हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

33 – सृष्टि का काल चक्र


आधुनिक वैज्ञानिक अब कहते हैं कि हमारी सृष्टि में अनगिनत ग्रह प्रति दिन पैदा हो रहे है और कई ग्रह अपना समय पूरा कर के विलीन हो रहै हैं – लेकिन हिन्दूग्रंथ तो आधुनिक वैज्ञानिकों से हजारों वर्षों पहले से ही कहते आ रहै हैं कि सृष्टि अनादि है – उस का कोई आरम्भ नहीं, सष्टि अनन्त है – उस का कोई अन्त भी नहीं। भारत के अंग्रेजी-प्रेमी शायद आज भी नहीं जानते कि केवल हिन्दू शास्त्रों के समय सम्बन्धी आँकडे ही आधुनिक वैज्ञानिक खगोल शास्त्रियों के आँकडों से मेल खाते हैं।

समय की गणना

आधुनिक वैज्ञानिक यह भी मानने लगे हैं कि सृष्टि के कालचक्र में ब्रह्मा का (यूनिवर्स) ऐक दिवस और रात्रि, पृथ्वी के एक दिवस और रात्रि के समय से 8.64 कोटि वर्षों बडी होती है। मनु स्मृति के प्रथम अध्याय में इस धरती के समय का विस्तरित उल्लेख किया गया है। आँख झपकने में जो समय लगता है उसे ऐक निमिष कहा गया है। निमिष के आधार पर समय तालिका इस प्रकार हैः-

  • 18 निमिष = ऐक कास्था
  • 30 कास्था = 1 कला
  • 30 कला = 1 महू्र्त
  • 30 महूर्त = अहोरात्र
  • 30 अहोरात्र = 1 मास

ऐक अहोरात्र को सूर्य कार्य करने के लिये दिन, तथा विश्राम करने के लिये रात्रि में विभाजित करता है। प्रत्येक मास के दो ‘पक्ष’ होते हैं जिन्हें ‘शुकल-पक्ष’ और ‘कृष्ण-पक्ष’ कहते हैं। पँद्रह दिन के शुकल पक्ष में चाँदनी रातें होती हैं तथा उतनी ही अवधि के कृष्ण पक्ष में अन्धेरी रातें होती हैं। सभी माप दण्डों का सरल आधार ‘30’ की संख्या है। यह समय विभाजन प्रत्यक्ष, वैज्ञानिक, और प्रकृति के अनुकूल है।

दिन का आरम्भ सूर्योदय के साथ होता है जब सभी जीव अपने आप जाग जाते है। नदियों के जल में स्वच्छता और प्रवाह होता है, कमल खिलते है, ताज़ा हवा चल रही होती है तथा प्रकृति सभी को नये, शुद्ध वातावरण का आभास दे देती है। उसी प्रकार जब सूर्यास्त के साथ रात होती है, पशु पक्षी अपने आवास की ओर अपने आप लौट पडते हैं, नदियों का जल धीमी गति से बहने लगता है, फूल मुर्झा जाते है तथा प्रकृति सभी गति विधियां स्थागित करने का संकेत दे देती है। इन प्रत्यक्ष तथ्यों की तुलना में रोमन कैलेण्डर के अनुसार चाहे दिन हो या रात, 12 बजे जब तिथि बदलती है तो प्रकृति में कोई फेर बदल प्रत्यक्ष नहीं होता। सभी कुछ बनावटी और बासी होता है।

पाश्चात्य केलैण्डर

रोमन कैलेण्डर को जूलियस सीज़र ने रोम विजय के पश्चात ग्रैगेरियन कैलेण्डर के नाम से लागू करवाया था। इस कैलेण्डर का आज भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

वैसे तो ईसाई ऐक ईश्वर को मानने का दावा करते हैं और अधिक देवी देवताओं में विशवास करने के लिये हिन्दूओं का उपहास उडाते हैं। किन्तु उन के पास कोई जवाब नहीं कि उन्हों ने अपने दिनों तथा महीनों को देवी देवताओं के नामों से क्यों जोडा हुआ हैं। उन के सप्ताह में सन गाड का दिन – ‘सनडे’’ मून गाडेस का दिन – ‘मनडे, ट्यूज देवता का दिन – ‘ट्यूजडे, वुडन देवता का दिन – ‘वेडनेसडे, थोर देवता का दिन – ‘थर्सडे, फ्रिग्गा गाडेस का दिन – ‘फ्राईडे, तथा सैटर्न देवता का दिन – ‘सैटरडे होता है। वास्तव में सप्ताह के दिनों के नाम भी रोमन वासियों नें भारत से ही चुराये हैं क्यों कि हमारे पूर्वजों ने दिनों के नाम सौर मण्डल के ग्रहों पर रखे गये थे जैसे कि रविवार (सूर्य), सोमवार (चन्द्र), मंगलवार (मंगल), बुद्धवार (बुद्ध), बृहस्पतिवार (बृहस्पति), शुक्रवार (शुक्र), और शनिवार (शनि)। क्योंकि बडी वस्तु को ‘गुरु’ कहा जाता है और छोटी को ‘लधु ’ – इसलिये बृहस्पतिवार को गुरुवार भी कहा जाता है। हमारे पूर्वजों को आधुनिक वैज्ञानिकों से बहुत पहले ही ज्ञात था कि बृहस्पति सौर मण्डल का सब से बडा ग्रह है।

