हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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71 – ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति


इस समय देश की राजसत्ता खोखले आदर्शवादी राजनैताओं के हाथ में है जो पूर्णत्या स्वार्थी हैं। उन से मर्यादाओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इन नेताओं को सभी जानते पहचानते हैं। उन का अस्तीतव कुछ परिवारों तक ही सीमित है। उन्हों ने अपने परिवारों के स्वार्थ के लिये अहिंसा और धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर हिन्दू विरोधी काम ही किये हैं और हिन्दूओं को देश की सत्ता से बाहर रखने के लिये ‘अनैतिक ऐकजुटता’ बना रखी है। अब प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि  वह किसी दूसरे पर अहसान करने के लिये नहीं – बल्कि अपने देश, धर्म, समाज, राजनीति, नैतिक्ता और संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदाईत्व को निभाये ताकि हमारे पूर्वजों की पहचान मिटने ना पाये।

हिन्दू हित रक्षक सरकार

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने अपने देशद्रोही मखौटे को पूरी तरह से उतार कर यहाँ तक कह दिया है कि ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’, ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’, और ‘देश के साधनों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार है’। अब संशय के लिये कुछ भी नहीं बचा।

आज भारत को ऐक हिन्दू हित रक्षक सरकार की आवश्क्ता है जो हमारी संस्कृति तथा मर्यादाओं को पुनर्स्थापित कर सके। हमारे अपने मौलिक ज्ञान के पठन-पाठन की व्यव्स्था कर सके तथा धर्म के प्रति आतंकवादी हिंसा को रोक कर हमारे परिवारों को सुरक्षा प्रदान कर सके। आत्म-निर्भर होने के लिये हमें अपनी मौलिक तकनीक का ज्ञान अपनी राष्ट्रभाषा में विकसित करना होगा। पूर्णत्या स्वदेशी पर आत्म-निर्भर होना होगा। अपने बचाव के लिये प्रत्येक हिन्दू को अब स्वयं-सक्ष्म (सैल्फ ऐम्पावर्ड) बनना होगा।

समय और साधन

हमारा अधिकांश समाज भी भ्रष्ट, कायर, स्वार्थी और दिशाहीन हो चुका है। चरित्रवान और सक्षम नेतृत्व की कमी है लेकिन भारत के लिये इमानदार तथा सक्ष्म नैताओं का आयात बाहर से नहीं किया जा सकता। जो उपलब्द्ध हैं उन्हीं से ही काम चलाना हो गा। हम कोई नया राजनैतिक दल भी नहीं खडा कर सकते जिस के सभी सदस्य दूध के धुले और इमानदार हों। इसलिये अब किसी वर्तमान राजनैतिक दल के साथ ही सहयोग करना होगा ताकि हिन्दू विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके। यदि वर्तमान हिन्दू सहयोगी दल नैतिकता तथा आदर्श की कसौटी पर सर्वोत्तम ना भी हो तो भी हिन्दू विरोधियों से तो अच्छा ही होगा।

हिन्दू राजनैतिक ऐकता

भारत में मिलीजुली सरकारें निरन्तर असफल रही हैं। वोट बैंक की राजनीति के कारण आज कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जो खुल कर ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का समर्थन कर सके। सभी ने धर्म-निर्पेक्ष रहने का ढोंग कर रखा है जिसे अब उतार फैंकवाना होगा। इसलिये हिन्दूओं के निजि अध्यात्मिक विचार चाहे कुछ भी हों उन्हें ‘राजनैतिक ऐकता’ करनी होगी। ऐक हिन्दू ‘वोट-बैंक’ संगठित करना होगा। इस लक्ष्य के लिये समानताओं को आधार मान कर विषमताओं को भुलाना होगा ताकि हिन्दू वोट बिखरें नहीं और सक्षम हिन्दू सरकार की स्थापना संवैधानिक ढंग से हो सकें जो संविधान में संशोधन कर के देश को धर्म हीन राष्ट्र के बदले हिन्दू-राष्ट्र में परिवर्तित कर सके।

  • सभी नागरिकों के लिये समान कानून हों और किसी भी अल्पसंख्यक या वर्ग के लिये विशेष प्रावधान नहीं होंने चाहियें।
  • जिन धर्मों का जन्म स्थली भारत नहीं उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर निजि धर्म प्रसार का अधिकार नहीं होना चाहिये। विदेशी धर्मों का प्रसारण केवल जन्मजात अनुयाईयों तक ही सीमित होना चाहिये। उन्हे भारत में धर्म परिवर्तन करने की पूर्णत्या मनाही होनी चाहिये।
  • अल्पसंख्यक समुदायों के संस्थानों में किसी भी प्रकार का राष्ट्र विरोधी प्रचार, प्रसार पूर्णत्या प्रतिबन्धित होना चाहिये।
  • देश के किसी भी प्रान्त को दूसरे प्रान्तों की तुलना में विशेष दर्जा नहीं देना चाहिये।
  • अल्पसंख्यकों के विदेशियों से विवाह सम्बन्ध पूर्णत्या निषेध होने चाहियें। किसी भी विदेशी को विवाह के आधार पर भारत की नागरिकता नहीं देनी चाहिये।
  • समस्त भारत के शिक्षा संस्थानों में समान पाठयक्रम होना चाहियें। पाठयक्रम में भारत के प्राचीन ग्रन्थों को प्रत्येक स्तर पर शामिल करना चाहिये।
  • जो हिन्दू विदेशों में अस्थाय़ी ढंग से रहना चाहें या सरकारी पदों पर तैनात हों उन्हें देश की संस्कृति का ज्ञान परिशिक्षण देना चाहिये ताकि वह देश की स्वच्छ छवि विदेशों में प्रस्तुत कर सकें।
  • देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से घुस पैठ करवाना तथा उस में सहयोग करने पर आरोपियों को आजीवन कारवास अथवा मृत्यु दण्ड देने का प्रावघान होना चाहिये। निर्दोषता के प्रमाण की जिम्मेदारी आरोपी पर होनी चाहिये।

