हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

43 – खेल-कूद के प्रावधान


क्रिकेट, हाकी, बास्केटबाल, वोलीबाल, सक्वाश और टेनिस आदि खेलों के सामने ऐसे लगने लगा है कि हमारे देश में कोई भी खेल नहीं खेला जाता था और खेलना कूदना हमें अंग्रेज़ों ने ही सिखाया। वास्तव में यह सभी खेल जन साधारण के नहीं हैं क्योंकि इन्हें खेलने के लिये बहुत महंगे उपकरणों की, जैसे की विस्तरित मैदान और साजो सामान की आवश्यक्ता पडती है जिन्हें जुटा पाना आम जनता के लिये तो सम्भव ही नहीं है। आजकल भारत में खेलों दूारा मनोरंजन केवल देखने मात्र तक सीमित रह गया है। प्रत्यक्ष खेलना तो केवल उन साधन सम्पन्न लोगों के लिये ही सम्भव है जो महंगी कलबों के सदस्य बन सकें। इस की तुलना में प्राचीन भारतीय खेल खरचीले ना हो कर सर्व साधारण के लिये मनोरंजन तथा व्यायाम का माध्यम थे।

शरीरिक विकास और व्यायाम

आत्म-ज्ञान के लिये स्वस्थ और स्वच्छ शरीर का होना अनिवार्य है। हम सुख-दुःख शरीर के माध्यम से ही अनुभव करते हैं अतः व्यायाम का महत्व भारत में बचपन से ही शुरु हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये ‘काया-साधना ’ करनी पडती है। हिन्दू मतानुसार शारीरिक क्षमता की बढौतरी करते रहना प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है। अतः शरीर के समस्त अंगों के बारे में जानकारी होनी चाहिये। योग का अभिप्राय शारीरिक शक्ति की वृद्धि और इन्द्रीयों पर पूर्ण नियन्त्रण करना है। इस साधना की प्राकाष्ठा समाधि, ऐकाग्रता तथा शारीरिक चलन हैं जिन का विकास सभी खेलों में अत्यन्त आवश्यक है। अष्टांग योग साधना के अन्तरगत आसन (उचित प्रकार से अंगों का प्रयोग), प्राणायाम (श्वास नियन्त्रण), तथा प्रत्याहार (इन्द्रियों पर नियन्त्रण) मुख्य हैं।

शरीरिक क्षमताओं को प्रोत्साहन

वैदिक काल – वैदिक काल से ही सभी को शारीरिक क्षमता वृद्धि के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। जहाँ ब्राह्मणों को अध्यात्मिक तथा मानसिक विकास के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, वहीं  क्षत्रियों को शरीरिक विकास के लिये रथों की दौड, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, घुड सवारी, मल-युद्ध, तैराकी, तथा आखेट का प्ररिशिक्षण दिया जाता था। श्रमिक वर्ग भी बैलगाडियों की दौड में भाग लेते थे। आधुनिक औल्मपिक खेलों की बहुत सी परम्परायें भारत के माध्यम से ही यूनान में गयीं थीं। हडप्पा तथा मोइनजोदारो के अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा से 2500-1550 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता में कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग किये जाते थे। उन में से तोरण (जेविलिन), चक्र (डिस्कस) इत्यादि खेल मनोरंजन के लिये प्रयोग किये जाते थे।

इस के अतिरिक्त बलराम, भीमसेन, हनुमान, जामावन्त, और जरासन्ध आदि के नाम मल-युद्ध में प्रख्यात हैं। विवाह के क्षेत्र में भी शारिरिक बल के प्रमाण स्वरूप स्वयंबर में भी शारीरिक शक्ति और दक्षता का प्रदर्शन किसी ना किसी रूप में शामिल किया जाता था। ऱाम ने शिव-धनुष पर प्रत्यन्चा चढा कर और अर्जुन नें नीचे रखे तेल के कढायें में मछली की आँख का प्रतिबिम्ब देख कर ऊपर घूमती हुयी मछली की आँख का भेदन कर के निजि दक्षता का प्रमाण ही तो दिया था। 

