हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

71 – ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति


इस समय देश की राजसत्ता खोखले आदर्शवादी राजनैताओं के हाथ में है जो पूर्णत्या स्वार्थी हैं। उन से मर्यादाओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इन नेताओं को सभी जानते पहचानते हैं। उन का अस्तीतव कुछ परिवारों तक ही सीमित है। उन्हों ने अपने परिवारों के स्वार्थ के लिये अहिंसा और धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर हिन्दू विरोधी काम ही किये हैं और हिन्दूओं को देश की सत्ता से बाहर रखने के लिये ‘अनैतिक ऐकजुटता’ बना रखी है। अब प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि  वह किसी दूसरे पर अहसान करने के लिये नहीं – बल्कि अपने देश, धर्म, समाज, राजनीति, नैतिक्ता और संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदाईत्व को निभाये ताकि हमारे पूर्वजों की पहचान मिटने ना पाये।

हिन्दू हित रक्षक सरकार

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने अपने देशद्रोही मखौटे को पूरी तरह से उतार कर यहाँ तक कह दिया है कि ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’, ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’, और ‘देश के साधनों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार है’। अब संशय के लिये कुछ भी नहीं बचा।

आज भारत को ऐक हिन्दू हित रक्षक सरकार की आवश्क्ता है जो हमारी संस्कृति तथा मर्यादाओं को पुनर्स्थापित कर सके। हमारे अपने मौलिक ज्ञान के पठन-पाठन की व्यव्स्था कर सके तथा धर्म के प्रति आतंकवादी हिंसा को रोक कर हमारे परिवारों को सुरक्षा प्रदान कर सके। आत्म-निर्भर होने के लिये हमें अपनी मौलिक तकनीक का ज्ञान अपनी राष्ट्रभाषा में विकसित करना होगा। पूर्णत्या स्वदेशी पर आत्म-निर्भर होना होगा। अपने बचाव के लिये प्रत्येक हिन्दू को अब स्वयं-सक्ष्म (सैल्फ ऐम्पावर्ड) बनना होगा।

समय और साधन

हमारा अधिकांश समाज भी भ्रष्ट, कायर, स्वार्थी और दिशाहीन हो चुका है। चरित्रवान और सक्षम नेतृत्व की कमी है लेकिन भारत के लिये इमानदार तथा सक्ष्म नैताओं का आयात बाहर से नहीं किया जा सकता। जो उपलब्द्ध हैं उन्हीं से ही काम चलाना हो गा। हम कोई नया राजनैतिक दल भी नहीं खडा कर सकते जिस के सभी सदस्य दूध के धुले और इमानदार हों। इसलिये अब किसी वर्तमान राजनैतिक दल के साथ ही सहयोग करना होगा ताकि हिन्दू विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके। यदि वर्तमान हिन्दू सहयोगी दल नैतिकता तथा आदर्श की कसौटी पर सर्वोत्तम ना भी हो तो भी हिन्दू विरोधियों से तो अच्छा ही होगा।

हिन्दू राजनैतिक ऐकता

भारत में मिलीजुली सरकारें निरन्तर असफल रही हैं। वोट बैंक की राजनीति के कारण आज कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जो खुल कर ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का समर्थन कर सके। सभी ने धर्म-निर्पेक्ष रहने का ढोंग कर रखा है जिसे अब उतार फैंकवाना होगा। इसलिये हिन्दूओं के निजि अध्यात्मिक विचार चाहे कुछ भी हों उन्हें ‘राजनैतिक ऐकता’ करनी होगी। ऐक हिन्दू ‘वोट-बैंक’ संगठित करना होगा। इस लक्ष्य के लिये समानताओं को आधार मान कर विषमताओं को भुलाना होगा ताकि हिन्दू वोट बिखरें नहीं और सक्षम हिन्दू सरकार की स्थापना संवैधानिक ढंग से हो सकें जो संविधान में संशोधन कर के देश को धर्म हीन राष्ट्र के बदले हिन्दू-राष्ट्र में परिवर्तित कर सके।

  • सभी नागरिकों के लिये समान कानून हों और किसी भी अल्पसंख्यक या वर्ग के लिये विशेष प्रावधान नहीं होंने चाहियें।
  • जिन धर्मों का जन्म स्थली भारत नहीं उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर निजि धर्म प्रसार का अधिकार नहीं होना चाहिये। विदेशी धर्मों का प्रसारण केवल जन्मजात अनुयाईयों तक ही सीमित होना चाहिये। उन्हे भारत में धर्म परिवर्तन करने की पूर्णत्या मनाही होनी चाहिये।
  • अल्पसंख्यक समुदायों के संस्थानों में किसी भी प्रकार का राष्ट्र विरोधी प्रचार, प्रसार पूर्णत्या प्रतिबन्धित होना चाहिये।
  • देश के किसी भी प्रान्त को दूसरे प्रान्तों की तुलना में विशेष दर्जा नहीं देना चाहिये।
  • अल्पसंख्यकों के विदेशियों से विवाह सम्बन्ध पूर्णत्या निषेध होने चाहियें। किसी भी विदेशी को विवाह के आधार पर भारत की नागरिकता नहीं देनी चाहिये।
  • समस्त भारत के शिक्षा संस्थानों में समान पाठयक्रम होना चाहियें। पाठयक्रम में भारत के प्राचीन ग्रन्थों को प्रत्येक स्तर पर शामिल करना चाहिये।
  • जो हिन्दू विदेशों में अस्थाय़ी ढंग से रहना चाहें या सरकारी पदों पर तैनात हों उन्हें देश की संस्कृति का ज्ञान परिशिक्षण देना चाहिये ताकि वह देश की स्वच्छ छवि विदेशों में प्रस्तुत कर सकें।
  • देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से घुस पैठ करवाना तथा उस में सहयोग करने पर आरोपियों को आजीवन कारवास अथवा मृत्यु दण्ड देने का प्रावघान होना चाहिये। निर्दोषता के प्रमाण की जिम्मेदारी आरोपी पर होनी चाहिये।

धर्म गुरूओं की जिम्मेदारी

संसार में आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, तथा राजनैतिक घटनाओं के प्रभावों से कोई वर्ग अछूता नहीं रह सकता। संन्यासियों को भी जीने के लिये कम से कम पचास वस्तुओं की निरन्तर अपूर्ति करनी पडती है। धर्म गुरूओं की भी समाज के प्रति कुछ ना कुछ जिम्मेदारी है।यदि वह निर्लेप रह कर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते तो उन्हें भी हिन्दू समाज से नकार देना ही धर्म है।

धार्मिक संस्थानों की व्यवस्था – आर्थिक दृष्टि से कई धर्म गुरू सम्पन्न और सक्षम हैं। अतः उन्हें राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के लिये सार्वजनिक स्थलों के समीप धर्म ग्रंथों के पुस्तकालय, व्यायाम शालायें, योग केन्द्र, तथा स्वास्थ केन्द्र अपने खर्चे पर स्थापित करनें चाहियें। जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक मन्दिर और सार्वजनिक स्थल को इन्टरनेट के माध्यम से दूसरे मन्दिरों से जोडना चाहिये। मन्दिरों और धार्मिक संस्थानों का नियन्त्रण अशिक्षित पुजारियों को बाजाय धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में ट्रस्ट दूारा होना चाहिये।

मन्दिरों की सुरक्षा –हमारे मन्दिर तथा पूजा स्थल सार्वजनिक जीवन के केन्द्र हैं परन्तु आज वह आतंकवादियों से सुरक्षित नहीं। सभी पूजा स्थलों और अन्य महत्वशाली स्थलों पर सशस्त्र सुरक्षा कर्मी ‘सिख सेवादारों’ की भान्ति रखने चाहियें। उन के पास आतंकवादियों के समक्ष हथियार, सम्पर्क साधन तथा परिशिक्षण होना आवश्यक हैं ताकि संकट समय सशस्त्र बलों के पहुँचने तक वह धर्म स्थल की, और वहाँ फँसे लोगों की रक्षा, स्वयं कर सकें। सशस्त्र बलों के आने के पश्चात, सेवादार उन के सहायक बन कर, अपना योगदान दे सकते हैं। सेवादारों की नियुक्ति, चैयन, परिशिक्षण, वेतन तथा अनुशासन तीर्थ स्थल के प्रशासक के आधीन होना चाहिये। इस व्यवस्था के लिये आर्थिक सहायता सरकार तथा संस्थान मिल कर करें और जरूरत पडने पर पर्यटकों पर कुछ प्रवेश शुल्क भी लगाने की अनुमति रहनी चाहिये। सेवादोरों की नियुक्ति के लिये भूतपूर्व सैनिकों तथा पुलिस कर्मियों का चैयन किया जा सकता है।

जन सुविधायें – हिन्दू तीर्थस्थलों के पर्यटन के लिये सुविधाओं, सबसिडी, और देश से बाहर हिन्दू ग्रन्थों इतिहास की शोघ के लिये परितोष्क की व्यव्स्था होनी चाहिये। हिन्दू ग्रन्थों पर शोध करने की सुविधायें प्रत्येक विश्वविद्यालय के स्तर तक उप्लब्द्ध करनी चाहिये। वर्तमान हज के प्रशासनिक तन्त्र का इस्तेमाल भारत के सभी समुदायों के लिये उपलब्द्ध होना चाहिये।

ऐतिहासिक पहचान – मुस्लिम आक्रान्ताओं दूारा छीने गये सभी हिन्दू स्थलों को वापिस ले कर उन्हें प्राचीन वैभव के साथ पुनः स्थापित करना चाहिये। अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिये सभी स्थलों और नगरों के वर्तमान नाम और पिन कोड के साथ प्राचीन नाम का प्रयोग अपने आप ही शुरु कर देना चाहिये ताकि हिन्दू समाज में जागृति आये।

दुष्प्रचार का खण्डन – मिशनरियें तथा अहिन्दू कट्टरपँथियों के दुष्प्रचार का खण्डन होना चाहिये। इस के साथ ही हिन्दू जीवन शैली के सार्थक और वैज्ञानिक आधार की सत्यता का प्रचार भी किया जाना चाहिये। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो हिन्दूओं की उप्लब्द्धियाँ विदेशियों ने हथिया लीं हैं उन पर अपना अधिकार जताना आवशयक है।

रीति-रिवाजों में सुधार – रीति-रिवाजों के बारे में अध्यात्मिक पक्ष की तुलना में यथार्थ पक्ष को महत्व दिया जाना चाहिये। व्याख्यानों दूारा अपने अनुयाईयों को हिन्दू जीवन शैली के साकारात्मक पक्ष और दैनिक जीवन में काम आने वाली राजनीति पर बल देना चाहिये ताकि अध्यात्मिक्ता के प्रभाव में अनुयाई निषक्रिय हो कर ना बैठ जायें। जिस प्रकार नैतिकता के बिना राजनीति अधर्म और अनैतिक होती है उसी प्रकार कर्महीन धर्म भी अधर्म होता है।

हिन्दू जननायकों का सम्मान– हिन्दू आदर्शों के सभी जन नायकों का सम्मान करने के लिये उन के चित्र घरों, मन्दिरों, तथा सार्वजनिक स्थलों पर लगाने चाहियें। मन्दिरों में इस प्रकार के चित्र देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलग प्रवेश दूारों पर लगाने चाहियें ताकि वह किसी की आस्थाओं के विरुद्ध ना हो और ध्यानाकर्ष्क भी रहैं।

नेतृत्व कौन करे ?

