हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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नेहरू की याद में…


बातें कुछ कडवी ज़रूर हैं परन्तु सच्चाई ऐसी ही होती है।

आज से लगभग 350 वर्ष पहले मुसलमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दु गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन्हें इनसाफ़ दिलाने के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। मगर इनसाफ़ नहीं मिला। 350 वर्ष बाद आज भी कशमीरी हिन्दुओं की हालत वहीं की वहीं है और वह शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर-उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दुओं ने पलायन करने के इलावा अपने बचाव के लिये और क्या सीखा ?

भारत विभाजन के बाद सरदार पटेल ने अपनी सूझ-बूझ से लगभग 628 रियास्तों का भारत में विलय करवाया किन्तु जब कशमीर की बारी आयी तो नेहरू ने शैख़ अब्दुल्ला से अपनी यारी निभाने के लिये सरदार पटेल के किये-कराये पर पानी फेर दिया और भारत की झोली में एक ऐसा काँटा डाल दिया जो आजतक हमारे वीर सिपाहियों का लगातार खून ही पी रहा है। विभाजन पश्चात अगर शरर्णाथी हिन्दु – सिक्खों को कशमीर में बसने दिया होता तो आज कशमीरी हिन्दु मारे मारे इधर-उधर नहीं भटकते, किन्तु नेहरू के मुस्लिम प्रेम और शैख़ अब्दुल्ला से वचन-बध्दता ने ऐसा नहीं करने दिया।

सैंकड़ों वर्षों की ग़ुलामी के बाद हमारा प्राचीन भारत जब स्वतन्त्र हुआ – तब नेहरु जी को विचार आया कि इतने महान और प्राचीन देश का कोई ‘पिता’ भी तो होना चाहिये। नवजात पाकिस्तान ने तो जिन्नाह को अपना ‘क़ायदे-आज़म’ नियुक्त कर दिया, अतः अपने आप को दूरदर्शी समझने वाले नेहरू जी ने भी तपाक से गाँधी जी को इस प्राचीन देश का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा दिया। बीसवीं शताब्दी में ‘पिता’ प्राप्त कर लेने का अर्थ था कि प्राचीन होने के बावजूद भी भारत, इसराईल, पाकिस्तान या बंग्लादेश की तरह एक राष्ट्रीयता हीन देश था।

राष्ट्रपिता के ‘जन्म’ से पहले अगर भारत का कोई राष्ट्रीय अस्तीत्व ही नहीं था तो हम किस आधार पर अपने देश के लिये विश्व-गुरू होने का दावा करते रहे हैं ? हमारी प्राचीन सभ्यता के जन्मदाता फिर कौन थे ? क्यों हम ने बीसवीं शताब्दी के गाँधी जी को अपना राष्ट्रपिता मान कर अपने-आप ही अपनी प्राचीन सभ्यता से नाता तोड़ लिया? इस से बडी मूर्खता और क्या हो सकती थी?

राष्ट्र को पिता मिल जाने के बाद फिर जरूरत पडी एक राष्ट्रगान की। दूरदर्शी नेहरू जी ने मुसलमानों की नाराज़गी के भय से वन्देमात्रम् को त्याग कर टैगोर रचित ‘जन गन मन अधिनायक जय है ’ को अपना राष्ट्रगान भी चुन लिया। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ वन्देमात्रम् स्वतन्त्रता संग्राम में स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रेरित करता रहा वहीं ‘जन गन मन ’ मौलिक तौर पर इंगलैन्ड के सम्राट की अगवाई करने के लिये मोती लाल नेहरू ने टैगोर से लिखवाया था। इस गान में केवल उन्हीं प्रदेशों का नाम है जो सन् 1919 में इंगलैन्ड के सम्राट के ग़ुलाम थे। यहाँ यह भी बताना उचित हो गा कि ‘टैगोर’ शब्द अंग्रेजों को प्रिय था इस लिये रोबिन्द्र नाथ ठाकुर को टैगोर कहा जाता है। आज भी इस राष्ट्रगान का ‘अर्थ’ कितने भारतीय समझते हैं यह आप स्वयं अपने ही दिल से पूछ लीजिये।

विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया था। अपने प्रियजनों को कटते और अपने घरों को अपने सामने लुटते देख कर जब लाखों हिन्दु सिक्ख भारत आये तो उन के आँसू पोंछने के बजाय ‘राष्ट्रपिता’ ने उन्हें फटकारा कि वह ‘पाकिस्तान में ही क्यों नही रहे। वहां रहते हुये अगर वह मर भी जाते तो भी उन के लिये यह संतोष की बात होती कि वह अपने ही मुसलमान भाईयों के हाथों से ही मारे जाते ’।

मुस्लिम प्रेम से भरी ऐसी अद्भुत सलाह कोई ‘महात्मा’ ही दे सकता था कोई सामान्य समझबूझ वाला आदमी तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। पाकिस्तान और मुस्लमानों के प्रेम में लिप्त हमारे राष्ट्रपिता ने जिस दिन ‘हे-राम’ कह कर अन्तिम सांस ली तो उसी दिन को नेहरू जी ने भारत का ‘शहीद-दिवस’ घोषित करवा दिया। वैसे तो भगत सिहं, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे कितने ही महापरुषों ने आज़ादी के लिये अपने प्राणों की बलि दी थी परन्तु वह सभी राष्ट्रपिता की तरह मुस्लिम प्रेमी नहीं थे, अतः इस सम्मान से वंचित रहे ! उन्हें ‘आतंकी’ का दर्जा दिया जाता था। राष्ट्रपिता और महान शहीद का सम्मान करने के लिये अब हर हिन्दु का यही ‘राष्ट्र-धर्म’ रह गया है कि वह अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर मुस्लमानों को हर प्रकार से खुश रखे।

