नेहरू की याद में…
बातें कुछ कडवी ज़रूर हैं परन्तु सच्चाई ऐसी ही होती है।
आज से लगभग 350 वर्ष पहले मुसलमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दु गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन्हें इनसाफ़ दिलाने के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। मगर इनसाफ़ नहीं मिला। 350 वर्ष बाद आज भी कशमीरी हिन्दुओं की हालत वहीं की वहीं है और वह शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर-उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दुओं ने पलायन करने के इलावा अपने बचाव के लिये और क्या सीखा ?
भारत विभाजन के बाद सरदार पटेल ने अपनी सूझ-बूझ से लगभग 628 रियास्तों का भारत में विलय करवाया किन्तु जब कशमीर की बारी आयी तो नेहरू ने शैख़ अब्दुल्ला से अपनी यारी निभाने के लिये सरदार पटेल के किये-कराये पर पानी फेर दिया और भारत की झोली में एक ऐसा काँटा डाल दिया जो आजतक हमारे वीर सिपाहियों का लगातार खून ही पी रहा है। विभाजन पश्चात अगर शरर्णाथी हिन्दु – सिक्खों को कशमीर में बसने दिया होता तो आज कशमीरी हिन्दु मारे मारे इधर-उधर नहीं भटकते, किन्तु नेहरू के मुस्लिम प्रेम और शैख़ अब्दुल्ला से वचन-बध्दता ने ऐसा नहीं करने दिया।
सैंकड़ों वर्षों की ग़ुलामी के बाद हमारा प्राचीन भारत जब स्वतन्त्र हुआ – तब नेहरु जी को विचार आया कि इतने महान और प्राचीन देश का कोई ‘पिता’ भी तो होना चाहिये। नवजात पाकिस्तान ने तो जिन्नाह को अपना ‘क़ायदे-आज़म’ नियुक्त कर दिया, अतः अपने आप को दूरदर्शी समझने वाले नेहरू जी ने भी तपाक से गाँधी जी को इस प्राचीन देश का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा दिया। बीसवीं शताब्दी में ‘पिता’ प्राप्त कर लेने का अर्थ था कि प्राचीन होने के बावजूद भी भारत, इसराईल, पाकिस्तान या बंग्लादेश की तरह एक राष्ट्रीयता हीन देश था।
राष्ट्रपिता के ‘जन्म’ से पहले अगर भारत का कोई राष्ट्रीय अस्तीत्व ही नहीं था तो हम किस आधार पर अपने देश के लिये विश्व-गुरू होने का दावा करते रहे हैं ? हमारी प्राचीन सभ्यता के जन्मदाता फिर कौन थे ? क्यों हम ने बीसवीं शताब्दी के गाँधी जी को अपना राष्ट्रपिता मान कर अपने-आप ही अपनी प्राचीन सभ्यता से नाता तोड़ लिया? इस से बडी मूर्खता और क्या हो सकती थी?
राष्ट्र को पिता मिल जाने के बाद फिर जरूरत पडी एक राष्ट्रगान की। दूरदर्शी नेहरू जी ने मुसलमानों की नाराज़गी के भय से वन्देमात्रम् को त्याग कर टैगोर रचित ‘जन गन मन अधिनायक जय है ’ को अपना राष्ट्रगान भी चुन लिया। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ वन्देमात्रम् स्वतन्त्रता संग्राम में स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रेरित करता रहा वहीं ‘जन गन मन ’ मौलिक तौर पर इंगलैन्ड के सम्राट की अगवाई करने के लिये मोती लाल नेहरू ने टैगोर से लिखवाया था। इस गान में केवल उन्हीं प्रदेशों का नाम है जो सन् 1919 में इंगलैन्ड के सम्राट के ग़ुलाम थे। यहाँ यह भी बताना उचित हो गा कि ‘टैगोर’ शब्द अंग्रेजों को प्रिय था इस लिये रोबिन्द्र नाथ ठाकुर को टैगोर कहा जाता है। आज भी इस राष्ट्रगान का ‘अर्थ’ कितने भारतीय समझते हैं यह आप स्वयं अपने ही दिल से पूछ लीजिये।
विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया था। अपने प्रियजनों को कटते और अपने घरों को अपने सामने लुटते देख कर जब लाखों हिन्दु सिक्ख भारत आये तो उन के आँसू पोंछने के बजाय ‘राष्ट्रपिता’ ने उन्हें फटकारा कि वह ‘पाकिस्तान में ही क्यों नही रहे। वहां रहते हुये अगर वह मर भी जाते तो भी उन के लिये यह संतोष की बात होती कि वह अपने ही मुसलमान भाईयों के हाथों से ही मारे जाते ’।
