हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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नेता मण्डी


हमारे देश में नेताओं का ऐक वर्ग ऐसा है जिन के माथे पर on sale का स्टिकर सदा लगा रहता है। जिस पार्टी को सरकार बनाने के लिये इन की जरूरत पडे वह इन्हें मोल-भाव कर के खरीद सकता है। यह लोग अपनी पार्टी के Supremo कहलाते हैं। उन के सामने किसी अन्य वर्कर की कोई औकात नहीं होती। लालू यादव, रामविलास पासवान, अजीत सिहँ और शिबूसौरेन आदि इस वर्ग के जाने पहचाने नाम हैं।

दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो Toggle switch की तरह जोडियों में काम करते हैं। अगर ऐक वर्ग पक्ष में होगा तो दूसरा विपक्ष में। मायावती – मुलायम, जयललिता – करुणानिधि, ऊधव ठाकरे – राज ठाकरे, फारुख अबदुल्ला – मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद आदि इसी ‘प्रतिक्रियावादी’ श्रेणी के हैं।

तीसरा वर्ग उन Hard Bargainer स्वार्थियोंका है जो काफी मोल भाव कर के बिकते हैं, मगर उन के समर्थन वचनों के बाद भी उन पर विशवास नहीं किया जा सकत। चन्द्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला, ममता बनर्जी, शरदपवार और नवीन पटनायक आदि इन में प्रमुख हैं। उन का निजी स्वार्थ ही सर्वोपरि रहता है।

अब जरा सोचिये – जो पार्टियां या नेता 100 से भी कम प्रत्याशियों के साथ चुनाव लडते हैं उन की देश के लिये क्षमता क्या हो सकती है? इस तरह के ‘खुदरा नेता’ और पार्टियां जितना तोल मोल करें गे उस से किसी का क्या भला करें गे? किसी जाति, धर्म, व्यवसाय, या छोटे मोटे गुट के नाम पर चुनाव लडने वाले, निर्दलीय, पुराने वक्त के 75-80 वर्ष के थके हारे नेता केवल अपना और अपने परिवारों का भला करने के लिये ही चुनाव लडते हैं क्योंकि सिर्फ चुनाव जीतने पर ही 75 – 80 वर्ष की आयु में ऐक लाख रुपये की मासिक आय, मुफ्त इलाज, देश भर का हवाई-जहाज में भ्रमण और अनेक तरह की ढेर सारी अन्य सुविधायें उन्हें अगले पाँच वर्षों लिये सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं।

क्या ऐसे लोगों को वोट देने से देश का या आप का कुछ भला होगा? – बिलकुल नहीं !फिर ऐसी पार्टियों और निर्दलीय लोगों के लिये अपना वोट खराब करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? आप को चकमा दे कर नेता फायदा उठा जाता है और फिर पाँच वर्ष तक वही नेता आप को दिखाई भी नहीं पडता। आ बैल मुझे मार इसी को कहते हैं!

2014 में ही अपना बोझ थोडा तो कम कीजिये – लालू यादव, मुलायम सिहं, मायावती, अजीत सिहं, केजरीवाल, देवेगोडा, अमर सिहँ, आडवाणी और ढेर सारी दक्षिण भारत की पार्टियों के नेताओं को राजनीति से रिटायर कीजिये और भारत को साफ रखने में अपनी मदद स्वयं कीजिये। इन लोगों ने भारतीय लोकतन्त्र को ऐक मजाक बना कर रख दिया है और यही नेता देश की प्रगति के मार्ग में सब से बडी रुकावट हैं। इस ‘नेतावी दीमक’ को को अगले चुनाव में सत्ता से बाहर करना ऐक महान देश सेवा होगी।

चाँद शर्मा

 

मगरमच्छ के आँसू


दामिनी रेप केस में जब महिलाओं की सुरक्षा की बात चली थी तो कई नेता तपाक से बोले थे कि “हमारी भी तीन तीन बेटियाँ हैं”। अब दो सैनिकों की निर्मम हत्या पर नेता गण अपनी कुर्बानियाँ जनता को क्यों नहीं बताते? क्या हमारे नेताओं में से कोई ऐसा नेता है जो यह बताये कि उन्हों ने अपने बेटे बेटियों को देश सेवा करने के लिये सैना में क्यों नहीं भेजा?

