हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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सुधारक, निन्दक या सहायक


 

सोशल मीडिया में प्रखर ज्ञानियों के कुछ कमेन्ट्स पढ कर केवल औपचारिकता के नाते केवल अपने विचार लिख रहा हूँ। यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मेरे निजि विचार हैं अगर किसी को तर्क-संगत ना लगे, तो ना आगे पढें और ना मानें। मेरे पास केवल ऐक साधारण व्यक्ति का दिमाग़ है, पहिरावा और साधन हैं और मैं जो कुछ साधारण बुद्धि से समझता हूँ वही दूसरों के साथ कई बार बाँट लेता हूँ। किसी दूसरे को सुधारने या बिगाडने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है।

सामान्य भौतिक ज्ञान

भौतिक शास्त्र के सामान्य ज्ञान के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वाचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने–बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन–विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जीवत प्राणी

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधारित है। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने–आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

जीवन-आत्मा

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार बिजली कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार बिजली एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। बिजली काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

ऐकता और भिन्नता

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से बिजली प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

कण-कण में ईश्वर

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं और यह सिद्धान्त वेदों के प्रकट होने से भी पूर्व आदि-वासियों को पता था जो प्राकृति के अंगों में भी, ईश्वर को कण-कण में अनुभव करते थे और इन में मानवों से लेकर चूहे तक सभी शामिल हैं। स्नातन धर्म की शुरुआत यहीं से हुयी है।

ईश्वर की मानवी परिभाषा

ईश्वरीय शक्तियों को मानवी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन के बारे में अभी विज्ञान भी बहुत कुछ नहीं जानता। जिस दिन विज्ञान या कोई महाऋषि जिन में स्वामी दयानन्द भी शामिल हैं ईश्वर को अपनी परिभाषा में बान्ध सके गे उसी दिन ईश्वर सीमित हो कर ईश्वर नहीं रहै गा। ईश्वर की शक्तियों के कुछ अंशों को ही जाना जा सकता है जैसे अन्धे आदमियों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर अनादी तथा अनन्त है और वैसे ही रहै गा। यही सब से बडा सत्य है।

समुद्र के जल में आथाह शक्ति होती है। बड़े से बड़े जहाज़ों को डुबो सकता है। लेकिन अगर उस जल को किसी लोटे में भर दिया जाये तो उस जल में भी समुद्री जल के सभी गुण विधमान होंते हैं लेकिन लोटे में रखा जल में जहाज़ को डुबोने की शक्ति नहीं हो गी । अगर उस जल को वापिस समुद्र में डाल दिया जाये तो फिर से जहाज़ों को डुबोने की शक्ति उस जल को भी प्राप्त हो जाये गी। यह बात भी पूर्णत्या वैज्ञानिक सत्य है।

मूर्ति की आवश्यक्ता

जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं । यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता का बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसे मिट्टी का खिलोना या माडल बना की दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उस की पूजा करने में भी कोई बुराई नहीं समझता। मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।

तर्क और आस्था

जहां तर्क समाप्त होता है वहीं से आस्था का जन्म होता है। जहां आस्था में तर्क आ जाये वहीं पर आस्था समाप्त हो जाती है और विज्ञान शुरु हो जाता है। दोनो गोलाकार के दो सिरे हैं। हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। सूर्य की पेन्टिगं पर ‘ओइम’ लिख कर उसे अपना झण्डा बना लेना आर्य समाज की आस्था है, जो किसी वैज्ञानिक तर्क पर आधारित नहीं है, ऐक तरह का असत्य, और मूर्ति पूजा ही है।  लेकिन अपनी आस्था का आदर तर्कशास्त्री आर्य समाजी भी करते हैं।

हिन्दू-ऐकता

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। मेरा निजि मानना है कि वैदिक धर्म और सनातन धर्म ऐक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड है। बिना चित्रों के तो विज्ञान की पुस्तक भी बोरिंग होती है। आप अपने घर में अतिथियों को अपनेविवाह और जन्म दिन की ऐलबम दिखाते हो तो क्या वह सभी ‘असत्य ’ होता है?

भगवान राम ने भी रामेश्वरम पर शिवलिंग स्थापित कर के मूर्ति पूजा करी थी। तो क्या भगवान राम आर्य नहीं थे? कोई भी स्नातनी हिन्दू आर्य-समाजियों को मूर्ति पूजा के लिये बाध्य नहीं करता। लेकिन जिस तरह घरों में आर्य-समाजी अपने माता-पिता की तसवीरें लगाते हैं स्वामी दयानन्द सरसवती के चित्र लगाते हैं उसी तरह शिव, राम, और कृष्ण के चित्र भी लगा दें तो सारा हिन्दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी स्नातनी हिन्दू आर्य हैं और वेदों, उपनिष्दों, रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों और पुराणों को लिखने वाले सभी ऋषि आर्य थे। आर्य-समाजी नहीं थे। आर्य-समाज तो ऐक संगठन का नाम है।

आर्य समाजी सुधारक

हर आर्य-समाजी अपने आप को स्नातन धर्म का ‘सुधारक’ समझता है चाहे उस ने वेदों की पुस्तक की शक्ल भी ना देखी हो। आधे से ज्यादा आर्य समाजियों ने तो ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ भी नहीं पढा होगा। जरूरत है आर्य समाजी अपनी तालिबानी मानसिक्ता पर दोबारा विचार करेँ। आर्य समाजी कहते हैं ‘जर्मन और अंग्रेज़ों ने हमारे वेद पढ कर सारी प्रगति करी है। वैज्ञानिक अविष्कार किये हैं।’ चलो – यह बात तो ठीक है। उन्हों ने हमारे ग्रंथ पढ कर और रिसर्च करी, मेहनत करी और अविष्कार किये। अब आर्य समाजी यह बताये कि उन्हों ने अपने ग्रंथ पढ कर कौन-कौन से अविष्कार किये हैं। स्वामी दयानन्द ने उन्हें वेदों का महत्व बता दिया फिर आर्य समाजी किसी ऐक अविष्कार का नाम तो बताये। अगर नहीं करे तो क्यों नहीं करे?  क्या उस के लिये भी जर्मन, अंग्रेज़ या स्नातनी हिन्दू कसूरवार हैं? दूसरों को कोसते रहने से क्या मिला? आर्य समाजी कभी स्नातनी हिन्दूओं को कभी जैनियों – बौधों और सिखों का विरोध कर के हिन्दू ऐकता को  खण्डित करने के इलावा और क्या करते रहै हैं? दूसरों की ग़लतियां निकालने के इलावा इन्हों ने और क्या किया है – वह बताने का प्रयास क्यों नहीं करते?

हम ने अकसर आर्य समाजियों को स्नातनी विदूवानों को पाखणडी या मिथ्याचारी कहते ही सुना है। आर्य समाजियों के लिये अब चुनौती है कि दूसरों की निन्दा करते रहने के बजाये अब वह अपने वैदिक ज्ञान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन इण्डिया’ की अग्रिम पंकित में अपना स्थान बनाये। आस्था का दूसरा नाम दृढ़ निश्चय होता है। आप किसी भी मूर्ति, वस्तु, स्थान, व्यक्ति, गुरु के साथ आस्था जोड कर मेहनत करने लग जाईये सफलता मिले गी। वैज्ञानिक की आस्था अपने आत्म विशवास और सिखाये गये तथ्यों पर होती है। वह प्रयत्न करता रहता है और अन्त में अविष्कार कर दिखाता है।

जिहादी मानसिक्ता

किसी हिन्दू को अपने आप को आर्य कहने के लिये आर्य समाज से प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। सभी हिन्दू आर्य हैं और सभी आर्य हिन्दू हैं। फिर आर्य समाज ने दोनो के बीच में अन्तर क्यों डाल रखा है।  स्नातन धर्म ने तो स्वामी दयानन्द को महर्षि कह कर ही सम्बोधित किया है। लेकिन यह समझ लेना कि स्वामी दयानन्द सर्वज्ञ थे और उन में कोई त्रुटि नहीं थी उसी इस्लामी मानसिक्ता की तरह है जैसे मुहम्मद के बाद कोई अन्य पैग़म्बर नहीं हो सकता।

अधाकांश आर्य समाजियों के मूहँ से वेदिक ज्ञान कम और दूसरों के प्रति आलोचनायें, निन्दा, गालियां ही अधिक निकलती हैं जैसे सत्य समझने – समझाने का लाईसेंस केवल उन्हीं के पास है। सत्य की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने में लगे रहते हैं हर धर्म घटक में गन्दगी कहाँ पर है। इसे सत्य की खोज तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता।

चुनौती

कुछ करना है तो आर्य समाजियों को युवाओं में नैतिकता का पाठ पढाने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिये। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशस, वेलेन्टाईन-डे, न्यू-इयर-डे, आतंकवादियों आदि की विकृतियों को भारत में फैलने से रोकने के लिये क्या करना चाहिये, उस पर विचार कर के किसी नीति को सफलता से अपनाये और सक्षम कर के दिखायें।

बच्चों और युवाओं को वेद-ज्ञान, संस्कृत भाषा का आसान तरीके से ज्ञान का पाठ्य क्रम तैय्यार कर के ऐसा साहित्य तैय्यार करें ताकि वह ‘जेक ऐण्ड जिल’ को भूल कर भारतीयता अपनायें और साथ ही साथ ज्ञान भी हासिल करें। ज्ञान का अर्थ कुछ मंत्र रटा कर तोते की तरह बुलवाना नहीं होता, बल्कि ज्ञान को इस्तेमाल कर के वह अपनी जीविका इज्जत के साथ कमा सकें। युवाओं को व्यकतित्व विकास की शिक्षा आधुनिक तकनीक के साथ लेकिन भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुरूप किस प्रकार दी जाये इस को क्रियात्मिक रूप देना चाहिये। व्यकतित्व ऐसा होना चाहिये जो दुनियां के किसी भी वातावरण में आत्म विश्वास और दक्षता के साथ आधुनिक उपकरणों के साथ काम कर सके। ऐसा व्यकतित्व नहीं बने कि वह केवल दूर-दराज गाँव में छिप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीविका कमाने लायक ही बन पायें।

किसी प्रकार का साफ्टवेयर या हार्डवेयर अपनी वैदिक योग्यता से सम्पूर्ण स्वदेश बनायें ताकि हमें बाहर से यह सामान ना मंगवाना पडे। हमारे पास इंजीनियर, तकनीशियन, प्रयोग-शालायें, अर्थ-शास्त्री आदि सभी कुछ तो है। अब क्यों नहीं हम वह सब कुछ कर सकते जो अंग्रेज़ों और जर्मनी वालों ने आज से 200 वर्ष पूर्व  “हमारी नकल मार के” कर दिखाया था। इस प्रकार के कई सकारात्मिक काम आर्य समाजी अब कर के दिखा सकते हैं। उन्हें चाहिये कि आम लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण दिखायें कि हमारा यह हमारा ज्ञान विदेशियों ने चुराया था, अब हमारे पास है जिस का इस्तेमाल कर के हम विश्व में अपनी जगह बना रहै हैं। रोक सको तो रोक लो। केवल मूर्ति पूजा का विरोध कर के और अपने वेदों का खोखला ढिंढोरा पीट कर आप विश्व में अपनी बात नहीं मनवा सकते। कुछ कर के दिखाने की चुनौती आर्य बन्धुओं, वेदान्तियों और प्रचारकों को स्वीकार करनी पडे गी।

सत्यं वदः – प्रियं वदः

बहस और शास्त्रार्थ में ना कोई जीता है और ना ही कोई जीते गा। मैं भारत की प्राचीन उपलब्धियों का पूर्ण समर्थन करता हूँ लेकिन लेकिन आर्य समाजी मानसिक्ता का नहीं। सत्य को कलात्मिक तरीके से कहना ही वैज्ञानिक कला है। ऐक नेत्र हीन को सूरदास कहता है तो दूसरा अन्धा – बस यही फर्क है। “सत्यं वदः – प्रियं वदः ” का वेद-मंत्र  आर्यसमाजी भूल चुके हैं। इस लिये किसी की आस्था का अपमान कर के सत्यवादी या सुधारक नहीं बन बैठना चाहिये। यही भूल स्वामी दयानन्द ने भी कर दी थी। अब उसी काम का टेन्डर आमिर खान ने भर दिया है और प्रोफिट कमा रहा है। जो कुछ बातें आर्य समाजी करते रहै हैं वही आमिर खान ने भी करी हैं जिस का समर्थन फेसबुक पर आर्य समाजी कर के हिन्दूओं का मज़ाक उडा रहै हैं। सोच कर देखो – दोनों में कोई फर्क नहीं।