भारत को पुनः खण्डित करने की प्रतिक्रिया नेहरू जी ने अपना पद सम्भालते ही शुरू कर दी थी। भाषा के आधार पर देश को बाँटा गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो घोषित करवा दिया लेकिन सभी प्रान्तों को छूट भी दे दी कि जब तक चाहें सरकारी काम काज अंग्रेज़ी में करते रहें। शिक्षा का माध्यम प्रान्तों की मन मर्जी पर छोड़ दिया गया। फलस्वरूप कई प्रान्तों ने हिन्दी को नकार कर केवल प्रान्तीय भाषा और अंग्रेज़ी भाषा को ही प्रोत्साहन दिया और हिन्दी आज उर्दू भाषा से भी पीछे खड़ी है क्योंकि अब मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण उर्दू को विशेष प्रोत्साहन दिया जाये गा।

भारत वासियों ने आज़ादी इस लिये मांगी थी कि अपने देश को अपनी संस्कृति के अनुसार शासित कर सकें। सदियों की ग़ुलामी के कारण अपनी बिखर चुकी संस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिये यह आवश्यक था कि अपने प्राचीन ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में शामिल कर के उन का आंकलन किया जाता। वैज्ञानिक सुविधायें प्रदान करवा के उन का मूल्यांकन करवाया गया होता, मगर नेहरू जी के आदेशानुसार उन मौलिक विध्या ग्रंथों को धर्म निर्रपेक्षता के नाम पर पाठ्यक्रमों से खारिज ही कर दिया गया।

कशमीर विवाद के अतिरिक्त नेहरू की अन्य भूल तिब्बत को चीन के हवाले करना था। देश के सभी वरिष्ट नेताओं की सलाह को अनसुना कर के उन्हों ने चीन की सीमा को भारत का माथे पर जड़ दिया। चीन के अतिक्रमण के बारे में देश को भ्रामित करते रहे। जब पानी सिर से ऊपर निकल गया तो अपनी सैन्य क्षमता परखे बिना देश को चीन के साथ युध्द में झोंक दिया और सैनिकों को अपने जीवन के साथ मातृभूमि और सम्मान भी बलिदान करना पड़ा। भारत सरकार ने यह जानने के लिये कि हमारे देश की ऐसी दुर्गति के लिये कौन ज़िम्मेदार था ब्रिटिश लेफटीनेन्ट जनरल हेन्डरसन ब्रुक्स से जो जाँच करवायी थी उस की रिपोर्ट नेहरू जी के समय से ही आज तक प्रकाशित नहीं की गयी।

1962 की पराजय के बाद ‘ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी’ गीत को सुन कर वीर जवाहर रो पडे थे इस लिये हम भी आये दिन यही गीत सुबक सुबक कर गाते हैं और शहीदों के परिवारों का मनोबल ऊँचा करते हैं। काश वीर जवाहर आजाद हिन्द फौज के इस गीत को कभी गाते तो हमारे राष्ट्र का मनोबल कभी नीचे ना गिरता –

कदम कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा, यह जिन्दगी है कौम की उसे कौम पर लुटाये जा।

पंडित नेहरू ने भारत इतिहास के  स्वर्ण-युग को “गोबर युग ” कह कर नकार दिया था। वह स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि ‘मैं विचारों से अंग्रेज़, रहन-सहन से मुसलिम और आकस्माक दु्र्घना से ही हिन्दु हूं’। काश यह आकस्माकी दु्र्घना ना हुई होती तो कितना अच्छा होता। इस बाल-दिवस पर नेहरू की जगह ऐक पटेल जैसा बालक और पैदा हो गया होता तो यह देश सुरक्षित होता।

आज़ादी के बाद देश में काँग्रेस बनाम नेहरू परिवार का ही शासन रहा है, इस लिये जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों का सही आंकलन नहीं किया गया। आने वाली पीढीयां जब भी उन की करतूतों का मूल्यांकन करें गी तो उन की तुलना तुग़लक वंश के सर्वाधिक पढे-लिखे सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक से अवश्य करें गी और नेहरू की याद के साथ भी वही सलूक किया जाये गा जो सद्दाम हुसैन के साथ किया गया थी – तभी भारत के इतिहास में नेहरू जी को उनका यत्थेष्ट स्थान प्राप्त होगा।

चाँद शर्मा

प्रेत योनि का सच


(केवल व्यस्कों के लिये)

काँग्रेस डायन मर चुकी है। लेकिन चुनाव के समय से पहले मरने को अकाल-मृत्यु कहते हैं और मृतक की गति नहीं होती। सत्ता प्राप्ति की अंतिम इच्छा अधूरी रह जाने के कारण काँग्रेसियों की आत्मा प्रेत-योनियों में भटकती रहै गी। उन की संतप्त आत्मायें या तो वर्तमान प्रेत योनि में या जो कोई भी सड़ा गला शरीर हाथ लगे गा उसी में प्रवेश कर जायेंगी और उसी शरीर के माध्यम से अपनी अतृप्त इच्छाओं को संदेश भी देती रहैं गी। वह शरीर किसी का भी हो सकता है चाहे मुलायम सिहं की समाजवादी पार्टी, या मायावती की बहुजन समाज पार्टी, या ममता की तृणमुल काँग्रेस या कोई और पार्टी हो सकती है।

काँग्रेसी अपनी लाश को पुनर्जीवित करने के प्रयास अभी भी लगातार कर रहै हैं लेकिन उम्मीद टूट चुकी है। भ्रष्टाचार के पापों की वजह से काँग्रेस को पहले से ही अपनी अकाल मृत्यु का आभास था। इस लिये सत्ता प्राप्ति के लिये काँग्रेसियों ने अन्ना हजारे नाम के मदारी से सम्पर्क कर के केजरीवाल नाम का ऐक जिन्न पैदा किया था। बोतल से बाहर आने के बाद वह जिन्न इतना बडा हो गया कि उस ने दिल्ली में काँग्रेस को ही खा लिया और वह डायन अकाल मृत्यु को सिधार गयी। जिन्न की अपनी सत्ता लालसा भी अधूरी ही रही इस लिये वह भी प्रेत योनि में पडी काँग्रेस के सम्पर्क में है। दोनों वेम्पायर बन चुके हैं। अब काँग्रेसी अपना मूल-शरीर त्याग कर आम-आदमी के शरीर में निवास तलाशने की भरसक कोशिश करें गे ताकि सत्ता की अतृप्त लालसा को पूरा कर सकें।