प्रश्न उठता है हिन्दूवादी संगठन कौन करे गा? हिन्दूराष्ट्र बनाने के लिये हिन्दूवादी कहाँ से आयें गे ? अगर आप का उत्तर है कि “वह वक्त आने पर हो जाये गा” या “हम करें गे” तो वह कभी नहीं सफल होगा। आजकल ‘हम’ का अर्थ ‘कोई दूसरा करे गा’ लगाया जाता है और हम उस में अपने आप को शामिल नहीं करते हैं। इस लिये अब सच्चे देश भक्तों को कर्मयोगी बन कर यह संकलप करना होगा कि “यह संगठन मैं करूँ गा और देश की पहली हिन्दूवादी इकाई मैं स्वयं बन जाऊँ गा”। अपनी सोच और शक्ति को ‘हम’ से “मैं” पर केन्द्रित कर के इसी प्रकार से आगे भी सोचना और करना होगा। “अब मुझे किसी दूसरे के साथ आने का इन्तिजार नहीं है। मुझे आज से और अभी से करना है – अपने आप को हिन्दू-राष्ट्र के प्रति समर्पित इकाई बनाना है। सब से पहले अपनी ही सोच और जीवन शैली को बदलना है। मुझे ही मन से, वचन से और कर्म से सच्चा हिन्दूवादी बनना है।”केवल यही मानस्किता हिन्दूवादियों को संगठित कर सकती है जो हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करें गे। दूसरों को उपदेश देने से कुछ नहीं होगा।

कर्म ही धर्म है

“मेरा इतिहास मुझे बार बार चेतावनी देता रहा है कि कायर, शक्तिहीन तथा असमर्थ लोगों का जीवन मृत्यु से भी बदतर और निर्थक होता है। बनावटी धर्म-निर्पेक्षता का नाटक बहुत हो चुका। भारत हिन्दू प्रधान देश है और वही रहै गा। मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। भारत मेरा देश है मैं इसे किसी दूसरे को हथियाने नहीं दूँ गा।”

“स्वदेश तथा अपने घर की सफाई के लिये मुझे अकेले ही सक्रिय होना है। कोई दूसरा मेरे उत्थान के लिये परिश्रम नहीं करे गा। हिन्दूवादी सरकार चुनने का अवसर तो मुझे केवल निर्वाचन के समय ही प्राप्त होगा किन्तु कई परिवेश हैं जहाँ मैं बिना सरकारी सहायता और किसी सहयोगी के अकेले ही अपने भविष्य के लिये बहुत कुछ कर सकता हूँ। मेरे पास समय अधिक नहीं है। मैं कई व्यक्तिगत निर्णय तुरन्त क्रियात्मक कर सकता हूँ। प्रत्येक निर्णय मुझे हिन्दूराष्ट्र की ओर ले जाने वाली सीढी का काम करे गा – जैसे किः-

  • “अपने निकटतम हिन्दू संगठन से जुड कर कुछ समय उन के साथ बिताऊँ ताकि मेरा मानसिक, बौधिक और सामाजिक अकेलापन दूर हो जाये। मेरे पास कोई संगठन न्योता देने नहीं आये गा, मुझे स्वयं ही संगठन में आपने आप जा कर जुडना है”।
  • “अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को सीखूं, अपनाऊँ और फैलाऊँ। जब ऐक सौ करोड लोग इसे मेरे साथ इस्तेमाल करें गे तो अन्तर्राष्ट्रीय भाषा हिन्दी ही बने गी। मुझे अपने पत्रों, लिफाफों, नाम प्लेटों में हिन्दी का प्रयोग करना है। मैं अंग्रेजी का इस्तेमाल सीमित और केवल अवश्यकतानुसार ही करूं गा ” ।
  • “मुझे किसी भी स्वार्थी, भ्रष्ट, दलबदलू, जातिवादी, प्रदेशवादी, अल्पसंखयक प्रचारक और तुष्टिकरण वादी राज नेता को निर्वाचन में अपना वोट नहीं देना है और केवल हिन्दू वादी नेता को अपना प्रतिनिधि चुनना है”।
  • “मुझे उन फिल्मों, व्यक्तियों और कार्यों का बहिष्कार करना है, जो मेरे ही धन से, कला और वैचारिक स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू विरोधी गतिविधियाँ करते हैं ”।
  • “मुझे जन्मदिन, विवाह तथा अन्य परिवारिक अवसरों को हिन्दू रीति रिवाजों के साथ आडम्बर रहित सादगी से मनाना है और उन्हें विदेशीकरण से मुक्त रखना है ”।
  • “जन-जागृति के लिये पत्र पत्रिकाओं तथा अन्य प्रचार स्थलों में लेख लिखूँ गा, और दूसरे साथियों के विचारों को पढूँ गा। हिन्दूओं के साथ अधिक से अधिक मेल-जोल करने के लिये मैं स्वयं अपने निकटतम घरों, पार्को, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर जा कर उन में दैनिक जीवन के सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों पर विचार-विमर्श करूँ गा”।
  • “मैं अपने देश में किसी भी अवैध रहवासी अथवा घुस पैठिये को किसी प्रकार की नौकरी य़ा किसी प्रकार की सहायता नहीं दूंगा। मैं अवैध मतदाताओं के सम्बन्ध में पुलिस तथा स्थानीय निर्वाचन आयुक्त को सूचित करूं गा ताकि उन के नाम सूची से काटे जा सकें ”।
  • “अपने निजी जीवन में उपरोक्त बातों को अपनाने का भरसक और निरन्तर प्रयत्न करते रहने के साथ साथ अपने जैसा ही कम से कम ऐक और सहयोगी अपने साथ जोडूँगा ताकि मैं अकेला ही ऐक से ग्यारह की संख्या तक पहुँच सकूँ”।

संगठित प्रयास

जब ऐक से ग्यारह की संख्या हो जाये तो समझिये आपका संगठन तैय्यार हो गया। यह संगठित टोली अब आगे भी इस तरह अपने आप को मधुमक्खी के छत्ते की तरह अन्य टोलियों के साथ संगठित कर के अपना विस्तार और सम्पर्क तेजी से कर सकती है।

धर्म रक्षा का मौलिक अधिकार

सभी देशों में नागरिकों को अधिकार है कि वह निजि जीवन में पडने वाली बाधाओं को स्वयं दूर करने का प्रयत्न करें। अपने देश को बचाने के लिये हिन्दू युवाओं की यही संगठित टोलियाँ ऐक जुट हो कर अन्य नागरिकों, नेताओं और धर्म गुरुओं का साथ प्रभावशाली सम्पर्क बना सकती हैं।

धर्मान्तरण करवाने वाले पादरियों को गली मुहल्लों से पकड कर पुलिस के हवाले करना चाहिये। उसी प्रकार आतंकवादियों और उन के समर्थकों तथा अन्य शरारती तत्वों को पकड कर पुलिस को सौंप देना चाहिये। यदि कोई लेख, चित्र, या कोई अन्य वस्तु हिन्दू भावनाओं का तिरस्कार करने के लिये सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करी जाती है तो उसे आरोपी से छीन कर नष्ट कर देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य तथा अधिकार है।

आपसी सम्पर्क के लिये मंथन और चिन्तन बैठकें करते रहना चाहिये। अपने निकट के वातावरण में दैनिक प्रतिरोधों, दूषित परम्पराओं तथा बाधाओं का निस्तारण स्वयं निर्णय कर के करते रहना चाहिये और अपना स्थानीय प्रभुत्व स्थापित करना चाहिये। अपने प्रति होने वाली शरारत का उनमूलन समस्या के पनपने और रिवाज की भान्ति स्थाय़ी रूप लेने से पहले ही कर देना उचित है।

अधिकाँश लोगों को हमारे वातावरण में हिन्दू विरोधी खतरों की जानकारी ही नहीं है। लेकिन जब हमारा घर प्रदूषित और मलिन हो रहा है तो रोने चिल्लाने के बजाये उसे सुधारने के लिये हमें स्वयं कमर कसनी होगी और अकेले ही पहल करनी होगी। दूसरे लोग अपने आप सहयोग देने लगें गे। इसी तरह से जनान्दोलन आरम्भ होते हैं। वर्षा की बून्दों से ही सागर की लहरे बनती हैं जिन में ज्वार आने से उन की शक्ति अपार हो जाती है। हमें हिन्दू महासागर को पुनः स्वच्छ बून्दों से भरना है। हिन्दू स्व-शक्ति जागृत करने के लिये किसी अवतार के चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करनी है।

निस्संदेह प्रत्येक हिन्दू से निष्ठावादी हिन्दू बन जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। कुछ अंश मात्र कृत्घन, कायर तथा गद्दार हिन्दू स्दैव भारत में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये विरोध करते रहैं गे। परन्तु उन से निराश होने की कोई जरूरत नहीं। संगठित और कृतसंकल्प टोली के सामने असंगठित और कायर भीड की कोई क्षमता नहीं होती। हिन्दू महासागर की लहरें महासुनामी का ज्वार बन कर देश के प्रदूष्ण को बहा ले जायें गी।

चाँद शर्मा

70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

67 – अलगावादियों का संरक्षण


बटवारे पश्चात का ऐक कडुआ सच यह है कि भारत को फिर से हडपने की ताक में अल्पसंख्यक अपने वोट बैंक की संख्या दिन रात बढा रहै हैं। मुस्लिम भारत में ऐक विशिष्ट समुदाय बन कर शैरियत कानून के अन्दर ही रहना चाहते हैं। इसाई भारत को इसाई देश बनाना चाहते हैं, कम्यूनिस्ट नक्सली तरीकों से माओवाद फैलाना चाहते हैं और पाश्चात्य देश बहुसंख्यक हिन्दूओं को छोटे छोटे साम्प्रदायों में बाँट कर उन की ऐकता को नष्ट करना चाहते हैं ताकि उन के षटयन्त्रों का कोई सक्षम विरोध ना कर सके। महाशक्तियाँ भारत को खण्डित कर के छोटे छोटे कमजोर राज्यों में विभाजित कर देना चाहती हैं। 

स्दैव की तरह अस्हाय हिन्दू

भारत सरकार ‘संगठित अल्पसंख्यकों’ की सरकार है जो ‘असंगठित हिन्दू जनता’ पर शासन करती है। सरकार केवल अल्पसंख्यकों के हित के लिये है जिस की कीमत बहुसंख्यक चुकाते रहै हैं। 

विभाजन के पश्चात ही काँग्रेस ने परिवारिक सत्ता कायम करने की कोशिश शुरू कर दी थी जिस के निरन्तर प्रयासों के बाद आज इटली मूल की ऐक साधारण महिला शताब्दियों पुरानी सभ्यता की सर्वे-सर्वा बना कर परोक्ष रूप से लूट-तन्त्री शासन चला रही है। यह सभी कुछ अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण दूारा संगठित कर के किया जा रहा है। राजनैतिक मूर्खता के कारण अपने ही देश में असंगठित हिन्दू फिर से और असहाय बने बैठे हैं।

‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धान्त अनुसार ईस्ट ईण्डिया कम्पनी ने स्वार्थी राजे-रजवाडों को ऐक दूसरे से लडवा कर राजनैतिक सत्ता उन से छीन ली थी। आज अधिकाँश जनता को ‘गाँधी-गिरी’ के आदर्शवाद, नेहरू परिवार की ‘कुर्बानियों’ और योजनाओं के कागजी सब्ज बागों, तथा अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण से बहला फुसला कर उन्हे हिन्दू विरोधी बनाया जा रहा है ताकि देश का इस्लामीकरण, इसाईकरण, या धर्म-खण्डन किया जा सके। हमेशा की तरह हिन्दू आज भी आँखें मूंद कर ‘आदर्श पलायनवादी’ बने बैठे हैं जब कि देश की घरती उन्हीं के पाँवों के नीचे से खिसकती जा रही है। देश के संसाधन और शासन तन्त्र की बागडोर अल्प संख्यकों के हाथ में तेजी से ट्रांसफर होती जा रही है।

भारत के विघटम का षटयन्त्र

खण्डित भारत, मुस्लिमों, इसाईयों, कम्यूनिस्टों तथा पाशचात्य देशों का संजोया हुआ सपना है। हिन्दू विरोधी प्रसार माध्यम अल्पसंख्यकों को विश्व पटल पर ‘हिन्दू हिंसा’ के कारण ‘त्रासित’ दिखाने में देर नहीं करते। अल्पसंख्यकों को विदेशी सरकारों से आर्थिक, राजनैतिक और कई बार आतंकवादी हथियारों की सहायता भी मिलती है किन्तु काँग्रेसी राजनेता घोटालों से अपना भविष्य सुदृढ करने के लिये देश का धन लूटने में व्यस्त रहते हैं। 

विदेशी आतंकवादी और मिशनरी अब अपने पाँव सरकारी तन्त्र में पसारने का काम कर रहै हैं। विदेशी सहायता से आज कितने ही नये हिन्दू साम्प्रदाय भारत में ही संगठित हो चुके हैं। कहीं जातियों के आधार पर, कहीं आर्थिक विषमताओं के आधार पर, कहीं प्राँतीय भाषाओं के नाम पर, तो कहीं परिवारों, व्यक्तियों, आस्थाओं, साधू-संतों और ‘सुधारों’ के नाम पर हिन्दूओं को उन की मुख्य धारा से अलग करने के यत्न चल रहै हैं। इस कार्य के लिये कई ‘हिन्दू धर्म प्रचारकों’ को भी नेतागिरी दी गयी है जो लोगों में घुलमिल कर काम कर रहै हैं। हिन्दू नामों के पीछे अपनी पहचान छुपा कर कितने ही मुस्लिम और इसाई मन्त्री तथा वरिष्ठ अधिकारी आज शासन तन्त्र में कार्य कर रहै हैं जो भोले भाले हिन्दूओं को हिन्दू परम्पराओं में ‘सुधार’ के नाम पर तोडने की सलाह देते हैं।