धर्म गुरूओं की जिम्मेदारी

संसार में आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, तथा राजनैतिक घटनाओं के प्रभावों से कोई वर्ग अछूता नहीं रह सकता। संन्यासियों को भी जीने के लिये कम से कम पचास वस्तुओं की निरन्तर अपूर्ति करनी पडती है। धर्म गुरूओं की भी समाज के प्रति कुछ ना कुछ जिम्मेदारी है।यदि वह निर्लेप रह कर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते तो उन्हें भी हिन्दू समाज से नकार देना ही धर्म है।

धार्मिक संस्थानों की व्यवस्था – आर्थिक दृष्टि से कई धर्म गुरू सम्पन्न और सक्षम हैं। अतः उन्हें राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के लिये सार्वजनिक स्थलों के समीप धर्म ग्रंथों के पुस्तकालय, व्यायाम शालायें, योग केन्द्र, तथा स्वास्थ केन्द्र अपने खर्चे पर स्थापित करनें चाहियें। जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक मन्दिर और सार्वजनिक स्थल को इन्टरनेट के माध्यम से दूसरे मन्दिरों से जोडना चाहिये। मन्दिरों और धार्मिक संस्थानों का नियन्त्रण अशिक्षित पुजारियों को बाजाय धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में ट्रस्ट दूारा होना चाहिये।

मन्दिरों की सुरक्षा –हमारे मन्दिर तथा पूजा स्थल सार्वजनिक जीवन के केन्द्र हैं परन्तु आज वह आतंकवादियों से सुरक्षित नहीं। सभी पूजा स्थलों और अन्य महत्वशाली स्थलों पर सशस्त्र सुरक्षा कर्मी ‘सिख सेवादारों’ की भान्ति रखने चाहियें। उन के पास आतंकवादियों के समक्ष हथियार, सम्पर्क साधन तथा परिशिक्षण होना आवश्यक हैं ताकि संकट समय सशस्त्र बलों के पहुँचने तक वह धर्म स्थल की, और वहाँ फँसे लोगों की रक्षा, स्वयं कर सकें। सशस्त्र बलों के आने के पश्चात, सेवादार उन के सहायक बन कर, अपना योगदान दे सकते हैं। सेवादारों की नियुक्ति, चैयन, परिशिक्षण, वेतन तथा अनुशासन तीर्थ स्थल के प्रशासक के आधीन होना चाहिये। इस व्यवस्था के लिये आर्थिक सहायता सरकार तथा संस्थान मिल कर करें और जरूरत पडने पर पर्यटकों पर कुछ प्रवेश शुल्क भी लगाने की अनुमति रहनी चाहिये। सेवादोरों की नियुक्ति के लिये भूतपूर्व सैनिकों तथा पुलिस कर्मियों का चैयन किया जा सकता है।

जन सुविधायें – हिन्दू तीर्थस्थलों के पर्यटन के लिये सुविधाओं, सबसिडी, और देश से बाहर हिन्दू ग्रन्थों इतिहास की शोघ के लिये परितोष्क की व्यव्स्था होनी चाहिये। हिन्दू ग्रन्थों पर शोध करने की सुविधायें प्रत्येक विश्वविद्यालय के स्तर तक उप्लब्द्ध करनी चाहिये। वर्तमान हज के प्रशासनिक तन्त्र का इस्तेमाल भारत के सभी समुदायों के लिये उपलब्द्ध होना चाहिये।

ऐतिहासिक पहचान – मुस्लिम आक्रान्ताओं दूारा छीने गये सभी हिन्दू स्थलों को वापिस ले कर उन्हें प्राचीन वैभव के साथ पुनः स्थापित करना चाहिये। अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिये सभी स्थलों और नगरों के वर्तमान नाम और पिन कोड के साथ प्राचीन नाम का प्रयोग अपने आप ही शुरु कर देना चाहिये ताकि हिन्दू समाज में जागृति आये।

दुष्प्रचार का खण्डन – मिशनरियें तथा अहिन्दू कट्टरपँथियों के दुष्प्रचार का खण्डन होना चाहिये। इस के साथ ही हिन्दू जीवन शैली के सार्थक और वैज्ञानिक आधार की सत्यता का प्रचार भी किया जाना चाहिये। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो हिन्दूओं की उप्लब्द्धियाँ विदेशियों ने हथिया लीं हैं उन पर अपना अधिकार जताना आवशयक है।

रीति-रिवाजों में सुधार – रीति-रिवाजों के बारे में अध्यात्मिक पक्ष की तुलना में यथार्थ पक्ष को महत्व दिया जाना चाहिये। व्याख्यानों दूारा अपने अनुयाईयों को हिन्दू जीवन शैली के साकारात्मक पक्ष और दैनिक जीवन में काम आने वाली राजनीति पर बल देना चाहिये ताकि अध्यात्मिक्ता के प्रभाव में अनुयाई निषक्रिय हो कर ना बैठ जायें। जिस प्रकार नैतिकता के बिना राजनीति अधर्म और अनैतिक होती है उसी प्रकार कर्महीन धर्म भी अधर्म होता है।

हिन्दू जननायकों का सम्मान– हिन्दू आदर्शों के सभी जन नायकों का सम्मान करने के लिये उन के चित्र घरों, मन्दिरों, तथा सार्वजनिक स्थलों पर लगाने चाहियें। मन्दिरों में इस प्रकार के चित्र देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलग प्रवेश दूारों पर लगाने चाहियें ताकि वह किसी की आस्थाओं के विरुद्ध ना हो और ध्यानाकर्ष्क भी रहैं।

नेतृत्व कौन करे ?

