हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

2. आदि-मानव धर्म के जन्मदाता


जिस तरह किसी ऐक वैज्ञिानिक को विज्ञान के जन्मदाता होने का श्रेय नहीं दिया जा सकता, उसी तरह स्नातन धर्म का जन्मदाता कोई ऐक व्यक्ति नहीं था। आदिवासी मानवों से शुरू होकर कई ऋषियों ने तथ्यों का परीक्षण  कर के मानव धर्म की विचार धारा के तथ्यों का संकलन किया है। य़ह किसी ऐक व्यक्ति, परिवार या जाति का धर्म नहीं है।

पहला सत्य है कि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। दूसरा सत्य यह है कि सभी पशु-पक्षी अपने शरीर सम्बन्धी कार्य अपने मन की प्रतिक्रियाओं से प्ररेरित हो कर करते हैं तथा इन प्रतिक्रियाओं का स्त्रोत्र भी उन का सर्जन कर्ता ही है।

 पशु-पक्षियों की स्मृति शरीरिक आकार तथा आवश्यक्ताओं के अनुसार सीमित होती है। जब उन्हें भूख लगती है तभी वह भोजन को ढूंडते हैं। कोई खतरा होता है तो वह अपने आप को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल अपनी ही तरह के दूसरे पशु-पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं। उन के भीतर भी भूख, लालच, ईर्षा, वासना, क्रोध, भय और प्रेम आदि की भावनायें तो होती हैं लेकिन परियावरण ही उन्हें सोने, प्रजन्न करने तथा नवजातों के सरंरक्षण के लिये प्रेरित करता है। वह प्राकृतिक प्ररेणा से ही अपने अपने मनोभावों की व्यक्ति तथा पूर्ति के लिये कर्म करते हैं। मनोभावों पर उन का कोई नियन्त्रण नहीं होता। निर्धारित समय से पहले या पीछे वह प्रजन्न नहीं कर सकते। वह अपना भला-बुरा केवल कुछ सीमा तक ही सोच सकते हैं लेकिन किसी दूसरे के लिये तो वह कुछ नहीं सोच सकते।

दैनिक क्रिया नियन्त्रण कर्ता 

जड़ और चैतन्य, दोनो ही परियावरण का अभिन्न अंग हैं। परियावरण का सन्तुलन बनाये रखने के लिये सृजनकर्ता ने ही पूर्व-निर्धारित उद्देष्य से उन की गतिविधियाँ निर्धारित तथा नियन्त्रित कर दी हैं। किसी स्वचालित उपक्रम की भाँति सभी जीव अपने अपने  निर्धारित कर्तव्यों की पूर्ति के लिये स्वयं ही प्रेरित तथा क्रियाशील होते हैं। जैसे सिंह वन में पशुओं की संख्या नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार सागर में बड़ी मच्छलियाँ छोटी मच्छलियों की संख्या नहीं बढ़नें देतीं। साँप चूहों आदि को घटाते हैं और स्वयं शिकारी पक्षियओं का भोजन बन जाते हैं। केंचुए वृक्षों के आस-पास की भूमि को नर्म कर के वनस्पतियों की भोजन-पोषण में सहायता करते हैं।

पशु-पक्षियों की प्राकृतिक मनोदिशा ही उन का निर्धारित कर्तव्य पत्र है। भले ही वह अपने कर्तव्य के महत्व को ना समझते हों, परन्तु कोई प्राणी यदि अपने निर्धारित कर्म को ना करे तो सृष्टि में उस प्राणी का आस्तीत्व ही बेकार हो जाये गा। कुछ जीव निजि कर्तव्यों का निर्वाह दिन के समय करते हैं तो कुछ रात्रि में अपना दाईत्व निभाने के लिये निकल पड़ते हैं। उन्हें वैसा करने के लिये सृजनकर्ता ने ही प्ररेरित किया है तथा सक्ष्म भी बनाया हैं। कर्तव्य निभाने के लिये उन्हें कोई बुलावा नहीं भेजता – रात्रि के समय वह स्वयं ही अपना अपना दाईत्व सम्भाल लेते हैं। एक बिच्छू, साँप या सिहं अपने शिकार को मार ही डाले गा भले ही कुछ क्षण पूर्व उसी प्राणी ने उन की जान भी बचाई हो। उन के कर्म से किसी का भला हो या बुरा, पशु पक्षियों को कभी अहंकार या आत्म ग्लानि नहीं होती क्योंकि वह अपने सभी कार्य सृजनकर्ता के आदेशानुसार ही करते हैं।