बेशर्म नेता सिर्फ बयान बाजी करके अपनी कुर्सियां पक्की रखते हैं। क्या देश की सेवा सिर्फ सांसद या विधायक बन कर ही करी जाती है? क्या देश सेवा सुरक्षा घेरों में छुप कर करी जाती है या घोटाले कर के? नेताओं को तो सबसिडाईजड खाना हराम में मिलता है, महंगे से महंगा स्वदेशी और विदेशी इलाज भी मिलता है, अनगिनित सहूलियतें मिलती हैं वह क्या जाने कि सियाचिन की सर्दी क्या होती है? जब गोलियाँ सिर के ऊपर से निकलती हैं तो कैसा लगता है?

विदेशों में नेताओं के लिये भी कुछ वर्ष के लिये सैनिक ट्रेनिंग और सैनिक सेवा अनिवार्य होती है लेकिन गाँधीवादी देश में तो सैना को ही फिजूल का खर्च समझा जाता है और रक्षा बजट में सैनिक खर्चों पर कट लगते रहते हैं। सैनिकों के मान-अपमान से नेताओं को कोई सरोकार नहीं। उन्हों ने सैनिक पदों को भी करंसी कर तरह इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है।

नेताओं की बेशर्मी की कोई सीमा ही नहीं। सैनिकों की पैन्शन का मामला सुप्रीमकोर्ट के आदेशों के बावजूद सरकार के पास कई वर्षों से अटका हुआ है और सरकार उसे नकारने के बहाने तराशती रहती है। हथियारों की खरीद हो या अन्य सैनिक साजोसामान की, नेताओं को तो दलाली खानी ही है। सैनिकों को मिलने वाली सहूलियतों में से भी उन्हें आदर्श सोसाईटी तरह के काण्ड करने ही हैं।

यह मत भूलें कि किसी भी नेता का बेटा या बेटी बाप कि सिफारिश से पार्टी का टिकट पा कर सांसद या विधायक तो बिना किसी योग्यता के ही बन सकता है, और केवल पाँच वर्ष ऐयर कण्डिशन्ड संसद या विधान सभा में बैठ कर आजीवन पैन्शन के साथ कई तरह की सहूलियतें पा सकता है। लेकिन उसी बेटे बेटी को अगर सैनिक अधिकारी बनना हो तो योग्यता के साथ साथ उसे दूसरा जन्म भी लेना पडे गा और अपनी जान हथेली पर ऱखनी होगी।

आज कल सैना के रैंक भी नेताओं ने क्रिकेटरों और अध-कच्चे नेताओं को मुफ्त में बाँटने शुरु कर दिये हैं। क्या इस तरह का कोई भी ‘सेरिमोनियल-पदाधिकारी’ ऐक वर्ष तक सैना की किसी टुकडी के साथ नौकरी करने का साहस कर सकता है। नेताओं ने शायद सियाचन ग्लेशियर केवल नक्शे पर ही देखा होगा क्यों कि वह तो दो दिन भी वहाँ जा कर जवानों के साथ रह नहीं सकते।

नेताओं – अब मगरमच्छ की तरह आँसू बहाने के बजाये पाकिस्तान के साथ अमन की आशा छोडो। देश वासियों में सुरक्षा और सम्मान का विशवास पैदा कर के दिखाओ।

चाँद शर्मा

असुरक्षित जन-जीवन


जनता और विशेषत्या युवाओं के जोश भरे संघर्ष के कारण  शायद दामिनी को ‘मरणोपरान्त’ न्याय मिल सके जिस के लिये  देश के युवा बधाई के पात्र हैं जिन्हों ने सरकार की बरबर्ता और मौसम की कठिनाई झेल कर सम्भावना पैदा करी। लेकिन अभी तो इस देश में बहुत सी दामनियां दूर दराज इलाकों में सिसक रही हैं जहाँ तक न्याय पहुँचाने के ‘साधन’ और ‘जागरुक्ता’ ही नहीं है। लोग अन्याय झेलने के आदी हो चुके हैं। दिल्ली की ऐक दामिनी के केस से ध्यान हटा कर नेता तो पुराने रास्तों पर जाने का इन्तिजार ही कर रहै हैं।

नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना सरकार का परम कर्तव्य है और सरकार से सुरक्षा पाना हर नागरिक का अधिकार है। जरा सोचिये कि ऐक दामिनी का केस कोर्ट में शुरू होजाने से क्या भारत के नागरिकों का जीवन सुरक्षित होजाये गा जहाँ इस प्रकार की घटनायें ऐक आम बात बन चुकी हैः –

  • वरिष्ठ नागरिकों की घरों बैठे बिठाये में हत्यायें।
  • महिलाओं से चेन और पर्स छीनना।
  • किसी वरिष्ठ नागरिक के जीवन की कमाई ही छीन लेना।
  • बच्चों का अपहरण कर के उन्हें जीवित ही उन के परिजनों के लिये मृतक बना देना।
  • फिरोती मांगना।
  • नशीली या नकली दवायें खिला कर किसी की जान ले लेना।
  • जहरीली शराब बेचना।
  • आतंकवाद के कारण असुरक्षित जन जीवन।
  • और इस प्रकार के कई अन्य अपराध।

क्या इन सब के लिये कोई हैल्प लाईन, फास्ट ट्रैक कोर्ट, और कानून में सख्त सजा नहीं बननी चाहिये? यह सब किस की जिम्मेदारी के अन्तर्गत आते है? नागरिक तो बराबर टैक्स देते आ रहै हैं लेकिन सरकार इन सब बातों के लिये “साधनों की कमी” का बहाना कर के पिछले सात दशकों से आज तक बचती आई है।

सच्चाई यह है कि “नेता” अधिकांश साधनों को अपनी और अपने परिवारों की निजि सुरक्षा में लगाये बैठे हैं। उन्हें बडे बडे सुरक्षित बंगले, पुलिस की बुलैटप्रूफ गाडियां, कमाणडो दस्ते और सड़कों पर उन की आवाजावी का बन्दोबस्त करने के लिये सैंकडों पुलिस कर्मी रोज चाहियें ताकि वह मन मरजी से जनता को हाथ हिला हिला कर दर्शन देते रहैं।

अगर साधनों की कमी है तो वह नेताओं को भी महसूस होनी जरूरी है। नेताओं से वापिस लेकर वही साधन नगरों की गलियों और चौराहों को सुरक्षित करने में लगाने चाहियें। हर नेता को अपने साथ इतनी सिक्यूरिटी रखते हुये शर्म आनी चाहिये परन्तु  इस के लिये उन्हें अपनी सोच को भी बदलना होगा।

नागरिक और युवा याचना छोड कर अपना अधिकार प्राप्त करें ताकि लोक तन्त्र में नागरिकों की “दशा भी बदले और दिशा भी बदले”।

चाँद शर्मा

2. आदि-मानव धर्म के जन्मदाता


जिस तरह किसी ऐक वैज्ञिानिक को विज्ञान के जन्मदाता होने का श्रेय नहीं दिया जा सकता, उसी तरह स्नातन धर्म का जन्मदाता कोई ऐक व्यक्ति नहीं था। आदिवासी मानवों से शुरू होकर कई ऋषियों ने तथ्यों का परीक्षण  कर के मानव धर्म की विचार धारा के तथ्यों का संकलन किया है। य़ह किसी ऐक व्यक्ति, परिवार या जाति का धर्म नहीं है।

पहला सत्य है कि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। दूसरा सत्य यह है कि सभी पशु-पक्षी अपने शरीर सम्बन्धी कार्य अपने मन की प्रतिक्रियाओं से प्ररेरित हो कर करते हैं तथा इन प्रतिक्रियाओं का स्त्रोत्र भी उन का सर्जन कर्ता ही है।