बुद्ध काल – बुद्ध काल में शारीरिक क्षमता बनाने तथा दर्शाने के विधान अपनी प्राकाष्ठा पर पहुँच गये थे। गौतम बुद्ध स्वयं सक्ष्म धनुर्धर थे और रथ दौड, तैराकी तथा गोला फैंकने आदि की स्पर्द्धाओं में भाग ले चुके थे। ‘विलास-मणि-मंजरी’ ग्रंथ में त्र्युवेदाचार्य नें इस प्रकार की घटनाओं का उल्लेख किया है। अन्य ग्रंथ ‘मानस-उल्हास’ (1135 ईसवी) में सोमेश्वर नें भारश्रम (व्हेट लिफटिंग) और भ्रमण-श्रम ( व्हेट के साथ चलना-दौडना) आदि मनोरंजक खेलों का उल्लेख किया है। यह दोनो आज औलम्पिक्स खेलों की प्रतिस्पर्धायें बन चुकी हैं। मल-स्तम्भ ऐक विशिष्ट प्रकार की कला थी जिस में प्रतिस्पर्धी कमर तक पानी में खडे रह कर तथा अपने अपने सहयोगियों के कन्धों पर सवार हो कर ऐक दूसरे से मलयुद्ध करते थे। 

गुप्त काल – चीन के पर्यटक ऐवं राजदूत फाहियान तथा ह्यूनत्साँग ने भी कई प्रकार की भारतीय खेल प्रतिस्पर्धाओं का उल्लेख किया है। नालन्दा तथा तक्षशिला के शिक्षार्थियों में तैराकी, तलवारबाज़ी, दौड़, मलयुद्ध, तथा कई प्रकार की गेंद के साथ खेली जाने वाले खेल लोकप्रिय थे।

मध्य काल – सोहलवीं शताब्दी के विजयनगर में निवास कर रहे पुर्तगीज़ राजदूत के उल्लेखानुसार महाराज कृष्णदेव राय के राज्य में कई खेलोपयोगी क्रीडा स्थल थे तथा महाराज कृष्णदेव राय स्वयं भी अति उत्तम घुडसवार, और मलयोद्धा थे। 

बाह्य-खेल

भारतीय खेलों की मुख्य विशेषता थी कि मनोरंजन करने के लिये किसी विशिष्ट प्रकार के साजो सामान की आवश्यक्ता नहीं पडती थी। ना ही किसी वकालत प्रशिक्षशित अम्पायर की ज़रूरत पडती थी। खेल का मुख्य लक्ष्य मनोरंजन के साथ साथ शारीरिक क्षमताओं का विकास करना होता था। भारत के कुछ लोकप्रिय खेल जो आज पाश्चात्य देशों में स्टेटस-सिम्बल माने जाते हैं इस प्रकार थेः-

