हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

4 – धर्म का विकास और महत्व


स्वयं जीना पशुता है – दूसरों को भी जीने देना ही मानव धर्म है। जीने देना, और जानवरों की तरह साथ जीते रहना, वैचारिक तथा व्यव्हारिक दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न क्रियायें हैं। जानवर अपनी मनोवृति से ही एक दूसरे के साथ जीते रहते हैं और जैसे ही किसी निजि स्वार्थ के कारण उन्हें आवश्यक्ता पड़ती है तो वह अपने साथ रहने वाले जीव को मार के खा भी लेते हैं। धर्म-परायण, सभ्य मानवों ने दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य रख कर स्वेच्छा से कुछ नियम और प्रतिबन्ध अपने ऊपर लागू कर लिये हैं।

अपने शरीर और जीवन को बचाना सभी प्रणियों का स्वभाविक धर्म है। एक केंचुआ भी अपने आप को मृत्यु से बचाना चाहता है। सुशील गाय भी अपने बचाव के लिये सींगों से प्रहार करने को उद्यत हो उठती है। हिंसक पशु भोजन के लिये दूसरे जीवों को खा जाते हैं, यदि उन्हें किसी से भी खतरा होता है तो वह दूसरे जीव को अपने बचाव के लिये मार देते हैं ताकि वह स्वयं जी सकें।

 मानव भी पहले ऐसा ही था किन्तु धर्म-परायण मानव इस विषय में जानवरों से भिन्न होता गया। मानव भोजन के लिये किसी जीव की हत्या करने के बजाये या तो भूख बर्दाश्त करने लगे या भोजन के कोई अन्य विकल्प ढूंडने में लग गये। यदि किसी जीव से मानवों को खतरा लगता है तो मानव अपने आप को किसी दूसरे तरीके से बचाने की कोशिश भी करते हैं। सभ्य मानव दूसरों को भी जीने देते हैं। दूसरों के लिये विचार तथा कर्म करना ही सभ्य मानव स्वभाव का मूलमंत्र है। जानवर और मानव में भिन्नता का आधार दूसरों के प्रति संवेदनशीलता और धर्म पालन है।

जियो और जीने दो

जैसे जैसे मानव समाज अधिक सभ्य और संवेदनशील होते गये मानवों ने मांसाहारी भोजन त्याग कर सात्विक तथा शाकाहारी भोजन को स्वेचछा से अपनाना शुरू कर दिया। शाकाहारी भोजन ही जीने दो के मानवी-संकल्प को पालन करने में  सक्ष्म है। दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का निर्माण किया तथा अपने आप को नियम-बद्ध करने की परिक्रिया आरम्भ करी। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है।

जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

मानवों ने परिवार को सब से छोटी समुदायिक इकाई माना है। एक ही प्रकार के धर्म नियमों में बन्धे सभी परिवार एक ही धर्म के अनुयायी कहलाते हैं। धर्म के अन्तर्गत बनाये गये नियम ही मानव के आपसी सम्बन्धों, जीव-जन्तुओं तथा परियावर्ण में संतुलन बनाये रखने के सक्ष्म साधन हैं। धर्म का सृष्टिकर्ता के साथ केवल इतना ही सम्बन्ध है कि धर्म नियम स़ष्टि-संचालन के प्राकृतिक नियमों के अनुकूल हैं।

धर्म पालन केवल मानवों के लिये है 

संसार के सभी प्राणी परियावरण का अंग होने के कारण ऐक-दूसरे पर आश्रित हैं। जीव जन्तुओं की तुलना में शरीरिक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण केवल मानव ही अपने दूआरा रचे धर्म के नियमों को पालन करने के लिये बाध्य है। पशु-पक्षी तो केवल प्राकृतिक और स्वाभाविक नियमों का ही पालन करते हैं जो जन्म से ही उन के अन्दर सृष्टि कर्ता ने माईक्रो चिप की तरह उन में भर दिये थे।

सूर्य तथा चन्द्र अपना प्रकाश बिना भेद-भाव के सभी को प्रदान करते हैं। सभी पशु-पक्षी, पैड-पौधे तथा नभ-मण्डल के गृह अपने अपने कर्तव्यों का स्वेच्छा से निर्वाह करते रहते हैं और उस का फल समान रूप से सभी को दे देते हैं। केवल मानव ही अपना कर्तव्यों का चयन अपनी इच्छा से करते हैं और उस का फल भी स्वार्थ हित विचार कर बाँटते हैं इस लिये मानवों को धर्म बद्ध होना जरूरी है।

धार्मिक विभन्नतायें

समय के साथ मानव समुदायों में धार्मिक प्रतिस्पर्धा तथा शत्रुता भी पैदा होने लगीं। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होते थे। फलस्वरूप समुदायों ने पड़ोसी समुदायों के साथ गठबन्धन करने शुरू किये और इस प्रकार समुदायों का विस्तार होने लगा। विस्तरित महासमुदाय नस्लों, जातियों, देशों तथा धर्मों के नाम से पहचाने जाने लगे और धार्मिक विभिन्नतायें और संघर्ष बढ़ते गये 