 पशु-पक्षियों की स्मृति शरीरिक आकार तथा आवश्यक्ताओं के अनुसार सीमित होती है। जब उन्हें भूख लगती है तभी वह भोजन को ढूंडते हैं। कोई खतरा होता है तो वह अपने आप को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल अपनी ही तरह के दूसरे पशु-पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं। उन के भीतर भी भूख, लालच, ईर्षा, वासना, क्रोध, भय और प्रेम आदि की भावनायें तो होती हैं लेकिन परियावरण ही उन्हें सोने, प्रजन्न करने तथा नवजातों के सरंरक्षण के लिये प्रेरित करता है। वह प्राकृतिक प्ररेणा से ही अपने अपने मनोभावों की व्यक्ति तथा पूर्ति के लिये कर्म करते हैं। मनोभावों पर उन का कोई नियन्त्रण नहीं होता। निर्धारित समय से पहले या पीछे वह प्रजन्न नहीं कर सकते। वह अपना भला-बुरा केवल कुछ सीमा तक ही सोच सकते हैं लेकिन किसी दूसरे के लिये तो वह कुछ नहीं सोच सकते।

दैनिक क्रिया नियन्त्रण कर्ता 

जड़ और चैतन्य, दोनो ही परियावरण का अभिन्न अंग हैं। परियावरण का सन्तुलन बनाये रखने के लिये सृजनकर्ता ने ही पूर्व-निर्धारित उद्देष्य से उन की गतिविधियाँ निर्धारित तथा नियन्त्रित कर दी हैं। किसी स्वचालित उपक्रम की भाँति सभी जीव अपने अपने  निर्धारित कर्तव्यों की पूर्ति के लिये स्वयं ही प्रेरित तथा क्रियाशील होते हैं। जैसे सिंह वन में पशुओं की संख्या नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार सागर में बड़ी मच्छलियाँ छोटी मच्छलियों की संख्या नहीं बढ़नें देतीं। साँप चूहों आदि को घटाते हैं और स्वयं शिकारी पक्षियओं का भोजन बन जाते हैं। केंचुए वृक्षों के आस-पास की भूमि को नर्म कर के वनस्पतियों की भोजन-पोषण में सहायता करते हैं।

पशु-पक्षियों की प्राकृतिक मनोदिशा ही उन का निर्धारित कर्तव्य पत्र है। भले ही वह अपने कर्तव्य के महत्व को ना समझते हों, परन्तु कोई प्राणी यदि अपने निर्धारित कर्म को ना करे तो सृष्टि में उस प्राणी का आस्तीत्व ही बेकार हो जाये गा। कुछ जीव निजि कर्तव्यों का निर्वाह दिन के समय करते हैं तो कुछ रात्रि में अपना दाईत्व निभाने के लिये निकल पड़ते हैं। उन्हें वैसा करने के लिये सृजनकर्ता ने ही प्ररेरित किया है तथा सक्ष्म भी बनाया हैं। कर्तव्य निभाने के लिये उन्हें कोई बुलावा नहीं भेजता – रात्रि के समय वह स्वयं ही अपना अपना दाईत्व सम्भाल लेते हैं। एक बिच्छू, साँप या सिहं अपने शिकार को मार ही डाले गा भले ही कुछ क्षण पूर्व उसी प्राणी ने उन की जान भी बचाई हो। उन के कर्म से किसी का भला हो या बुरा, पशु पक्षियों को कभी अहंकार या आत्म ग्लानि नहीं होती क्योंकि वह अपने सभी कार्य सृजनकर्ता के आदेशानुसार ही करते हैं।

