हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

20 – व्यक्तित्व विकास


आजकल बड़े नगरों में व्यक्तित्व विकास के कई केन्द्र भारी फ़ीस ले कर युवाओं को नौकरियों के प्रशिक्षण देते हैं। वहाँ व्याख्यानों, गोष्ठियों  तथा सामूहिक वार्तालाप के माध्यम से युवाओं को अंग्रेज़ी में बातचीत करना तथा शिष्टाचार के गुर सिखाये जाते हैं। वास्तव में यह प्रशिक्षण सीमित होता है और किसी ना किसी नौकरी या पद विशेष के लिये ही कुछ सीमा तक उपयुक्त होता है। इसे मानवी व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता।

हर व्यक्ति को पद तथा परिस्थितिनुसार कार्य प्रणाली भी बदलनी पड़ती है। प्रत्येक व्यवसाय की कार्य शैली तथा कार्य स्थल का वातावरण ऐक दूसरे से भिन्न होता है। अतः कार्य स्थल के वातावरण और कार्य शौली के अनुसार प्रत्येक कार्य वर्ग के लिये अलग अलग क्षमताओं की आवश्यक्ता भी पड़ती है। व्यक्ति तथा उस के कार्य क्षेत्र को आसानी से ऐक दूसरे के अनुकूल नहीं बदला जा सकता। व्यक्तित्व विकास के आधुनिक पाठयक्रम का क्षेत्र किसी ऐक व्यवसाय तक ही सीमित होता है।          

व्यक्तित्व विकास का मूल उद्दैश्य मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना होना चाहिये कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपना कार्य सक्ष्मता से कर सके। भारत की प्राचीन व्यक्तित्व विकास पद्धति इस कसौटी पर सक्ष्म है। 

क्रिया के निमित आवेश 

शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति के साथ साथ सभी जीव अपनी भावनाओं से भी प्रेरित हो कर अपने अपने कर्म करते हैं। हिन्दू विचारघारा में पाँच प्रकार की तीव्र भावनाओं के आवेशों की पहचान की गयी है जो समस्त जीवों में ऐक समान है। यह भावनायें हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में से किसी भी भावना का आवेश आते ही शरीर में ऐक प्रकार की रसायनिक क्रिया अपने आप आरम्भ हो जाती है जो मानव की बुद्धि को प्रभावित कर देती हैं। प्रभाव सकारात्मिक हो तो आवेश बुद्धि का सहायक बन कर कर्म का मार्ग भी दर्शाते हैं और उस के लिये साहस और क्षमता भी अर्जित कर देते हैं। ऐसी अवस्था में आवेश की रसायनिक क्रिया से प्रोत्साहित मानव अपनी जान की बाज़ी लगा कर दूसरे की जान बचाता है, ख्याति पाने के लिये असाध्य काम भी कर लेता है। आवेश के प्रभाव से ग्रस्त मानव में थोडे समय के लिये अदभुत क्षमता पैदा हो जाती हैं जिस पर बाद में मानव स्वयं ही अपनी छिपी हुई क्षमता पर आश्चर्य करने लगता है। यह आवेशों का सकारात्मिक पक्ष है।

इस के विपरीत यदि आवेश नकारात्मिक हों तो मानव चोरी, हत्या, बलात्कार, और कई बार आत्महत्या आदि करने को उद्यत हो उठता है। इस कारण से इन भावनात्मिक आवेशों को विकार भी कहा गया है और इन को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। इन्हीं विकारों के कारण पशु पक्षी भी सहवास, भोजन, ठिकाने, सुरक्षा तथा अपने प्रभाव के लिये मानवों की तरह ही लडते हैं। आवेश के नकारात्मिक प्रभाव से ग्रस्त मानव और पशु के स्वभाव तथा कर्म में कोई अन्तर नहीं होता।

