हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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25 – सती तथा भ्रूण हत्या


हिन्दू समाज में प्रत्येक जीवित पतिवृता स्त्री जो अपने सतीत्व की रक्षा करती है वह ‘सती ’ कहलाती है। पौराणिक कथा नायिका सावित्री ने अपने पति सत्यवान के जीवन को यमराज से छुडवा कर अपने स्तीत्व की रक्षा की थी, जिस कारण सावित्री को उस के जीवन काल में ही सती की गौरवशाली उपाद्धि प्राप्त हो गयी थी। आदर स्वरूप हिन्दू समाज में प्रत्येक चरित्रवान पत्नि को पति के जीवन काल में ही ‘सती सावित्री ’ अथवा ‘सती-साध्वी’ कहा जाता है।

सती प्रथा

भगवान शिव की पत्नी का भी तथा-कथित सती प्रथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। संक्षिप्त में, शिवपुराण अनुसार दक्ष प्रजापति की ऐक सौ कन्यायें थीं। उन में से सब से छोटी कन्या का नाम ही ‘सती ’ था। सती ने राजा दक्ष की स्वीकृति के बिना भगवान शिव से विवाह कर लिया था जिस के कारण दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिये एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया गया था। सती शिव की स्वीकृति के बिना ही, उस यज्ञ को देखने के लिये अपने पिता राजा दक्ष की यज्ञशाला में चली गयी थी। राजा दक्ष नें यज्ञशाला में सती की पूर्णत्या अनदेखी की। यह अपमान सती से सहा नहीं गया और उस ने क्षुब्ध हो कर यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने प्राणों की आहूति दे डाली। वह पति की चिता पर जलायी नहीं गयी थी।

इस वृतान्त से प्रथम तथ्य तो यह उजागर होता है कि यदि कन्या हत्या का चलन हिन्दू धर्म में होता तो दक्ष प्रजापति की कन्याओं की संख्या ऐक सौ तक कभी ना पहुँचती। दूसरा, सती ने अपने प्राणों का अन्त अपने पति के जीवन काल में ही किया था और इसे विधवा को जलाने वाली कुप्रथा के साथ नहीं जोडा जा सकता। इस कथा का उद्देष्य केवल विवाहित स्त्रियों का मार्ग दर्शन करना है कि विवाह के पश्चात उन्हें अपने पिता के घर भी बिन बुलाये और अपने पति के बिना अकेले नहीं जाना चाहिये। यह केवल सामान्य शिष्टाचार की परम्परा निभाने की बात है।  

ऐतिहासिक ग्रंथों के प्रमाण

चारों वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, महाकाव्यों तथा मनुसमृति – किसी भी धर्म ग्रंथ में सती प्रथा की आड में विधवाओं को चिता में झोंकने का कोई प्रावधान नहीं है। रामायण तथा महाभारत दोनो महा काव्यों में भी सती कुप्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। निम्नलिखित तथ्य इस सत्य को प्रमाणित करते हैं –

  • राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात उन की तीन रानियों में से कोई भी सती नहीं हुयी थी।
  • किष्कन्धा नरेश बाली की मृत्यु के पश्चात उस की पत्नि – रानी तारा का विवाह बाली के छोटे भाई सुग्रीव से कर दिया गया था। अतः यह तथ्य विधवा को जला कर मारने के बजाय पुनर्विवाह कर के पत्नि को व्यवस्थापित रह कर जीने का प्रावधान दर्शाता है।
  • रावण के वध पश्चात उस की रानी मन्दोदरी या अन्य कोई भी रानी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी। 
  • हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की मृत्यु के पश्चात उस की नव-विवाहिता पत्नी सत्यवती भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • जब शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य और चित्रांगद की मृत्यु हुयी तो उन की पत्नीयां भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • महाभारत में केवल ऐक उल्लेख है – जब वनवास में राजा पान्डु की मृत्यु हुयी तो उस की छोटी रानी माद्री ने अपने आप को पान्डु की मृत्यु का कारण समझा और इसी आत्म ग्लानि के कारण ही उस ने भी पान्डु की चिता में बैठ कर अपने जीवन का अन्त कर लिया था। इस घटना को सती कहने के बजाय ‘आत्महत्या ’ कहना उचित हो गा। यदि इसे सती प्रथा का नाम दिया जाय तो बड़ी रानी कुन्ती को भी अग्नि में जल कर सती होना चाहिये था। इस उल्लेख के अतिरिक्त महाभारत में जहाँ लाखों पुरुषों ने वीरगति पायी, परन्तु पति की चिता के साथ किसी भी पत्नि के सती होने का कोई वर्णन नहीं है। एक सौ कौरव राजकुमारों में से किसी ऐक की पत्नी भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।  