सृष्टि में जीवन के आधार 

समस्त सृष्टि का चलन स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। सभी कुछ ताल-मेल से चलता है। सभी कार्य पूर्वनिर्धारित समयनुसार अपने आप ही निश्चित समय पर होते रहते हैं। सूर्य प्रति दिन समयनुसार पूर्व दिशा से निकलता है और पश्चिम दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में अस्त नहीं होता। सभी गृह-नक्षत्र अपनी अपनी परिधि में सीमित हो कर निर्धारित गति में अनादि काल से घूम रहे हैं। सागर जल का अक्ष्य भण्डार अपनें में समेटे रहते हैं। जल को स्वच्छ एवं शुद्ध रखने के लिये पूरी जल-राशि को दिन में दो बार ज्वार भाटे के माध्यम से उलट-पलट किया जाता है। निर्धारित समय पर ही प्रति वर्ष धरती सूर्य के समीप जाकर अतिरिक्त ऊष्णता गृहण करती है ताकि धरती पर अनाज और फल पक सकें। सागर जल से नमक की मात्रा छुड़वा कर पय जल में परिवर्तित करने के लिये जल बादलों के अन्दर भरा जाता है। वायु बादलों को सहस्त्रों मील दूर उठा ले जाती है तथा वर्षा कर के पृथ्वी पर उसी जल को जलाश्यों में भरवा देती है। बचा हुआ जल नदियों के रास्ते पुनः सागर में विलीन हो जाता है।  सोचने की बात है यही कार्य किसी सरकारी अधिकारी या ठेकेदार को सौंपा गया होता तो क्या वह कैसे करता। 

सृष्टि के प्राणियों की कार्य सुविधा के लिये सूर्य पूरी पृथ्वी पर रौशनी फैला देता है तथा रात्रि के समय चन्द्र शीतल रौशनी के साथ उदय होता है और रात्रि में काम करने वालों के लिये रौशनी का प्रबन्ध कर देता है। साथ ही साथ सागर जल को उलट-पलट कर जल का शुद्धिकरण भी करवा देता है। सृष्टि की सभी प्रणालियाँ सहस्त्रों वर्षो से पूर्ण सक्ष्मता के साथ कार्य कर रही हैं । जब किसी प्रणाली में कोई त्रुटि आ जाती है तो प्रकृति अपने आप उसे दूर भी कर देती है। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार से निरन्तर चलता रहता है। 

सृष्टि कर्ता की खोज

अतः विचार करने की बात है कि सृष्टि में कोई तो केन्द्रीय शक्ति अवश्य है जिस ने इतनी सूक्ष्म, सक्ष्म तथा स्शक्त कार्य पद्धति  निर्माण की है। इतनी स्वचालिता आज भी विज्ञान के  बस में नही है। वैज्ञानिक तथा बुद्धिजीवी केवल कुछ तत्वों को जानते हैं जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश सृष्टि के मुख्य तत्व हैं। लेकिन इन के अतिरिक्त कई अज्ञात् तत्व और भी है जो इस विशाल प्रणाली को सुचारू ढंग से चला रहे है। विज्ञान तत्वों की खोज और पहचान कर के कारण तथा क्रिया में सम्बन्ध स्थापित करने में धीरे धीरे सफल हो रहा है लेकिन विज्ञान ने किसी नये अथवा पुराने तत्व को बनाया नहीं है। विज्ञान अभी तक सभी तत्वों को खोज भी नहीं पाया है। 

यदि वैज्ञानिक एक चींटी का ही सर्जन करना चाहें जो सभी कार्य स्वाचालित ढ़ंग से करे तो उस में कितने ही उपकरण लगाने पड़ें गे तथा उस का आकार एक जेट विमान के जितना बडा होगा तथा उस की दैनिक देखभाल के लिये कई इंजिनियर तैनात करने पड़ेंगे। इतना करने के पश्चात भी वह चींटी कुछ सीमित कार्य ही कर सके गी और अपने जैसी दूसरी चींटी तो पैदा कर ही नहीं सके गी। ऐसे प्रोजेकट की लागत भी करोड़ों तक जाये गी।