मेरा लक्ष्य केवल अपने विचार को दूसरों के साथ शेयर करना है किसी को मजबूर करना या उन का सुधारक बनना नहीं है। मुझे भी अब आगे बहस नहीं करनी है। जो सहमत हों वही अपनी इच्छा करे तो मानें। वेदिक विचार और सनातनधर्म की आस्था दोनों ऐक ही सिक्के के पहलू हैं और दोनों बराबर हैं। किसी को भी अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बन कर दूसरे का सुधारक बनने की जरूरत नहीं।

चाँद शर्मा

निर्धारित स्थान कम होने के कारण श्री वेदानुरागी जी की टिप्पणियों का उत्तर यहां दिया जा रहा हैः –

 

आप की टिप्पणियों के बारे में मैं केवल अपने विचारों को स्पष्ट कर रहा हूँ उन को मानना या ना मानना आप की मरज़ी है। आर्य-समाजी अपने वेदिक ज्ञान की चोरीका दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहने के बजाये खुद कोई चमत्कारी अविष्कार कर के दिखायें तभी देश और वेदों का गौरव वास्तव में बढे गा।

भगवान की सारी परिभाषायें मानवों ने ही बनाई हैं। भगवान उन परिभाषाओं से परे भी हो सकते हैं जो आजतक बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और ऋषियों ने बनाई हैं। ईश्वर को देखने और दिखाने का दावा करने वाले सभी प्रवक्ता उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्हों ने हाथी को टटोल कर प्रमाणित कर दिया था। इस लिये यह कहना कि ईश्वर यह कर सकता है, वह नहीं कर सकता आदि बेकार की बातें हैं।

इस देश में हजारों ऋषि-मुनि हुये हैं जो स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी अधिक विद्वान थे। उन सभी के ज्ञान को केवल सत्यार्थ-प्रकाश पढ कर पाखण्ड’, ‘असत्य, याअनर्गलबातें कहना, अपने आप को सभी का सुधारक बोल कर अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बने रहना तालिबानी मानस्क्ता नहीं तो और क्या है? स्वामी दयानन्द ने अपने विचारों का ऐक थिसिस सत्यार्थ-प्रकाश लिखा है वह उन के व्यक्तिगत विचार थे। कोई भी स्नातक कुछ गिने-चुने विषयों में पारंगत हो सकता है, विश्वविधालय की सभी फैक्लटियों में पारंगत नहीं माना जाता। स्नातन धर्म के किसी भी प्राचीन ऋषि, या महऋषि ने सर्वज्ञ होने का दावा कभी नहीं किया।

आदि-मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं तथा उपलब्धियों का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे-धीरे आर्य समाज की स्थापना से सैंकडों वर्ष पूर्व स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया है। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं जिन्हें वेदिक-धर्म कहा जाता रहा है।

आर्यशब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तथा सभ्यव्यक्ति के लिये किया जाता है भारत में बाहर से आने वालों को उन की सभ्यता और रहन सहन के अनुसार यवन, मलेच्छ, विधर्मी, दस्यु या अनार्य कह कर पहचाना जाता था।आर्य-समाजऐक संस्था का नाम है इसी संस्था के लोगों को आजकल आर्य-समाजीकहा जाता है। वास्तव में सभी स्नातन धर्मी आर्यहैं और सभी आर्यहिन्दू हैं। इस ऐकता को समझना चाहिये। उसी तरह आर्य-समाजियों के अपने आप को हिन्दू कहने में शर्माना नहीं चाहिये।

आदि काल से ही हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता आया है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। हिन्दू धर्म ने कुछ सार्थक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी महत्व दे कर अपनाया है। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

जब आप कोई फिल्म देखते हैं तो फिल्म की कहानी, पात्र, दृष्य और सम्वाद सभी कुछ ‘असत्य’ है लेकिन फिर भी फिल्म के वातावरण के साथ अपनी भावनाओं को जोड कर दर्शक हँसते, रोते और भावुक हो जाते हैं। उसी तरह मन्दिर या किसी धर्म-स्थल के वातावरण में भक्त अपनी भावनाओं को जोड कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। किसी भी विषय से सम्बन्धित अगर कोई ट्रैनिंग-ऐड नौसिखियों के इलावा अगर किसी विकसित के लिये भी इस्तेमाल कर दी जाये तो वह कोई बहुत बडा अपराध नहीं हो सकता। अगर कोई व्यस्क भी अपनी इच्छा से मूर्ति पूजा कर लें तो उस में कोई बुराई नहीं है।

आप का कथन “ईश्वर चूहे में है लेकिन चूहा ईश्वर नहीं है”- लेकिन चूहा भी उसी ईश्वर का अंश तो हैअगर आप किसी रंग-बिरंगे शीशों-जडित कमरे में खडे होकर अपना प्रतिबिम्ब देखें गे तो वह हर शीशे में टुकडे के रंग के अनुसार ही दिखाई दे गा। इस का अर्थ यह नहीं कि आप को ‘बांट’ दिया गया है। उसी तरह सृष्टिकर्ता भगवान का प्रतिबिम्ब भी हर क़ृति में है, जिस में चूहा भी शामिल है। भगवान की छवि चूहे या किसी भी छोटे-बडे जीव में निहार लेना भगवान को टुकडों में बांटना नहीं होता। उस के लिये फतवा जारी कर देना कि मूर्ति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा करना आध्यात्मिक अपराध है केवल तालिबानी मानसिक्ता के सिवा और कुछ नहीं।

जिस तरह वायु सभी जगह मौजूद है परन्तु अदृष्य है, रंग या धूयें के माध्यम से प्रगट हो कर दिखाई दे देती है, उसी तरह ईश्वर भी सभी जगह मौजूद है मगर दिखाई नहीं देते। वह किसी भी स्थान पर किसी अन्य माध्यम से प्रगट होने का आभास दे सकते हैं। मैं ने चूहे की मूर्ति पूजा करने को नहीं कहा था लेकिन चूहे के कारण सभी मूर्तियों में भगवान का ना होने का फतवा देना भी ज्ञानयुक्त नहीं था।

अगर भगवान की मूर्ति से थोडा प्रसाद चूहे ने उठा लिया था तो भगवान क्या बालक मूलशंकर की शंका को समाप्त करने के लिये वहां चूहे को प्रसाद चुराने के अपराध में भस्म कर देते? अगर आप ही का अबोध ग्रैंडसन आप के खाने की प्लेट में से बिना पूछे कुछ उठा कर खा ले तो क्या आप उसे दण्ड दें गे?

अगर कोई अपनी आस्था किसी वस्तु में रखता है तो आप का क्या जाता है। आप उस पर बेकार नुक्ताचीनी मत करो। मूर्ति पूजा विरोधी तालिबानी ऐजेण्डा मत अपनाओ। हिन्दू समाज में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये सब घटकों के साथ चलो। इस प्रकार का कथन कि “हम तो सभी के सुधारक हैं ” उद्दण्ड मानसिक्ता का प्रतीक है ।

आप ने लिखा है कि “आर्य समाज के विद्वान शोध कर नए साधन बनायेंगे लेकिन पहले उनके समुचित वेतन की व्यवस्था कर…अरब रुपया खर्च कर के एक शोध केंद्र बना कर दीजिये…गुरुकुल आर्य समाज के सब से ज्यादा हैं। ” अगर आप योरुप के वैज्ञानकों की जीवनियां पढें तो आप को पता चले गा कि उन में से किसी के पास सरकारी साधन नहीं थे। उन्हों ने पहले अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपने प्रयासों को शुरु किया था। आविष्कार करने के लिये पहले उद्देश की कल्पना करनी पडती है फिर उस का चित्र बनता है। चित्र के अनुसार अविष्कार की मूर्ति (माडल) तैय्यार की जाती है। फिर माडल को साकार करने के लिये सीमित साधन, लग्न, आस्था, सकारात्मिक सोच और हिम्मत की जरूरत पडती है। शुष्क विज्ञान की जरूरत इस के बाद पडती है।

राईट बन्धु उडने की कल्पना कर के अपने जिस्म पर पक्षियों की तरह पंख लगा कर छत से कूद पडे थे। हिम्मत के सहारे काम करते रहै और ऐक दिन हवाई जहाज बन गया। योरुप के वैज्ञानिक हमारा वेदिक ज्ञान चुरा कर अविष्कार के बाद अविष्कार करते चले गये और हमारे स्वदेशी आर्य समाजी केवल मूर्ति विरोध को अपना ऐजेंडा बना कर आज भी वहीं खडे हैं।

जार्ज स्टीफ्नसन ने जब देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो पहले उस को प्रयोग में लाने के लिये कल्पना के सहारे चित्र बनाये जो आर्य-समाजी सोच के अनुसारअसत्यथे। ऐक बालक ने देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो उस ने अपनी इमेजिनेश्न, आस्था, सकारात्मिक वैज्ञानिक सोच और लग्न के सहारे स्टीम इंजन बना कर दिखा दिया।

चित्र का बनाना इस्लाम में भी अपराध है इस लिये आज तक किसी मुस्लिम ने भी कोई अविष्कार नहीं किया। शुष्क वेदिक ज्ञान होते हुये भी हमारे पास कल्पना की उडान, सक्रात्मिक सोच और हिम्मत नहीं थी इसी लिये आर्य-समाजी भी कोई अविष्कार नहीं कर सकते और केवल मूर्तियों के माडलों के बहिष्कार पर ही फतवा जारी करते रहै हैं।

आप का तर्क है कि “आपके पुराणों में लिखा है की गणेश जी का सर शिव जी ने हाथी के बच्चे का सर काट कर लगा दिया था तो आप क्या ऐसा कर के दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो कम से कम इस झूठी कहानी को तो नकार दीजिये” पुराणों में भी शुष्क वेदिक ज्ञान को कलात्मिक ढंग से समझाया गया है।

‘कनसेपेप्ट’ हमेशा काल्पनिक, और कई बार फूहड तथा हास्यस्पद भी होती है लेकिन जब लग्न और ‘टैक्नोलोजी’ के सहारे वह साकार हो उठती है तो उसे ही अविष्कार कहा जाता है। ‘कनसेपेप्ट’ दीर्घायु होती है मगर ‘टैक्नोलोजी’ तेज़ी से बदलती रहती है। पुराणों की कल्पना को आज के विज्ञान ने साकार कर के दिखा दिया है। अगर स्वामी जी के नीरस दिमाग़ में थोडी कलात्मिक कल्पना शक्ति भी होती तो उन्हों ने पुराणिक ज्ञान की निन्दा नहीं करनी थी। स्नातन धर्म हिन्दू विचारधारा का कलात्मिक पक्ष है जब कि वेदिक धर्म वैज्ञानिक पक्ष है – दोनो ऐक दूसरे के पूरक हैं। ऐक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

जिन संत कवियों के अंशो का सहारा आप ने लिया है वह ना तो वेदिक साहित्य के ज्ञाता थे और ना ही संस्क़त भाषा के सनात्क थे। जो कुछ उन के निजि विचार थे वह उन्हों ने अपभ्रंश भाषाओं में लिख डाले हैं। सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मिक उन्नति के लिये उन्हें कीर्तिमान नहीं माना जा सकता। अगर में कहूँ कि ऐक कवि ने यह भी लिखा है “ तेरी सूरत में रब दिखता है यारा मैं क्या करूं? ” तो केवल इसी आधार पर आप मूर्ति पूजा करने लग जायें गे?

 

अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ था। लेकिन कृष्ण का महत्व कपडे और माखन चुराने या 16 हज़ार रानियां रखने के कारण नहीं है – गीता के ज्ञान के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि आर्य-समाजी तो गीता और मनुस्मृति के भी विरोघी हैं।

 

रीति-रिवाज सामाजिक होते हैं, उन्हें समयानुसार बदला जा सकता है। शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। कई कुरीतियों ने जन्म लिया था। हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे। अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन पड गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विवाह नहीं किया था इस लिये वह गृहस्थाश्रम की जिम्मेवारियों को नहीं समझते थे वरना रीति रीवाजो के लिये ब्राहमणों को दोषी ना बोलते। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा और यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया।

 

भारत में सती प्रथा बाहर से आयी है। उस का समर्थन हिन्दूओं ने कभी नहीं किया। यदि आप इस तथ्य को प्रमाणों के साथ जानना चाहें तो इस लिंक पर पढ सकते हैं जो विषय को संक्षिप्त रखने के लिये मैं यहां पर दोबारा नहीं लिख रहा हूँ।

 

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है। हिन्दूओं का धर्मान्तरण कराने के लिये अकसर कहा जाता है कि सती प्रथा की आड में हिन्दू विधवाओं को जीवित जला दिया जाता था तथा हिन्दू जन्म के समय ही कन्याओं का वध कर देते थे। दुष्प्रचार के प्रभाव तथा निजि अज्ञानता के कारण हिन्दू अपने आप को हीन समझ कर आज भी उन की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं और अपने धर्म के प्रति शर्मिन्दा हो जाते हैं। वह नहीं जानते कि वास्तव में इन बातों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। तथ्य इस के विपरीत है। प्रमाण जानने के लिये कृप्या यह लिंक देख लें। http://wp.me/p2jmur-5J .