प्रश्न उठता है हिन्दूवादी संगठन कौन करे गा? हिन्दूराष्ट्र बनाने के लिये हिन्दूवादी कहाँ से आयें गे ? अगर आप का उत्तर है कि “वह वक्त आने पर हो जाये गा” या “हम करें गे” तो वह कभी नहीं सफल होगा। आजकल ‘हम’ का अर्थ ‘कोई दूसरा करे गा’ लगाया जाता है और हम उस में अपने आप को शामिल नहीं करते हैं। इस लिये अब सच्चे देश भक्तों को कर्मयोगी बन कर यह संकलप करना होगा कि “यह संगठन मैं करूँ गा और देश की पहली हिन्दूवादी इकाई मैं स्वयं बन जाऊँ गा”। अपनी सोच और शक्ति को ‘हम’ से “मैं” पर केन्द्रित कर के इसी प्रकार से आगे भी सोचना और करना होगा। “अब मुझे किसी दूसरे के साथ आने का इन्तिजार नहीं है। मुझे आज से और अभी से करना है – अपने आप को हिन्दू-राष्ट्र के प्रति समर्पित इकाई बनाना है। सब से पहले अपनी ही सोच और जीवन शैली को बदलना है। मुझे ही मन से, वचन से और कर्म से सच्चा हिन्दूवादी बनना है।”केवल यही मानस्किता हिन्दूवादियों को संगठित कर सकती है जो हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करें गे। दूसरों को उपदेश देने से कुछ नहीं होगा।

कर्म ही धर्म है

“मेरा इतिहास मुझे बार बार चेतावनी देता रहा है कि कायर, शक्तिहीन तथा असमर्थ लोगों का जीवन मृत्यु से भी बदतर और निर्थक होता है। बनावटी धर्म-निर्पेक्षता का नाटक बहुत हो चुका। भारत हिन्दू प्रधान देश है और वही रहै गा। मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। भारत मेरा देश है मैं इसे किसी दूसरे को हथियाने नहीं दूँ गा।”

“स्वदेश तथा अपने घर की सफाई के लिये मुझे अकेले ही सक्रिय होना है। कोई दूसरा मेरे उत्थान के लिये परिश्रम नहीं करे गा। हिन्दूवादी सरकार चुनने का अवसर तो मुझे केवल निर्वाचन के समय ही प्राप्त होगा किन्तु कई परिवेश हैं जहाँ मैं बिना सरकारी सहायता और किसी सहयोगी के अकेले ही अपने भविष्य के लिये बहुत कुछ कर सकता हूँ। मेरे पास समय अधिक नहीं है। मैं कई व्यक्तिगत निर्णय तुरन्त क्रियात्मक कर सकता हूँ। प्रत्येक निर्णय मुझे हिन्दूराष्ट्र की ओर ले जाने वाली सीढी का काम करे गा – जैसे किः-

  • “अपने निकटतम हिन्दू संगठन से जुड कर कुछ समय उन के साथ बिताऊँ ताकि मेरा मानसिक, बौधिक और सामाजिक अकेलापन दूर हो जाये। मेरे पास कोई संगठन न्योता देने नहीं आये गा, मुझे स्वयं ही संगठन में आपने आप जा कर जुडना है”।
  • “अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को सीखूं, अपनाऊँ और फैलाऊँ। जब ऐक सौ करोड लोग इसे मेरे साथ इस्तेमाल करें गे तो अन्तर्राष्ट्रीय भाषा हिन्दी ही बने गी। मुझे अपने पत्रों, लिफाफों, नाम प्लेटों में हिन्दी का प्रयोग करना है। मैं अंग्रेजी का इस्तेमाल सीमित और केवल अवश्यकतानुसार ही करूं गा ” ।
  • “मुझे किसी भी स्वार्थी, भ्रष्ट, दलबदलू, जातिवादी, प्रदेशवादी, अल्पसंखयक प्रचारक और तुष्टिकरण वादी राज नेता को निर्वाचन में अपना वोट नहीं देना है और केवल हिन्दू वादी नेता को अपना प्रतिनिधि चुनना है”।
  • “मुझे उन फिल्मों, व्यक्तियों और कार्यों का बहिष्कार करना है, जो मेरे ही धन से, कला और वैचारिक स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू विरोधी गतिविधियाँ करते हैं ”।
  • “मुझे जन्मदिन, विवाह तथा अन्य परिवारिक अवसरों को हिन्दू रीति रिवाजों के साथ आडम्बर रहित सादगी से मनाना है और उन्हें विदेशीकरण से मुक्त रखना है ”।
  • “जन-जागृति के लिये पत्र पत्रिकाओं तथा अन्य प्रचार स्थलों में लेख लिखूँ गा, और दूसरे साथियों के विचारों को पढूँ गा। हिन्दूओं के साथ अधिक से अधिक मेल-जोल करने के लिये मैं स्वयं अपने निकटतम घरों, पार्को, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर जा कर उन में दैनिक जीवन के सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों पर विचार-विमर्श करूँ गा”।
  • “मैं अपने देश में किसी भी अवैध रहवासी अथवा घुस पैठिये को किसी प्रकार की नौकरी य़ा किसी प्रकार की सहायता नहीं दूंगा। मैं अवैध मतदाताओं के सम्बन्ध में पुलिस तथा स्थानीय निर्वाचन आयुक्त को सूचित करूं गा ताकि उन के नाम सूची से काटे जा सकें ”।
  • “अपने निजी जीवन में उपरोक्त बातों को अपनाने का भरसक और निरन्तर प्रयत्न करते रहने के साथ साथ अपने जैसा ही कम से कम ऐक और सहयोगी अपने साथ जोडूँगा ताकि मैं अकेला ही ऐक से ग्यारह की संख्या तक पहुँच सकूँ”।

संगठित प्रयास

जब ऐक से ग्यारह की संख्या हो जाये तो समझिये आपका संगठन तैय्यार हो गया। यह संगठित टोली अब आगे भी इस तरह अपने आप को मधुमक्खी के छत्ते की तरह अन्य टोलियों के साथ संगठित कर के अपना विस्तार और सम्पर्क तेजी से कर सकती है।