डायन ने पिछले साठ वर्षों में देश का इतना खून पिया कि सारा वातावरण ही दुर्गन्ध से भर चुका है। उस के सम्पर्क के कारण कई छोटे मोटे प्रेत विभिन्न क्षेत्रों में पैदा हो चुके हैं और जनमानस को त्रास्दी दे रहै हैं।

क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता

जिस तरह साँप केंचुली बदल कर भी जहरीले रहते हैं उसी तरह क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता भी पार्टियों के नाम बदल कर भी कूयें के मैँडक बने रहते हैं। उन की संकुचित विचारधारा और स्वार्थिक कार्य शैली हर नये दिन के साथ देश को पीछे ही धकेल रही है। जब चुनाव नहीं होते तो यह लोग भ्रष्ट तरीकों से धन कमाने में लगे रहते हैं, विदेशों में घूमने चले जाते हैं, अपने आप को बेच कर पार्टी बदलने की कीमत वसूलते हैं, परिवारिक बिजनेस देखते हैं, अपने ऊपर चलने वाले मुकदमों की पैरवी करते रहते हैं। और कुछ नहीं तो बस आराम करते हैं। आम जनता को भी उन की कोई परवाह नहीं होती कि वह जिन्दा हैं या मर चुके। चुनावी बादलों की गर्जना सुनते ही गटर के काकरोचों की तरह वह बाहर निकल आते हैं, नये गठ जोड तलाशते हैं। अपने जिन्दा होने के सबूत के तौर पर नये लोक-लुभावन नारे सुना देते हैं। कई तो सडकों पर त्योहारों का बहाना ले कर जनता के लिये ‘ शुभकामनायें ’ चिपका देते हैं। वास्तव में यही नेता हमारे राज तन्त्र का अभिशाप हैं और देश की समस्याओं की ऐसी जड हैं जहाँ से समस्याओं के अंकुर फूटते ही रहते हैं। यह नेता अंग्रेजी शब्द सैकूलर की परिभाषा पर खरे उतरते हैं क्योंकि वह किसी भी आस्था, धर्म, परम्परा में विशवास नहीं रखते और आत्म सन्तुष्टि ही इन का चिरन्तर निरन्तर लक्ष्य होता है।

घिसे-पिटे नेता

इस श्रेणी में दो तरह के नेता हैं। पहली श्रेणी के नेता छोटे चूहों की तरह हैं। जैसे छोटे चूहे अनाज के भण्डारों से छोटी मात्रा में चोरी करते हैं लेकिन जब उस का हिसाब लगाया जाये तो बरबादी हजारों टन की हो जाती है। संसद या विधान सभाओं में इन के पास तीन चार सीटें ही होती हैं। लेकिन देश में सभी को मिला कर यह 90 -100 सीटें खराब कर देते हैं।

दूसरे मोटे चूहे हैं जिन के पास 15 -20 तक की सीटें होती हैं जिस के आधार पर वह मोल भाव करते हैं। वह अपने आप को ‘ किंग-मेकर ’ समझते हैं। यह लोग चुनाव से पहले या उस के बाद की तरह के गठ बंधन बना लेते हैं और फिर सत्ता में अपना भविष्य सूधारते रहते हैं।

उन का योग्दान

लगभग इन घिसे पिटे नेताओं में ना तो कोई शैक्षिक योग्यता है ना ही उन की कोई सोच समझ या कार्य शैली है। यह सिर्फ देश को प्रदेशों, जातियों, वर्गों या  परिवारों के आधार पर बाँटे रखते हैं और कोई भी महत्व पूर्ण काम इन के नाम से नहीं जुडा हुआ इस देश में है।  अगर चुनाव के वक्त वह सत्ता में हैं तो अपने घर के आसपास तक रेलवे लाईन बिछवा दें गे, हवाई अड्डा बनवा दें गे, अपनी जाति के लोगों को आरक्षण दिलवा दें गे, दूसरी जाति के सरकारी कर्मचारियों के मनमाने तरीके से तबादले करवा दें गे, सरकार खजाने से लेपटाप और इसी तरह की दूसरी वस्तुयें बटवायें गे और भ्रष्टाचारी गोलमाल भी करें गे। कुछ ऐक बडे बडे वादे जनता से करें गे कि अगर वह सत्ता में आ गये तो बिजली, पानी, अनाज, प्लाट आदि मुफ्त में दे दें गे। बदले में इन नेताओं को भारी भरकम वेतन, भत्ते, बंगले, सुरक्षा कर्मियों के दस्ते, लाल बत्ती की गाडियां और आजीवन पेनशन मिल जाती हैं।

आम आदमी पार्टी

काँग्रेस की अवैध संतान होने के कारण आम आदमी पार्टी में भी पैशाचिक लक्षण ही हैं। वह माओवाद, नकसलवाद, राष्ट्रद्रोह तथा बाहरी पैशाचिक शक्तियों से ही प्रेरित हैं। लेकिन भारतीय युवाओं को बरगला कर उन का रक्त पी लेने के कारण कुछ समय बाद उन में कुछ सद्गुण प्रगट होने की आशा करी जा सकती है। अभी बहुत से बुद्धिजीवी और परिस्थितियों से असंतुष्ट बुद्धिजीवी उन्हें आश्रय देने को तत्पर हैं जिस कारण अगर उन्हों ने केजरीवाल के तिलसिम से छुटकारा पा लिया तो आनेवाले समय में वह कुछ सत्कर्म भी कर सकें गे। इस की सम्भावनायें निकट भविष्य में बिलकुल ही नहीं हैं क्यों कि उन का शद्धिकरण नहीं हुआ।

जरा सोचिये

जो नेता या पार्टीयां लोक सभा या विधान सभा के लिये 60 प्रतिशत से कम प्रत्याशी खडे करती हैं वह कभी भी सरकार नहीं बना सकतीं और उन का चुनाव में आना सिर्फ मोल भाव कर के अपना जुगाड बैठाना मात्र है। उन पर अपना वोट और देश के संसाधन क्यों बरबाद करने चाहियें? बटवारे के बाद आज तक हम इसी तरह के लोगों का शिकार होते रहै हैं। क्या हमारा आर्थिक ढांचा इन लोगों की अनाप शनाप बातों को सहन करते रहै गा। अब वक्त आ गया है कि 2014 के चुनाव में इन नेताओं को हमेशा के लिये देश की राजनीति से बाहर कर दिया जाये। यह सभी चेहरे जाने पहचाने हैं।

