हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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मर्दानी लडकियां-बेचारे पुरुष


हरियाणा की मर्दानी लडकियों ने ऐक बार तो सभी पुरुषों की रीढ़ की हड्डी तक को झिंझोड के रख दिया है। हरियाणा सरकार ने छानबीन और प्रशासनिक सुधार करने से पहले उन्हें पुरस्करित कर के युवतियों को अपने आर्थिक पैरों पर खडे होने के लिये ऐक नयी दिशा भी प्रदान कर दी है। जनता का पुलिस प्रशासन और न्यायलयों की क्षमता पर से विशवास गुरुत्व आकर्ष्ण से भी ज्यादा तेजी के साथ नीचे गिरता जा रहा था लेकिन अब उस विशवास की पुनर्स्थापित करने की जरूरत ही नहीं रही।

नारी स्शक्तिकरण

जंगल न्याय रोज मर्रा की बात हो गयी है। कहीं भी दो चार युवतियां ऐक जुट हो कर किसी भी राहचलते मनचलों को ना सिर्फ घेर कर पीट सकती हैं बल्कि उन से वसूली कर सकती हैं। सभी पुरुष रेप और यौन शोशष्ण के आरोपी हो सकते हैं क्योंकि महिलाओं की तरफ झुकी हुयी कानून की शक्ति अब महिलाओं के पास है । बस ऐफ़ आई आर ही काफ़ी है। किसी छान बीन की ज़रूरत नहीं। महिलायें 5 वर्ष से 95 वर्ष तक के किसी भी पुरुष को आरोपित कर के आजीवन कारावास दिलवा सकती हैं। मुकदमें का फैसला आरोपित पुरुष के अगले जन्म से पहले नहीं आये गा और अपीलों में उन के भी दो तीन जन्म और निकल जायें गे।

अभी तो महिला आरक्षण बाकी है। अगर यही क्रम चलता रहा तो मृत पुरुष का दाह संस्कार करवाने से पहले पुलिस से प्रमाण पत्र लेना भी अनिवार्य हो जाये गा कि मृत के खिलाफ मृत्यु से ऐक घन्टा पूर्व तक यौन शोशण की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुयी। प्रमाण पत्र प्रस्तुत ना कर सकने की अवस्था में मृत के शरीर की फोरंसिक जांच होनी ज़रूरी हो जाये गी कि यौन अपराध के कोई सबूत उस के शरीर पर नहीं मिले – तभी दाह संस्कार हो सके गा। इस लिये पुरुषो को चाहिये कि अपनी सुरक्षा के लिये आम-आदमी सुरक्षा दल बनायें। 

कानूनी वर्गीकरण

समान आचार संहिता तो दूर, जिस तेजी से हमारे राजनेता समाज में लिंग-भेद पर भी समाज में कानूनी वर्गीकरण कर के आये दिन नये नये कानून बनाते जा रहै हैं और हमारी अदालतें आंखें मूंदे उन की वैधता को मंजूरी देती जा रही हैं उस अवस्था में अब जरूरी हो गया है कि पुरुषों के बारें में भी कुछ विशेष कानून और व्यवस्थायें होनी चाहियें।

पुरुषों को चाहिये कि अपने इलाके के राजनेता से पुरुष रक्षा कानून, दलित पुरुष रक्षा कानून तथा केन्द्र और हर राज्य में पुरुष आयोग, पुरुष बस सेवा, पुरुष थाने आदि की नयीं मांगे करनी शुरु कर दें।

हरियाणा की महिलायों से प्रेरणा पा कर अब युवतियां जीन्स पर कोई रोक स्वीकार नहीं करें गी क्यों कि बेल्ट कारगर साबित हुयी है। ‘घर की चार दिवारी में कैद पुराने जमाने की महिलायें’ सोने चाँदी या किसी अन्य धातु की जंजीरों में बंधी रहती थीं। हाथ पाँव में मोटे मोटे कडे पहनती थीं ताकि बिना आवाज किये कहीं भाग ना सकें लेकिन अब यवतियां चाव के साथ उन्हीं भारी कडों और जंजीरों को अपनी रक्षा के लिये और पुरुषों के दांत तोडने के लिये अपने आप पहनने लगें गी।