पोर्तगीज भाषा में कैलैण्डर शब्द को ‘कालन्दर’ बोलते हैं जो संस्कृत के शब्द ‘कालन्तर’ (काल+अन्तर) का अपभृंश है। संस्कृत में कालन्तर उसी श्रेणी का शब्द है जैसे युगान्तर, मनवन्तर, कल्पान्तर आदि हैं। इन मापदण्डों का प्रयोग सौर मण्डल की काल गणना के लिये किया जाता है। रोमन कैलैण्डर के महीने सेप्टेम्बर, ओक्टोबर, नवेम्बर और डिसेम्बर का स्त्रोत्र भी संस्कृत के क्रमशः सप्तमबर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवम्बर, तथा दशम्बर से है जिनका शब्दिक अर्थ सातवें, आठवें, नवमें और दसवें अम्बर (आसमान) से है।

अंग्रेजों का अपना कोई कैलैण्डर नहीं था और वह जूलियन कैलैण्डर  को इस्तेमाल करते थे जिस में या साल ‘मार्च’ के महीने से शुरु होता था। साल में केवल दस महीने ही होते थे। मार्च से गिनें तो सेप्टेम्बर, ओक्टोबर, नवेम्बर और डिसेम्बर सातवें, आठवें, नौवें तथा दसवें महीने ही बनते हैं। जैसे जैसे अंग्रेजों में वैज्ञानिक जागृति आई तो उन्हों ने 1750 में ग्रीगेरियन कैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) को सरकारी कैलैण्डर बनाया और समय गणना को नयी सीख अनुसार पूरा करने के लिये दो महीने ‘जनवरी’ और ‘फरवरी’ भी जोड दिये। परम्परागत जनवरी 31 दिन का था और फरवरी में कभी 28 और कभी 29 दिन होते थे जिस का वैज्ञानिक आधार कुछ नहीं था। पश्चात ब्रिटिश संसद ने अपना वर्ष को मार्च के बदले जनवरी 1772 से प्रारम्भ करना शुरू किया क्यों कि क्रिस्मस के बाद पहला महीना जनवरी आता था।

राशी चक्र की वैज्ञानिक्ता

पाश्चात्य कैलेण्डर की तुलना में भारत का विक्रमी कैलेण्डर पृथ्वी के सौर मण्डल पर आधारित और वैज्ञानिक है। हमारी पृथ्वी सू्र्य की परिक्रमा लगभग सवा तीन सौ पैंसठ दिन में करती है। ऋगवेद में अनगिनित ताराग्रहों का वर्णन है, जिन को विभाजित कर के पृथ्वी दूारा सूर्य की वार्षिक परिक्रमा के मार्ग का मानचित्र बनाया गया है। मार्ग की पहचान के लिये सितारों के दर्श्नीय फैलाव के अनुरूप, उन के काल्पनिक रेखा चित्र बना कर उन्हें आकृतियों से मिलाया गया है। प्रत्येक विभाग को किसी जन्तु या वस्तु की आकृति के आधार पर ऐक राशि का नाम दिया गया है। राशियों के भारतीय रेखा चित्र आज विश्व भर में ज़ोडियक साईन के नाम से जाने जाते है। केवल ज़ोडियक नामों को ही स्थानीय देशों की भाषा में परिवर्तित किया गया है चित्र भारतीय चित्रों की तरह ही हैं।

360 दिनों को 12 राशियों में बाँट कर वर्ष के अन्दर 30 दिनों के बारह मास बनाये गये हैं। यह वह समय है जब पृथ्वी सूर्य परिक्रमा करते समय एक राशि भाग में लगाती है। दूसरे शब्दों में सूर्य पृथ्वी के उस राशि भाग में रहता है। उसी अवधि को ऐक मास कहा गया है। भारतीय कैलेन्डर के अनुसार स्दैव मास के प्रथम दिन पर ही सूर्य ऐक से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। यह सब कुछ वैज्ञानिक है और प्रत्यक्ष है। बारह राशियों के इसी वैज्ञानिक तथ्य को सूर्य के रथ के पहिये की बारह कडियाँ के रूप में चित्रों के माध्यम से भी दर्शाया गया है। राशियों की आकृतियों के आधार पर ही नाविक उन्हें ऐक से बारह अम्बरों (आसमान के टुकडों) की भान्ति भी पहचानने लगे थे।