धर्म की शुरूआत 

वैज्ञिानिक तथ्यों को जानना धर्म का आरम्भ मात्र है। हम जानते हैं कि पहले कोई घर या गाँव नहीं थे। आदि मानव वनों में रहते थे। विद्यालय, चिकित्सालय आदि भी नहीं थे। निस्संदेह वनों में निवास करने वाले आदि मानवों ने भी सोचा होगा कि कौन सृष्टि को चला रहा है। सोचते सोचते उन्हों ने उस अज्ञात् शक्ति को ईश्वर कहना शुरू कर दिया क्यों कि वह शक्ति सर्व-व्यापक, सर्व शक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। किसी ने उस शक्ति को देखा नहीं लेकिन महसूस तो अवश्य किया है। उस महाशक्ति की कार्य-कुशलता तथा दयालुता का आभास पा कर मानव आदि काल से ही उस महाशक्ति का आभारी हो कर उसे खोजने में लगा हुआ है। समस्त प्राणियों में आदि मानव ने ही सब से पहले महाशक्ति ईश्वर के बारे में सोचा और उसे ढूंडना शुरू किया। जिज्ञासा से प्रेरित होकर इसी के फलस्वरूप समस्त मानव जाति के लिये धर्म की शुरूआत भी आदि मानव ने करी।

वनवासी मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की गरज, चमक, छोटे बड़े जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु को आसपास देख कर चकित तथा भयभीत तो हुये, परन्तु सोचते भी रहे। अपने आस पास के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहे, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथायों का सृजन तथा संचय भी करते रहे ताकि वह दूसरों के साथ भी उन अज्ञात् रहस्यों की जानकारी का आदान-प्रदान कर सकें। इस प्रकार भारत में सब से पहले और बाद में संसार के अन्य भागों में जहाँ जहाँ मानव समूह थे, पौराणिक कथाओं की शुरूआत हुयी। कालान्तर कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्षक चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया।

आदि धर्म – स्नातन धर्म 

इस प्रकार रहस्यों की व्याख्या के प्रसार का उदय हुआ उस वैज्ञानिक परिक्रिया को आदि धर्म या स्नातन धर्म की संज्ञा दी गयी। कालान्तर वही हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया। दूसरे धर्म  स्नातन धर्म के बाद में आये। सभी आदि धर्मों का मूल स्त्रोत्र भारत से ही था। हिन्दू धर्म के साथ बहुत कुछ समान विचार-धाराऐं थीं। कालान्तर अज्ञानवश और स्वार्थ – वश योरूप वासियों ने स्थानीय आदि धर्मों को पैगनज़िम कहना शुरु कर दिया और मुसलमानों ने कुफ़र या जहालत कहा। वह यह नहीं समझ पाये कि धर्म सम्वन्धी उन के अपने कथन कितने तर्कहीन थे जब कि स्नातन धर्म का वैज्ञानिक आधार परम्परागत निजि अनुभूतियों पर टिका हुया था। स्नातन धर्म दूआरा व्याख्यित तथ्यों के प्रत्यक्ष प्रमाण दैनिक जीवन में स्वयं देखे जा सकते थे।

यह कितने आश्चर्य की बात है कि इसाई, मुसलिम तथा कुछ तथा-कथित हिन्दू दलित नेता वनवासियों को दूसरे धर्मों में परिवर्तित करने के लिये दुष्प्रचार करते हैं कि वनवासी अपने आप को हिन्दू ना कहें और हिन्दू धर्म से विमुख हो जायें। ऐसा हिन्दू धर्म की ऐकता नष्ट करने के लिये किया जाता है ताकि भारत पर इसाई या मुसलिम शासन कायम किया जा सके और दलित नेताओं को नेतागिरी मिली रहे। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में आज कोई अहिन्दू मत का प्रचार करे तो वह प्रगतिवादी बन जाता है और यदि किसी हिन्दू को भारत में हिन्दू ही बने रहने के लिये उत्साहित करे तो उसे कट्टर पंथी कहा जाता है।

मुख्यता स्नातन धर्म का सारांश प्रकृतिक जीवन जीना है जिस में सभी पशु पक्षी और मानव मिल-जुल कर आपसी भाई-चारे से रहें और समस्त विश्व को ऐक बडा़ परिवार जाने। आदि मानव दुआरा विकसित स्नातन धर्म वसुदैव कुटुम्बकुम का प्रेरणा स्त्रोत्र है जिस के जन्मदाता ऋषि-मुनी स्वयं वनवासी थे।

चाँद शर्मा

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