हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘अरस्तु’

56 – भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण


आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृति अलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।  
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी। 

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है। 

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध 

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पल से मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।  

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके। 

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

चाँद शर्मा

 

 

55 – योरुप में भारतीय रोशनी


योरूपीय देशों के लोग तुर्कों तथा पश्चिम ऐशिया के सम्पर्क में तो थे ही। योरूप के बुद्धिजीवियों ने ‘प्रथम-जागृति’ के समय लैटिन और ग्रीक पुस्तकों को अपनाया। उस के पश्चात उन्हों ने अरबी तथा फारसी के ग्रंथों को अनुवादित किया जो संस्कृत ग्रंथों से पहले ही प्रभावित हो चुके थे। प्रारम्भ में योरूप वासियों की गति विधियाँ ग्रंथों को अनुवादित करने और उन की प्रतिलिपियाँ बनाने तक ही सीमित रहीं। धीरे धीरे उन्हें अरबी-फारसी के ग्रन्थों में उन्हें भारतीय मौलिकता का ज्ञान हुआ। उस के पश्चात ही कई अरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत गर्न्थों का अनुवाद योरुपियन भाषाओं में किया गया और योरूप में ज्ञान की नयी रौशनी फैलने लगी जिसे ‘रिनेसाँ’ का युग कहा जाता है।

विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान

गणित –  1100 ईस्वी में रोबर्ट चेस्टर नामक अंग्रेज़ ने स्पेन की यात्रा की। उस ने वहाँ अलख्वारिस्मी की पुस्तक का लेटिन में अनुवाद किया। जिस के फलस्वरुप नये गणित के रुप में दशमलव पद्धति और अंकों के ‘स्थान’ (पोजीश्नल नोटेशन) से योरुपीय वासी परिचित हुये जो प्रारम्भ में योरुप वासियों को समझ नही पडे थे। नयी भारतीय पद्धति तथा अंकों को समझने में उन्हें देर लगी थी। वह दशमलव को क्रियात्मक ढंग से प्रयोग नहीं कर सके थे। बाद में जब डच गणितिज्ञ्य साईमन स्टेवन (1548-1620) ने दशामलव पद्धति को विस्तार से अपना पुस्तक लाथिन्डे में सझाया तो योरुपवासी भी दशमलव का प्रयोग करने लगे। साईमन स्टेवन के पश्चात मागिनी और क्रिस्टोफर क्लाडिस ने दशमलव पद्धति को अपनी कृतियों में प्रयोग किया। तत्पश्चात 1621 ईस्वी में बैकेट ने अरबी भाषा से अर्थमैटिका का अनुवाद लेटिन भाषा में किया।   

अंक गणित – अल मामोन ने 820 ईस्वी में अबू जफर मुहम्मद मूसा अलख्वारिस्मी (780-850) को बग़दाद में निमन्त्रित किया था। वह बग़दादी प्रतिनिधि मण्डलों की अगुवायी कर के दो बार भारत गया तथा वहाँ के विदूानों को मिल कर उन से कई ग्रन्थों की हस्तलिपियाँ ले कर वापिस आया। उन्हीं के आधार पर उस नें अरबी भाषा में ‘किताब अलजबर वा मुकाबला’ लिखी जिस का सारांशिक अर्थ जमा और घटाने की परिक्रिया से गिनती करना था। अलजबरा इसी परिक्रिया का संक्षिप्त लेटिन नाम है। कालान्तर इसी ग्रन्थ का लेटिन अनुवाद योरुप के विश्व विद्यालयों में गणित शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।   

लोगरिद्म तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धति – 825 ईस्वी में अबू जफर अलख्वारिस्मी ने लोगरिद्म शून्य पद्धति तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धतिपर ऐक पुस्तक लिखी जो ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस का लेटिन अनुवाद ‘अलगोरिदमी डि न्यूमरो इन्डोरम के नाम से छपा था। जिस समय स्पेन पर अरबों का अधिकार था उस समय इस पुस्तक का अरबी संस्करण स्पेन भी ले जाया गया था।

खगोल विज्ञान

अल बत्तानी (850-929) को योरुप में अलबत्तगिनस कहा जाता है। उस ने भारतीय खगोल शास्त्र, दर्शन शास्त्र, पतंजली योग सूत्रों तथा गणित का अध्यन किया था। उस ने श्रीमद् भागवद् गीता, सांख्य करिका, सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश, हिन्दू पुनर्जन्म चक्र आदि का आलोचनात्मिक विशलेशण भी किया था। उस ने ट्रिग्नोमैट्री पद्धति का विस्तार कर के भारतीय विचारों की पुष्टि की तथा स्वीकारा कि पृथ्वी और सूर्य का अन्तर वर्ष में घटता बढता रहता है। किन्तु इस्लामी कट्टर पंथियों के डर से उस ने अपने स्वीकृत तथ्यों को परिभाषित कर दिया था कि “वैसा हिन्दू सोचते हैं ”। उदाहरणत्या उस ने कहा कि “हिन्दू मानते हैं कि सृष्टि की आयु 5 खरब वर्ष है जो कि उस के निजी ईस्लामी विचारों में ग़लत है”। अमेरिका के विषय में हिन्दूओं की भूगौलिक जानकारी के संदर्भ में भी उस ने कहा कि हिन्दू मानते हैं कि ऐक महादूीप रोम शहर से डायगनली विपरीत दिशा में है। यही विचार बाद में लेटिन में अनुवाद किये गये जिन से प्रभावित हो कर कोलम्बस आदि भारत की खोज के लिये पश्चिम जाने के लिये प्ररेरित हो गये थे और उस ने अमेरिका को ढूंड निकाला।

असेट्रोलेब्स 

आर्य भट्ट का जीवनकाल 475-550 ईस्वी का है। सर्वप्रथम उन्हों ने ही खोज निकाला था कि चन्द्र तथा अन्य ग्रह सूर्य की रौशनी से ही चमकते हैं, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है। उन्हों ने ही गृहण के कारणों का विशलेशण किया और यह निष्कर्ष भी निकाला कि ग्रहों की सूर्य परिक्रमा गोल ना हो कर अण्डाकार होती है। आर्य भट्ट की गणना अनुसार पृथ्वी का व्यास 8316 मील बताया और इसी गणना से पाश्चात्य खगोल शास्त्री भी उत्साहित हुये। उस के पश्चातः-

  • 1050 ईस्वी में असेट्रोलेब्स ऐशिया से योरुप में प्रविष्ट हुये जहाँ उन का प्रयोग अक्षाँश तथा देशान्तर रेखाओं के निर्माण में किया गया। बाद में उन का प्रयोग समुद्र पर अपनी स्थिति और समय जानने कि लिये भी किया जाने लगा जिस से नाविकों के कार्य में गति आ गयी।   
  • बाथ निवासी अदिलार्ड (1075-1160) ने समुद्री जहाज़ के दूारा नये पूर्वी मार्ग से इसाई अधिकृत सीरिया तट तक की यात्रा की। उस ने अरबी भाषा में अनुवादित मूल यूक्लिड का लेटिन भाषा में अनुवाद भी किया।
  • ईटली वासी गेरार्ड ग्रीमोना ग्रीक तथा अरबी दोनो भाषायें जानता था। 1175 ईस्वी में उस ने पटोल्मी की खगौलिक कृति ‘दि अलमागेस्ट का लेटिन में अनुवाद किया। इस उनुवाद के फलस्वरूप पटोल्मी की भ्रमात्मिक जानकारी का प्रसार भी हुआ। इस के अतिरिक्त गेरार्ड ग्रीमोना ने गालेन, अरस्तु, यूक्लिड तथा अलख्वारिस्मी की कृतियों को भी अरबी भाषा से लेटिन में अनुवाद किया।
  • 1190 ईस्वी में यहूदी दार्शनिक मोज़ेज माइमोनिडस ने अरस्तु की दार्शनिक विचारों से प्रेरित हो कर दि गाईड फार दि परपलेक्सड.’ की रचना की।

नक्षत्रों के मान चित्र तथा तालिकायें

भारतीय ज्ञान पर आधिरित खगोल शास्त्र सम्बन्धी प्राचीनत् आँकडे तथा मानचित्र बग़दाद में कनक नामक भारतीय के दूारा लाये गये थे। बग़दाद से वह स्पेन के रास्ते से योरुप पहुँचे। 1126 ईस्वी में स्पेन में उन का लेटिन  अनुवाद किया गया था। उन आँकडों तथा मानचित्रों को योरुपीय देशों में खगोल जानकारी के क्षेत्र की अमूल्य प्राप्ति  माना गया। उन के फलस्वरुपः