चाँद शर्मा

भेड़-चाल


दिल्ली में ‘AAP’ की सरकार है जिन्हों ने जनता के सामने बहुत बड़े बड़े वादे किये थे –

  • क्या सरकार के मंत्री छोटे बंगलों में रहने का दिखावा करने से ही आम आदमियों की समस्यायें सुलझ जायें गी?
  • क्या सरकार के मंत्री सुरक्षा नहीं लें गे तो आप का निजि सुरक्षा अपने आप बढ़ जाये गी? क्या अब दिल्ली में रेप मर्डर आदि होने बन्द हो गये हैं?
  • क्या दिल्ली में 500 नये स्कूल खुल गये हैं?
  • क्या दिल्ली के झुग्गी वालों को पक्के मकान मिल गये हैं? वहाँ पर बिजली पानी पहुँच गया है? क्या दिल्ली में अब नयी झुग्गियाँ नहीं बने गी?
  • क्या दिल्ली में बिजली की दरें आधी हो गयी हैं?
  • क्या दिल्ली में प्रत्येक घर को 700 लिटर मुफ्त पानी प्रतिदिन मिल रहा है?
  • क्या दिल्ली के मंत्रियों के जनता दरबारों में जनता की फरियाद पर समाधान मिल रहा है? फरियादों के आँकडे तो हैं समाधान के आँकडे कहाँ हैं ?
  • क्या दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो गयी है?
  • क्या ‘AAP’ की सरकार काँग्रेस और बी जे पी को समान दूरी पर रख रही है?
  • क्या अन्य देशों में प्रजातान्त्रिक सरकारें स्टिंग आप्रेशनों से चलती हैं?

नहीं इन में से कुछ भी तो नहीं हुआ !

राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के विषय में इस छोकरा गुट के पास कोई सोच, विचारधारा, दृष्टीकोण, संगठन, अनुभव या योग्यता आदि कुछ भी तो नही ! दिशाहीन भीड़ सरकार नहीं चला सकती। ऐक भेड के पीछे चलती हुयी सभी भेडें कुयें में जा गिरती हैं।

अगर किसी बन्दर को किसी विशाल मशीन पर बैठा दिया जाय तो जैसे वह मशीन के कल पुरज़ों के साथ छेड छाड कर के देखता है उसी तरह सिर्फ कुछ अनुभव हीन छोकरों का ऐक गुट सरकारी सत्ता के गलियारों पर जम गया है और उल्टे सीधे तरीकों से प्रशासन को टटोल रहा है – शायद कुछ चल पडें।

क्या हम देश की प्रगति को रोक कर उसे अस्थिरता और आराजिक्ता की तरफ मोडने का जोखिम उठा सकते हैं।

अगर नहीं तो देश को इस वक्त स्शक्त नेतृत्व और स्थिर राष्ट्रवादी सरकार की आवश्यक्ता है जो आज केवल नरेन्द्र मोदी ही दे सकते हैं। उन्हें बार बार परखा जा चुका है।

राष्ट्रवादी, भारतीय संस्कृति से जुडी हुयी तथा परिवार क्षेत्रवाद और मार्क्सवाद से दूर केवल भारतीय जनता पार्टी ही देश को ऐकता और सुरक्षा दे सकती है। भारत स्वाभिमान और स्वदेशी गौरव को पुनर्स्थापित कर सकती है। जिस को विशवास ना हो वह गुजरात, मध्यप्रदेश, गोवा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जा कर देख ले।

अब अस्थिरता, अनुभवहीनता या छोकरा मस्ती करने का समय नहीं है। ‘AAP’ की असलीयत देखी जा चुकी है। इस के पीछे छुपे हुये चेहरे भी ऐक के बाद ऐक सामने आ रहै हैं।

चाँद शर्मा

काँग्रेसी दीमक का प्रकोप


काँग्रेस ने देश का तीन हथियारों से विनाश किया है।

पहला विनाश – विकास के नाम गाँधी-नेहरू परिवारों के नाम पर योजनायें तैयार हो जाती रही हैं और फिर कुछ समय बाद ही उन योजनाओं में से घोटाले और जाँच कमेटियाँ आदि शुरु होती रही हैं। भ्रष्टाचार सभी तरह के विकास योजनाओं को निगलता रहा है। मीडिया कुछ दिन तक ढोल पीटता है, जाने पहचाने बुद्धिजीवी टीवी पर बहस करते हैं, कुछ गिरफतारियाँ होती हैं, अपराधी जमानतों पर छूट जाते हैं और चींटी की चाल से अदालतों में केस रैंगने लगते हैं। लम्बे अरसे के बाद ज्यादातर आरोपी सबूतों के अभाव के कारण छूट जाते हैं।

दूसरा विनाश तुष्टीकरण के नाम पर किया है। अल्प संख्यकों, दलितों, महिलाओं, विकलांगों, वरिष्ट नागरिकों, किसानों, उग्रवादियों तथा ‘स्वतन्त्रता सैनानियों’ के नाम पर कई तरह की पुनर्वास योजनायें, स्शकतिकरण कानून, विशेष अदालतें, वजीफे, सबसिडिज, कोटे, बनाये जाते रहै हैं। आरक्षण के बहाने समाज को बाँटा है, भ्रष्टाचार के रास्ते खोलने के लिये कई कानूनों में भारी छूट दी है। इन सब कारणों से समाज के अंग मुख्य धारा से टूट कर अलग अलग टोलियों में बटते रहै हैं।

