हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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आठ मार्च का महिला दिवस


रोज मर्रा के जो काम भारत के आम घरों की महिलायें करती हैं उन में से ऐक प्रतिशत काम भी संसद और विधान सभाओं में भाषण देने वाली महिलाये नहीं करतीं। जो महिला अपने नवजात बच्चे को सड़क पर अकेला सुला कर पास बन रही बिल्डिंग पर ईंटें ढोने का काम करती है या साईकिल रिकशा चलाती है उसे तो पता भी नहीं होगा कि आज ‘महिला-दिवस’ था।

महिला होने का लाभ तो प्रतिभा पाटिल को मिला जो प्रथम महिला राष्ट्रपति बनी, मीरा कुमार को मिला जो प्रथम स्पीकर बनी या और इसी तरह की महिलायों को मिलता रहता है।

राजनेता, जिन में महिलायें भी शामिल हैं अब संसद और विधान सभाओं में महिला आरक्षण की मांग कर रहै हैं ताकि उन की बची खुची रिशतेदार महिलायें भी आसानी से आरक्षित सीटों इलेक्शन जीतें और रिमोट कन्ट्रोल लालू-मुलायम जैसे नेताओं के हाथ में रहै। उन्हें ताले में बन्द कर के वह समर्थन का जोड तोड किया करें गे। यह आरक्षण ईंटे ढोने वाली महिलाओं के लिये नहीं है और ना ही काल सैन्ट्रों में काम करने वाली युवतियों के लिये है। उन्हें तो असुरक्षित वातावरण से ही अभी और जूझना है।

अब महिला पुलिस, महिला बैंक, महिला डाकघर, महिला टैक्सी सेवा, और महिला अस्पताल आदि की भरमार है। शायद जल्दी ही लिंग भेद पर महिला रेलवे, महिला फौज और महिला प्रदेश भी बनने लगें गे। कुछ समय बाद ऐक महिला निर्वाचन आयोग और महिला उच्चतम न्यायालय भी बनाना पडे गा।

साल में ऐक दिन महिला दिवस, टीचर दिवस, बाल दिवस और परयावर्ण दिवस आदि के ढोंग कर के, गरीबों के घरों में ऐक दिन खाना खा कर और सो कर हम कब तक अपने आप को और दूसरों को मूर्ख बनाते रहैं गे? नेहरू गाँधी परिवार ने नाटक बाजी बहुत करवा दी है जिस में शो ख्तम होते ही हम अपना अपना मेक-अप उतार देते हैं।

अपने दिल से ही पूछिये – क्या वास्तव में आप के घरों में महिलाओं का अपमान हो रहा है, रेप हो रही हैं या उन्हें मारा पीटा जाता है? अपने मूहँ पर कालिख मलने का ऐसा शौक  हम पर क्यों चढ़ गया है?

इसी देश की महिलायें बिना आरक्षण के विश्व सुन्दरियाँ, अभिनेत्रियाँ, डाक्टर और इंजीनियर भी अपने आप बन चुकी हैं, अन्तरीक्ष में भी जा चुकी हैं – क्या वह सब महिला दिवस के कारण उन्हें प्राप्त हुआ था?

जब कहीं पर विदेशी बीन सुनाई पड जाती है तो हम साँप की तरह नाचने लग जाते हैं और अपनी संस्कृति को भूल जाते हैं कि इसी देश में महिलाओं के सम्मान की खातिर ही रामायण और महाभारत काल में महायुद्ध हुये थे। गार्गी, शकुन्तला देवी, हेमा मालिनी, लता मंगेशकर, अनुशका शंकर ने महिला दिवस या आरक्षण के कारण ख्याति नहीं पाई। यह सभी महिलायें घरती की गरीबी से ही उपजीं थीं। भारत की महिलाओं का अपमान कर के हम केवल ढिंडोरा पीट रहै हैं।

जश्न मनाने के शौक के साथ अगर कुछ करना भी है तो मनु समृति के अनुसार महिला दिवस हर रोज मनाओ और याद रखो किः

 यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनु स्मृति 3-56)

जिस कुल में स्त्रीयाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रीयों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञानदि कर्म निष्फल होते हैं।

हर साल केवल आठ मार्च को ही महिला दिवस मनाने से कुछ नहीं होगा।

चाँद शर्मा

मुस्लिम तुष्टीकरण या धर्म निर्पेक्षता ?


आज का सबसे मुख्य प्रश्न यही है की “क्या मुल्ला तुष्टिकरण को हम वास्तविक रूप में हम धर्मनिरपेक्षता का नाम दे सकते है?” कांग्रेस को देख कर यही आभास होता है कि कोई भी राजनैतिक दल सारी नैतिक जिम्मेदारियां ताक पर रख के कैसे नीचता की गहराइयों को छू सकता है!

आज कल विश्व की सबसे प्रमुख समस्या इस्लामी आतंकवाद है जिसके उन्मूलन के लिए विश्व के सबसे सशक्त प्रमुख देश अनवरत प्रयासरत हैं! दूसरी और भारत के भ्रष्ट नेता हैं जो चंद वोटों के लिए अपने देश से गद्दारी भी कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता की आड में आतंकवादी संगठनो को शह दे रहे हैं!

यह कैसी विडम्बना है कि जब सनी लियॉन जैसी पोर्न कलाकार को राष्ट्रीय टेलीविज़न पर परोसा जाता है! और इस पर कोई आपत्ति नहीं की जाती है! यहाँ मुल्ले सरे आम तिरंगे को आग लगा देते हैं और कांग्रेस कुछ नहीं कहती! यहाँ एक आतंकवादी को ‘श्री हाफिज सईद’ कहता है वह भी भारत का गृह मंत्री! वह जहां एक “दामिनी” की इज्ज़त तार तार कर, बलात्कार कर, उसे नृशंसता से मार देने वाला आदमी नाबालिग करार दिया जाता है और उसकी बिना जांच हुए केवल 3 साल के लिए सिर्फ सुधार गृह में भेज जाता है! क्यों मेहरबान है उस पर यह कांग्रेस सरकार क्यूंकि उसका नाम “मोहम्मद अफरोज” है! अगर उसे सज़ा दी गयी तो मुल्ला समुदाय नाराज़ नहीं हो जायेगा? वह भी JNU में बैठे लोग! जो कि कांग्रेस के झूठे प्रचारतंत्र का हिस्सा हैं! यहाँ हिन्दू स्वयंसेवक जो कि सदा से देश पर अपना सर्वस्व लुटाता आया है उसे “भगवा आतंकवादी ” की संज्ञा दी जाती है!