भारतीय नागरिक्ता सस्ती क्यों


डालर और रुपये की कीमत के अनुपात से अमेरिका भारत से 60 गुणा अमीर देश है। मगर अमेरिका अपने देश की नागरिक्ता उन्हीं लोगों को प्रदान करता है जो आर्थिक तौर पर अपना खर्चा उठा सकें या कोई दूसरा समृद्ध अमेरिकन नागरिक उन का खर्च उठाने की जिम्मेदारी ले। इस के अतिरिक्त जन्म से लेकर प्रार्थना पत्र देने की तारीख तक आवेदक का पूरा रेकार्ड प्रमाणित रूप में चैक किया जाता है। आवेदक के लिये जरूरी है कि वह अंग्रेज़ी लिखने पढने में कुशल हो। लिखित टेस्ट से निश्चित किया जाता है कि आवेदक को अमेरिका की जंगे-आजादी का इतिहास, संविधान, प्रशासनिक ढांचे तथा अमेरिका की आस्थाओं की पूरी जानकारी है। सब से छान बीन हो जाने के बाद आवेदक को अमेरिका के प्रति पूर्णत्या समर्पित होने की शप्थ और अपने पिछले देश से सभी भावनात्मिक और संवैधानिक सम्बन्धों का त्याग करना अनिवार्य होता है। तब जा कर वह नागरिक बनता है लेकिन उसे अपने जीने के लिये सभी सुविधायें अपनी आय से खरीदनी पडती हैं। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।

अमेरिका की तुलना में आज भारत में चारों तरफ से मुफ्तखोर बंगलादेशी, पाकिस्तानी आतंकी, माओवादी, क्रिकेट या ग़जल-प्रेमी, ड्रगपैडलर-विदेशी नेताओं के भ्रष्टाचार के कारण घुसे चले आ रहै हैं। चेकिंग तो दूर, मूर्खता-वश हमारी सरकारें बाहरी लोगों को देश में आने के बाद अनुमति (विजा) प्रदान कर अपनी पीठ थपथपाने लगती हैं। विज़ा अवद्धि समाप्त हो जाने के बाद भी बहुत सारे विदेशी वापिस ही नहीं जाते और इधर-उघर छिप जाते हैं। अगर घुस-पैठिये पकडे भी जायें तो उन को प्रशासनिक अधिकारी वापिस नहीं भेज सकते क्यों कि कई धर्म-निर्पेक्ष और देश-द्रोही भारतीय नेता और मीडिया उन के समर्थन में खडे हो जाते हैं और मामला ठंडे बस्ते में पहुंच जाता है। यही देश द्रोही नेता अपने लिये वोट बैंक खडा करने के लिये उन भिखमंगों को पहचान-पत्र, राशन-कार्ड और कई तरह की सरकारी सुविधाओं के योग्य बनवा देते हैं जिस का आर्थिक बोझ आम नागरिकों पर सदा के लिये पड जाता है। देश को दीमक खाने लग जाती है।

बाहर से लाये गये यह अनपढ, बीमार और निकम्मे लोग और उन के परिवार बडे बडे शहरों में झोंपडिया बना कर सरकारी जमीन पर कबजा कर लेते हैं। हमारी नदियों के जल को दूषित करते हैं। जहां चाहें सडकों, बस्तियों और सार्वजनिक स्थलों को शौचालय बना डालते हैं। हमारे सरकारी अस्पताल इन्हीं लोगों से भरे रहते हैं। ऊपर से यही लोग हमारे देश में वोटर बन कर हमारे मूल-नागरिकों के लिये भ्रष्ट सरकारों को चुनते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। क्या इन कीडों से भारत कभी छुटकारा पा सके गा? निराशजनक तो कहैं गे ‘नहीं’ – लेकिन अगर आप में कछ आत्म विशवास और स्वाभिमान है तो ‘अवश्य।’

अब जरा सोचियेः-

  • अगर जम्मु-कशमीर की कोई लडकी भारत के किसी व्यक्ति से शादी कर ले तो क्यों वह जम्मू-कशमीर में भी अपनी सम्पति तथा वोट देने का अधिकार खो बैठती है जबकि वही लडकी अगर किसी पाकिस्तानी कशमीरी से शादी कर ले तो अपने साथ उस ‘भारत-शत्रु’ को भी भारत की नागरिकता दिलवा सकती है। इस तरह की घातक धारा 370 क्यों समाप्त नहीं होनी चाहिये?
  • आम तौर पर भारत से मुस्लिम लडकियां पाकिस्तानी युवकों से विवाह कर के अपने ससुराल पाकिस्तान नहीं जातीं। उल्टे विवाह के बाद उस का पाकिस्तानी पति भारत का नागरिक क्यों बन जाता है और हमारी बढी हुय़ी जनसंख्या को 10 -12 बच्चों का योग्दान कर देता है। कई पाकिस्तानी-पति तो बच्चों के साथ अपनी पत्नी को तलाक दे कर वापिस पाकिस्तान चले जाते हैं और वहां और निकाह कर लेते हैं। भारतीय मुस्लिम युवा निकाह कर के अपनी ऐक से ज्यादा पत्नियों को को भारत में ही बसा देते हैं ताकि यहां की जनसंख्या बराबर बढती रहै। ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या हमारे पास जन-संख्या की कमी है?
  • हम चारों तरफ से आतंकी मुस्लिम देशों से घिरे हुये हैं। फिर किन कारणों से हमारे देश के सभी सीमावर्ती राज्यों में बार्डर के साथ लगने वाली लगभग सारी जमीन मुस्लिमों के हाथ बिक चुकी है? देश की लग भग सभी तटीय क्षेत्रों की जमीन भी मुस्लिमों की मलकीयत क्यों बनती जा रही है? क्या यह देश के सुरक्षा के लिये आने वाला खतरा नहीं है? सीमा और तटों के 10 किलोमीटर अन्तर्गत आने वाली जमीन को हम रक्षा-मंत्रालय को क्यों नहीं सौंप देते ताकि हमारी सीमायें सुरक्षित रहैं और वहां आने जाने पर पूरा नियन्त्रण रक्षा बलों का ही रहै? यह भी जानना चाहिये कि इस बिक्री में विदेशी धन तो नहीं लग रहा।
  • अनजान बन कर हम इस तरह से अपने देश को क्यों बर्बाद करते जा रहै हैं? क्या देश से ज्यादा हम अपनी झूठी धर्म-निर्पेक्षता और मानवाधिकारों को प्रेम करने लग चुके हैं? क्यों हमारे युवाओं के पास देश के बारे में सोचने की आदत ही नहीं रही? जिन लोगों ने हम से नफरत कर के देश का बटवारा करवाया उन्हीं को संतुष्ट रखने के लिये आज फिर से भारत के नागरिक अपने देश के ज्ञान-ग्रंथों और परम्पराओं को त्यागते क्यों चले जा रहै हैं ?
  • किसी को कोई शक नहीं रहना चाहिये कि पाकिस्तान का जन्म भारत की शत्रुता के कारण ही हुआ है और रिशता हमें निभाना ही पडे गा। क्या हम अपने देश के नागरिकों पर यह पाबन्दी नहीं लगा सकते कि अगर वह किसी विदेशी से खास तौर पर अपने निकटतम शत्रु-देश पाकिस्तान से विवाह करें गे तो उन की भारतीय नागरिक्ता समाप्त कर दी जाये गी और विवाहित-विदेशी को भारत में अस्थाई तौर पर भी नहीं आने दिया जाये गा ?
  • किसी को भी भारत की नागरिकता प्रदान करने से पहले क्यों हम आवेदक से कुछ शर्तें नहीं मनवाते कि वह भारत की राष्ट्र भाषा सीखे, भारत की संस्क़ृति के साथ समान आचार संहिता को अपनाये, भारत का मूल निवासी होने के नाते अपने आप को हिन्दूओं का वंशज कहै और वन्देमात्रम कहने से परहेज ना करे। अगर उसे यह सब पसंद नहीं तो कहीं और जा कर रहै। क्या हमारे पास जन-संख्या की कमी है? क्यों हम अपने देश के हितों की रक्षा अमेरिका की तरह से नहीं कर सकते?

हमें अपने मन, वचन और कर्म से पूरे विश्व को संदेश देना होगा कि भारत कोई सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय सराय स्थल नहीं कि कोई भी यहां आकर अपना बिस्तर लगाले और हम उस की चाकरी में जुट जायें। हमें सडी गली काँग्रेसी धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर स्वाभिमान से कट्टर हिन्दूराष्ट्र वाद को अपनाना होगा नहीं तो हम सभी बेघर हो जायें गे और हमारे लिये विश्व में कोई दरवाजा नहीं खोले गा। हम सभी हिन्दू हैं, भारत हमारा घर और हमारी पहचान है। हम इसे मिटने नहीं दें गे।

चाँद शर्मा

 

अंग्रेज़ी-भक्तों का हिन्दी विरोध


उपनेशवाद का युग समाप्त होने के बाद आज भी इंग्लैंड को विश्व में ऐक सैन्य तथा आर्थिक महाशक्ति के तौर पर माना जाता है। उच्च तथा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में इंग्लैंड का आज भी ऐकाधिकार है। यह दबदवा राजनैतिक कारणों से नहीं, बल्कि अंग्रेजी भाषा के कारण है। अंग्रेज़ों ने अपने ऐक ‘डायलेक्ट’(अपभ्रंश) को विकसित कर के अंग्रेज़ी भाषा को जन्म दिया, लिपि रोमन लोगों से ली और भाषा का आधार बना कर विश्व पर शासन कर रहै हैं। अंग्रेजी से प्राचीन हिन्दी भाषा होते हुये भी हम मूर्ख हिन्दुस्तानी अपनी ही भाषा को स्वदेश में ही राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दे पाये – यह बदनसीबी नहीं तो और क्या है जो हम लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान शून्य है।

पिछडी मानसिक्ता वाले देशों में आज भी यही समझा जाता है कि अंग्रेजी भाषा के बिना दुनियां का काम ही नहीं चल सकता और विकास के सारे कम्प्यूटर ठप हो जायें गे। दास-बुद्धियों को भ्रम है कि विश्व में केवल अंग्रेजी ही सक्ष्म भाषा है जबकि विकसित देश भी दबी जबान में संस्कृत भाषा का गुण गान ही नहीं कर रहै, उसे सीखने के मार्ग को अपना चुके हैं। हमारे देश के मानसिक गुलाम फिर भी यह मानने को तैयार नहीं कि कि अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा ना हो कर केवल परम्परागत भाषा है जिस में लिखा कुछ जाता है और पढा कुछ और ही जाता है। उस की तुलना में हिन्दी पूर्णत्या ऐक वैज्ञानिक भाषा है जिस में जो लिखा जाता है वही पढा भी जा सकता है। विश्व की किसी भी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है और सक्ष्मता से पढा जा सकता है। अंग्रेजी में अपने नाम को ही लिख कर देख लीजिये पढने के बाद आप कुछ और ही सुनाई दें गे।

राष्ट्रभाषा का विरोध

नरेन्द्र मोदी सरकार ने राष्ट्रभाषा को महत्व देने का उचित निर्णय लिया है। यह भी अपेक्षाकृत था कि मोदी विरोधी नेता और अपना चुनावी वर्चस्व बनाये रखने वाले प्रान्तीय नेता इस का विरोध भी करें गे। बी जे पी में ही कई छिपे मोदी-विरोधी सरकार को हिन्दी अति शीघ्र लागू करने के लिये उकसायें गे भी ताकि सरकार गलतियां करे, और उकसाई गयी पथ-भ्रष्ट जनता का कडा विरोध भी झेले।

नीचे लिखे तत्वों का दूआरा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से भारत में हिन्दी का विरोध और अंग्रेजी के समर्थन में स्वाभाविक हैः-

  • विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के मालिक, जिन के व्यवसायिक उद्द्श्य हैं।
  • योरूपीय देश, कामनवेल्थ देश, और भारत विरोधी देश जो अंग्रेजी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा बनाये रखना चाहते हैं।
  • कम्पयूटर तथा अंग्रेजी-साफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनियां।
  • विदेशों में बस चुके कई भारतीय युवा जो विदेशी कम्पनियों की नौकरी करते हैं और भारत से आऊट सोर्सिंग के जरिये से अपने ही देसवैसियों से सस्ते में विदेशी कम्पनियों के लिये काम करवाते हैं।
  • काल सैन्टर के मालिक और कई कर्मचारी।
  • कुछ ईसाई संस्थान, कानवेन्ट स्कूल और मैकाले भक्त प्रशासनिक अधिकारी।
  • उर्दू-भाषी जिहादी तथा धर्म निर्पेक्ष।

