हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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19 – मानव जीवन के लक्ष्य


हिन्दू धर्म ने संसारिक सुखों को सर्वथा त्यागने की वकालत कभी नहीं की। हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष वह स्थिति है जब मन में कोई भी अतृप्त कामना ना रह गयी हो तथा समस्त इन्द्रीय भोगों की धर्मानुसार पूर्ण संतुष्टि हो चुकी हो। इसी स्थिति को पाश्चात्य संदर्भ में ‘टोटल सेटिस्फेक्शन कहते हैं।

हिन्दू जीवन शैली स्दैव इस सत्य के प्रति सजग रही है कि प्रत्येक प्राणी में इच्छायें तथा भावनायें हमेशा पनपती रहती हैं। बिना तृप्ति के कामनाओं को शान्त करना व्यावहारिक नहीं। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को धर्मपूर्वक पुरुषार्थ कर के अपनी समस्त कामनाओं की तृप्ति करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

यह हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी निजि आवश्यक्ताओं के साथ साथ अपने परिवार तथा मित्रों के लिये भी पर्याप्त सुख सम्पदा अर्जित करे और उस का सदोपयोग भी करे। अनिवार्यता केवल इतनी है कि यह सब करते हुये प्रत्येक स्थिति में धर्म, स्थानीय मर्यादाओं तथा निजि कर्तव्यों की अनदेखी नहीं हो।

पुरुषार्थ अर्जित जीवन लक्ष्य

हिन्दू धर्म के मतानुसार किसी भी प्रकार के इन्द्रीय सुख भोगने में कोई पाप नहीं है। ईश्वर ने मानव को किसी भी फल के खाने से मना नहीं किया है। प्रत्येक मानव को यह अधिकार है कि वह अपने और अपने परिवार, मित्रों, तथा सम्बन्धियों के इन्द्रीय सुखों के लिये अतुलित धन सम्पदा अर्जित करे जिस से सभी जन अपनी अपनी अतृप्त कामना से मुक्त हो जाये। अतः मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, तथा इन चारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मानवों को यत्न करते रहना चाहिये।

धर्मः- सृष्टि के सभी जीवों का प्रथम लक्ष्य है – स्वयं जियो। अपने जीवन की रक्षा करना सभी जीवों के लिये ऐक प्राकृतिक और स्वभाविक निजि धर्म और अधिकार है। ‘दूसरों को भी जीने दो’ का मार्ग कर्तव्यों से भरा है जिस को साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का विस्तार कर के अपने आप को नियम-बद्ध किया है। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है। जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी अपनी भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये हैं। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं तथा उन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

श्रष्टि के सभी जीवों में मानव शरीर श्रेष्ट और सक्षम है इस लिये जीने दो का उत्तरदाईत्व  पशु-पक्षियों की अपेक्षा मानवों पर अधिक है। इसी लिये दूसरों के प्रति धर्म के नियमों का पालन करना ही मानवों को पशु-पक्षियों से अलग करता हैः-

           आहार निद्राभय मैथुन च सामान्यमेतस शाभिर्वरीणम्

                    धर्मो ही तेषामधिसो धर्मेणहीनाः पशुभिसमाना ।। (-हितोपदेश)

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – यह प्रवृतियाँ मनुष्य और पशुओं में समान रुप से पाई जाती हैं। परन्तु मनुष्य में धर्म विशेष रुप से पाया जाता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु के समान ही है।

जिस प्रकार सभी पशु पक्षी अपने अपने कर्तव्यों का स्वाचालित रीति से पालन करते हैं उसी प्रकार मानव भी जिस स्थान पर जन्मा है वहाँ के पर्यावरण की रक्षा तथा वृद्धि करे। अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करे अपनी आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपना उत्तरदाईत्व निभाये और विश्व कल्याण में अपना योगदान देने के लिये स्दैव सजग एवं तत्पर रहै।

इन चारों लक्ष्यों में धर्म सर्वोपरि है। प्रत्येक परिस्थिति में धर्म का पालन करना अनिवार्य है। यदि किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति में धर्म के मूल्यों का उल्लंधन होता हो तो मानव का कर्तव्य है कि उस लक्ष्य को त्याग दे। जो निजि धर्म का पालन करते करते किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करे वह स्दैव पापमुक्त रहता है तथा जो धर्म की अवहेलना करते हुये निष्क्रिय हो बैठे वही पापी है।

जब धर्म प्रगट होता है तो अपने दस लक्षण भी मनुष्य में प्रतिष्ठित करता है। यह लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रीय निग्रह, शुद्ध बुद्धि, सत्य, उत्तम विद्या, अक्रोध। जब मनुष्य में यह लक्षण प्रतिष्ठित हों गे तो समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व स्वतः ही सुन्दर, आदर्श ऐवं शान्तमय दिखे गा। इस लिये आवश्यक है कि आज का अशान्त मनुष्य धार्मिक हो।