यह वह देश है जहां ऐम ऐफ हुसैन जैसे मानसिक रोगी हिन्दू देवी देवताओ की अश्लील पेंटिंग बनाते है तो उसे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का नाम दिया जाता है! और जब इस देश के वरिष्ठ कलाकार कमल हसन इस्लामिक आतंवाद पर फिल्म बनाते हैं तो कांग्रेस जैसी पार्टी सिर्फ मुल्ला तुष्टिकरण के चलते उस पर प्रतिबन्ध लगाती है! कोर्ट की आज्ञा की अवहेलना करते हुए आगे बढचढ के फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा रही है कांग्रेस!

यह सब साफ़ तौर पर वोटो की घिनौनी राजनीती है कोई धर्मनिरपेक्षता नहीं है! और इस सबको हम सब चुपचाप कब तक देखते रहेंगे? आज कांग्रेसी भारत माता का चीरहरण कर रहे हैं! हम कब तक पांडव, विदुर और धृतराष्ट्र बने रहेंगे?

अगर समय की यही मांग है तो हमें कृष्ण बनना ही होगा और एक और महाभारत का आवाहन करना होगा! इसी के बाद शायद शांति और धर्म की स्थापना संभव हो!

नरेन्द्र शशिशीश (फेसबुक)

(श्री नरेन्द्र शशिशीश फेसबुक पर युवा हिन्दू के नाते हिन्दूओं की चेतना के लिये अनथक प्रयास कर रहै हैं। उन के लेख को प्रस्तुत करना मेरे लिये उन के जोश, उत्साह, मेहनत और साहस के प्रति मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ – चाँद शर्मा)

63 – अंग्रेजों की बन्दर बाँट


अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी स्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की अपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के विपरीत भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी, जो इस्लाम की देन थी।

दासता का जाल

योरपीय व्यापारिक कम्पनियाँ सैनिक क्षमता के साथ छद्म भेष में भारत आईं थी। उन के पास उत्तम हथि्यार, तोपें, गोला बारूद तथा अनुशासित सैनिक और कर्मठ कर्मचारी थे। परस्परिक ईर्षा और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होते हुये भी इसाई धर्म नें उन को ऐक सूत्र में बाँधे रखा। अब उन के पास अपने आप को भारतियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और सभ्य कहलाने का मनोबल भी था जिस का योरुपीय आगन्तुकों ने पूरा फायदा उठाया। लोभ और भय का प्रयोग कर के उन्हों ने इसाई धर्म का प्रचार किया और स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन किये। अपने अधिकार क्षेत्रों को सुदृढ करने के पश्चात उन्हों ने मूर्ख और स्वार्थी शासकों की आपसी कलह को विस्तार देना आरम्भ किया। ऐक को दूसरे से लड़वा कर स्वयं न्यायकर्ता के रूप में ढलते गये। भूखी बिल्लियों के झगडे में मध्यस्तता करते करते बन्दर पूरी रोटी के मालिक बन बैठे। अन्ततः ब्रिटेन ने अन्य योरुपीय देशों से बाझी मार ली। भारत में इंगलैण्ड की व्यवसासिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘कम्पनी-बहादुर’ के नाम से सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बन कर भारत के मूर्ख, झगडालू, तथा ईर्षालू शासकों को पालतु कुत्तों की तरह पीठ थप-थपा कर शासन करने लगी। 

‘कम्पनी बहादुर’ ने 1857 तक भारत पर राज्य किया। उस के पश्चात सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गयी। हिन्दूओं की अपेक्षा मुस्लमान कई स्थानों पर सत्ता में बने हुये थे। इसाईयों के लिये उन का धर्म परिवर्तन करवाना कठिन था क्यों कि कट्टरपंथी मानसिक्ता के कारण धर्म परिवर्तन करने से मुस्लिम समाज परवर्तितों का बहिष्कार कर देता था। हिन्दूओं के पास ना तो सत्ता थी ना ही कट्टरपंथी मानसिक्ता। अतः वह धर्म परिवर्तन का सुगम लक्ष्य बनते रहै।

अंग्रेज़ी पिठ्ठुओं का उदय

1857 के ‘स्वतन्त्रता-संग्राम’ के युद्ध की घटनाओं को दोहराने की आवश्यक्ता नहीं जो कि जन साधारण की ओर से ‘इसाईकरण’ का विरोध था। कुछ ऐक को छोड कर अधिकतर राजाओं के ‘व्यक्तिगत कारण’ थे जिन की वजह से उन्हों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाय़ी थी। भारतीयों की आपसी फूट, तालमेल की कमी और अधिकाँश राजघरानों की देश के प्रति गद्दारी के कारण 1857 का जन आन्दोलन संगठित अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विफल हो गया। उस के पश्चात अंगेजी शासक अधिक सावधान हो गये और उन्हों ने अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये नाम मात्र ‘सुधारों’ की आड ले ली।

भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ‘सलतनते इंग्लिशिया’ (महारानी विक्टोरिया) के अधिकार में चला गया। अपने शासन को भारत में स्वीकृत करवाने के लिये अंग्रेजों ने मिथ्या प्रचार किया कि जैसे मध्य ऐशिया से भारत आये आर्यों ने ‘स्थानीय द्राविड लोगों को दास बना कर’ अपना शासन कायम किया था, उसी प्रकार अंग्रेज भी यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे हैं और उन का जीवन ‘सुधार’ रहै हैं। इस मिथ्याप्रचार की सफलता में हिन्दू धर्म ही ऐक मात्र बाधक था जिसे मिटाना अंग्रेजों के लिये जरूरी था।