तीसरा विनाश बाहरी शक्तियों के तालमेल से किया है। पाकिस्तानी और बंगलादेशी घुसपैठियों के अतिरिक्त नेपाल, तिब्बत और श्रीलंका से शर्णार्थी यहाँ आकर कई वर्षों से बसाये गये हैं। जिन के खाने खर्चे का बोझ भी स्थानीय लोग उठाते हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अपने व्यापारिक लाभ उठा रही हैं।  बडे शहरों में अविकसित राज्यों से आये बेरोजगार परिवार सरकारी जमीनो पर झुग्गियाँ डाल कर बैठ जाते हैं, मुफ्त में बिजली पानी सिर्फ इस्तेमाल ही नहीं करते बल्कि उसे वेस्ट भी करते हैं। फिर ‘ गरीबी हटाओ ’ के नारे के साथ कोई नेता उन्हें अपना निजि वोट बैंक बना कर उन्हें अपना लेता है और इस तरह शहरी विकास की सभी योजनायें अपना आर्थिक संतुलन खो बैठती हैं। अंत में य़ह सभी लोग ऐक वोट बैंक बन कर काँग्रेस को सत्ता में बिठा कर अपना अपना ऋण चुका देते हैं।

उमीद किरण को ग्रहण                                                   

काँग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आकर स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान आन्दोलन के माध्यम से देश में योग, स्वदेशी वस्तुओं के प्रति जाग़ृति, शिक्षा पद्धति में राष्ट्रभाषा का प्रयोग, विदेशों में भ्रष्ट नेताओं के काले धन की वापसी और व्यवस्था परिवर्तन आदि विषयों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चेतना की ऐक लहर पैदा करी। उन के प्रयास को विफल करने के लिये काँग्रेस ने अन्ना हजारे और केजरीवाल को भ्रष्टाचार के विरूद्ध नकली योद्धा के तौर पर खडा करवा दिया। काँग्रेस तो अपना वर्चस्व खो ही चुकी है इस लिये काँग्रेसियों के सहयोग से अब नये शासक आम आदमी के नाम से खडे हो चुके हैं जो स्वामी रामदेव और नरेन्द्र मोदी का विरोध करें गे। भ्रष्टाचार से लडने के लिये जनलोक पाल का ऐक सूत्री ऐजेंडा ले कर भेड चाल में बरगलाये गये युवा, स्वार्थी और दलबदलू नेता अब आम आदमी पार्टी की स्दस्यता पाने की दौड में जुट रहै हैं। वास्तव में यह लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि देश की संस्कृति की पहचान की रक्षा करने वाले स्वामी रामदेव, विकास पुरुष नरेन्द्र मोदी और आम आदमी के खिलाफ ही लडें गे और देश को आर्थिक गुलामी और आराजिक्ता की तरफ धकेल दें गे।

‘AAP’ के नेताओं की नीयत और नीति

अमेरिका और उस के सहयोगी योरोपीय देश नहीं चाहते कि भारत विकसित होकर आधुनिक महा शक्ति बने और उन का प्रति स्पर्द्धी बन जाये। वह भारत को ऐक साधारण, गरीब और दया पर जीने वाला देश ही बने रहना चाहते है ताकि यह देश अपनी सँस्कृति से दूर उन्ही देशों का पिछलग्गू बना रहै, और ऐक अन्तरराष्ट्रीय मण्डी या सराय बन जाये जहाँ विदेशी मौज मस्ती के लिये आते जाते रहैं। भारत के ‘आम आदमियों ’ की आकाँक्षायें केवल अपनी शरीरिक जरूरतों को पूरा करने में ही सिमटीं रहैं।

अनुभव के आभाव में केजरीवाल और उन के मंत्री पंचायती सूझबूझ ही भारत की राजधानी का शासन चला रहै हैं। कल को यही तरीका राष्ट्रीय सरकार को चलाने में भी इस्तेमाल करें गे तो यह देश ऐक बहुत बडा आराजिक गाँव बन कर रह जाये गा जिस में अरेबियन नाईटस के खलीफों की तरह सरकारी नेता, कर्मचारी भेष बदल आम आदमी की समस्यायें हल करने के लिये कर घूमा करें गे। उन की लोक-लुभावन नीतियाँ भारत को महा शक्ति नहीं – मुफ्तखोरों का देश बना दें गी जहाँ ‘आम आदमी ’ जानवरों की तरह खायें-पियें गे, बच्चे पैदा करें और मर जायें – यह है ‘AAP’ की अदूरदर्शी नीति।

केवल खाने पीने और सुरक्षा के साथ आराम करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना तो जानवर भी करते हैं परन्तु उन का कोई देश या इतिहास नहीं होता। लेकिन कोई भी देश केवल ‘आम आदमियों ’ के बल पर महा शक्ति नहीं बन सकता। ‘आम आदमियों ’ के बीच भी खास आदमियों, विशिष्ठ प्रतिभाओं वाले नेताओं की आवशक्ता होती है। जो मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता।

फोकट मे जीना

लडकपन से अभी अभी निकले आम आदमी पार्टी के नेता यह नहीं जानते कि हमारे पूर्वजों ने मुफ्त खोरी के साथ जीने को कितना नकारा है और पुरुषार्थ के साथ ही कुछ पाने पर बल दिया है। आज से हजारों वर्ष पूर्व जब अमेरिका तथा योरुपीय विकसित देशों का नामोनिशान भी कहीं नहीं था भारत के ऋषि मनु ने अपने विधान मे कहा थाः-

यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।

व्यवहारेण जीवंन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम्।।

कारुकाञ्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः।

एकैकं कारयेत्कर्म मसि मसि महीपतिः ।। (मनु स्मृति 7- 137-138)

राजा (सभी तरह के प्रशासक) अपने राज्य में छोटे व्यापार से जीने वाले व्यपारियों से भी कुछ न कुछ वार्षिक कर लिया करे। कारीगरी का काम कर के जीने वाले, लोहार, बेलदार, और बोझा ढोने वाले मज़दूरों से कर स्वरुप महीने में एक दिन का काम ले।

नोच्छिन्द्यात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णाया।

उच्छिन्दव्ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत्।।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः ।। (मनु स्मृति 7- 139-140)

(प्रशासन) कर न ले कर अपने मूल का उच्छेद न करे और अधिक लोभ वश प्रजा का मूलोच्छेदन भी न करे क्यों कि मूलोच्छेद से अपने को और प्रजा को पीड़ा होती है। कार्य को देख कर कोमल और कठोर होना चाहिये। समयानुसार राजा( प्रशासन) का कोमल और कठोर होना सभी को अच्छा लगता है।