महीनों के नामों की बैज्ञानिकता

हमारे समस्त वैदिक मास (महीने) का नाम 28 में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं l जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है उसी नक्षत्र के नाम पर उस मास का नाम हुआ l 1. चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास l 2. विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास l 3. ज्येष्ठा नक्षत्र से ज्येष्ठ मास l 4. पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा से आषाढ़ l 5. श्रावण नक्षत्र से श्रावण मास l 6. पूर्वाभाद्रपद या उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद l 7. अश्विनी नक्षत्र से अश्विन मास l 8. कृत्तिका नक्षत्र से कार्तिक मास l 9,. मृगशिरा नक्षत्र से मार्गशीर्ष मास l 10. पुष्य नक्षत्र से पौष मास l 11. माघा मास से माघ मास l 12. पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास l

भारतीय खगोल वैज्ञानिकों ने पाश्चात्य वैज्ञानिकों से पूर्व इस तथ्य पर भी विचार किया था कि सूर्य की परिकर्मा में पृथ्वी को सवा 365 दिन लगते हैं। अतः हिन्दू कैलेण्डरों के अन्दर प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात ऐक वर्ष तेरह महीनों का आता है जो दिनों की कमी को पूरा कर देता है। इसी बारह वर्ष की अवधि का सम्बन्ध भारत के कुम्भ आयोजनों से भी है जो हरिदूआर, प्रयाग, काशी तथा नाशिक में हजारों वर्षों से आयोजित किये जा रहै हैं। इस की तुलना में रोमन कौलेण्डर में यह काल लगभग मास के दूसरे या तीसरे सप्ताह में आता है, जो वैज्ञानिक ना हो कर केवल परम्परागत है। रोमन कैलेण्डर के 30 दिनों या 31 दिनों के महीनों तथा फरवरी में 28 या 29 दिनों के होने का कारण वैज्ञानिक नहीं, बल्कि काम चलाऊ है।

अप्राकृतिक रोमन कैलेण्डर हमारे ऊपर उस समय थोपा गया था जब अंग्रेज़ विश्व में अपना उपनेष्वाद फैला रहे थे। ब्रिटेन का अपना कोई कैलेण्डर नहीं था। इसाई देश होने के कारण उन्हों ने रोमन कैलेण्डर को अपना रखा था। ब्रिटेन का समय भारत से लग भग साढे पाँच घन्टे पीछे चलता है। जब भारत में प्रातः साढे पाँच बजे सूर्योदय होता है तो उस समय इंग्लैण्ड में मध्य रात्रि का समय होता है। भारत के ‘प्रत्यक्ष सूर्योदय’ के समय नया दिन आरम्भ करने की प्रथानुसार अंग्रेजों ने अपने देश में मध्य रात्रि के समय नया दिन घोषित कर लिया और उसी प्रथा को अपनी सभी कालोनियों पर थोप दिया। भारत के अतिरिक्त किसी कालोनी का निजि कैलेण्डर नहीं था, अतः किसी देश ने कोई आपत्ति भी नहीं जतायी। ग़ुलाम की भान्ति उन्हों ने अंग्रेजी मालिक का हुक्म स्वीकार कर लिया। किन्तु भारत में स्थानीय पाँचांग चलता रहा है जिस की अनदेखी भारत के सरकारी तन्त्र ने धर्म निर्पेक्षता की आड में करी है।

युग-काल का विधान

हमारे पूर्वजों ने केवल पृथ्वी की समय गणना का विधान ही नहीं बनाया था, बल्कि उन्हों ने सृष्टि की युग गणना का विधान भी बनाया था जिस के आँकडों को आज विज्ञान भी स्वीकारनें पर मजबूर हो रहा है।

भारतीय गणना के अनुसार चार युगों का ऐक चतुर्युग होता है। यह वह समय है जो ‘हमारा सूर्यमण्डल’ अपने से बडे महासूर्य मण्डल की परिकर्मा करने में लगाता है। यह गणना मन-घडन्त नहीं अपितु ऋगवेद के 10800 पद्धो तथा 432000 स्वरों में दी गयी है।