धर्म रक्षा का मौलिक अधिकार

सभी देशों में नागरिकों को अधिकार है कि वह निजि जीवन में पडने वाली बाधाओं को स्वयं दूर करने का प्रयत्न करें। अपने देश को बचाने के लिये हिन्दू युवाओं की यही संगठित टोलियाँ ऐक जुट हो कर अन्य नागरिकों, नेताओं और धर्म गुरुओं का साथ प्रभावशाली सम्पर्क बना सकती हैं।

धर्मान्तरण करवाने वाले पादरियों को गली मुहल्लों से पकड कर पुलिस के हवाले करना चाहिये। उसी प्रकार आतंकवादियों और उन के समर्थकों तथा अन्य शरारती तत्वों को पकड कर पुलिस को सौंप देना चाहिये। यदि कोई लेख, चित्र, या कोई अन्य वस्तु हिन्दू भावनाओं का तिरस्कार करने के लिये सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करी जाती है तो उसे आरोपी से छीन कर नष्ट कर देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य तथा अधिकार है।

आपसी सम्पर्क के लिये मंथन और चिन्तन बैठकें करते रहना चाहिये। अपने निकट के वातावरण में दैनिक प्रतिरोधों, दूषित परम्पराओं तथा बाधाओं का निस्तारण स्वयं निर्णय कर के करते रहना चाहिये और अपना स्थानीय प्रभुत्व स्थापित करना चाहिये। अपने प्रति होने वाली शरारत का उनमूलन समस्या के पनपने और रिवाज की भान्ति स्थाय़ी रूप लेने से पहले ही कर देना उचित है।

अधिकाँश लोगों को हमारे वातावरण में हिन्दू विरोधी खतरों की जानकारी ही नहीं है। लेकिन जब हमारा घर प्रदूषित और मलिन हो रहा है तो रोने चिल्लाने के बजाये उसे सुधारने के लिये हमें स्वयं कमर कसनी होगी और अकेले ही पहल करनी होगी। दूसरे लोग अपने आप सहयोग देने लगें गे। इसी तरह से जनान्दोलन आरम्भ होते हैं। वर्षा की बून्दों से ही सागर की लहरे बनती हैं जिन में ज्वार आने से उन की शक्ति अपार हो जाती है। हमें हिन्दू महासागर को पुनः स्वच्छ बून्दों से भरना है। हिन्दू स्व-शक्ति जागृत करने के लिये किसी अवतार के चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करनी है।

निस्संदेह प्रत्येक हिन्दू से निष्ठावादी हिन्दू बन जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। कुछ अंश मात्र कृत्घन, कायर तथा गद्दार हिन्दू स्दैव भारत में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये विरोध करते रहैं गे। परन्तु उन से निराश होने की कोई जरूरत नहीं। संगठित और कृतसंकल्प टोली के सामने असंगठित और कायर भीड की कोई क्षमता नहीं होती। हिन्दू महासागर की लहरें महासुनामी का ज्वार बन कर देश के प्रदूष्ण को बहा ले जायें गी।

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

13 – सामाजिक ग्रंथ मनु-स्मृति


मनु स्मृति विश्व में मानवी कानून का प्रथम ग्रंथ है जहाँ से सभ्यता का विकास आरम्भ हुआ। मौलिक ग्रंथ में लगभग ऐक लाख श्लोक थे किन्तु कालान्तर इस ग्रंथ में कई बदलाव भी हुये। उपलब्द्ध संस्करण लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के हैं। उन में 12 अध्याय हैं तथा विविध विषयों पर संस्कृत भाषा में रचित श्लोक हैं जो मानव सभ्यता के सभी अंगों से जुडे हुये हैं। ग्रंथ की विषय सूची में सृष्टि की उत्पति, काल चक्र, भौतिक ज्ञान, रसायन ज्ञान, वनस्पति विज्ञान, राजनीति, देश की सुरक्षा, शासन व्यव्स्था, व्यापार, सार्वजनिक स्वास्थ, सार्वजनिक सेवायें, सार्वजनिक स्थलों की देख रेख, यातायात, अपराध नियन्त्रण, दण्ड विधान, सामाजिक सम्बन्ध, महिलाओं, बच्चों तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा, व्यक्तिगत दिन-चर्या, उत्तराधिकार आदि सम्बन्धी नियम उल्लेख किये गये हैं

ग्रंथ की भाषा की विशेषता है कि केवल कर्तव्यों का ही उल्लेख किया गया है जिन में से अधिकार परोक्ष रूप से अपने आप उजागर होते हैं। आधुनिक कानूनी पुस्तकों की तरह जो विषय उल्लेखित नहीं, उन के बारे में विश्ष्टि समति बना कर या सामान्य ज्ञान से निर्णय करने का प्रावधान भी है।

समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं। उन्हें संसार की सभी सभ्य जातियों ने समय के साथ साथ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ हैं। आज के युग में भी सभी देशों ने उन्हीं संस्कारों को कानूनी ढंग से लागू किया हुआ है भले ही वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों।

रीति-रिवाज सम्बन्धित व्यक्तियों को किसी विशेष घटना के घटित होने की औपचारिक सूचना देने के लिये किये जाते हैं। मानव जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित मनु दूआरा सुझाये गये सोलह वैज्ञानिक संस्कारों का विवरण इस प्रकार है जो सभी सभ्य देशों में किसी ना किसी रुप में मनाये जाते हैं-