देशों के इतिहास में पचास से सौ वर्ष का समय थोडा समय ही माना जाता है। भारत तथा हिन्दू विघटन के बीज आज बोये जा रहै हैं जिन पर अगले तीस या पचास वर्षों में फल निकल पडें गे। इन विघटन कारी श्रंखलाओं के आँकडे चौंकाने वाले हैं। रात रात में किसी अज्ञात ‘गुरू’ के नाम पर मन्दिर या आश्रम खडे हो जाते हैं। वहाँ गुरू की ‘महिमा’ का गुण गान करने वाले ‘भक्त’ इकठ्टे होने शुरू हो जाते हैं। विदेशों से बहुमूल्य ‘उपहार’  आने लगते हैं। इस प्रकार पनपे अधिकाँश गुरू हिन्दू संगठन के विघटन का काम करने लगते हैं जिस के फलस्वरूप उन गुरूओं के अनुयायी हिन्दूओं की मुख्य धारा से नाता तोड कर केवल गुरू के बनाय हुये रीति-रिवाज ही मानने लगते हैं और विघटन की सीढियाँ तैय्यार हो जाती हैं। 

मताधिकार से शासन हडपने का षटयन्त्र

अधिकाँश हिन्दू मत समुदायों में बट जाते है, परन्तु अल्पसंख्यक अपने धर्म स्थलों पर ऐकत्रित होते हैं जहाँ उन के धर्म गुरू ‘फतवा’ या ‘सरमन’ दे कर हिन्दू विरोधी उमीदवार के पक्ष में मतदान करने की सलाह देते हैं और हिन्दूओं को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो जाते हैं। शर्म की बात है ‘प्रजातन्त्र’ होते हुये भी आज हिन्दू अपने ही देश में, अपने हितों की रक्षा के लिये सरकार नहीं चुन सकते। अल्पसंख्यक जिसे चाहें आज भारत में राज सत्ता पर बैठा सकते हैं।

स्वार्थी हिन्दू राजनैता सत्ता पाने के पश्चात अल्पसंख्यकों के लिये तुष्टिकरण की योजनायें और बढा देते हैं और यह क्रम लगातार चलता रहता है। वह दिन दूर नहीं जब अल्पसंख्यक बहुसंख्यक बन कर सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार बना ले गे। हिन्दू गद्दारों को तो ऐक दिन अपने किये का फल अवश्य भोगना पडे गा किन्तु तब तक हिन्दूओं के लिये भी स्थिति सुधारने की दिशा में बहुत देर हो चुकी होगी।

अल्पसंख्यक कानूनों का माया जाल

विश्व के सभी धर्म-निर्पेक्ष देशों में समान सामाजिक आचार संहिता है। मुस्लिम देशों तथा इसाई देशों में धार्मिक र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में वैसा कुछ भी नहीं है। ‘धर्म के आधार पर’ जब भारत का विभाजन हुआ तो यह साफ था कि जो लोग हिन्दुस्तान में रहें गे उन्हें हिन्दु धर्म और संस्कृति के साथ मिल कर र्निवाह करना होगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का भेद मिटाने के लिये भारत की समान आचार संहिता का आधार भारत की प्राचीन संस्कृति पर ही होना चाहिये था।

मुस्लिम भारत में स्वेच्छा से रहने के बावजूद भी इस प्रकार की समान आचार संहिता के विरुद्ध हैं। उन्हें कुछ देश द्रोही हिन्दू राजनेताओं का सहयोग भी प्राप्त है। अतः विभाजन के साठ-सत्तर वर्षों के बाद भी भारत में सभी धर्मों के लिये अलग अलग आचार संहितायें हैं जो उन्हे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों में बाँट कर रखती हैं। भारतीय ‘ऐकता’ है ही नहीं।

सोचने की बात यह है कि भारत में वैसे तो मुस्लिम अरब देशों वाले शैरियत कानून के मुताबिक शादी तलाक आदि करना चाहते हैं किन्तु उन पर शैरियत की दण्ड संहिता भी लागू करने का सुझाव दिया जाये तो वह उस का विरोध करनें में देरी नहीं करते, क्योंकि शैरियत कानून लागू करने जहाँ ‘हिन्दू चोर’ को भारतीय दण्ड संहितानुसार कारावास की सजा दी जाये गी वहीं ‘मुस्लिम चोर’ के हाथ काट देने का प्रावधान भी होगा। इस प्रकार जो कानून मुस्लमानों को आर्थिक या राजनैतिक लाभ पहुँचाते हैं वहाँ वह सामान्य भारतीय कानूनों को स्वीकार कर लेते हैं मगर भारत में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के लिये शैरियत कानून की दुहाई भी देते रहते हैं। 

धर्म-निर्पेक्ष्ता की आड में जहाँ महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर मुस्लमानों का भीड़ नमाज़ पढ सकती है, लाऊ-डस्पीकरों पर ‘अजा़न’ दे सकती है, किसी भी हिन्दू देवी-देवता का अशलील चित्र, फि़ल्में और उन के बारे में कुछ भी बखान कर सकती है – वहीं हिन्दू मन्दिर, पूजा स्थल, और त्योहारों के मण्डप बम धमाकों से स्दैव भयग्रस्त रहते हैं। हमारी धर्म-निर्पेक्ष कानून व्यवस्था तभी जागती है जब अल्प-संख्यक वर्ग को कोई आपत्ति हो।

धर्म की आड़ ले कर मुस्लमान परिवार नियोजन का भी विरोध करते हैं। आज भारत के किस प्रदेश में किस राजनैतिक गठबन्धन की सरकार बने वह मुस्लमान मतदाता ‘निर्धारित’ करते हैं लेकिन कल जब उन की संख्या 30 प्रतिशत हो जायें गी तो फिर वह अपनी ही सरकार बना कर दूसरा पाकिस्तान भी बना दें गे और शैरियत कानून भी लागू कर दें गे।

निस्संदेह, मुस्लिम और इसाई हिन्दू मत के बिलकुल विपरीत हैं। अल्पसंख्यकों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया बिलकुल नहीं है। केवल हिन्दु ही गांधी कथित ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के सुर आलापते रहै हैं। मुस्लमानों और इसाईयों ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ कभी नहीं गाया। वह तो राष्ट्रगान वन्दे मात्रम् का भी विरोध करते हैं। उन्हें भारत की मुख्य धारा में मिलना स्वीकार नहीं।

धर्मान्तरण पर अंकुश ज़रूरी

धर्म परिवर्तन करवाने के लिये प्रलोभन के तरीके सेवा, उपहार, दान दया के लिबादे में छिपे होते हैं। अशिक्षता, गरीबी, और धर्म-निर्पेक्ष सरकारी तन्त्र विदेशियों के लिये धर्म परिवर्तन करवाने के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करते है। कान्वेन्ट स्कूलों से पढे विद्यार्थियों को आज हिन्दू धर्म से कोई प्रेरणा नहीं मिलती। भारत में यदि कोई किसी का धर्म परिवर्तन करवाये तो वह ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ कहलाता है किन्तु यदि वह हिन्दू को हिन्दू ही बने रहने के लिये कहै तो वह ‘कट्टरपँथी, रूढिवादी और साम्प्रदायक’ माना जाता है। 

इन हालात में धर्म व्यक्ति की ‘निजी स्वतन्त्रता’ का मामला नहीं है। जब धर्म के साथ जेहादी मानसिक्ता जुड़ जाती है जो ऐक व्यक्ति को दूसरे धर्म वाले का वध कर देने के लिये प्रेरित है तो फिर वह धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। इस प्रकार के धर्म को मानने वाले अपने धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं को भी दूषित करते है। अतः सरकार को उन पर रोक लगानी आवशयक है और भारत में धर्मान्तरण की अनुमति नहीं होनी चाहिये। जन्मजात विदेशी धर्म पालन की छूट को विदेशी धर्म के विस्तार करने में तबदील नहीं किया जा सकता। धर्म-निर्पेक्षता की आड में ध्रमान्तरण दूारा देश को विभाजित करने या हडपने का षटयंत्र नहीं चलाया जा सकता।

घुसपैठ का संरक्षण

धर्मान्तरण और अवैध घुसपैठ के कारण आज असम, नागलैण्ड, मणिपुर, मेघालय, केरल, तथा कशमीर आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक बन चुके हैं और शर्णार्थी बन कर दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहै हैं। वह दिन दूर  नहीं जब यह घुस पैठिये अपने लिये पाकिस्तान की तरह का ऐक और प्रथक देश भी माँगें गे।

भारत में चारों ओर से अवैध घुस पैठ हो रही है। अल्पसंख्यक ही घुसपैठियों को आश्रय देते हैं। घुसपैठ के माध्यम से नशीले पदार्थों तथा विसफोटक सामान की तस्करी भी होती है। देश की अर्थ व्यवस्था को नष्ट करने के लिये देश में नकली करंसी भी लाई जा रही है। किन्तु धर्म-निर्पेक्षता और मानव अधिकार हनन का बहाना कर के घुस पैठियों को निष्कासित करने का कुछ स्वार्थी और देशद्रोही नेता विरोघ करने लगते है। इस प्रकार इसाई मिशनरी, जिहादी मुस्लिम तथा धर्म-निर्पेक्ष स्वार्थी नेता इस देश को दीमक की तरह नष्ट करते जा रहे हैं।

तुष्टिकरण के प्रसार माध्यम

विभाजन पश्चात गाँधी वादियों ने बट चुके हिन्दुस्तान में मुसलमानों को बराबर का ना केवल हिस्सेदार बनाया था, बल्कि उन्हें कट्टर पंथी बने रह कर मुख्य धारा से अलग रहने का प्रोत्साहन भी दिया। उन्हें जताया गया कि मुख्य धारा में जुडने के बजाये अलग वोट बेंक बन कर रहने में ही उन्हें अधिक लाभ है ताकि सरकार को दबाव में ला कर प्रभावित किया जा सके । दुर्भाग्यवश हिन्दू गाँधीवादी बन कर वास्तविक्ता की अनदेखी करते रहै हैं।

उसी कडी में अल्संखयकों को ऊँचे पदों पर नियुक्त कर के हम अपनी धर्म निर्पेक्षता का बखान विश्व में करते रहै हैं। अब अल्पसंख्यक सरकारी पदों में अपने लिये आरक्षण की मांग भी करने लगे हैं। काँग्रेस के प्रधान मंत्री तो अल्पसंख्यकों को देश के सभी साधनों में प्राथमिक अधिकार देने की घोषणा भी कर चुके हैं। देशद्रोही मीडिया ने भारत को एक धर्म-हीन देश समझ रखा है कि यहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर देश को खण्डित करने का कुचक्र रच सकता है।

अल्पसंख्यक जनगणना में वृद्धि

विभाजन से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। आज भारत में मुसलमानों की संख्या फिर से 15 प्रतिशत से भी उपर बढ चुकी है। वह अपना मत संख्या बढाने में संलगित हैं ताकि देश पर अधिकार ना सही तो एक और विभाजन की करवाया जाय। विभाजन के पश्चात हिन्दूओं का अब केवल यही राष्ट्रधर्म रह गया है कि वह अल्पसंख्यकों की तन मन और धन से सेवा कर के उन का तुष्टिकरण ही करते रहैं नहीं तो वह हमारी राष्ट्रीय ऐकता को खण्डित कर डालें गे।

हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा है। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये उन्हें संकल्प ले कर कर्म करना होगा और अपने घर को प्रदूषणमुक्त करना होगा। अभी आशा की ऐक किरण बाकी है। अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर उन्हें एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे हो कर उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – बल्कि धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

66 – आरक्षण की राजनीति


बटवारे के पश्चात हिन्दू समाज की सब से अधिक हानि काँग्रेसी सरकार की आरक्षण नीति से हुई है। वैसे तो संविधान में सभी नागरिकों को ‘बराबरी’ का दर्जा दिया गया था किन्तु कुछ वर्गों ने आरक्षण की मांग इस लिये उठाई थी कि जब तक वह ‘अपने यत्न से’ अन्य वर्गों के साथ कम्पीटीशन करने में सक्षम ना हो जायें उन्हें कुछ समय के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया जाये। हिन्दू विरोधी गुटों के दुष्प्रचार के कारण वह अपने आप को हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण ‘शोषित’ या ‘दलित’ समझ बैठे थे। अब हिन्दू समाज का विघटन करने के लिये आरक्षण को ऐक राजनैतिक अस्त्र की तरह प्रयोग किया जा रहा है।  

विशिष्ट वर्ग

वैधानिक तौर पर अब कोई भी वर्ग भारत में ‘शोषित’, ‘दलित,’ या ‘उपेक्षित’ नहीं है। पहले भी नहीं था। सभी को अपनी प्रगति के लिये परिश्रम तो स्वयं करना ही होगा किन्तु जाति के आधार पर अब आरक्षित वर्ग दूसरे वर्गों की अपेक्षा ‘विशिष्ट वर्ग’ बनते चले जा रहै हैं। अधिक से अधिक वर्ग अपने आप को शोषित तथा उपेक्षित साबित करने में जुट रहै हैं और आरक्षित बन कर विशिष्ट व्यवहार की मांग करने लग पडे हैं।

