हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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अंग्रेज़ी-भक्तों का हिन्दी विरोध


उपनेशवाद का युग समाप्त होने के बाद आज भी इंग्लैंड को विश्व में ऐक सैन्य तथा आर्थिक महाशक्ति के तौर पर माना जाता है। उच्च तथा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में इंग्लैंड का आज भी ऐकाधिकार है। यह दबदवा राजनैतिक कारणों से नहीं, बल्कि अंग्रेजी भाषा के कारण है। अंग्रेज़ों ने अपने ऐक ‘डायलेक्ट’(अपभ्रंश) को विकसित कर के अंग्रेज़ी भाषा को जन्म दिया, लिपि रोमन लोगों से ली और भाषा का आधार बना कर विश्व पर शासन कर रहै हैं। अंग्रेजी से प्राचीन हिन्दी भाषा होते हुये भी हम मूर्ख हिन्दुस्तानी अपनी ही भाषा को स्वदेश में ही राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दे पाये – यह बदनसीबी नहीं तो और क्या है जो हम लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान शून्य है।

पिछडी मानसिक्ता वाले देशों में आज भी यही समझा जाता है कि अंग्रेजी भाषा के बिना दुनियां का काम ही नहीं चल सकता और विकास के सारे कम्प्यूटर ठप हो जायें गे। दास-बुद्धियों को भ्रम है कि विश्व में केवल अंग्रेजी ही सक्ष्म भाषा है जबकि विकसित देश भी दबी जबान में संस्कृत भाषा का गुण गान ही नहीं कर रहै, उसे सीखने के मार्ग को अपना चुके हैं। हमारे देश के मानसिक गुलाम फिर भी यह मानने को तैयार नहीं कि कि अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा ना हो कर केवल परम्परागत भाषा है जिस में लिखा कुछ जाता है और पढा कुछ और ही जाता है। उस की तुलना में हिन्दी पूर्णत्या ऐक वैज्ञानिक भाषा है जिस में जो लिखा जाता है वही पढा भी जा सकता है। विश्व की किसी भी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है और सक्ष्मता से पढा जा सकता है। अंग्रेजी में अपने नाम को ही लिख कर देख लीजिये पढने के बाद आप कुछ और ही सुनाई दें गे।

राष्ट्रभाषा का विरोध

नरेन्द्र मोदी सरकार ने राष्ट्रभाषा को महत्व देने का उचित निर्णय लिया है। यह भी अपेक्षाकृत था कि मोदी विरोधी नेता और अपना चुनावी वर्चस्व बनाये रखने वाले प्रान्तीय नेता इस का विरोध भी करें गे। बी जे पी में ही कई छिपे मोदी-विरोधी सरकार को हिन्दी अति शीघ्र लागू करने के लिये उकसायें गे भी ताकि सरकार गलतियां करे, और उकसाई गयी पथ-भ्रष्ट जनता का कडा विरोध भी झेले।

नीचे लिखे तत्वों का दूआरा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से भारत में हिन्दी का विरोध और अंग्रेजी के समर्थन में स्वाभाविक हैः-

  • विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के मालिक, जिन के व्यवसायिक उद्द्श्य हैं।
  • योरूपीय देश, कामनवेल्थ देश, और भारत विरोधी देश जो अंग्रेजी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा बनाये रखना चाहते हैं।
  • कम्पयूटर तथा अंग्रेजी-साफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनियां।
  • विदेशों में बस चुके कई भारतीय युवा जो विदेशी कम्पनियों की नौकरी करते हैं और भारत से आऊट सोर्सिंग के जरिये से अपने ही देसवैसियों से सस्ते में विदेशी कम्पनियों के लिये काम करवाते हैं।
  • काल सैन्टर के मालिक और कई कर्मचारी।
  • कुछ ईसाई संस्थान, कानवेन्ट स्कूल और मैकाले भक्त प्रशासनिक अधिकारी।
  • उर्दू-भाषी जिहादी तथा धर्म निर्पेक्ष।

इलेक्शन में हार हुये नेताओं को तो नये मुद्दों की तालाश रहती है। सत्ता से गिर चुकने का बाद करुणानिधि और उस की श्रेणी के कई अन्य प्रान्तीय नेताओं को सत्ता की सीढी चढने के लिये फिर से हिन्दी विरोध का मुद्दा बैठे बैठाये मिल गया है। करुणानिधि और उस की श्रेणी के अन्य साथी कृप्या यह तो बतायें कि उन के प्रान्तों में क्या सभी लोग अंग्रेजी में ही लिखते पढते हैं? सच्चाई तो यह है कि उन्हीं के प्रान्तों के अधिकाँश लोग आज भी अशिक्षित और गरीब हैं। वह अंग्रेजी पढे या ना पढें उन्हें विदेशों में नहीं जाना है। भारत में ही रोजी-रोटी के लिये रोजगार ढूंडना है। लेकिन इन नेताओं को इन बातों से कोई सरोकार नहीं। उन्हें तो पिछले सत्तर वर्षों की तरह अपने परिवारों की खातिर सत्ता में बने रहना है, मुफ्त लैपटाप, रंगीन टेलीविजन, साईकिलें और ऐक रुपये किलो चावल आदि की भीख से लोगों का तुष्टिकरण कर के वोट बटोरते रहना है। इस लिये अब धीरे धीरे दूसरे प्रान्तो से भी कुछ चुनाव-हारे क्षेत्रीय नेता अपना अंग्रेजी प्रेम दिखायें गे और विकास की दुहाई दें गे। मोदी विरोधी फौज में लाम बन्द होना शुरु करें गे। यह नेता क्या जनता को बतायें गे कि उन के शासन काल में उन्हों ने युवाओं को देश की राष्ट्रभाषा के साथ जोडने के सम्बन्ध में आज तक क्या कुछ किया? अपने प्रान्तों में ही कितने अंग्रेजी स्कूल खोले? युवाओं को विदेशों में या देश में ही रोजगार दिलवाया? अपने देश की राष्ट्रभाषा कि विकास के लिये क्या किया? देश की ऐकता और पहचान के लिये क्या यह उन का कर्तव्य नहीं था? प्रान्तीयता के नाम पर उकसाने वाले नेताओं का स्वाभिमान तब क्यों बेबस हो गया था जब अंग्रेजों ने भारत में प्रान्तीय भाषाओं को हटा कर अंग्रेजी उन के सिरों पर थोप दी थी?