आवेशों का जीवन में प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी ऐक अथवा अनेक आवेशों अथवा विकारों के प्रभाव के अधीन होता है। यही आवेश कई बार व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान भी बन जाते हैं। कुछ लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। कुछ उग्र स्वभाव के, कुछ कामुक तथा अप्राकृतिक आदतों के शिकार भी होते हैं। लोभ या मोह वश कुछ लोग सामाजिक तथा नैतिक मर्यादाओं को लाँघ कर अपने स्वजनो और मित्रों या किसी ऐक ही व्यक्ति का हित करने में लगे रहते हैं। कई लालच और लोभ में इतने ग्रस्त होते हैं कि उन के जीवन में अन्य कर्तव्यों का कोई महत्व नहीं रहता। आवेशों तथा विकारों में फर्क की लकीर अति सूक्षम होती है जैसे किसी असाध्य कार्य की पूर्ति स्वाभिमान बन जाती है तो किसी असाध्य कार्य को पूरा करने का केवल दावा करना अहंकार बन जाता है। क्रोध के आवेश में रण भूमि में शत्रु की हत्या करना वीरता है किन्तु क्रोध या अभिमान वश स्वार्थ के लिये किसी की हत्या करना दण्डनीय अपराध होता।

कुछ आवेश माता पिता से संस्कारों के रूप में जन्मजात होते हैं तो कुछ संगति तथा रहवास के वातावरण के कारण अपने आप पनप उठते हैं। मानव की आवश्यक्ताये भी उस के अर्जित आवेशों के स्वभावानुकूल ही बनती हैं जिन की पूर्ति के लिये मानव कर्म करते रहते हैं और फल पाते हैं। किसी ऐक ही अच्छे या बुरे कर्म से मानव जीवन में अच्छे-बुरे कर्मों के अटूट चक्कर आरम्भ हो जाते हैं जहाँ से बाहर निकल पाना कई बार असम्भव भी हो जाता है। 

मानव के शरीर में जिस प्रकार का आवेश प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यक्ति का स्वभाव और व्यक्तित्व बन जाता है। कोई झगडालु, ईर्षालु, लालची, दबंग, डरपोक या रसिक आदि बन जाता है तो कोई वीर, निडर, दयालु और दानवीर बन जाता है। सभी मानव अपने अपने आवेशानुसार कर्म कर के उसी प्रकार के परिणाम भी भुगतते है। आवेश दुधारी तलवार की तरह हैं। आत्म सम्मान के आवेश से प्रेरित हो कर ही कुछ लोग वीरता और साहस के काम कर जाते है जिस के कारण व्यक्ति, परिवार और समाज गर्वित होता है और इस के विपरीत कुछ अहंकार के कारण छोटी सी बात पर ही दूसरों की हत्या कर देते हैं और फाँसी पर लटक जाते हैं। वह अपने परिवारों के लिये दुःख और लज्जा का कारण बन जाते हैं।

आवेश नियन्त्रण

मानव संसाधन विकास के पाठ्यक्रम में पाश्चात्य दार्शनिक अब्राहम मासलो की ‘नीड थियोरी पढाई जाती है और इस के अन्तर्गत निजि आवश्यक्ताओं की पूर्ति को ही कर्म का निमित माना गया है। अब्राहम मासलो के अनुसार निजि आवश्यक्तायें शारीरिक तथा मानसिक क्रमशः निम्न और उच्च श्रेणियों में विभाजित की गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिये मानवों को प्रेरणा मिलती है। लेकिन अब्राहम मासलो का ज्ञान और सिद्धान्त अधूरे हैं। उस में यह नहीं बताया गया कि आवश्यक्तायें जन्म ही क्यों लेती हैं ? इस तथ्य का उत्तर आवेशों के भारतीय सिद्धान्त में छुपा है। आवेशों के सक्रिय होने पर ही इच्छाओं और आवश्यक्ताओं का जन्म होता है जिन की पूर्ति के लिये पुरुषार्थ करना पडता है। इसीलिये इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने पर बल दिया जाता है।  