आरम्भ में शिक्षालयों तथा निम्न श्रेणी के पदों में जन्म जाति के आधार पर कुछ प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये थे। उस के लिये समय सीमा 1950 से आगे दस वर्ष (1960) तक थी। राजनेताओं ने अपने लिये ‘वोट बैंक’ बनाने के लिये समय सीमा समाप्त होने के पश्चात ना केवल समय सीमा आगे बढा दी बल्कि संख्या तथा आरक्षण पाने वाले वर्गों में वृद्धि की मांग भी निरन्तर करनी आरम्भ कर दी।

इस के अतिरिक्त पदोन्नति के क्षेत्र में भी जिन पदों के लिये निशचित कार्य क्षमता के आधार पर पदोन्नति की व्यव्स्था होनी चाहिये, उन्हें भी आरक्षण के आधार से भरा जाने लगा। इस का सीधा तात्पर्य योग्यता के माप दण्डों को गिरा कर कुछ विशेष लोगों को जाति के आधार पर पुरस्किरत करना मात्र रह गया है। समय के के साथ साथ भारत में ऐक ऐसा वर्ग पैर पसारने लगा है जो अपने आप को शोषित, उपेक्षित तथा पिछडा हुआ बता कर योग्यता के बिना ही विश्ष्टता की श्रेणी में घुसने लगा है। 

अब तो मुस्लिम तथा इसाई भी अपने लिये आरक्षण की मांग करने लगे हैं। वह भूल गये हैं कि बीते कल तक वह हिन्दू धर्म को जातिवादी वर्गीकरण के कारण बदनाम कर रहै थे तथा हिन्दूओं को अपने धर्म परिवर्तन का प्रलोभन इसी आधार पर दे रहे थे कि उन के धर्म में सभी बराबर हैं। यह दोगली चाल आरक्षण नीति की उपज है जिस के कारण हिन्दू समाज को अकसर बलैकमेल किया जाता रहा है। 

आधार हीन दुष्प्रचार    

अहिन्दू धर्म धडल्ले से प्रचार करते रहै हैं कि उन के धर्म में जाति के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया जाता। यदि उन के इसी प्रचार को ‘सत्य’ माने तो जो कोई भी अहिन्दू धर्म को मानता है या जो हिन्दू अपना धर्म छोड कर इसाई या मुस्लिम परिवर्तित हों जाते हैं उन को आरक्षण का लाभ बन्द हो जाना चाहिये क्यों कि उन्हें तथाकथित ‘हिन्दू शोषण’ से मुक्ति मिल जाती है और नये धर्म में जाने के पश्चात उन की प्रगति ‘अपने आप ही बिना परिश्रम किये’ होती जाये गी। इस से दुष्प्रचार की वास्तविक्ता अपने आप उजागर हो जाये गी।

इसाई तथा इस्लामी देशों के पास जमीन तथा संसाधन बहुत हैं। यदि वास्तव में वह हिन्दू शोषितों के लिये ‘चिन्तित’ हैं तो उन्हें शोषितों का धर्म परिवर्तन करवाने के बाद अपने देशों में बसा लेना चाहिये। इस प्रकार के धर्म परिवर्तन से किसी हिन्दू को कोई आपत्ति नहीं हो गी। अमेरिका, योरुप, आस्ट्रेलिया, मध्य ऐशिया आदि देशों में उन लोगों को बसाने की व्यव्स्था करी जा सकती है जहाँ पर इसाई तथा इस्लाम धर्मों ने जन्म लिया था। परन्तु धर्मान्तरण करने वाले वैसा नहीं करते। वह तो भारत से हिन्दू वर्ग को कम करके यहां इसाई और इस्लामी संख्या बढा कर भारत की धरती पर अपना अधिकार करना चाहते हैं।

भेद-भाव रहित वातावरण

 वैधानिक दृष्टि से भारत में सभी नागरिक अपनी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किसी भी शैक्षिक संस्थान में प्रवेश पा सकते हैं। यदि आरक्षण पूर्णत्या समाप्त कर दिये जायें तो सभी शिक्षार्थी समान शुल्क दे कर समान परिक्रिया से उच्च शिक्षा पा सकें गे। यदि संस्थानों की संख्या बढा दी जाये तो कोई भी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रहे गा। अगर पिछडे इलाकों में संस्थानों की संख्या में वृद्धि करी जाये तो प्रत्येक नागरिक बिना भेदभाव के अपनी योग्यता के आधार पर प्रगति कर सकता है। आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्राकृतिक असमान्तायें

विकसित सभ्यताओं में ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक योग्दान, समर्थ तथा क्षमता के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का होना प्रगतिशीलता की निशानी है। सामाजिक प्रधानतायें प्रत्येक समाज में उत्तराधिकार स्वरुप अगली पीढियों को हस्तान्तरित भी करी जाती है। सामाजिक वर्गीकरण प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने के लिये उत्साहित करता है ताकि वह मेहनत कर के अपने स्तर से और ऊपर उठने का प्रयत्न करें। य़दि मेहनती के बराबर ही अयोग्य, आलसी तथा नकारे व्यक्ति को भी योग्य के जैसा ही सम्मान दे दिया जाय गा तो मेहनत कोई भी नहीं करेगा। प्रतिस्पर्धा के वातावरण में सक्षम ही आगे निकल सकता है। केवल पशु जगत में ही कुछ सीमा तक समानताये होती हैं क्योंकि देखने में सभी पशु ऐक जैसे ही दिखते हैं परन्तु विषमताये भी प्राकृतिक हैं। ऐक ही माता पिता की संतानों में भी समानता नहीं होती।

स्वास्थ्य समबन्धी व्यक्तिगत कारण

यदि कुछ वर्ग स्वास्थ की दृष्टि से ‘दूषित’ वातावरण में काम करते हैं तो उन के साथ सम्पर्क के लिये स्वास्थ की दृष्टि से प्रतिबन्ध लगाना भी उचित है। इस प्रतिबन्ध का आधार उन की जाति नहीं बल्कि कर्म क्षेत्र का वातावरण है। इस प्रकार का प्रावधान भी सभी विकसित देशों और जातियों में है। आत्मिक दृष्टि से सभी मानव और पशु ऐक जैसे हैं परन्तु शारीरिक दृष्टि से वह ऐक जैसे नहीं हैं। स्त्री-पुरुष, भाई-भाई में भी शारीरिक, तथा भावात्मिक भेद प्रकृति ने बनाये हैं। ऐक ही माता-पिता की संतान होते हुये भी उन का रक्तवर्ग समान नहीं होता। ऐक का रक्त दूसरे को नहीं चढाया जा सकता। यह मानवी विषमताओं का वैज्ञानिक कारण है जिस के कारण उन के सोचविचार और व्यवहार में भी परिवर्तन स्वाभाविक हैं। विषमताओं का धर्म अथवा जाति से कोई सम्बन्ध नहीं। 

निजि पहचान का महत्व

परिचय तथा व्यव्हार के लिये व्यक्ति का चेहरा, उस का चरित्र, निजि स्वच्छता, सरलता, सभ्यता और व्यवहार आदि ही प्रयाप्त होते हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति की पहचान को ‘विस्तरित’ करने के लिये आवश्यक हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति के माता पिता से पिछली पीढी के सम्बन्धों को जोडती है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के लिये अपनी जाति को नाम के साथ जोडना अनिवार्य नहीं है। यदि किसी को अपनी जाति बताने में कोई मानसिक असुविधा लगती है तो वह किसी भी अन्य जाति नाम को अपने साथ जोड सकता है या छोड सकता है।

उच्च शिक्षा की सुविधायें

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में किसी ना किसी ढंग से आज भी लगे हुये हैं। ‘रुचि-परीक्षण’(ऐप्टीच्यूड टेस्ट) भी ऐक प्रतिबन्ध है जिस के आधार पर सम्बन्धित विषय की शिक्षा से प्रत्याशी को वंचित होना पडता है या स्वीकृति मिल जाती है। उच्च शिक्षा के साधनों के सीमित होने के कारण इस प्रकार के प्रतिबन्ध आवश्यक हो जाते हैं। जिन के पास उच्च शिक्षा को समझ सकने के बेसिक माप दण्ड नही होते उन पर साधन और समय बरबाद करने का समाज को कोई लाभ नहीं। सभी देशों में उन को उस विशेष शिक्षा से वंचित रहना पडता है। आज कितने ही मेधावी छात्रों को आरक्षण की वजह से निराश हो कर अन्य देशों की तरफ पलायन करना पड रहा है या उच्च शिक्षा से वंचित रहना पडता है क्यों कि स्थान अयोग्य प्रत्याशियों से भरे रहते हैं जो केवल आरक्षण का आर्थिक लाभ उठाते रहते हैं। 

भारत में कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उस का जाति बताने के लिये बाध्य नहीं करता। यदि कोई किसी विशिष्ट विषय के बारे में ज्ञान पाना चाहे तो वह निजि साधनो से उस विषय के ग्रंथ खरीद कर पढ सकता है। इसी प्रकार हर कोई किसी भी देवी-देवता की आराधना भी कर सकता है, मनोरंजन स्थल पर सामान्य शुल्क दे कर जा सकता है उस के मार्ग में कोई भी सरकारी, धार्मिक अथवा सामाजिक बाधा कोई नहीं है। वास्तव में कुछ व्यक्ति आरक्षण लाभ पाने कि लिये अपना जाति का प्रमाण पत्र स्वयं ही दूसरों को दिखाते हैं।

वोट बेंक की राजनीति

कुछ नेता पिछडे वर्गों की नुमायन्दगी करने के लिये अपने आप को दलित, शोषित और पता नहीं क्या क्या कहने लगे हैं। स्वार्थी नेताओं को अपनी प्रगति और समृद्धि के लिये वोट बेंक बनाने के लिये दलित अथवा उसी श्रेणी के अनुयायी भी चाहियें । इसलिये वह उकसा कर हिन्दू समाज को बलैकमेल करने में स्दैव जुटे रहते हैं। वही उन को धर्म परिवर्तन के लिये भी भडकाते रहते हैं। किसी भी नेता ने पिछडे वर्गों को शिक्षशित करने में, या परिश्रम कर के आगे बढने के बारे में कोई योग्दान नहीं दिया है। ऐसे नेता देश, धर्म और पिछडे लोगों के साथ अपने स्वार्थों के लिये सरासर गद्दारी कर रहै हैं।

आरक्षण निति के दुष्परिणाम

आरक्षण नीति पूर्णत्या असफल तथा हानिकारक सिद्ध हुई है। आरक्षण के लाभों ने उत्तराधिकार का रूप ले लिया है। आरक्षण के आरम्भ से आज तक ऐक भी उदाहरण सामने नहीं आया जब किसी आरक्षित ने यह कहा हो कि आरक्षण के कारण उस की सामाजिक ऐवं मानसिक प्रगति हो चुकी है जिस के फलस्वरूप उसे और उस की संतान को अब आगे आरक्षण के माध्यम से कोई लाभ नहीं चाहिये। किसी ऐक ने भी नहीं कहा कि उस का परिवार आरक्षण की बैसाखियों के बिना प्रगति के मार्ग पर चलने के लिये अब सक्षम हो चुका है अतः उस के वापिस किये आरक्षण लाभांश अब किसी अन्य जरूरतमन्द को दे दिये जायें।

आरक्षण पाने वालों की सूची में कई केन्द्रीय मन्त्री, भूतपूर्व राष्ट्रपति, उच्च अधिकारी तथा उद्योगपति भी शामिल हैं किन्तु उन में से भी किसी के परिवार ने उन्नति कर के आरक्षण के लाभांश को किसी दूसरे के लिये नही छोडा है। इसी से प्रमाणित होता है कि आरक्षण नीति असफल रही है। इस के विपरीत कई उच्च जाति के लोग भी अब आरक्षण की कतार में खडे हो कर लाभांश की मांग करने लगे हैं। वह तो यहाँ तक धमकी देते हैं कि उन्हें आरक्षण नहीं दिया गया तो वह हिन्दू धर्म छोड कर कुछ और बन जायें गे। इसी से पता चलता है कि आरक्षण नीति कितनी बेकार और घातक सिद्ध हुई है।

और तो और अब भारत की पढी लिखी और अशिक्षशित स्त्रियों ने अपने लिये संसद तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में आरक्षण की मांग करने लगीं हैं। उन्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि अगर इटली से ऐक साधरण अंग्रेजी जानने वाली महिला भारत के शासन तन्त्र में सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है तो भारत की महिलाओं को अपने ही देश में निर्वाचित होने के लिये क्यों आरक्षण चाहिये? निस्संदेह आरक्षणवादी मानसिक्ता ने उन का स्वाभिमान और गौरव ध्वस्त कर दिया हैं।