मैकाले शिक्षा पद्धति 

इस्लामी शासन के समय में हिन्दूओं का पठनपाठन बिखर गया था। मुस्लिम जन साधारण को ज्ञान के अन्दर कोई दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजों ने भारतियों को अपनी सोच विचार के अनुरूप ढालने के लिये नयी शिक्षा प्रणाली लागू की जिस का मूल जनक लार्ड मैकाले था। उस शिक्षा पद्धति का मुख्य उद्देश्य हिन्दूओं में अपने प्राचीन ग्रन्थों और पूर्वजों के प्रति अविशवास जगाना था तथा अंग्रेजी सभ्यता, सोच विचार, रहन सहन के प्रति भारतियों को लुभाना था ताकि जीवन के हर क्षेत्र में वह अपने स्वाभिमान को स्वयं ही त्याग कर अंग्रेजी मानसिक दासता सहर्ष स्वीकार कर लें और उसे आगे फैलायें। उस शिक्षा प्रणाली को ‘धर्म-निर्पेक्ष वैज्ञिानिक सोच’ का नाम दे दिया गया। जो कुछ भारतीय था वह ‘रूढी-वाद’ और दकियानूसी घोषित कर दिया गया। 

काँग्रेस का छलावा

ऐक अन्य अंग्रेज ऐ ओ ह्यूम ने मैकाले पद्धति से पढे भारतियों के लिये ऐक नया अर्ध राजनैतिक संगठन इंडियन नेशनल काँग्रेस के नाम से आरम्भ किया जिस का मुख्य उद्देश्य मामूली पढे लिखे भारतियों को सलतनते इंग्लिशिया के स्थानीय सरकारी तन्त्र का ‘हिस्सा’ बना कर साधारण जन-जीवन से दूर रखना था ताकि वह अपनी राजनैतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति अंग्रेजी खिलौनों से कर के संतुष्ट रहैं। अंग्रेजों के संरक्षण में बने इस राजनैतिक संगठन से उन्हें कोई भय नहीं था और उन का अनुमान सही निकला।

‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर अंग्रेजों ने कुछ औपचारिक ‘सुधार’ भी किये थे जिन का मूल उद्देश्य उपनेष्वादी तन्त्र को मजबूत करना था। लिखित कानून लागू किये गये। स्थानीय रीति रिवाज अंग्रेजी मुनसिफों को समझाने के लिये ब्राह्मण तथा मौलवी सलाहकारों (ऐमिक्स-क्यूरी) की नियुक्ति का प्रावधान न्यायालयों में किया गया था। ब्राह्मणों के पास परिवार चलाने के लिये रीति-रिवाज करवाने की दक्षिणा के अतिरिक्त आमदनी का कोई साधन नहीं रहा था। अतः उन्हों ने अपने स्वार्थ हित में रीतिरिवाजों को अधिक जटिल तथा खर्चीला बना दिया। जन साधारण रीति रिवाजों को आडम्बर और बोझ समझ कर उन से विमुख होने लगे। परिणाम अंग्रेजों के लिये हितकर था। उन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने के और भी बहाने मिलने लगे। ग़रीब लोग हिन्दू धर्म को त्याग कर इसाई बनने लगे। इस्लामी शासन के समय चली हुई बाल विवाह, सती प्रथा, तथा कन्या हत्या (दुख्तर कशी) इत्यादि कुरीतियों को निषेध करवाने हिन्दू समाज सुधारक आगे आये परन्तु अंग्रेजी पद्धति से शिक्षशित लोगों ने उन सुधारों का श्रेय भी अंग्रेजों को ही दिया।

इतिहास से छेड-छाड

भारत का प्रचीन इतिहास तो इस्लामी आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था। पौराणिक प्रयाग का नाम अकबर ने ‘इलाहबाद’ रखवा दिया था, महाभारत का पाँचाल ‘फरुखाबाद’ बन चुका था। ऱाम की अयोध्या नगरी में राम मन्दिर के मल्बे से बाबरी मस्जिद बनवा कर उस का नाम ‘फैजाबाद’ रख दिया गया था। अधिकतर हिन्दू नगरों और पूजा स्थलों को नष्ट कर के उन्हीं के स्थान पर इस्लामी स्मारक बन चुके थे। भारतीय इतिहास का पुनर्वालोकन करने कि लिये लंका, बर्मा, तिब्बत, चीन तथा कुछ अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों से अंग्रजों ने कुछ बचे खुचे ग्रन्थों को आधार बनाया। टूटी कडियों को जोडने के लिये उन्हों ने ‘अंग्रेजी हितों के अनुरूप’ मन घडंत तथ्यों का समावेश भी किया।

वैचारिक दासता

मानसिक आधीनता के कारण हमारी वैचारिक स्वतन्त्रता नष्ट हो चुकी थी। हम ने प्रत्येक तथ्य को अंग्रेजी मापदण्डों के अनुसार परखना शुरु कर दिया था। जो कूछ योरुप वासियों को नहीं पता था या जिस तथ्य का अनुमोदन वह नहीं करते थे वह हमारे ‘देसी बुद्धिजीवियों’ को भी ‘स्वीकृत’ नहीं था चाहे वही तथ्य हमारे सम्मुख अपने स्थूल रूप में विद्यमान खडा हो। लन्दन में ब्रिटिश संग्रहालय ज्ञान का विश्ष्ट मन्दिर बन चुका था जहाँ दुनिया भर से लूटे और चुराये गये पुरात्त्वों को सजा कर रखा जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र में “ग्रेट ब्रिटैन विश्व की इकलौती महा शक्ति बन चुका था। उन्हों ने भारत में भी अपने समर्थक बुद्धिजीवियों की ऐक सशक्त टोली खडी कर ली थी जो उन की राजनैतिक सत्ता और वैचारिक प्रभुत्व को सुदृढ करने में जुट चुकी थी।  

सामाजिक, वेष-भूषा, खान-पान, आमोद-प्रमोद, शिक्षा और विचारधारा के हर क्षेत्र में इस्लामी परम्पराओं की अपेक्षा हिन्दूओं का ब्रिटिश सभ्यता से अधिक प्रभावित होना स्वाभाविक था क्योंकि वास्तव में वह हिन्दू परम्पराओं के मूल रूप का ही ‘विकृत संस्करण’ थीं। सहज में ही अंग्रेजी प्रशासनिक क्रिया पद्धति, शिक्षण-प्रणाली, तथा दैनिक काम-काज में नापतोल, कैलेँडर, समय सारिणी, खेल-कूद, कानूनी परिभाषाये, व्यापारिक रीतिरिवाजों ने स्थानीय परम्पराओं को स्थगित कर के अपनी जगह बना ली। चमक दमक के कारण अंग्रेजी पद्धतियां प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान हो गयी।