आवेशों को संतुलित रखना जरूरी है। यदि आवेशों पर नियन्त्रण ना किया जाय तो वह विकार बन कर सब से बडे शत्रु बन जाते हैं और जीव को विनाश की ओर धकेल देते हैं। अपने आवेशों को नियन्त्रित करना, तथा विपक्षी के नकारात्मिक आवेशों को अपनी इच्छानुसार सकारात्मिक बनाना ही किसी व्यक्ति की क्षमता और सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। इसी को दक्षता और कार्य निपुणता कहते हैं।

आवेशों को साधना के माध्यम से, स्वेछिक अनुशासन से, यम नियमों से नियन्त्रित किया जा सकता है ताकि उन का साकारात्मिक लाभ उठाया जा सके। काम को ब्रह्मचर्य, स्वच्छता, और सदाचार से, क्रोध को सत्य और अहिंसा से, लोभ को संतोष और अस्तेय की भावना से, मोह को वैराग्य, निष्पक्ष्ता और कर्तव्य परायणता से, तथा अहंकार को अपारिग्रह, सरलता, ज्ञान शालीनता तथा सेवा सहयोग से वश में रखा जा सकता है। यम नियम का निरन्तर अभ्यास ही प्राणी को पशुता से मानवता की ओर ले जाता है। जब तक आलस्य और अज्ञान की परिवृतियों को यम नियम से नियन्त्रित नहीं किया जाये गा मानव का व्यक्तित्व संतुलित नहीं हो सकता।

स्वेच्छिक अनुशासन

हिन्दू समाज में निजि रुचि अनुसार व्यवसाय चुनने तथा स्वैच्छिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। अनुशासन को सैनिक तरीकों से लागू नहीं करवाया जाता। प्रत्याशी को आत्म-निरीक्षण, स्वैच्छिक अनुशासन तथा स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा फिर उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास  निरन्तर चलता रहता है। बालक को आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष सिखाये जाते है। यम नियम बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम एवमं महत्व पूर्ण कदम है। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम विश्व के किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म अनुयायी हों, हमारे जीवन की अधिकतर समस्यायें तो पैदा ही नहीं होंगी। यदि दूसरों के कारण समस्यायें उत्पन्न हो भी गयीं तो वह प्रभावित किये बिना अपने आप ही निषक्रिय भी हो जायें गी तथा यम नियमों का पालन करने वाले के जीवन में कोई तनाव और हताशा नहीं होगी।

आत्म विकास

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं उन में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि अनुसार किसी भी साधना का मार्ग अपने लिये चुन सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग साधना को अपना सकते हैं। भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुन सकते हैं। इसी प्रकार तर्कवादी राज योग से अपने निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संनयासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है।

सारांश यह है कि इस प्रकार से जो व्यक्तित्व निर्माण हो गा वह विश्व भर में सभी परिस्थितियों में सफल रहे गा। हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि आज भी भारत के विद्यार्थी विदेशों में सफल हैं जहाँ उन्हीं देशों के स्थानीय छात्र उन से स्पर्धा नहीं कर पाते। भारतीय सैनिक प्रथम तथा दूसरे महायुद्ध के कठिनत्म प्रदेशों में भी सक्षम रहै जब कि अन्य देशों के सैनिक उन कठिनाईयों को झेल नहीं पाये। वियतनाम जैसे छोटे देश के सामने अमेरिका जैसे समर्द्ध तथा शक्तिशाली देश के सैनिक समझोता कर के वहाँ से सुरक्षित निकलने का मार्ग खोजने के लिये मजबूर हो गये थे।  भारत का वाहन चालक विदेशों में भी धडल्ले से गाड़ी चला सकता है लेकिन एक विदेशी चालक अति-आधुनिक कार को अपने देश से बाहर नहीं चला सकता। इस प्रक्रिया में भारतीय व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक क्षमता छिपी हुयी है जो उसे सभी परिस्थितियों का सामना करने का हौसला देती है। यह गुणवत्ता आधुनिक तकनीक से नहीं उपजी अपितु इस का श्रेय भारतीय जीवन के उन मूल्यों को जाता है जो व्यक्ति को हर कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। भारतीय व्यकतित्व विकास पद्धति हर अग्नि परीक्षा में सफल होती रही है।  