आरक्षण का आर्थिक आधार

आज कल कुछ धर्म-निर्पेक्ष लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की भी वकालत करने लगे हैं। किन्तु उस के परिणाम भी हिन्दूओं के लिये घातक ही हों गेः-

  • योग्यता, सक्ष्मता तथा कार्य कुशलता की पहचान मिट जाये गी।
  • आर्थिक आधार से आरक्षण के सभी लाभ अल्पसंख्यकों की झोली में जा पडें गे जिस से सारा सरकारी तन्त्र केवल अल्संख्यकों से ही भर जाये गा। शासन तन्त्र में अयोग्यता के अतिरिक्त निष्ठा को भी हानि होगी।
  • दारिद्रता को कसौटी मान कर उसे लाभप्रद नहीं बनाया जा सकता। केवल दारिद्र होने के कारण किसी को परिश्रम के बिना उन्नत नहीं किया जा सकता। यदि वैसा किया गया तो कोई परिश्रम कर के धन नहीं कमाये गा।

सर्वत्र आत्म विशवास का विनाश

आरक्षण के कारण परिश्रम करने वालों और योग्य व्यक्तियों का मनोबल क्षीण हुआ है। शैक्षशिक संस्थानों में रिक्त स्थान उपयुक्त शिक्षार्थी ना मिलने के कारण या तो रिक्त पडे रहते हैं या अयोग्य लोगों से भरे जाते हैं। उन पर किया गया खर्च बेकार हो जाता है। इस प्रकार के स्वार्थवादी ढाँचे को तोडना मुशकिल हो चला है किन्तु इस का लाभ इसाई और मुस्लिम समुदाय उठा रहै हैं और हानि हिन्दू कर दाता।

आरक्षण नीति के विकल्प

यदि हम चाहते तो बटवारे के तुरन्त पश्चात ही आरक्षण के विकल्प ढूंड सकते थे। हमें शिक्षा को पूर्णत्या निशुल्क बनाना चाहिये था। शिक्षा सम्बन्धी खर्चों को भी सस्ता करना चाहिये था जिस में पुस्तकें, होस्टल का किराया और शिक्षार्थियों के लिये भोजन आदि शामिल था। शिक्षा के साथ साथ उन्हें व्यवसायक पर्शिक्षशण देना चाहिये था जिस से विद्यार्थियों में आरक्षण की हीनता के स्थान पर स्वालम्बन की भावना उत्पन्न होती। उच्च शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को आसान शर्तों पर कर्ज दिये जा सकते थे जो लम्बे काल में लौटाये जा सकें। इस प्रकार के विकल्प विकसित देशों में सफलता पूर्वक अपनाये गये हैं।

पिछडे वर्गों के लिये सस्ते दरों पर भोजन, पुस्तकों, आदि का प्रावधान कर देना उचित है। उन को अपने परिश्रम से आगे बढने के अवसर देने चाहियें शिक्षण तथा व्यवसायिक परिशिक्षण के संस्थान अधिकतर अविकसित क्षेत्रों में खोलने चाहियें परन्तु वह केवल बेकवर्ड लोगों के लिये ही नहीं होने चाहियें।

धर्म निर्पोक्षता की डींग मारने वाली सरकार के लिये निशुल्क या सस्ती हज यात्रा के प्रावधान के बदले छात्रों को निशुल्क पुस्तकें, वस्त्र, भोजन, तथा होस्टल आदि प्रदान करवाना देश हित में होता। सरकार इसाईयों तथा मुस्लमानों को आरक्षण दे कर हिन्दूओं को धर्म परिवर्तन के लिये उकसा रही है और हिन्दूओं में विघटन करवा रही है। 

चाँद शर्मा

65 – हिन्दू-विरोधी गुटबन्दी


बटवारे से पहले हिन्दूओं को बाहरी देशों से आये इस्लाम और इसाई धर्मों से अपने देश को बचाने के लिये संघर्ष करना पडता था किन्तु बटवारे के पश्चात विदेशी धर्मो के अतिरिक्त विदेशी आर्थिक शक्तियों से भी जूझना पड रहा है जो हिन्दू जीवन शैली की विरोधी हैं। 

बाहरी विचार धाराओं का प्रभाव

भारत के बटवारे से पूर्व विश्व दो शक्तिशाली तथा परस्पर विरोधी गुटों में बटा हुआ था और हम ने अपने आप को साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) तथा पूजीँवादी (केपिटालिस्ट) देशों के दो स्दैव संघर्ष-रत पाटों के बीच फसे हुये पाया। दोनो ही हमें हडप लेने के लिये मुहँ खोले खडे थे। दोनो परस्पर विरोधी विचारधारायें मानवी सामाजिक बन्धनों को प्रभावित करने में सशक्त थीं क्यों कि उन का प्रत्यक्ष प्रभाव केवल दैहिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति से ही सम्बन्धित था।

आज दोनो विचार धारायें भारतीय हिन्दू जीवन पद्धति के मौलिक ताने बाने पर आघात कर रही हैं। बाहरी विचार धाराओं के दुष्परिणाम को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र का समर्थन और सक्रिय योजना की आवश्यक्ता पडती है किन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी तन्त्र के नेता दोनो विचारधाराओं के प्रलोभनो के माध्यम से बिक चुके हैं और दोनों विचार धाराओं के संरक्षकों को भारत में पैर पसारने की सुविधायें प्रदान कर रहै हैं। देश के साथ गद्दारी और दगाबाजी करने की कमिशन राजनेताओं के नाम विदेशी बेंकों में सुरक्षित हो जाती है।

प्रत्येक देश के सरकारी तन्त्र की सोच विचार नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र, आस्थाओं, और जीवन के मूल्यों से प्रभावित होती है। यदि उन की विचारधारा नैतिक मूल्यों पर टिकी होगी तो देश बाहरी विचारधाराओं का सामना कर सकता है परन्तु यदि नेता धर्म-निर्पेक्ष, अस्पष्ट और स्वार्थहित प्रधान हों तो सरकार विदेशी शक्तियों की कठपुतली बन जाती है। बटवारे के बाद हिन्दुस्तान में अभी तक देश हित के प्रतिकूल ही होता रहा है।

साम्यवाद  

साम्यवाद इसाईमत की ‘धूर्तता’ और मुस्लिम मत की ‘क्रूरता’ का मिश्रण है जिसे लक्ष्य प्राप्ति चाहिये साधन चाहे कुछ भी हों। उन की सोचानुसार जो कुछ पुरातन है उसे उखाड फैंको ताकि साम्यवाद उस के स्थान पर पनप सके। भारत की दारिद्रमयी स्थिति, अशिक्षित तथा अभावग्रस्त जनता और धर्म-निर्पेक्ष दिशाहीन सरकार, भ्रष्ट ऐवं स्वार्थी नेता, लोभी पूंजीपति, अंग्रेजी पद्धतियों से प्रभावित वरिष्ट सरकारी अधिकारी – यह सभी कुछ साम्यवाद के पौधे के पनपने तथा अतिशीघ्र फलने फूलने के लिये पर्याप्त वातावरण प्रदान करते रहै हैं। भारत में बढता हुआ नकस्लवाद सम्पूर्ण विनाश के आने की पूर्व सुचना दे रहा है। तानाशाही की कोई सीमा नहीं होती। तानाशाह के स्वार्थों की दिशा ही देश की दशा और दिशा निर्धारित करती है।

सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में कम्यूनिस्ट अपनी विचारधारा तथा आचरण से आदि मानवों से भी गये गुजरे हैं। निजि शरीरिक अवश्यक्ताओं के पूर्ति के अतिरिक्त अध्यात्मिक बातें उन के जीवन में कोई मूल्य नहीं रखतीं। पूंजीपति देशों की तुलना में साम्यवादी रूस और चीन में जनसाधारण का जीवन कितना नीरस और आभाव पूर्ण है वह सर्व-विदित है। आज वह देश निर्धनता के कगार पर खडे हैं। अपने आप को पुनर्स्थापित करने के लिये वह अपने प्रचीन पदचिन्हों के सहारे धार्मिक आस्थाओं को टटोल रहे हैं। मानसिक शान्ति के लिये उन के युवा फिर से चर्च की ओर जा रहे हैं या नशों का प्रयोग कर रहे हैं।

साम्यवाद जहाँ भी फैला उस ने स्थानीय धर्म, नैतिक मूल्यों और परम्पराओं को तबाह किया है। चीन, तिब्बत, और अब नेपाल इस तथ्य के प्रमाण हैं। किन्तु भारतीय कम्यूनिस्ट अपने गुरूओं से भी ऐक कदम आगे हैं। वह भारतीय परम्परा के प्रत्येक चिन्ह को मिटा देने में गौरव समझते हैं। जिस थाली में खायें गे उसी में छेद करने की सलाह भी दें गे। चलते उद्योगों को हडताल करवा कर बन्द करवाना, उन में आग लगवाना आदि उन की मुख्य कार्य शैलि रही हैं।

भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ साम्यवादी संगठन राजकीय सत्ता के दलालों के रूप में उभर रहै हैं और उन्हों ने अपना हिंसात्मिक रूप भी दिखाना आरम्भ कर दिया है। वह चुनी हुई सरकारों को चुनौतियाँ देने में सक्ष्म हो चुके है। हिन्दूधर्म को धवस्त करने का संदेश अपने स्दस्यों को प्रसारित कर चुके हैं और देश की दिशाहीन घुटने-टेक सरकार उन के सामने असमंजस की स्थिति में लाचार खडी दिखती है। भारत के लिये अब साम्यवाद, नकस्लवाद तथा पीपल्स वार ग्रुप जैसे संगठनो का दमन करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है।

साम्यवाद का अमेरिकन संस्करण मफलर की नकाब पहन कर भारत को चुनावी हथियार से तबाह करने का षटयंत्र है ताकि भारत में राष्ट्रवादी सरकार ना बन सके। आम आदमी पार्टी के बहकावे में डाला गया हर वोट अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के बराबर है।

पाशचात्य देशों का आर्थिक उपनेष्वाद

साम्यवाद के विपरीत, पाश्चात्य देशों की पूंजीवादी सरकारें भी भारत को भावी आर्थिक उपलब्द्धि मान कर निगल लेने की ताक में हैं। उन सब में प्रमुख अमेरिका का आर्थिक उपनेष्वाद है। प्रत्यक्ष युद्ध करने के बजाय परोक्ष रूप से अमेरिका तथा उस के सहयोगी देशों का अभिप्राय भारत को घेर कर आन्तरिक तौर पर कमजोर करना है ताकि वह स्दैव उन की आर्थिक नीतियों के सहारे चलता रहै और प्रदेशिक राज्यों में बट जाये ताकि वह प्रत्येक राज्य के साथ अलग अलग शर्तों पर आर्थिक अंकुश लगा सकें। उन्हों ने भारत के विघटन की दिशा में कई बीज जमाये थे जिन में से कई अंकुरित हो चुके हैं। यहां भी वर्तमान भारत सरकार उसी तरह दिशाहीन है जैसी साम्यवादियों के समक्ष रहती है। हम लोग अपना विनाश लाचार खडे देख रहे हैं और विचार कर रहै हैं कि ‘कोई’ हमें बचा ले गा। उन की विनाश लीला के यंत्र इस प्रकार हैः-

1.         विदेशी राजनैतिक गतिविधियाँ राजनैतिक मिशन पडोसी देशों में युद्ध की स्थितियाँ और कारण उत्पन्न करते हैं ताकि विकसित देशों के लिये उन देशों को युद्ध का सामान और हथियार बेचने की मार्किट बनी रहै। ऐक देश के हथियार खरीदने के पश्चात उस का प्रतिदून्दी भी हथियार खरीदे गा और यह क्रम चलता रहै गा। विक्रय की शर्ते विकसित देश ही तय करते हैं जिन की वजह से अविकसित देशों की निर्भरता विकसित देशों पर बढती रहती है। इस नीति के अन्तर्गत लक्ष्य किये गये देशों के अन्दर राजनैतिक मिशन अपने जासूस देश के शासन तन्त्र के महत्वपूर्ण पदों पर छिपा कर रखते हैं। लक्षित देशों की सरकारों को अपने घुसपैठियों के माध्यम से गिरवा कर, उन के स्थान पर अपने पिठ्ठुओं की सरकारें बनवाते हैं। लक्षित देश की तकनीक को विकसित नहीं होने देते और उस में किसी ना किसी तरह से रोडे अटकाते रहते हैं। देश भक्त नेताओं की गुप्त रूप से हत्या या उन के विरुध सत्ता पलट भी करवाते हैं। इस प्रकार के सभी यत्न गोपनीय क्रूरता से करे जाते हैं। उन में भावनाओं अथवा नैतिकताओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। इसी को ‘कूटनीति’ कहते हैं। कूटनीति में लक्षित देशों की युवा पीढी को देश के नैतिक मूल्यों, रहन सहन, संस्कृति, आस्थाओं के विरुध भटका कर अपने देश की संस्कृति का प्रचार करना तथा युवाओं को उस की ओर आकर्षित करना भी शामिल है, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध (साईक्लोजिकल वारफैयर) कहा जाता है। यह बहुत सक्षम तथा प्रभावशाली साधन है। इस का प्रयोग भारत के विरुध आज धडल्ले से हो रहा है क्यों कि सरकार की धर्म-निर्पेक्ष नीति इस के लिये उपयुक्त वातावरण पहले से ही तैयार कर देती है। इस नीति से समाज के विभिन्न वर्गों में विवाद तथा विषमतायें बढने लगती है तथा देश टूटने के कगार पर पहुँच जाता है।