  • 1272 ईस्वी में अलफोंसाईन टेबल्स (नक्षत्रों की तालिकायें) टोलेडो स्पेन में बनाये गये जिन से ग्रहों की चाल तथा स्थिति की जानकारी मिलती थी।
  • उन्हीं मानचित्रों को प्रकाशित करने में 200 वर्ष का समय लगा तथा 1483 में प्रकाशित होने के पश्चात उन की जानकारी का विस्तरित प्रयोग होने लगा। प्रकाशन की क्रिया को समपन्न करने के लिये उस समय के चोटी के खगोलशास्त्रियों को सहायतार्थ केस्टाईल के अलफैंन्सो दशम ने ऐकत्रित किया था। 

पृथ्वी की गति 

आर्य भट्ट की पृथ्वी सम्बन्धी खोज से सभी सहमत थे कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है तथा पृथ्वी का व्यास 8316 मील है। 1224 ईस्वी में अबदुल्लाउर रऊमी ने ‘मुजामुल बुलदान’ नामक भूगौलिक बृहदकोष (ज्योग्राफिकल ऐनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया। उस क् पश्चात 1440 में कासानस ने पृथ्वी के निरन्तर गतिमान रहने के सिद्धान्त की व्याख्या की और कहा कि अंतरीक्ष अति विस्तरित है। इन्हीं विचारों को ऐडविन हब्बल नें बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में दोहराया और कहा कि ग्रह पृथ्वी से बाहर की ओर फैल कर सृष्टि को विस्तरित करते जा रहे हैं । यह वही बात थी जो भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ शताब्दियों पूर्व से ही कहते चले आ रहे थे।

न्यूटन का अग्रज

सर्वप्रथम गति के विभिन्न आँकलन विशेषका दर्शन शास्त्र में किये गये थे परन्तु प्रस्थापदा ने इस विज्ञान का छटी शताब्दी में विस्तार से विशलेषण किया। उस के अनुसंघानों का आधार ग्रहों की गति, ध्रुवीकरण और आकर्षण था। उस की व्याख्या का आधार गति की तीव्रता तथा लचीलापन भी था जिस का प्रभाव विपरीत दिशा में पडता था। यह सिद्धान्त न्यूटन के ‘ला आफ मोशन का अग्रज था।

चिकित्सा विज्ञान

औषधि तथा शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत तथा चरक के समय से ही महत्वशील प्रगति हो चुकी थी। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने स्नायु तन्त्र, हृदय की धमनियों तथा अन्य शरीरिक द्रव्यों के बारे में विस्तरित उल्लेख कर दिये थे। उन्हें पाचन क्रिया, तथा उस में सहायक द्रव्यों और भोजन को रक्त में परिवर्तित होने की पूर्ण जानकारी थी। पाशचात्य जानकारी तो इन विषयों पर उजागर ही नहीं हुयी थी। उन को इस विषय पर बहुत समय पश्चात ज्ञान हुआ।

  • औषधि शास्त्र ईटली केऔषध शास्त्री पीयट्रो डी अबानो (1200-1300) ने कोंसिलेटर डिफरेंशिया रम् नामक पुस्तक लिखी जो यूनानी और अरब वासियों की चिकित्सा जानकारी का मिश्रण मात्र थी। उस ने मस्तिष्क को स्नायु तन्त्र का केन्द्र तथा हृदय को रक्त शिराओं का स्त्रोत्र बताया। ईसाई कट्टरपंथियों ने उसे ‘जादूगर’ घोषित कर दिया तथा उसे चर्च विचारधारा के विरुद्ध जानकारी प्रसारित करने के अपराध में स्पेनिश कोर्ट ने मृत्यु दण्ड दे दिया।
  • मानव शरीर ऐन्ड्रियाज विसालिया ने 1543 में मानव शरीर के सम्बन्ध में ऐक पुस्तक लिखी जिसका नाम – औन दि स्टरक्चर आफ ह्यूमन बाडीथा। उस ने समस्त जानकारी चोरी छिपे मृत शीरीरों को काट काट कर प्राप्त की थी जो उस समय अपराध मानी जाती थी। परन्तु कालान्तर उस की कृति ने मानव शरीर सम्बन्धी कई योरुपीय भ्रानतियों को दूर करने में सहायता की।
  • रक्त प्रवाह विलियम हार्वे ने1628 ईस्वी में मानव शरीर में रक्त संचालन क्रिया की जानकारी दी जिस से य़ोरूप के आधुनिक ज्ञान का जन्म हुआ। हार्वे से पूर्व रक्त संचलन क्रिया के बारे में पाश्चात्य देशों में कई भ्रानतियाँ थीं। उदाहरणत्या अरस्तु के मतानुसार “रक्त लिवर में उत्पन्न होता था ”। अन्य लोगों के मतानुसार शरीर में रक्त हल्के झटकों के साथ गतिमान होता है। हार्वे ने पहली बार रक्त तथा हृदय का यथार्थ उल्लेख किया। उस ने यह जानकारी भी दि कि स्तनधारी जीव अण्डों से पैदा होते हैं। परन्तु उस के सिद्धान्त को स्वीकारने में लोगों को 150 वर्ष लगे।

ललित कलायें

ओपेरा का जन्म कालीदास के समय में भारत मे ही हुआ था। फ्रैड्रिक दूतीय ने भारतीय तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन दिया। फ्रैड्रिक को 1220 में पवित्र रोमन शासक बनाया गया था । उस के समीप दार्शनिकों, विदूानों तथा बगदाद और सीरिया से आये साधू संतों का जमावडा लगा रहता था। इस के अतिरिक्त भारत और ईरान से नर्तकियों का भी जमावडा रहता था। इस कारण कई भारतीय नृत्यों का समावेश पाश्चात्य नृत्य कला में भी हुआ। भारतीय परमपराओं ने ईटली के ओपेरा को भी प्रभावित किया।

जब हमारे पूर्वज उन्नति के शिखर पर रह चुके थे तो उस की तुलना में उन्नीसवीं शताब्दी तक अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन रात को ‘भालू की खाल’ ओढ कर सोते थे और उन के सम्बन्धी मृग चर्म से अपने शरीर ढकते थे। य़ोरुपीय देश अपनी कालोनियों के स्थानीय निवासियों को लूटने, उन का धर्मान्तरण करवाने और उन्हें गुलाम बना कर बेचने के कारोबार में ही लगे हुये थे।   

चाँद शर्मा

 

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

48 – भारत की सैनिक परम्परायें


सर्वत्र, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान – यह तीनों ईश्वर की विश्षतायें हैं। ईश्वर दयालु, करुणा-निधान. संवेदनशील तथा वत्सल होने के साथ साथ रौद्र रूप में ‘संहारक’ भी है। ईश्वरीय छवि के सभी गुण हिन्दू चित्रावली तथा आलेखों में स्दैव दिखते हैं।

अस्त्र शस्त्रों का महत्व

साधारणत्या ईश्वर के ऐक हाथ में ‘कृपा’ के प्रतीक पुष्प दर्शाये जाते हैं, दूसरा हाथ ‘ शुभ-आशीष’ देने की मुद्रा में होता है, तीसरे हाथ में दुष्कर्मिओं को ‘चैतावनी’ देने के लिये शंख होता है, तथा चौथे हाथ में दुष्ट का ‘संहार’ करने के लिये शस्त्र भी होता है। ईश्वर को स्दैव क्रोध-रहित, प्रसन्न-मुद्रा में युद्ध करते समय भी शान्त-भाव में ही चित्रित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं के पास वरदान देने की क्षमता के साथ धर्म की रक्षा के लिये शस्त्र अवश्य होते हैं।

हिन्दू धर्म में केवल पिटते रहने की भावना को प्रोत्साहित नहीं किया जाता और कायरता को सब से बडा अभिशाप माना जाता है। “अहिंसा परमो धर्मः” के साथ – “धर्म हिंसा त्थैवः चः” का पाठ भी पढाया जाता है जिस का अर्थ है अहिंसा उत्तम धर्म है परन्तु धर्म रक्षार्थ की गयी हिंसा भी उतनी ही श्रेष्ठ है। युद्ध भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम है और कायरता का जीवन नारकीय अधोगति समझा जाता है। स्वयं-रक्षा, शरणागत-रक्षा और धर्म-रक्षा समस्त मानवों के लिये सर्वोच्च कर्तव्य तथा मोक्ष के मार्ग हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनो का उद्देश्य धर्म रक्षा है। हिन्दू समाज में अस्त्र शस्त्रों की पूजा अर्चना का विधान है। शस्त्रों का ज्ञान साधना तथा उपासना के माध्यम से ही गुरुजनों से प्राप्त होता है।

आत्म-रक्षा का अधिकार

प्रकृति नें सभी जीवों का अपनी आत्म-रक्षा के लिये सींग, दाँत, नख, डंक तथा शारीरिक बल आदि के साधन दिये हैं। आत्म-रक्षा के लिये ही प्रकृति ने जीवों को तेज भागने, छिपने तथा गिरगिट आदि की तरह अपना रंग बदल कर अदर्ष्य होने की कला भी सिखाई है। गाय और गिलहरी से ले कर सभी जीव अपने बचाव के लिये उपलब्द्ध साधनों और विकल्पों का उपयोग करते हैं जिस के लिये उन्हें चेतना तथा प्रेरणा अकस्माक दैविक शक्ति से ही प्राप्त होती है। वह अपनी रक्षा के लिये कोई लम्बी चौडी योजनायें नहीं बनाते। उन की सभी क्रियायें तत्कालिक होती हैं। उन के लिये जीव हत्या कर देना कोई अधर्म भी नहीं है।

