हेंब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम कहा जाता है। आजकल के जीवन में तनाव का मुख्य कारण आश्रम जीवन पद्धति का लुप्त होना है।)

  1. आदर्श जीवन का निर्माण
  2. मानव जीवन के लक्ष्य 
  3. व्यक्तित्व विकास
  4. जीवन के चरण

पाँचवां प्रकरण – हिन्दू समाज

(सामाजिक वर्गीकरण आज भी सभी देशों और जातियों में है जो नस्ल, रंग-भेद, या विजेता और पराजित  अवस्था के कारण है। वहाँ निचले वर्ण से ऊँचे वर्ण में प्रवेश लगभग असम्भव है, किन्तु हिन्दू समाज में मनु के वर्गीकरण का आधार रुचि, निपुणता, परस्पर-निर्भरता, श्रम-विभाजन, श्रमसम्मान तथासमाज के लिये व्यक्ति का योग्दान था। जन्म से सभी निम्न वर्ण माने जाते हैं किन्तु सभी अपने पुरुषार्थ से योग्यता और उच्च वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं। यह दुर्भाग्य है कि आजकल सरकारी विभाग केवल जन्म-जाति के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र, आरक्षण और विशेष सुविधायें राजनेताओं के स्वार्थ के  कारण प्रदान कर देते हैं। अन्य देशों और धर्मों की अपेक्षा हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त रही है। स्त्रियों के लिये कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है ताकि स्त्री पुरुष ऐक दूसरे के प्रतिदून्दी बनने के बजाय सहयोगी बने। धर्मान्तरण कराने के लिये हिन्दू विरोधी गुट छुआ-छूत, सती प्रथा तथा कन्याओं के वध का दुष्प्रचार करते रहै हैं जबकि हिन्दू समाज में सामाजिक शिष्टाचार का महत्व सभ्यता के आरम्भ से ही है।)

  1. हिन्दू समाज का गठन
  2. वर्ण व्यवस्था का औचित्य
  3. हिन्दू समाज और महिलायें
  4. सती तथा भ्रूण हत्या
  5. हमारी सामाजिक परम्परायें

छठा प्रकरण – प्राकृतिक जीवन

(पूजा पाठ करना प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है। क्रियाओं को निर्धारित प्रणाली से करना ही रीति रिवाज कहलाता है जो घटना के घटित होने के प्रमाण स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। यह समय और समाज की ज़रूरतों के अनुसार बदलते रहते हैं। पर्व नीरस जीवन में परिवर्तन तथा खुशी का रंग भरने के निमित हैं। हिन्दू पर्व भारत की ऋतुओं, पर्यावरण, स्थलों, देश के महा पुरुषों तथा देश में ही घटित घटनाओं के साथ जुड़े हैं। हमें विदेशों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। साधना का ऐक महत्व पूर्ण अंग वृत लेना है। साधनायें आवेशों, विकारों, मनोभावों तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने में सहायक है।)

  1. पूजा और रीति रिवाज
  2. पर्यावरण सम्बन्धित पर्व 
  3. राष्ट्र नायकों के पर्व
  4. वृत और स्वस्थ जीवन 

सातवां प्रकरण – हिन्दू गौरव

(वैज्ञानिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैंक्योंकि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व भारत में उच्च शिक्षा के लिये विश्विद्यालय थे जहाँ से वैज्ञायानिक विचारों का उदय हुआ लेकिन आज से केवल आठ सौ वर्ष पूर्व तक विश्व की अन्य मानव जातियाँ डार्क ऐज में ही जीवन व्यतीत कर रही थीं। ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर मौलिक शब्दावली और ग्रंथ भारत में लिखे गये थे। उदाहरण स्वरूप कुछ ही विषयों की जानकारी संक्षिप्त में यहाँ दी गयी है।)

  1. उच्च शिक्षा के संस्थान
  2. विज्ञान-आस्था का मिश्रण
  3. सृष्टि का काल चक्र
  4. गणित क्षेत्र में योगदान
  5. भारत का भौतिक ज्ञान
  6. तकनीकी उपलब्द्धियाँ
  7. ज्योतिष विज्ञान
  8. चिकित्सा क्षेत्र के जनक
  9. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति

आठवां प्रकरण –कला-संस्कृति

(भाषा, भोजन, भेष, भवन और भजन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। पाश्चात्य देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और केवल मांसाहार कर के ही पेट भरते थे तब भी भारत को ऐक अत्यन्त विकसित और समृद्ध देश के रूप में जाना जाता था। संस्कृत आज भी कम्पयूटरों के उपयोग के लिय सर्वोत्तम भाषा है और इस का साहित्य सर्वाधिक मौलिक, समृद्ध और सम्पन्न है। साहित्य सर्जन की सभी शैलियों का विकास भारत में ही हुआ था। भारतीय जीवन में अध्यात्मिक्ता के साथ साथ मर्यादित विलासता का भी समावेश रहा है। भारतीय खेलों के लिय किसी विश्ष्ट तथा महंगे साजोसामान की जरूरत नहीं पडती। विश्व में लगर प्रबन्ध का प्राचीनतम प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से ही मिले हैं। भारतीय संगीत तुलना में आज भी पाश्चात्य संगीत से अधिक विस्तरित, वैज्ञानिक, कलात्मिक और प्रगतिशील है।)
 