  1. गर्भाधानः इस प्राकृतिक संस्कार से ही जीव जन्म लेता है और यह क्रिया सभी देशों, धर्मों और सभी प्राणियों में सर्वमान्य है। निजी जीवन से पहले यह संस्कार माता-पिता भावी संतान के लिये सम्पन्न करते हैं, पशचात सृष्टी के क्रम को चलंत रखने के लिये यह सभी प्राणियों का मौलिक कर्तव्य है कि वह स्वयं अपना अंश भविष्य के लिये प्रदान करें। सभी देशों में गृहस्थ जीवन की सार्थकि्ता इसी में है।
  2. पंस्वानाः पुंसवन संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है। गर्भस्त शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अतः शिशु के कल्याण के लिये गर्भवती मां को पुष्ट एवं सात्विक आहार देने के साथ ही अच्छा साहित्य तथा महा पुरूषों की प्रेरक कथायें आदि भी सुनानी चाहियें और उस के शयन कक्ष में महा पुरूषों के चित्र लगाने चाहियें। भ्रूण तथा मां के स्वास्थ के लिये पिता के लिये उचित है कि वह शिशु के जन्म के कम से कम दो मास पशचात तक सहवास ना करे। यह और बात है कि आधुनिक काल में विकृति वश इस नियम का पूर्णतया पालन नहीं होता परन्तु नियम की सत्यता से इनकार तो नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी इस नियम का उल्लंघन नहीं करते।
  3. सीमान्थोनानाः इस काल में गर्भ में पल रहे बच्चे में मुख्य शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं। गर्भवती स्त्री को घर में ही रहना चाहिये ताकि गर्भपात ना हो और गर्भस्थ शिशु का कोई अंग विकृत ना हो क्यों कि इस अवधि में शिशु के अंगों का विकास होता है। इस वैज्ञियानिक तथ्य को भारतीय समाज ने पाश्चात्य वैज्ञियानकों से हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था। आज कल इसी संस्कार को गोद भराना और पशचिमी देशों में ‘बेबी शावर के नाम से मनाया जाता है।
  4. जातकर्मः शिशु के जन्म लेने के पश्चात यह प्रथम संस्कार है। देश काल के रिवाज अनुसार पवित्र वस्तुओं से, जैसे सोने की सलाई के साथ गाय के घी-शहद मिश्रण से, नवजात शिशु की जीभ पर अपने धर्म का कोई शुभ अक्षर जैसे कि ‘ऊँ’ या ‘राम’ आदि, परिवार के विशिष्ट सदस्य दुआरा लिखवाया जाता है। इस भावात्मक संस्कार का लक्ष्य है कि जीवन में शिशु बड़ा हो कर अपनी वाणी से सभी के लिये शुभ वचन बोले जिस की शुरूआत जातकर्मः संस्कार से परिवार के अग्रजों से करवाई जाती है। पाश्चात्य देशों में आज भी डिलवरी रूम में डाक्टर नाल काटने की क्रिया पिता को बुला कर उसी के हाथों से सम्पन्न करवाते हैं।
  5. नामकरणः जन्म के गयारवें दिन, या देश काल की प्रथानुसार किसी और दिन अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में नवजात शिशु का नामकर्ण किया जाता है ताकि सभी को शिशु का परिचय मिल जाये। हिन्दू प्रथानुसार नामकरण पिता दुआरा कुल के अनुरूप किया जाता है। अशुभ, भयवाचक या घृणासूचक नाम नहीं रखे जाते। संसार में कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जहाँ कोई बिना नाम के ही जीवन जीता हो।
  6. निष्क्रमणः जन्म के तीन या चार मास बाद शिशु की आँखें तेज़ रौशनी देख सकती हैं। अतः उस समय बच्चे को कक्ष से बाहर ला कर प्रथम बार सूर्य-दर्शन कराया जाता है। दिन में केवल सूर्य ही ऐक ऐसा नक्षत्र है जो हमारे समस्त कार्य क्षेत्र को प्रभावित करता है अतः यह संस्कार बाह्य जगत से शिशु का प्रथम साक्षात्कार करवाता है। अन्य देशों में प्रकृति से प्रथम साक्षात्कार स्थानीय स्थितियों के अनुकूल करवाया जाता है।
  7. अन्नप्राशनः जन्म के पाँच मास बाद स्वास्थ की दृष्टि से नवजात को प्रथम बार कुछ ठोस आहार दिया जाता है। इस समय तक उस के दाँत भी निकलने शुरू होते हैं और पाचन शक्ति का विकास होने लगता है। यह बात सर्वमान्य है कि आहार व्यक्ति के कर्मानुसार होना ही स्वास्थकारी है। अतः परिवार के लोग अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में बच्चे को अपनी शैली का भोजन खिला कर यह विदित करते हैं कि नवजात से परिवार की क्या अपेक्षायें हैं। सभी देशों और सभ्यताओं में स्थानीय परिस्थतियों के अनुकूल भोजन से जुड़े अपने अपने नियम हैं, किन्तु संस्कार का मौलिक लक्ष्य ऐक समान है।
  8. चूड़ाकर्मः केवल यही संस्कार लिंग भेद पर आधारित है। लेकिन यह लिंगभेद भी विश्व में सर्वमान्य है। जन्म के ऐक से तीन वर्ष बाद लड़कों के बाल पूर्णत्या काटे जाते हैं लड़कियों के नहीं। ज्ञानतंतुओ के केन्द्र पर शिखा (चोटी) रखी जाती है। स्वच्छता रखने के कारण कटे हुये बालों को किसी ना किसी प्रकार से विसर्जित कर दिया जाता है। सभी देशों में लिंग भेद को आधार मान कर स्त्री-पुर्षों के लिये प्रथक प्रथक वेश-भूषा का रिवाज प्राचीन समय से ही चलता रहा है। आजकल लड़के-लड़कियों की वेश-भूषा में देखी जाने वाली समानता के विकृत कारण भी सभी देशों मे ऐक जैसे ही हैं।
  9. कर्णवेधाः यह संस्कार छठे, सातवें आठवें या ग्यारवें वर्ष मे किया जाता है। इस का वैज्ञानिक महत्व है। जहां कर्ण छेदन किया जाता है वहां स्मरण शक्ति की सूक्ष्म शिरायें होती हैं एक्यूप्रेशर की इस क्रिया से स्मरण शक्ति बढती है तथा काम भावना का शमन होता है। प्राचीन समय से ही स्त्री-पुरूष अपने अंगों को समान रूप से अलंकृत करते आये हैं। कानों में कुण्डल, गले में माला और उंगलियों में अंगूठियाँ तो अवश्य ही पहनी जातीं थीं। आज भी यह पहनने का रिवाज है जिस के लिये कानों में छेद करने की प्रथा विश्व के सभी देशों में चली आ रही है।
  10. उपनयनः छः से आठ वर्ष की आयु होने पर बालक-बालिकाओं को विद्या ग्रहण करने के लिये पाठशाला भेजने का प्राविधान है। आज कल भारत में तथा अन्य देशों में स्थानीय या ‘रेज़िडेंशियल स्कूलों में पढ़ने के लिये बालक-बालिकाओं को भेजा जाता है। कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जहाँ शिक्षा की ऐसी व्यवस्था ना हो।
  11. वेदारम्भः वैदिक शिक्षा को भारत में उच्च शिक्षा के समान माना गया है। मौलिक शिक्षा के बाद उच्च स्तर के शिक्षा क्रम का विधान आज भी सभी देशों की शिक्षा प्रणाली का मुख्य अंग है। भारत की ही तरह विदेशों में भी उच्च शिक्षा क्षमता और रुचि (एप्टीट्यूड टेस्ट) के आधार पर ही दी जाती है।
  12. समवर्तनाः भारत में शिक्षा पूर्ण होने पर दीक्षान्त समारोह का आयोजन गुरू जनो के समक्ष आयोजित होता था। विद्यार्थी गुरू दक्षिणा दे कर शिक्षा का सद्उपयोग करने की गुरू जनों के समक्ष प्रतिज्ञा करते हैं। स्नातकों को परमाण स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता था जो देव ऋण, पित्र ऋण और ऋषि ऋण का प्रतीक है। आज भी सभी यूनिवर्स्टियों में इसी तरह का आयोजन किया जाता है। विश्वविधालयों में स्नातक गाउन पहन कर डिग्री प्राप्त करते हैं तथा निर्धारित शप्थ भी लेते हें। पशचिमी देशों में तो ग्रेज्युएशन समारोह विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है।
  13. विवाहः शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात मानव को विवाह दुआरा गृहस्थ जीवन अपनाना होता है क्योंकि सृष्ठी का आधार गृहस्थियों पर ही टिका हुआ है। धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना, संसाधनों का प्रयोग एवम् उपार्जन करना तथा संतान उत्पति कर के सृष्ठी के क्रम को आगे चलाये रखना मानव जीवन का ऐक मुख्य कर्तव्य है। संसार के सभी सभ्य देशों में आज भी विवाहित जीवन को ही समाज की आधारशिला माना गया है। विश्व भर में वैवाहिक सम्बन्धों की वैध्यता को आधार मान कर ही किसी को जन्म से जायज़ अथवा नाजायज़ संतान कहा जाता है।
  14. वानप्रस्थः विश्व में सत्ता परिवर्तन का शुरूआत वानप्रस्थ से ही हुई थी। स्वेच्छा से अपनी अर्जित सम्पदाओं और अधिकारों को त्याग कर अपने उत्तराधिकारी को अपना सर्वस्य सौंप देना ही वानप्रस्थ है। इस को हम आज की भाषा में रिटायरमेंट भी कह सकते हैं। घरेलू जीवन से ले कर सार्वजनिक संस्थानों तक सभी जगहों पर यह क्रिया आज भी मान्य है।
  15. सन्यासः सभी इच्छाओं की पूर्ति, ऩिजी कर्तव्यों का पालन, और सभी प्रकार के प्रलोभनो से मुक्ति पाने के बाद ही यह अवस्था प्राप्त होती है परन्तु इस की चाह सभी को रहती है चाहे कोई मुख से स्वीकार करे या नहीं। इस अवस्था को पाने के बाद ही मोक्ष रूपी पूर्ण सन्तुष्टी (टोटल सेटिस्फेक्शन) का मार्ग खुलता
  16. अन्तेयेष्ठीः मृत्यु पश्चात शरीर को सभी देशों में सम्मान पूर्वक विदाई देने की प्रथा किसी ना किसी रूप में प्रचिलित है। कहीं चिता जलायी जाती है तो कहीं मैयत दफनायी जाती है। मानव जीवन का यह सोलहवाँ और अंतिम संस्कार है।