पुरुष-रक्षा के उपाय

जबतक पुरुषों की रक्षा के लिये विशेष उपाय कार्यरत नहीं हो जाते, पुरुषों को अपनी रक्षा के लिये नीचे लिखे उपाय अपने आप ही अपना लेने चाहियेः-

  • अपने अपने इलाकों में राहुल सुरक्षा ब्रिगेड या केजरीवाल सुरक्षा केन्द्र गठित करें।
  • अगर कहीं भी 4-5 समार्ट लडकियों के संदिग्ध हालत में घूमते देखें तो पुलिस, आम आदमी सुरक्षा दल को तुरन्त सम्पर्क करें।
  • अकेले निर्जन पार्कों, सडकों, लाईबरेरियों, होटलों आदि स्थानों पर ना जायें।
  • शाम को अन्धेरा होने से पहले घर वापिस आ जायें।
  • रात को भोजन के बाद घर से अकेले बाहर नहीं निकलें। अपनी सुरक्षा के लिये जूडो-कराटे आदि सीखें, और नित्य व्यायाम करें।
  • अपने कपडों में गुप्त तरीके से छुपा कर ऐक फुट लम्बी सुरक्षा-झाडू हमेशा अपने साथ रखें।
  • दफ्तर के बाद कभी भी ओवर-टाईम नहीं करें।
  • अकेले किसी टायलेट वगैरा में भी नहीं जायेँ।
  • भीड वाले इलाकों में सुरक्षित जाने आने के लिये हमेशा अपने शरीर को पूरा ढक कर रखें और स्त्रियों के से हाव भाव भी अपनायें।
  • जहाँ कहीं भी 3-4 महिलायें दिखाई पडें तो तुरन्त किसी सुरक्षित स्थान पर तेज़ी से चले जायें।

याद रखिये

पुरुषों को विरोध करना है तो हरियाणा की पूजा और आरती के बजाये पहले उन कानूनों का करो जो इन्दिरा गांधी से ले कर सोनियां तक कांग्रेसी सरकारों ने अपने वोट बैंक के लिये दलितों, महिलाओ और अल्प-संख्यकों आदि का संरक्षण करने के बहाने से बनाये और अभी भी लागू हो रहै हैं। किसी भी देश में इस तरह के वाहियात कानून नहीं हैं कि खाली रिपोर्ट के आधार पर आरोपी को हवालात में बन्द कर दो और उस की जमानत भी ना हो। कानून के सामने महिला हो या परुष, दोनों के लिये अगर बराबरी है तो कानून भी ऐक जैसे होने चाहियें।

अब तो महिलाओं, दलितों और अल्प-संख्यकों को नौकरी या किसी भी तरह की मदद देने से पहले लोग दस बार सोच कर इनकार ही करें गे। बुद्धिमानी भी इसी में है कि सिर दर्द क्यों लिया जाये।

महिला, दलित या अल्प-संख्यक आयोगों का भी कोई काम नहीं जो अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार दखल देते हैं। केवल पुलिस प्रशामन और कोर्ट सक्षम होने चाहियें।

मीडिया का काम केवल खबर देने तक का होना चाहिये उस पर बहस या राय देने का नहीं। अगर खबर तथ्यों पर नहीं तो मीडिया की भी कानून के सामने अपराधी जैसी जवाबदारी होनी चाहिये।

हमारे मीडिया को सनसनीखेज़ भाषा में बहस करने और ढोल पीटने के लिये ऐक मुद्दा और मिल चुका है – “ सावधानी हटी तो पिटाई घटी – ऐफ आई आर हुयी तो… सोच लीजिये…बस सोचते ही रह जाओ गे। बिना पिटे जीना है तो जाग जाईये – चैन से रहना है तो कहीं भाग जाईये। ”

चांद शर्मा

24 – हिन्दू समाज और महिलायें


हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों का मान सम्मान भी देवता के समान ही होता है और उन्हें केवल विलास का निमित मात्र नहीं समझा जाता। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है तथा उन के सम्मान में भी मन्त्र और श्लोक कहे जाते हैं। देवियों को भी उन के पतियों की भान्ति वरदान तथा श्राप देने का अधिकार भी प्राप्त है।