तुलनात्मिक विशलेषण 

भारतीय पाठ्यक्रम में स्दैव आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता रहा है। गुरुकुल वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के दूारा व्यक्ति का विकास किया जाता था। उसी पद्धति का ही आज स्वामी रामदेव पुर्नप्रचार सफलता पूर्वक कर रहै हैं।

आजकल व्यक्ति की वास्तविक कमियों को बनावटी ढंग से छुपा दिया जाता है उस में योग्यताओं को विकसित नहीं किया जाता। बनावटी शिष्टाचार, वेषभूषा तथा ‘वर्क कलचर केवल आवरण हैं जो असली पर्सनेलिटी को थोडी देर के लिये ढक देते हैं। पाश्चात्य व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को दूसरे मानव से प्रतिस्पर्धा करने के लिये उकसाती है। सदाचारी बनने के बजाय मानव स्वेच्छाचारी तथा पूर्ण स्वार्थी बन कर समाज में दूसरों को मात देने की राह पर चलने लगता है। वह समाज को जोडने के बजाय समाज को तोड़ कर निजि सफलता को ही प्राथमिकता देता है। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से यही क्रम आजकल हमारे विद्यालयों, दफतरों तथा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है जिस के कारण निराशा, हताशा तथा निरंकुशता का वातावरण ही समाज में पनप रहा है। हिन्दू व्यक्तित्व सृष्टि के सभी जीवों में एकीकरण ढूंडता है, प्रतिस्पर्धी नहीं।

हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को निजि कर्तव्यों की ओर प्रोत्साहित करती है निजि अधिकारों तथा स्वार्थों की ओर नहीं। निजि कर्तव्यों में सर्व प्रथम देश, समाज तथा परिवार की प्राथमिक्ता है और निजि स्वार्थ सभी के पश्चात आता है। दैनिक कार्य क्षैत्र में सर्वप्रथम पर्यावरण, पशु पक्षियों के प्रति उत्तरदाईत्व को स्थान दिया गया है। पाश्चात्य व्यवसायिक कम्पनियाँ जिस सामाजिक उत्तरदाईत्व की केवल चर्चा करती हैं वह भारतीयों ने दैनिक जीवन शैली में सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही अपना लिया था। विदेशों में कोई व्यक्ति स्वैच्छा से पीपल, बरगद या तुलसी के पौधै को पानी नहीं देता ना ही चींटियों से ले कर बड़े जानवरों के लिये गर्मी में पेय जल की व्यव्स्था ही करता है। भारत में यह कार्य किसी मजबूरी से नहीं अपितु निजि व्यक्तित्व की प्रेरणा से किया जाता है। मोक्ष (टोटल सेटिस्फेक्शन) की परिकल्पना व्यवसायिक संतुष्टि (जोब सेटिस्फेक्शन) से कहीं ऊँची परिकल्पना है। अतः हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को मानवता का अभिन्न अंग बनने को प्रेरित करती है तभी उस का पूर्ण वास्तविक विकास होता है – केवल नौकरी पाने के लिये विकास नहीं करवाया जाता।

जीवन में ऐकीकरण

आजकल हर व्यक्ति की ‘प्राईवेट लाईफ ‘और ‘प्बलिक लाईफ में ऐकीकरण नहीं होता। इस का अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति जो समाज में ईमानदार, सत्यवादी और चरित्रवान होने का दावा करता है वह अपने निजि जीवन में बेइमान, झूठा या व्यभिचारी भी रह सकता है। यह व्यकतित्व का विकास नहीं विनाश है क्यों कि अन्दर बाहर व्यक्ति को ऐक समान ही होना चाहिये।