विश्व में सभी जगह शरीरिक जीवन के वजूद में आने से पूर्व का प्रथम संस्कार (गर्भाधानः) पिछली पीढी (माता पिता) करती है और शरीरिक जीवन का अन्त हो जाने पश्चात अन्तिम संस्कार अगली पीढी (संतान) करती है और इसी क्रम में सभी जगह मानव जीवन इन्ही घटनाओं के साथ चलता आया है और चलता रहे गा। सभी देशों और धर्मों में गर्भाधान, सीमान्थोनाना, जातकर्म, नामकरण, उपनयन, वेदारम्भ, समवर्तना, विवाह, वानप्रस्थ, अन्तेयेष्ठी जैसे दस संस्कारों का स्थानीय रीतिरिवाजों और नामों के अनुसार  पंजीकरण भी होता है। मनु रचित विधान ही मानव सभ्यता की आधार शिला और मार्ग दर्शन का स्त्रोत्र है जिस के कारण भारत को विश्व की प्राचीनत्म सभ्यता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ।

अंग्रेज़ी भाषा की परिभाषिक शब्दावली पर गर्व करने वाले आधुनिक कानून विशेषज्ञों और मैनेजमेंट गुरूओं को मनु स्मृति से अतिरिक्त प्रेरणा लेने की आज भी ज़रूरत है। मनु महाराज के बनाये नियम श्रम विभाजन, श्रम सम्मान तथा समाज के सभी वर्गों के परस्पर आधारित सम्बन्धों पर विचार कर के बनाये गये हैं। इन संस्कारों के बिना जीवन नीरस और पशु समान हो जाये गा। संस्कारों को समय और साधनों के अनुसार करने का प्रावधान भी मनुस्मृति में है। 