व्यवस्था परिवर्तन

व्यवस्था परिवर्तन की शुरूआत राष्ट्रभाषा के सम्मान के साथ होनी चाहिये ताकि जनता में भारतीयता के प्रति आत्म विशवास का संचार हो। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में मंत्री मण्डल के अधिकांश सदस्यों का हिन्दी में शप्थ लेना और  राष्ट्रभाषा को सरकारी काम काज की भाषा बनाना ऐक अच्छी शुरूआत है। अब आगे संसद की कारवाई हिन्दी में चले और सरकारी काम काज हिन्दी में हो, ई-गवर्नेंस में भी हिन्दी को प्रमुखता से जोडा जाये तो देश में ऐक नया आत्म विशवास जागे गा। किसी पर भी अंग्रेजी के इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई गयी लेकिन राष्ट्रभाषा के पक्ष में ऐक साकारात्मिक पहल जरूर करी गयी है।

पिछले साठ वर्षों से हम ने अपने देश की राष्ट्रभाषा को वह सम्मान नहीं दिया जो मिलना चाहिये था। हम अंग्रेजी की चाकरी ही करते रहै हैं और अपनी भाषा के इस्तेमाल से हिचकचाते रहै हैं। अपनी भाषा सीखने के लिये साठ वर्ष का समय प्रयाप्त होता है और अनिच्छा होने पर साठ जन्म भी कम होते हैं।इस का अर्थ अंग्रेजी का बहिष्कार करना नहीं है केवल अपनी राष्ट्रभाषा का सत्कार करना है। जनता अपेक्षा करती है कि भारत के संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को देश की राष्ट्रभाषा का ज्ञान और सम्मान अवश्य होना चाहिये। अगर उन्हें अभी भी हिन्दी नहीं आती तो अपने प्रांत की भाषा (मातृभाषा) का इस्तेमाल तो कर सकते हैं जिस का ट्रांसलेशन करा जा सकता है।

आम देशवासियों को भी अगर अपने आप को भारतीय कहने में गर्व है तो अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी गर्व से प्रयोग करना चाहिये। अंग्रेजी लिखने पढने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि केवल अंग्रेजी लिखने पढने के कारण ही कोई व्यक्ति महान नहीं होता। उसी तरह हिन्दी लिखने पढने वाला अनपढ नहीं होता। लेकिन हिन्दी लिखने पढने वाला राष्ट्रभक्त अवश्य होता है और राष्ट्रभाषा को नकारने वाला निश्चित ही गद्दार होता है।

स्पीड में सावधानी जरूरी

हिन्दी के प्रचार, विस्तार और प्रसार में उतावलापन नहीं करना चाहिये। समस्याओं का धैर्य से समाधान करना चाहिये लेकिन विरोध का दमन भी अवश्य कडाई से करना चाहिये। देश में स्पष्ट संदेश जाना चाहिये कि सरकार देश की राष्ट्र भाषा को समय-बद्धता के साथ लागू करे गी, समस्याओं को सुलझाया जाये गा मगर जो नेता अपनी नेतागिरि करने के लिये विरोध करें गे उन के साथ कडाई से उसी तरह से निपटा जाये गा जैसे देश द्रोहियों के साथ करना चाहिये।

सरकार को हिन्दी प्रोत्साहन देना चाहिये लेकिन अंग्रेजी परन्तु अगले पाँच वर्षों तक अभी रोक नहीं लगानी चाहिये।