2.         बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ कुख्यात ईस्ट ईण्डिया कम्पनी की तरह बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ (मल्टी नेशनल कम्पनियाँ) विकसित देशों के ‘अग्रिम सैन्य दस्तों’ अथवा ‘आर्थिक गुप्तचरों’ की तरह के कार्य करती हैं। वह विकसित देश के आर्थिक उपनेष्वाद को अविकसित देशों में फैलाती हैं। बिना किसी युद्ध के समूचे देश की अर्थ व्यवस्था दूसरे देश के अधिकार में चली जाती है। यह कार्य पाश्चात्य देशों की कम्पनियाँ आज कल भारत में माल (माऱकिटंग क्षेत्र) तथा आऊट सोरसिंग की आड में कर रही हैं। विकसित देशों को अपने उत्पादन बेचने के लिये अविकसित देशों की मण्डियाँ जुटानी होती हैं जहाँ पर वह सैनिक सामान के अतिरिक्त दैनिक जीवन का सामान भी बेच सकें। इस उद्देश पूर्ति के लिये उन की कार्य शैलि कई प्रकार की होती हैः-

  • ब्राँड एम्बेस्डरों तथा रोल माडलों की सहायता से पहले अविकसित देश के उपभोक्ताओं की दिनचैर्या, जीवन पद्धति, रुचि, सोच-विचार, सामाजिक व्यवहार की परम्पराओं तथा धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन किये जाते हैं ताकि वह घरेलू उत्पाकों को नकार कर नये उत्पादकों के प्रयोग में अपनी ‘शान’ समझने लगें।
  • युवा वर्गों को अर्थिक डिस्काऊटस, उपहार (गिफ्ट स्कीम्स), नशीली आदतों, तथा आसान तरीके से धन कमाने के प्रलोभनो आदि से लुभाया जाता है ताकि वह अपने वरिष्ठ साथियों में नये उत्पादन के प्रति जिज्ञासा और प्रचार करें। इस प्रकार खानपान तथा दिखावटी वस्तुओं के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। स्थानीय लोग अपने आप ही स्वदेशी वस्तु का त्याग कर के उस के स्थान पर बाहरी देश के उत्पादन को स्वीकार कर लेते हैं। घरेलू मार्किट विदेशियों की हो जाती है। कोकाकोला, केन्टचुकी फ्राईड चिकन, फेयर एण्ड लवली आदि कई प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों की भारत में आजकल भरमार इसी अर्थिक युद्ध के कारण है।
  • जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ‘आर्थिक-जाल’ सुदृढ हो जाता है तो वह देश के राजनैतिक क्षेत्र में भी हस्क्षेप करना आरम्भ कर देती हैं। भारत में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी का इतिहास इस का प्रमाण है। वह धन दे कर अपने पिठ्ठुओं को चुनाव में विजयी करवाती हैं और अपनी मन-मर्जी की सरकार देश में कायम करवा देती हैं। वह स्थानीय औध्योगों को बन्द करवा के स्थानीय कच्चे माल का निर्यात तथा अपनी कम्पनी के उत्पादनों का आयात करवाती हैं। हम आज विदेशी निवेश से प्रसन्न तो होते हैं परन्तु आने वाले समय में विदेशी कम्पनियाँ वह सभी कुछ करें गी जो ईस्ट ईण्डिया कम्पनी यहाँ कर के गयी थी। भारत पाश्चात्य देशों की ऐक कालोनी या उन पर निर्भर देश बन कर रह जाये गा जिस में स्वदेशी कुछ नहीं होगा।

3.         बिकाऊ प्रसार माध्यमआजकल प्रसार माध्यम नैतिकता को त्याग कर पूर्णत्या व्यवसायिक बन चुके हैं। उन का प्रभाव माफिया की तरह का बन चुका है। बहुराष्ट्रीय प्रसार माध्यम आर्थिक तथा तकनीकी कारणों से भारत विरोधी प्रचार करने में कहीं अधिक सक्षम हैं। वह देश वासियों की विचार धारा को अपनी दिशा में मोडते हैं। आज इन प्रसार माध्यमों में हिन्दू धर्म के विरोध में जम कर प्रचार होता है और उस के कई तरीके अपनाये जाते हैं जो देखने में यथार्थ की तरह लगते हैं। भारतीय संतों के विरुध दुष्प्रचार के लिये स्टिंग आप्रेशन, साधु-संतों के नाम पर यौन शोषण के उल्लेख, नशीले पदार्थों का प्रसार और फिर ‘भगवा आतंकवाद’ का दोषारोपण किया जाता है। अकसर इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग हमारे निर्वाचन काल में हिन्दू विरोधी सरकार बनवाने के लिये किया जाता है। भारत के सभी मुख्य प्रसार माध्यम इसाईयों, धनी अरब शेखों, या अन्य हिन्दू विरोधी गुटों के हाथ में हैं जिन का इस्तेमाल हिन्दू विरोध के लिये किया जाता है। भारत सरकार धर्म निर्पेक्षता के बहाने कुछ नहीं करती। अवैध घुसपैठ को बढावा देना, मानव अधिकारों की आड में उग्रवादियों को समर्थन देना, तथा हिन्दु आस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आजकल मीडिया का मुख्य लक्ष्य बन चुका है। नकारात्मिक समाचारों को छाप कर वह सरकार और न्याय व्यवस्था के प्रति जनता में अविशवास और निराशा की भावना को भी उकसा रहै हैं। हिन्दू धर्म की विचारधारा को वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में बाधा समझते हैं। काँन्वेन्ट शिक्षशित युवा पत्रकार उपनेष्वादियों के लिये अग्रिम दस्तों का काम कर रहै हैं।

4.         हिन्दू-विरोधी गैर सरकारी संगठनकईगैर सरकारी संगठन भी इस कुकर्म मेंऐक मुख्य कडीहैं। उन की कार्य शैली कभी मानव अधिकार संरक्षण, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की सहायता, अल्पसंख्यकों का संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण आदि की परत में छुपाई जाती है। यथार्थ में इन संगठनो का लक्ष्य विघटनकारी शक्तियों का संरक्षण, हिन्दूओं का धर्मान्तरण, तथा विदेशियों के हितों की रक्षा करना होता है। अकसर यह लोग पर्यावरण की आड में विकास कार्यों में बाधा डालते हैं। यह संस्थायें विदेशों में बैठे निर्देशकों के इशारों पर चलती हैं। उन के कार्य कर्ता विदेशी मीडिया के सहयोग से छोटी-छोटी बातों को ले कर राई का पहाड बनाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाने के लिय इतना शौर करते हैं कि स्थानीय महत्वपूर्ण मुद्दे सुनाई ही नहीं पडते। नर्मदा बचाव आन्दोलन, इन्टरनेशनल ब्रदरहुड, मिशनरीज आफ चैरिटी आदि इस के उदाहरण हैं। अकसर इन्हीं संस्थाओं के स्थानीय नेताओं को विश्व विभूतियों की छवि प्रदान करने के लिये उन्हें अन्तर्राष्टरीय पुरस्कारों से अलंकृत भी कर दिया जाता है। उन्हें देश द्रोह करने के पुरस्कार स्वरुप धन राशि भी प्राप्त होती रहती है।

5.         आर्थिक प्रतिबन्धय़ह प्रभावशाली हथियार विकसित देश कमजोर देशों के विरुद्ध अपनी शर्ते मनवाने कि लिये प्रयोग करते हैं। भारत के परमाणु परीक्षण के बाद पाश्चात्य देशों ने इसे हमारे विरुद्ध भी प्रयोग किया था। 

6.         उपभोक्तावाद सरकारी क्षेत्र, निजि क्षेत्र तथा व्यक्तिगत तौर पर किसी को बेतहाशा खर्च करने के लिये प्ररलोभित करना भी ऐक यन्त्र है जिस में कर्ज तथा क्रेडिट कार्ड की स्कीमों से गैर ज़रूरी सामान खरीदने के लिये उकसाना शामिल है। लोभवश लोग फालतू समान खरीद कर कर्ज के नीचे दब जाते हैं और अपना निजि तथा सामाजिक जीवन नर्क बना लेते हैं। उन के जीवन में असुरक्षा, परिवारों में असंतोष, तथा समाज और देश में संघर्ष बढता हैं। यह परिक्रिया हिन्दू धर्म की विचारधारा के प्रतिकूल हैं जो संतोष पूर्वक सादा जीवन शैली और संसाधनों का संरक्षण करने का समर्थन करती है।

हिन्दूवाद विरोधी धर्म-निर्पेक्षता

हिन्दू संस्कृति इस युद्ध की सफलता में बाधा डालती है अतः उस का भेदन भी किया जाता है। भारत में वैलेन्टाईन डे ने शिवरात्री के उत्सव को गौण बना दिया है। वैलेन्टाईन डे में फूल बेचने वालों, होटलों, तथा कई प्रकार के गिफ्टस बेचने वालों का स्वार्थ छिपा है जिस के कारण वह युवाओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोडते। इन यत्नों से परमपरायें भी टुटने लगती हैं तथा सामाजिक विघटन होता है। विदेशियों के हित में नये समीकरण बनने लगते हैं जिस में कुछ स्वार्थी नेता और उन के परिवार हिन्दू विरोधी गुटबन्दी की मुख्य कडी हैं। वह आपसी मत-भेद रहने के बावजूद भी हिन्दू विरोध में ऐक साथ जुड जाते हैं ताकि हिन्दूओं को ‘साम्प्रदायक ’ बता कर धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर देश की सत्ता से बाहर रखा जा सके। इन का मंच अकसर ‘थर्डफ्रन्ट’ कहलाता है। सत्ता में आने के बाद यह फिर अपने विरोधाभास के कारण देश को ‘जाम’ कर देते हैं।  

दिशाहीन उदारीकरण की नीति

इन कुरीतियों को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र तथा नीतियों की आवश्यक्ता है। इन पर नियन्त्रण करने के लिये सरकार की सोचविचार अनुकूल होनी चाहियें ताकि वह देश विरोधी गतिविधियों पर नियन्त्रण रख सके। हमें अमेरिकी प्रशासन तथा अन्य विकसित देशों से सीखना चाहिये कि वह किस प्रकार अपने देश में आने वालों पर सावधानी और सतर्कता बर्तते हैं। जो कुछ भी उन देशों की विचारधारा से मेल नहीं खाता वह उन देशों में ऩहीं प्रवेश कर सकता। उसी प्रकार हमें अपने देश में आने वालों और उन के विचारों की पडताल करनी चाहिये ताकि देश फिर से किसी की दासता के चंगुल में ना फंस जाये।

यह दुर्भाग्य है कि धर्म निर्पेक्षता तथा स्वार्थी नेताओं के कारण सरकारी सोच विचार तथा तन्त्र प्रणाली हिन्दू विरोधी है। हमारे राजनैता ‘उदारवादी’ बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। 

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

6 – निराकार की साकार प्रस्तुति


आदि-मानव वर्षा, बाढ़, बिजली, बिमारियों, मृत्यु तथा समस्त प्राकृतिक आपदाओं का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे धीरे स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं। ऋषि मुनियों ने पहले जुटाये गये तथ्यों को विस्तारा, संवारा तथा आवश्यक्तानुसार समय समय पर नकारा भी था। क्योंकि हिन्दू धर्म में धर्म सम्बन्धी विषयों की आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रही है।