अतीत काल में लिखे गये मनुसमृति के यह श्र्लोक आजकल के उन नेताओं के लिये अत्यन्त महत्वशाली हैं जो चुनावों से पहले लेप-टाप, मुफ्त बिजली-पानी, और तरह तरह के लोक लुभावन वादे करते हैं और स्वार्थवश बिना सोचे समझे देश के बजट का संतुलन बिगाड देते हैं। अगर उन्हें जनता का आवशक्ताओं का अहसास है तो सत्ता समभालने के समय से ही जरूरी वस्तुओं का उत्पादन बढायें, वितरण प्रणाली सें सुधार करें, उन वस्तुओं पर सरकारी टैक्स कम करें नाकि उन वस्तुओं को फोकट में बाँट कर, जनता को रिशवत के बहाने अपने लिये वोट संचय करना शुरु कर दें। अगर लोगों को सभी कुछ मुफ्त पाने की लत पड जाये गी तो फिर काम करने और कर देने के लिये कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं होगा।

सिवाय भारत के आजकल पानी और बिजली जैसी सुविधायें संसार मे कहीं भी मुफ्त नहीं मिलतीं। उन्हें पैदा करने, संचित करने और फिर दूरदराज तक पहुँचाने में, उन का लेखा जोखा रखने में काफी खर्चा होता है। अगर सभी सुविधायें मुफ्त में देनी शुरू हो जायें गी तो ऐक तरफ तो उन की खपत बढ जाये गी और दूसरी तरफ सरकार पर बोझ निरंकुशता के साथ बडने लगे गा। क्या जरूरी नहीं कि इस विषय पर विचार किया जाये और सरकारी तंत्र की इस सार्वजनिक लूट पर अंकुश लगाया जाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो फोकट मार लोग देश को दीमक की तरह खोखला करते रहैं गे और ऐक दिन चाट जायें गे।

आरक्षण और सबसिडी आदि दे कर इलेक्शन तो जीता जा सकता है परन्तु वह समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रकार की बातें समस्याओं को और जटिल कर दें गी। इमानदार और मेहनत से धन कमाने वालों को ही इस तरह का बोझा उठाना पडे गा जो कभी कम नहीं होगा और बढता ही जाये  गा।

 चाँद शर्मा

 

गिरगटी बदलाव


चुनावों में दिल्ली की जनता का जनमत स्पष्ट था –

  • 70 में से 62 विधायक काँग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिये चुने गये – लेकिन सत्ता की चाबी आज भी काँग्रेस के पास है।
  • 32 विधायक बी जे पी के और 28 विधायक आप के चुने गये – मतलब यह कि दोनो काँग्रेस विरोधी दिल्ली के शासन को पाँचसाल तक निर्विघन मिल कर चलायें।

लेकिन चुनावों के बाद गिरगिटों ने अपने अपने बहाने बना कर रंग बदलने शूरू कर दिये जो दिल्ली की जनता के साथ धोखा धडी है।

केजरीवाल का स्वांग

केजरीवाल अपने आप को आम, बेनाम और गरीब आदमी दिखाने की नौटंकी में जुट गये हैं। पंचायती तरीकों से गली मौहल्लों की सभायें, मैट्रो रेल में सफर, जमीन पर बैठ कर शपथ गृहण समारोह, सुरक्षा से इनकार, फलैटों मे रहना और ना जाने आगे और क्या कुछ देखने को मिले गा उन्हें आम आदमी का स्थाई मेक-अप नहीं दे पायें गी।

जोश में हो सकता है अब शायद वह अपने घर की बिजली भी कटवा दें और आम आदमी की तरह लालटैन से काम चलायें, पी सी ओ पर जा कर टेलीफोन करें, बाल्टी में पानी भर कर सडक पर लगे सरकारी हैंड पम्प पर खुले में नहायें, और सरकारी जमीनों पर दिल्ली में रोज हजारों की तादाद में आने वालों को पहले झुग्गियां बनाने दें और फिर उन्हें पक्के मालिकाना हक दे कर अपना वोट बैंक कायम करें लें।

लेकिन इन सब नाटकों से दिल्ली की समस्यायें हल नहीं हों गी – और बढती जायें गी। सुशासन के लिये आम आदमी को समय के साथ साथ व्यवहारिक भी होना जरूरी है। दिल्ली की जनता ने उन्हें आम आदमी से विशिष्ट आदमी – मुख्यमंत्री – बनाया है। उन के लिये उचित यही होगा कि वह मुख्य मत्री के दाईत्व को सक्षमता से निभायें। ऐक मुख्य मंत्री की जिम्मेदारी निभाने के लिये जिन उपकरणों और सुविधाओं की जरूरत अनिवार्य है उन्हे जरूर इस्तेमाल करे ताकि आम आदमी को वास्तविक फायदा हो और उन की समस्यायें सुलझ जायें। सभी को हर समय खुश रखने के प्रयत्न मत करें और जरूरत अनुसार कडे फैसले भी लें। दिल्ली राज्य की सरकार को ग्राम पंचायत की तरह से चलाने का नाटक बन्द करें।

मीडिया

हमारा मीडिया जब तक कारोबारी दृष्टीकोण छोड कर इण्डिया फर्स्ट की भावना को नहीं अपनाता तो उस के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं करी जा सकती। मीडिया अब कोई समाज सेवा का काम नही रहा – पूर्णत्या ऐक व्यापारिक क्षेत्र है जो सिर्फ समाचारो को बेचने के लिये उन्हें सनसनी युक्त करता रहता है।  आजकल मीडिया नयी तरह की राजनीति की मार्किटिंग में जुट गया है। टी वी पर अति संवेदनशील या ससनीखेज़ भाषा में लिखे आख्यान प्रसारित करने मे व्यस्त है। आम आदमी पार्टी के नेताओं की अव्यवहारिक कर्म शैली के आधार पर उन का चरित्र चित्रण, व्यवहारिकता से कोसों दूर यूटोपिया में ले जाने वाले, बासी बुद्धिजीवियों की अनाप शनाप बहस अब रोज मर्रा के प्रोग्रामों की बात बन गयी है। मीडिया पर हंटर चलाना अति आवश्यक हो चुका है।

