जिस तरह किसी ऐक वैज्ञिानिक को विज्ञान के जन्मदाता होने का श्रेय नहीं दिया जा सकता, उसी तरह स्नातन धर्म का जन्मदाता कोई ऐक व्यक्ति नहीं था। आदिवासी मानवों से शुरू होकर कई ऋषियों ने तथ्यों का परीक्षण कर के मानव धर्म की विचार धारा के तथ्यों का संकलन किया है। य़ह किसी ऐक व्यक्ति, परिवार या जाति का धर्म नहीं है।
पहला सत्य है कि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। दूसरा सत्य यह है कि सभी पशु-पक्षी अपने शरीर सम्बन्धी कार्य अपने मन की प्रतिक्रियाओं से प्ररेरित हो कर करते हैं तथा इन प्रतिक्रियाओं का स्त्रोत्र भी उन का सर्जन कर्ता ही है।
पशु-पक्षियों की स्मृति शरीरिक आकार तथा आवश्यक्ताओं के अनुसार सीमित होती है। जब उन्हें भूख लगती है तभी वह भोजन को ढूंडते हैं। कोई खतरा होता है तो वह अपने आप को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल अपनी ही तरह के दूसरे पशु-पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं। उन के भीतर भी भूख, लालच, ईर्षा, वासना, क्रोध, भय और प्रेम आदि की भावनायें तो होती हैं लेकिन परियावरण ही उन्हें सोने, प्रजन्न करने तथा नवजातों के सरंरक्षण के लिये प्रेरित करता है। वह प्राकृतिक प्ररेणा से ही अपने अपने मनोभावों की व्यक्ति तथा पूर्ति के लिये कर्म करते हैं। मनोभावों पर उन का कोई नियन्त्रण नहीं होता। निर्धारित समय से पहले या पीछे वह प्रजन्न नहीं कर सकते। वह अपना भला-बुरा केवल कुछ सीमा तक ही सोच सकते हैं लेकिन किसी दूसरे के लिये तो वह कुछ नहीं सोच सकते।
दैनिक क्रिया नियन्त्रण कर्ता
जड़ और चैतन्य, दोनो ही परियावरण का अभिन्न अंग हैं। परियावरण का सन्तुलन बनाये रखने के लिये सृजनकर्ता ने ही पूर्व-निर्धारित उद्देष्य से उन की गतिविधियाँ निर्धारित तथा नियन्त्रित कर दी हैं। किसी स्वचालित उपक्रम की भाँति सभी जीव अपने अपने निर्धारित कर्तव्यों की पूर्ति के लिये स्वयं ही प्रेरित तथा क्रियाशील होते हैं। जैसे सिंह वन में पशुओं की संख्या नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार सागर में बड़ी मच्छलियाँ छोटी मच्छलियों की संख्या नहीं बढ़नें देतीं। साँप चूहों आदि को घटाते हैं और स्वयं शिकारी पक्षियओं का भोजन बन जाते हैं। केंचुए वृक्षों के आस-पास की भूमि को नर्म कर के वनस्पतियों की भोजन-पोषण में सहायता करते हैं।
पशु-पक्षियों की प्राकृतिक मनोदिशा ही उन का निर्धारित कर्तव्य पत्र है। भले ही वह अपने कर्तव्य के महत्व को ना समझते हों, परन्तु कोई प्राणी यदि अपने निर्धारित कर्म को ना करे तो सृष्टि में उस प्राणी का आस्तीत्व ही बेकार हो जाये गा। कुछ जीव निजि कर्तव्यों का निर्वाह दिन के समय करते हैं तो कुछ रात्रि में अपना दाईत्व निभाने के लिये निकल पड़ते हैं। उन्हें वैसा करने के लिये सृजनकर्ता ने ही प्ररेरित किया है तथा सक्ष्म भी बनाया हैं। कर्तव्य निभाने के लिये उन्हें कोई बुलावा नहीं भेजता – रात्रि के समय वह स्वयं ही अपना अपना दाईत्व सम्भाल लेते हैं। एक बिच्छू, साँप या सिहं अपने शिकार को मार ही डाले गा भले ही कुछ क्षण पूर्व उसी प्राणी ने उन की जान भी बचाई हो। उन के कर्म से किसी का भला हो या बुरा, पशु पक्षियों को कभी अहंकार या आत्म ग्लानि नहीं होती क्योंकि वह अपने सभी कार्य सृजनकर्ता के आदेशानुसार ही करते हैं।
सृष्टि में जीवन के आधार