यह व्यंगात्मक है कि हिन्दूओं ने यद्यपि अंग्रेजी माध्यम से अपने ही पूर्वजों के लगाये हुये पौधों के फलों पर मोहित होना स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह योरुप की चमकीली पालिश के नीचे छुपे तथ्यों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके जो उन्हीं के अपने ही पूर्वजों के लगाये गये बीज थे। हिन्दू चिन्ह मिट चुकने के कारण अन्तिम उत्पाद पर योरोपियन मुहर लग चुकी थी जिस कारण आज अंग्रेज प्रगति और विज्ञान के जन्मदाता समझे जाते हैं।

हिन्दू गौरव का पुनरोत्थान

हालात सुधरे तो धीरे धीरे सत्यता भी उभरी। उन्नीसवी शताब्दी में कई हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन शुरु हुये  जिन के कारण अन्धेरी सुरंग के पार कुछ रौशनी दिखायी पडने लगी। भारत वासियों ने अधुनिक विश्व को पुनः देखना आरम्भ किया। बीसवीं शताब्दी में भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध तथा दिूतीय विश्व युद्ध में भाग लिया और अपने रक्त से विदेशी शासन को सींचा। उस का सकारात्मिक प्रभाव भारत के हित में था। भारतीय तब तक तत्कालिक शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों से दूर रहे थे। विश्व युद्धों के कारण भारत के जन साधारण ने योरुप तथा अन्य देशों की प्रगति को जब अपनी आँखों से देखा तो उन के अन्दर भी अपने देश को आगे बढाने की भावना पुनः जागृत हुई। उन्हों ने दूसरे देशों के नागरिकों को स्वतन्त्र राष्ट्र के रुप में देखा तो उन की स्वतन्त्र रहने की भावना ने चिंगारी का रूप लिया जिस के फलस्वरूप ही लोगों में स्वतन्त्रता के लिये चेतना की भावना उमड कर तीव्र होती गयी। 

स्वतन्त्रता की चिंगारी

भारतवासियों में सब से पहले ऐ ओ ह्यूम की बनाई काँग्रेस में ही देश की प्रशास्निक व्यवस्था में अधिकार पाने की आकाँक्षा ने जन्म लिया। किन्तु मैकाले पद्धति से प्रशिक्षित उन भारतियों की मांग केवल स्थानीय प्रशासन तक ही सीमित थी जिसे अंग्रेजी सरकार ने कुछ उल्ट फैर के साथ मान लिया। धीरे धीरे काँग्रेस में लोकमान्य तिलक जैसे स्वाभिमानी राष्ट्रवादी नेता भी जुडने लगे और उन्हों ने स्वतन्त्रता को अपना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ जता कर ब्रिटिश सरकार की नीन्द उडा दी। परिणामस्वरूप उन्हें ‘विद्रोही’ बना कर अभियोग चलाये गये और कालेपानी की घोर यातनायें दी गयीं। स्वतन्त्रता की मांग को लेकर चिंगारी तो भडक उठी थी जिस ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जब हिंसक घटनायें होने लगीं तो अंग्रेजों को बातचीत में फुसलाये रखने के लिये अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों की जरूरत आन पडी।

विश्व युद्धों पश्चात पूरे विश्व में उपनेषवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग किसी ना किसी रूप में उठने लग गयी थी। युद्धों में नष्ट हुये साधनो के कारण ब्रिटिश सरकार के लिये उपनेषवादी सरकारों को चलाये रखना कठिन होता जा रहा था। भारत में एक ओर तो उन्हों ने उग्र स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रताडित किया तो दूसरी ओर अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों के साथ बात चीत का ढोंग किया और कुछ गिने चुने गाँधी, नेहरू और जिन्नाह जैसे नेताओं को हिन्दू मुस्लमानो का प्रतिनिधि बना कर भारत का बटवारा करने की योजना बनाई ताकि किसी ना किसी तरह से विक्षिप्त भारत को अपने प्रभाव में रख कर भविष्य में भी परोक्ष रूप से उपनेषवादी लाभ उठाये जा सकें।  

भारत का बटवारा

15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत को हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया और सत्ता ‘ब्रिटिश मान्य’ हिन्दू मुस्लिम प्रतिनिधियों को सौंप दी। मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी जिस के फलस्वरूप भारत के ऐक तिहाई भाग को भारत वासियों से छीन लिया और उन्हें उन के शताब्दियों पुराने रहवासों से खदेड भी दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की ‘इण्डियन नेशनेलिटी रहने के बावजूद वह पाकिस्तान से स्दैव के लिये खदेड दिये गये।

उल्लेखनीय है कि बटवारे से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ नहीं रहना चाहते थे इसलिये पाकिस्तान की मांग के पक्ष में 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान तो किया लेकिन जब घर बार छोडकर अपने मनचाहे देश में जाने का वक्त आया तो सिर्फ 15 प्रतिशत  मुसलमान ही पाकिस्तान गये थे। 85 प्रतिशत मुस्लमानों ने पाकिस्तान मिलने के बाद भी हिन्दुस्तान में आराम से बैठे रहै थे। विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में सदियों से रहते चले आ रहे हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया। वहां लाखों हिन्दुस्तानियों को केवल हिन्दु-सिख होने के कारण अपना घर-सामान सब छोड. कर पाकिस्तान से निकल कर भारत आना पडा परन्तु भारत में पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कर के भी मुसलमान अपने घरों में सुरक्षित बने रहे।

चाँद शर्मा

58 – क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?