इलेक्शन में हार हुये नेताओं को तो नये मुद्दों की तालाश रहती है। सत्ता से गिर चुकने का बाद करुणानिधि और उस की श्रेणी के कई अन्य प्रान्तीय नेताओं को सत्ता की सीढी चढने के लिये फिर से हिन्दी विरोध का मुद्दा बैठे बैठाये मिल गया है। करुणानिधि और उस की श्रेणी के अन्य साथी कृप्या यह तो बतायें कि उन के प्रान्तों में क्या सभी लोग अंग्रेजी में ही लिखते पढते हैं? सच्चाई तो यह है कि उन्हीं के प्रान्तों के अधिकाँश लोग आज भी अशिक्षित और गरीब हैं। वह अंग्रेजी पढे या ना पढें उन्हें विदेशों में नहीं जाना है। भारत में ही रोजी-रोटी के लिये रोजगार ढूंडना है। लेकिन इन नेताओं को इन बातों से कोई सरोकार नहीं। उन्हें तो पिछले सत्तर वर्षों की तरह अपने परिवारों की खातिर सत्ता में बने रहना है, मुफ्त लैपटाप, रंगीन टेलीविजन, साईकिलें और ऐक रुपये किलो चावल आदि की भीख से लोगों का तुष्टिकरण कर के वोट बटोरते रहना है। इस लिये अब धीरे धीरे दूसरे प्रान्तो से भी कुछ चुनाव-हारे क्षेत्रीय नेता अपना अंग्रेजी प्रेम दिखायें गे और विकास की दुहाई दें गे। मोदी विरोधी फौज में लाम बन्द होना शुरु करें गे। यह नेता क्या जनता को बतायें गे कि उन के शासन काल में उन्हों ने युवाओं को देश की राष्ट्रभाषा के साथ जोडने के सम्बन्ध में आज तक क्या कुछ किया? अपने प्रान्तों में ही कितने अंग्रेजी स्कूल खोले? युवाओं को विदेशों में या देश में ही रोजगार दिलवाया? अपने देश की राष्ट्रभाषा कि विकास के लिये क्या किया? देश की ऐकता और पहचान के लिये क्या यह उन का कर्तव्य नहीं था? प्रान्तीयता के नाम पर उकसाने वाले नेताओं का स्वाभिमान तब क्यों बेबस हो गया था जब अंग्रेजों ने भारत में प्रान्तीय भाषाओं को हटा कर अंग्रेजी उन के सिरों पर थोप दी थी?

व्यवस्था परिवर्तन

व्यवस्था परिवर्तन की शुरूआत राष्ट्रभाषा के सम्मान के साथ होनी चाहिये ताकि जनता में भारतीयता के प्रति आत्म विशवास का संचार हो। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में मंत्री मण्डल के अधिकांश सदस्यों का हिन्दी में शप्थ लेना और  राष्ट्रभाषा को सरकारी काम काज की भाषा बनाना ऐक अच्छी शुरूआत है। अब आगे संसद की कारवाई हिन्दी में चले और सरकारी काम काज हिन्दी में हो, ई-गवर्नेंस में भी हिन्दी को प्रमुखता से जोडा जाये तो देश में ऐक नया आत्म विशवास जागे गा। किसी पर भी अंग्रेजी के इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई गयी लेकिन राष्ट्रभाषा के पक्ष में ऐक साकारात्मिक पहल जरूर करी गयी है।

पिछले साठ वर्षों से हम ने अपने देश की राष्ट्रभाषा को वह सम्मान नहीं दिया जो मिलना चाहिये था। हम अंग्रेजी की चाकरी ही करते रहै हैं और अपनी भाषा के इस्तेमाल से हिचकचाते रहै हैं। अपनी भाषा सीखने के लिये साठ वर्ष का समय प्रयाप्त होता है और अनिच्छा होने पर साठ जन्म भी कम होते हैं।इस का अर्थ अंग्रेजी का बहिष्कार करना नहीं है केवल अपनी राष्ट्रभाषा का सत्कार करना है। जनता अपेक्षा करती है कि भारत के संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को देश की राष्ट्रभाषा का ज्ञान और सम्मान अवश्य होना चाहिये। अगर उन्हें अभी भी हिन्दी नहीं आती तो अपने प्रांत की भाषा (मातृभाषा) का इस्तेमाल तो कर सकते हैं जिस का ट्रांसलेशन करा जा सकता है।

आम देशवासियों को भी अगर अपने आप को भारतीय कहने में गर्व है तो अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी गर्व से प्रयोग करना चाहिये। अंग्रेजी लिखने पढने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि केवल अंग्रेजी लिखने पढने के कारण ही कोई व्यक्ति महान नहीं होता। उसी तरह हिन्दी लिखने पढने वाला अनपढ नहीं होता। लेकिन हिन्दी लिखने पढने वाला राष्ट्रभक्त अवश्य होता है और राष्ट्रभाषा को नकारने वाला निश्चित ही गद्दार होता है।

स्पीड में सावधानी जरूरी

हिन्दी के प्रचार, विस्तार और प्रसार में उतावलापन नहीं करना चाहिये। समस्याओं का धैर्य से समाधान करना चाहिये लेकिन विरोध का दमन भी अवश्य कडाई से करना चाहिये। देश में स्पष्ट संदेश जाना चाहिये कि सरकार देश की राष्ट्र भाषा को समय-बद्धता के साथ लागू करे गी, समस्याओं को सुलझाया जाये गा मगर जो नेता अपनी नेतागिरि करने के लिये विरोध करें गे उन के साथ कडाई से उसी तरह से निपटा जाये गा जैसे देश द्रोहियों के साथ करना चाहिये।

सरकार को हिन्दी प्रोत्साहन देना चाहिये लेकिन अंग्रेजी परन्तु अगले पाँच वर्षों तक अभी रोक नहीं लगानी चाहिये।

  • हिन्दी का अत्याधिक ‘संस्कृत-करण’ना किया जाये। अगर अन्य भाषाओं के जो शब्द आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो उन्हें सरकारी मान्यता भी दे देनी चाहिये।
  • सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को ‘अनिवार्य विषय’ के तौर पर ना पढाया जाये। अंग्रेजी को ऐच्छिक विषय (इलेक्टिव) की तरह पढाना चाहिये या ऐडिश्नल विषय की तरह पढाना चाहिये और उस के लिये अतिरिक्त फीस वसूलनी चाहिये।
  • उच्च शिक्षा तथा नौकरियों के लिये सभी कम्पीटीशनों में भाग लेने के लिये हिन्दी के प्रयोग की सुविधा होनी चाहिये। अगले पाँच वर्षों तक अंग्रेजी में भी परीक्षा देने की सुविधा रहनी चाहिये लेकिन नौकरी या प्रमोशन देने के समय “अगर दो प्रतिस्पर्धियों की अन्य योग्यतायें बराबर हों ” तो हिन्दी माध्यम के प्रतिस्पर्धी को प्राथमिकता मिलनी चाहिये।
  • जिन सरकारी विभागों या मंत्रालयों में हिन्दी अपनाई जाये वहाँ सभी तरह के आँकडे हिन्दी में रखने और उन का विशलेषण करने की पूरी सुवाधायें पूर्व उपलब्द्ध होनी चाहियें।
  • निजि स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढाई की छूट रहनी चाहिये जिस के लिये विद्य़ार्थी विध्यालय को तय शुदा फीस दें गे।
  • जो लोग विदेशों में जा कर बसना चाहते हों या नौकरी करना चाहैं उन के लिये अंग्रेजी सीखने की सुवाधायें सभी यूनिवर्स्टियों में रहनी चाहियें जिस में फीस का खर्च विध्यार्थी खुद उठायें।
  • हमारे देश में कम्पयूटर तथा साफ्टवेयर विकास की प्रयाप्त क्षमता है इस लिये अंग्रेजी में लिख गये साफ्टवेयर में हिन्दी के बटन लगाने के बजाये कम्पयूटर साफ्टवेयर को हिन्दी में ही मौलिक रूप से तैय्यार करना चाहिये।
  • समय समय पर कम्पयूटर साफ्टवैयर इंजीनियरों को सरकारी सम्मान देना चाहिये।
  • प्रत्येक स्तर पर हिन्दी लागू करने के लिये ऐक सैल का गठन करना चाहिये। सैल का अध्यक्ष हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनो भाषाओं की अच्छी जानकारी रखने वाला व्यक्ति होना चाहिये। विशेष तौर पर वह व्यकति ‘हिन्दी-उन्मादी’नहीं होना चाहिये। उसे अंग्रेजी भाषा से ‘नफरत’भी नहीं होनी चाहिये, तभी वह निष्पक्ष रह कर स्कारात्मिक ढंग से दैनिक समस्याओं का समाधान कर सकता है।
  • जो संस्थान अपना काम राष्ट्रभाषा में करें उन्हें आयकर, विक्रय कर आदि में कुछ छूट मिलनी चाहिये। इसी तरह हिन्दी के उपकरणों पर कुछ आर्थिक छूट दी जा सकती है। महानगरों को छोड कर मध्य वर्ग के शहरों में बिल बोर्ड हिन्दी या प्रान्तीय़ भाषा में होने चाहियें।

प्रवासी भारतीय

  • प्रवासी भारतीय जब भी ऐतक दूसरे से मिलें तो आपस में हिन्दी का प्रयोग ही करें।
  • ई मैग्जीनस में हिन्दी में पोस्ट लिखने का प्रयास करें।
  • अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने में गर्व करें।

जन संख्या के आधार पर चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा देश है। अतः संख्या के आधार पर चीनी भाषा हिन्दी से ऐक कदम आगे तो है लेकिन अपनी जटिल लिपि के कारण वह हिन्दी का मुकाबला नहीं कर सकती। अगर भारत वासियों में यह लग्न, साहस और कर्मठता पैदा हो जाये तो हिन्दी ही अंग्रेजी का स्थान अन्तरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर ले सकती है। भारत के पास कम्पयूटर साफ्टवेयर की सक्ष्म युवा शक्ति है जो अपने दाश का भाषा को विश्व में मान्यता दिला सकते हैं। जो कदम आगे बठाया है वह पीछे नहीं हटना चाहिये।

चाँद शर्मा

अडवाणी की कहानी


समय आने पर भी जो लोग मानसिक सन्यास नहीं लेते और गिरती दीवारों के सहारे टेक लगा कर खडे रहते हैं वह ‘अडवाणी’ बन जाते हैं। अडवाणी ने अपनी पार्टी का चौराहै पर एक मजाक बनाया और साथ ही अपना थूका हुआ चाट भी लिया! गांधी नगर से चुनाव लडने के लिये मान गये ! तो पहले क्यों नहीं माना? अपनी और पार्टी दोनो की इज्जत बची रह जाती।

अपने आप को पार्टी के अनुशासन से ऊपर समझ कर अडवाणी ने अगर जिद करी थी तो चाहिये था कि वह कहीं से भी चुनाव ना लडते और अपने ‘ऐकान्तवास’  में चले जाते। शायद कुछ ‘सहानुभूति’ प्राप्त हो जाती। लेकिन ‘पी ऐम इन वेटिंग’ की किस्मत में तो हर रोज अपमानित होना लिखा है। अब नरेन्द्र मोदी की साख का प्रश्न है इस लिये मेरी भी दुआ है कि अडवाणी चुनाव में हारें नहीं और संसद में बैठ कर प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ हसरत भरी निगाहों से देख देख कर यह गुनगुनाते रहैं –

मेरी किस्मत में तू नहीं शायद, फिर भी मैं तुझ से प्यार करता हूँ,

मैं तुझे कल भी प्यार करता था, मैं तुझे अब भी प्यार करता हूँ।

जी हाँ, किसी को कोई संशय ना रहै अब भी अडवाणी यही करें गे। वह दिल से चाहैं गे कि नरेन्द्र मोदी को 200 से कम सीटें मिलें और अडवाणी पी एम की कुर्सी झपटने के लिये संसद में मौजूद रहैं। पार्टी के अन्दर रह कर वह अपना गुट बनाये रखें गे और वक्त आने पर फिर से भीतरघात ही करें गे। सत्ता का लालच उन से नहीं छूटे गा।

अपना दिल बहलाये रखने के लिये अडवाणी नासमझी का स्वांग कर रहै हैं। इस सच्चाई को वह देखना नहीं चाहते –

ना तू जमीं के लिये ना तू आसमां के लिये, तेरा वजूद है बस ऐक दास्तां के लिये।

औपचारिक तौर पर पार्टी अडवाणी की दिखावटी इज्जत करती रहै गी मगर वास्तव में वह हर दिन अपने ‘अकेलेपन’ और अनदेखी के कारण अपमानित होते रहैं गे।