‘जियो तथा जीने दो’ धर्म का सिद्धान्त मुख्यता मानवों के लिये है अतः युद्ध के लिये पूर्व अभ्यास, तैय्यारी करना इत्यादि धर्म की व्याख्या में आता है। धर्म-रक्षा और धर्म संस्थापना के लिये ईश्वर नें स्वयं कई बार शास्त्र धारण कर के कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं तथा अवश्यक्तानुसार पुनः पुनः वैसा ही करने की संकल्प भी दोहराया है। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक धर्म परायण व्यक्ति को धर्म-रक्षा के लिये हिंसक युद्ध मार्ग की पूर्ण स्वीकृति प्रदान करता है ताकि वह निस्संकोच अधर्म का विनाश कर सके।

रण भूमि का वातावरण

प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों के मतानुसार धर्म-रक्षा हेतु युद्ध भी धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप ही होना चाहिये। अतः ग्रन्थों में धर्म-युद्ध के विषय में विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में सैनिक गति-विधियों, सैनिक व्यूहों, सैनिक संगठनों तथा सैनापतियों के उत्तरदाईत्वों और अधिकारों का ब्योरा दिया गया है। सैनापतियों के पद नगर-संरक्षक, दु्र्गाधिपति, दुर्ग-अभियन्ता, रथी, महारथी, तथा उच्च सैनापति आदि होते थे।

ग्रन्थों के अनुसार दुर्ग तथा व्यूह रचनायें आवश्यक्तानुसार होती थीं। कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन भी किया गया है। तोप को ‘शतघनी’ कहा जाता था तथा यह शस्त्र अग्नि अस्त्रों की श्रेणी में आता था। इस अस्त्र से ऐक ही बार में सौ से अधिक शत्रुओं का संहार किया जा सकता था। अग्नि अस्त्रों के अतिरिक्त रसायनास्त्र तथा कीटास्त्र (केमीकल तथा बायोलोजिकल वार हैडस) का प्रयोग भी किया जाता था। युद्ध थल, जल तथा नभ सभी तलों पर लडे जाते थे। आलोचकों की तुष्टि के लिये यदि उन उल्लेखों को हम केवल अतिश्योक्ति भी माने, तो भी उस काल के युद्धों के सिद्धान्त आज भी मान्य हैं। सैनिक चलन की गतिविधियाँ तथा परस्पारिक क्रियायें वर्तमान काल के युद्ध के चित्रण के अनुरूप ही हैं।

अन्य महाकाव्यों की तुलना में भारतीय युद्ध भूमि के उल्लेख किसी ऐक युद्ध भूमि के वृतान्त तक ही सीमित नहीं थे। ग्रीक भाषा के महाकाव्य ओडैसी में वर्णित किया गया है, कि किसी ने सैनिकों को ऐक विशाल घोडे के आकार में छिपा कर इलुम दुर्ग में प्रवेश करवा कर किला जीत लिया था। इस की तुलना में रामायण तथा महाभारत के युद्ध ‘महायुद्धों’ की तरह लडे गये थे और युद्ध में सैनायें कई युद्ध स्थलों (वार थ्यिटरों) पर अलग अलग सैनापतियों के निर्देशानुसार ऐक ही समय पर लडतीं थी, परन्तु विकेन्द्रीयकरण होते हुये भी केन्द्रीय नियन्त्रण सर्वोच्च सैनापति के आधीन ही रहता था।

युद्ध के प्राचीन मौलिक सिद्धान्त वर्तमान युग में भी युद्ध क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जैसे कि सैनिकों तथा अस्त्र शस्त्रों की संख्या, अक्रामिक क्षमता, युद्ध संचालन नीति, सैना नायकों का व्यक्तित्व, वीरता, अनुभव तथा सक्रियता, भेद नीति, साहस एवम मनोबल आदि। सैनिक गतिविधियाँ जैसे कि शत्रु से भेद छिपाना, अथवा शत्रु का मनोबल तोडने के लिये कोई भ्रामिक प्रचार जान बूझ कर फैला देना, रात्रि युद्ध, तथा आत्मदाही दस्तों का प्रयोग आदि भी भारतीय युद्ध दक्षता के प्रमाण स्वरूप इतिहास के पन्नों पर उल्लेखित हैं। यह वर्णन किसी युद्ध संवादी या उपन्यासकार के नहीं बल्कि ऋषियों के संकलन हैं जो सत्यता पर स्दैव अडिग रहते थे।

ध्वजों का प्रयोग

युद्ध में ध्वजों का प्रयोग भी ग्रन्थों में वर्णित है। ऋगवेद संहिता के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी ध्वज प्रयोग का उल्लेख है। इन के आकारनुसार कई नाम थे जैसे कि अक्रः. कृतध्वजः, केतु, बृहतकेतु, सहस्त्रकेतु आदि। ध्वज तथा नगाडे (वार-ड्रम्स), दुन्दभि आदि सैन्य गरिमा के चिन्ह माने जाते थे। महाभारत युद्ध के समय प्रत्येक रथी और महारथी का निजि ध्वज और शंखनाद सैना नायक की पहचान के प्रतीक थे।

अस्त्र शस्त्रों का निर्माण

अस्त्रों के क्षेत्र में राकेट (मिसाइल) का अविष्कार भी भारतीय है। योरुपीय सैनिक जब सर्व प्रथम भारत में आये तो उन्हों ने भारतीयों के पास राकेट होने को स्वीकारा है। सिकंदर महान ने यूनान में बैठे अपने गुरु अरस्तु को पत्र में सूचित किया था कि भारत के ‘सीमावर्ती क्षेत्र के स्थानीय सैनिकों’ ने यूनानी सैना पर भयानक आग के गोलों से वर्षा की थी। यह पाश्चात्य इतिहासकारों का ही स्वीकृत प्रमाण है कि विश्व विजेता सिकन्दर तथा उस की सैना मगघ देश की सैनिक क्षमता से इतनी भयभीत हो चुकी थी कि सैनिकों ने सिकन्दर को बिना युद्ध किये भारत भूमि से यूनान लौटने के लिये विवश होना पडा था।

ऐक अन्य प्राचीन ग्रंथ ‘शुक्रनीति’ में राईफल तथा तोप की तरह के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण की विधि को उल्लेख करती है। भारतीयों को गोला बारूद (गन पाउडर) की जानकारी भी थी। इतिहासकार इलियट के कथनानुसार अरब वासियों ने गन पाउडर का प्रयोग भारतीयों से सीखा था और उस से पहले वह नेप्था में बुझे तीरों का ही प्रयोग करते थे।

युद्ध के नियम

यह हिन्दुओं के लिये गर्व की बात है कि उन की युद्ध परम्पराओं में निहत्थे, घायल, आश्रित, तथा युद्ध से विरक्त शत्रु पर प्रहार नहीं किया जाता था। प्राचीन काल में युद्ध वीरता पुर्वक लडे जाते थे। अन्य देशों की तुलना में भारतीय युद्धों में कम से कम शक्ति, हिंसा तथा क्रूरता का प्रयोग किया जाता था। ‘कत्लेआम’ की तरह प्राजित शत्रु सैनिकों का नरसंहार करने की परम्परा नहीं थी। बालकों तथा स्त्रीयों का वध या उन्हें गुलाम बनाने की प्रथा भी नहीं थी। शत्रु के बुद्धिजीवियों का अपमानित नहीं किया जाता था। रथी केवल रथियों से, घुड-सवार केवल घुडसवारों से युद्ध करते थे। सैनानायक पैदल सैनिकों पर वार नहीं करते थे। स्त्रियों, धर्माचार्यों, अनुचरों, चिकित्सकों तथा साधारण नागरिकों को आघात नहीं पहुँचाया जाता था। चिकित्साल्यों, विद्यालयों तथा रहवासी क्षेत्रों और रात्रि के समय युद्ध वर्ज्य था।

यही भारतीय सिद्धान्त वर्तमानयुग में ‘जिनेवा कनवेन्शन की आधार शिला हैं जिन की दुहाई तो दी जाती है परन्तु उन का उल्लंघन आज भी अधिकाँश देशों की सैनाये करती रहती हैं। भारतीयों ने अपने आदर्शवाद की भारी कीमत चुका कर भी नियमों का आदर्श तो निभाया जिस का विदेशी आक्रान्ताओं ने मक्कारी से हथियार के रुप में भारतीयों के विरुद्ध हमैशा प्रयोग किया।