हिन्दू धर्म का विग्रह

ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर ‘सुधार’ स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।

बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था – बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।

कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।

ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।

हिन्दू धर्म का मध्यान्ह

सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 

कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।

अति सर्वत्र वर्ज्येत

भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।

विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।

विनाश की ओर

हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन – अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है –  को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

ईस्लामी विनाश की आँधी

इस्लाम की स्थापना कर के जब मुहमम्द ने आपस में स्दैव लडते रहने वाले रक्त पिपासु अनुयाईयों को उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक दुनियाँ को फतेह कर के अल्लाह का पैगाम फैला देने का आदेश दिया तो जहाँ कहीं भी सभ्य मानव समुदाय अपने अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहै थे वहाँ मुजाहिदों ने जिहाद आरम्भ कर दिया। शान्ति से जीवन काटते लोगों को जिहादियों की क्रूरता और बरबर्ता का अनुमान ही नहीं था। आन की आन में ही वहशियों ने उन्हें तथा उन की सभ्यताओं को तहस नहस कर के रख दिया।

मुहमम्द ने अपने आप को खुदा का इकलौता रसूल (प्रतिनिधि) घोषित किया था तथा अपने बन्दों को हुक्म दे रखा था कि उस के बताये उसूलों को तर्क की कसौटी पर मत परखें। केवल मुहमम्द पर इमान लाने के बदले में सभी को मुस्लिम समाज में मुस्सावियत (बराबरी) का हक़ दिया जाता था जिस के बाद उन क परम कर्तव्य था कि वह इस्लाम के ना मानने वालों को अल्लाह के नाम से कत्ल कर डालें। इस्लाम की विचारधारा में ‘जियो और जीने दो’ के बजाय ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ का ही प्रवधान था। अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने अपनी निजि पकड अरबवासियों पर कायम रखने के लिये उन्हें आदेश दिये किः-

              तुम अल्लाह और उस के भेजे गये रसूल (मुहम्मद), और कुरान पर यकीन करो। जो भी व्यक्ति अल्लाह, अल्लाह के फरिशतों, अल्लाह की किताब (कुरान),  अल्लाह के (मुहम्मद के जरिये दिये गये) आदेशों और अक़ाबत पर यकीन ना करे वह मुनक्कर (भटका हुआ) है। (4.136)

मुहम्माद ने अल्लाह के नाम पर अपने समर्थकों को काफिरों के वास्ते आदेश दियेः-

  • (याद रखो जब) अल्लाह ने अपना ‘आदेश’ फरिशतों से कहा-“ बेशक मैं तुम विशवस्नीयों के साथ हूँ, मैं काफिरों के दिल में खौफ पैदा करूँगा, और तुम उन की गर्दन के ऊपर, उंगलियों के छौरों और पैरों के अंगूठों पर सख्ती से वार करना।”(8.12)
  • उन के (काफिरों के) खिलाफ जितनी ताकत जुटा सको वह ताकतवर घोडों के समेत जुटाओ ताकि अल्लाह और तुम्हारे दुशमनों और उन के साथियों (जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है) के दिल में खौफ पैदा हो। तुम अल्लाह के लिये जो कुछ भी करो गे उस की भरपाई अल्लाह तुम्हें करे गा और तुम्हारे साथ अन्याय नहीं हो गा।(8.60)

अपने साथियों का मनोबल बढाने के लिये मुहम्मद ने उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन जन्नत में वादा कियेः-

  • अल्लाह तमाम मुस्लमानों को जन्नत में स्थान देगा जो कि खास उन्हीं के लिये बनाय़ी गयी है। (47.6)
  • काफिरों के लिये जहन्नुम की आग में जलना और यातनायें सहना ही है। (47.8)
  • ऐ रसूल (मुहम्मद)! मुस्लमानों को जंग के लिये तौय्यार करो। अगर तुम्हारी संख्या बीस है तो वह दो सौ काफिरों पर फतेह पाये गी और अगर ऐक सौ है तो ऐक हजार काफिरों पर फतेह पाये गी क्यों कि काफिरों को कुछ समझ नहीं होती। (8.65)

इस्लाम में काफिरों के साथ हर प्रकार के विवाहित सम्बन्ध वर्जित थे। मुहम्मद ने मृत्यु से कुछ महीने पहले अपना अंतिम फरमान स प्रकार दियाः-

मेरे बाद कोई रसूल, संदेशवाहक, और कोई नया मजहब नहीं होगा।… मैं तुम्हेरे पास खुदा की किताब (कुरान) और निजि सुन्ना (निजि जीवन चरित्र) अपनाते रहने के लिये छोड कर जा रहा हूँ। 

अतः मुहम्मद ने इस प्रकार का मजहबी आदेश और मानसिक्ता दे कर मुस्लमानो को दुनियाँ में जिहाद के जरिये इस्लाम फैलाने का फरमान दिया जो प्रत्येक मुस्लिम के लिये किसी भी गैर मुस्लिम को कत्ल करना उन के धर्मानुसार न्यायोचित मानता है। यदि कोई मुस्लिम काबा की जियारत (तीर्थयात्रा) करे तो वह ‘हाजी’ कहलाता है, लेकिन हाजी कहलाने से भी अधिक ‘पुण्य-कर्म’ हे किसी काफिर का गला काटना जिस के फलस्वरूप वह ‘गाजी’ कहला कर जन्नत में जगह पाये गा जहाँ प्रत्येक मुस्लमान के लिये 72 ‘हूरें’ (सुन्दरियाँ) उस की सभी वासनाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये हरदम तैनात रहैं गी।

सभ्यताओं का विनाश

इस मानसिक्ता और जोश के कारण इस्लाम नें लगभग आधे विश्व को तलवार के ज़ोर से फतेह कर

ऐक ऐक कर के अनेकों सभ्यतायें, जातियाँ और देश इस्लामी जिहादियों की तलवार की भैन्ट चढ गये। जिहादी वास्तव में सभ्यता से कोसों दूर केवल भेडों और ऊँटों को पालने का काम करते रहे थे। कोई भी देश उस प्रकार की तत्कालिक हिंसात्मक विनाश का सामना नहीं कर पाया जो असभ्य खूनियों ने विस्तरित संख्या में फैला दी थी। इस्लाम  के फतेह किये गये इलाकों में रक्तपात तभी रुका जब स्थानीय लोग या तो ईस्लामी धर्म में परिवर्तित हो गये या फिर कत्ल कर डाले गये। इस्लाम के जिहादियों ने स्थानीय लोगों को कत्ल तो किया ही, उन के पूजा स्थल भी ध्वस्त कर दिया और उन के धार्मिक ग्रन्थों तथा साहित्य को जला डाला, उन की परम्पराओं पर प्रतिबन्ध लगाये ताकि स्थानीय लोगों की पहचान का कोई भी चिन्ह बाकी ना रहै। बचे खुचे लोग या तो दुर्गम स्थलों पर जा कर रहने लगे, या इस्लाम में परिवर्तित हो कर मुसलमानों के गुलाम बना दिये गये। 