  • हिन्दी का अत्याधिक ‘संस्कृत-करण’ना किया जाये। अगर अन्य भाषाओं के जो शब्द आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो उन्हें सरकारी मान्यता भी दे देनी चाहिये।
  • सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को ‘अनिवार्य विषय’ के तौर पर ना पढाया जाये। अंग्रेजी को ऐच्छिक विषय (इलेक्टिव) की तरह पढाना चाहिये या ऐडिश्नल विषय की तरह पढाना चाहिये और उस के लिये अतिरिक्त फीस वसूलनी चाहिये।
  • उच्च शिक्षा तथा नौकरियों के लिये सभी कम्पीटीशनों में भाग लेने के लिये हिन्दी के प्रयोग की सुविधा होनी चाहिये। अगले पाँच वर्षों तक अंग्रेजी में भी परीक्षा देने की सुविधा रहनी चाहिये लेकिन नौकरी या प्रमोशन देने के समय “अगर दो प्रतिस्पर्धियों की अन्य योग्यतायें बराबर हों ” तो हिन्दी माध्यम के प्रतिस्पर्धी को प्राथमिकता मिलनी चाहिये।
  • जिन सरकारी विभागों या मंत्रालयों में हिन्दी अपनाई जाये वहाँ सभी तरह के आँकडे हिन्दी में रखने और उन का विशलेषण करने की पूरी सुवाधायें पूर्व उपलब्द्ध होनी चाहियें।
  • निजि स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढाई की छूट रहनी चाहिये जिस के लिये विद्य़ार्थी विध्यालय को तय शुदा फीस दें गे।
  • जो लोग विदेशों में जा कर बसना चाहते हों या नौकरी करना चाहैं उन के लिये अंग्रेजी सीखने की सुवाधायें सभी यूनिवर्स्टियों में रहनी चाहियें जिस में फीस का खर्च विध्यार्थी खुद उठायें।
  • हमारे देश में कम्पयूटर तथा साफ्टवेयर विकास की प्रयाप्त क्षमता है इस लिये अंग्रेजी में लिख गये साफ्टवेयर में हिन्दी के बटन लगाने के बजाये कम्पयूटर साफ्टवेयर को हिन्दी में ही मौलिक रूप से तैय्यार करना चाहिये।
  • समय समय पर कम्पयूटर साफ्टवैयर इंजीनियरों को सरकारी सम्मान देना चाहिये।
  • प्रत्येक स्तर पर हिन्दी लागू करने के लिये ऐक सैल का गठन करना चाहिये। सैल का अध्यक्ष हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनो भाषाओं की अच्छी जानकारी रखने वाला व्यक्ति होना चाहिये। विशेष तौर पर वह व्यकति ‘हिन्दी-उन्मादी’नहीं होना चाहिये। उसे अंग्रेजी भाषा से ‘नफरत’भी नहीं होनी चाहिये, तभी वह निष्पक्ष रह कर स्कारात्मिक ढंग से दैनिक समस्याओं का समाधान कर सकता है।
  • जो संस्थान अपना काम राष्ट्रभाषा में करें उन्हें आयकर, विक्रय कर आदि में कुछ छूट मिलनी चाहिये। इसी तरह हिन्दी के उपकरणों पर कुछ आर्थिक छूट दी जा सकती है। महानगरों को छोड कर मध्य वर्ग के शहरों में बिल बोर्ड हिन्दी या प्रान्तीय़ भाषा में होने चाहियें।

प्रवासी भारतीय

  • प्रवासी भारतीय जब भी ऐतक दूसरे से मिलें तो आपस में हिन्दी का प्रयोग ही करें।
  • ई मैग्जीनस में हिन्दी में पोस्ट लिखने का प्रयास करें।
  • अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने में गर्व करें।

जन संख्या के आधार पर चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा देश है। अतः संख्या के आधार पर चीनी भाषा हिन्दी से ऐक कदम आगे तो है लेकिन अपनी जटिल लिपि के कारण वह हिन्दी का मुकाबला नहीं कर सकती। अगर भारत वासियों में यह लग्न, साहस और कर्मठता पैदा हो जाये तो हिन्दी ही अंग्रेजी का स्थान अन्तरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर ले सकती है। भारत के पास कम्पयूटर साफ्टवेयर की सक्ष्म युवा शक्ति है जो अपने दाश का भाषा को विश्व में मान्यता दिला सकते हैं। जो कदम आगे बठाया है वह पीछे नहीं हटना चाहिये।

चाँद शर्मा

ऐ मेरे वतन के लोगो


ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुये हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।

य़ह भावपूर्ण गीत कवि प्रदीप ने लिखा था और इस में भारतीय सैनिकों के साहस, वीरता और देश-प्रेम के साथ साथ उन की दुर्दशा और दुखद अन्त का चित्र भी खींचा था। गीत की आत्मा उस के शब्द हैं जिस के लिये बधाई के ऐकमात्र पात्र कवि प्रदीप हैं।

इस गीत की धुन महान संगीतकार सी रामचन्द्र ने बनाई थी। सर्व प्रथम इस गीत को लता मंगेश्कर ने संवेदन शीलता साथ 27 जनवरी 1963  को नेशनल स्टेडियम में सी रामचन्द्र के लाईव आर्केस्ट्रा के साथ गाया था।

लेकिन अब यह गीत अपनी खूबियों के कारण याद नहीं किया जाता। इस गीत का परिचय केवल यह रह गया है कि इसे सुन कर जवाहरलाल नेहरू रो पडे थे।

पता नहीं कितनी माताये, बहने पत्नियां और बच्चे और भी कई जगहों पर रोये होंगे जिन के घरों के चिराग चीन की सुर्ख आँधी ने बुझा दिये थे। परन्तु वह अब किसी को याद नहीं।

नेहर जी ने संसद को बताया था कि हमारी सैनायें चीन से युद्ध करने को तैय्यार नहीं थी। उन के पास हथियार और साजो सामान नहीं थे। फिर क्यों उन्हें ठिठुरती सर्दी में ऊँचे पर्वतों पर चीनी ड्रैगन के आगे धकेल दिया गया था? क्यों नेहरू जी ने बिना किसी तैय्यारी के थलसैनाध्यक्ष को रक्षा सचिव सरीन के माध्यम से ही ‘Evict the Chinese’ का हुक्म सुना कर खुद कोलम्बो चले गये थे?

लेकिन जो कुछ भी हुआ वह आज भी  भारतीयों के लिये ऐक शर्मनाक याद है। इतिहास इस तथ्य को जानना चाहता है कि 1962 के असली गुनाहगार कौन थे?