नौका निर्माण तथा तटीय सुरक्षा

भारत उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत श्रंखला के कारण अन्य देशों से कटा हुआ है तथा पूर्व और दक्षिण की ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। इस कारण विश्व के अन्य देशों के साथ सम्पर्क रखने के लिये नौकाओं का विकास और प्रयोग भारत के लिये अनिवार्यता रही है। ग्रन्थों में ‘वरुण’ को सागर देवता माना गया है। देव तथा दानव दोनो कश्यप ऋषि तथा उन की पत्नियों दिति और अदिति की संतानें थीं। आज कल भी जब किसी नोका या जहाज को सागर में उतारा जाता है तो ‘अदिति’ को प्रार्थना समर्पित की जाती है।

ऋग वेद में नौका दूारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख हैं तथा ऐक सौ नाविकों दूारा बडे जहाज को खेने का उल्लेख है। ‘पल्लव’ का उल्लेख भी है जो तूफान के समय भी जहाज को सीधा और स्थिर रखने में सहायक होते थे। पल्लव को आधुनिक स्टेबिलाइजरों का अग्रज कहा जा सकता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तरित तथा आरामदायक भी थीं।

ऋगवेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ साथ भारत के दोनो महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज खाडी बंगाल तथा अरब सागर कहा जाता है। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। संस्कृत ग्रंथ ‘युक्तिकल्पत्रु’ में नौका निर्माण का ज्ञान है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रंथ में नौका निर्माण की विस्तरित जानकारी है जैसे किस प्रकार की लकडी का प्रयोग किया जाये, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो। उस को किस प्रकार सजाया जाये ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पत्रु में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियाँ भी निर्धारित की गयीं हैं।

नौ सैना का विकास

भारत में नौका यातायात का प्रारम्भ सिन्धु नदी में लग भग 6000 वर्ष पूर्व हुआ। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उदग्म संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। ऋगवेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इस के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्त्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोडों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।

विश्व का प्रथम ज्वार स्थल ईसा से 2300 वर्ष पूर्व हडप्पा सभ्यता के समकालीन लोथल में निर्मित हुआ था। यह स्थान आधुनिक गुजरात तट पर स्थित मंगरोल बन्दरगाह के निकट है। ऋगवेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं।

आर्य भट्ट तथा वराह मिहिर नें नक्षत्रों की पहचान कर सागर यात्रा के मान चित्रों का निर्माण की कला भी दर्शायी है। इस के लिये ऐक ‘मत्स्य यन्त्र’ का प्रयोग किया जाता था जो आधुनिक मैगनेटिक कम्पास का अग्रज है। इस यन्त्र में लोहे की ऐक मछली तेल जैसे द्रव्य पर तैरती रहती थी और वह स्दैव उत्तर दिशा की तरफ मुहँ रखती थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य़ ने अपने नौका सैनानायक के आधीन ऐक नवसैना स्थापित की थी जिस का उत्तरदाईत्व तटीय सुरक्षा के साथ साथ झीलों और जल यातायात को सुरक्षा पहुँचाना था। भारतीय जलयान काम्बोज (कमबोडिया), यवदूीप (जावा), सुमात्रा, तथा चम्पा में भारतीय उपनिवेषों के साथ साथ हिन्दचीनी (इन्डोनेशिया) फिल्पाईन, जापान, चीन, अरब तथा मिस्त्र के जलमार्गों पर भारतीय व्यापारिक वाहनों को सुरक्षा प्रदान करना था। क्विलों से चल कर भारतीय नाविकों ने दक्षिणी चीन और अफ्रीका के सम्पूर्ण समुद्री तट का भ्रमण किया हुआ था। उन्हों ने अफरीका से ले कर मेडागास्कर तक की सभी बन्दरगाहों से सम्पर्क स्थापित किया था। प्रचीन काल से मध्यकाल तक भारत को ऐक सैनिक महाशक्ति माना जाता था।

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

45 – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति


“संगीत है शक्ति ईश्वर की हर सुर में बसे हैं राम

रागी जो सुनाये राग मधुर, रोगी को मिले आराम।”

भारत में देवी देवताओं से ले कर साधारण मानवों तक हर किसी के जीवन में संगीत किसी ना किसी रूप में जुडा हुआ है। संगीत-रहित जीवन की कलपना केवल नारकीय जीवन के साथ ही करी जा सकती है। गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं को संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना गया है।

लिखित कला और विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी संगीत का स्थान विश्व में प्राचीनतम है। संगीत को विज्ञान तथा कला, दोनो के क्षेत्र में समान महत्व मिला है। जैसे दैविक शक्तियों को शस्त्रों के साथ जोडा गया है उसी प्रकार संगीत के वाद्य यंत्रो और नृत्यों को भी देवी देवताओं के साथ जोडा गया है। भगवान शिव डमरू की ताल के साथ ताँडव नृत्य करते हैं, तो देवी सरस्वती वीणा वादिनी हैं। भगवान विष्णु के प्रतीक कृष्ण वँशी की तान सुनाते हैं और रास नृत्य भी करते थे। देवऋषि नारद तथा राक्षसाधिपति रावण वीणा वादन में पारंगत हैं। गाँडीवधारी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुधर होने के साथ साथ नृत्य शिक्षक भी हैं। अप्सराओं तथा गाँधर्वों का तो संगीत कला के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान हैं। भारत में देवी देवताओं से ले कर जन साधारण तक सभी का जीवन संगीत मय है। हर कोई संगीत को जीवन का मुख्य अंग मानता है।

संगीत के प्राचीन ग्रन्थ

सामवेद के अतिरिक्त भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’ संगीत कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय संगीत पद्धति में ‘स्वरों’ तथा उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’ (इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट, वादन क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’ (रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।

वाद्य यन्त्र गायन का अनुसरण और संगत करते थे। वादक ऐकल प्रदर्शन (सोलो परफारमेंस) के अतिरिक्त जुगलबन्दी (ड्येट), तथा वाद्य वृन्द (आरकेस्ट्रा) में भी भाग लेते थे। वाद्य वृन्द में ‘तन्त्र-वाद्य’ (मिजराफ से बजाये जाने वाले), ‘तत-वाद्य’ ( गज से बजाये जाने वाले) ‘सुश्रिर-वाद्य’ (बाँसुरी आदि) तथा ‘घट-वाद्य’ ताल देने वाले वाद्य) आदि सभी वाद्य सम्मिलित थे। आज के सिमफनी आरकेस्ट्रा में भी वाद्यों के मुख्य अंग यही होते है क्यों कि ‘ब्रास (ट्रम्पेट आदि) और वुडविण्ड (कलारिनेट आदि) वाद्य भी सुश्रिर-वाद्यों की श्रेणी में आ जाते हैं।

संगीत का विकास और प्रसार

हिन्दू मतानुसार मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। नाद-साधन (म्यूजिकल साउँड) भी मोक्ष प्राप्ति का ऐक मार्ग है। नाद-साधन के लिये ऐकाग्रता, मन की पवित्रता, तथा निरन्तर साधना की आवश्यक्ता है जो योग के ही अंग हैं। आनन्द की अनुभूति ही संगीत साधना की प्राकाष्ठा है। संगीत के लिये भक्ति भावना अति सहायक है इस लिये संगीत आरम्भ से ही मन्दिरों, कीर्तनों (डिस्को), तथा सामूहिक परम्पराओं के साथ जुडा रहा है।  भारत का अनुसरण करते हुये पाश्चात्य देशों में भी संगीत का आरम्भ और विकास चर्च के आँगन से ही हुआ था फिर वह नाट्यशालाओं में विकसित हुआ, और फिर जनसाधारण के साथ लोकप्रिय संगीत (पापुलर अथवा पाप म्यूज़िक) बन गया।

छन्द-गायन तथा जातीय-गायन वैदिक काल से ही वैदिक परम्पराओं के साथ जुड गया था जिस का उल्लेख महाकाव्यों, और सामाजिक साहित्य में मिलता है। भारत में यह कला ईसा से कई शताब्दियाँ पूर्व ही पूर्णत्या विकसित हो चुकी थी। इसी सामूहिक कंठ-गायन को पाश्चात्य जगत में कोरल संगीत कहा जाता है।

वैदिक छन्द-गायन की परम्परायें लिखित थीं। छन्दोग्य उपनिष्द पुजारी वर्ग को समान गायन परिशिक्षण देने का महत्वपूर्ण माध्यम था। ‘समन’ का गायन और वीणा के माध्यम से वादन दोनो होते थे। मन्दिरों के प्राँगणों में नृत्य भी पूजा अर्चना का अंग था। मन्दिरों से पनप कर यह कला राजगृहों तथा उत्सवों को सजाने लग गयी और फिर समस्त सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मुस्लिम काल में संगीत राज घरानों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया था। 