  • सगोल कंगजेट – आधुनिक पोलो की तरह का घुड सवारी युक्त खेल 34 ईसवी में मणिपुर राज्य में खेला जाता था। इसे ‘सगोल कंगजेट’ कहा जाता था। सगोल (घोडा), कंग (गेन्द) तथा जेट (हाकी की तरह की स्टिक)। कालान्तर मुस्लिम शासक उसी प्रकार से ‘चौग़ान’ (पोलो) और अफग़ानिस्तान वासी घोडे पर बैठकर ‘बुज़कशी’ खेलते थे। बुजकशी का खेल अति क्रूर था क्यों कि केवल मनोरंजन के लिये ही ऐक जिन्दा भेड को घुड सवार एक दूसरे से छीन झपट कर टुकडे टुकडे कर देते थे। सगोल कंगजेट का खेल अँग्रेज़ों ने पूर्वी भारत के चाय बागान वासियों से सीखा और बाद में उस के नियम आदि बना कर उन्नीसवीं शताब्दी में इसे पोलो के नाम से योरुपीय देशों में प्रसारित किया।
  • बैटलदोड – बैटलदोड का प्रचलन प्राचीन भारत में आज से 2 हजार वर्ष पूर्व था। उस खेल को आधुनिक बेड मिन्टन की तरह पक्षियों के पंखों से बनी एक गेन्द से खेला जाता था। आधुनिक बेड मिन्टन खेल अंग्रेज़ों दूारा बैटलदोड का रुपान्तर और संशोधन मात्र है।
  • कबड्डी – इस भारतीय खेल के लिये किसी विशेष साधनों की आवशयक्ता नहीं होती। धरती पर ऐक छोटे मैदान को लकीर खेंच कर दो बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। दो टीमें ऐक दूसरे के सामने खेलती हैं। उन्हें विपरीत खिलाडी को छूना या पकडना होता है । दोनों टीमें अपने अपने खिलाडियों को बारी बारी से विपरीत टीम के पाले में भेजती हैं जो ऐक ही श्वास में “कब्डी-कब्डी” बोलता हुआ जाता है और बिना दूसरा श्वास भरे वापिस अपने भाग में आता है। यदि श्वास टूट जाये तो वह असफल माना जाता है। य़दि कोई खिलाडी सीमा से बाहर चला जाये या पकड लिया जाय तो वह असफल घोषित किया जाता है। भारत में तीन प्रकार की कब्डडी खेली जाती है जिन में से संजीवनी कब्डडी, कब्डडी फेडरेशन दूारा नियमित और मान्य है।
  • गिल्ली डंडा – यह खेल समस्त भारत में अत्यनत लोक प्रिय रहा है। इस खेल के लिये लकडी का ऐक छोटा ‘डंडा’, तथा ऐक दोनों ओर से नोकीली ‘गिल्ली’ की आवश्यक्ता पडती है। गिल्ली को डंडे से चोट कर के थोडा उछाला जाता है और फिर उछली अवस्था में ही उसे पुनः डंडे के आघात से, जहाँ तक हो सके, फैंका जाता है। जो जितनी दूर तक फैंक सके, उसी के आधार पर अंको (स्कोर) का निर्णय होता है। इस खेल के स्थानीय नियम प्रचिल्लित हैं। यदि इसी खेल को गोल्फ की तरह का उच्च कोटि का साजो सामान और आकर्ष्ण प्रदान करा दिया जाये तो यह खेल आज भी विश्व स्तर पर गोल्फ को भी मात दे सकता है जैसे यदि फाईबर-ग्लास या चन्दन की लकडी की मान्यता प्राप्त वजन और आकार की पालिश करी हुयीं खूबसूरत गिल्लियाँ और डंडे, जिन्हें लैदर के कैरीबैग्स सें सहायक उठा कर खिलाडियों के साथ मखमली घास के लम्बे-चौडे ‘गिल्ली-डंडा कोर्स’ पर चलें, फैशनेबल युवक-युवतियाँ छतरियों के नीचे बैठ कर दूरबीनों से अन्तर्राष्ट्रीय मैचों को देखने के लिये आमन्त्रित हों, दूरियाँ मापने के लिये स्वचालित ट्रालियों पर अम्पायर सवार हों और साथ में कमेंनट्री चलती रहै तो निश्चय ही भारत का प्राचीन खेल गिल्ली डंडा गोल्फ की तरह सम्मानजनक खेल बन सकता है।

आंतरिक खेल

खेल और मनोरंजन केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं थे। महिलाओं को भी खेलों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उस के लिये पर्याप्त व्यव्स्था भी थी। स्त्रियाँ आत्म-रक्षा की कला में भी निपुण थीं। वह घरेलु क्रीडाओं के माध्यम से भी मनोरंजन कर सकती थीं जैसे कि ‘किकली’, रस्सी के साथ विभिन्न प्रकार से कूदना, ‘मुर्ग़-युद्ध’, ‘बटेर-दून्द’, आदि। अन्य घरेलु साधन इस प्रकार थे जो परिवार में घर के अन्दर खेले जा सकते थे।