यह हिन्दूओं का दुर्भाग्य है कि कुछ राजनेता स्वार्थवश मनुस्मृति पर जातिवाद का दोष मढते है किन्तु सत्यता यह है कि उन्हों ने इस ग्रंथ को पढना तो दूर देखा तक भी नहीं होगा। धर्म निर्पेक्षता की आड में आजकल हमारे विद्यालयों में प्रत्येक विषय की परिभाषिक शब्दावली का मूल स्त्रोत्र यूनानी अथवा पाश्चात्य लेखक ही माने जाते है और हमारी आधुनिक युवा पीढी अपने पूर्वजों को अशिक्षित मान कर शर्म महसूस करती है। हम ने स्वयं ही अपने दुर्भाग्य से समझोता कर लिया है और अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान को नकार दिया है। जो लोग मनुसमृति जैसे ग्रंथ को कोसते हैं वह अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुये अपने उन पूर्वजों की बुद्धिमत्ता के प्रति कृतघ्नता व्यक्त करते हैं जिन्हों ने मानव समाज को ऐक परिवार का स्वरूप दिया और पशुता के जीवन से मुक्त कर के सभ्यता का पाठ पढाया।  

चाँद शर्मा

10 – हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ


हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। हिन्दू धर्म ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है। यह प्रत्येक हिन्दू की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, या कुछ एक को, अथवा सभी को पड़े, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है। सारांश यह कि हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठना बाध्य नहीं है।

संक्षिप्त समझने के लिये हिन्दूओं की प्राचीन पुस्तकों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः –

  • यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ
  • महा काव्य तथा इतिहास
  • सामाजिक ग्रंथ

1.    यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ


चार वेद ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्व-वेद तथा साम वेद स्नातन धर्म के मूल ग्रंथ हैं जो किसी एक ग्रंथाकार ने नहीं लिखे, अपितु कई परम ज्ञानी ऋषि मुनियों के अनुसंधान तथा उन की अनुभूतियों के संकलन हैं। वैदिक ज्ञान ऋषियों पर ईश्वर कृपा से उसी प्रकार प्रगट हुआ था जैसे साधारण मानव कुछ लिखने के लिये जब ऐकाग्र हो कर विचार करते हैं तो विचार अपने आप ही प्रगट होने लगते हैं। इस अवस्था को ईश्वरीय प्रेरणा कहा जाता है।

हिन्दूओं की आस्था है कि वैदिक ज्ञान ऋषियों को लिपि के स्वरूप में प्राप्त हुआ था। हो सकता है ऐसा विशवास किसी को अटपटा भी लगे किन्तु आज के युग में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कम्पयूटरों के माध्यम से साधारण मानव भी सम्पादित लेख लिपि की शक्ल में एक साथ कई स्थानों पर भेज सकते हैं तथा उस का छपा हुआ संस्करण प्राप्त भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटरों का साईज़ भी दिन प्रति दिन छोटा होता जा रहा है। टच स्क्रीन पर तो केवल छू कर ही वाँच्छित ज्ञान फारमेटिड रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अतः वैदिक ऋषियों को यदि लिपि के स्वरूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था तो यह अविशवास की बात भी नहीं। तकनीक बदलती रहती है लेकिन कानसेप्ट तो आज भी वही है। कुछ और समय पश्चात हिन्दूओं की वैदिक आस्था अपने आप ही और स्पष्ट हो जाये गी क्यों कि सर्व शक्तिमान ईश्वर के शब्द कोष में वैज्ञयानिकों वाला असम्भव शब्द नहीं होता।

वैदिक ज्ञान पहले तो श्रुति के रूप में गुरू-शिष्य सम्पर्क से वितरित होता रहा, पश्चात मर्हृषि वेद व्यास ने उस ज्ञान को लिखित रूप में संकलित किया। लिखित ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। कमप्यूटर की भाषा में आज कल वेद हार्ड कापी में भी उपलब्द्ध हैं।

वैदिक ज्ञान केवल अध्यात्मिक ही नहीं अपितु उन सभी विषयों के बारे में था जो जीवन को प्रभावित करते हैं। वेदों में भौतिक, रसायन, राजनीति, कला-संस्कृति तथा अन्य कई विषय़ों पर मौलिक ज्ञान संचित है जो ऋषियों ने निजि अविष्कारिक यत्नों तथा अनूभूतियो सें संचित किया था। यह ज्ञान सूत्रों में उपलब्ध कराया गया है। आज की भाषा के एक्रोनिम्स की तरह सूत्रों की शैली सूक्ष्म होती है तथा स्मर्ण रखने के लिये सहायक होती है। किन्तु सूत्रों को विस्तार से पुनः व्याख्या कर के समझना पड़ता है।

वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औषधियों को सम्बोधन कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग कालान्तर अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जान कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था। संक्षेप में चार वेदों का मुख्य विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैः –

  • ऋगवेद ऋगवेद में अध्यात्मिक (स्पिरचुअल), मौलिक ज्ञान (फन्डामेंटल साईंस), विज्ञान (एप्लाईड साईंस), सृष्टि का भौतिक ज्ञान ( एस्ट्रो-फिज़िक्स) तथा प्रशासनिक (गवर्नेंस) आदि विषय वर्णित हैं।
  • यजुर्वेद यजुर्वेद में संसारिक, सामाजिक नीतियों, परम्पराओं, अधिकारों तथा कर्तव्य़ों की मौलिक रूप रेखा है। ऐक प्रकार से यह प्रोसीजुरल विषयों का ग्रंथ है।
  • साम वेद सामवेद में आराधना, दार्शनिक्ता, योग ज्ञान, तथा कलात्मिक विषय जैसे कि संगीत आदि वर्णित हैं।
  • अथर्व-वेद अथर्व वेद में चिकित्सा तथा शरीर सम्बन्धी विषय वर्णित हैं।

उप वेद प्रत्येक वेद के एक या एक से अधिक कई उप वेद हैं जिन में मूल अथवा अन्य विषयों पर अतिरिक्त ज्ञान है। उप वेदों के अतिरिक्त छः वेद-अंग भी हैं जो वेदों को समझने में सहायक हैं।