ऊपरलिखित तथ्यों के प्रमाण के विपरीत सती का दुष्प्रचार केवल हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये ही किया जाता है। अगर कोई अपने निजि परिवारों को ही देखे तो पता चले गा कि वहाँ भी किसी विधवा स्त्री को जीवित नहीं जलाया गया होगा।

स्त्री जलन का चलन 

कोलम्बिया इनसायक्लोपीडिया के अनुसार मृत पति के साथ उस की चहेता पत्नी को जलाने की कुप्रथा का उल्लेख भारत से बाहर के देशों में पाया जाता है। उन उल्लेखों के अनुसार थ्रेशियन, स्किथियन, सकेनडनेवियन, प्राचीन मिस्र, चीन, ओशियाना तथा अफ्रीका में ऐसे रिवाज थे।

भारत में मौर्य तथा गुप्त वंश के काल में भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुप्रथा कुशान वंश के समय भारत में विदेशों से आयी तथा मध्य काल में राजपूत वँशो तक सीमित रही। ऱाजपूत अकसर लम्बे समय तक युद्धों में व्यस्त रहते थे। विदेशी अक्रान्ता विजयी होने के पश्चात स्त्रियों के साथ जीवन पर्यन्त बलात्कार करते थे। इस दुर्दशा के विकल्प स्वरूप ‘जौहर’ की प्रथा राजपूत परिवारों में अपनायी गयी जो कि उस समय की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यक्ता थी। पति के वीरगति पाने की सम्भावना के केवल विचार मात्र से ही वीरांग्ना राजपूत पत्नियों ने स्वेच्छा से अग्नि प्रवेश कर के अपने सतीत्व की रक्षा करने में अपना गौरव समझतीं थीं। जब महलों के प्राँगण में स्त्रियाँ जौहर की रस्म करतीं थी, तो उस के साथ ही रण भूमि पर शत्रुओं की विशाल सैना के सामने राजपूत केसरिया वस्त्र पहन कर ‘साका’ की रस्म अदा करते थे और धर्म तथा स्वाभिमान की खातिर युद्ध कर के शत्रु के सामने झुकने के बजाय अपनी आत्म बलि देते थे।

रानी पद्मनी का ‘जौहर’ भी सती होना नहीं था। वह जौहर था। रानी पद्मनी किसी धार्मिक कारण से अपनी सखियों के साथ चिता में नही बैठी थीं अपितु अपने स्तीत्व और आदर्शों की रक्षा के कारण ऐसे साहसी कदम को उठाने के लिये उद्यत हुयी थीं। जौहर प्रथा को राजपूतों ने इस लिये सम्मानित करना आरम्भ किया था ताकि नव-विवाहित युवतियाँ प्रोत्साहित हो कर अग्नि में स्वेच्छा से प्रवेश कर सके और पति की मृत्यु पश्चात अपमान जनक जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से अपने आप अपने स्तीत्व की रक्षा कर सकें। वास्तव में यह उन शूरवीर पत्नियों के लिये ऐसी गौरवमयी मिसाल है जिस की तुलना विश्व इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।

सती कुप्रथा का ढोल केवल भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये पी़टा जाता है। भारत के कुछ प्राँतों में जहाँ ब्रिटिश शासन था वहाँ मृत व्यक्ति की पत्नी को पति के साथ जला कर सम्पति हडपने के लिये विधवा स्त्री को सती के नाम से जलाने की कुप्रथा चल पड़ी थी जिस का हिन्दू धर्म से कुछ सम्बन्ध नही था। लेकिन फिर भी यह हिन्दू समाज सुधारकों के लिये सांत्वना की बात है कि उस कुप्रथा को बन्द करने के लिये राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू समाज सुधारक ही आगे आये थे। बाहर के लोगों के कारण इस प्रथा का उनमूलन नहीं हुआ था। आज इस कुप्रथा का उल्लेख हि्न्दू विधवाओं के लिये केवल ऐक दुःखद स्मृति चिन्ह है।