सरदार पटेल से ले कर राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य तक देश के मझे हुये नेता नेहरू को तिब्बत समझोते के विरुध चेतावनी देते रहै लेकिन नेहरू रूपी दुर्योधन ने किसी की बात नहीं सुनी थी। विपक्षी नेता बार बार चीनी अतिकर्मण के बारे में सरकार से सफाई मांगते थे तो नेहरू जी उन्हें भी नकार देते थे। देश की धरती के बारे में उन की क्षद्धा थी ‘Not a blade of grass grows there’. जनरल सैन्य कमियों की दुहाई देते रहै परन्तु 14 नवम्बर 1961 तक नेहरू जी अपने जन्मदिन मनाने में व्यस्त रहै और उन की बातों को अपने लफ्जों से ही उडाते रहै।

इन सब बातों का क्च्चा चिठ्ठा शायद लेफ्टिनेन्ट जनरल हैण्डरसन ब्रुक्स की इन्कवाईरी रिपोर्ट से निकल कर जनता के सामने आ जाता अगर उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन वह रिपोर्ट पचास साल के बाद भी आजतक गुप्त ही पडी है ताकि चाचा नेहरू की ‘वाह-वाह’ के सहारे उन के वंशज काँग्रसी अपने चुनाव जीतते रहैं।

आज हमारी सैनाओं की जो हालत है वह भी किसी से कोई छिपी नहीं। आफिसर्स की कमी, हथियारों की खरीद के लिये बजट में कटौती आम बात है।

इन सब से अधिक जवानो के पास आज मनोबल की कमी है। जिस देश के नेता दुशमन के साथ दोस्ती कर के उसे गले लगाने की होड में जुटे हों तो उस दुशमन को यह पूरी छूट है वह चाहे तो  हमारे जवानों के सिर काट ले, चाहे उन की लाशों को विक्षिप्त कर दे और चाहे तो किसी भारतीय को बन्दी बना कर पीट पीट कर मार दे।

देश में बेकारी बहुत है लेकिन फिर भी हमारे देश के युवा सैना के आफिसर नहीं बनना चाहते और हमें आफिसर बनाने के लिये क्रिकेटरों आदि को आनरेरी रैंक दे कर सम्मानित करना पडता है।

हमारी सैनाये हर साल अपना शक्ति प्रदर्शन राजपथ पर सैल्यूट दे कर करती हैं। नेताओं की चिता को राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम विदाई देती हैं, उन की सुरक्षा के लिये हर सम्भव प्रयत्न करती हैं लेकिन नक्सलवादियों के हाथो…चलो छोडो इन दुखदाई बातों को।

कितना प्यारा गीत है

ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुये हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।

काश नेहरू जी की आँखों में उस दिन आँसुओं के बजाये अगर थोडी शर्म आ गयी होती तो आज हमारी दशा कुछ बेहतर होती।

कांग्रेस की युद्धनीति  

‘गांधीगिरी से देश और देश के स्वाभिमान की रक्षा’।

अगर कोई हमेरे सैनिकों को सीमा पर मार डाले या सीमाओं के अन्दर ही उन को अपमालित कर के मारे, पीटे और अपमानिक करे तो –

  • हम आक्रान्ताओं को बतायें गे कि अब हम और ‘मार’ या ‘अपमान’ सहन नहीं कर सकें गे।
  • कडे ‘शब्दों में लपेट कर’ विरोध प्रगट करें गे, निन्दा करें गे, खेद प्रगट करें गे।
  • मृतक सैनिकों के परिवारों को दस दस लाख तक की राशि ‘ब्लडमनी’ के तौर पर भेन्ट करने की घोषणा करें गे ।
  • नेताओं की जगह अपने सैनाध्यक्षों को लाशों पर या मृत के परिवार के घर जा कर श्रद्धांजली देने भेजें गे।
  • कैण्डल मार्च निकालें गे।
  • अन्य देशों को ‘अपने पिटने के सबूत’ दिखायें गे
  • शत्रु देशों के साथ ‘सदभावना’ बनाये रखने के लिये बातचीत जारी रखें गे।
  • अपने विपक्ष से कहें गे कि ‘इन मुद्दों पर राजनीति ना करी जाये’।
  • और उस के बाद अगली घटना का इन्तिजार करते करते थोडा सा सुस्ता भी लें गे।
  • फिर अगला ‘शो’ भी उसी तरह से ‘रिपीट’ करें गे।

और ताली बजा बजा कर गेयें गे – ‘उन्हें वीरता के बहाने मुबारिक, हमें हीजड़े अब रास आ गये हैं’।

चाँद शर्मा

26-9-13

साम्बा कथूआ नगर की पुलिस चौकी और सैनिक छावनी में आतंकी हमला हुआ, चार जवान और अन्य दो भारतीय शहीद हो गये, शायद दो आतंकी भी मारे गये हैं। अब गांधी गिरी शुरू हो चुकी है। नेताओं के बयान आने शुरु हो गये हैः-

आतंक वाद और बरदाशत नहीं किया जाये गा। पाकिस्तान आतंकियों पर लगाम लगाये (हम अहिंसावादी भारतीय नहीं लगा सकते)।  दिखनेवाले भारत के प्रधान मंत्री नवाजशरीफ के आगे अपना पक्ष रखें गे,…जवानों की लाशें उन के परिजनों के पास अनुदान राशि के साथ भेज दी जायें गी। कुछ जाने पहचाने पेशेवर बहस खोर टीवी चैनलों पर बहस भी करें गे और उस के बाद फिर यह देश और मीडिया इशरतजहाँ और सोहराबुदीन जैसे नामी आतंकियों को मरणोपरांत इनसाफ दिलाने में लग जाये गा – वोट खराब नहीं हों इस लिये जिन कर्मठ पुलिस कर्मियों ने उन आतंकियों का मारा था उन्हें गुनाहों की सजा देनी हो गी।