  • शतरंज – युद्ध कला पर आधारित यह खेल राज घरानों तथा सामान्य लोगों में अति लोक प्रिय रहा है। ‘अमरकोश’ के अनुसार इस का प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिस का अर्थ चार अंगों वाली सैना था। इस में हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सैनिक भाग लेते थे। इस का अन्य नाम ‘अष्टपदी’ भी था। इस को खेलने के लिये ऐक तख्ते की आवश्यक्ता पडती थी जिस पर प्रत्येक दिशा में आठ खाने बने होते थे। यह खेल युद्ध की चालें, सुरक्षा तथा आक्रमण के सिद्धान्तों का अद्भुत मिश्रण था। छटी शताब्दी में यह खेल महाराज अंनुश्रिवण के समय (531 – 579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ। तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालान्तर अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा। ईरान में शतरंज के बारे में प्राचीन उल्लेख 600 ईसवी में कर्नामके अरताख शातिरे पापाकान में मिलता है। फिर दसवीं शताब्दी में फिरदौसी कृत महाकाव्य ‘शाहनामा’ में भी इस खेल का उल्लेख है जो विदित करता है कि शतरंज का खेल भारत के राजदूत के माध्यम से ईरान में लाया गया था। भारत से ही यह खेल चीन और जापान में भी गया। चीन के साहित्य में इस का उल्लेख न्यू सेंग जू की पुस्तक यू क्वाइ लू (बुक आफ मार्वल्स) में मिलता है जो आठवीं शताब्दी के अंत में लिखी गयी थी। दक्षिण पूर्व ऐशिया के देशों ने शतरंज का खेल भारत से ही आयात किया तथा कुछ देशों ने जैसे कि स्याम आदि ने भारत से चीन की मार्फत आयात कर के सीखा।
  • मोक्ष-पट (साँपसीढी) – इस खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें ‘घर’ की संज्ञा दी गयी थी। प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञयाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ। इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।
  • गंजिफा – सामन्यता ताश जैसे इस खेल का भी धार्मिक और नैतिक महत्व था। ताश की तरह के पत्ते गोलाकार शक्ल के होते थे, उन पर लाख के माध्यम से या किसी अन्य पदार्थ से चित्र बने होते थे। ग़रीब लोग कागज़ या कँजी लगे कडक कपडे के कार्ड भी प्रयोग करते थे। सामर्थवान लोग हाथी दाँत, कछुए की हड्डी अथवा सीप के कार्ड प्रयोग करते थे। उस समय इस खेल में लगभग 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। खेल के एक अन्य संस्करण ‘नवग्रह-गंजिफा’ में 108 कार्ड प्रयोग किये जाते थे। उन को 9 कार्ड की गड्डियों में रखा जाता था और प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी।
  • पच्चीसी –  यह खेल लगभग 2200 वर्ष पुराना है। इसे भारत का राष्ट्रीय खेल कहना उचित हो गा। यह खेल ‘चौपड’, ‘चौसर’ अथवा ‘चौपद’ के नाम से जाना जाता है तथा आज भी भारत में खेला जाता है। यह लोकप्रिय और मनोरंजक भी है तथा नियमों आदि से बाधित भी है। मुस्लिम काल में यह खेल शासकीय वर्ग तथा सामान्य लोगों के घरों में ‘पांसा’ के नाम से खेला जाता था।

इस के अतिरिक्त जन जातियाँ भी जिमनास्टिक की तरह के प्रदर्शनकारी खेलों में पारंगत थी। बाजीगर चलते फिरते सरकस थे। उन के लिये बाँस की सहायता से अपना शरीरिक संतुलन नियन्त्रित कर के रस्सों के ऊपर चलना साधारण सी बात है और आज कल भी वह करते हैं। केवल हाथों के बल पर चलना फिरना, बाँस की सहायता से ऊंची छलाँग (हाई जम्प)भरना आदि के अधुनिक खेल वह बिना किसी सुरक्षा आडम्बरों के दिखा सकते हैं। यह खेद का विषय है कि भारत के आधुनिक शासकों नें इस संस्कृति के विकास के लिये कोई संरक्षण नहीं दिया है और यह कलायें लगभग लुप्त होती जा रही हैं और हमारे सामने ही हमारी विरासत उजडती जा रही है। उसी प्रकार 1960 के दशक तक यह सभी मनोरंजक खेल प्राय भारत के गाँवों और नगरों में खेले जाते थे परन्तु अब यह लुप्त होते जा रहै हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में युवा कम्पूटर गेम्स के माध्यम से ही महंगे विदेशी खेल खेला करें गे या केवल टी वी पर ही खेल देखा करें गे। 

चाँद शर्मा

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

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