ऐशिया तथा योरूप के देशों ने मृत्यु के सामने साधारणत्या इस्लाम कबूल कर लिया किन्तु भारत में वातावरण वैसा नहीं था। भारत में मुहमम्द के जन्म से सदियों पहले ही सभ्यता का अंकुर फूट कर अब ऐक विशाल वृक्ष का रुप ले चुका था। हिन्दूओं ने इस्लाम को नहीं स्वीकारा और इस लिये भारत में इस्लाम का कडा विरोध निश्चित ही था। भारतवासियों के लिये वह प्रश्न गौरव के साथ जीने और गौरव के साथ ही मरने से जुडा था। भारत में भी गाँव और नगर आग से फूंक डाले गये, जनता का कत्ले आम किया गया फिर भी हिन्दू स्दैव इस्लाम की विरोध करते रहै।

चाँद शर्मा

57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

51 – अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण


आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे  ‘बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख 

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी  के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन  के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। 

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक –स्टोन्सकी संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी। 

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है। 

महाभारत के आलेख

इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट  था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर  के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…” 

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स  को हीटसीकिंग और साऊडसीकरस  कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी

प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख भी किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तरित उल्लेख है। इसी प्रकार ऐक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अशविन वैज्ञानिक के साथ युद्ध का वर्णन है जिस से भारत के तत्कालित अन्तरीक्ष ज्ञान तथा एन्टी  –ग्रेविटी  तकनीक के बारे में जागृति का आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जब कि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था। रामायण में हनुमान की उडान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है

       “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।।    (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि…  तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।।(64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महा कपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)…  तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनि निष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)

       “जिस समय वह कूदे, उस समय उन के वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्ष  उखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश  में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब  गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मत से दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए  साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”  

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता है कि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं  कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चात इस का पाठक यह अर्थ निकालें कि ओबामा  वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के  अज्ञान को आप क्या कहैं गे ?

राजस्थान से भी

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव  राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?

भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन में से कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफ ओ (अन आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है कि सभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन  के थ्रिल्लर – राईटर  नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार 

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है। उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञान होना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है। 

कंसेप्ट का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट  को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स  का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे। यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखक का तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है। 

बज़बम

पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्ष पश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।

जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्व प्रथम बज़ बमों के लिये पल्स –जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह ऐक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी। 

तिलिसम नहीं यथार्थ

ऐक वर्ष पूर्व 2009 तक पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर ऐक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये ऐक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया।

इस के कुछ समय पश्चात ऐक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन  से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।

सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।

हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम

आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखते हैं जिसे आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गया है वह भी हो सकता है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

जो विदेशी पर्यटक भारत आ कर चरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं। 

य़ह आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं। 

चाँद शर्मा

49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

48 – भारत की सैनिक परम्परायें


सर्वत्र, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान – यह तीनों ईश्वर की विश्षतायें हैं। ईश्वर दयालु, करुणा-निधान. संवेदनशील तथा वत्सल होने के साथ साथ रौद्र रूप में ‘संहारक’ भी है। ईश्वरीय छवि के सभी गुण हिन्दू चित्रावली तथा आलेखों में स्दैव दिखते हैं।

अस्त्र शस्त्रों का महत्व

साधारणत्या ईश्वर के ऐक हाथ में ‘कृपा’ के प्रतीक पुष्प दर्शाये जाते हैं, दूसरा हाथ ‘ शुभ-आशीष’ देने की मुद्रा में होता है, तीसरे हाथ में दुष्कर्मिओं को ‘चैतावनी’ देने के लिये शंख होता है, तथा चौथे हाथ में दुष्ट का ‘संहार’ करने के लिये शस्त्र भी होता है। ईश्वर को स्दैव क्रोध-रहित, प्रसन्न-मुद्रा में युद्ध करते समय भी शान्त-भाव में ही चित्रित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं के पास वरदान देने की क्षमता के साथ धर्म की रक्षा के लिये शस्त्र अवश्य होते हैं।

हिन्दू धर्म में केवल पिटते रहने की भावना को प्रोत्साहित नहीं किया जाता और कायरता को सब से बडा अभिशाप माना जाता है। “अहिंसा परमो धर्मः” के साथ – “धर्म हिंसा त्थैवः चः” का पाठ भी पढाया जाता है जिस का अर्थ है अहिंसा उत्तम धर्म है परन्तु धर्म रक्षार्थ की गयी हिंसा भी उतनी ही श्रेष्ठ है। युद्ध भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम है और कायरता का जीवन नारकीय अधोगति समझा जाता है। स्वयं-रक्षा, शरणागत-रक्षा और धर्म-रक्षा समस्त मानवों के लिये सर्वोच्च कर्तव्य तथा मोक्ष के मार्ग हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनो का उद्देश्य धर्म रक्षा है। हिन्दू समाज में अस्त्र शस्त्रों की पूजा अर्चना का विधान है। शस्त्रों का ज्ञान साधना तथा उपासना के माध्यम से ही गुरुजनों से प्राप्त होता है।

आत्म-रक्षा का अधिकार

प्रकृति नें सभी जीवों का अपनी आत्म-रक्षा के लिये सींग, दाँत, नख, डंक तथा शारीरिक बल आदि के साधन दिये हैं। आत्म-रक्षा के लिये ही प्रकृति ने जीवों को तेज भागने, छिपने तथा गिरगिट आदि की तरह अपना रंग बदल कर अदर्ष्य होने की कला भी सिखाई है। गाय और गिलहरी से ले कर सभी जीव अपने बचाव के लिये उपलब्द्ध साधनों और विकल्पों का उपयोग करते हैं जिस के लिये उन्हें चेतना तथा प्रेरणा अकस्माक दैविक शक्ति से ही प्राप्त होती है। वह अपनी रक्षा के लिये कोई लम्बी चौडी योजनायें नहीं बनाते। उन की सभी क्रियायें तत्कालिक होती हैं। उन के लिये जीव हत्या कर देना कोई अधर्म भी नहीं है।