यही परिक्रिया दंत-कथाओं के माध्यम से अन्य मानव समुदायों में भी फैलती गयी जहाँ मानव सभ्यता क्रमशः भारत से पिछड़ी अवस्था में थी। रिक्त तथ्यों को सुनाने वालों ने या सुनने वालों ने अपनी समझ-बूझ से भर कर और आगे फैला दिया। आदि-धर्म के सभी संस्करणों में प्रकृति के सभी साधनों और क्रियायों पर किसी ना किसी देवी या देवता का अधिकार था और उन का अनुगृह पाने के लिये देवी देवताओं को बलि, कुर्बानियों तथा आराधना के माध्यम से प्रसन्न करने का विधान कई स्थानों पर चल पड़ा। एक समुदाय के देवी- देवताओं के नामों, विभागों तथा परस्परिक सम्बन्धों में दूसरे समुदायों के साथ विभिन्नता होना स्वाभाविक ही था। धर्म के उन परिवर्तित संस्करणों को कालानतर इसाईयों ने पैगनज़िम कहा और मुसलमानों ने जहालत का नाम दिया ताकि वह अपने नव निर्मित धर्मों का विस्तार आसानी से कर सकें।

विज्ञान तथा कला का संगम

हर घटना प्रमाणित होने के पश्चात इतिहास मान ली जाती है। जैसे जैसे ज्ञान और वैज्ञियानिक विचारधारा का विस्तार हुआ अन्धविश्वास पर आधारित दन्तकथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे। जो तर्क की कसौटी पर स्थिर नहीं रह सकीं वह अविशवासनीय होती गयीं। स्वार्थ वश कई धर्मों ने अपने अनुयाईयों को वश में रखने के लिये धर्म सम्बन्धी विषयों पर प्रश्न चिन्ह लगाने पर केवल  पाबन्दी ही नहीं लगाई अपितु पश्न पूछने वालों को मृत्यु दण्ड तक भी दे डाले ताकि उन की दंत-कथाओं की पोल ना खुल सके।

जब अन्य स्थानों पर मानव समुदाय जंगलों में वनजारा जीवन व्यतीत कर रहे थे या अपने अपने समुदायों में दंतकथाओं या अंधविशवास के तले जी रहे थे उस समय भारत में पूर्णतया विकसित आदि-धर्म वैज्ञानिक जिज्ञ्यासा की चुनौतियों का सामना करने के लिये तैय्यार हो चुका था। भारत का स्नातन धर्म कल्पनाशक्ति से परिपूर्ण, दार्शिनिक प्रौढ़ता समेटे अपनी आकर्षक चित्रावली के साथ समृध हो चुका था जो आज भी यथार्थ जीवन के एकदम समीप है। परम ज्ञ्यानी वैदिक ऋषियों ने उस विचारधारा को अपने निजि अनुभवों तथा अनुभूतियों से प्रमाणिक्ता प्रदान की थी और उन की सोच आज के वैज्ञ्यानिक अविष्कारों की अग्रज है।  

ऐक बालक का दिमाग़ दार्शनिक अथवा काल्पनिक विचारों को गृहण नहीं कर सकता। अतः बालक को वस्तुओं का बोध कराने के लिये उसे वस्तुओं के चित्र भी दिखाने पड़ते हैं। शाब्दों  के बजाय बालक को चित्रों से आम, बाघ, मानचित्रों से अज्ञात् स्थानों, तथा फोटोग्राफ के माघ्यम से दूरगामी रिश्तेदारों का परिचय करवाना पडता है। अतः वस्तुओं के चित्र ऐसे होने चाहियें कि बालक उन वस्तुओं की आकृति, रंग, गुण दोषों की जानकारी यथासम्भव अनुभूत कर सकें। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। अतः हिन्दू धर्म ने धार्मिक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी विशेष महत्व दिया है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जब किसी चिन्ह का शब्दों से उच्चारण किया जाता है तो उस चिन्ह और शब्द में पूर्व-स्थापित सम्बन्ध दृष्य हो जाता है। शब्द और चित्र अभिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार चिन्ह मन तथा मस्तिष्क को केन्द्रित कर के वस्तु का साक्षातकार करवाने का एक सक्ष्म साधन बन जाते हैं।

भले ही इसाई तथा मुसलिम धर्म चिन्हों के बहिष्कार का दावा करते हों परन्तु हिन्दूओं की देखा देखी उन के धर्म भी कई चिन्हों का सम्मान करते हैं। इसाई अपने घरों को क्रिसमिस ट्री से सजाते हैं, बच्चों को बहलाने के लिये सांटाक्लाज़ बनाते हैं तथा नकली सांटाक्लाज़ से अपने बच्चों को उपहार भी बटवाते हैं। इसाई मूर्तियों के आगे और मृतकों की कबरों पर मोम-बत्ती भी जलाते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम भी काबा की दिशा की ओर सिजदा करते हैं, काबा की तसवीर घरों में लगाते है, 786 को शुभ अंक मान कर उसे तावीज़ बना कर पहनते हैं तथा अरबी भाषा में मुहम्मद या अल्लाह लिख कर घरों में रखना शुभ समझते हैं। सारांश यह है कि हर धर्म में किसी ना किसी रूप में चिन्ह प्रयोग किये जाते हैं। अन्तर केवल उन्नीस बीस का ही है। सभी आराधक पहले तो मन के अन्दर कलपित लक्ष्य की धारणा करते हैं फिर उस पर ध्यान लगाते हैं। अतः चिन्ह या मूर्ति पूजा आराधना का आरम्भ मात्र है, अंत नहीं। स्नातन धर्म ने मूर्ति पूजन को अपनाया किन्तु शून्य में ध्यान लगा कर अनन्त पर मन को केन्द्रित करना भी सिखाया है। यह सब आराधना के भिन्न भिन्न स्तर हैं।

मूर्तियाँ केवल शिल्पकारियों की कला की प्रदर्शन ही नहीं करातीं अपितु ईश्वर से सम्पर्क का सक्ष्म साधन भी हैं। बाहरी तौर पर तो मूर्ति का पूजन होता है किन्तु आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। दुकान में रखे हुये बुत को शिल्प कारी और सजावट की वस्तु कहा जा सकता है लेकिन जब उसी बुत को श्रद्धा और पूजा भाव के साथ स्थापित कर दिया जाता है तो उसी बुत में देव दर्शन कराने की क्षमता आराधक को अपने आप ही दिखायी पड़ने लगती है।

जब हम दूरदर्शन के माध्यम से दूर गामी स्थानों की आवाज़ तथी छवि को निहार सकते हैं तो मूर्ति के माध्यम से सर्व-व्यापी ईश्वर के साथ भी सम्पर्क बना सकते हैं क्यों कि ईश्वर तो सर्ष्टि के हर कण में विध्यमान है। किसी भी राष्ट्र का झण्डा रंग बिरंगे कपड़ों का टुकड़ा होता है लेकिन जब उसी झण्डे के साथ भावनायें जुड़ जाती हैं तो सिपाही उसी कपडे के टुकडे को  बचाने के लिये अपनी जान पर भी खेल जाते हैं। जिस प्रकार झण्डा रूपी कपडे का टुकडा ऐक सिपाही के अन्दर अद्भुत वीरता का संचार कर देता है उसी प्रकार ऐक मूर्ति ईश्वरीय शक्ति का प्रकाश आराधक पर डाल देती है।   

पूजा की विधि

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने को एक निशचित तरीके से करने के लिये कार्य विधि निर्धारित कर दी जाती है ताकि वह कार्य बिना किसी त्रुटि के सुचारु ढंग से सम्पन्न हो सके। इस प्रकार आरम्भिक क्रिया से ले कर समाप्ति की क्रिया तक का सभी ब्योरा क्रिया में भाग लेने वालों को निश्चित तौर पर मालूम हो जाता है। किसी से कोई भूल होने की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार जलती हुयी मोमबत्ती को बुझाना और केक काटना जन्मदिन उत्सव के अभिन्न अंग बन गये हैं उसी प्रकार ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की विधि जैसी ही निश्चित हो गयी है।

मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं –

सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। आराध्य को स्नान कराया जाता है, वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य की विदाई भी की जाती है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है, क्यों कि ईश्वर जैसी महाशक्ति जो स्वयं सागरों को ऐक ही क्षण में भर सकती है तथा समूची सृष्टि को प्रकाशित कर सकने में सक्ष्म है वही महाशक्ति आराधक के स्नान और भोजन पर निर्भर नहीं हो सकती।

हिन्दूओं के किसी भी आराधक के लिये अर्चना पद्धति के सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आराधक निजि रुचि ऐवम् सुविधानुसार पूजा अर्चना कर सकता है। चिन्ह में आस्था रखने वाला आराधक प्रत्येक मूर्ति में ईश्वर को निहार सकता है भले ही मूर्ति  पत्थर, मिट्टी, पीतल, या स्वर्ण की बनी हो या केवल कोई चित्र हो। मूर्ति पूजा के माध्यम से आत्म ज्ञान का मार्ग सरल हो जाता है तथा इस का आधार जनसाधारण को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।  

आस्था के धार्मिक चिन्ह

मूर्तियों के अतिरिक्त सभी धर्म कई प्रकार के चिन्हों को धार्मिक आस्था का केन्द्र मानते हैं। इसाई क्रास को पवित्र मानते हैं और मुस्लिम काबा का दिशा में सजदा करते हैं तथा कलात्मिक ढंग से अल्लाह या मुहम्मद इतियादि लिखवाते हैं।  हिन्दूओं के पास बहुत से विकल्प हैं जैसे किः-

  • ऊँ का चिन्ह सृष्टि के उस अनाहत नाद का प्रतीक है जो गृहों के परिकर्मा के कारण निरन्तर गूंजती रहती है। समस्त कृतरम नाद कम से कम दो निमितों से पैदा होते हैं जैसे वाध्य यंत्रों में लगे गज और तार का घर्षण, ढोल तथा पीटने के लिये छड़ी की चोट, या वायु का किसी संकरे मार्ग से बाँसुरी की आवाज़ की तरह सुनायी देना। जो नाद इस प्रकार दो वस्तुओं के संघर्ष से उत्पन्न होते है वह भी इसी दैविक नाद से ही जन्म लेते है। किन्तु ऐसे नाद के चार अंग होते हैं। पहले तीन अंग अ ओ तथा म और चौथा अंग खामोशी से बनता है जो सुनाय़ी नहीं देता। यही खामोशी सुनाय़ी पड़ने वाली आवाज़ के आरम्भ और अंत को उजागर करती है।
  • स्वास्तिक का चिन्ह स्थिरता का प्रतीक है जो चारों दिशाओं में घूमाव के मध्य में विद्धमान रहती है। पूरी सृष्टि तेज़ी से  घूम रही है फिर भी स्थिर दिखती है। हिन्दूओं के अतिरिक्त कई योरूप के देशों में भी इसे पवित्र माना जाता रहा हैं।
  • शिव-लिंग सृष्टि में सभी प्रकार के जीवन के प्रजनन का वैज्ञानिक प्रतीक है। सभी प्राणियों की उत्पति लिंग-योनि के योग से ही हुयी है अतः यह चिन्ह दैविक शक्ति का भी प्रतीक है और दर्शाता है कि हम सभी का जीवन किसी पाप से नहीं अपितु दैविक इच्छा का फलस्वरूप है। यह ईश्वर की ओर से दिया गया दण्ड नहीं बल्कि पुरस्कार है।
  • ताँत्रिक चिन्ह – स्नातन धर्म में कई रेखागणित चिन्ह शक्ति का प्रतीक माने जाते हैं तथा ताँत्रिक यन्त्रों में प्रयोग किये जाते हैं।

वास्तव में चिन्ह पहचान के निमित मात्र होते हैं। आज भी सभी देशों की राजकीय मुद्रा सरकार की सार्वभौमिक्ता दर्शाने का प्रतीक मानी जाती है। व्यवसायी कम्पनियां भी अपने लागो की छाप अपने उत्पादकों पर अंकित करती हैं। 

यदि ईसा को क्रास पर ना चढ़ाया गया होता तो क्रास का भी इसाई धर्म में कोई महत्व ना होता। कभी कभी किसी धर्म स्थल के किसी नगर में होने के कारण ही वह नगर धार्मिक दृष्टि से महत्वशाली बन जाता है। हिन्दूओं के धार्मिक चिन्ह वैज्ञानिक्ता का प्रतीक हैं और शाशवत हैं। 

यदि किसी व्यक्ति की निजि आस्था किसी चिन्ह में नहीं तो हिन्दू धर्म में उस पर किसी भी चिन्ह को अपनाना या उस की पूजा-अर्चना करना भी बाध्य नहीं है। यही हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता का मूल-मंत्र है। मूर्तियां तथा चिन्ह हिन्दूओं के दार्शिनिक विचारों का कलात्मिक व्याखिकरण हैं।

चाँद शर्मा

 

 

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

2. आदि-मानव धर्म के जन्मदाता


जिस तरह किसी ऐक वैज्ञिानिक को विज्ञान के जन्मदाता होने का श्रेय नहीं दिया जा सकता, उसी तरह स्नातन धर्म का जन्मदाता कोई ऐक व्यक्ति नहीं था। आदिवासी मानवों से शुरू होकर कई ऋषियों ने तथ्यों का परीक्षण  कर के मानव धर्म की विचार धारा के तथ्यों का संकलन किया है। य़ह किसी ऐक व्यक्ति, परिवार या जाति का धर्म नहीं है।