कन्या शिशु हत्या

कन्या शिशु हत्या के दुष्प्रचार को ले कर भी हिन्दू समाज को इस प्रकार की निराधार आलोचना के कारण शर्मिन्दा होने या बचाव मुद्रा में जाने की जरूरत नहीं है क्यों कि वास्तविक तथ्य इस आरोप के विपरीत हैं।

  • हमारे महाकाव्यों, पुराणों, साहित्य, जातक कथाओं, पँचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी या किसी भी अन्य पुस्तक में ऐक भी वृतान्त उल्लेखित नही जो कन्या भ्रूण हत्या या कन्या शिशु हत्या की घटना का साक्षी हो।
  • यदि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथा हिन्दू समाज में प्रचिल्लत होती तो सीता, द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, शकुन्तला, जीजाबाई जैसी महिलायें हमारे इतिहास में ना आतीं। यह सभी कन्यायें अपने अपने माता पिता के घरों में प्यार दुलार से पाली गयीं थीं।
  • हिन्दू समाज में माता-पिता विवाह के समय कन्यादान करना ऐक पवित्र और पुन्य कर्म मानते हैं। अतः इस प्रकार की मानसिक्ता रखने वाले हिन्दू माता-पिता कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप का समर्थन कदापि नहीं कर सकते।
  • परिवार नियोजन के लिये हिन्दू धर्म तो गर्भपात का ही विरोध करता रहा है और संयम पर बल देता रहा है। पुत्री तथा पुत्रियों को अनचाहे कह कर गर्भपात के तरीके से हत्या की कुप्रथा पाश्चात्य समाज की देन है जो संयम में विशवास नही रखते  और अपने आप को माडर्न समझते हैं।
  • महिलाओं के लिये विविध प्रकार के प्राचीन कालिक वस्त्राभूष्ण, सौन्दर्य प्रसाधन, सुगन्धित द्रव्य इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को प्रेम दुलार से सजा कर पाला जाता था और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घृणित बात सोचना भी कठिन था।
  • माता पिता विवाह के समय अपनी बेटियों को स्वेच्छा से दहेज में धन, सम्पत्ति आदि देते हैं। वह किसी आर्थिक कारण से भी बेटी को बोझ नहीं समझते। कुछ नीच लोग दहेज की माँग करते हैं परन्तु हिन्दू धर्म उन का समर्थन कभी नहीं करता।
  • रक्षाबन्घन का पर्व समस्त भारत में भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है। ऐसा त्योहार किसी अन्य मानवी समाज में नहीं मनाया जाता। फिर इन परम्पराओं को स्वेच्छा से मानने वाला समाज कन्या भ्रूण हत्या का समर्थन कभी नहीं करे गा।

कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा भारत के कुछ भागों में इस्लामी शासन काल में उभरी थी। ‘महान’ कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह अकबर ने जब अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण राजपूत परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ किये तो बदले में मुग़लों को भी राजपूत परिवारों में बेटियाँ ब्याहनी ज़रूरी थीं। यदि मुगल शाहजादियों के विवाह राजपूतों के साथ होते तो मुगल बादशाहों को राजपूत जमाईयों के लिये मुगल शाहजादों के समान दर्जा भी देना पडना था। इस से बचने के लिये धूर्त ‘अकबर महान’ ने मुगल शाहजादियों के विवाह पर ही रोक लगा दी थी। मुगल शाहजादियों के विवाह पर प्रतिबन्ध अकबर के काल से आरम्भ हो कर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक रहा क्यों कि अकबर की तरह राजपूतों से इकतरफा वैवाहिक सम्बन्ध उन्हों ने भी बनाये रखे थे। शाहजहाँ की दोनों पुत्रियाँ जहाँ आरा और रौशन आरा अविवाहित जीवन जीती रहीं थी। औरंगजेब को राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध रखने की चाह नहीं थी अतः उस ने मुगल शाहजादियों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया था। ‘अकबर महान’ का निर्णय अमानवी और धूर्ततापूर्ण था। सम्भव है कि कई मुगल शाहजादियों की जन्म समय हत्या भी किले के तहखानों में करी जाती होगी जिस से प्रेरणा पा कर कुछ राजपूत सामन्तों ने भी बेटी मुगलों को देने के बजाये उन की हत्या करना आधिक सम्मान जनक समझा हो। कुछ भी हो हिन्दू समाज इस प्रकार की घृणित प्रथा का समर्थन नहीं करता।

आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण गर्भपात जैसी अमानवीय कुप्रथाओं का चलन है। कुछ कमीने लोग लिंग जाँच करवाने के पश्चात कन्या भ्रूण की हत्या भी करवाते हैं किन्तु इस प्रकार की कुप्रथाओं का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म प्रचारक इस का स्दैव विरोध करते हैं। इन कुकर्मों को हिन्दू समाज का धार्मिक या सामाजिक समर्थन नहीं है।  

विश्व सभ्यता का सूत्रधार  

हिन्दू समाज को दुष्प्रचार से भयभीत अथवा त्रास्त होने के बजाये तथ्यों के आधार पर दुष्प्रचार का खण्डन करना चाहिये और यदि कोई हिन्दू इस प्रकार का घृणित काम निजि तौर पर करे तो उस का पूर्णत्या बहिष्कार भी करना चाहिये।

चाँद शर्मा

 

 

19 – मानव जीवन के लक्ष्य


हिन्दू धर्म ने संसारिक सुखों को सर्वथा त्यागने की वकालत कभी नहीं की। हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष वह स्थिति है जब मन में कोई भी अतृप्त कामना ना रह गयी हो तथा समस्त इन्द्रीय भोगों की धर्मानुसार पूर्ण संतुष्टि हो चुकी हो। इसी स्थिति को पाश्चात्य संदर्भ में ‘टोटल सेटिस्फेक्शन कहते हैं।

हिन्दू जीवन शैली स्दैव इस सत्य के प्रति सजग रही है कि प्रत्येक प्राणी में इच्छायें तथा भावनायें हमेशा पनपती रहती हैं। बिना तृप्ति के कामनाओं को शान्त करना व्यावहारिक नहीं। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को धर्मपूर्वक पुरुषार्थ कर के अपनी समस्त कामनाओं की तृप्ति करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

यह हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी निजि आवश्यक्ताओं के साथ साथ अपने परिवार तथा मित्रों के लिये भी पर्याप्त सुख सम्पदा अर्जित करे और उस का सदोपयोग भी करे। अनिवार्यता केवल इतनी है कि यह सब करते हुये प्रत्येक स्थिति में धर्म, स्थानीय मर्यादाओं तथा निजि कर्तव्यों की अनदेखी नहीं हो।

पुरुषार्थ अर्जित जीवन लक्ष्य

हिन्दू धर्म के मतानुसार किसी भी प्रकार के इन्द्रीय सुख भोगने में कोई पाप नहीं है। ईश्वर ने मानव को किसी भी फल के खाने से मना नहीं किया है। प्रत्येक मानव को यह अधिकार है कि वह अपने और अपने परिवार, मित्रों, तथा सम्बन्धियों के इन्द्रीय सुखों के लिये अतुलित धन सम्पदा अर्जित करे जिस से सभी जन अपनी अपनी अतृप्त कामना से मुक्त हो जाये। अतः मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, तथा इन चारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मानवों को यत्न करते रहना चाहिये।

धर्मः- सृष्टि के सभी जीवों का प्रथम लक्ष्य है – स्वयं जियो। अपने जीवन की रक्षा करना सभी जीवों के लिये ऐक प्राकृतिक और स्वभाविक निजि धर्म और अधिकार है। ‘दूसरों को भी जीने दो’ का मार्ग कर्तव्यों से भरा है जिस को साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का विस्तार कर के अपने आप को नियम-बद्ध किया है। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है। जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी अपनी भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये हैं। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं तथा उन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

श्रष्टि के सभी जीवों में मानव शरीर श्रेष्ट और सक्षम है इस लिये जीने दो का उत्तरदाईत्व  पशु-पक्षियों की अपेक्षा मानवों पर अधिक है। इसी लिये दूसरों के प्रति धर्म के नियमों का पालन करना ही मानवों को पशु-पक्षियों से अलग करता हैः-