हिन्दू समाज में स्त्रियों के विशिष्ट स्थान को दर्शाने के लिये मनुस्मृति का निम्नलिखित श्लोक पर्याप्त हैः- 

                यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

                          यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनु स्मृति 3-56)

जिस कुल में स्त्रीयाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रीयों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञानदि कर्म निष्फल होते हैं।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

आदि काल से ही सभी देशों और समाजों में स्त्रियां आँतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते चले आ रहे हैं। हिन्दू समाज में वैदिक काल से ही स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त रही है। वह अपने व्यक्तित्व के विकास के लिये पुरुषों के समान वैदिक पठन पाठन, मनोरंजन के लिये संगीत, नृत्य, और चित्रकला आदि का अभ्यास कर सकती थीं। शास्त्र पठन के इलावा स्त्रियाँ अपनी सुरक्षा के लिये शस्त्र विद्या में भी निपुण हो सकती थीं। वह अध्यात्मिक उन्नति के लिये सन्यासाश्रम में भी रह सकती थीं। स्वतन्त्र आर्थिक निर्भरता के लिये कोई  सा भी व्यवसाय अपने लिये चुन सकती थीं। अपनी रुचि अनुसार अध्यापन, चिकित्सा, नाटक, गणित, खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अपना योगदान दे सकती थीं और समय पड़ने पर रानी कैकेयी की तरह अपने पति दशरथ के साथ युद्ध क्षेत्र में सहयोग भी कर सकती थीं। गृहस्थ अथवा संन्यास आश्रम में पति के साथ वनों में भी रह सकती थीं। सीता, अहिल्लया, अरुन्धाती, गार्गी, सावित्री, अनुसूईया आदि कई उल्लेखनीय स्त्रियों के नाम गिनाये जा सकते हैं जिन्हों ने विविध क्षेत्रों में अपना योग दान दिया है।

समाज में स्त्रियों के कल्याण के महत्व को समाजशास्त्र के जनक मनु महाराज ने इस प्रकार उजागर किया हैः-

                शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।

                          न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। (मनु स्मृति 3-57)

जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है।

हिन्दू समाज की तुलना में अन्य समुदायों, धर्मों, सभ्यताओं और देशों में स्थिति पूर्णत्या इस के उलट है। वहाँ स्त्रियों को केवल मनोरंजन और विलास का साधन मान कर हरम के पर्दे के पीछे ही रखा जाता रहा है। उन्हें पुरुषों के समान विद्या पढ़ने से वँचित किया जाता है। और तो और वह सार्वजनिक तौर पर पूजा पाठ भी नहीं कर सकतीं। असमानतायें यहाँ तक हैं कि न्याय क्षेत्र में स्त्रियों की गवाही को पुरूषों के विरुध स्वीकारा भी नहीं जाता।

विवाहित सम्बन्ध

हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष का विवाहित सम्बन्ध केवन सन्तान उत्पति के लिये ही नहीं, बल्कि समस्त धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में योग दान देने के लिये होता है। कोई भी यज्ञ या अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। इसी लिये पत्नी को धर्मपत्नी कह कर सम्बोधित किया जाता है। अन्य समाजों में प्रेमिका से विवाह करने का प्राविधान केवल शारीरिक सम्बन्धों का अभिप्राय प्रगट करता है किन्तु हिन्दू समाज में ‘जिस से विवाह करो-उसी से प्रेम करो’ का सिद्धान्त कर्तव्यों तथा अध्यात्मिक सम्बन्धों का बोध कराता है। हिन्दू धर्म में सम्बन्ध-विच्छेद (डाइवोर्स) का कोई प्रावधान नहीं। विवाह जीवन-मरण का साथ होता है और व्यवसायिक सम्बन्ध ना हो कर कई जन्मों का धर्मप्रायण सम्बन्ध होता है। 