सतयुग, त्रेता, दूापर, और कलियुग चार युग माने जाते हैं। चार युगों से ऐक चतुर्युग बनता है। चतुर्युग के अन्दर युगों के अर्न्तकाल का अनुपात 4:3:2:1 होता है। अतः प्रत्येक युग की अवधि इस प्रकार हैः-

  • सतयुग – 17 लाख 28 हज़ार वर्ष
  • त्रेता युग – 12 लाख 96 हज़ार वर्ष
  • दूापर युग – 8 लाख 64 हज़ार वर्ष
  • कलियुग – 4 लाख 32 हज़ार वर्ष  (कुल जोड – 432000 वर्ष)

71 चतुर्युगों से ऐक मनवन्तर बनता है (30 करोड 67 लाख 20 हज़ार वर्ष) यह वह समय है जो महासूर्य मण्डल अपने से भी अधिक विस्तरित सौर मण्डल की परिकर्मा करने में लगाता है। इस से आगे भी बडे सूर्य मण्डल हैं जिन की परिकर्मा हो रही है तथा वह अनगिनित हैं।

सृष्टि के सर्जन तथा विसर्जन 

सृष्टि के सर्जन तथा विसर्जन का चक्र निरन्तर निर्विघ्न चलता रहता है। सर्जन 4.32 करोड वर्ष (ऐक चतुर्युग) तक चलता है जिस के पश्चात उतने ही वर्ष विसर्जन होता है। सृष्टि-कल्प वह समय है जब ब्रह्मा सृष्ठि की रचना करते हैं । इसी के बराबर समय का प्रलय-कल्प भी होता है। प्रलय-कल्प में सृष्ठि का विसर्जन होता है । सृष्ठि और प्रलय ऐक दूसरे के पीछे चक्र की तरह चलते रहते हैं जैसे हमारे दिनों के पीछे रातें आती है।  सर्जन-विसर्जन के समय का जोड 8.64 करोड वर्ष होता है जिसे ब्रह्मा का ऐक दिवस (अहरोत्रा) माना गया है। ऐसे 360 अहरोत्रों से ब्रह्मा का ऐक वर्ष बनता है जो हमारे 3110.4 केटि वर्षों के बराबर है।

हिन्दू शास्त्रों ने ऐक कल्प को 14 मनुवन्तरों में विभाजित किया है। प्रत्येक मनुवन्तर में 30844800 वर्ष होते हैं अथवा 308.448 लाख वर्ष होते हैं।

हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार वर्तमान सृष्टि की रचना श्वेतावराह कल्प में 1.972 करोड वर्ष पूर्व हुई थी। उस के पश्चात छः मनुवन्तर बीत चुके हैं और सातवाँ वैभास्वत मनुवन्तर अभी चल रहा है। पिछले मनुवन्तर जो बीत चुके हैं उन के नाम स्वयंभर, स्वारोचिश, ओत्तमी, तमस, रविवत तथा चक्षाक्ष थे।

सातवें मनुवन्तर के 28 चतुर्युग भी बीत चुके हैं और हम 29वें चतुर्युग के कलियुग में इस समय (2012 ईसवी) जी रहे हैं । वर्तमान कलियुग के भी 5004 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं

भागवत पुराण के अनुसार भक्त ध्रुव के पिता राजा उत्तानपाद स्वयंभर मनु के युग में हुये थे जो आज (2012 ईसवी) से 1.99 करोड वर्ष पूर्व है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इन गणाओं की अनदेखी करते रहे लेकिन जब अमेरिकन शोधकर्ता माईकल ए क्रामो ने कहा कि मानव आज से 2 करोड वर्ष पूर्व धरती पर आये तो भागवत पूराण के कथन की पुष्टि हो गयी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह काल गणना खगौलिक है। इस गणना के अनुसार आज की मानवी घटनाओं को जोडना उचित नहीं होगा। जैसे हाथी तोलने वाले माप दण्डों से स्वर्ण को नहीं तोला जाता उसी प्रकार किसी व्यक्ति की आयु का आंकलन ‘लाईट-यीर्स’ या ‘नैनो-सैकिण्डस में नहीं किया जाता।