           आहार निद्राभय मैथुन च सामान्यमेतस शाभिर्वरीणम्

                    धर्मो ही तेषामधिसो धर्मेणहीनाः पशुभिसमाना ।। (-हितोपदेश)

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – यह प्रवृतियाँ मनुष्य और पशुओं में समान रुप से पाई जाती हैं। परन्तु मनुष्य में धर्म विशेष रुप से पाया जाता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु के समान ही है।

जिस प्रकार सभी पशु पक्षी अपने अपने कर्तव्यों का स्वाचालित रीति से पालन करते हैं उसी प्रकार मानव भी जिस स्थान पर जन्मा है वहाँ के पर्यावरण की रक्षा तथा वृद्धि करे। अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करे अपनी आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपना उत्तरदाईत्व निभाये और विश्व कल्याण में अपना योगदान देने के लिये स्दैव सजग एवं तत्पर रहै।

इन चारों लक्ष्यों में धर्म सर्वोपरि है। प्रत्येक परिस्थिति में धर्म का पालन करना अनिवार्य है। यदि किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति में धर्म के मूल्यों का उल्लंधन होता हो तो मानव का कर्तव्य है कि उस लक्ष्य को त्याग दे। जो निजि धर्म का पालन करते करते किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करे वह स्दैव पापमुक्त रहता है तथा जो धर्म की अवहेलना करते हुये निष्क्रिय हो बैठे वही पापी है।

जब धर्म प्रगट होता है तो अपने दस लक्षण भी मनुष्य में प्रतिष्ठित करता है। यह लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रीय निग्रह, शुद्ध बुद्धि, सत्य, उत्तम विद्या, अक्रोध। जब मनुष्य में यह लक्षण प्रतिष्ठित हों गे तो समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व स्वतः ही सुन्दर, आदर्श ऐवं शान्तमय दिखे गा। इस लिये आवश्यक है कि आज का अशान्त मनुष्य धार्मिक हो।

अर्थः- अर्थ से तात्पर्य है जीवन के लिये भौतिक सुख सम्पदा अर्जीत करना। मानव को ना केवल अपने शारीरिक सुखों के लिये पदार्थ अर्जित करने चाहियें अपितु संतान, माता पिता, सम्बन्धी, जीव जन्तु तथा स्थानीय पर्यावरण के उन सभी प्राणियों के लिये भी, जो उस पर आश्रित हों उन के प्रति भी अपने कर्तव्यों को निभा सके। धन सम्पदा अर्जित करना तथा उस का उपयोग करना कर्तव्य है, किन्तु धन सम्पदा ऐकत्रित कर के संचय कर लेना अधर्म है। हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार –       

       शत हस्त समोहरा सहस्त्र हस्त संकिरा

(अर्थात मानव यदि एक सौ हाथों से कमाये तो उसे हज़ार हाथों से समाज कल्याण के लिये दान भी करना चाहिये।)

अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी धर्म तथा पुरुषार्थ दोनों का निर्वाह अनिवार्य है। धर्म उल्लंधन कर के अर्थ अर्जित करना पाप है तथा सक्षम होते हुये भी निष्क्रिय हो कर निजि आवश्यक्ताओं के लिये दूसरों से अर्थ प्राप्ति की अपेक्षा करते रहना भी पाप है। सुखी जीवन तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये धन-सम्पदा केवल साधन मात्र हैं, किन्तु वह जीवन का परम लक्ष्य नहीं हैं। धर्म पालन ( कर्तव्य पालन) करने से अर्थ हीन को भी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अधर्म से अर्थ जुटाने वालों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

कामः- काम से तात्पर्य है समस्त ज्ञान इन्द्रियों तथा कर्म इन्द्रियों के सुखों को भोगना। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा सहवास, संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है और उसे पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से सन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं। काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ लोग इस तथ्य को नकार कर भले ही अपवाद होने का दावा करें परन्तु उन की संख्या लग भग शून्य के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये हिन्दू धर्म ने काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशा सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये

मोक्षः- मोक्ष से तात्पर्य है जीवन में पूर्णत्या संतुष्टि प्राप्त करना है। सुख और शान्ति की यह चरम सीमा है जब मन में कोई भी इच्छा शेष ना रही हो, किसी प्रकार के संसारिक सुख की कामना, किसी से कोई अपेक्षा या उपेक्षा का कोई कारण ना हो तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस के लिये कोई यत्न नहीं करना पड़ता। किये गये कर्मों के फलस्वरूप ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह अवस्था मानव जीवन की सफलता की प्राकाष्ठा है। निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।