‘जियो तथा जीने दो’ धर्म का सिद्धान्त मुख्यता मानवों के लिये है अतः युद्ध के लिये पूर्व अभ्यास, तैय्यारी करना इत्यादि धर्म की व्याख्या में आता है। धर्म-रक्षा और धर्म संस्थापना के लिये ईश्वर नें स्वयं कई बार शास्त्र धारण कर के कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं तथा अवश्यक्तानुसार पुनः पुनः वैसा ही करने की संकल्प भी दोहराया है। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक धर्म परायण व्यक्ति को धर्म-रक्षा के लिये हिंसक युद्ध मार्ग की पूर्ण स्वीकृति प्रदान करता है ताकि वह निस्संकोच अधर्म का विनाश कर सके।

रण भूमि का वातावरण

प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों के मतानुसार धर्म-रक्षा हेतु युद्ध भी धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप ही होना चाहिये। अतः ग्रन्थों में धर्म-युद्ध के विषय में विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में सैनिक गति-विधियों, सैनिक व्यूहों, सैनिक संगठनों तथा सैनापतियों के उत्तरदाईत्वों और अधिकारों का ब्योरा दिया गया है। सैनापतियों के पद नगर-संरक्षक, दु्र्गाधिपति, दुर्ग-अभियन्ता, रथी, महारथी, तथा उच्च सैनापति आदि होते थे।

ग्रन्थों के अनुसार दुर्ग तथा व्यूह रचनायें आवश्यक्तानुसार होती थीं। कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन भी किया गया है। तोप को ‘शतघनी’ कहा जाता था तथा यह शस्त्र अग्नि अस्त्रों की श्रेणी में आता था। इस अस्त्र से ऐक ही बार में सौ से अधिक शत्रुओं का संहार किया जा सकता था। अग्नि अस्त्रों के अतिरिक्त रसायनास्त्र तथा कीटास्त्र (केमीकल तथा बायोलोजिकल वार हैडस) का प्रयोग भी किया जाता था। युद्ध थल, जल तथा नभ सभी तलों पर लडे जाते थे। आलोचकों की तुष्टि के लिये यदि उन उल्लेखों को हम केवल अतिश्योक्ति भी माने, तो भी उस काल के युद्धों के सिद्धान्त आज भी मान्य हैं। सैनिक चलन की गतिविधियाँ तथा परस्पारिक क्रियायें वर्तमान काल के युद्ध के चित्रण के अनुरूप ही हैं।

अन्य महाकाव्यों की तुलना में भारतीय युद्ध भूमि के उल्लेख किसी ऐक युद्ध भूमि के वृतान्त तक ही सीमित नहीं थे। ग्रीक भाषा के महाकाव्य ओडैसी में वर्णित किया गया है, कि किसी ने सैनिकों को ऐक विशाल घोडे के आकार में छिपा कर इलुम दुर्ग में प्रवेश करवा कर किला जीत लिया था। इस की तुलना में रामायण तथा महाभारत के युद्ध ‘महायुद्धों’ की तरह लडे गये थे और युद्ध में सैनायें कई युद्ध स्थलों (वार थ्यिटरों) पर अलग अलग सैनापतियों के निर्देशानुसार ऐक ही समय पर लडतीं थी, परन्तु विकेन्द्रीयकरण होते हुये भी केन्द्रीय नियन्त्रण सर्वोच्च सैनापति के आधीन ही रहता था।

युद्ध के प्राचीन मौलिक सिद्धान्त वर्तमान युग में भी युद्ध क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जैसे कि सैनिकों तथा अस्त्र शस्त्रों की संख्या, अक्रामिक क्षमता, युद्ध संचालन नीति, सैना नायकों का व्यक्तित्व, वीरता, अनुभव तथा सक्रियता, भेद नीति, साहस एवम मनोबल आदि। सैनिक गतिविधियाँ जैसे कि शत्रु से भेद छिपाना, अथवा शत्रु का मनोबल तोडने के लिये कोई भ्रामिक प्रचार जान बूझ कर फैला देना, रात्रि युद्ध, तथा आत्मदाही दस्तों का प्रयोग आदि भी भारतीय युद्ध दक्षता के प्रमाण स्वरूप इतिहास के पन्नों पर उल्लेखित हैं। यह वर्णन किसी युद्ध संवादी या उपन्यासकार के नहीं बल्कि ऋषियों के संकलन हैं जो सत्यता पर स्दैव अडिग रहते थे।

ध्वजों का प्रयोग

युद्ध में ध्वजों का प्रयोग भी ग्रन्थों में वर्णित है। ऋगवेद संहिता के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी ध्वज प्रयोग का उल्लेख है। इन के आकारनुसार कई नाम थे जैसे कि अक्रः. कृतध्वजः, केतु, बृहतकेतु, सहस्त्रकेतु आदि। ध्वज तथा नगाडे (वार-ड्रम्स), दुन्दभि आदि सैन्य गरिमा के चिन्ह माने जाते थे। महाभारत युद्ध के समय प्रत्येक रथी और महारथी का निजि ध्वज और शंखनाद सैना नायक की पहचान के प्रतीक थे।

अस्त्र शस्त्रों का निर्माण

अस्त्रों के क्षेत्र में राकेट (मिसाइल) का अविष्कार भी भारतीय है। योरुपीय सैनिक जब सर्व प्रथम भारत में आये तो उन्हों ने भारतीयों के पास राकेट होने को स्वीकारा है। सिकंदर महान ने यूनान में बैठे अपने गुरु अरस्तु को पत्र में सूचित किया था कि भारत के ‘सीमावर्ती क्षेत्र के स्थानीय सैनिकों’ ने यूनानी सैना पर भयानक आग के गोलों से वर्षा की थी। यह पाश्चात्य इतिहासकारों का ही स्वीकृत प्रमाण है कि विश्व विजेता सिकन्दर तथा उस की सैना मगघ देश की सैनिक क्षमता से इतनी भयभीत हो चुकी थी कि सैनिकों ने सिकन्दर को बिना युद्ध किये भारत भूमि से यूनान लौटने के लिये विवश होना पडा था।