विडम्बना है कि भारत की संस्कृति में सन्यास का महत्व अडवाणी जी नहीं समझ सके।

चाँद शर्मा

प्रेत योनि का सच


(केवल व्यस्कों के लिये)

काँग्रेस डायन मर चुकी है। लेकिन चुनाव के समय से पहले मरने को अकाल-मृत्यु कहते हैं और मृतक की गति नहीं होती। सत्ता प्राप्ति की अंतिम इच्छा अधूरी रह जाने के कारण काँग्रेसियों की आत्मा प्रेत-योनियों में भटकती रहै गी। उन की संतप्त आत्मायें या तो वर्तमान प्रेत योनि में या जो कोई भी सड़ा गला शरीर हाथ लगे गा उसी में प्रवेश कर जायेंगी और उसी शरीर के माध्यम से अपनी अतृप्त इच्छाओं को संदेश भी देती रहैं गी। वह शरीर किसी का भी हो सकता है चाहे मुलायम सिहं की समाजवादी पार्टी, या मायावती की बहुजन समाज पार्टी, या ममता की तृणमुल काँग्रेस या कोई और पार्टी हो सकती है।

काँग्रेसी अपनी लाश को पुनर्जीवित करने के प्रयास अभी भी लगातार कर रहै हैं लेकिन उम्मीद टूट चुकी है। भ्रष्टाचार के पापों की वजह से काँग्रेस को पहले से ही अपनी अकाल मृत्यु का आभास था। इस लिये सत्ता प्राप्ति के लिये काँग्रेसियों ने अन्ना हजारे नाम के मदारी से सम्पर्क कर के केजरीवाल नाम का ऐक जिन्न पैदा किया था। बोतल से बाहर आने के बाद वह जिन्न इतना बडा हो गया कि उस ने दिल्ली में काँग्रेस को ही खा लिया और वह डायन अकाल मृत्यु को सिधार गयी। जिन्न की अपनी सत्ता लालसा भी अधूरी ही रही इस लिये वह भी प्रेत योनि में पडी काँग्रेस के सम्पर्क में है। दोनों वेम्पायर बन चुके हैं। अब काँग्रेसी अपना मूल-शरीर त्याग कर आम-आदमी के शरीर में निवास तलाशने की भरसक कोशिश करें गे ताकि सत्ता की अतृप्त लालसा को पूरा कर सकें।

डायन ने पिछले साठ वर्षों में देश का इतना खून पिया कि सारा वातावरण ही दुर्गन्ध से भर चुका है। उस के सम्पर्क के कारण कई छोटे मोटे प्रेत विभिन्न क्षेत्रों में पैदा हो चुके हैं और जनमानस को त्रास्दी दे रहै हैं।

क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता

जिस तरह साँप केंचुली बदल कर भी जहरीले रहते हैं उसी तरह क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता भी पार्टियों के नाम बदल कर भी कूयें के मैँडक बने रहते हैं। उन की संकुचित विचारधारा और स्वार्थिक कार्य शैली हर नये दिन के साथ देश को पीछे ही धकेल रही है। जब चुनाव नहीं होते तो यह लोग भ्रष्ट तरीकों से धन कमाने में लगे रहते हैं, विदेशों में घूमने चले जाते हैं, अपने आप को बेच कर पार्टी बदलने की कीमत वसूलते हैं, परिवारिक बिजनेस देखते हैं, अपने ऊपर चलने वाले मुकदमों की पैरवी करते रहते हैं। और कुछ नहीं तो बस आराम करते हैं। आम जनता को भी उन की कोई परवाह नहीं होती कि वह जिन्दा हैं या मर चुके। चुनावी बादलों की गर्जना सुनते ही गटर के काकरोचों की तरह वह बाहर निकल आते हैं, नये गठ जोड तलाशते हैं। अपने जिन्दा होने के सबूत के तौर पर नये लोक-लुभावन नारे सुना देते हैं। कई तो सडकों पर त्योहारों का बहाना ले कर जनता के लिये ‘ शुभकामनायें ’ चिपका देते हैं। वास्तव में यही नेता हमारे राज तन्त्र का अभिशाप हैं और देश की समस्याओं की ऐसी जड हैं जहाँ से समस्याओं के अंकुर फूटते ही रहते हैं। यह नेता अंग्रेजी शब्द सैकूलर की परिभाषा पर खरे उतरते हैं क्योंकि वह किसी भी आस्था, धर्म, परम्परा में विशवास नहीं रखते और आत्म सन्तुष्टि ही इन का चिरन्तर निरन्तर लक्ष्य होता है।

घिसे-पिटे नेता

इस श्रेणी में दो तरह के नेता हैं। पहली श्रेणी के नेता छोटे चूहों की तरह हैं। जैसे छोटे चूहे अनाज के भण्डारों से छोटी मात्रा में चोरी करते हैं लेकिन जब उस का हिसाब लगाया जाये तो बरबादी हजारों टन की हो जाती है। संसद या विधान सभाओं में इन के पास तीन चार सीटें ही होती हैं। लेकिन देश में सभी को मिला कर यह 90 -100 सीटें खराब कर देते हैं।

दूसरे मोटे चूहे हैं जिन के पास 15 -20 तक की सीटें होती हैं जिस के आधार पर वह मोल भाव करते हैं। वह अपने आप को ‘ किंग-मेकर ’ समझते हैं। यह लोग चुनाव से पहले या उस के बाद की तरह के गठ बंधन बना लेते हैं और फिर सत्ता में अपना भविष्य सूधारते रहते हैं।

उन का योग्दान

लगभग इन घिसे पिटे नेताओं में ना तो कोई शैक्षिक योग्यता है ना ही उन की कोई सोच समझ या कार्य शैली है। यह सिर्फ देश को प्रदेशों, जातियों, वर्गों या  परिवारों के आधार पर बाँटे रखते हैं और कोई भी महत्व पूर्ण काम इन के नाम से नहीं जुडा हुआ इस देश में है।  अगर चुनाव के वक्त वह सत्ता में हैं तो अपने घर के आसपास तक रेलवे लाईन बिछवा दें गे, हवाई अड्डा बनवा दें गे, अपनी जाति के लोगों को आरक्षण दिलवा दें गे, दूसरी जाति के सरकारी कर्मचारियों के मनमाने तरीके से तबादले करवा दें गे, सरकार खजाने से लेपटाप और इसी तरह की दूसरी वस्तुयें बटवायें गे और भ्रष्टाचारी गोलमाल भी करें गे। कुछ ऐक बडे बडे वादे जनता से करें गे कि अगर वह सत्ता में आ गये तो बिजली, पानी, अनाज, प्लाट आदि मुफ्त में दे दें गे। बदले में इन नेताओं को भारी भरकम वेतन, भत्ते, बंगले, सुरक्षा कर्मियों के दस्ते, लाल बत्ती की गाडियां और आजीवन पेनशन मिल जाती हैं।

आम आदमी पार्टी

काँग्रेस की अवैध संतान होने के कारण आम आदमी पार्टी में भी पैशाचिक लक्षण ही हैं। वह माओवाद, नकसलवाद, राष्ट्रद्रोह तथा बाहरी पैशाचिक शक्तियों से ही प्रेरित हैं। लेकिन भारतीय युवाओं को बरगला कर उन का रक्त पी लेने के कारण कुछ समय बाद उन में कुछ सद्गुण प्रगट होने की आशा करी जा सकती है। अभी बहुत से बुद्धिजीवी और परिस्थितियों से असंतुष्ट बुद्धिजीवी उन्हें आश्रय देने को तत्पर हैं जिस कारण अगर उन्हों ने केजरीवाल के तिलसिम से छुटकारा पा लिया तो आनेवाले समय में वह कुछ सत्कर्म भी कर सकें गे। इस की सम्भावनायें निकट भविष्य में बिलकुल ही नहीं हैं क्यों कि उन का शद्धिकरण नहीं हुआ।

जरा सोचिये

जो नेता या पार्टीयां लोक सभा या विधान सभा के लिये 60 प्रतिशत से कम प्रत्याशी खडे करती हैं वह कभी भी सरकार नहीं बना सकतीं और उन का चुनाव में आना सिर्फ मोल भाव कर के अपना जुगाड बैठाना मात्र है। उन पर अपना वोट और देश के संसाधन क्यों बरबाद करने चाहियें? बटवारे के बाद आज तक हम इसी तरह के लोगों का शिकार होते रहै हैं। क्या हमारा आर्थिक ढांचा इन लोगों की अनाप शनाप बातों को सहन करते रहै गा। अब वक्त आ गया है कि 2014 के चुनाव में इन नेताओं को हमेशा के लिये देश की राजनीति से बाहर कर दिया जाये। यह सभी चेहरे जाने पहचाने हैं।

चाँद शर्मा

भेड़-चाल


दिल्ली में ‘AAP’ की सरकार है जिन्हों ने जनता के सामने बहुत बड़े बड़े वादे किये थे –

  • क्या सरकार के मंत्री छोटे बंगलों में रहने का दिखावा करने से ही आम आदमियों की समस्यायें सुलझ जायें गी?
  • क्या सरकार के मंत्री सुरक्षा नहीं लें गे तो आप का निजि सुरक्षा अपने आप बढ़ जाये गी? क्या अब दिल्ली में रेप मर्डर आदि होने बन्द हो गये हैं?
  • क्या दिल्ली में 500 नये स्कूल खुल गये हैं?
  • क्या दिल्ली के झुग्गी वालों को पक्के मकान मिल गये हैं? वहाँ पर बिजली पानी पहुँच गया है? क्या दिल्ली में अब नयी झुग्गियाँ नहीं बने गी?
  • क्या दिल्ली में बिजली की दरें आधी हो गयी हैं?
  • क्या दिल्ली में प्रत्येक घर को 700 लिटर मुफ्त पानी प्रतिदिन मिल रहा है?
  • क्या दिल्ली के मंत्रियों के जनता दरबारों में जनता की फरियाद पर समाधान मिल रहा है? फरियादों के आँकडे तो हैं समाधान के आँकडे कहाँ हैं ?
  • क्या दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो गयी है?
  • क्या ‘AAP’ की सरकार काँग्रेस और बी जे पी को समान दूरी पर रख रही है?
  • क्या अन्य देशों में प्रजातान्त्रिक सरकारें स्टिंग आप्रेशनों से चलती हैं?

नहीं इन में से कुछ भी तो नहीं हुआ !

राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के विषय में इस छोकरा गुट के पास कोई सोच, विचारधारा, दृष्टीकोण, संगठन, अनुभव या योग्यता आदि कुछ भी तो नही ! दिशाहीन भीड़ सरकार नहीं चला सकती। ऐक भेड के पीछे चलती हुयी सभी भेडें कुयें में जा गिरती हैं।

अगर किसी बन्दर को किसी विशाल मशीन पर बैठा दिया जाय तो जैसे वह मशीन के कल पुरज़ों के साथ छेड छाड कर के देखता है उसी तरह सिर्फ कुछ अनुभव हीन छोकरों का ऐक गुट सरकारी सत्ता के गलियारों पर जम गया है और उल्टे सीधे तरीकों से प्रशासन को टटोल रहा है – शायद कुछ चल पडें।

क्या हम देश की प्रगति को रोक कर उसे अस्थिरता और आराजिक्ता की तरफ मोडने का जोखिम उठा सकते हैं।

अगर नहीं तो देश को इस वक्त स्शक्त नेतृत्व और स्थिर राष्ट्रवादी सरकार की आवश्यक्ता है जो आज केवल नरेन्द्र मोदी ही दे सकते हैं। उन्हें बार बार परखा जा चुका है।

राष्ट्रवादी, भारतीय संस्कृति से जुडी हुयी तथा परिवार क्षेत्रवाद और मार्क्सवाद से दूर केवल भारतीय जनता पार्टी ही देश को ऐकता और सुरक्षा दे सकती है। भारत स्वाभिमान और स्वदेशी गौरव को पुनर्स्थापित कर सकती है। जिस को विशवास ना हो वह गुजरात, मध्यप्रदेश, गोवा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जा कर देख ले।

अब अस्थिरता, अनुभवहीनता या छोकरा मस्ती करने का समय नहीं है। ‘AAP’ की असलीयत देखी जा चुकी है। इस के पीछे छुपे हुये चेहरे भी ऐक के बाद ऐक सामने आ रहै हैं।