मर्यादित संतुलन

‘दूसरों को भी जीने दो’ के सिद्धान्त पर जब भी हम किसी कर्तव्य को निभाने के लिये निष्काम भावना से अगर कोई कर्म करते हैं तो वह ‘धर्म’ के अन्तर्गत आता है। इसी ‘जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही अगर  स्वार्थ भी मिला कर यदि कोई कर्म किया जाता है तो वह व्यापार या ‘अर्थ’ बन जाता है और यदि किसी कर्म को केवल अपने मनोरंजन या खुशी के लिये किया जाये तो वही ‘काम’ बन जाता है।

धर्म, अर्थ, और काम में से केवल धर्म ही सशक्त है जो अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। यदि किसी मानव नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है तो वह अर्थ के अभाव में भी मानसिक तौर पर संतुष्ट ही हो गा। इसी प्रकार यदि किसी नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है परन्तु उसे अपने लिये इन्द्रीय सुख नहीं प्राप्त हुये तो भी ऐसा व्य़क्ति निराश नहीं होता। इस के विपरीत यदि किसी के पास अपार धन तथा सभी प्रकार के काम प्रसाधन उपलब्ध भी हों तो भी निजि कर्तव्यों का धर्मपूर्वक निर्वाह किये बिना उसे पूर्ण संतुष्टि – मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।

जीवन में इन लक्ष्यों के लिये पुरुषार्थ करते समय मानव को स्दैव अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुननी चाहिये और जब भी मन में कोई शंका अथवा दूविधा उतपन्न हो तो स्दैव धर्म का मार्ग ही सभी परिस्थितियों, देश और काल में कष्ट रहित मार्ग होता है। मानव को अपनी रुचि और क्षमता अनुसार तीनों लक्ष्यों का एक निजि समिश्रण स्वयं निर्धारित करना चाहिये जो देश काल तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो। निस्संदैह इस समिश्रण में दूसरों के प्रति धर्म की मात्रा ही सर्वाधिक होनी चाहिय

हिन्दू धर्म ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुयी है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता स्दैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। हिन्दू धर्म प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।

चाँद शर्मा

4 – धर्म का विकास और महत्व


स्वयं जीना पशुता है – दूसरों को भी जीने देना ही मानव धर्म है। जीने देना, और जानवरों की तरह साथ जीते रहना, वैचारिक तथा व्यव्हारिक दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न क्रियायें हैं। जानवर अपनी मनोवृति से ही एक दूसरे के साथ जीते रहते हैं और जैसे ही किसी निजि स्वार्थ के कारण उन्हें आवश्यक्ता पड़ती है तो वह अपने साथ रहने वाले जीव को मार के खा भी लेते हैं। धर्म-परायण, सभ्य मानवों ने दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य रख कर स्वेच्छा से कुछ नियम और प्रतिबन्ध अपने ऊपर लागू कर लिये हैं।

अपने शरीर और जीवन को बचाना सभी प्रणियों का स्वभाविक धर्म है। एक केंचुआ भी अपने आप को मृत्यु से बचाना चाहता है। सुशील गाय भी अपने बचाव के लिये सींगों से प्रहार करने को उद्यत हो उठती है। हिंसक पशु भोजन के लिये दूसरे जीवों को खा जाते हैं, यदि उन्हें किसी से भी खतरा होता है तो वह दूसरे जीव को अपने बचाव के लिये मार देते हैं ताकि वह स्वयं जी सकें।

 मानव भी पहले ऐसा ही था किन्तु धर्म-परायण मानव इस विषय में जानवरों से भिन्न होता गया। मानव भोजन के लिये किसी जीव की हत्या करने के बजाये या तो भूख बर्दाश्त करने लगे या भोजन के कोई अन्य विकल्प ढूंडने में लग गये। यदि किसी जीव से मानवों को खतरा लगता है तो मानव अपने आप को किसी दूसरे तरीके से बचाने की कोशिश भी करते हैं। सभ्य मानव दूसरों को भी जीने देते हैं। दूसरों के लिये विचार तथा कर्म करना ही सभ्य मानव स्वभाव का मूलमंत्र है। जानवर और मानव में भिन्नता का आधार दूसरों के प्रति संवेदनशीलता और धर्म पालन है।