ऐक अन्य प्राचीन ग्रंथ ‘शुक्रनीति’ में राईफल तथा तोप की तरह के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण की विधि को उल्लेख करती है। भारतीयों को गोला बारूद (गन पाउडर) की जानकारी भी थी। इतिहासकार इलियट के कथनानुसार अरब वासियों ने गन पाउडर का प्रयोग भारतीयों से सीखा था और उस से पहले वह नेप्था में बुझे तीरों का ही प्रयोग करते थे।

युद्ध के नियम

यह हिन्दुओं के लिये गर्व की बात है कि उन की युद्ध परम्पराओं में निहत्थे, घायल, आश्रित, तथा युद्ध से विरक्त शत्रु पर प्रहार नहीं किया जाता था। प्राचीन काल में युद्ध वीरता पुर्वक लडे जाते थे। अन्य देशों की तुलना में भारतीय युद्धों में कम से कम शक्ति, हिंसा तथा क्रूरता का प्रयोग किया जाता था। ‘कत्लेआम’ की तरह प्राजित शत्रु सैनिकों का नरसंहार करने की परम्परा नहीं थी। बालकों तथा स्त्रीयों का वध या उन्हें गुलाम बनाने की प्रथा भी नहीं थी। शत्रु के बुद्धिजीवियों का अपमानित नहीं किया जाता था। रथी केवल रथियों से, घुड-सवार केवल घुडसवारों से युद्ध करते थे। सैनानायक पैदल सैनिकों पर वार नहीं करते थे। स्त्रियों, धर्माचार्यों, अनुचरों, चिकित्सकों तथा साधारण नागरिकों को आघात नहीं पहुँचाया जाता था। चिकित्साल्यों, विद्यालयों तथा रहवासी क्षेत्रों और रात्रि के समय युद्ध वर्ज्य था।

यही भारतीय सिद्धान्त वर्तमानयुग में ‘जिनेवा कनवेन्शन की आधार शिला हैं जिन की दुहाई तो दी जाती है परन्तु उन का उल्लंघन आज भी अधिकाँश देशों की सैनाये करती रहती हैं। भारतीयों ने अपने आदर्शवाद की भारी कीमत चुका कर भी नियमों का आदर्श तो निभाया जिस का विदेशी आक्रान्ताओं ने मक्कारी से हथियार के रुप में भारतीयों के विरुद्ध हमैशा प्रयोग किया।

नौका निर्माण तथा तटीय सुरक्षा

भारत उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत श्रंखला के कारण अन्य देशों से कटा हुआ है तथा पूर्व और दक्षिण की ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। इस कारण विश्व के अन्य देशों के साथ सम्पर्क रखने के लिये नौकाओं का विकास और प्रयोग भारत के लिये अनिवार्यता रही है। ग्रन्थों में ‘वरुण’ को सागर देवता माना गया है। देव तथा दानव दोनो कश्यप ऋषि तथा उन की पत्नियों दिति और अदिति की संतानें थीं। आज कल भी जब किसी नोका या जहाज को सागर में उतारा जाता है तो ‘अदिति’ को प्रार्थना समर्पित की जाती है।

ऋग वेद में नौका दूारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख हैं तथा ऐक सौ नाविकों दूारा बडे जहाज को खेने का उल्लेख है। ‘पल्लव’ का उल्लेख भी है जो तूफान के समय भी जहाज को सीधा और स्थिर रखने में सहायक होते थे। पल्लव को आधुनिक स्टेबिलाइजरों का अग्रज कहा जा सकता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तरित तथा आरामदायक भी थीं।

ऋगवेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ साथ भारत के दोनो महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज खाडी बंगाल तथा अरब सागर कहा जाता है। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। संस्कृत ग्रंथ ‘युक्तिकल्पत्रु’ में नौका निर्माण का ज्ञान है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रंथ में नौका निर्माण की विस्तरित जानकारी है जैसे किस प्रकार की लकडी का प्रयोग किया जाये, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो। उस को किस प्रकार सजाया जाये ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पत्रु में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियाँ भी निर्धारित की गयीं हैं।

नौ सैना का विकास

भारत में नौका यातायात का प्रारम्भ सिन्धु नदी में लग भग 6000 वर्ष पूर्व हुआ। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उदग्म संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। ऋगवेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इस के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्त्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोडों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।

विश्व का प्रथम ज्वार स्थल ईसा से 2300 वर्ष पूर्व हडप्पा सभ्यता के समकालीन लोथल में निर्मित हुआ था। यह स्थान आधुनिक गुजरात तट पर स्थित मंगरोल बन्दरगाह के निकट है। ऋगवेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं।

आर्य भट्ट तथा वराह मिहिर नें नक्षत्रों की पहचान कर सागर यात्रा के मान चित्रों का निर्माण की कला भी दर्शायी है। इस के लिये ऐक ‘मत्स्य यन्त्र’ का प्रयोग किया जाता था जो आधुनिक मैगनेटिक कम्पास का अग्रज है। इस यन्त्र में लोहे की ऐक मछली तेल जैसे द्रव्य पर तैरती रहती थी और वह स्दैव उत्तर दिशा की तरफ मुहँ रखती थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य़ ने अपने नौका सैनानायक के आधीन ऐक नवसैना स्थापित की थी जिस का उत्तरदाईत्व तटीय सुरक्षा के साथ साथ झीलों और जल यातायात को सुरक्षा पहुँचाना था। भारतीय जलयान काम्बोज (कमबोडिया), यवदूीप (जावा), सुमात्रा, तथा चम्पा में भारतीय उपनिवेषों के साथ साथ हिन्दचीनी (इन्डोनेशिया) फिल्पाईन, जापान, चीन, अरब तथा मिस्त्र के जलमार्गों पर भारतीय व्यापारिक वाहनों को सुरक्षा प्रदान करना था। क्विलों से चल कर भारतीय नाविकों ने दक्षिणी चीन और अफ्रीका के सम्पूर्ण समुद्री तट का भ्रमण किया हुआ था। उन्हों ने अफरीका से ले कर मेडागास्कर तक की सभी बन्दरगाहों से सम्पर्क स्थापित किया था। प्रचीन काल से मध्यकाल तक भारत को ऐक सैनिक महाशक्ति माना जाता था।

चाँद शर्मा

47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

टैग का बादल