प्रथम दशक में भारतीय संगीत सम्बन्धी साहित्य के कई मौलिक ग्रँथ उपलब्ध हैं जिन से संगीत के विकास का पता चलता है। सप्तवीं शताब्दी में मातँगा कृत ‘बृहदेशी’ ऐक मुख्य ग्रँथ है जिस में प्रथम बार ‘राग’ का वर्णन किया गया है। अन्य कृति शारंगदेव का ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’ है जो तेहरवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस में तत्कालिक शौलियों, पद्धतियों और परम्पराओं का विस्तरित उल्लेख है।

ईसा से 200-300 वर्ष पूर्व पिंगल ने संगीत पद्धति के क्षेत्र में योग्दान दिया है। उस के आलेखों में बाईनरी संख्या तथा ‘पास्कल-त्रिभुज’ का आलेख भी मिलता है। संगीत के क्षेत्र में ‘श्रुति’ (ध्वनि का सूक्षम रूप जो सुना और अनुसरन किया जा सके) का आधार वायु में आन्दोलन कारी तरंगें है जिन्हें ‘अनुराणना’ (टोनल हार्मनीज) कहा जाता है। दो या उस से अधिक श्रुतियों को मिला कर स्वरों की रचना भारत के संगीतिज्ञ्यों ने करी थी।

राग पद्धति

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति रागों पर आधारित है । रागों की उत्पत्ति ‘थाट’ से होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’ मानी गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’ थाटों का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, पूर्वी, मारवा और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव (मूड – थीम) का घोतक है। राग शब्द सँस्कृत के बीज शब्द ‘रंज’ से लिया गया है। अतः प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन करना अनिवार्य है अन्यथ्वा आपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता। हिन्दूस्तानी संगीत में प्रत्येक राग अपने निर्धारित समय पर अधिक प्रभावकारी होता है जबकि इस प्रकार की समय-सारणी पाश्चात्य संगीत में नहीं है।

गायक हो या वादक, वह निर्धारित सीमा के अन्दर रह कर ही  अपने मनोभावों का संगीत के माध्यम से प्रदर्शन करता है। इस के साथ साथ वह संगत करने वाले ताल वाद्य की समय सीमा में भी बन्धा रहता है। उसे का प्रदर्शन निर्धारित ‘आवृतियों’ में ही कर के दिखाना होता है। इस की तुलना में पाश्चात्य संगीत में गीतों के लिये किसी विशिष्ट समय की प्रतिबन्धित मर्यादा नहीं होती। समस्त पाश्चात्य संगीत भारत के पाँच थाटों में समा जाता है। हिन्दुस्तानी संगीत में ‘धुन’ (मेलोडी) की प्रधानता रहती है जबकि पाश्चात्य संगीत में संगत (हार्मनी) प्रधान है। दोनो का सम्बन्ध क्रमशः आत्मा और शरीर के जैसा है।   

स्वर मालिका तथा लिपि

भारतीय संगीत शास्त्री अन्य कई बातों में भी पाश्चात्य संगीत कारों से कहीं आगे और प्रगतिशील थे। भारतीयों ने ऐक ‘सप्तक’ ( सात स्वरों की क्रमबद्ध लडी – ‘सा री ग म प ध और नि को 22 श्रुतियों (इन्टरवल) में बाँटा था जब कि पाश्चात्य संगीत में यह दूरी केवल 12 सेमीटोन्स में ही विभाजित करी गयी है। भारतीयों ने स्वरों के नामों के प्रथम अक्षर के आधार पर ‘सरगमें’ बनायी जिन्हें गाया जा सकता है। ईरानियों और उन के  पश्चात मुसलमानों ने भी भारतीय स्वर मालाओं (सरगमों) को अपनाया है। 

स्वरों की पहचान के लिये पाश्चात्य संगीतिज्ञों ने ग्यारहवीं शताब्दी में पहले ‘डो री मी फा सोल ला ती आदि शब्दों का प्रयोग किया, और फिर ‘ला ला’, ‘मम’ ‘ओ ओ’ आदि आवाजों का इस्तेमाल किया जिन का कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय समानता के विचार से अब पाश्चात्य संगीत के स्वर अंग्रेजी भाषा के अक्षरों से ही बना दिये गये हैं जैसे कि ‘ऐ बी सी डी ई एफ जी’ – लेकिन उन का भी संगीत के माधुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं। उन की आवाज की ऊँच-नीच और काल का अनुमान स्वर लिपि की रेखाओं (स्टेव) पर बने अनगिनित चिन्हों के माध्यम से ही लगाया जाता है। इस की तुलना में भारतीय स्वर लिपि को उन की लिखावट के अनुसार ही तत्काल गाया और बजाया जा सकता है। स्वरों के चिन्ह भी केवल बारह ही होते हैं। अन्य कई बातों में भी भारतीय संगीत पद्धति पाश्चात्य संगीत पद्धति से बहुत आगे है लेकिन उन सब का उल्लेख करना सामान्य रुचि का विषय नहीं है। 

भारतीय परम्पराओं का पश्चिम में असर

पाश्चात्य संगीत की थ्योरी के जनक का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तु को जाता है जो ईसा से 300 वर्ष पूर्व हुये थे। अब पिछले कई वर्षों से पाश्चात्य संगीतज्ञ्य भारतीय संगीत की परम्पराओं में दिलचस्पी ले रहे हैं। 22 श्रुतियों के भारतीय सप्तक को उन्हों नें 24 अणु स्वरों (माईक्रोटोन्स) में बाँटने की कोशिश भी करी है। वास्तव में उन्हों ने अपने 12 सेमीटोन्स को दुगुणा कर दिया है। उस के लिये ऐक नया की-बोर्ड (पियानो की तरह का वाद्य) बनाया गया था जिस में ऐक सफेद और ऐक काला परदा (की) जोडा गया था परन्तु वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। इस की तुलना में भारत के उच्च कोटि के वादक और गायक 22 श्रुतियों का सक्ष्मता के साथ प्रदर्शन करते हैं। सारंगी भारत का ऐक ऐसा वाद्य है जिस पर सभी माईक्रोटोन्स सुविधा पूर्वक निकाले जा सकते हैं। 

चतु्र्थ से छटी शताब्दी तक गुप्त काल में कलाओं का प्रदर्शन अपने उत्कर्श पर पहुँच चुका था। इस काल में संस्कृत साहित्य सर्वोच्च शिखर पर था और ओपेरानृत्य नाटिकाओं का भारत में विकास हुआ। इसी काल में संगीत की पद्धति का निर्माण भी हुआ। उसी का पुनरालोकन पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे ने पुनः आधुनिक काल में किया है जिसे अब हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति कहा जाता है। इस के अतिरिक्त दक्षिण भारत में कर्णाटक संगीत भी प्रचल्लित है। दोना पद्धतियों में समानतायें तथा विषमतायें स्वभाविक हैं।

भारतीय संगीत को जन-जन तक पहुँचाने में सिने जगत के संगीत निर्देशकों का प्रमुख महत्व है जिन में संगीतकार नौशाद का योग्दान महत्वशाली है जिन्हों ने इस में पाश्चात्य विश्ष्टताओं का समावेश सफलता से किया लेकिन भारतीय रूप को स्रवोपरि ही रखा।

भारतीय नृत्य कला

भारतीय नृत्य की गौरवशाली परम्परा ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है।  भारत का सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त नृत्य प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता काल की ऐक मुद्रा है जिस में ऐक नृत्याँगना को हडप्पा के अवशेषों पर नृत्य करते दिखाया गया है। भारत के लिखित इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से 200 ईसा पूर्व तक की कडी टूटी हुई है।

भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र अनुसार देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना करी थी कि वह संसार को ऐक ऐसी कला प्रदान करें जिस से वेदों का ज्ञान जनसाधारण में फैलाया जा सके। इस प्रकार शिव ने चारों वेदों से कुछ कुछ अंश ले कर ‘पँचम-वेद’ की रचना की जिसे ‘नाट्य’ कहा गया। शिव ने ऋगवेद से ‘नाद’, सामवेद से ‘स्वर’, अथर्व वेद से ‘अभिनय’ तथा यजुर्वेद से ‘गायन’ लिया। इसी लिये शिव को प्रदर्शन कलाओं का आराध्य देव माना जाता है।

शिव के अनुरोध पर पार्वती ने कोमल ‘लास्य’ शैली नृत्य का सृजन किया तथा असुर राजकुमारी ऊषा को इस की शिक्षा दी। ऊषा ने उस शैली को भारत के पश्चिमी भाग में प्रचिलित किया। इस शैली का प्रथम लास्य नृत्य इन्द्र के विजय-ध्वजारोहण समारोह पर किया गया था। असुरों ने जब वह नृत्य देखा तो उन्हों ने इसे नयी युद्धघोषणा समझ लिया तथा उन्हें ब्रह्मा जी ने समझा बुझा कर शान्त किया। ब्रह्मा जी ने आदेश दिया कि भविष्य में लास्य नृत्य केवल पृथ्वी पर ही किया जाये गा।

विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर के साथ लास्य नृत्य किया था तथा मुद्राओं के दूारा उसी का हाथ उस के सिर पर रखवा कर भस्मासुर को भस्म करवाया था। कृष्ण ने भी कालिया नाग मर्दन के समय और गोपियों के साथ जो रास नृत्य किया था वह भी लास्य नृत्य का ही अंग माना जाता है। शिव का अन्य नृत्य ताँडव नृत्य होता है जिस में रौद्र भाव प्रधान होता है।

भरत मुनि रचित नाट्य-शास्त्र की परिभाषानुसार नाट्य कला में मंच पर प्रदर्शित करने योग्य सभी विषय नृत्य की श्रेणा में आते हैं जैसे कि नृत्य के साथ साथ नाटक और संगीत। संगीत का नाट्य के साथ योग अवश्य है क्यों कि इस का नाटक में बहुत महत्व है।

नाट्य शास्त्रानुसार नृतः, नृत्य, और नाट्य में तीन पक्ष हैं –

  • नृतः केवल नृत्य है जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं। यही आजकल का ऐरोबिक नृत्य है।
  • नृत्य में भाव-दर्शन की प्रधानता है जिस में चेहरे, भंगिमाओं तथा मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है।
  • नाट्य में शब्दों और वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है।

भारत में कई शास्त्रीय नृत्य की की शैलियाँ हैं जिन में ‘भरत-नाट्यम’, ‘कथक’, ‘कथकली’, ‘मणिपुरी’, ‘कुचीपुडी’ मुख्य हैं लेकिन उन सब का विस्तरित वर्णन यहाँ प्रसंगिक नहीं।

इस के अतिरिक्त कई लोक नृत्य हैं जिन में गुजरात का ‘गरबा’, पंजाब का ‘भाँगडा’ तथा हरियाणा का ‘झूमरा’ मुख्य हैं। सभी लोक नृत्य भारतीय जन जीवन के किसी ना किसी पक्ष को उजागर करते हैं प्रमाणित करते हैं कि भारतीय जीवन पूर्णत्या संगीत मय है। 

चाँद शर्मा

42- स्मृद्ध भारतीय जन-जीवन


आज विकसित कहे जाने वाले देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और भोजन कि लिये कच्चे पक्के माँस पर ही निर्वाह करते थे तब से भी सैंकडों वर्ष पूर्व भारत को ऐक विकसित महाशक्ति के रूप में जाना जाता था। सिकन्दर के गुरु अरस्तु के अनुसार ‘भारत-विजय’ का अर्थ ही ‘विश्व-विजय’ था। भारत धरती पर जीता जागता स्वर्ग था। तब भारत के लोग विदेश जाने को तत्पर नहीं होते थे बल्कि विदेशी भारत आने के लिये ललायत रहते थे।

पुरुषार्थ से जी भर के जियो

हिन्दू जीवन का लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चल कर कर्तव्यों का पालन करते हुये जीवन में ‘अर्थ’ और ‘काम’ की तृप्ति कर के जीवन काल में ही ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करना था। मृत्यु के पश्चात मोक्ष का कोई अर्थ नहीं रहता। मोक्ष की प्राप्ति संन्यास से पूर्व ही होनी चाहिये नहीं तो संन्यासी बनने के पश्चात घोटालों में फंस जाने के कारण सब किया कराया भी नष्ट हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति की होड में ‘धर्म’ की स्थानीय मर्यादाओं का उलंघन और किसी चीज़ की इति नहीं होनी चाहिये।

बिना गृहस्थाश्रम का धर्म निभाये वानप्रस्थाश्रम या संन्यासाश्रम में प्रवेश लेना उचित नहीं समझा जाता। हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को ही संतान रहित होने पर ‘अधूरा’ समझा जाता है क्यों कि उन्हों ने ईश्वर के प्रति सृष्टी क्रम को प्रवाहित रखने के लिये निजि उत्तरदाईत्व का निर्वाह नहीं किया। जो स्त्री-पुरुष अपने पुरुषार्थ के भरोसे अपनी स्वाभाविक इन्द्रीय सुखों से वँचित रहे हों वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।

अर्थ के बिना भी कुछ सार्थक नहीं हो सकता केवल अनर्थ ही होता है। जीवन के साधन अर्जित करना सभी का कर्तव्य है। वन में रहने वाले संन्यासी को भी कम से कम बीस-तीस वस्तुओं की आवशयक्ता निरन्तर पडती रहती है जिन की आपूर्ति का भार गृहस्थी ही उठाते हैं। अतः संसाधनों के बिना कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

धर्म, अर्थ, और काम – जीवन में तीनों का महत्व है। केवल धर्म के मार्ग पर चल कर, अर्थ और काम से वँचित रह कर मोक्ष प्राप्ति कर लेना अति कठिन है। भारत के ऋषि अपनी अपनी पत्नियों के संग ही आश्रमों में रह कर संन्यास धर्म का पालन करते रहै हैं। स्वेच्छा से संन्यासी हो जाना ऐक मानसिक अवस्था है तथा संन्यास का भौतिक दिखावा करते रहना केवल नाटकबाजी है।   

विदेशी धर्मों के मतानुसार वैवाहिक सम्बन्ध का लक्ष्य संतान उपन्न करना ही है। इस की तुलना में हिन्दू जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ दूारा धर्म (कर्तव्यों का निर्वाह), अर्थ (संसाधनों का सदोप्योग तथा आपूर्ति), काम (सभी प्रकार के सुख भोगना) तथा मोक्ष ( पूर्ण सँतुष्टि) की प्राप्ति है। इन सभी का समान महत्व है। किसी अवस्था में यदि धर्म, अर्थ और काम समान मात्रा में अर्जित ना किये जा सकते हों तो क्रमशाः काम, अर्थ को छोडना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी अवस्था में नहीं किया जा सकता क्यों कि केवल धर्म का पालन ही मोक्ष प्राप्ति करवा सकता है। निजि कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है।

काम-सूत्र  

ऋषि वात्सायन दूारा लिखित काम-सूत्र शरीरिक सुखों के विषय पर सम्पूर्ण गृन्थ है। हिन्दू धर्म में वैवाहिक काम सम्बन्ध किसी ‘ईश्वरीय-आज्ञा’ का उलन्धन नहीं माने जाते। वह ईश्वर के प्रति मानव कर्तव्यों के निर्वाह के निमित हैं और सृष्टि के क्रम को चलाये रखने की श्रंखला के अन्तर्गत आते हैं। कामदेव को देवता माना जाता है ना कि शैतान। काम-सूत्र गृन्थ का लग भग सभी विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और भारतीय अध्यात्मिकता की तरह अपने क्षेत्र में यह गृन्थ भी सर्वत्र प्रेरणादायक है। इस से प्रेरणा ले कर शिल्पियों और चित्रकारों ने अपनी कला से विश्व भर के पर्यटकों को चकित किया है। चन्देल राजाओं दूारा निर्मित खजुरोहो के तीस मन्दिर काम-कला कृतियों को ही समर्पित हैं जो इस विषय में मानव कल्पनाओ की पराकाष्ठा दर्शाती हैं। काम को धर्म शास्त्रों की पूर्ण स्वीकृति है अतः शिल्प कृतियों में अधिकतर देवी – देवताओ को ही नायक नायकाओं के रूप में दिखाया गया है।     

हिन्दू समाज में कोई ‘तालिबानी ’ ढंग का अंकुश नहीं है। केवल धर्म और सार्वजनिक स्थलों पर सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह करना ही आवश्यक है।  खजुरोहो कृतियों के पीछे छिपा अध्यात्मवाद और इतिहास शायद तथाकथित ओवर-लिबरल विदेशी पर्यटकों को समझ नहीं आये गा फिर भी उन्हें स्वीकारना पडे गा कि काम-कला प्रदर्शन में भी आज से दस शताब्दी पूर्व भारतवासी योरूप्यिन लोगों से कहीं आगे थे। 

काम का क्षेत्र केवल शरीरिक सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है। इस के अन्तर्गत सहचर्य के अतिरिक्त अच्छा भोजन, वस्त्र, आभूषण, रहन-सहन, कला, मनोरंजन, आराम, सुगन्धित वातावरण आदि जीवन के सभी भौतिक ऐश्वर्यों के आकर्षण आ जाते हैं। धर्म की सीमा के प्रतिबन्ध के अन्तर्गत सभी कुछ हिन्दू समाज में स्वीकृत है। यही वास्तविक ‘लिबरलज़िम है।