भारतीय कैलैण्डर की उपेक्षा 

अंग्रेज़ी पद्धति अनुसार प्रशिक्षित भारतीय युवा अपने गौरवशाली पूर्वजों की उपलब्धियों को भूल कर अपने आप में ही गर्वित रहते हैं। जो कुछ अंग्रेज़ थूकते रहै मैकाले प्रशिक्षित भारतीय उसे खुशी से चाटते रहै हैं। आज से केवल पचास वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज घटनाओं को भारत के देसी महीनों के माध्यम से याद रखते थे किन्तु वह प्रथा अब लुप्त होती जा रही है। भारत के अंगेजी प्रशक्षित आधुनिक युवा देसी महीनों के नाम भी क्रमवार नहीं बता सकते। कदाचित वह समझते हैं कि भारत का अपना कोई कैलेण्डर ही नहीं था और रोमन कैलेण्डर के बिना हम प्रगति ही नहीं कर सकते। अपनी मनोविकृति के कारण हम आदि हो चुके हैं कि सत्य वही होता है जिसे पाश्चात्य वैज्ञानिक माने। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व पश्चिम के वैज्ञानिक ऐक स्वर में बोल रहे थे कि चन्द्रमां पर जल नहीं है। परन्तु जब भारत के चन्द्रयान ने चाँद की धरती पर जल के प्रमाण दिये तो अमेरिकी नासा ने भी पुनः खोज कर के भारत के कथन की पुष्टि कर दी।

अंतरीक्ष की भारतीय समय सारणी को भी आज के विज्ञान के माध्यम से परखा जा सकता है। यदि यह काम विदेशी ना करें तो भारत के वैज्ञानिकों को स्वयं करना चाहिये। हमारी उपलब्धियों को स्वीकृति ना देना पाश्चात्य देशों के स्वार्थ हित में है क्यों कि उन्हों ने भारत की उपलब्धियों को हडप कर अपना बनाया हुआ है। लेकिन हम किस कारण अपने पूर्वजों की धरोहर उन्हें हथियाने दें ? हम अपनी उपलब्दधियों की प्रमाणिक्ता पाने के लिये पाश्चात्य देशों के आगे हाथ क्यों फैलाते रहते हैं ?

आजकल कुछ देश भक्त अंग्रेजी नव-वर्ष पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं जो कि ऐक शुभ संकेत है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। अपनी उप्लब्द्धी की जानकारी भी रहनी चाहिये और उसे यथा सम्भव अंग्रेज़ी कैलेण्डर का साथ मिलाते रहना चाहिये। दुर्भाग्यवश अंग्रेजी कैलेण्डर ही अन्तरराष्ट्रीय मान्यता रखता है उसे बदलने के लिये पहले अपने घर में भारतीय कैलेण्डर की जानकारी तो होनी चाहिये। आज के युवा अपने देसी महीनों के नाम भी क्रमवार नहीं बता सकते जो पिछली पीढी तक सभी गाँवों में प्रचिल्लत थे। क्या हम अपने प्राईमरी स्कूलों में यह जानकारी फिर से पढा सकें गे?

चाँद शर्मा

 

32 – विज्ञान-आस्था का मिश्रण


जो बात समझ में ना आये उसे अंग्रेजी भाषा में मिथ कहा जाता है। स्नातन धर्म के वैदिक गूढ ज्ञान तथा उसी ज्ञान का कलात्मिक चित्रण जब पाश्चात्य विचारकों की समझ में नहीं आया तो उन्हों ने उसे ‘मिथ या ‘माईथोलोजी कह कर अपना पल्ला झाड लिया। उन्हीं के प्रभाव तले प्रशिक्षित कुछ बन्दरछापी भारतीयों नें भी स्नातन धर्म को ‘माईथोलोजीकह कर भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को विश्वविद्यालयों के क्षेत्र से निष्कासित कर दिया। कमी ज्ञान में नहीं थी – परन्तु उन की गुलामी भरी सोच और समझ में थी।

हिन्दू धर्म का अध्यात्मवाद पूर्णत्या आस्थाओं और विज्ञान का मिश्रण है। उदाहरण के लिये श्रीमद भाग्वद गीता के इस कथन की वैज्ञानिक्ता परख लीजिये –

‘जैसे घडे के फूट जाने के बाद घडे की मिट्टी पुनः मिट्टी में मिल जाती है, समुद्र में उठी लहरों का जल पुनः समुद्र में समा जाता है, स्वर्ण आभूषणों को गलाने के बाद स्वर्ण पुनः अपने मौलिक रूप में परिवर्तित हो जाता है – उसी प्रकार शरीर में बन्धी आत्मा शरीर छोड देने के पश्चात पुनः परमात्मा में विलीन हो जाती है। अन्ततः सृष्टी में सभी अपने अपने मौलिक स्वरुप में जा मिलते हैं’।

गीता के इस अध्यात्मवाद में छुपी भौतिक विज्ञान की सत्यता को क्या कोई वैज्ञानिक नकार सकता है?