समस्त सृष्टि का चलन स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। सभी कुछ ताल-मेल से चलता है। सभी कार्य पूर्वनिर्धारित समयनुसार अपने आप ही निश्चित समय पर होते रहते हैं। सूर्य प्रति दिन समयनुसार पूर्व दिशा से निकलता है और पश्चिम दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में अस्त नहीं होता। सभी गृह-नक्षत्र अपनी अपनी परिधि में सीमित हो कर निर्धारित गति में अनादि काल से घूम रहे हैं। सागर जल का अक्ष्य भण्डार अपनें में समेटे रहते हैं। जल को स्वच्छ एवं शुद्ध रखने के लिये पूरी जल-राशि को दिन में दो बार ज्वार भाटे के माध्यम से उलट-पलट किया जाता है। निर्धारित समय पर ही प्रति वर्ष धरती सूर्य के समीप जाकर अतिरिक्त ऊष्णता गृहण करती है ताकि धरती पर अनाज और फल पक सकें। सागर जल से नमक की मात्रा छुड़वा कर पय जल में परिवर्तित करने के लिये जल बादलों के अन्दर भरा जाता है। वायु बादलों को सहस्त्रों मील दूर उठा ले जाती है तथा वर्षा कर के पृथ्वी पर उसी जल को जलाश्यों में भरवा देती है। बचा हुआ जल नदियों के रास्ते पुनः सागर में विलीन हो जाता है। सोचने की बात है यही कार्य किसी सरकारी अधिकारी या ठेकेदार को सौंपा गया होता तो क्या वह कैसे करता।
सृष्टि के प्राणियों की कार्य सुविधा के लिये सूर्य पूरी पृथ्वी पर रौशनी फैला देता है तथा रात्रि के समय चन्द्र शीतल रौशनी के साथ उदय होता है और रात्रि में काम करने वालों के लिये रौशनी का प्रबन्ध कर देता है। साथ ही साथ सागर जल को उलट-पलट कर जल का शुद्धिकरण भी करवा देता है। सृष्टि की सभी प्रणालियाँ सहस्त्रों वर्षो से पूर्ण सक्ष्मता के साथ कार्य कर रही हैं । जब किसी प्रणाली में कोई त्रुटि आ जाती है तो प्रकृति अपने आप उसे दूर भी कर देती है। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार से निरन्तर चलता रहता है।
सृष्टि कर्ता की खोज
अतः विचार करने की बात है कि सृष्टि में कोई तो केन्द्रीय शक्ति अवश्य है जिस ने इतनी सूक्ष्म, सक्ष्म तथा स्शक्त कार्य पद्धति निर्माण की है। इतनी स्वचालिता आज भी विज्ञान के बस में नही है। वैज्ञानिक तथा बुद्धिजीवी केवल कुछ तत्वों को जानते हैं जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश सृष्टि के मुख्य तत्व हैं। लेकिन इन के अतिरिक्त कई अज्ञात् तत्व और भी है जो इस विशाल प्रणाली को सुचारू ढंग से चला रहे है। विज्ञान तत्वों की खोज और पहचान कर के कारण तथा क्रिया में सम्बन्ध स्थापित करने में धीरे धीरे सफल हो रहा है लेकिन विज्ञान ने किसी नये अथवा पुराने तत्व को बनाया नहीं है। विज्ञान अभी तक सभी तत्वों को खोज भी नहीं पाया है।
यदि वैज्ञानिक एक चींटी का ही सर्जन करना चाहें जो सभी कार्य स्वाचालित ढ़ंग से करे तो उस में कितने ही उपकरण लगाने पड़ें गे तथा उस का आकार एक जेट विमान के जितना बडा होगा तथा उस की दैनिक देखभाल के लिये कई इंजिनियर तैनात करने पड़ेंगे। इतना करने के पश्चात भी वह चींटी कुछ सीमित कार्य ही कर सके गी और अपने जैसी दूसरी चींटी तो पैदा कर ही नहीं सके गी। ऐसे प्रोजेकट की लागत भी करोड़ों तक जाये गी।
धर्म की शुरूआत