वाल्मीकि रामायण में कई भौतिक सुखों की परम्पराओ के उल्लेख देखे जा सकते हैं। ऱाजा दशरथ को प्रातः जगाने का विधान अयोध्या नगरी की भव्यता तथा ऐश्वर्य  का भान कराता है। ऋषि भारदूाज चित्रकूट मार्ग पर राजकुमार भरत तथा अयोध्या वासियों के सत्कार में ऐक भोज का प्रबन्ध अपने आश्रम में ही करते है जो किसी भी पाँचतारा होटल की ‘बैंक्विट’ से कम नहीं। ऱावण के अन्तःपुर में सीता की खोज में जब हनुमान प्रवेष करते हैं तो वहाँ के वातावरण का चित्रण अमेरिका के किसी भी नाईटकल्ब को पीछे छोड दे गा। किन्तु ऋषि वालमीकि कहीं भी वर्णन चित्रण करते समय भव्यता और शालीनता की रेखा को नहीं लाँघते।

भारतीय खान-पान 

हिन्दू धर्म शास्त्रों में, कर्म क्षेत्र के अनुसार, समाज के सभी वर्गों के लिये, भोजन का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया गया है जिसे सात्विक, राजसिक, तथा तामसिक भोजन कहते हैं। य़ह वर्गीकरण आधुनिक डायटीशियनों के विचारों से आज भी पूर्णत्या प्रमाणित हो रहा है। मनुस्मृति में भोजन परोसने, खाने तथा अन्त में हाथ और दाँत साफ करने तक की क्रियाओं का लिखित वर्णन है जैसा कि आधुनिक आई ऐस ओ मानकशास्त्री आजकल कम्पनियों में करवाते हैं।

हिन्दू जीवन में अधिकाँश तौर पर शाकाहारी भोजन को ही प्रोत्साहन दिया जाता है किन्तु धर्म अपने अपने कर्म क्षेत्र के उत्तरदाईत्व का निर्वाह करने के लिये सभी को शाकाहारी अथवा मांसाहारी भोजन गृहण करने की स्वतन्त्रता भी देता है। आखेट के माध्यम से मांसाहारी भोजन जुटाने की अनुमति है क्यों कि इस से जीवों की व्यवसायिक मात्रा में हत्यायें नहीं होंगी। आखेट पर प्रतिबन्ध पशु-पक्षियों के प्रजन्न काल की अवधि में पालन करना अनिवार्य होता है।

जहाँ अन्य धर्मों के कुछ लोग व्यक्तिगत स्वास्थ के कारणों से मांसाहारी भोजन त्याग कर शाकाहारी बन जाते हैं, वहीं हिन्दू जीवों के प्रति संवेदनशील हो कर जीवों की रक्षा के कारण शाकाहारी बने रहते हैं। इसी तथ्य में जियो – और जीने दो का मूलमंत्र छिपा है। 

भारतवासी कई प्रकार के अनाजों का उत्पादन करते थे जिन में अनाज, दालें और फल भी शामिल हैं। चावल, बाजरा, मक्की, गेहूँ की खेती भारत में प्राचीन काल से ही करी जाती थी। भारत में आम, केले, खरबूजे, और नारियल आदि कई प्रकार के फलों के निजि कुंज भी थे। गाय पालन गौरवशाली समझा जाता था। दूध, दही, मक्खन, घी, और पनीर आदि पदार्थ दैनिक प्रयोग के घरेलू पदार्थ थे। इन तथ्यों की तुलना में अमेरिका तथा योरूप के प्रगतिशील महिलायें आज भी दालों, मसालों तथा घी का प्रयोग नहीं जानतीं। आज भी विदेशी भोजन में प्रोटीन की प्राप्ति मांसाहार या जंक-फूड से ही पूरी करते हैं।

जंगल में शिकार को आग पर भून कर खाने, और पेट भर जाने पर वहीं नाचने-गाने की आदत को आज कल केम्प-फायर तथा बारबेक्यू कहते हैं। नुकीले तीरों या छुरियों से भुने मांस को नोच कर खाने का आधुनिक सभ्य रूप छुरी-काँटे से खाना है। इसकी तुलना में शाकाहारी खाना सभ्यता और संस्कृति की प्रगति का बोध करवाता है।  

पाक-कला

पाक-कला को चौंसठ कलाओं की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय विविध रीतियों से भोजन पकाना जानते थे जिस में उबलाना, सेंकना, भूनना, धीमी आँच पर पकाना, तलना, तथा धूप में सुखाना भी शामिल हैं। प्रत्येक गृहणी को मसालों के औषधीय गुणों की जानकारी थी तथा वह दैनिक जीवन में मसालों का यथोचित प्रयोग करती थीं। संतुलन बनाये रखने के विचार से दिन के प्रत्येक भोजन में छः मौलिक स्वादों (मीठा, कडुआ, खट्टा, नमकीन, तीखा और फीका) को सम्मिलित किया जाता था। यह परम्परा आज भी अधिकाँश घरों में है। भोजन के पश्चात सुगन्धयुक्त पान अर्पित करना विशिष्ट शिष्टाचार माना जाता था। गृहस्थाश्रम में मदिरा पान पर शालीनता में रहने के अतिरिक्त अन्य कोई रोक-टोक नहीं थी। इस की तुलना में अन्य देशों में केवल माँस, नान, पिज्जा या इस प्रकार के पदार्थों को आग पर भूनना ही मुख्यता आता था। आज भी उन्हें मसालों की जानकारी नहीं के बराबर है और उन का दैनिक भोजन स्वाद में लगभग फीका ही होता है।

चीनी – भारत का उतपादन

अन्य देशों नें ‘शूगर शब्द भारतीय शब्द शक्करा से ही अपनाया है। इसी को अरबी भाषा में शक्कर, लेटिन में साकारम, फरैंच में साकरे, जर्मन भाषा में ज़क्कार तथा अंग्रेज़ी में शूगर कहते हैं। चीनी का निर्माण भारत ही शूगरकेन (गन्ने) से किया था। अंग्रेजी में शूगरकेन का शब्दिक अर्थ “शूगर वाला बाँस” होता है।

हिन्दू घरों में मिष्टान को सात्विक भोजन माना जाता है। देवी देवताओं को अर्पण किये जाने वाले प्रसाद मीठे ही होते हैं। मीठे दूध में चावल पका व्यंजन क्षीर (पायसम) अति पवित्र तथा संतोष जनक माना जाता है। भारत के खान पान में विभन्न प्रकार की मिठाईयों की भरमार है जिन से विश्व के अन्य समाज आज तक भी अनिभिज्ञ्य हैं। आज  भारतीय मिठाईयाँ विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही हैं। यह भारत का दुर्भाग्य है कि कुछ मिलावटखोरों के कारण भारत में ही भारतीय मिठाईयों का स्थान चोकलेट, कुकीस और विदेशी मिठाईयों ने छीनना शुरु कर दिया है। 

भारतीय परिधान

मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उन से निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन हैं। पाँच लाख वर्ष पूर्व हडप्पा के अविशेषों में चाँदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य की प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरूप वासियों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी। तब तक योरूप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचिल्लत हुआ जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू (यहूदी भाषा) में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस

हथ-कर्घा तथा हाथ से बुने वस्त्र आज भी भारत का गौरव हैं। आज से दो हजार वर्ष पूर्व तक मिस्र के लोग मम्मियों को भारतीय मलमल में ही लपेट कर सुरक्षित करते थे। जूलियस सीज़र के काल तक भारतीय सूती वस्त्रों का कोई भी प्रतिस्पर्धी नहीं था। भारतीय वस्त्रों के कलात्मिक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से ले कर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग बिरंगे परिधान, अदृष्य लगने वाले काशमीरी शाल भारत के प्राचीन कलात्मिक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे जो ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे के में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है।

आरम्भ में योरूप वासी भारत की ओर गर्म मसालों के व्यापार की होड में आये थे किन्तु शीघ्र ही भारतीय परिधान उन का मुख्य व्यवसाय बन गये। कताई बुनाई के क्षेत्र में पाँच हजार वर्षों के अनुभव तथा अनुसंधान का जादु इंगलैण्ड वासियों पर इस कदर चढा कि वस्त्रों का मानव निर्मित होना असम्भव जान पडता था।

ढाके की मलमल

मलमल एक प्रकार का पतला कपड़ा होता है जो बहुत बारीक़ सूत से बुना जाता है। प्राचीनकाल में यह कपड़ा विशेषकर बंगाल और बिहार में बुना जाता था। ढाके की मलमल अपनी बारीकी और नफासत के लिए विश्व विख्यात थी। एक अंगूठी से सात थान मलमल आर-पार किया जा सकता था। ढाके के मलमल के आगे मैनचेस्टर में बने वस्त्र फीके पड़ जाने के भय से अंग्रेजों ने भारतीय बुनकरों की उंगलियां काटवा दीं थी।

बंगाली बुनकरों की मलमल इतनी निर्मल और महीन थी कि उसे चलता पानी (रनिंग वाटर) तथा सायंकालीन ओस (ईवनिंग डयू) की उपाधि दी जाती थी। बनारसी सिल्क पर सोने चाँदी के महीन तारों की नक्काशी विश्व चर्चित थी। कशमीर के पशमीना शाल एक अंगूठी में से निकाले जा सकते थे। परिधानों के रंग प्रत्येक धुलाई के पश्चात और निखरते थे।   