जियो और जीने दो

जैसे जैसे मानव समाज अधिक सभ्य और संवेदनशील होते गये मानवों ने मांसाहारी भोजन त्याग कर सात्विक तथा शाकाहारी भोजन को स्वेचछा से अपनाना शुरू कर दिया। शाकाहारी भोजन ही जीने दो के मानवी-संकल्प को पालन करने में  सक्ष्म है। दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का निर्माण किया तथा अपने आप को नियम-बद्ध करने की परिक्रिया आरम्भ करी। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है।

जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

मानवों ने परिवार को सब से छोटी समुदायिक इकाई माना है। एक ही प्रकार के धर्म नियमों में बन्धे सभी परिवार एक ही धर्म के अनुयायी कहलाते हैं। धर्म के अन्तर्गत बनाये गये नियम ही मानव के आपसी सम्बन्धों, जीव-जन्तुओं तथा परियावर्ण में संतुलन बनाये रखने के सक्ष्म साधन हैं। धर्म का सृष्टिकर्ता के साथ केवल इतना ही सम्बन्ध है कि धर्म नियम स़ष्टि-संचालन के प्राकृतिक नियमों के अनुकूल हैं।

धर्म पालन केवल मानवों के लिये है 

संसार के सभी प्राणी परियावरण का अंग होने के कारण ऐक-दूसरे पर आश्रित हैं। जीव जन्तुओं की तुलना में शरीरिक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण केवल मानव ही अपने दूआरा रचे धर्म के नियमों को पालन करने के लिये बाध्य है। पशु-पक्षी तो केवल प्राकृतिक और स्वाभाविक नियमों का ही पालन करते हैं जो जन्म से ही उन के अन्दर सृष्टि कर्ता ने माईक्रो चिप की तरह उन में भर दिये थे।

सूर्य तथा चन्द्र अपना प्रकाश बिना भेद-भाव के सभी को प्रदान करते हैं। सभी पशु-पक्षी, पैड-पौधे तथा नभ-मण्डल के गृह अपने अपने कर्तव्यों का स्वेच्छा से निर्वाह करते रहते हैं और उस का फल समान रूप से सभी को दे देते हैं। केवल मानव ही अपना कर्तव्यों का चयन अपनी इच्छा से करते हैं और उस का फल भी स्वार्थ हित विचार कर बाँटते हैं इस लिये मानवों को धर्म बद्ध होना जरूरी है।

धार्मिक विभन्नतायें

समय के साथ मानव समुदायों में धार्मिक प्रतिस्पर्धा तथा शत्रुता भी पैदा होने लगीं। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होते थे। फलस्वरूप समुदायों ने पड़ोसी समुदायों के साथ गठबन्धन करने शुरू किये और इस प्रकार समुदायों का विस्तार होने लगा। विस्तरित महासमुदाय नस्लों, जातियों, देशों तथा धर्मों के नाम से पहचाने जाने लगे और धार्मिक विभिन्नतायें और संघर्ष बढ़ते गये 

धर्म का महत्व 

धर्म मानवी सम्बन्धों को परियावरण के समस्त अंगों से जोड़ने का एक सशक्त साधन है। किसी मानव के ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने या ना करने से ईश्वर को कोई फरक नहीं पड़ता। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करने वाले भी ईश्वरीय सृष्टि से निष्कासित नहीं होते।