पूर्णत्या वैज्ञानिक मानवीय आस्थायें

विश्व में इसाई तथा इस्लाम दो अन्य मुख्य धर्म हैं। इन दोनों धर्मों के जनकों के कर्म क्षेत्रों की भूमि मध्य ऐशिया में थी। दोनो धर्म स्नातन धर्म से कई शताब्दियों पश्चात आये। उन का आपसी अन्तर काल लगभग सात सौ वर्षों का है। उन दोनों धर्मों की अधिकाँश आस्थायें स्नातन धर्म और पुराणों में थोडा बहुत फेर बदल कर के विकसित हुयी हैँ, किन्तु दोनों धर्म भूगौलिक क्षेत्र तथा समय की सीमा में बन्धे हुये हैं।

उन की तुलना में स्नातन धर्म की विशेषता है कि उस के देवी देवता, पूर्वज किसी विशेष भूगौलिक क्षेत्र में सीमित नहीं रहै बल्कि उन्हों ने समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पद चिन्ह छोडे हैं। धार्मिक आस्थायें समय और स्थान की सीमा से आज़ाद हैं। स्नातन धर्म के देवी देवता जहां चाहें प्रगट हो सकते हैं और जब चाहे अन्तर्ध्यान हो सकते हैं। इतना ही नहीं, स्नातन धर्म ने आस्थाओं और मानस चित्रण के साथ वैज्ञानिक तथ्यों को भी कलात्मिक ढंग से जोड़ा है। उसी चित्रण को हम अपना अध्यात्मिक साहित्य मानते हैं जिसे पौराणिक साहित्य या पाश्चात्य विचारकों की भाषा में ‘माईथोलोजी’कहा जाता है।

ज्ञान का आँकलन 

स्नातन धर्म की विचारधारा हर प्रकार के वैचारिक आँकलन के लिये खुली पुस्तक की तरह है। आस्थाओं की नींव रखने के लिये भी प्रमाणिता के धरातल की आवशक्ता होती है। जब तर्क के बाद तर्क ऐक ही निर्णय का आभास प्रगट कते हैं तभी आस्था जन्म लेती है। गर्व की बात है कि हिन्दू धर्म की आस्थाओं को चुनौती कभी भी दी जा सकती है और उन की शाशवता को कोई खतरा नहीं है। इसी लिये वैज्ञिानिक तथ्यों के साथ हिन्दू आस्थाओं पर पुनर्विचार और आँकलन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। स्नातन धर्म में आस्थाओं को चुनौती देने वालों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता। 

हिन्दू धर्म के अनुयायी स्दैव धार्मिक विषयों को औपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलत करने का अनुगृह करते रहे हैं क्यों कि उन्हें पूर्ण विशवास है कि यदि हिन्दू आस्थाओं को विज्ञान और आधुनिक उपक्रमों के साथ तर्क की कसौटी पर परखा जाये गा तो तथ्य आस्थाओं के पक्ष में प्रमाणित हो जायें गे और भ्रामिकता मिट जाये गी। हिन्दू धर्म को दोनों परिस्थितियाँ स्वीकार है । यही हिन्दू धर्म की प्रबल शक्ति है। हिन्दू धर्म की आस्थायें तथा मान्यतायें इतनी सुदृढ हैं कि उन्हें आलोचना का कोई भय नहीं है। 

हिन्दू धर्म को धर्मान्धता या नास्तिकता से भी कोई खतरा नहीं है। धार्मिक आस्थाओं को खुले आम नकारने वाले को भी ना केवल बोलने दिया जाता है और सुना जाता है, बल्कि उसे अपनी नकारात्मिक अनास्तिक्ता का प्रचार भी करने दिया जाता है। यह सिद्ध करता है कि हिन्दू धर्म में विज्ञान तथा आस्थायें ऐक दूसरे के विपरीत ना हो कर ऐक दूसरे की पूरक हैं।

सृष्टि सर्जन

स्नातन मत के माध्यम से वैज्ञायानिक विचारों का उदय ऋगवेद से प्रारम्भ हुआ। वेदों के विचार से सृष्टि की रचना से पूर्व कुछ नहीं था। यह अवस्था उस रेखा को उजागर करती है जो शून्य तथा गुण-सम्पन्न भौतिक्ता के मध्य में रहती है। इसी समय को पाश्चात्य विचारकों की ‘बिग-बैंग थ्यिोरी के साथ जोडा है। यह विचार उस सत्य की ओर ईशारा करता है जो पूर्णतया वैज्ञायानक विचार है ना कि अन्ध-विशवास। जिस ‘बोसोनो अणु या ‘गाड-पार्टिकल के बारें में विश्व के वैज्ञानिक आज खोज में जुटे हैं उसी परिस्थिति का बखान भारतीय ग्रंथ हजारों वर्षों से करते चले आ रहै हैं। यहाँ पर केवल दो ही तथ्यों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। 