परिधानों, आभूष्णों तथा सौंदर्य प्रसाधनों के कारण भारतीय स्त्रियों की तुलना स्वर्ग की अप्सराओं से करी जाती थी क्यों कि वह हर प्रकार के इन्द्रीय विलास के गुणों से पूर्णत्या सम्पन्न थीं। जो लोग आज विदेशी तकनीक की वकालत करते हैं उन के लिये यह कहना प्रसंगिक होगा कि भारत के उस समृद्ध वातावरण में तब तक पाश्चात्य तकनीक की कोई छाया भी नहीं पडी थी।  

चाँद शर्मा

39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

35. भारत का भौतिक ज्ञान


दार्शिनक्ता और वैज्ञानिक्ता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ‘दार्शनिक’ आविष्कारों की कल्पना करता है जिसे ‘वैज्ञानिक’ साकार कर देता है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के जन्मदाता अरस्तु आदि भी दार्शनिक ही थे। विचार आविष्कारों से पूर्व उजागर होते हैं तथा दीर्घायु होते हैं। तकनीक विचारों को साकार करती है किन्तु उस में बदलाव तेजीं से आते हैं। नयी तकनीकें पुरानी तकनीकों का स्थान ले लेती हैं जैसे कि ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये आवाज को विद्युत तरंगों में बदल देने का विचार आज भी पुरातन है किन्तु उसे भेजने की तकनीक तार से आरम्भ हो कर, बेतार, मोबाईल फोन, सैटेलाईट चैनल आदि के कितने ही रूप ले चुकी है। दार्शनिक विचारों की कल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं।

भौतिक ज्ञान का आरम्भ 

आज भौतिक शास्त्र की पुस्तकों में पढाया जाता है कि “पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें ठोस, तरल, और गैस की श्रेणी में में रखा जा सकता है”। यह पदार्थों का केवल दिखावटी तथ्य है। आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है। 

वैदिक साहित्य में भौतिक ज्ञान

प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (प्रापरटीज), का वर्णन भी दिया गया है।

अथर्व वेद के अनुसार जगत में सात ‘तत्व’ – धरा, जल, तेज, वायु, क्षितिज, तन्मात्रा, और घमण्ड हैं। उन के अतिरिक्त तीन ‘गुण’ सत्तव, रज और तम हैं। इन्हीं सात पदार्थों और तीन गुणों के मिश्रण से 21 ‘पदार्थों’ की रचना होती है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, और मन, यह नौ ‘द्रव्य’ हैं जिन की विशेषतायें भौतिक शास्त्र की वैज्ञानिक भाषा में ही इस प्रकार से व्यक्त की गयी हैं –

पृथ्वी पृथ्वी में गन्ध, रस, रुप और स्पर्श चार गुण (प्रापरटीज) हैं जिन में से गन्ध मुख्य है।

जल – जल में रस, रूप और स्पर्श तीन गुण हैं जिन में से रस मुख्य है। जल की पहचान शीत स्पर्श है। जल में जो ऊष्णता होती है वह अग्नि की है।

अग्नि अग्नि की पहचान स्पर्श है, रूप और स्पर्श दो गुण हैं जिन में से रूप मुख्य है।

वायु – वायु की पहचान ऐक विलक्षण स्पर्श हैं।

आकाश – आकाश की पहचान शब्द है। जहाँ शब्द है वहाँ आकाश भी है। आकाश का कोई शरीर नहीं। कर्ण छिद्र के अन्दर का आकाश स्रोत्र है।

काल काल सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है जैसे – ‘यह जल्दी हो गया’ और ‘वह देर से हुआ’ आदि। व्यवहार के लिये पल, घडी, दिन, महीना, वर्ष, युग, भूत भविष्य और वर्तमान आदि अनेक भेद कल्पना से कर लिये जाते हैं।

दिशा व्यवहार के लिये दिशायें दस प्रकार की हैं जो काल की तरह ही सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होती हैं।

आत्मा आत्मा की पहचान चैतन्य ज्ञान है। ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं क्यों कि किसी इन्द्री के नष्ट हो जाने पर भी उस के पहले अनुभव किये हुए विषय की समृति रहती है। अनुभव करने वाला इन्द्रियों से भिन्न है। इच्छा, देूष, प्रयत्न, सुख दुःख भी शरीर से अलग हो कर आत्मा की पहचान कराते हैं।

मन मन इन्द्रियों की तरह सुख दुःख के ज्ञान का साधन है।

शुष्क वैज्ञानिक तथ्यों को मनोरंजक कथाओं के माध्यम से जन साधारण तक पहुँचाना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैं जैसे किः-

  • कृषि, चिकित्सा, खगोल तथा गणित, अंकगणित, और साँक्रमिक आदि से सम्बन्धित तथ्यों का भौतिक ज्ञान ऋगवेद 1-71-9,4-57-5 तथा सामवेद 121 में संकलित है। इस ज्ञान के प्रयोग से जन साधारण के दुःख दूर किये जा सकते हैं। (ऋगवेद 1-34-1 से 5, 5-77-4)
  • जल, वायु तथा अग्नि की विशेषतायें तथा विमानों और वाहनों के निर्माण के लिये उन के प्रयोग के बारे में उल्लेख किया गया है। (ऋगवेद 1-3-1,2,1-34-1,1-140-1)
  • अणु कणों, ईश्वर्य शक्ति तथा उस के गुणों के पदार्थों में समावेश के बारे में ऋगवेद 5-47-2 तथा सामवेद 222 में उल्लेख किया है।
  • भौतिक ज्ञान सम्बन्धी परिभाषायें तथा गुण यजुर्वेद 18-25 में उल्लेखित हैं।
  • आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का मत है कि सूर्य कि किरणें सीधी रेखा के विपरीत कमान की भाँति धरती पर उतरती हैं। यही तथ्य हमारे पूर्वजों ने कलात्मिक ढंग से बताया है – भुजंगनः मितः सप्तः तुर्गः – कि सूर्य  के रथ को सर्पों से बन्धे हुये सात घोडे खींच कर चलते हैं। सर्प सीधी लाईन में नहीं चलते टेढें मेढे़ चलते हैं।
  • सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। इसी प्रकार उन्हों ने रौशनी के सम्बन्ध में कहा है कि सूर्य की श्वेत किरणों में ही सात रंग छिपे होते हैं। अथर्व वेद में कहा है सप्तः सूर्य्स रसम्यः।
  • ऋगवेद’ में सूर्य के प्रकाश की गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य का प्रकाश आधे निमिष में 2 ,202 योजन की यात्रा करता है। एक योजन लगभग 9 मील के बराबर है जिस के अनुसार यह गति 185793.75 मील होती है जब कि सूर्य के प्रकाश की आधुनिक वैज्ञानिक गणना 187372 मील है।  
  • तरल रूप में जल, गैस रूप में बादल बन कर वर्षा करता है। पर्वत शिखरों पर ठोस रूप में बर्फ भी जल का परिवर्तित रूप है – यजुर्वेद
  • अग्नि दृष्यमान है। पृथ्वी पर अग्नि ज्वाला, लावा, और भस्म के रूप में स्थित है। आकाश में सूर्य, बादलों में विद्युत तथा जल में बडवा नल, वृक्षों में दावानल तथा देह में जीवन का रूप है। शक्ति रूप और स्थान बदलती है। अग्नि सभी वस्तुओं को शुद्ध करती है। (यजुर्वेद)
  • यद्यपि तम (अन्धेरा) काले रंग का है और चलता हुआ प्रतीत होता है तथापि उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। ‘प्रकाश का अभाव’ ही तम है। प्रकाश के ना होने से न दीखना ही उस में कालापन है। प्रकाश के आगे आगे चलने से ही अन्धेरा चलता हुआ प्रतीत होता है जैसे मानव के चलने से उस की छाया चलती हुई प्रतीत होती है।

भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान

भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।

अणु शक्ति – वैशिसिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु (ऐटम) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता ऐक ही स्त्रोत्र से हैं केवल मात्रा में फर्क है। जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु ऐक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

ध्वनि और रौशनी – सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते रहै कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। छटी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें  अलग अलग गति से निकलती हैं।

चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (इको) भी रहती है। वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।

आकर्षण शक्ति की खोज

यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।

  1. आर्य भट्ट सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को जानकारी दी थी  किः-
  • कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  • तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  • पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  • उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।
  • आर्य भट्ट में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन उल्लेख की है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। ऐक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञायानिकों की गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञायानिकों की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
  1. ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी)  ने नेगेटिव अंकों  तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
  2. वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है स्दैव चमकता है और शेष आधा भाग स्दैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
  3. भास्कर आचार्य भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः –

            मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

                      आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या

                                आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से ऐक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व ‘सिद्धान्त-शिरोमणि’ में दर्शाया जा चुका था।

ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है। 

चाँद शर्मा

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

टैग का बादल