चाँद शर्मा

काँग्रेसी दीमक का प्रकोप


काँग्रेस ने देश का तीन हथियारों से विनाश किया है।

पहला विनाश – विकास के नाम गाँधी-नेहरू परिवारों के नाम पर योजनायें तैयार हो जाती रही हैं और फिर कुछ समय बाद ही उन योजनाओं में से घोटाले और जाँच कमेटियाँ आदि शुरु होती रही हैं। भ्रष्टाचार सभी तरह के विकास योजनाओं को निगलता रहा है। मीडिया कुछ दिन तक ढोल पीटता है, जाने पहचाने बुद्धिजीवी टीवी पर बहस करते हैं, कुछ गिरफतारियाँ होती हैं, अपराधी जमानतों पर छूट जाते हैं और चींटी की चाल से अदालतों में केस रैंगने लगते हैं। लम्बे अरसे के बाद ज्यादातर आरोपी सबूतों के अभाव के कारण छूट जाते हैं।

दूसरा विनाश तुष्टीकरण के नाम पर किया है। अल्प संख्यकों, दलितों, महिलाओं, विकलांगों, वरिष्ट नागरिकों, किसानों, उग्रवादियों तथा ‘स्वतन्त्रता सैनानियों’ के नाम पर कई तरह की पुनर्वास योजनायें, स्शकतिकरण कानून, विशेष अदालतें, वजीफे, सबसिडिज, कोटे, बनाये जाते रहै हैं। आरक्षण के बहाने समाज को बाँटा है, भ्रष्टाचार के रास्ते खोलने के लिये कई कानूनों में भारी छूट दी है। इन सब कारणों से समाज के अंग मुख्य धारा से टूट कर अलग अलग टोलियों में बटते रहै हैं।

तीसरा विनाश बाहरी शक्तियों के तालमेल से किया है। पाकिस्तानी और बंगलादेशी घुसपैठियों के अतिरिक्त नेपाल, तिब्बत और श्रीलंका से शर्णार्थी यहाँ आकर कई वर्षों से बसाये गये हैं। जिन के खाने खर्चे का बोझ भी स्थानीय लोग उठाते हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अपने व्यापारिक लाभ उठा रही हैं।  बडे शहरों में अविकसित राज्यों से आये बेरोजगार परिवार सरकारी जमीनो पर झुग्गियाँ डाल कर बैठ जाते हैं, मुफ्त में बिजली पानी सिर्फ इस्तेमाल ही नहीं करते बल्कि उसे वेस्ट भी करते हैं। फिर ‘ गरीबी हटाओ ’ के नारे के साथ कोई नेता उन्हें अपना निजि वोट बैंक बना कर उन्हें अपना लेता है और इस तरह शहरी विकास की सभी योजनायें अपना आर्थिक संतुलन खो बैठती हैं। अंत में य़ह सभी लोग ऐक वोट बैंक बन कर काँग्रेस को सत्ता में बिठा कर अपना अपना ऋण चुका देते हैं।

उमीद किरण को ग्रहण                                                   

काँग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आकर स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान आन्दोलन के माध्यम से देश में योग, स्वदेशी वस्तुओं के प्रति जाग़ृति, शिक्षा पद्धति में राष्ट्रभाषा का प्रयोग, विदेशों में भ्रष्ट नेताओं के काले धन की वापसी और व्यवस्था परिवर्तन आदि विषयों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चेतना की ऐक लहर पैदा करी। उन के प्रयास को विफल करने के लिये काँग्रेस ने अन्ना हजारे और केजरीवाल को भ्रष्टाचार के विरूद्ध नकली योद्धा के तौर पर खडा करवा दिया। काँग्रेस तो अपना वर्चस्व खो ही चुकी है इस लिये काँग्रेसियों के सहयोग से अब नये शासक आम आदमी के नाम से खडे हो चुके हैं जो स्वामी रामदेव और नरेन्द्र मोदी का विरोध करें गे। भ्रष्टाचार से लडने के लिये जनलोक पाल का ऐक सूत्री ऐजेंडा ले कर भेड चाल में बरगलाये गये युवा, स्वार्थी और दलबदलू नेता अब आम आदमी पार्टी की स्दस्यता पाने की दौड में जुट रहै हैं। वास्तव में यह लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि देश की संस्कृति की पहचान की रक्षा करने वाले स्वामी रामदेव, विकास पुरुष नरेन्द्र मोदी और आम आदमी के खिलाफ ही लडें गे और देश को आर्थिक गुलामी और आराजिक्ता की तरफ धकेल दें गे।

‘AAP’ के नेताओं की नीयत और नीति

अमेरिका और उस के सहयोगी योरोपीय देश नहीं चाहते कि भारत विकसित होकर आधुनिक महा शक्ति बने और उन का प्रति स्पर्द्धी बन जाये। वह भारत को ऐक साधारण, गरीब और दया पर जीने वाला देश ही बने रहना चाहते है ताकि यह देश अपनी सँस्कृति से दूर उन्ही देशों का पिछलग्गू बना रहै, और ऐक अन्तरराष्ट्रीय मण्डी या सराय बन जाये जहाँ विदेशी मौज मस्ती के लिये आते जाते रहैं। भारत के ‘आम आदमियों ’ की आकाँक्षायें केवल अपनी शरीरिक जरूरतों को पूरा करने में ही सिमटीं रहैं।

अनुभव के आभाव में केजरीवाल और उन के मंत्री पंचायती सूझबूझ ही भारत की राजधानी का शासन चला रहै हैं। कल को यही तरीका राष्ट्रीय सरकार को चलाने में भी इस्तेमाल करें गे तो यह देश ऐक बहुत बडा आराजिक गाँव बन कर रह जाये गा जिस में अरेबियन नाईटस के खलीफों की तरह सरकारी नेता, कर्मचारी भेष बदल आम आदमी की समस्यायें हल करने के लिये कर घूमा करें गे। उन की लोक-लुभावन नीतियाँ भारत को महा शक्ति नहीं – मुफ्तखोरों का देश बना दें गी जहाँ ‘आम आदमी ’ जानवरों की तरह खायें-पियें गे, बच्चे पैदा करें और मर जायें – यह है ‘AAP’ की अदूरदर्शी नीति।

केवल खाने पीने और सुरक्षा के साथ आराम करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना तो जानवर भी करते हैं परन्तु उन का कोई देश या इतिहास नहीं होता। लेकिन कोई भी देश केवल ‘आम आदमियों ’ के बल पर महा शक्ति नहीं बन सकता। ‘आम आदमियों ’ के बीच भी खास आदमियों, विशिष्ठ प्रतिभाओं वाले नेताओं की आवशक्ता होती है। जो मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता।

फोकट मे जीना

लडकपन से अभी अभी निकले आम आदमी पार्टी के नेता यह नहीं जानते कि हमारे पूर्वजों ने मुफ्त खोरी के साथ जीने को कितना नकारा है और पुरुषार्थ के साथ ही कुछ पाने पर बल दिया है। आज से हजारों वर्ष पूर्व जब अमेरिका तथा योरुपीय विकसित देशों का नामोनिशान भी कहीं नहीं था भारत के ऋषि मनु ने अपने विधान मे कहा थाः-

यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।

व्यवहारेण जीवंन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम्।।

कारुकाञ्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः।

एकैकं कारयेत्कर्म मसि मसि महीपतिः ।। (मनु स्मृति 7- 137-138)

राजा (सभी तरह के प्रशासक) अपने राज्य में छोटे व्यापार से जीने वाले व्यपारियों से भी कुछ न कुछ वार्षिक कर लिया करे। कारीगरी का काम कर के जीने वाले, लोहार, बेलदार, और बोझा ढोने वाले मज़दूरों से कर स्वरुप महीने में एक दिन का काम ले।

नोच्छिन्द्यात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णाया।

उच्छिन्दव्ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत्।।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः ।। (मनु स्मृति 7- 139-140)

(प्रशासन) कर न ले कर अपने मूल का उच्छेद न करे और अधिक लोभ वश प्रजा का मूलोच्छेदन भी न करे क्यों कि मूलोच्छेद से अपने को और प्रजा को पीड़ा होती है। कार्य को देख कर कोमल और कठोर होना चाहिये। समयानुसार राजा( प्रशासन) का कोमल और कठोर होना सभी को अच्छा लगता है।

अतीत काल में लिखे गये मनुसमृति के यह श्र्लोक आजकल के उन नेताओं के लिये अत्यन्त महत्वशाली हैं जो चुनावों से पहले लेप-टाप, मुफ्त बिजली-पानी, और तरह तरह के लोक लुभावन वादे करते हैं और स्वार्थवश बिना सोचे समझे देश के बजट का संतुलन बिगाड देते हैं। अगर उन्हें जनता का आवशक्ताओं का अहसास है तो सत्ता समभालने के समय से ही जरूरी वस्तुओं का उत्पादन बढायें, वितरण प्रणाली सें सुधार करें, उन वस्तुओं पर सरकारी टैक्स कम करें नाकि उन वस्तुओं को फोकट में बाँट कर, जनता को रिशवत के बहाने अपने लिये वोट संचय करना शुरु कर दें। अगर लोगों को सभी कुछ मुफ्त पाने की लत पड जाये गी तो फिर काम करने और कर देने के लिये कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं होगा।

सिवाय भारत के आजकल पानी और बिजली जैसी सुविधायें संसार मे कहीं भी मुफ्त नहीं मिलतीं। उन्हें पैदा करने, संचित करने और फिर दूरदराज तक पहुँचाने में, उन का लेखा जोखा रखने में काफी खर्चा होता है। अगर सभी सुविधायें मुफ्त में देनी शुरू हो जायें गी तो ऐक तरफ तो उन की खपत बढ जाये गी और दूसरी तरफ सरकार पर बोझ निरंकुशता के साथ बडने लगे गा। क्या जरूरी नहीं कि इस विषय पर विचार किया जाये और सरकारी तंत्र की इस सार्वजनिक लूट पर अंकुश लगाया जाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो फोकट मार लोग देश को दीमक की तरह खोखला करते रहैं गे और ऐक दिन चाट जायें गे।

आरक्षण और सबसिडी आदि दे कर इलेक्शन तो जीता जा सकता है परन्तु वह समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रकार की बातें समस्याओं को और जटिल कर दें गी। इमानदार और मेहनत से धन कमाने वालों को ही इस तरह का बोझा उठाना पडे गा जो कभी कम नहीं होगा और बढता ही जाये  गा।

 चाँद शर्मा

 

गिरगटी बदलाव


चुनावों में दिल्ली की जनता का जनमत स्पष्ट था –

  • 70 में से 62 विधायक काँग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिये चुने गये – लेकिन सत्ता की चाबी आज भी काँग्रेस के पास है।
  • 32 विधायक बी जे पी के और 28 विधायक आप के चुने गये – मतलब यह कि दोनो काँग्रेस विरोधी दिल्ली के शासन को पाँचसाल तक निर्विघन मिल कर चलायें।

लेकिन चुनावों के बाद गिरगिटों ने अपने अपने बहाने बना कर रंग बदलने शूरू कर दिये जो दिल्ली की जनता के साथ धोखा धडी है।

केजरीवाल का स्वांग

केजरीवाल अपने आप को आम, बेनाम और गरीब आदमी दिखाने की नौटंकी में जुट गये हैं। पंचायती तरीकों से गली मौहल्लों की सभायें, मैट्रो रेल में सफर, जमीन पर बैठ कर शपथ गृहण समारोह, सुरक्षा से इनकार, फलैटों मे रहना और ना जाने आगे और क्या कुछ देखने को मिले गा उन्हें आम आदमी का स्थाई मेक-अप नहीं दे पायें गी।

जोश में हो सकता है अब शायद वह अपने घर की बिजली भी कटवा दें और आम आदमी की तरह लालटैन से काम चलायें, पी सी ओ पर जा कर टेलीफोन करें, बाल्टी में पानी भर कर सडक पर लगे सरकारी हैंड पम्प पर खुले में नहायें, और सरकारी जमीनों पर दिल्ली में रोज हजारों की तादाद में आने वालों को पहले झुग्गियां बनाने दें और फिर उन्हें पक्के मालिकाना हक दे कर अपना वोट बैंक कायम करें लें।

लेकिन इन सब नाटकों से दिल्ली की समस्यायें हल नहीं हों गी – और बढती जायें गी। सुशासन के लिये आम आदमी को समय के साथ साथ व्यवहारिक भी होना जरूरी है। दिल्ली की जनता ने उन्हें आम आदमी से विशिष्ट आदमी – मुख्यमंत्री – बनाया है। उन के लिये उचित यही होगा कि वह मुख्य मत्री के दाईत्व को सक्षमता से निभायें। ऐक मुख्य मंत्री की जिम्मेदारी निभाने के लिये जिन उपकरणों और सुविधाओं की जरूरत अनिवार्य है उन्हे जरूर इस्तेमाल करे ताकि आम आदमी को वास्तविक फायदा हो और उन की समस्यायें सुलझ जायें। सभी को हर समय खुश रखने के प्रयत्न मत करें और जरूरत अनुसार कडे फैसले भी लें। दिल्ली राज्य की सरकार को ग्राम पंचायत की तरह से चलाने का नाटक बन्द करें।