काँग्रेस

राहुल गाँधी भी भ्रष्ट काँग्रेसियों से दूर अपनी अलग पहचान बनाने जुट गये हैं। उनकी मां के इशारो पर आज तक जो यू पी ऐ सरकार करती रही है वह उसी सरकार के मंत्रियों की कथनियों और करणियों को नकारने मे जुट गये है। आदर्श घोटाले की रिपोर्ट पर दोबारा विचार होगा। लालू को राजनीति मे फिर से बसा लिया जाये गा। संजय दत्त की पैरोल की जाँच भी होगी और… आने वाले दिनों में  भारत मुक्त होने से पहले काँग्रेस को भ्रष्टाचार मुक्त कर दिया जाये गा। काँग्रेस अब ऐक पुराना चुटकला है जिसे सुनना या सुनाना बेकार का काम है।

बी जे पी

खिसियानी बिल्ली की तरह बी जे पी केजरीवाल को अब हाथ में जादुई चिराग़ के साथ आलादीन की भूमिका में देखना चाहती है ताकि या तो दिल्ली वासियों की सभी नयी पुरानी समस्याऐं शपथ ग्रहण के पाँच मिन्ट बाद ही सुलझ जायें या फिर आप पार्टी की सरकार गिर जाये और दिल्ली के लोग बी जे पी की सरकार चुन लें।

बी जे पी यह भूल चुकी है कि दिल्ली में उन की हार का मुख्य कारण भाई भतीजावाद, नेताओं की आपसी लडाई, जनता की अनदेखी और नरेन्द्र मोदी पर ओवर रिलायंस था। बी जे पी के नेता काँग्रेसी तौर तरीके अपनाने में जुट चुके हैं। यही कारण था कि कछुऐ ने खरगोश को चुनावी दौड में पछाड दिया।

अब बी जे पी को केजरीवाल की सरकार गिराने की उतावली के बजाये मध्यप्रदेश, गोवा, राजस्थान, छत्तीस गढ़ और गुजरात में विशिष्ट बहुमत के साथ विशिष्ट सुशासन दिखाना चाहिये। केजरीवाल की अच्छी बातों को अपनानें में शर्म नहीं करनी चाहिये। कम से कम आम आदमी पार्टी के सामने साकारात्मिक विपक्ष ही बन कर रहैं और सरकार गिराने की उतावली छोड दें। उसे अपने आप गिरना होगा तो गिर जाये गी।

स्वार्थवश जब भी काँग्रेस केजरीवाल की सरकार को गिराना चाहै तो ताली बजाने के बजाये बी जे पी को केजरीवाल को गिरने से बचाना चाहिये ताकि केजरीवाल अपने आप को शहीद घोषित ना कर सके और कुछ कर के दिखाये। आलोचना करने के अतिरिक्त सकारात्मिक विपक्ष होने के नाते बी जे पी का यह दाईत्व भी है कि वह केजरीवाल की सरकार को कुछ कर दिखाने के लिये पर्याप्त समय भी दे और उसे काँग्रेस के शोषण से बचाये रखे।

आम आदमी

नेतागण – अब गिरगिट नौटंकी छोड कर साधारण आदमी बने, व्यवहारिक और सकारात्मिक काम करें तभी वह आम आदमियों के नेता बन सकते हैं। नहीं तो आम आदमी की आँधी और आराजिक्ता के रेगिस्तान में पानी ढूंडते ढूंडते प्यासे ही मर जायें गे। बदलाव की लहर को रोकना मूर्खता होगी लेकिन गिरगटी बदलाव से बचें।

 

चाँद शर्मा

 

भुखमरी से भिखारियों तक


किसी वक्त ग़ुलाम भारत के स्वाभिमानी युवाओं से नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था – “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूं गा”। यह भारत का दुर्भाग्य था कि उस वक्त गांधी जी की जिद के कारण ही नेता जी को भारत से बाहर ‘अज्ञातवास’ में जाना पडा जहां से फिर वह लौट के ना आ सके। सुभाष चन्द्र बोस का साथ देने के बजाये गांधी ने भारत के युवाओं को अंग्रेजी साम्राज्य के हितों की रक्षा करने विश्व-युद्ध में भाडे के सैनिक बनवा कर झोंक दिया। विश्व युद्ध के बाद जब अंग्रेजी सैन्य शक्ति और आर्थिक शक्ति समाप्त होने के कगार पर आ गयी तो अंग्रेज़ों ने कांग्रेसी नेताओं से तोल-मोल कर के ‘हमें बिना खडग बिना ढाल आजादी’ दे दी और तब से हर 15 अगस्त के ‘बटवारा-दिवस’ पर हम ‘साबरमती के संत’ का गुण गान करने लग गये हैं।

सरकारी तंत्र का प्रचार

प्रधान मंत्री मनमोहन सिहं का आखिरी भाषण होने के कारण शायद 15 अगस्त 2013 भारत के इतिहास में याद रखा जाये गा क्यों कि वह ऐक कांग्रेसी प्रधानमंत्री का भाषण था जो आने वाले चुनावों को ध्यान में रख कर लिखा गया था। इस में देश की किसी भी तत्कालिक घटना को महत्व नहीं दिया गया और सिर्फ नेहरू गांधी परिवार के प्रधान मंत्रियों की उपलब्धियां ही गिनवाई गयीं और ‘फूड बिल’ का बखान अधिक किया गया था जिस को कांग्रेस चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल करे गी। ‘फूड बिल’ पास करवाने का क्रेडिट कांग्रेस ले गी और उस के असफल होने का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोडा जाये गा। दूसरे अर्थों में – ‘हैडस आई विन, टेल्स यू लूज़’।

कांग्रेसी सरकार का ही ऐलान है कि फूड बिल आने से भारत के 67 प्रतिशत लोगों को ‘अब भरपेट खाना मिले गा’ और ‘कोई भूखा नहीं मरे गा’। इस का सरल अर्थ यह है कि आज तक  67 प्रतिशत भारतियों को ‘भरपेट खाना’ नहीं मिल रहा था और वह भूख के कारण मर रहै थे। यह भी याद रखिये कि ‘अब भरपेट खाना मिले गा’ और ‘भर पेट खाना मिल रहा है’ में भी बहुत अन्तर है क्योंकि दोनों के बीच में भ्रष्टाचार की गहरी नदी बहती रहती है जिस में अनाज और सुविधाये डूब जाती हैं और निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुँतीं। भ्रष्टाचार का जिक्र प्रधानमंत्री ने नहीं किया – क्यों कि वह कोई नयी बात नहीं रही।