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय में ही सृष्टि की रचना, पृथ्वी पर जीवों के जन्म तथा उन की प्रकृति के बारे में विस्तरित जानकारी इस प्रकार उप्लब्द्ध हैः-

       आसीदितं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।

       अप्रतक्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।।

       ततः स्वयंभूभर्गवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्।

       महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः।। (मनु स्मृति 1 – 5-6)

अर्थात – पहले यह संसार तम (अन्धकार) प्रकृति से घिरा था, जिस से कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। अनुमान करने योग्य कोई रूप नहीं था जिस से तर्क दूारा लक्षण स्थिर कर सके। सभी ओर अज्ञान और शून्य की अवस्था थी। इस के बाद प्रलयावस्था के नाश करने वाले लक्षण सृष्टि के सामर्थ्य से युक्त, स्वयंभु भगवान महाभूतादि (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) पंच तत्वों का प्रकाश करते हुए प्रकट हुए। (यहाँ यह स्पष्टीकरण भी जरूरी है कि ‘तम’ का अपना कोई अस्तीत्व नहीं होता। ‘रौशनी का अभाव’ ही तम की अवस्था है।)

पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु का प्रगट होना आधुनिक भौतिक विज्ञान का जन्म है क्यों कि उन्हीं महाभूतों के मिश्रण से ही सृष्टी के अन्य पदार्थ विकसित हुये या मानव दूारा विकसित किये गये हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार प्रथम जीवन जल और गर्मी से उत्पन्न हुआ। जल सूर्याग्नि की तपश और वायु के कारण आकाश में उडता है तथा फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर आता है जिस से पैड-पौधे जन्म लेते हैं, जीव उत्पन्न होते हैं और पश्चात मानव का जन्म होता है। यही आस्थायें मानवी विज्ञान का आधार हैं जिन्हें सरलता के साथ समझाने के लिये हम देवी देवता का रूप में चित्रण भी कर सकते हैं और उन्हीं तथ्यों को आधार बना कर रौचक कथायें भी लिख सकते हैं। समस्त वेदों, उपनिष्दों, पुराणों में मनुस्मृति की तरह ही सृष्टि की उत्पत्ति का बखान किया गया है और कहीं भी विरोधाभास नहीं है।

जीव-विज्ञान

हमारे पूर्वजों को सभी प्रकार के जीवों से ले कर मानव के जन्म तक का पूर्ण ज्ञान था। बृहत विष्णु पुराण के अनुसार सब से पहले जल में सृष्टि हुई फिर वानर जो कि मानवों के अग्रज हैं। यही विचारधारा कालान्तर डारविन नें अपने नाम से पंजीकृत करवा कर ‘एवोलुशन थियोरी के नाम से प्रचारित कर ली। आदिकाल से पशु-पक्षी अपने जैसे जीवों को ही उत्पन्न करते चले आ रहै हैं। पशु पक्षियों ने अपनी संतानों को परिशिक्षण देने के लिये कोई विद्यालय नहीं बनाये। फिर भी उन के नवजात अपनी जाति के रहन-सहन को अपने आप ही सीख जाते हैं। डिस्कवरी तथा नेशनल ज्योग्राफिक टी वी चैनलों पर इन सभी तथ्यों को अब प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। प्राणी-विज्ञान के इसी तथ्य को डारविन से सैंकडों वर्ष पूर्व मनुसमृति में इस प्रकार उजागर किया गया थाः-  

       यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुड्क्त प्रथमं प्रभुः।

       स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः ।। (मनु स्मृति1- 28)

       अर्थात- पहले ब्रह्मा ने जिस जीव को जिस कार्य में नियुक्त किया, वह बारम्बार उत्पन्न हो कर भी अपने पूर्व-कर्म को करने लगा।

विष्णु के दस अवतार भी सृष्ठि सर्जन की कहानी को कलात्मिक ढंग से उजागर करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से ही समस्त जीवों में आत्मा बार बार उसी परमात्मा की ही पुनर्वृति करती है। इसी विचार को छन्दोग्य उपनिष्द ने भी व्यक्त किया है। पौराणिक कथाओं तथा लोक कथाओं में पशु-पक्षियों और पैड-पौधों का मानवी भाषा में बात करना इस वैज्ञानिक तथ्य को प्रमाणित करता है कि ना केवल पशु-पक्षियों में बल्कि पैड-पौधों में भी जीवन के साथ साथ संवेदनायें भी विद्यमान है। इसी तथ्य की पुनर्वृति करने के लिये विश्व के आधुनिक वैज्ञिानिकों और तर्क शास्त्रियों ने सर जगदीशचन्द्र बोस को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया था। 