यह तो हमारा जाना पहचाना कार्यक्रम है। मीडिया को अभी प्राथमिकता के साथ यह भी बहसना है कि आडवाणी और नरेन्द्र मोदी के आपसी रिशतों में अभी कितनी दूरी बाकी है। नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी का घुटनों तक ही हाथ लगाये थे वह आडवाणी के पैरों तक नहीं पहुँचे थे।

ऐक बुझी हुई मोम बत्ती से तो रौशनी की उमीद लगाई जा सकती है लेकिन क्या मनमोहन सिहं और सलमान खुर्शीद से यह उमीद करी जा सकती है कि वह अमेरिका में नवाज शरीफ से बात चीत करे बिना स्वदेश लौट आयें और पाकिस्तान के खिलाफ कोई कडी कारवाई करें। सरकार को अपने दागी नेताओं को भी संसद और विधान सभाओं में फिर से प्रतिष्टित करना है। यह काम तो  शहीद जवानों की अन्तेष्टी होने से पहले करने पडें गे।

देश वासियो – अगर आप को अपने जवानों और परिवारों की सुरक्षा का कुछ भी विचार है तो देश को कांग्रेस मुक्त कर दो –  देश को  आतंकवाद मुक्त करने के मार्ग खुलने शुरु हो जायें गे।

जो शहीद हुये हैं उन की लाशों पे ना डालो पानी…

65 – हिन्दू-विरोधी गुटबन्दी


बटवारे से पहले हिन्दूओं को बाहरी देशों से आये इस्लाम और इसाई धर्मों से अपने देश को बचाने के लिये संघर्ष करना पडता था किन्तु बटवारे के पश्चात विदेशी धर्मो के अतिरिक्त विदेशी आर्थिक शक्तियों से भी जूझना पड रहा है जो हिन्दू जीवन शैली की विरोधी हैं। 

बाहरी विचार धाराओं का प्रभाव

भारत के बटवारे से पूर्व विश्व दो शक्तिशाली तथा परस्पर विरोधी गुटों में बटा हुआ था और हम ने अपने आप को साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) तथा पूजीँवादी (केपिटालिस्ट) देशों के दो स्दैव संघर्ष-रत पाटों के बीच फसे हुये पाया। दोनो ही हमें हडप लेने के लिये मुहँ खोले खडे थे। दोनो परस्पर विरोधी विचारधारायें मानवी सामाजिक बन्धनों को प्रभावित करने में सशक्त थीं क्यों कि उन का प्रत्यक्ष प्रभाव केवल दैहिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति से ही सम्बन्धित था।

आज दोनो विचार धारायें भारतीय हिन्दू जीवन पद्धति के मौलिक ताने बाने पर आघात कर रही हैं। बाहरी विचार धाराओं के दुष्परिणाम को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र का समर्थन और सक्रिय योजना की आवश्यक्ता पडती है किन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी तन्त्र के नेता दोनो विचारधाराओं के प्रलोभनो के माध्यम से बिक चुके हैं और दोनों विचार धाराओं के संरक्षकों को भारत में पैर पसारने की सुविधायें प्रदान कर रहै हैं। देश के साथ गद्दारी और दगाबाजी करने की कमिशन राजनेताओं के नाम विदेशी बेंकों में सुरक्षित हो जाती है।

प्रत्येक देश के सरकारी तन्त्र की सोच विचार नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र, आस्थाओं, और जीवन के मूल्यों से प्रभावित होती है। यदि उन की विचारधारा नैतिक मूल्यों पर टिकी होगी तो देश बाहरी विचारधाराओं का सामना कर सकता है परन्तु यदि नेता धर्म-निर्पेक्ष, अस्पष्ट और स्वार्थहित प्रधान हों तो सरकार विदेशी शक्तियों की कठपुतली बन जाती है। बटवारे के बाद हिन्दुस्तान में अभी तक देश हित के प्रतिकूल ही होता रहा है।

साम्यवाद  

साम्यवाद इसाईमत की ‘धूर्तता’ और मुस्लिम मत की ‘क्रूरता’ का मिश्रण है जिसे लक्ष्य प्राप्ति चाहिये साधन चाहे कुछ भी हों। उन की सोचानुसार जो कुछ पुरातन है उसे उखाड फैंको ताकि साम्यवाद उस के स्थान पर पनप सके। भारत की दारिद्रमयी स्थिति, अशिक्षित तथा अभावग्रस्त जनता और धर्म-निर्पेक्ष दिशाहीन सरकार, भ्रष्ट ऐवं स्वार्थी नेता, लोभी पूंजीपति, अंग्रेजी पद्धतियों से प्रभावित वरिष्ट सरकारी अधिकारी – यह सभी कुछ साम्यवाद के पौधे के पनपने तथा अतिशीघ्र फलने फूलने के लिये पर्याप्त वातावरण प्रदान करते रहै हैं। भारत में बढता हुआ नकस्लवाद सम्पूर्ण विनाश के आने की पूर्व सुचना दे रहा है। तानाशाही की कोई सीमा नहीं होती। तानाशाह के स्वार्थों की दिशा ही देश की दशा और दिशा निर्धारित करती है।

सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में कम्यूनिस्ट अपनी विचारधारा तथा आचरण से आदि मानवों से भी गये गुजरे हैं। निजि शरीरिक अवश्यक्ताओं के पूर्ति के अतिरिक्त अध्यात्मिक बातें उन के जीवन में कोई मूल्य नहीं रखतीं। पूंजीपति देशों की तुलना में साम्यवादी रूस और चीन में जनसाधारण का जीवन कितना नीरस और आभाव पूर्ण है वह सर्व-विदित है। आज वह देश निर्धनता के कगार पर खडे हैं। अपने आप को पुनर्स्थापित करने के लिये वह अपने प्रचीन पदचिन्हों के सहारे धार्मिक आस्थाओं को टटोल रहे हैं। मानसिक शान्ति के लिये उन के युवा फिर से चर्च की ओर जा रहे हैं या नशों का प्रयोग कर रहे हैं।