पति-पत्नि के अतिरिक्त विवाह के माध्यम से दो परिवारों के कई सदस्यों का समबन्ध भी जुडता है और समाज संगठित होता जाता है। विवाह की सफलता के लिये जरूरी है कि वर तथा वधु के बीच शरीरिक, वैचारिक, आर्थिक तथा सामाजिक रहनसहन में ऐकीकरण हो। थोडी बहुत ऊँच-नीच की कमी धैर्य, सहनशीलता, परिवर्तनशीलता आदि से पूरी करी जा सकती है किन्तु अगर विरोधाभास बहुत ज्यादा हों तो वैवाहिक जीवन और परिवारिक सम्बन्ध असंतोषजनक होते हैं। इसी लिये भावावेश में केवल सौन्दर्य या किसी ऐक पक्ष से प्रभावित होकर वर-वधु के आपस में विवाह करने के बजाये हिन्दू समाज में अधिकतर माता पिता ही यथार्थ तथ्यों की जाँच कर के ही अपनी सन्तान का विवाह संस्कार करवाते हैं। इसे ही जातीय विवाह या अरैंजड मैरिज  कहते हैं। इसी कारण हिन्दू समाज में तलाक आदि बहुत कम होते हैं।

स्वयंवर प्रथा 

हिन्दू कन्याय़ें प्राचीन काल से ही स्वयंवर प्रथा के माध्यम से अपने लिये वर का चुनाव करती रही हैं। उन्हें भरे बाजार नीलाम नहीं किया जाता था। साधारणतया माता पिता ही अपनी सन्तान का विवाह संस्कार करवाते हैं परन्तु कन्याओं को रीति रिवाज रहित गाँधर्व विवाह करने की अनुमति भी रही है जिस को हिन्दू समाज ने मान्यता प्राचीन काल से ही दी हुयी है। आज कल के परिवेश में इसे लव-मेरिज कहा जाता है। किन्तु हिन्दू समाज में निर्लज्जता अक्ष्म्य है। निर्लज औरत को शूर्पणखा का प्रतीक माना जाता है फिर चाहे वह परम सुन्दरी ही क्यों ना हो। सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करने वाली स्त्री का जीवन सरल नहीं है। इस तथ्य को रामायण की नायिका सीता के संदर्भ में भी देखा जा सकता है जिसे आदर्श पत्नी होते हुये भी केवल एक अपरिचित सन्यासी रूपी रावण को भिक्षा देने के कारण परिवार की मर्यादा का उल्लंधन करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी और परिवार में पुनः वापिस आने के लिये अग्नि परीक्षा से उत्तीर्ण होना पड़ा था।

अन्तर्जातीय विवाह

हिन्दू इतिहास में अन्तर्जातीय विवाहों का चलन भी रहा है। वेदों के संकलन कर्ता महा ऋषि वेद व्यास अवैवाहित मछवारी कन्या सत्यवती, और पिता ऋषि पराशर की सन्तान थे। इसी सत्यवती से कालान्तर कुरु वंश के क्षत्रिय राजा शान्तनु ने विवाह किया था। शान्तनु की पहली पत्नी गंगा से उन के पुत्र भीष्म थे जिन्हों  स्वेच्छा से प्रतिज्ञा कर के हस्तिनापुर के सिंहासन का त्याग कर दिया था ताकि सत्यवती से उत्पन्न पुत्र उत्तराधिकारी बन सके।

ब्राह्मण दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवय्यानी का विवाह क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था। इसी प्रकार ब्राह्मण कन्या शकुन्तला का विवाह भी क्षत्रिय राजा दुष्यन्त से हुआ था। पाँडू पुत्र भीम का विवाह राक्षसी कन्या हिडम्बा से, अर्जुन का विवाह यादव वँशी सुभद्रा तथा नाग कन्या उलूपी के साथ हुआ था।