अब जरा सरकार के अधिकृत आंकडों पर भी नजर डालिये।1947 में भारत का ऐक रुपया अमेरिका के ऐक डालर के बराबर था। आज अमेरिका का ऐक डालर भारत के 61 रुपयों से भी उपर है। भारत के योजना आयोग के अनुसार जो व्यक्ति 32 रुपये रोज कमाता है वह गरीब नहीं है। इस का सीधा अर्थ यह है कि भारत की 67 प्रतिशत जनता 32 रुपये ( 50 सैंट ) भी रोजाना नहीं कमा सकती और उन्हें पेट भरने के लिये 66 वर्षों बाद अब सस्ता अनाज फूड बिल के माध्यम से अगर नहीं दिया गया तो वह भूख से मरते रहैं गे। अब वह भुखमरी से बच कर भिखारी बन कर जिन्दा तो रहैं गे।

फूट की आधारशिला पर वोट बैंक

इस समय प्रश्न उठता है कि देश की ऐकता के लिये भारत सरकार ने बाकी 33 प्रतिशत लोगों के लिये सस्ते अनाज की ‘सुविधा’ प्रदान क्यों नहीं करी? टैक्स देने का बावजूद क्या उन्हें भारत की नागरिकता के अधिकार प्राप्त नहीं? भारत के नागरिकों को किस आधार पर भेदभाव कर के बांट दिया जाता है? इस देश के समर्द्ध वर्ग, और मिडिल क्लास को सरकारी दुकानों से सीमित मात्रा में सस्ता अनाज क्यों नहीं खरीदने दिया जाता? सरकार कानून बना सकती थी कि जिस किसी को भी राशन में सामित सस्ता अनाज लेना हो वह बिना भेद-भाव के ऐक ही पंक्ति में स्वयं खडे हो कर अपने परिवार का राशन स्वयं ले जायें। आप को लगता है कि हमारे क्रिकेटर, फिल्म स्टार या मध्यम वर्ग के लोग लाईन में लगते ? परन्तु सरकार ने देश की जनता का बटवारा क्यों किया? क्या यह फूट डाल कर वोट बैंक बनाने का खेल नहीं है? ‘तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें भर पेट खाना दूं गा’। क्या यही हमारा स्वाभिमान है जिस के दम पर हम विश्व में महा शक्ति बनने का दावा करते हैं?

काँग्रेस के अधिकृत सांसद प्रवक्ता राज बब्बर का कहना है कि 12 रुपये में भर पेट खाना खाया जा सकता है। इस का निषकर्श यह निकलता है कि ‘आजादी’ के बाद भी ‘सुपर पावर भारत के नागरिक’ अपना पेट भरने के लिये 20 अमेरिकी सैंट नहीं जुटा पाते कि वह भर पेट खाना खा सकें। इस लिये उन भूख से बिलखते हुये नागरिकों को जिन्दा रखने के लिये फूड बिल पास करना जरूरी था।

क्या किसी ने यह भी सोचा कि जो लोग अपना पेट भरने के लिये 20 पैसे भी नहीं जुटा सकते थे तो उन को मुफ्त में 20-25 हजार के लैपटाप मुफ्त में क्यों बांटे गये? क्यों उन्हें सबसिडी दे कर हवाई जहाज़ से हज और वैटिकन की यात्राओं पर भेजा जाता है जब कि वह अपने देश में 20 पैसे का खाना भी नहीं जुटा सकते? अच्छा ता यह होता कि फूड बिल के राशन के साथ सरकार उन्हें तन ढकने के लिये 30 सैन्टीमीटर कपडा भी दे देती ताकि पूरा देश लंगोटी बांध कर ही ऐक सूत्र में तो बंध जाता और भोजन-वस्त्र की ऐकता से गांधी का सपना साकार कर देता। लेकिन फिर फूट डाल कर वोट बैंक नहीं बनाया जा सकता था जो कि लक्ष्य था।

आज 66 वर्षों की ‘तथाकथित आजादी’ के बाद हमारे भ्रष्ट नेता चाहे अपनी पीठ थपथपाने के लिये अपने-आप को ‘महाशक्ति’ कहैं या ‘परमाणु सुपर-पावर’, लेकिन वास्तव में हम भिखारियों का समुदाय बन कर रह गये हैं। कडवी सच्चाई यह है कि हमारा देश ही अब हमारा नहीं रहा। भारत विश्व के सभी देशों की ‘सांझी धरती’ बनता जा रहा है जहां पाकिस्तानी, चीनी, बंगलादेशी, नेपाली, अफगानी, मयंमारी, श्रीलंका या कोई और भी कहीं से अपने भूखे नंगे नागरिकों, शस्त्रधारी आतंकियों को खुलेआम ला कर बसा सकता है और भारत का मूल वासियों को यहाँ से पलायन करने के लिये विवश कर सकता है। चुनावी मौसम के कारण इन सब बातों पर प्रधान मंत्री ने अपना समय नष्ट नहीं किया।

नेताओं का कोरस

वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेताओं के लिये अब यही कोरस गीत उपयुक्त हैः-

अपनी आजादी को अब हम तो बचा सकते नहीं,

सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर उठा सकते नहीं

जो कोई घुसपैठिया सीमा के अन्दर आये गा,

वोह यहाँ का नागरिक ईक दिन में ही बन जाये गा,

बिरयानियाँ इस देश में उन को खिलाते जा रहै,

अपने घरों को तोड कर हम वोट उन के पा रहै।

करते रहै हैं हौसले जनता के देखो पस्त हम,

देश जाये भाड में अब तो रहैं गे मस्त हम,

अपनी यह नेतागिरी हरगिज गँवा सकते नहीं

सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर उठा सकते नहीं।

जय सोनियां – जय मन मोहन, जय – सोनियां जय मन मोहन…

चाँद शर्मा

टैग का बादल