साम्यवाद जहाँ भी फैला उस ने स्थानीय धर्म, नैतिक मूल्यों और परम्पराओं को तबाह किया है। चीन, तिब्बत, और अब नेपाल इस तथ्य के प्रमाण हैं। किन्तु भारतीय कम्यूनिस्ट अपने गुरूओं से भी ऐक कदम आगे हैं। वह भारतीय परम्परा के प्रत्येक चिन्ह को मिटा देने में गौरव समझते हैं। जिस थाली में खायें गे उसी में छेद करने की सलाह भी दें गे। चलते उद्योगों को हडताल करवा कर बन्द करवाना, उन में आग लगवाना आदि उन की मुख्य कार्य शैलि रही हैं।

भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ साम्यवादी संगठन राजकीय सत्ता के दलालों के रूप में उभर रहै हैं और उन्हों ने अपना हिंसात्मिक रूप भी दिखाना आरम्भ कर दिया है। वह चुनी हुई सरकारों को चुनौतियाँ देने में सक्ष्म हो चुके है। हिन्दूधर्म को धवस्त करने का संदेश अपने स्दस्यों को प्रसारित कर चुके हैं और देश की दिशाहीन घुटने-टेक सरकार उन के सामने असमंजस की स्थिति में लाचार खडी दिखती है। भारत के लिये अब साम्यवाद, नकस्लवाद तथा पीपल्स वार ग्रुप जैसे संगठनो का दमन करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है।

साम्यवाद का अमेरिकन संस्करण मफलर की नकाब पहन कर भारत को चुनावी हथियार से तबाह करने का षटयंत्र है ताकि भारत में राष्ट्रवादी सरकार ना बन सके। आम आदमी पार्टी के बहकावे में डाला गया हर वोट अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के बराबर है।

पाशचात्य देशों का आर्थिक उपनेष्वाद

साम्यवाद के विपरीत, पाश्चात्य देशों की पूंजीवादी सरकारें भी भारत को भावी आर्थिक उपलब्द्धि मान कर निगल लेने की ताक में हैं। उन सब में प्रमुख अमेरिका का आर्थिक उपनेष्वाद है। प्रत्यक्ष युद्ध करने के बजाय परोक्ष रूप से अमेरिका तथा उस के सहयोगी देशों का अभिप्राय भारत को घेर कर आन्तरिक तौर पर कमजोर करना है ताकि वह स्दैव उन की आर्थिक नीतियों के सहारे चलता रहै और प्रदेशिक राज्यों में बट जाये ताकि वह प्रत्येक राज्य के साथ अलग अलग शर्तों पर आर्थिक अंकुश लगा सकें। उन्हों ने भारत के विघटन की दिशा में कई बीज जमाये थे जिन में से कई अंकुरित हो चुके हैं। यहां भी वर्तमान भारत सरकार उसी तरह दिशाहीन है जैसी साम्यवादियों के समक्ष रहती है। हम लोग अपना विनाश लाचार खडे देख रहे हैं और विचार कर रहै हैं कि ‘कोई’ हमें बचा ले गा। उन की विनाश लीला के यंत्र इस प्रकार हैः-

1.         विदेशी राजनैतिक गतिविधियाँ राजनैतिक मिशन पडोसी देशों में युद्ध की स्थितियाँ और कारण उत्पन्न करते हैं ताकि विकसित देशों के लिये उन देशों को युद्ध का सामान और हथियार बेचने की मार्किट बनी रहै। ऐक देश के हथियार खरीदने के पश्चात उस का प्रतिदून्दी भी हथियार खरीदे गा और यह क्रम चलता रहै गा। विक्रय की शर्ते विकसित देश ही तय करते हैं जिन की वजह से अविकसित देशों की निर्भरता विकसित देशों पर बढती रहती है। इस नीति के अन्तर्गत लक्ष्य किये गये देशों के अन्दर राजनैतिक मिशन अपने जासूस देश के शासन तन्त्र के महत्वपूर्ण पदों पर छिपा कर रखते हैं। लक्षित देशों की सरकारों को अपने घुसपैठियों के माध्यम से गिरवा कर, उन के स्थान पर अपने पिठ्ठुओं की सरकारें बनवाते हैं। लक्षित देश की तकनीक को विकसित नहीं होने देते और उस में किसी ना किसी तरह से रोडे अटकाते रहते हैं। देश भक्त नेताओं की गुप्त रूप से हत्या या उन के विरुध सत्ता पलट भी करवाते हैं। इस प्रकार के सभी यत्न गोपनीय क्रूरता से करे जाते हैं। उन में भावनाओं अथवा नैतिकताओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। इसी को ‘कूटनीति’ कहते हैं। कूटनीति में लक्षित देशों की युवा पीढी को देश के नैतिक मूल्यों, रहन सहन, संस्कृति, आस्थाओं के विरुध भटका कर अपने देश की संस्कृति का प्रचार करना तथा युवाओं को उस की ओर आकर्षित करना भी शामिल है, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध (साईक्लोजिकल वारफैयर) कहा जाता है। यह बहुत सक्षम तथा प्रभावशाली साधन है। इस का प्रयोग भारत के विरुध आज धडल्ले से हो रहा है क्यों कि सरकार की धर्म-निर्पेक्ष नीति इस के लिये उपयुक्त वातावरण पहले से ही तैयार कर देती है। इस नीति से समाज के विभिन्न वर्गों में विवाद तथा विषमतायें बढने लगती है तथा देश टूटने के कगार पर पहुँच जाता है।