ज्ञान को केवल प्राप्त कर लेना ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। शिक्षा तथा शिष्टता के सदाचारी गुणों को दैनिक क्रियाओं में निरन्तर अपनाना भी आवश्यक है। केवल यह जान लेना कि इमानदारी और सत्य का पालन करना चाहिये पर्याप्त नहीं जब तक इमानदारी और सत्य को मन, वचन तथा कर्म से जीवन के हर प्रत्यक्ष और अपर्त्यक्ष रूप में अपनाया और दर्शाया ना जाये। यम नियम तथा गीता के योग इन्हीं को व्यक्तित्व विकास की सीढियाँ मानते हैं।

पाश्चात्य जीवन पद्धति केवल कामचलाऊ नौकरी पाने के लिये ही विकसित करती है और मानव को ऐक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना कर स्वार्थी जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित करती है जबकि भारतीय जीवन शैली व्यक्ति को परिवार, समाज और पर्यावरण के कल्याण और पूर्ण विकास की ओर विकसित करती है।   

चाँद शर्मा 

4 – धर्म का विकास और महत्व


स्वयं जीना पशुता है – दूसरों को भी जीने देना ही मानव धर्म है। जीने देना, और जानवरों की तरह साथ जीते रहना, वैचारिक तथा व्यव्हारिक दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न क्रियायें हैं। जानवर अपनी मनोवृति से ही एक दूसरे के साथ जीते रहते हैं और जैसे ही किसी निजि स्वार्थ के कारण उन्हें आवश्यक्ता पड़ती है तो वह अपने साथ रहने वाले जीव को मार के खा भी लेते हैं। धर्म-परायण, सभ्य मानवों ने दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य रख कर स्वेच्छा से कुछ नियम और प्रतिबन्ध अपने ऊपर लागू कर लिये हैं।

अपने शरीर और जीवन को बचाना सभी प्रणियों का स्वभाविक धर्म है। एक केंचुआ भी अपने आप को मृत्यु से बचाना चाहता है। सुशील गाय भी अपने बचाव के लिये सींगों से प्रहार करने को उद्यत हो उठती है। हिंसक पशु भोजन के लिये दूसरे जीवों को खा जाते हैं, यदि उन्हें किसी से भी खतरा होता है तो वह दूसरे जीव को अपने बचाव के लिये मार देते हैं ताकि वह स्वयं जी सकें।

 मानव भी पहले ऐसा ही था किन्तु धर्म-परायण मानव इस विषय में जानवरों से भिन्न होता गया। मानव भोजन के लिये किसी जीव की हत्या करने के बजाये या तो भूख बर्दाश्त करने लगे या भोजन के कोई अन्य विकल्प ढूंडने में लग गये। यदि किसी जीव से मानवों को खतरा लगता है तो मानव अपने आप को किसी दूसरे तरीके से बचाने की कोशिश भी करते हैं। सभ्य मानव दूसरों को भी जीने देते हैं। दूसरों के लिये विचार तथा कर्म करना ही सभ्य मानव स्वभाव का मूलमंत्र है। जानवर और मानव में भिन्नता का आधार दूसरों के प्रति संवेदनशीलता और धर्म पालन है।

जियो और जीने दो

जैसे जैसे मानव समाज अधिक सभ्य और संवेदनशील होते गये मानवों ने मांसाहारी भोजन त्याग कर सात्विक तथा शाकाहारी भोजन को स्वेचछा से अपनाना शुरू कर दिया। शाकाहारी भोजन ही जीने दो के मानवी-संकल्प को पालन करने में  सक्ष्म है। दूसरों को भी जीने दो का लक्ष्य साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का निर्माण किया तथा अपने आप को नियम-बद्ध करने की परिक्रिया आरम्भ करी। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है।

जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

मानवों ने परिवार को सब से छोटी समुदायिक इकाई माना है। एक ही प्रकार के धर्म नियमों में बन्धे सभी परिवार एक ही धर्म के अनुयायी कहलाते हैं। धर्म के अन्तर्गत बनाये गये नियम ही मानव के आपसी सम्बन्धों, जीव-जन्तुओं तथा परियावर्ण में संतुलन बनाये रखने के सक्ष्म साधन हैं। धर्म का सृष्टिकर्ता के साथ केवल इतना ही सम्बन्ध है कि धर्म नियम स़ष्टि-संचालन के प्राकृतिक नियमों के अनुकूल हैं।

धर्म पालन केवल मानवों के लिये है 

संसार के सभी प्राणी परियावरण का अंग होने के कारण ऐक-दूसरे पर आश्रित हैं। जीव जन्तुओं की तुलना में शरीरिक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण केवल मानव ही अपने दूआरा रचे धर्म के नियमों को पालन करने के लिये बाध्य है। पशु-पक्षी तो केवल प्राकृतिक और स्वाभाविक नियमों का ही पालन करते हैं जो जन्म से ही उन के अन्दर सृष्टि कर्ता ने माईक्रो चिप की तरह उन में भर दिये थे।

सूर्य तथा चन्द्र अपना प्रकाश बिना भेद-भाव के सभी को प्रदान करते हैं। सभी पशु-पक्षी, पैड-पौधे तथा नभ-मण्डल के गृह अपने अपने कर्तव्यों का स्वेच्छा से निर्वाह करते रहते हैं और उस का फल समान रूप से सभी को दे देते हैं। केवल मानव ही अपना कर्तव्यों का चयन अपनी इच्छा से करते हैं और उस का फल भी स्वार्थ हित विचार कर बाँटते हैं इस लिये मानवों को धर्म बद्ध होना जरूरी है।

धार्मिक विभन्नतायें

समय के साथ मानव समुदायों में धार्मिक प्रतिस्पर्धा तथा शत्रुता भी पैदा होने लगीं। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होते थे। फलस्वरूप समुदायों ने पड़ोसी समुदायों के साथ गठबन्धन करने शुरू किये और इस प्रकार समुदायों का विस्तार होने लगा। विस्तरित महासमुदाय नस्लों, जातियों, देशों तथा धर्मों के नाम से पहचाने जाने लगे और धार्मिक विभिन्नतायें और संघर्ष बढ़ते गये 

धर्म का महत्व 

धर्म मानवी सम्बन्धों को परियावरण के समस्त अंगों से जोड़ने का एक सशक्त साधन है। किसी मानव के ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने या ना करने से ईश्वर को कोई फरक नहीं पड़ता। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करने वाले भी ईश्वरीय सृष्टि से निष्कासित नहीं होते।

ईश्वरीय सत्ता के स्थाईत्व पर वैज्ञियानिक तर्कों का सहारा ले कर हम अनादि काल तक बिना किसी निष्कर्श निकाले बहस कर सकते हैं लेकिन जब सभी तर्क समाप्त हो जाते हैं तो विश्वास अपने आप जागृत होने लगता है। जब कर्म और संघर्ष मनवाँच्छित परिणाम नहीं दे पाते तो हम हताश होने के बजाये अपने आप ही ईश्वरीय-प्राधानता को स्वीकार कर के संतुष्ट हो जाते हैं। जब हम अनाश्रित होते हैं और कोई अन्य सहारा दिखाई नहीं पड़ता तो हम  ईश्वर पर ही आश्रित हो कर पुनः अपने आत्म विश्वास को जगाते हैं। हम मानते हैं कि जो कुछ मानव को ज्ञात नहीं वह सृष्टि कर्ता को ही ज्ञात होता है, जब कोई पास नहीं होता तो सर्व-व्यापक सृष्टि कर्ता हमारे साथ होने का आभास अपने आप ही दे देता है। हमारे अन्दर से ही वह मूक आवाज से हमें अपनी अनुभूति करवा देता है। हमें और क्या चाहिये। सभी प्रश्न यहाँ पहुंच कर अपने आप समाप्त हो जाते हैं। ईश्वरीय शक्ति के बिना सब कुछ शून्य हो जाय गा, चारों ओर केवल एकान्त, असुरक्षा, निराशा और हताशा ही दिखायी पडें गी। धर्महीन नास्तिक व्यक्ति ही अकेलेपन से त्रस्त होता है और वह स्वार्थ और कृतधनता का साक्षात उदाहरण है जो किसी विशवास के लायक नहीं रहता। 