ईश्वरीय सत्ता के स्थाईत्व पर वैज्ञियानिक तर्कों का सहारा ले कर हम अनादि काल तक बिना किसी निष्कर्श निकाले बहस कर सकते हैं लेकिन जब सभी तर्क समाप्त हो जाते हैं तो विश्वास अपने आप जागृत होने लगता है। जब कर्म और संघर्ष मनवाँच्छित परिणाम नहीं दे पाते तो हम हताश होने के बजाये अपने आप ही ईश्वरीय-प्राधानता को स्वीकार कर के संतुष्ट हो जाते हैं। जब हम अनाश्रित होते हैं और कोई अन्य सहारा दिखाई नहीं पड़ता तो हम  ईश्वर पर ही आश्रित हो कर पुनः अपने आत्म विश्वास को जगाते हैं। हम मानते हैं कि जो कुछ मानव को ज्ञात नहीं वह सृष्टि कर्ता को ही ज्ञात होता है, जब कोई पास नहीं होता तो सर्व-व्यापक सृष्टि कर्ता हमारे साथ होने का आभास अपने आप ही दे देता है। हमारे अन्दर से ही वह मूक आवाज से हमें अपनी अनुभूति करवा देता है। हमें और क्या चाहिये। सभी प्रश्न यहाँ पहुंच कर अपने आप समाप्त हो जाते हैं। ईश्वरीय शक्ति के बिना सब कुछ शून्य हो जाय गा, चारों ओर केवल एकान्त, असुरक्षा, निराशा और हताशा ही दिखायी पडें गी। धर्महीन नास्तिक व्यक्ति ही अकेलेपन से त्रस्त होता है और वह स्वार्थ और कृतधनता का साक्षात उदाहरण है जो किसी विशवास के लायक नहीं रहता। 

स्नातन धर्म – मानवता एवं प्रकृति का मिश्रण 

भारत में विकसित मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर ही आधारित था। यह समस्त मानव जाति का प्रथम धर्म था और कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ। इस लेख श्रंखला में यह सभी नाम ऐक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।

हिन्दू जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर आदि काल से ही विशवास करते रहे हैं और अपने क्षेत्र के परियावरण के प्रति समवेदनशील रहे हैं। इसी कारण से हिन्दुओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपने धर्म में सम्मिलत किया हैं ताकि परियावरण के सभी अंग आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रहैं और उन की समयनुसार भरपाई भी होती रहै।  

भारत वासियों ने प्रराम्भ से ही परियावरण संरक्षण को अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखने का प्रचलन हिन्दूओं ने आदि काल से ही अपनाया हुआ है। जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देने की भी प्रथा है। बेल, पीपल, तुलसी, नीम, वट वृक्ष तथा अन्य कई पेड पौधे आदि को भी हिन्दू संरक्षित करते हैं और प्रतीक स्वरूप पूजित भी करते हैं। हिन्दूओं ने समस्त सागरों, नदियों, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता का संज्ञा दे कर पूज्य माना है ताकि प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य हो।

पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को जहाँ कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना, स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर के ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। सृष्टिकर्ता को सृष्टि के सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य तो दर्शाने के लिये हिन्दूओं ने छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्हों और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है। ऐसा करना विचारों को प्रत्यक्ष रूप देने की क्रिया मात्र है।

हिन्दू धर्मानुसार सभी मानव भी देव-स्वरूप है तथा कोई भी अपने आप में पापी नहीं है। अतः किसी को भी निराश होने की ज़रूरत नहीं है। सभी प्राणी ईश्वर के प्रिय बन सकते हैं। मानव केवल भूल करता है और प्रायश्चित कर के सुधार भी कर सकता है। हिन्दू हर जीव को ईश्वर की सृष्टि मानते हैं और समस्त सृष्टि को वसुदैव कुटुम्बकम – एक बड़ा परिवार। अतः प्राकृतिक तथ्यों पर केन्द्रित स्नातन धर्म आधुनिक वैज्ञानिक विचारों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।

धर्म-बन्धन ऐक सामाजिक कडी 

मानव जन्म से ही निजि पहचान के प्रतीक स्वरूप माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में पा लेता है। इस मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव भी शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात किसी कारणवश आज का मानव अपनी राष्ट्रीयता को तो बदल ले किन्तु धर्म के माध्यम से व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों में बसने वाले भारतीय भले ही वहाँ के नागरिक बन जायें किन्तु धर्म बन्धन के कारण उन का आस्थिक नाता हिन्दू धर्म से ही जुडा रहे गा। अपने निजि जीवन के सभी रीति रिवाज वह हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं।  अतः धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में हस्तांतरित किये गये हैं। हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। और चाहें तो इसे छोड़ दें, नकार दें और फिर किसी नये सिरे से खोज शुरू करें। हम जैसा भी फैसला करना चाहें कर सकते हैं, परन्तु हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है। इस तथ्य पर तो हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं।

विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है। स्थानीय परियावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। हिन्दू धर्म पूर्णत्या मानव धर्म है।

चाँद शर्मा

 

 

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