गृह लक्ष्मी की प्रतिमूर्ति

परिवार ही ऐसी संस्था है जो समाज के विकास को आगे बढ़ाती है। परिवार में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक तथा केन्द्रीय है। हिन्दू परिवारों में कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है। उस की छवि गृह लक्ष्मी, आदर्श सहायिका तथा आदर्श संरक्षिता की है। भारतीय स्त्रियों के आदर्श ‘लैला ’ और ‘ज्यूलियट’ के बजाय सीता, सावित्री, गाँधारी, दमयन्ती के चरित्र रखे जाते है। प्रतीक स्वरूप स्त्रियां अपने चरित्र निर्माण के लिये समृद्धि रूपणी लक्ष्मी, विद्या रूपणी सरस्वती या फिर वीरता रूपणी दुर्गा की छवि को कीर्तिमान बना सकती हैं। हमारे इतिहासों में कई शकुन्तला, सीता तथा जीजाबाई जैसी महिलाओं के उल्लेख हैं जिन्हों ने अपने पति से बिछुडने के पश्चात कठिनाइयों में अकेले रह कर भी अपनी सन्तानों को ना केवल पाला, बल्कि उन का मार्ग दर्शन कर के उन्हें वीरता का पाठ भी पढाया।

इस संदर्भ में शर्म की बात है कि आज भारत में मदर्स डे मनाने के लिये हमारी युवा पीढी भारत की आदर्श महिलाओं को भुला कर किसी अनजानी और अनामिक विदेशी ‘मदर को ही प्रतीक मान पाश्चात्य देशों की भेड चाल में लग रही है। वास्तविक मदर्स डे तो अपनी माता की जन्म तिथि होनी चाहिये। 

प्राकृतिक असमानतायें 

हिन्दू मतानुसार स्त्री-पुरुष दोनो के जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति के साधन भी दोनो के लिये समान हैं। जीवन शैली में पवित्रता, आत्म-नियन्त्रण, आस्था तथा सातविक्ता का होना स्त्री पुरुष दोनो के लिये आवश्यक है। किन्तु हिन्दू समाज स्त्री पुरुष के शरीर की प्राकृतिक विभिन्नताओं के प्रति भी जागरूक है। दोनो के बीच जो मानसिक तथा भावनात्मिक अन्तर हैं उन को भी समझा है। स्त्रियों के शरीर का प्रत्येक अंग उन विषमताओं का प्रगटीकरण करता है। उन्हीं शरीरिक, मानसिक तथा भावनात्मिक असमानताओं पर विचार कर के स्त्री-पुरुषों के लिये अलग अलग कार्य क्षेत्र तथा आचरण का प्रावधान किया गया है। 

प्रतिदून्दी नहीं, जीवन संगिनी 

समस्त विश्व में स्त्री पुरुष के आपसी कर्तव्यों में एक परम्परा रही है जिस के फलस्वरूप पुरुष साधन जुटाने का काम करते रहै हैं और स्त्रियाँ साधनों के सदोप्योग का कार्य भार सम्भालती रही हैं। आजकल पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण कुछ लोग स्त्री-पुरुषों में लैंगिक समान्ता का विवाद खडा कर के विषमता पैदा कर रहै हैं। वह इसलिये भ्रम पैदा कर रहै हैं ताकि भारतीय महिलायें पाश्चात्य संस्कृति को अपना लें। स्त्रियाँ पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करें और प्रतिदून्दी की तरह अपना अधिकार माँगें। स्त्रियाँ सहयोगिनी बनने के बजाय उन की प्रतिदून्दी बन जायें और हिन्दू समाज में परिवार की आधार शिला ही कमजोर हो जाये।

समझने की बात यह है कि जो अल्ट्रा-माडर्न स्त्रियाँ दूसरों को भड़काती हैं वह भी जब अपने लिये वर चुनती हैं तो अपनी निजि क्षमता से उच्च पति ही अपने लिये खोजती हैं। कोई भी कन्या अपने से कम योग्यता या क्षमता वाले व्यक्ति को अपना पति नहीं चुनती। उन की यही आकांक्षा ही उन की ‘फ्रीडम ’ के खोखलेपन को प्रमाणित करती है।