  1. देव-वाणी संस्कृत भाषा
  2. विश्व को साहित्यिक देन
  3. समृद्ध भारतीय जन जीवन
  4. खेल कूद के प्रावधान 
  5. भारत की वास्तु कला
  6. हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति

नौवां प्रकरण – सैन्य क्षमता

(प्रजातान्त्रिक प्रतिनिधि सरकार की परिकल्पना को भारतवासियों ने रोम तथा इंग्लैंड से कई हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप दे दिया था। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे। भारत को ऐक समृद्ध सैनिक महाशक्ति माना जाता था। युद्ध-भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम, और कायरता को अधोगति समझा जाता था। प्रथम शताब्दि में युद्ध कला, युद्ध-नियम तथा शस्त्राभ्यिास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा विमानों की संचलन प्रणाली सम्बन्धी निर्देश भी उपलब्द्ध हैं जिन में प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मिक जानकारी उपलब्द्ध है।)

  1. राजनीति शास्त्र का उदय
  2. राष्ट्वाद की पहचान – हिन्दुत्व
  3. भारत की सैनिक परम्परायें
  4. वीरता की प्रतियोग्यतायें
  5. प्राचीन वायुयानों के तथ्य
  6. अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण

दसवां प्रकरण – ज्ञानकोषों की तस्करी

ज्ञान-विज्ञान, कला और सभ्यता के सभी क्षेत्रों के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर से ही आरम्भ हुआ था। भारतीय ग्रन्थों के यूनानी भाषा में अनुवाद से आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप रिनेसाँ के काल में हुआ। रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। भारत के ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पाश्चात्य बुद्धजीवियों की तरह कोई पेटेन्ट नहीं करवाये इस लिये जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद विश्व में फैला तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान का हस्तान्तिकरण हो गया और विज्ञान के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने के लिये ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रयोग आरम्भ हुआ।

  1. भारत का वैचारिक शोषण
  2. भारतीय बुद्धिमता की चमक
  3. भारतीय ज्ञान का निर्यात
  4. योरुप में भारतीय रोशनी
  5. भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण
  6. पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त

ग्यारहवां प्रकरण – विनाश लीला

देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। अति सदैव बुरी होती है। हिमालय की गोद में हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति इतने निशचिन्त हो गये थे कि उन का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया। दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन बढ जाने से निर्धन लोग इस्लाम कबूलने लग गये। कर्मयोग को त्याग हिन्दू पलायनवाद पर आश्रित हो गये। अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते गये।

  1. क्षितिज पर अन्धकार
  2. इस्लाम का अतिक्रमण
  3. हिन्दू मान्यताओं का विनाश
  4. इस्लामीकरण का विरोध
  5. कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद
  6. अंग्रेजों की बन्दर बाँट

बारहवां प्रकरण – वर्तमान

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर होता है – बटवारे के बाद जब भारत की सीमायें ऐक बार फिर सिमिट गयीं तो हिन्दूओं को पाकिस्तान से निकलना पडा था। प्राचीन इतिहास से नाता तोड कर हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह  प्रचारित किये गये विवादस्पद ‘राष्ट्रपिता’ का परिचय ले कर अपनी नयी धर्म-निर्पेक्ष पहचान बनाने में लगे हुए हैं। काँग्रेसी नेताओं ने आक्रान्ताओं को खण्डित भारत का फिर से हिस्सेदार बना लिया है और मुस्लमानों को प्रलोभनों से संतुष्ट रखना अब हिन्दूओं के लिये नयी ज़िम्मेदारी है। अपने वोट बैंक की संख्या बढा कर अल्पसंख्यक फिर से भारत को हडप जाने की ताक में हैं। उन्हों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया नहीं है। हमारे राजनैता उदारवादी बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है। हिन्दूओं की पहचान, राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्म-सम्मान  सभी कुछ नष्ट हो रहै हैं। हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा और पलायनवाद है। अगर हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है तो एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होना पडे गा, उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़। गर्व से कहना हो गा कि हम हिन्दू हैं  और आदि काल से भारत हमारा देश है।  अगर अभी नहीं किया तो फिर कभी नहीं  होगा !  

  1. बटवारे के पश्चात भारत
  2. हिन्दू विरोधी गुटबन्दी
  3. आरक्षण की राजनीति
  4. अलगावादियों का संरक्षण
  5. अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू
  6. हिन्दूओं की दिशाहीनता
  7. धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र?
  8. ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति
  9. अभी नहीं तो कभी नहीं

निम्नलिखित हिन्दू महासागर का भाग नहीं हैं।

हिन्दू जागृति

हिन्दू गौरव

चेतावनी

राष्ट्रीयता

हिन्दू समाज

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