मीडिया

हमारा मीडिया जब तक कारोबारी दृष्टीकोण छोड कर इण्डिया फर्स्ट की भावना को नहीं अपनाता तो उस के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं करी जा सकती। मीडिया अब कोई समाज सेवा का काम नही रहा – पूर्णत्या ऐक व्यापारिक क्षेत्र है जो सिर्फ समाचारो को बेचने के लिये उन्हें सनसनी युक्त करता रहता है।  आजकल मीडिया नयी तरह की राजनीति की मार्किटिंग में जुट गया है। टी वी पर अति संवेदनशील या ससनीखेज़ भाषा में लिखे आख्यान प्रसारित करने मे व्यस्त है। आम आदमी पार्टी के नेताओं की अव्यवहारिक कर्म शैली के आधार पर उन का चरित्र चित्रण, व्यवहारिकता से कोसों दूर यूटोपिया में ले जाने वाले, बासी बुद्धिजीवियों की अनाप शनाप बहस अब रोज मर्रा के प्रोग्रामों की बात बन गयी है। मीडिया पर हंटर चलाना अति आवश्यक हो चुका है।

काँग्रेस

राहुल गाँधी भी भ्रष्ट काँग्रेसियों से दूर अपनी अलग पहचान बनाने जुट गये हैं। उनकी मां के इशारो पर आज तक जो यू पी ऐ सरकार करती रही है वह उसी सरकार के मंत्रियों की कथनियों और करणियों को नकारने मे जुट गये है। आदर्श घोटाले की रिपोर्ट पर दोबारा विचार होगा। लालू को राजनीति मे फिर से बसा लिया जाये गा। संजय दत्त की पैरोल की जाँच भी होगी और… आने वाले दिनों में  भारत मुक्त होने से पहले काँग्रेस को भ्रष्टाचार मुक्त कर दिया जाये गा। काँग्रेस अब ऐक पुराना चुटकला है जिसे सुनना या सुनाना बेकार का काम है।

बी जे पी

खिसियानी बिल्ली की तरह बी जे पी केजरीवाल को अब हाथ में जादुई चिराग़ के साथ आलादीन की भूमिका में देखना चाहती है ताकि या तो दिल्ली वासियों की सभी नयी पुरानी समस्याऐं शपथ ग्रहण के पाँच मिन्ट बाद ही सुलझ जायें या फिर आप पार्टी की सरकार गिर जाये और दिल्ली के लोग बी जे पी की सरकार चुन लें।

बी जे पी यह भूल चुकी है कि दिल्ली में उन की हार का मुख्य कारण भाई भतीजावाद, नेताओं की आपसी लडाई, जनता की अनदेखी और नरेन्द्र मोदी पर ओवर रिलायंस था। बी जे पी के नेता काँग्रेसी तौर तरीके अपनाने में जुट चुके हैं। यही कारण था कि कछुऐ ने खरगोश को चुनावी दौड में पछाड दिया।

अब बी जे पी को केजरीवाल की सरकार गिराने की उतावली के बजाये मध्यप्रदेश, गोवा, राजस्थान, छत्तीस गढ़ और गुजरात में विशिष्ट बहुमत के साथ विशिष्ट सुशासन दिखाना चाहिये। केजरीवाल की अच्छी बातों को अपनानें में शर्म नहीं करनी चाहिये। कम से कम आम आदमी पार्टी के सामने साकारात्मिक विपक्ष ही बन कर रहैं और सरकार गिराने की उतावली छोड दें। उसे अपने आप गिरना होगा तो गिर जाये गी।

स्वार्थवश जब भी काँग्रेस केजरीवाल की सरकार को गिराना चाहै तो ताली बजाने के बजाये बी जे पी को केजरीवाल को गिरने से बचाना चाहिये ताकि केजरीवाल अपने आप को शहीद घोषित ना कर सके और कुछ कर के दिखाये। आलोचना करने के अतिरिक्त सकारात्मिक विपक्ष होने के नाते बी जे पी का यह दाईत्व भी है कि वह केजरीवाल की सरकार को कुछ कर दिखाने के लिये पर्याप्त समय भी दे और उसे काँग्रेस के शोषण से बचाये रखे।

आम आदमी

नेतागण – अब गिरगिट नौटंकी छोड कर साधारण आदमी बने, व्यवहारिक और सकारात्मिक काम करें तभी वह आम आदमियों के नेता बन सकते हैं। नहीं तो आम आदमी की आँधी और आराजिक्ता के रेगिस्तान में पानी ढूंडते ढूंडते प्यासे ही मर जायें गे। बदलाव की लहर को रोकना मूर्खता होगी लेकिन गिरगटी बदलाव से बचें।

 

चाँद शर्मा

 

त्रिशंकु चुनावी नतीजे


बिना परिश्रम अगर कुछ प्राप्त हो जाये तो उस की कीमत नहीं आंकी जाती। यह बात हमारे लोकतन्त्र और मत देने के अधिकार के साथ भी सार्थक है। कहने को दिल्ली में 68 प्रतिशत मत दान हुआ जो पिछले चुनावों से ज्यादा है लेकिन इस से कहीं ज्यादा मत दान दूसरे राज्यों में हुआ है। देश की राजधानी से 32 प्रतिशत पढे लिखे और जागरूक मत दाता वोट डालने नहीं गये क्यों कि उन्हें लोकतंत्र के बजाये आराम करना ज्यादा पसंद था। अगर दिल्ली में आज त्रिशंकु विधान सभा है तो उस के लिये दिल्ली के मतदाता जिम्मेदार हैं जो अपने वोट का महत्व नहीं समझे और भ्रामित रहै हैं। प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिये वोटरों में जागरुक्ता होनी चाहिये । जो मतदाता दो मुठ्ठी अनाज और ऐक बोतल शराब पर बिक जायें उन्हें तो मत दान का अधिकार ही नहीं होना चाहिये। हमारे देश की दुर्दशा का ऐक मुख्य कारण अधिक और अनाधकृत मतदाता हैं। ऐसे नेता चुन कर आते हैं जिन्हें बाहर से ताला लगा कर रखना पडता है कि वह दूसरे राजनैतिक दल के पास बिक ना जायें – ऐसे प्रजातंत्र पर शर्म आनी चाहिये।

लोकतन्त्र के मापदण्ड

अगर कोई भी राजनैतिक दल विधानसभा या संसद के चुनाव में 51 प्रतिशत से कम प्रत्याशी खडे करता है तो ऩिशचित है कि वह सरकार नहीं चलायें गे। वह केवल विजयी उमीदवारों के बलबूते पर सिर्फ जोड-तोड ही करें गे। यही बात स्वतन्त्र प्रत्याशियों पर भी लागू होती है। उन की निजि योग्यता और लोकप्रियता चाहे कुछ भी हो लेकिन सफल हो कर वह अपने आप को बेच कर पैसा कमाने या कोई पद प्राप्त करने के इलावा जनता के लिये कुछ नहीं कर सकते। उन्हें वोट देना ही बेकार है। लोकतंत्र में राजनैतिक दलों का महत्व है क्यों कि उन के पास संगठन, सोच, अनुशासन और जवाबदारी होती है।

केवल विरोध के नकारात्मिक मुद्दे पर संगठन खडा कर के देश का शासन नहीं चलाया जा सकता। ऐमरजैंसी के बाद जनता पार्टी सिर्फ इन्दिरा गाँधी के विरोध के आधार पर ही गठित करी गयी थी जिस में मुलायम, नितिश, लालू, राजनारायण, चरण सिहं, बहुगुणा, वाजपायी, जगजीवनराम से ले कर हाजी मस्तान आदि तक सभी शामिल थे। तीन वर्ष के समय में ही जनता पार्टी अपने अन्तर-विरोधों के कारण बिखर गयी थी और आज उसी पार्टी के बिखरे हुये टुकडे कई तरह के जनता दलों के नाम से परिवारवाद और व्यक्तिवाद को बढावा दे रहै हैं। आम आदमी पार्टी भी कोई संगठित पार्टी नहीं बल्कि सिर्फ भ्रष्टाचार के विरुध जनता के रोष का प्रतीक है जिस के पास सिर्फ ऐक मात्र मुद्दा है जनलोकपाल बिल पास करवाना और सत्ता में बैठना। इस से आगे देश की दूसरी समस्याओं और उन के समाधान के बारे में नीतियों के बारे में उन के पास कोई सकारात्मिक सोच, संगठन, आदर्श, अनुभव या टेलेन्ट नहीं है। जैसे गलियों से आकर हताश लोगों की भीड चौराहों पर भ्रष्टाचार के विरूध नारे लगाने लग जाती है तो अगले चौराहे पर जाते जाते भीड का स्वरूप भी घटता बढता रहता है। उन को संगठित रखने का कोई भी ऐक मात्र मुद्दा भारत जैसे देश का शासन नहीं चला सकता। शासक के लिये कुछ गुण भी चाहियें। शालीनता, गम्भीरता, योग्यता और अनुभव आदि आम आदमी पार्टी के सदस्यों में बिलकुल ही नहीं दिख रहै। यह केवल उग्रवादी युवाओं का अनुभवहीन नकारात्मिक जमावडा है जो सत्ता मिलने पर ऐक माफिया गुट का रूप ले ले गा।

आम आदमी पार्टी की परीक्षा

दिल्ली के 68 प्रतिशत मतदाताओं ने बी जे पी को ही स्पष्ट मत से सब से बडी पार्टी माना है। केजरीवाल ने दिल्ली का चुनाव काँग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ा था इसलिये त्रिशंकु विधान सभा बनने की सूरत में वह काँग्रेस को समर्थन नहीं दे सकते लेकिन उन से बिना शर्त समर्थन ले तो सकते हैं। सकारात्मिक राजनीति करने के लिये उन्हें बी जे पी को समर्थन देना चाहिये था – और सरकार के अन्दर रह कर या बाहर से सरकार के भ्रष्टाचार पर नजर रखनी चाहिये थी। लेकिन केजरीवाल ने तो नकारात्मिक राजनीति करनी है इसलिये वह दोबारा चुनाव के लिये तैय्यार है जिस का खर्च दिल्ली के लोगों पर पडे गा।

अगर केजरीवाल स्वयं सरकार नहीं बना सकता तो चाहे तो काँग्रेस से समर्थन ले ले या बी जे पी से – सरकार बना कर अपना कुछ ऐजेण्डा तो पूरा कर के दिखायें। दिल्ली से भ्रष्टाचार खत्म करना, नागरिक सुरक्षा, महंगाई, बिजली – पानी के रेट कम करना आदि पर तो कुछ यथार्थ में कर के दिखलायें। वह जिम्मेदारी से भाग क्यों रहै हैं।

लोकतन्त्र के लिये खतरा

पिछले साठ वर्षों में काँग्रेस ने देश का ताना बाना ऐसा भ्रष्ट किया है कि आज सवा अरब की आबादी में 500 इमानदार भारतीय ढूंडने मुशकिल हैं जो संसद में बैठाये जा सकें। काँग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आ कर भारत के लोग आजतक इमानदार लोगों को ही तलाशते रहै हैं – चाहे कहीं से भी मिल जायें। अब कुछ विदेशी और कुछ देसी तत्व नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रवादी बातों से इतना परेशान हैं कि वह भारत की राजसत्ता नरेन्द्र मोदी के बजाये किसी दूसरे के हाथ में देने का षटयंत्र कर रहै थे जो अपनी ‘इमानदारी’  का ढोल पीट कर काँग्रेस का विकल्प बन सकें और उसी खोज में उन्हें केजरीवाल की प्राप्ति हो गयी। उन की आम आदमी पार्टी जिसे अब आराजिक्ता आवाहन पार्टी कहना सही होगा अब देश को भूल-भूलियां में धकेलने के लिये विदेशियों की पैदायश के तौर पर उभर चुकी है। यह तसवीर आने वाले लोकसभा चुनाव में और स्पष्ट हो जाये गी। यह पार्टी नरेन्द्र मोदी की लोक प्रियता में सेंध लगाये गी और मीडिया इसे बढ चढ कर इस्तेमाल करे गा।

क्या आम आदमी पार्टी पूरे हिन्दुस्तान में भ्रष्ट काँग्रेस का विकल्प बन सकती है ? क्या उन के पास इतना संगठन, योग्यता, अनुभव और ‘इमानदार’ प्रशासक हैं कि वह देश को चला सकें ? भ्रष्टाचार से जूझने के जोश में हमारे युवा बिना सोचे समझे केजरीवाल के मकड़ जाल में फंसते चले जा रहै हैं । वह नहीं जानते कि इस पार्टी के पीछे कौन लोग खडे हैं। युवाओं ने शायद इस पार्टी के नेताओं के ये बयान शायद याद नहीं रखे…