अर्थः- अर्थ से तात्पर्य है जीवन के लिये भौतिक सुख सम्पदा अर्जीत करना। मानव को ना केवल अपने शारीरिक सुखों के लिये पदार्थ अर्जित करने चाहियें अपितु संतान, माता पिता, सम्बन्धी, जीव जन्तु तथा स्थानीय पर्यावरण के उन सभी प्राणियों के लिये भी, जो उस पर आश्रित हों उन के प्रति भी अपने कर्तव्यों को निभा सके। धन सम्पदा अर्जित करना तथा उस का उपयोग करना कर्तव्य है, किन्तु धन सम्पदा ऐकत्रित कर के संचय कर लेना अधर्म है। हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार –       

       शत हस्त समोहरा सहस्त्र हस्त संकिरा

(अर्थात मानव यदि एक सौ हाथों से कमाये तो उसे हज़ार हाथों से समाज कल्याण के लिये दान भी करना चाहिये।)

अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी धर्म तथा पुरुषार्थ दोनों का निर्वाह अनिवार्य है। धर्म उल्लंधन कर के अर्थ अर्जित करना पाप है तथा सक्षम होते हुये भी निष्क्रिय हो कर निजि आवश्यक्ताओं के लिये दूसरों से अर्थ प्राप्ति की अपेक्षा करते रहना भी पाप है। सुखी जीवन तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये धन-सम्पदा केवल साधन मात्र हैं, किन्तु वह जीवन का परम लक्ष्य नहीं हैं। धर्म पालन ( कर्तव्य पालन) करने से अर्थ हीन को भी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अधर्म से अर्थ जुटाने वालों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

कामः- काम से तात्पर्य है समस्त ज्ञान इन्द्रियों तथा कर्म इन्द्रियों के सुखों को भोगना। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा सहवास, संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है और उसे पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से सन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं। काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ लोग इस तथ्य को नकार कर भले ही अपवाद होने का दावा करें परन्तु उन की संख्या लग भग शून्य के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये हिन्दू धर्म ने काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशा सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये

मोक्षः- मोक्ष से तात्पर्य है जीवन में पूर्णत्या संतुष्टि प्राप्त करना है। सुख और शान्ति की यह चरम सीमा है जब मन में कोई भी इच्छा शेष ना रही हो, किसी प्रकार के संसारिक सुख की कामना, किसी से कोई अपेक्षा या उपेक्षा का कोई कारण ना हो तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस के लिये कोई यत्न नहीं करना पड़ता। किये गये कर्मों के फलस्वरूप ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह अवस्था मानव जीवन की सफलता की प्राकाष्ठा है। निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।

मर्यादित संतुलन

‘दूसरों को भी जीने दो’ के सिद्धान्त पर जब भी हम किसी कर्तव्य को निभाने के लिये निष्काम भावना से अगर कोई कर्म करते हैं तो वह ‘धर्म’ के अन्तर्गत आता है। इसी ‘जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही अगर  स्वार्थ भी मिला कर यदि कोई कर्म किया जाता है तो वह व्यापार या ‘अर्थ’ बन जाता है और यदि किसी कर्म को केवल अपने मनोरंजन या खुशी के लिये किया जाये तो वही ‘काम’ बन जाता है।

धर्म, अर्थ, और काम में से केवल धर्म ही सशक्त है जो अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। यदि किसी मानव नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है तो वह अर्थ के अभाव में भी मानसिक तौर पर संतुष्ट ही हो गा। इसी प्रकार यदि किसी नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है परन्तु उसे अपने लिये इन्द्रीय सुख नहीं प्राप्त हुये तो भी ऐसा व्य़क्ति निराश नहीं होता। इस के विपरीत यदि किसी के पास अपार धन तथा सभी प्रकार के काम प्रसाधन उपलब्ध भी हों तो भी निजि कर्तव्यों का धर्मपूर्वक निर्वाह किये बिना उसे पूर्ण संतुष्टि – मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।

जीवन में इन लक्ष्यों के लिये पुरुषार्थ करते समय मानव को स्दैव अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुननी चाहिये और जब भी मन में कोई शंका अथवा दूविधा उतपन्न हो तो स्दैव धर्म का मार्ग ही सभी परिस्थितियों, देश और काल में कष्ट रहित मार्ग होता है। मानव को अपनी रुचि और क्षमता अनुसार तीनों लक्ष्यों का एक निजि समिश्रण स्वयं निर्धारित करना चाहिये जो देश काल तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो। निस्संदैह इस समिश्रण में दूसरों के प्रति धर्म की मात्रा ही सर्वाधिक होनी चाहिय

हिन्दू धर्म ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुयी है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता स्दैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। हिन्दू धर्म प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।

चाँद शर्मा

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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