सृष्टि में जीवन के आधार 

समस्त सृष्टि का चलन स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। सभी कुछ ताल-मेल से चलता है। सभी कार्य पूर्वनिर्धारित समयनुसार अपने आप ही निश्चित समय पर होते रहते हैं। सूर्य प्रति दिन समयनुसार पूर्व दिशा से निकलता है और पश्चिम दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में अस्त नहीं होता। सभी गृह-नक्षत्र अपनी अपनी परिधि में सीमित हो कर निर्धारित गति में अनादि काल से घूम रहे हैं। सागर जल का अक्ष्य भण्डार अपनें में समेटे रहते हैं। जल को स्वच्छ एवं शुद्ध रखने के लिये पूरी जल-राशि को दिन में दो बार ज्वार भाटे के माध्यम से उलट-पलट किया जाता है। निर्धारित समय पर ही प्रति वर्ष धरती सूर्य के समीप जाकर अतिरिक्त ऊष्णता गृहण करती है ताकि धरती पर अनाज और फल पक सकें। सागर जल से नमक की मात्रा छुड़वा कर पय जल में परिवर्तित करने के लिये जल बादलों के अन्दर भरा जाता है। वायु बादलों को सहस्त्रों मील दूर उठा ले जाती है तथा वर्षा कर के पृथ्वी पर उसी जल को जलाश्यों में भरवा देती है। बचा हुआ जल नदियों के रास्ते पुनः सागर में विलीन हो जाता है।  सोचने की बात है यही कार्य किसी सरकारी अधिकारी या ठेकेदार को सौंपा गया होता तो क्या वह कैसे करता। 

सृष्टि के प्राणियों की कार्य सुविधा के लिये सूर्य पूरी पृथ्वी पर रौशनी फैला देता है तथा रात्रि के समय चन्द्र शीतल रौशनी के साथ उदय होता है और रात्रि में काम करने वालों के लिये रौशनी का प्रबन्ध कर देता है। साथ ही साथ सागर जल को उलट-पलट कर जल का शुद्धिकरण भी करवा देता है। सृष्टि की सभी प्रणालियाँ सहस्त्रों वर्षो से पूर्ण सक्ष्मता के साथ कार्य कर रही हैं । जब किसी प्रणाली में कोई त्रुटि आ जाती है तो प्रकृति अपने आप उसे दूर भी कर देती है। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार से निरन्तर चलता रहता है। 

सृष्टि कर्ता की खोज

अतः विचार करने की बात है कि सृष्टि में कोई तो केन्द्रीय शक्ति अवश्य है जिस ने इतनी सूक्ष्म, सक्ष्म तथा स्शक्त कार्य पद्धति  निर्माण की है। इतनी स्वचालिता आज भी विज्ञान के  बस में नही है। वैज्ञानिक तथा बुद्धिजीवी केवल कुछ तत्वों को जानते हैं जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश सृष्टि के मुख्य तत्व हैं। लेकिन इन के अतिरिक्त कई अज्ञात् तत्व और भी है जो इस विशाल प्रणाली को सुचारू ढंग से चला रहे है। विज्ञान तत्वों की खोज और पहचान कर के कारण तथा क्रिया में सम्बन्ध स्थापित करने में धीरे धीरे सफल हो रहा है लेकिन विज्ञान ने किसी नये अथवा पुराने तत्व को बनाया नहीं है। विज्ञान अभी तक सभी तत्वों को खोज भी नहीं पाया है। 

यदि वैज्ञानिक एक चींटी का ही सर्जन करना चाहें जो सभी कार्य स्वाचालित ढ़ंग से करे तो उस में कितने ही उपकरण लगाने पड़ें गे तथा उस का आकार एक जेट विमान के जितना बडा होगा तथा उस की दैनिक देखभाल के लिये कई इंजिनियर तैनात करने पड़ेंगे। इतना करने के पश्चात भी वह चींटी कुछ सीमित कार्य ही कर सके गी और अपने जैसी दूसरी चींटी तो पैदा कर ही नहीं सके गी। ऐसे प्रोजेकट की लागत भी करोड़ों तक जाये गी।