  • आप कांग्रेस से गठबंधन कर सकती है – शाजिया इल्मी
  • तरुण तेजपाल निर्दोष है – शाजिया इल्मी
  • नरेन्द्र मोदी मानवता का हत्यारा है – संजय सिंह
  • (भगवान शिव को) ठंड में हिमालय पर बैठा दिया और कपडे भी नही दिए बिचारे को और सर के ऊपर से गंगा निकाल दी तो वो शंकर तांडव नही तो क्या डिस्को करेगा – कुमार विशवास
  • पदम् श्री मेरे पाँव की जूती है – कुमार विशवास
  • इशरत जहाँ मासूम थी – योगेन्द्र यादव
  • 42%भारतीय चाहते हैं की राहुल गाँधी जी प्रधानमन्त्री बने – योगेन्द्र यादव
  • बटला हाउस फर्जी है – अरविन्द केजरीवाल
  • राजीव गाँधी इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने आम आदमी की भलाई के लिए काम किया – अरविन्द केजरीवाल
  • राहुल गाँधी जी को देश की समस्याओं की समझ है – अरविन्द केजरीवाल
  • भारत के लिए हिन्दू शक्तियां खतरा है – प्रशांत भूषण
  • कश्मीर को पकिस्तान को दे देना चाहिए – प्रशांत भूषण

AAP वाले सिर्फ दिल्ली में आराजिक्ता फैलाने के इलावा और कुछ नहीं कर सकें गे। सात आठ यार दोस्त अगर कहीं इकट्ठे बैठ जायें जो ऐक दूसरे को ज्यादा जानते भी नहीं, चुनाव से कुछ वक्त पहले ही मिले हैं, तो उन को सरकार नहीं कहा जा सकता वह केवल ऐक चौकडी ही होती है जिसे अंग्रेड़ी में कैकस कहते हैं।

आम आदमी पार्टी पूरी तरह से हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक पार्टी है। उन के चुनावी उमीदवार आम तौर पर वह लोग हैं जो वर्षों तक काँग्रेस या बी जे पी के टिक्ट पाने के लिये झक मारते रहै हैं और अब इमानदारी का नकाब लगा कर आम आदमी बन बैठे हैं। यह सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बटवारा करवा कर काँग्रेस का फायदा करवायें गे। वह नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रवादी सरकार बनने के रास्ते में रोड़े अटकायें गे।

चुनौती स्वीकार करो

अगर केजरीवाल और उन के साथियों में हिम्मत है तो अभी काँग्रेस या बी जे पी से बिना शर्त समर्थन के आधार पर कुछ तो कर के दिखायें। देश के शासन की बागडोर के साथ जुआ नहीं खेला जा सकता। आम आदमी पार्टी की ऐकमात्र सोच है कि सिर्फ वही अकेले इमानदार हैं और बाकी सभी बेईमान हैं। केजरीवाल का कहना था कि जब वह दिल्ली में अपनी सरकार बनायें गे तो राम लीला ग्राउंड में विधान सभा का सत्र करें गे और उस में जनलोक पाल बिल पास करें गे। उतना कर देने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाये गा। इमानदार बनने के लिये नारे लगाने के बजाये इमानदार बन कर दिखाओ। कम से कम अपना स्टेंड तो साफ करो। पहली चुनौती को स्वीकार करो, सरकार बनाओ और कुछ कर के दिखाओ।

केजरीवाल तो अब फिर से चुनाव के लिये भी तैय्यार हैं जैसे कोई जादू उन के पक्ष में हो जाये गा। अगर दोबारा चुनाव करवाये जायें और फिर भी त्रिशंकु परिणाम आये तो कितनी बार दिल्ली में केजरीवाल नया मतदान करवाते रहैं गे ? अगर यह हाल लोकसभा के चुनाव में हुआ तो बार बार चुनाव करवाने और देश में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने के लिये कौन जिम्मेदार होगा ? अगर हम चाहैं तो इस के विकल्प तलाशे जा सकते हैं जैसे किः-

  1. त्रिशंकु परिणाम के कारण या तो अगले पाँच वर्षों तक दिल्ली के नागरिकों को लोकतंत्र से वंचित किया जाये और उप राज्यपाल का शासन लागू रहै।
  2. दिल्ली में चुने गये विधायकों को इकठ्ठा कर के उन्हीं में से ऐक वैकल्पिक सरकार बनाई जाये जो सदन में पार्टी रहित साधारण बहुमत के अनुसार पाँच वर्ष तक काम करे और चाहे तो अपना मुख्यमंत्री आवश्क्तानुसार बदलती रहै।
  3. दोबारा या जितनी भी बार चुनाव कराये जायें उन का खर्च मत दाताओं से अतिरिक्त कर के तौर पर वसूला जाये।

केजरीवाल जी – हरियाणा और लोकसभा का लालच करने से पहले जो कुछ दिल्ली में प्लेट पर प्राप्त हुआ है उस की चुनौती में सफल हो कर दिखाओ यदि ऐसा नहीं करते तो आम आदमी पार्टी जनता के साथ ऐक धोखा है उसे राजनैतिक पार्टी कहलाने का कोई अधिकार नहीं।

चाँद शर्मा

राम-नाम का अपमान


राम लीला पर हिन्दूओं के चीखने चिल्लाने के बाद अस्थाई प्रति बन्ध लगा और खत्म हो गया। हिन्दूओं की भावनाओं पर ज़ख्म लगा, उस पर नमक छिडका कर घाव को वैसे ही छोड दिया गया क्योंकि हमारा देश धर्म-निर्पेक्षता की चादर ओढे रहता है और हिन्दूओं की आस्थाओं का अपमान करना कट्टर धर्म-निर्पेक्षता का ही प्रमाण पत्र माना जाता है। सभी को पता है कि हिन्दू अपमान सहने और पिटने के इतने आदी हो चुके हैं कि वह खिसायने हो कर अपमान को धर्म-निर्पेक्षता का प्रसाद समझ लेते हैं। अपने आप को ‘ब्राडमाईडिड’ दिखाने की कोशिश करते रहते हैं।

फिल्म ‘बिल्लू-बारबर’ में शारुख खां को व्यक्तिगत रूप में ऐक ‘महान व्यक्ति’ दिखाया गया था। उस फिल्म में नाई व्यवसाय का अपमान नहीं किया गया था लेकिन नाईयों के विरोध जताने पर, फिल्म के नाम को नाई समुदाय की भावनाओं पर आघात मान कर फिल्म का नाम बदल दिया गया था। अतः नाम का महत्व है।

हिन्दू समाज में ‘रामलीला देखने’ देखने मात्र के साथ ही रामायण से जुडी सभी बातें अपने आप उजागर हो आती हैं, अतः फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली का यह कथन कि ‘उस की फिल्म का भगवान राम के साथ कुछ लेना देना नहीं’, ऐक कोरी बकवास है। क्या कोई अपने पालतू जानवर का नाम किसी अन्य़ धर्म के जन्मदाता या किसी पार्टी के राजनैता के नाम पर रख सकता है?

इस का मतलब यह है कि फिल्म का नाम रामलीला रखो या कृष्णलीला, और फिल्म में कुछ भी दिखा कर पैसा कमाओ। किसी को आपत्ति हो तो कह दो कि इस का आप के इष्ट राम या कृष्ण से कोई लेना देना नहीं है। क्या हमारी न्यायपालिका, फिल्म निर्माता और मीडिया यह नहीं जानते कि जैसे मुहम्मद, नानक और जीसस के नाम मुस्लमानो, सिक्खों तथा इसाईयों के लिये पवित्र हैं उसी तरह राम और कृष्ण के नाम ही हिन्दूओं के लिये पवित्र हैं? क्या फिल्म निर्माता भंसाली साहस कर दिखायें गे कि मुहम्मद, नानक या जीसस का नाम रख कर पैसै कमाने के लिये बकवास फिल्म बनायें और फिल्म राम-लीला जैसी प्बलिसिटी करें ?

संविधान के अनुसार देश की न्यायपालिका को संसद में पास किये गये कानूनों के पालन करने और करवाने का अधिकार है, कानून बनाने का अधिकार नहीं। उच्च न्यायपालिका (हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट) संसद में बनाये गये कानूनों की व्याख्या कर सकती हैं लेकिन अपनी किसी नयी परिभाषा को देश वासियों पर थोप नहीं सकती। फिर कैसे फिल्म ‘बिल्लू-बारबर’ केवल ‘बारबर’ शब्द जोडने से ही नाई समुदाय की भावनाओं को आघात पहुँच गया और हिन्दू समुदाय को ‘रामलीला’ की आड में अशलील बकवास दिखाने से आघात नहीं पहुँचा?

देश की कानून व्यवस्था में अच्छे बुरे में पहचान उस देश की जनता की आस्थाओं के आधार पर होती है। संसद वही कानून बना सकती है जिस का देश की जनता बहुमत से समर्थन करे। इस में न्याय संगत होने या ना होने का कोई अर्थ नहीं। कोई न्याय संगत विचार भी ऐक देश की जनता की भावनाओं के अनुसार बुरे कहै जा सकते हैं और दूसरे देश में न्याय के विरुद्ध भी अगर कोई विचार हैं तो स्थानीय जनता उन्हें समर्थन दे कर लागू करवा सकती है।  अवैध यौन सम्बन्धों की सजा कई इस्लामी देशों में ‘संगसार’ (सार्वजनिक तथा सामूहिक मृत्यु दण्ड) है और उन देशों में स्वीकृत है । योरुपीय देशों में अवैध यौन सम्बन्धो का होना केवल ऐक सामाजिक बुराई मात्र है। अतः न्यायपालिका को यह अधिकार नहीं कि वह हिन्दूओं पर ही धर्म निर्पेक्षता की आड में इकतरफा सैकूलरिजम थोपे और अन्य लोगों के प्रहार पर आँखें मूंद कर केवल हिन्दूओं को उदारता की सलाह देती रहै।

यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे राजनैतिक दल हिन्दूओं के अपमान पर मूहँ नहीं खोलते। उन्हें वोटों की चिन्ता ने अपंग बना दिया है। हिन्दू समाज का कोई ‘वोट-बैंक’  नहीं है जो उन के सम्मान की रक्षा करने का साहस करे और नेताओं को कान से पकड कर अपनी बात मनवा सके। इसलिये आज के परिपेक्ष में हिन्दूओं के लिये यह अनिवार्य होता जा रहा है कि वह अपने हितों की रक्षा करने के लिये राजनैतिक ऐकता जुटायें और ऐक संगठित वोट बैंक कायम करें। अन्य समुदाय फतवा, सरमन, हुक्मनामा आदि से अपने समुदाय को संगठित रखते हैं लेकिन हिन्दू समुदाय ने ‘सामाजिक बहिष्कार’  के परावधान को ठंडे बस्ते में डाल छोडा है जिस के कारण वह अपनी ही जन्मभूमि में आये दिन अपमानित होते रहते हैं, पिटते रहते हैं और मरते रहते हैं। ऐम ऐफ हुसैन जैसा सिरफिरा पेंटर हिन्दू आस्थाओं का उपहास करता रहा और भारत सरकार इस बात को व्यक्तिगत अधिकार मान कर उसे सम्मानित करती रही। अगर हिन्दू संगठित होते तो किसी संस्थान की यह जुर्रत ना होती कि वह हमारे ही देश में हमारे सम्मान की दुर्गति करने का साहस कर सके। क्या कोई सोच सकता है कि मुहम्मद का अपमान किसी मुस्लिम देश में करे और वहाँ की सरकार और न्यायपालिका चुप रहै?

फिल्म रामलीला पर रोक हटाने के फैसले पर हिन्दू संगठनो को ऊपरी अदालतों में अपील करनी चाहिये। यह काम कोई व्यक्तिगत तौर पर करना कठिन है अतः विश्व हिन्दू परिष्द या सामर्थवान धर्मगुरूओं को पहल करनी चाहिये। अपने मान-सम्मान की रक्षा करने का हिन्दू समाज को पूरा अधिकार है। हिन्दू समाज को संविधान के अनुसार कडा विरोध भी करना चाहिये। प्रश्न सिर्फ फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने तक ही सीमित नहीं बल्कि जानबूझ कर फिल्म निर्माता ने ऐसा नाम क्यों चुना इस के लिये उसे कानून अनुसार कडी सजा भी मिलनी चाहिये।

व्यकतिगत तौर पर यह प्रत्येक हिन्दू का फर्ज है कि वह इस फिल्म को ना देखें और संजय लीला भंसाली तथा उस के अभिनेताओं की फिल्मों का स्वेछा से और कानून के अनुसार बहिष्कार करें। याद रखो –

जिन्दा है जो इज्जत से वह इज्जत से मरे गा।

चाँद शर्मा

टैग का बादल