उपनिष्द – वेदों के संकलन के पश्चात भी कई ऋषियों ने  अपनी अनुभूतियों से ज्ञान कोष में वृद्धि की है। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना तथा उस में संशोधन भी किया है। इस प्रकार के ज्ञान को उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित किया गया है। उपनिष्दों की मूल संख्या लग भग 108 – 200 तक थी, किन्तु यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं की धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिया गया था। आज केवल 10 उपनिष्द ही उपलबद्ध हैं।

षट-दर्शन सृष्टि के आरम्भ से ही मानव निजि पहचान, सृष्टि, एवं सृष्टि कर्ता के बारे में जिज्ञासु रहा है और उन से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर ढूंडता रहा है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों की खोज ने ही हिन्दू आध्यात्मवाद की दार्शनिक्ता को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने अपनी अन्तरात्मा में झांका तथा सूक्ष्मता से गूढ मंथन कर के तथ्यों का दर्शन किया। प्रथक – प्रथक ऋषियों ने जो संकलन किया था उसी के आधार पर छः प्रमुख विचार धाराओं को षट-दर्शन कहा जाता है, जो भारतीय दार्शनिक्ता की अमूल्य धरोहर हैं। दर्शन शास्त्रों में बहुत सी समानतायें हैं क्योकि उन का मूल स्त्रोत्र उपनिष्द ही हैं।

2.    महा काव्य तथा इतिहास

प्राचीन काल में कवि ही महाकाव्यों के माध्यम से इतिहास का संरक्षण भी करते थे। भारत में कई महाकाव्य लिखे गये हैं। उन में रामायण तथा महाभारत का विशेष स्थान है। क्योंकि रामायण तथा महाभारत ने भारत के जन जीवन तथा उस की विचार धारा को अत्याधिक प्रभावित किया है।

रामायण – रामायण  की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की है तथा यह विश्व साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महा काव्य है। रामायण की कथा भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा है। राम का चरित्र कर्तव्य पालन में एक आदर्श पुत्र, पति, पिता तथा राजा के कर्तव्य पालन का प्रत्येक स्थिति के लिये एक कीर्तिमान है।  महा काव्य में केवल राम का पात्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का है और रामायण के अन्य पात्र मानव गुणों तथा अवगुणों की दृष्ठि से सामान्य हैं। वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा ले कर कई कवियों ने राम कथा पर महाकाव्यों की रचना की जिन में से गोस्वामी तुलसीदास कृत हिन्दी महा काव्य राम चरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय है। रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही एकमात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है। रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है तथा भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो।

महाभारतमहाभारत विश्व साहित्य का सब से विस्तरित ऐतिहासिक महाकाव्य है। मुख्यतः इस ग्रंथ में भारत के कितने ही वंशों की कथा को पिरोया गया है जो तत्कालित समय की घटनाओं तथा जीवन शैली का चित्रण करता है। इस महाकाव्य में हर पात्र मुख्य कथानक में निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ता है तथा मानव जीवन की उच्चता और नीचता को दर्शाता है। रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। रामायण और महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। जहाँ रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्र में विचरता है वहीं महाभारत का पटाक्षेप समस्त भारतवर्ष में फैला हुआ है। इस से प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक विस्तर्ति राष्ट्र था।

पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाओं में भी हिन्दू धर्म के विकास को भारत के राजनौतिक इतिहास तथा जन-जीवन की कथाओं के साथ संजोया गया है। पौराणिक कथायें देवी-देवताओं, महामानवों तथा जन साधारण के परस्पर सम्पर्कों का अदभुत मिश्रण हैं। कुछ कथायें यथार्थ में घटित एतिहासिक हैं तथा कुछ को बढा चढा कर भी दिखाया गया हैं। भारत का प्राचीन इतिहास आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अतः उस को पुनः ढूंडने के लिये पौराणिक इतिहास को आधार बना कर अन्य लिखित एतिहासिक कृतियों से तुलनात्मिक आंकलन किया जा सकता है। यदि हम पौराणिक कथाओं को इतिहास ना भी माने तो भी वह अपने आप में ऐक अमूल्य साहित्यक धरोहर हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिये।

3.    सामाजिक ग्रंथ

सामाजिक जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर कई मौलिक तथा विस्तरित ग्रंथ उपलब्ध हैं जैसे कि आयुर्वेद, व्याकरण, योग शास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि। उन सभी का वर्णन इस समय प्रासंगिक नहीं अतः केवल दो ही ग्रंथों को संक्षेप में यहाँ वर्णित किया है जिन्हों ने ना केवल भारतीय जीवन को अपितु समस्त विश्व के मानव जीवन को अत्याधिक प्रभावित किया है।

श्रीमद् भागवद् गीता मानव जीवन के हर पहलू से जुड़ी श्रीमद् भागवद् गीता सब से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथ है जो आज भी हर परिस्थिति में अपनाने योग्य है। गीता समस्त वैदिक तथा उपनिष्दों के ज्ञान का सारांश है तथा सहज भाषा में कर्तव्यपरायणता की शिक्षा देती है। यदि कोई किसी अन्य ग्रंथ को ना पढ़ना चाहे तो भी पूर्णतया सफल जीवन जीने के लिये केवल गीता की दार्शनिक्ता ही पर्याप्त है।

मनु स्मृति – मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं और संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्ष्म ग्रंथ अन्य. किसी भाषा में नहीं है।

हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को सभ्यता का अग्रज तथा विश्व गुरू माना जाता है।  किन्तु आज अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम पद्धति से पढ़े लिखे भारतीय युवाओं को अज्ञान के कारण अपने पूर्वजों पर गर्व और विशवास नहीं, और अपने आप पर भरोसा और साहस भी नहीं कि वह इस अनमोल विरासत को पुनः विश्व पटल पर सुशोभित कर सकें। वह मानसिक तौर पर प्रत्येक तथ्य को पाश्चात्य मापदण्डों से ही प्रमाणित करने के इतने ग़ुलाम हो चुके हैं कि मौलिक ग्रन्थ को अंग्रेज़ी प्रतिलिपि के आघार पर ही प्रमाणित करने की माँग करते हैं।

चाँद शर्मा

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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