धर्म की शुरूआत 

वैज्ञिानिक तथ्यों को जानना धर्म का आरम्भ मात्र है। हम जानते हैं कि पहले कोई घर या गाँव नहीं थे। आदि मानव वनों में रहते थे। विद्यालय, चिकित्सालय आदि भी नहीं थे। निस्संदेह वनों में निवास करने वाले आदि मानवों ने भी सोचा होगा कि कौन सृष्टि को चला रहा है। सोचते सोचते उन्हों ने उस अज्ञात् शक्ति को ईश्वर कहना शुरू कर दिया क्यों कि वह शक्ति सर्व-व्यापक, सर्व शक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। किसी ने उस शक्ति को देखा नहीं लेकिन महसूस तो अवश्य किया है। उस महाशक्ति की कार्य-कुशलता तथा दयालुता का आभास पा कर मानव आदि काल से ही उस महाशक्ति का आभारी हो कर उसे खोजने में लगा हुआ है। समस्त प्राणियों में आदि मानव ने ही सब से पहले महाशक्ति ईश्वर के बारे में सोचा और उसे ढूंडना शुरू किया। जिज्ञासा से प्रेरित होकर इसी के फलस्वरूप समस्त मानव जाति के लिये धर्म की शुरूआत भी आदि मानव ने करी।

वनवासी मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की गरज, चमक, छोटे बड़े जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु को आसपास देख कर चकित तथा भयभीत तो हुये, परन्तु सोचते भी रहे। अपने आस पास के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहे, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथायों का सृजन तथा संचय भी करते रहे ताकि वह दूसरों के साथ भी उन अज्ञात् रहस्यों की जानकारी का आदान-प्रदान कर सकें। इस प्रकार भारत में सब से पहले और बाद में संसार के अन्य भागों में जहाँ जहाँ मानव समूह थे, पौराणिक कथाओं की शुरूआत हुयी। कालान्तर कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्षक चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया।

आदि धर्म – स्नातन धर्म 

इस प्रकार रहस्यों की व्याख्या के प्रसार का उदय हुआ उस वैज्ञानिक परिक्रिया को आदि धर्म या स्नातन धर्म की संज्ञा दी गयी। कालान्तर वही हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया। दूसरे धर्म  स्नातन धर्म के बाद में आये। सभी आदि धर्मों का मूल स्त्रोत्र भारत से ही था। हिन्दू धर्म के साथ बहुत कुछ समान विचार-धाराऐं थीं। कालान्तर अज्ञानवश और स्वार्थ – वश योरूप वासियों ने स्थानीय आदि धर्मों को पैगनज़िम कहना शुरु कर दिया और मुसलमानों ने कुफ़र या जहालत कहा। वह यह नहीं समझ पाये कि धर्म सम्वन्धी उन के अपने कथन कितने तर्कहीन थे जब कि स्नातन धर्म का वैज्ञानिक आधार परम्परागत निजि अनुभूतियों पर टिका हुया था। स्नातन धर्म दूआरा व्याख्यित तथ्यों के प्रत्यक्ष प्रमाण दैनिक जीवन में स्वयं देखे जा सकते थे।

यह कितने आश्चर्य की बात है कि इसाई, मुसलिम तथा कुछ तथा-कथित हिन्दू दलित नेता वनवासियों को दूसरे धर्मों में परिवर्तित करने के लिये दुष्प्रचार करते हैं कि वनवासी अपने आप को हिन्दू ना कहें और हिन्दू धर्म से विमुख हो जायें। ऐसा हिन्दू धर्म की ऐकता नष्ट करने के लिये किया जाता है ताकि भारत पर इसाई या मुसलिम शासन कायम किया जा सके और दलित नेताओं को नेतागिरी मिली रहे। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में आज कोई अहिन्दू मत का प्रचार करे तो वह प्रगतिवादी बन जाता है और यदि किसी हिन्दू को भारत में हिन्दू ही बने रहने के लिये उत्साहित करे तो उसे कट्टर पंथी कहा जाता है।

मुख्यता स्नातन धर्म का सारांश प्रकृतिक जीवन जीना है जिस में सभी पशु पक्षी और मानव मिल-जुल कर आपसी भाई-चारे से रहें और समस्त विश्व को ऐक बडा़ परिवार जाने। आदि मानव दुआरा विकसित स्नातन धर्म वसुदैव कुटुम्बकुम का प्रेरणा स्त्रोत्र है जिस के जन्मदाता ऋषि-मुनी स्वयं वनवासी थे।

चाँद शर्मा

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