पहला सत्य है कि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। दूसरा सत्य यह है कि सभी पशु-पक्षी अपने शरीर सम्बन्धी कार्य अपने मन की प्रतिक्रियाओं से प्ररेरित हो कर करते हैं तथा इन प्रतिक्रियाओं का स्त्रोत्र भी उन का सर्जन कर्ता ही है।

 पशु-पक्षियों की स्मृति शरीरिक आकार तथा आवश्यक्ताओं के अनुसार सीमित होती है। जब उन्हें भूख लगती है तभी वह भोजन को ढूंडते हैं। कोई खतरा होता है तो वह अपने आप को बचाने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल अपनी ही तरह के दूसरे पशु-पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं। उन के भीतर भी भूख, लालच, ईर्षा, वासना, क्रोध, भय और प्रेम आदि की भावनायें तो होती हैं लेकिन परियावरण ही उन्हें सोने, प्रजन्न करने तथा नवजातों के सरंरक्षण के लिये प्रेरित करता है। वह प्राकृतिक प्ररेणा से ही अपने अपने मनोभावों की व्यक्ति तथा पूर्ति के लिये कर्म करते हैं। मनोभावों पर उन का कोई नियन्त्रण नहीं होता। निर्धारित समय से पहले या पीछे वह प्रजन्न नहीं कर सकते। वह अपना भला-बुरा केवल कुछ सीमा तक ही सोच सकते हैं लेकिन किसी दूसरे के लिये तो वह कुछ नहीं सोच सकते।

दैनिक क्रिया नियन्त्रण कर्ता 

जड़ और चैतन्य, दोनो ही परियावरण का अभिन्न अंग हैं। परियावरण का सन्तुलन बनाये रखने के लिये सृजनकर्ता ने ही पूर्व-निर्धारित उद्देष्य से उन की गतिविधियाँ निर्धारित तथा नियन्त्रित कर दी हैं। किसी स्वचालित उपक्रम की भाँति सभी जीव अपने अपने  निर्धारित कर्तव्यों की पूर्ति के लिये स्वयं ही प्रेरित तथा क्रियाशील होते हैं। जैसे सिंह वन में पशुओं की संख्या नियन्त्रित करता है, उसी प्रकार सागर में बड़ी मच्छलियाँ छोटी मच्छलियों की संख्या नहीं बढ़नें देतीं। साँप चूहों आदि को घटाते हैं और स्वयं शिकारी पक्षियओं का भोजन बन जाते हैं। केंचुए वृक्षों के आस-पास की भूमि को नर्म कर के वनस्पतियों की भोजन-पोषण में सहायता करते हैं।

पशु-पक्षियों की प्राकृतिक मनोदिशा ही उन का निर्धारित कर्तव्य पत्र है। भले ही वह अपने कर्तव्य के महत्व को ना समझते हों, परन्तु कोई प्राणी यदि अपने निर्धारित कर्म को ना करे तो सृष्टि में उस प्राणी का आस्तीत्व ही बेकार हो जाये गा। कुछ जीव निजि कर्तव्यों का निर्वाह दिन के समय करते हैं तो कुछ रात्रि में अपना दाईत्व निभाने के लिये निकल पड़ते हैं। उन्हें वैसा करने के लिये सृजनकर्ता ने ही प्ररेरित किया है तथा सक्ष्म भी बनाया हैं। कर्तव्य निभाने के लिये उन्हें कोई बुलावा नहीं भेजता – रात्रि के समय वह स्वयं ही अपना अपना दाईत्व सम्भाल लेते हैं। एक बिच्छू, साँप या सिहं अपने शिकार को मार ही डाले गा भले ही कुछ क्षण पूर्व उसी प्राणी ने उन की जान भी बचाई हो। उन के कर्म से किसी का भला हो या बुरा, पशु पक्षियों को कभी अहंकार या आत्म ग्लानि नहीं होती क्योंकि वह अपने सभी कार्य सृजनकर्ता के आदेशानुसार ही करते हैं।

सृष्टि में जीवन के आधार 

समस्त सृष्टि का चलन स्वचालित प्रणाली पर आधारित है। सभी कुछ ताल-मेल से चलता है। सभी कार्य पूर्वनिर्धारित समयनुसार अपने आप ही निश्चित समय पर होते रहते हैं। सूर्य प्रति दिन समयनुसार पूर्व दिशा से निकलता है और पश्चिम दिशा के अतिरिक्त किसी अन्य दिशा में अस्त नहीं होता। सभी गृह-नक्षत्र अपनी अपनी परिधि में सीमित हो कर निर्धारित गति में अनादि काल से घूम रहे हैं। सागर जल का अक्ष्य भण्डार अपनें में समेटे रहते हैं। जल को स्वच्छ एवं शुद्ध रखने के लिये पूरी जल-राशि को दिन में दो बार ज्वार भाटे के माध्यम से उलट-पलट किया जाता है। निर्धारित समय पर ही प्रति वर्ष धरती सूर्य के समीप जाकर अतिरिक्त ऊष्णता गृहण करती है ताकि धरती पर अनाज और फल पक सकें। सागर जल से नमक की मात्रा छुड़वा कर पय जल में परिवर्तित करने के लिये जल बादलों के अन्दर भरा जाता है। वायु बादलों को सहस्त्रों मील दूर उठा ले जाती है तथा वर्षा कर के पृथ्वी पर उसी जल को जलाश्यों में भरवा देती है। बचा हुआ जल नदियों के रास्ते पुनः सागर में विलीन हो जाता है।  सोचने की बात है यही कार्य किसी सरकारी अधिकारी या ठेकेदार को सौंपा गया होता तो क्या वह कैसे करता। 

सृष्टि के प्राणियों की कार्य सुविधा के लिये सूर्य पूरी पृथ्वी पर रौशनी फैला देता है तथा रात्रि के समय चन्द्र शीतल रौशनी के साथ उदय होता है और रात्रि में काम करने वालों के लिये रौशनी का प्रबन्ध कर देता है। साथ ही साथ सागर जल को उलट-पलट कर जल का शुद्धिकरण भी करवा देता है। सृष्टि की सभी प्रणालियाँ सहस्त्रों वर्षो से पूर्ण सक्ष्मता के साथ कार्य कर रही हैं । जब किसी प्रणाली में कोई त्रुटि आ जाती है तो प्रकृति अपने आप उसे दूर भी कर देती है। सृष्टि का क्रम इसी प्रकार से निरन्तर चलता रहता है। 

सृष्टि कर्ता की खोज

अतः विचार करने की बात है कि सृष्टि में कोई तो केन्द्रीय शक्ति अवश्य है जिस ने इतनी सूक्ष्म, सक्ष्म तथा स्शक्त कार्य पद्धति  निर्माण की है। इतनी स्वचालिता आज भी विज्ञान के  बस में नही है। वैज्ञानिक तथा बुद्धिजीवी केवल कुछ तत्वों को जानते हैं जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश सृष्टि के मुख्य तत्व हैं। लेकिन इन के अतिरिक्त कई अज्ञात् तत्व और भी है जो इस विशाल प्रणाली को सुचारू ढंग से चला रहे है। विज्ञान तत्वों की खोज और पहचान कर के कारण तथा क्रिया में सम्बन्ध स्थापित करने में धीरे धीरे सफल हो रहा है लेकिन विज्ञान ने किसी नये अथवा पुराने तत्व को बनाया नहीं है। विज्ञान अभी तक सभी तत्वों को खोज भी नहीं पाया है। 

यदि वैज्ञानिक एक चींटी का ही सर्जन करना चाहें जो सभी कार्य स्वाचालित ढ़ंग से करे तो उस में कितने ही उपकरण लगाने पड़ें गे तथा उस का आकार एक जेट विमान के जितना बडा होगा तथा उस की दैनिक देखभाल के लिये कई इंजिनियर तैनात करने पड़ेंगे। इतना करने के पश्चात भी वह चींटी कुछ सीमित कार्य ही कर सके गी और अपने जैसी दूसरी चींटी तो पैदा कर ही नहीं सके गी। ऐसे प्रोजेकट की लागत भी करोड़ों तक जाये गी।

धर्म की शुरूआत 

वैज्ञिानिक तथ्यों को जानना धर्म का आरम्भ मात्र है। हम जानते हैं कि पहले कोई घर या गाँव नहीं थे। आदि मानव वनों में रहते थे। विद्यालय, चिकित्सालय आदि भी नहीं थे। निस्संदेह वनों में निवास करने वाले आदि मानवों ने भी सोचा होगा कि कौन सृष्टि को चला रहा है। सोचते सोचते उन्हों ने उस अज्ञात् शक्ति को ईश्वर कहना शुरू कर दिया क्यों कि वह शक्ति सर्व-व्यापक, सर्व शक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। किसी ने उस शक्ति को देखा नहीं लेकिन महसूस तो अवश्य किया है। उस महाशक्ति की कार्य-कुशलता तथा दयालुता का आभास पा कर मानव आदि काल से ही उस महाशक्ति का आभारी हो कर उसे खोजने में लगा हुआ है। समस्त प्राणियों में आदि मानव ने ही सब से पहले महाशक्ति ईश्वर के बारे में सोचा और उसे ढूंडना शुरू किया। जिज्ञासा से प्रेरित होकर इसी के फलस्वरूप समस्त मानव जाति के लिये धर्म की शुरूआत भी आदि मानव ने करी।

वनवासी मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की गरज, चमक, छोटे बड़े जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु को आसपास देख कर चकित तथा भयभीत तो हुये, परन्तु सोचते भी रहे। अपने आस पास के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहे, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथायों का सृजन तथा संचय भी करते रहे ताकि वह दूसरों के साथ भी उन अज्ञात् रहस्यों की जानकारी का आदान-प्रदान कर सकें। इस प्रकार भारत में सब से पहले और बाद में संसार के अन्य भागों में जहाँ जहाँ मानव समूह थे, पौराणिक कथाओं की शुरूआत हुयी। कालान्तर कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्षक चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया।

आदि धर्म – स्नातन धर्म 

इस प्रकार रहस्यों की व्याख्या के प्रसार का उदय हुआ उस वैज्ञानिक परिक्रिया को आदि धर्म या स्नातन धर्म की संज्ञा दी गयी। कालान्तर वही हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हो गया। दूसरे धर्म  स्नातन धर्म के बाद में आये। सभी आदि धर्मों का मूल स्त्रोत्र भारत से ही था। हिन्दू धर्म के साथ बहुत कुछ समान विचार-धाराऐं थीं। कालान्तर अज्ञानवश और स्वार्थ – वश योरूप वासियों ने स्थानीय आदि धर्मों को पैगनज़िम कहना शुरु कर दिया और मुसलमानों ने कुफ़र या जहालत कहा। वह यह नहीं समझ पाये कि धर्म सम्वन्धी उन के अपने कथन कितने तर्कहीन थे जब कि स्नातन धर्म का वैज्ञानिक आधार परम्परागत निजि अनुभूतियों पर टिका हुया था। स्नातन धर्म दूआरा व्याख्यित तथ्यों के प्रत्यक्ष प्रमाण दैनिक जीवन में स्वयं देखे जा सकते थे।

यह कितने आश्चर्य की बात है कि इसाई, मुसलिम तथा कुछ तथा-कथित हिन्दू दलित नेता वनवासियों को दूसरे धर्मों में परिवर्तित करने के लिये दुष्प्रचार करते हैं कि वनवासी अपने आप को हिन्दू ना कहें और हिन्दू धर्म से विमुख हो जायें। ऐसा हिन्दू धर्म की ऐकता नष्ट करने के लिये किया जाता है ताकि भारत पर इसाई या मुसलिम शासन कायम किया जा सके और दलित नेताओं को नेतागिरी मिली रहे। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि भारत में आज कोई अहिन्दू मत का प्रचार करे तो वह प्रगतिवादी बन जाता है और यदि किसी हिन्दू को भारत में हिन्दू ही बने रहने के लिये उत्साहित करे तो उसे कट्टर पंथी कहा जाता है।

मुख्यता स्नातन धर्म का सारांश प्रकृतिक जीवन जीना है जिस में सभी पशु पक्षी और मानव मिल-जुल कर आपसी भाई-चारे से रहें और समस्त विश्व को ऐक बडा़ परिवार जाने। आदि मानव दुआरा विकसित स्नातन धर्म वसुदैव कुटुम्बकुम का प्रेरणा स्त्रोत्र है जिस के जन्मदाता ऋषि-मुनी स्वयं वनवासी थे।

चाँद शर्मा

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