कर्म विधान

श्रीमद्भागवद गीता मेंकर्म विधान की व्याख्या की गयी है। मानव कर्म करता है तो प्रतिक्रिया ईश्वर करता है। जो बोया जाये गा वही काटा जाये गा का विधान सर्व-सम्मत है। 

कर्म विधान में फल के अनुसार चार प्रकार के कर्म हैं-

  • निष्काम-कर्म – जो कर्म निजि मोक्ष प्राप्ति के लिये करे जाते है। इन से अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति पूर्णत्या संतुष्टि मिलती है जैसे मानव सेवा तथा ज्ञान का वितरण आदि।
  • पुण्य-कर्म – जव क्रम तथा उस को करने का उद्देष्य पवित्र हों तो उन्हें पुण्य-कर्म कहा जाता है जैसे किसी की जान बचाना।
  • पाप-कर्म – जिस कर्म का उद्देष्य तथा कर्म दोनो ही किसी का अनिष्ट करने के लिये किये जायें वह पाप-कर्म होते हैं।
  • मिश्रित-कर्म – जब कर्म तो अच्छा हो किन्तु उस के पीछे उद्देष्य अच्छा ना हो या उद्देष्य तो अच्छा हो परन्तु कर्म अच्छा ना हो।जैसे कोई अच्छी फसल पाने के लिये अन्य जीवों का नाश कर देना।

कर्मों का ही ऐक अन्य वर्गीकरण इस प्रकार हैः-

  • क्रियामान-कर्म – जो कर्म वर्तमान में किये जाते हैं तथा उन कर्मों से अन्य कर्म उत्पन्न होते हैं।
  • संचित-कर्म – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परन्तु उन का फल अभी आना बाकी है।
  • प्रारब्ध – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परिपक्व होने के पश्चात उन के फल वर्तमान में प्रगट हो रहे हों उन्हें प्रारब्ध अथवा भाग्य कहा जाता है। हमारा जन्म मरण सभी कुछ प्रारब्ध का परिणाम है।

यह प्रारब्ध का परिणाम है कि कोई राजा के महल में पैदा हो जाता है तो कोई निर्धन की कुटिया में जन्म लेता है। कुछ पूर्ण्त्या स्वस्थ, सुन्दर, गोरे, काले, लम्बे, छोटे पैदा होते हैं तो कुछ कमज़ोर, बीमार, विकृत पैदा होते हैं। मानव स्वयं अपनी प्रारब्ध का निर्माण करता है। जो हम इस जन्म में कर रहे होते हैं परिपक्व हो कर वही हमें अगले जन्म में प्राप्त हो गा। कर्म ही सृष्टि का मूल कारण है। मानव पर केवल उस के निजि कर्मों का ही असर नहीं पडता अपितु वह दूसरों के, अपने सम्वन्धियों, तथा जाति वालों के संयुक्त कर्मों से भी प्रभावित होता है। वैचारिक वैज्ञानिक्ता इस के विपरीत नहीं हो सकती।

कारण तथा प्रभाव का रहस्य  

आस्था है कि पुण्य कर्मों से पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसी बात को वैज्ञानिक आधार से समझने के लिये यदि कोई कडवी या तीखी मिर्च युक्त वस्तु खाये गा तो स्वाद भी कडुआ या जलाने वाला हो जायेगा। इस के उपरान्त वही व्यक्ति यदि कुछ मीठा खा लेगा तो भले ही प्रथम कर्म का प्रभाव पूर्णत्या नष्ट नहीं होगा किन्तु वर्तमान स्वाद कुछ सुखमय अवश्य हो जाये गा। कडुवे और मीठे कर्मों के परस्पर अनुपात के आधार पर ही व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःख निर्भर करते हैं। 

कर्म के प्रभाव की व्याख्या को आज विश्व के वैज्ञिानिक तथा दार्शनिक भीकारण तथा प्रभाव(ऐक्शन ऐण्ड रीऐकशन थियोरी)के नाम सेप्रमाणित मानते हैं। कर्म का अर्थ क्रिया से है। प्रमाणित तथ्य है कि प्रत्येक क्रिया के समान उस की प्रतिक्रिया भी होती है। जो कोई भी कर्म करता है ईश्वर उस का फल कर्म करने वाले को अवश्य देता है।

हिन्दू धर्म की आस्थाये तथा विचारधारायें बारबार प्रमाणित होकर हिन्दू साहित्य के माध्यम मे हमें प्राप्त हुयी हैं। इस लिये स्नातन धर्म यथार्थ में ज्ञान और आस्था का मिश्रण है।

चाँद शर्मा

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