धर्म का महत्व 

धर्म मानवी सम्बन्धों को परियावरण के समस्त अंगों से जोड़ने का एक सशक्त साधन है। किसी मानव के ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने या ना करने से ईश्वर को कोई फरक नहीं पड़ता। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करने वाले भी ईश्वरीय सृष्टि से निष्कासित नहीं होते।

ईश्वरीय सत्ता के स्थाईत्व पर वैज्ञियानिक तर्कों का सहारा ले कर हम अनादि काल तक बिना किसी निष्कर्श निकाले बहस कर सकते हैं लेकिन जब सभी तर्क समाप्त हो जाते हैं तो विश्वास अपने आप जागृत होने लगता है। जब कर्म और संघर्ष मनवाँच्छित परिणाम नहीं दे पाते तो हम हताश होने के बजाये अपने आप ही ईश्वरीय-प्राधानता को स्वीकार कर के संतुष्ट हो जाते हैं। जब हम अनाश्रित होते हैं और कोई अन्य सहारा दिखाई नहीं पड़ता तो हम  ईश्वर पर ही आश्रित हो कर पुनः अपने आत्म विश्वास को जगाते हैं। हम मानते हैं कि जो कुछ मानव को ज्ञात नहीं वह सृष्टि कर्ता को ही ज्ञात होता है, जब कोई पास नहीं होता तो सर्व-व्यापक सृष्टि कर्ता हमारे साथ होने का आभास अपने आप ही दे देता है। हमारे अन्दर से ही वह मूक आवाज से हमें अपनी अनुभूति करवा देता है। हमें और क्या चाहिये। सभी प्रश्न यहाँ पहुंच कर अपने आप समाप्त हो जाते हैं। ईश्वरीय शक्ति के बिना सब कुछ शून्य हो जाय गा, चारों ओर केवल एकान्त, असुरक्षा, निराशा और हताशा ही दिखायी पडें गी। धर्महीन नास्तिक व्यक्ति ही अकेलेपन से त्रस्त होता है और वह स्वार्थ और कृतधनता का साक्षात उदाहरण है जो किसी विशवास के लायक नहीं रहता। 

स्नातन धर्म – मानवता एवं प्रकृति का मिश्रण 

भारत में विकसित मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर ही आधारित था। यह समस्त मानव जाति का प्रथम धर्म था और कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ। इस लेख श्रंखला में यह सभी नाम ऐक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।

हिन्दू जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर आदि काल से ही विशवास करते रहे हैं और अपने क्षेत्र के परियावरण के प्रति समवेदनशील रहे हैं। इसी कारण से हिन्दुओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपने धर्म में सम्मिलत किया हैं ताकि परियावरण के सभी अंग आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रहैं और उन की समयनुसार भरपाई भी होती रहै।  

भारत वासियों ने प्रराम्भ से ही परियावरण संरक्षण को अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखने का प्रचलन हिन्दूओं ने आदि काल से ही अपनाया हुआ है। जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देने की भी प्रथा है। बेल, पीपल, तुलसी, नीम, वट वृक्ष तथा अन्य कई पेड पौधे आदि को भी हिन्दू संरक्षित करते हैं और प्रतीक स्वरूप पूजित भी करते हैं। हिन्दूओं ने समस्त सागरों, नदियों, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता का संज्ञा दे कर पूज्य माना है ताकि प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य हो।

पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को जहाँ कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना, स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर के ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। सृष्टिकर्ता को सृष्टि के सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य तो दर्शाने के लिये हिन्दूओं ने छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्हों और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है। ऐसा करना विचारों को प्रत्यक्ष रूप देने की क्रिया मात्र है।

हिन्दू धर्मानुसार सभी मानव भी देव-स्वरूप है तथा कोई भी अपने आप में पापी नहीं है। अतः किसी को भी निराश होने की ज़रूरत नहीं है। सभी प्राणी ईश्वर के प्रिय बन सकते हैं। मानव केवल भूल करता है और प्रायश्चित कर के सुधार भी कर सकता है। हिन्दू हर जीव को ईश्वर की सृष्टि मानते हैं और समस्त सृष्टि को वसुदैव कुटुम्बकम – एक बड़ा परिवार। अतः प्राकृतिक तथ्यों पर केन्द्रित स्नातन धर्म आधुनिक वैज्ञानिक विचारों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।

धर्म-बन्धन ऐक सामाजिक कडी 

मानव जन्म से ही निजि पहचान के प्रतीक स्वरूप माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में पा लेता है। इस मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव भी शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात किसी कारणवश आज का मानव अपनी राष्ट्रीयता को तो बदल ले किन्तु धर्म के माध्यम से व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों में बसने वाले भारतीय भले ही वहाँ के नागरिक बन जायें किन्तु धर्म बन्धन के कारण उन का आस्थिक नाता हिन्दू धर्म से ही जुडा रहे गा। अपने निजि जीवन के सभी रीति रिवाज वह हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं।  अतः धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में हस्तांतरित किये गये हैं। हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। और चाहें तो इसे छोड़ दें, नकार दें और फिर किसी नये सिरे से खोज शुरू करें। हम जैसा भी फैसला करना चाहें कर सकते हैं, परन्तु हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है। इस तथ्य पर तो हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं।

विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है। स्थानीय परियावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। हिन्दू धर्म पूर्णत्या मानव धर्म है।

चाँद शर्मा

 

 

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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