पाश्चात्य संस्कृति का असर

पाश्चात्य संस्कृति के भ्रमात्मिक प्रभाव के कारण हिन्दू समाज में कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। कहीं कहीं कुछ हिन्दू महिलायें अपने प्राकृतिक तथा परम्परागत कर्तव्यों से भटक कर अपने लिये नयी पहचान बनाने में जुट गयी हैं। वह घरों में रह कर केवल संतान उत्पन्न करने का निमित मात्र नहीं बनना चाहतीं बल्कि निजि उन्नति और पहचान के मार्ग ढूंड रही हैं जिस के कारण होटल उन के घरों का विकलप बन गये हैं। आर्थिक स्वालम्बन की चाह में स्त्रियाँ नौकरी के लिये घरों से बाहर निकल पडी हैं और घरों का जीवन तनाव तथा थकान पूर्ण बन गया है। घरों में ऐक अशान्ति, अनिशचिता तथा असुरक्षा का वातावरण उभर रहा है। छोटे बच्चे जन्म से ही माता के वात्सल्य के अभाव के कारण निरंकुश और स्वार्थी हो रहे हैं। उन की देख भाल का जिम्मा क्रैश हाउस   या ‘आया’ के ऊपर होने से संताने संस्कार हीन हो रही हैं ।

जो हिन्दू स्त्रियां अपने प्राकृतिक स्वभाव के साथ खिलवाड कर रही हैं उन्हें सत्यता जानने के लिये कहीं दूर जाने की आवशक्ता नहीं। अपने पडोस में ही देखने से पता चल जाये गा। जिन घरों में महिलायें अपनी सन्तान को क्रैश हाउस  या नौकरों के सहारे छोड कर पाल रही हैं, उन के बच्चे वात्सल्य के अभाव में स्वार्थी, असंवेदनशील, असुरक्षित तथा विक़ृत व्यक्तित्व में उभर रहे हैं। इस के विपरीत जहां सन्तानों को मातृत्व का संरक्षण प्राप्त है वहाँ बच्चे सभी प्रकार से विकसित हो रहे हैं। आप के होंठ भले ही इस सच्चाई को मानने की हिम्मत ना जुटा पायें किन्तु आप की अन्तरात्मा इस तथ्य को अवश्य ही स्वीकार कर ले गी।         

समस्या का समाधान अपनी पुरानी परम्पराओं की तरफ लौटने में है। महिलाओं की शिक्षा उन के प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप ही होनी चाहिये। नारी शक्ति सर्जन तथा संरक्षण के लिये है धन कमाने के लिये नहीं। 

आज भारत की महिलायें चाहें तो संसद का सभी सीटों के लिये निर्वाचन में भाग ले सकती हैं। विश्व के कई देशों की महिलायें आज भी इस अधिकार से वँचित हैं। लेकिन आज भारत में ही लिंग भेद के आधार पर महिलाओं को निर्वाचित पदों पर आरक्षण दे कर संसद में बैठाने की योजना बन रही है जो देश, समाज, और परीवार के लिये घातक होगी। ऐक तरफ हमारी संसद कुछ राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बन कर रिमोट कन्ट्रोल के सहारे चले गी तो दूसरी ओर परिवारों के अन्दर प्रतिस्पर्धा के साथ साथ अशान्ति बढती जाये गी।

रिमोट कन्ट्रोल का प्रत्यक्ष प्रमाण तो हम देख रहै हैं। हमारे देश की सत्ता ऐक मामूली अंग्रेजी पढी विदेशी मूल की स्त्री के हाथ में है जो हमारे देश पर कुछ गिने चुने स्वार्थी राजनौतिक चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है। उसी के सामने भारत की माडर्न युवतियाँ आरक्षण मांग रही हैं ताकि भारतीय वीरांग्नाओं की माडर्न पीढी अपने देश में स्त्री-पुरूष समानता का स्वाद चख सके। इस से अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है। हमारी किसी भी माडर्न युवती में यह साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर इटली के शासन तन्त्र में कोई महत्वपूर्ण पद ग्रहण कर सके। आज भारत की युवा महिलायें अपने आदर्शों को भूल कर लव-जिहाद का शिकार बन कर अपने और अपने परिवारों के जीवन में विष घोल बैठती हैं।

पाशचात्य देशों में स्त्री पुरुष दोनो अपनी निजि रुचि अनुसार चलते हैं तो वैवाहिक जीवन अस्थिर और तनाव पूर्ण है। इस्लामी देशों में स्त्री का अस्तित्व गाडी के पाँचवें टायर जैसा है लेकिन हिन्दू समाज में घर के अन्दर स्त्री प्रधानता है और बाहर पुरुष की। अब अपना रास्ता चुनने के लिये नतीजे प्रत्यक्ष हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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