2.         बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ कुख्यात ईस्ट ईण्डिया कम्पनी की तरह बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ (मल्टी नेशनल कम्पनियाँ) विकसित देशों के ‘अग्रिम सैन्य दस्तों’ अथवा ‘आर्थिक गुप्तचरों’ की तरह के कार्य करती हैं। वह विकसित देश के आर्थिक उपनेष्वाद को अविकसित देशों में फैलाती हैं। बिना किसी युद्ध के समूचे देश की अर्थ व्यवस्था दूसरे देश के अधिकार में चली जाती है। यह कार्य पाश्चात्य देशों की कम्पनियाँ आज कल भारत में माल (माऱकिटंग क्षेत्र) तथा आऊट सोरसिंग की आड में कर रही हैं। विकसित देशों को अपने उत्पादन बेचने के लिये अविकसित देशों की मण्डियाँ जुटानी होती हैं जहाँ पर वह सैनिक सामान के अतिरिक्त दैनिक जीवन का सामान भी बेच सकें। इस उद्देश पूर्ति के लिये उन की कार्य शैलि कई प्रकार की होती हैः-

  • ब्राँड एम्बेस्डरों तथा रोल माडलों की सहायता से पहले अविकसित देश के उपभोक्ताओं की दिनचैर्या, जीवन पद्धति, रुचि, सोच-विचार, सामाजिक व्यवहार की परम्पराओं तथा धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन किये जाते हैं ताकि वह घरेलू उत्पाकों को नकार कर नये उत्पादकों के प्रयोग में अपनी ‘शान’ समझने लगें।
  • युवा वर्गों को अर्थिक डिस्काऊटस, उपहार (गिफ्ट स्कीम्स), नशीली आदतों, तथा आसान तरीके से धन कमाने के प्रलोभनो आदि से लुभाया जाता है ताकि वह अपने वरिष्ठ साथियों में नये उत्पादन के प्रति जिज्ञासा और प्रचार करें। इस प्रकार खानपान तथा दिखावटी वस्तुओं के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। स्थानीय लोग अपने आप ही स्वदेशी वस्तु का त्याग कर के उस के स्थान पर बाहरी देश के उत्पादन को स्वीकार कर लेते हैं। घरेलू मार्किट विदेशियों की हो जाती है। कोकाकोला, केन्टचुकी फ्राईड चिकन, फेयर एण्ड लवली आदि कई प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों की भारत में आजकल भरमार इसी अर्थिक युद्ध के कारण है।
  • जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ‘आर्थिक-जाल’ सुदृढ हो जाता है तो वह देश के राजनैतिक क्षेत्र में भी हस्क्षेप करना आरम्भ कर देती हैं। भारत में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी का इतिहास इस का प्रमाण है। वह धन दे कर अपने पिठ्ठुओं को चुनाव में विजयी करवाती हैं और अपनी मन-मर्जी की सरकार देश में कायम करवा देती हैं। वह स्थानीय औध्योगों को बन्द करवा के स्थानीय कच्चे माल का निर्यात तथा अपनी कम्पनी के उत्पादनों का आयात करवाती हैं। हम आज विदेशी निवेश से प्रसन्न तो होते हैं परन्तु आने वाले समय में विदेशी कम्पनियाँ वह सभी कुछ करें गी जो ईस्ट ईण्डिया कम्पनी यहाँ कर के गयी थी। भारत पाश्चात्य देशों की ऐक कालोनी या उन पर निर्भर देश बन कर रह जाये गा जिस में स्वदेशी कुछ नहीं होगा।

3.         बिकाऊ प्रसार माध्यमआजकल प्रसार माध्यम नैतिकता को त्याग कर पूर्णत्या व्यवसायिक बन चुके हैं। उन का प्रभाव माफिया की तरह का बन चुका है। बहुराष्ट्रीय प्रसार माध्यम आर्थिक तथा तकनीकी कारणों से भारत विरोधी प्रचार करने में कहीं अधिक सक्षम हैं। वह देश वासियों की विचार धारा को अपनी दिशा में मोडते हैं। आज इन प्रसार माध्यमों में हिन्दू धर्म के विरोध में जम कर प्रचार होता है और उस के कई तरीके अपनाये जाते हैं जो देखने में यथार्थ की तरह लगते हैं। भारतीय संतों के विरुध दुष्प्रचार के लिये स्टिंग आप्रेशन, साधु-संतों के नाम पर यौन शोषण के उल्लेख, नशीले पदार्थों का प्रसार और फिर ‘भगवा आतंकवाद’ का दोषारोपण किया जाता है। अकसर इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग हमारे निर्वाचन काल में हिन्दू विरोधी सरकार बनवाने के लिये किया जाता है। भारत के सभी मुख्य प्रसार माध्यम इसाईयों, धनी अरब शेखों, या अन्य हिन्दू विरोधी गुटों के हाथ में हैं जिन का इस्तेमाल हिन्दू विरोध के लिये किया जाता है। भारत सरकार धर्म निर्पेक्षता के बहाने कुछ नहीं करती। अवैध घुसपैठ को बढावा देना, मानव अधिकारों की आड में उग्रवादियों को समर्थन देना, तथा हिन्दु आस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आजकल मीडिया का मुख्य लक्ष्य बन चुका है। नकारात्मिक समाचारों को छाप कर वह सरकार और न्याय व्यवस्था के प्रति जनता में अविशवास और निराशा की भावना को भी उकसा रहै हैं। हिन्दू धर्म की विचारधारा को वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में बाधा समझते हैं। काँन्वेन्ट शिक्षशित युवा पत्रकार उपनेष्वादियों के लिये अग्रिम दस्तों का काम कर रहै हैं।