मुस्लिम प्रेम से भरी ऐसी अद्भुत सलाह कोई ‘महात्मा’ ही दे सकता था कोई सामान्य समझबूझ वाला आदमी तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। पाकिस्तान और मुस्लमानों के प्रेम में लिप्त हमारे राष्ट्रपिता ने जिस दिन ‘हे-राम’ कह कर अन्तिम सांस ली तो उसी दिन को नेहरू जी ने भारत का ‘शहीद-दिवस’ घोषित करवा दिया। वैसे तो भगत सिहं, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे कितने ही महापरुषों ने आज़ादी के लिये अपने प्राणों की बलि दी थी परन्तु वह सभी राष्ट्रपिता की तरह मुस्लिम प्रेमी नहीं थे, अतः इस सम्मान से वंचित रहे ! उन्हें ‘आतंकी’ का दर्जा दिया जाता था। राष्ट्रपिता और महान शहीद का सम्मान करने के लिये अब हर हिन्दु का यही ‘राष्ट्र-धर्म’ रह गया है कि वह अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर मुस्लमानों को हर प्रकार से खुश रखे।
भारत को पुनः खण्डित करने की प्रतिक्रिया नेहरू जी ने अपना पद सम्भालते ही शुरू कर दी थी। भाषा के आधार पर देश को बाँटा गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो घोषित करवा दिया लेकिन सभी प्रान्तों को छूट भी दे दी कि जब तक चाहें सरकारी काम काज अंग्रेज़ी में करते रहें। शिक्षा का माध्यम प्रान्तों की मन मर्जी पर छोड़ दिया गया। फलस्वरूप कई प्रान्तों ने हिन्दी को नकार कर केवल प्रान्तीय भाषा और अंग्रेज़ी भाषा को ही प्रोत्साहन दिया और हिन्दी आज उर्दू भाषा से भी पीछे खड़ी है क्योंकि अब मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण उर्दू को विशेष प्रोत्साहन दिया जाये गा।
भारत वासियों ने आज़ादी इस लिये मांगी थी कि अपने देश को अपनी संस्कृति के अनुसार शासित कर सकें। सदियों की ग़ुलामी के कारण अपनी बिखर चुकी संस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिये यह आवश्यक था कि अपने प्राचीन ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में शामिल कर के उन का आंकलन किया जाता। वैज्ञानिक सुविधायें प्रदान करवा के उन का मूल्यांकन करवाया गया होता, मगर नेहरू जी के आदेशानुसार उन मौलिक विध्या ग्रंथों को धर्म निर्रपेक्षता के नाम पर पाठ्यक्रमों से खारिज ही कर दिया गया।
कशमीर विवाद के अतिरिक्त नेहरू की अन्य भूल तिब्बत को चीन के हवाले करना था। देश के सभी वरिष्ट नेताओं की सलाह को अनसुना कर के उन्हों ने चीन की सीमा को भारत का माथे पर जड़ दिया। चीन के अतिक्रमण के बारे में देश को भ्रामित करते रहे। जब पानी सिर से ऊपर निकल गया तो अपनी सैन्य क्षमता परखे बिना देश को चीन के साथ युध्द में झोंक दिया और सैनिकों को अपने जीवन के साथ मातृभूमि और सम्मान भी बलिदान करना पड़ा। भारत सरकार ने यह जानने के लिये कि हमारे देश की ऐसी दुर्गति के लिये कौन ज़िम्मेदार था ब्रिटिश लेफटीनेन्ट जनरल हेन्डरसन ब्रुक्स से जो जाँच करवायी थी उस की रिपोर्ट नेहरू जी के समय से ही आज तक प्रकाशित नहीं की गयी।
1962 की पराजय के बाद ‘ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी’ गीत को सुन कर वीर जवाहर रो पडे थे इस लिये हम भी आये दिन यही गीत सुबक सुबक कर गाते हैं और शहीदों के परिवारों का मनोबल ऊँचा करते हैं। काश वीर जवाहर आजाद हिन्द फौज के इस गीत को कभी गाते तो हमारे राष्ट्र का मनोबल कभी नीचे ना गिरता –
कदम कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा, यह जिन्दगी है कौम की उसे कौम पर लुटाये जा।
पंडित नेहरू ने भारत इतिहास के स्वर्ण-युग को “गोबर युग ” कह कर नकार दिया था। वह स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि ‘मैं विचारों से अंग्रेज़, रहन-सहन से मुसलिम और आकस्माक दु्र्घना से ही हिन्दु हूं’। काश यह आकस्माकी दु्र्घना ना हुई होती तो कितना अच्छा होता। इस बाल-दिवस पर नेहरू की जगह ऐक पटेल जैसा बालक और पैदा हो गया होता तो यह देश सुरक्षित होता।
आज़ादी के बाद देश में काँग्रेस बनाम नेहरू परिवार का ही शासन रहा है, इस लिये जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों का सही आंकलन नहीं किया गया। आने वाली पीढीयां जब भी उन की करतूतों का मूल्यांकन करें गी तो उन की तुलना तुग़लक वंश के सर्वाधिक पढे-लिखे सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक से अवश्य करें गी और नेहरू की याद के साथ भी वही सलूक किया जाये गा जो सद्दाम हुसैन के साथ किया गया थी – तभी भारत के इतिहास में नेहरू जी को उनका यत्थेष्ट स्थान प्राप्त होगा।
चाँद शर्मा