वैज्ञिानिक तथ्यों को जानना धर्म का आरम्भ मात्र है। हम जानते हैं कि पहले कोई घर या गाँव नहीं थे। आदि मानव वनों में रहते थे। विद्यालय, चिकित्सालय आदि भी नहीं थे। निस्संदेह वनों में निवास करने वाले आदि मानवों ने भी सोचा होगा कि कौन सृष्टि को चला रहा है। सोचते सोचते उन्हों ने उस अज्ञात् शक्ति को ईश्वर कहना शुरू कर दिया क्यों कि वह शक्ति सर्व-व्यापक, सर्व शक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। किसी ने उस शक्ति को देखा नहीं लेकिन महसूस तो अवश्य किया है। उस महाशक्ति की कार्य-कुशलता तथा दयालुता का आभास पा कर मानव आदि काल से ही उस महाशक्ति का आभारी हो कर उसे खोजने में लगा हुआ है। समस्त प्राणियों में आदि मानव ने ही सब से पहले महाशक्ति ईश्वर के बारे में सोचा और उसे ढूंडना शुरू किया। जिज्ञासा से प्रेरित होकर इसी के फलस्वरूप समस्त मानव जाति के लिये धर्म की शुरूआत भी आदि मानव ने करी।
वनवासी मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की गरज, चमक, छोटे बड़े जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु को आसपास देख कर चकित तथा भयभीत तो हुये, परन्तु सोचते भी रहे। अपने आस पास के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहे, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथायों का सृजन तथा संचय भी करते रहे ताकि वह दूसरों के साथ भी उन अज्ञात् रहस्यों की जानकारी का आदान-प्रदान कर सकें। इस प्रकार भारत में सब से पहले और बाद में संसार के अन्य भागों में जहाँ जहाँ मानव समूह थे, पौराणिक कथाओं की शुरूआत हुयी। कालान्तर कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्षक चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया।
आदि धर्म – स्नातन धर्म
इस प्रकार रहस्यों की व्याख्या के प्रसार का उदय हुआ उस वैज्ञानिक परिक्रिया को आदि धर्म या स्नातन धर्म की संज्ञा दी गयी। कालान्तर वही हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया। दूसरे धर्म स्नातन धर्म के बाद में आये। सभी आदि धर्मों का मूल स्त्रोत्र भारत से ही था। हिन्दू धर्म के साथ बहुत कुछ समान विचार-धाराऐं थीं। कालान्तर अज्ञानवश और स्वार्थ – वश योरूप वासियों ने स्थानीय आदि धर्मों को पैगनज़िम कहना शुरु कर दिया और मुसलमानों ने कुफ़र या जहालत कहा। वह यह नहीं समझ पाये कि धर्म सम्वन्धी उन के अपने कथन कितने तर्कहीन थे जब कि स्नातन धर्म का वैज्ञानिक आधार परम्परागत निजि अनुभूतियों पर टिका हुया था। स्नातन धर्म दूआरा व्याख्यित तथ्यों के प्रत्यक्ष प्रमाण दैनिक जीवन में स्वयं देखे जा सकते थे।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि इसाई, मुसलिम तथा कुछ तथा-कथित हिन्दू दलित नेता वनवासियों को दूसरे धर्मों में परिवर्तित करने के लिये दुष्प्रचार करते हैं कि वनवासी अपने आप को हिन्दू ना कहें और हिन्दू धर्म से विमुख हो जायें। ऐसा हिन्दू धर्म की ऐकता नष्ट करने के लिये किया जाता है ताकि भारत पर इसाई या मुसलिम शासन कायम किया जा सके और दलित नेताओं को नेतागिरी मिली रहे। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में आज कोई अहिन्दू मत का प्रचार करे तो वह प्रगतिवादी बन जाता है और यदि किसी हिन्दू को भारत में हिन्दू ही बने रहने के लिये उत्साहित करे तो उसे कट्टर पंथी कहा जाता है।
मुख्यता स्नातन धर्म का सारांश प्रकृतिक जीवन जीना है जिस में सभी पशु पक्षी और मानव मिल-जुल कर आपसी भाई-चारे से रहें और समस्त विश्व को ऐक बडा़ परिवार जाने। आदि मानव दुआरा विकसित स्नातन धर्म वसुदैव कुटुम्बकुम का प्रेरणा स्त्रोत्र है जिस के जन्मदाता ऋषि-मुनी स्वयं वनवासी थे।
चाँद शर्मा
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