4.         हिन्दू-विरोधी गैर सरकारी संगठनकईगैर सरकारी संगठन भी इस कुकर्म मेंऐक मुख्य कडीहैं। उन की कार्य शैली कभी मानव अधिकार संरक्षण, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की सहायता, अल्पसंख्यकों का संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण आदि की परत में छुपाई जाती है। यथार्थ में इन संगठनो का लक्ष्य विघटनकारी शक्तियों का संरक्षण, हिन्दूओं का धर्मान्तरण, तथा विदेशियों के हितों की रक्षा करना होता है। अकसर यह लोग पर्यावरण की आड में विकास कार्यों में बाधा डालते हैं। यह संस्थायें विदेशों में बैठे निर्देशकों के इशारों पर चलती हैं। उन के कार्य कर्ता विदेशी मीडिया के सहयोग से छोटी-छोटी बातों को ले कर राई का पहाड बनाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाने के लिय इतना शौर करते हैं कि स्थानीय महत्वपूर्ण मुद्दे सुनाई ही नहीं पडते। नर्मदा बचाव आन्दोलन, इन्टरनेशनल ब्रदरहुड, मिशनरीज आफ चैरिटी आदि इस के उदाहरण हैं। अकसर इन्हीं संस्थाओं के स्थानीय नेताओं को विश्व विभूतियों की छवि प्रदान करने के लिये उन्हें अन्तर्राष्टरीय पुरस्कारों से अलंकृत भी कर दिया जाता है। उन्हें देश द्रोह करने के पुरस्कार स्वरुप धन राशि भी प्राप्त होती रहती है।

5.         आर्थिक प्रतिबन्धय़ह प्रभावशाली हथियार विकसित देश कमजोर देशों के विरुद्ध अपनी शर्ते मनवाने कि लिये प्रयोग करते हैं। भारत के परमाणु परीक्षण के बाद पाश्चात्य देशों ने इसे हमारे विरुद्ध भी प्रयोग किया था। 

6.         उपभोक्तावाद सरकारी क्षेत्र, निजि क्षेत्र तथा व्यक्तिगत तौर पर किसी को बेतहाशा खर्च करने के लिये प्ररलोभित करना भी ऐक यन्त्र है जिस में कर्ज तथा क्रेडिट कार्ड की स्कीमों से गैर ज़रूरी सामान खरीदने के लिये उकसाना शामिल है। लोभवश लोग फालतू समान खरीद कर कर्ज के नीचे दब जाते हैं और अपना निजि तथा सामाजिक जीवन नर्क बना लेते हैं। उन के जीवन में असुरक्षा, परिवारों में असंतोष, तथा समाज और देश में संघर्ष बढता हैं। यह परिक्रिया हिन्दू धर्म की विचारधारा के प्रतिकूल हैं जो संतोष पूर्वक सादा जीवन शैली और संसाधनों का संरक्षण करने का समर्थन करती है।

हिन्दूवाद विरोधी धर्म-निर्पेक्षता

हिन्दू संस्कृति इस युद्ध की सफलता में बाधा डालती है अतः उस का भेदन भी किया जाता है। भारत में वैलेन्टाईन डे ने शिवरात्री के उत्सव को गौण बना दिया है। वैलेन्टाईन डे में फूल बेचने वालों, होटलों, तथा कई प्रकार के गिफ्टस बेचने वालों का स्वार्थ छिपा है जिस के कारण वह युवाओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोडते। इन यत्नों से परमपरायें भी टुटने लगती हैं तथा सामाजिक विघटन होता है। विदेशियों के हित में नये समीकरण बनने लगते हैं जिस में कुछ स्वार्थी नेता और उन के परिवार हिन्दू विरोधी गुटबन्दी की मुख्य कडी हैं। वह आपसी मत-भेद रहने के बावजूद भी हिन्दू विरोध में ऐक साथ जुड जाते हैं ताकि हिन्दूओं को ‘साम्प्रदायक ’ बता कर धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर देश की सत्ता से बाहर रखा जा सके। इन का मंच अकसर ‘थर्डफ्रन्ट’ कहलाता है। सत्ता में आने के बाद यह फिर अपने विरोधाभास के कारण देश को ‘जाम’ कर देते हैं।  

दिशाहीन उदारीकरण की नीति

इन कुरीतियों को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र तथा नीतियों की आवश्यक्ता है। इन पर नियन्त्रण करने के लिये सरकार की सोचविचार अनुकूल होनी चाहियें ताकि वह देश विरोधी गतिविधियों पर नियन्त्रण रख सके। हमें अमेरिकी प्रशासन तथा अन्य विकसित देशों से सीखना चाहिये कि वह किस प्रकार अपने देश में आने वालों पर सावधानी और सतर्कता बर्तते हैं। जो कुछ भी उन देशों की विचारधारा से मेल नहीं खाता वह उन देशों में ऩहीं प्रवेश कर सकता। उसी प्रकार हमें अपने देश में आने वालों और उन के विचारों की पडताल करनी चाहिये ताकि देश फिर से किसी की दासता के चंगुल में ना फंस जाये।

यह दुर्भाग्य है कि धर्म निर्पेक्षता तथा स्वार्थी नेताओं के कारण सरकारी सोच विचार तथा तन्त्र प्रणाली हिन्दू विरोधी है। हमारे राजनैता ‘उदारवादी’ बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। 

चाँद शर्मा

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

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