स्नातन धर्म – मानवता एवं प्रकृति का मिश्रण 

भारत में विकसित मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर ही आधारित था। यह समस्त मानव जाति का प्रथम धर्म था और कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ। इस लेख श्रंखला में यह सभी नाम ऐक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।

हिन्दू जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर आदि काल से ही विशवास करते रहे हैं और अपने क्षेत्र के परियावरण के प्रति समवेदनशील रहे हैं। इसी कारण से हिन्दुओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपने धर्म में सम्मिलत किया हैं ताकि परियावरण के सभी अंग आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रहैं और उन की समयनुसार भरपाई भी होती रहै।  

भारत वासियों ने प्रराम्भ से ही परियावरण संरक्षण को अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखने का प्रचलन हिन्दूओं ने आदि काल से ही अपनाया हुआ है। जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देने की भी प्रथा है। बेल, पीपल, तुलसी, नीम, वट वृक्ष तथा अन्य कई पेड पौधे आदि को भी हिन्दू संरक्षित करते हैं और प्रतीक स्वरूप पूजित भी करते हैं। हिन्दूओं ने समस्त सागरों, नदियों, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता का संज्ञा दे कर पूज्य माना है ताकि प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य हो।

पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को जहाँ कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना, स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर के ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। सृष्टिकर्ता को सृष्टि के सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य तो दर्शाने के लिये हिन्दूओं ने छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्हों और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है। ऐसा करना विचारों को प्रत्यक्ष रूप देने की क्रिया मात्र है।

हिन्दू धर्मानुसार सभी मानव भी देव-स्वरूप है तथा कोई भी अपने आप में पापी नहीं है। अतः किसी को भी निराश होने की ज़रूरत नहीं है। सभी प्राणी ईश्वर के प्रिय बन सकते हैं। मानव केवल भूल करता है और प्रायश्चित कर के सुधार भी कर सकता है। हिन्दू हर जीव को ईश्वर की सृष्टि मानते हैं और समस्त सृष्टि को वसुदैव कुटुम्बकम – एक बड़ा परिवार। अतः प्राकृतिक तथ्यों पर केन्द्रित स्नातन धर्म आधुनिक वैज्ञानिक विचारों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।

धर्म-बन्धन ऐक सामाजिक कडी 

मानव जन्म से ही निजि पहचान के प्रतीक स्वरूप माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में पा लेता है। इस मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव भी शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात किसी कारणवश आज का मानव अपनी राष्ट्रीयता को तो बदल ले किन्तु धर्म के माध्यम से व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों में बसने वाले भारतीय भले ही वहाँ के नागरिक बन जायें किन्तु धर्म बन्धन के कारण उन का आस्थिक नाता हिन्दू धर्म से ही जुडा रहे गा। अपने निजि जीवन के सभी रीति रिवाज वह हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं।  अतः धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में हस्तांतरित किये गये हैं। हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। और चाहें तो इसे छोड़ दें, नकार दें और फिर किसी नये सिरे से खोज शुरू करें। हम जैसा भी फैसला करना चाहें कर सकते हैं, परन्तु हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है। इस तथ्य पर तो हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं।

विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है। स्थानीय परियावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। हिन्दू धर्म पूर्णत्या मानव धर्म है।

चाँद शर्मा

 

 

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