हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘प्रशासन’

58 – क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?

हिन्दू धर्म का विग्रह

ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर ‘सुधार’ स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।

बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था – बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।

कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।

ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।

हिन्दू धर्म का मध्यान्ह

सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 

कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।

अति सर्वत्र वर्ज्येत

भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।

विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।

विनाश की ओर

हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन – अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है –  को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

ईस्लामी विनाश की आँधी

इस्लाम की स्थापना कर के जब मुहमम्द ने आपस में स्दैव लडते रहने वाले रक्त पिपासु अनुयाईयों को उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक दुनियाँ को फतेह कर के अल्लाह का पैगाम फैला देने का आदेश दिया तो जहाँ कहीं भी सभ्य मानव समुदाय अपने अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहै थे वहाँ मुजाहिदों ने जिहाद आरम्भ कर दिया। शान्ति से जीवन काटते लोगों को जिहादियों की क्रूरता और बरबर्ता का अनुमान ही नहीं था। आन की आन में ही वहशियों ने उन्हें तथा उन की सभ्यताओं को तहस नहस कर के रख दिया।

मुहमम्द ने अपने आप को खुदा का इकलौता रसूल (प्रतिनिधि) घोषित किया था तथा अपने बन्दों को हुक्म दे रखा था कि उस के बताये उसूलों को तर्क की कसौटी पर मत परखें। केवल मुहमम्द पर इमान लाने के बदले में सभी को मुस्लिम समाज में मुस्सावियत (बराबरी) का हक़ दिया जाता था जिस के बाद उन क परम कर्तव्य था कि वह इस्लाम के ना मानने वालों को अल्लाह के नाम से कत्ल कर डालें। इस्लाम की विचारधारा में ‘जियो और जीने दो’ के बजाय ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ का ही प्रवधान था। अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने अपनी निजि पकड अरबवासियों पर कायम रखने के लिये उन्हें आदेश दिये किः-

              तुम अल्लाह और उस के भेजे गये रसूल (मुहम्मद), और कुरान पर यकीन करो। जो भी व्यक्ति अल्लाह, अल्लाह के फरिशतों, अल्लाह की किताब (कुरान),  अल्लाह के (मुहम्मद के जरिये दिये गये) आदेशों और अक़ाबत पर यकीन ना करे वह मुनक्कर (भटका हुआ) है। (4.136)

मुहम्माद ने अल्लाह के नाम पर अपने समर्थकों को काफिरों के वास्ते आदेश दियेः-

  • (याद रखो जब) अल्लाह ने अपना ‘आदेश’ फरिशतों से कहा-“ बेशक मैं तुम विशवस्नीयों के साथ हूँ, मैं काफिरों के दिल में खौफ पैदा करूँगा, और तुम उन की गर्दन के ऊपर, उंगलियों के छौरों और पैरों के अंगूठों पर सख्ती से वार करना।”(8.12)
  • उन के (काफिरों के) खिलाफ जितनी ताकत जुटा सको वह ताकतवर घोडों के समेत जुटाओ ताकि अल्लाह और तुम्हारे दुशमनों और उन के साथियों (जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है) के दिल में खौफ पैदा हो। तुम अल्लाह के लिये जो कुछ भी करो गे उस की भरपाई अल्लाह तुम्हें करे गा और तुम्हारे साथ अन्याय नहीं हो गा।(8.60)

अपने साथियों का मनोबल बढाने के लिये मुहम्मद ने उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन जन्नत में वादा कियेः-

  • अल्लाह तमाम मुस्लमानों को जन्नत में स्थान देगा जो कि खास उन्हीं के लिये बनाय़ी गयी है। (47.6)
  • काफिरों के लिये जहन्नुम की आग में जलना और यातनायें सहना ही है। (47.8)
  • ऐ रसूल (मुहम्मद)! मुस्लमानों को जंग के लिये तौय्यार करो। अगर तुम्हारी संख्या बीस है तो वह दो सौ काफिरों पर फतेह पाये गी और अगर ऐक सौ है तो ऐक हजार काफिरों पर फतेह पाये गी क्यों कि काफिरों को कुछ समझ नहीं होती। (8.65)

इस्लाम में काफिरों के साथ हर प्रकार के विवाहित सम्बन्ध वर्जित थे। मुहम्मद ने मृत्यु से कुछ महीने पहले अपना अंतिम फरमान स प्रकार दियाः-

मेरे बाद कोई रसूल, संदेशवाहक, और कोई नया मजहब नहीं होगा।… मैं तुम्हेरे पास खुदा की किताब (कुरान) और निजि सुन्ना (निजि जीवन चरित्र) अपनाते रहने के लिये छोड कर जा रहा हूँ। 

अतः मुहम्मद ने इस प्रकार का मजहबी आदेश और मानसिक्ता दे कर मुस्लमानो को दुनियाँ में जिहाद के जरिये इस्लाम फैलाने का फरमान दिया जो प्रत्येक मुस्लिम के लिये किसी भी गैर मुस्लिम को कत्ल करना उन के धर्मानुसार न्यायोचित मानता है। यदि कोई मुस्लिम काबा की जियारत (तीर्थयात्रा) करे तो वह ‘हाजी’ कहलाता है, लेकिन हाजी कहलाने से भी अधिक ‘पुण्य-कर्म’ हे किसी काफिर का गला काटना जिस के फलस्वरूप वह ‘गाजी’ कहला कर जन्नत में जगह पाये गा जहाँ प्रत्येक मुस्लमान के लिये 72 ‘हूरें’ (सुन्दरियाँ) उस की सभी वासनाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये हरदम तैनात रहैं गी।

सभ्यताओं का विनाश

इस मानसिक्ता और जोश के कारण इस्लाम नें लगभग आधे विश्व को तलवार के ज़ोर से फतेह कर

ऐक ऐक कर के अनेकों सभ्यतायें, जातियाँ और देश इस्लामी जिहादियों की तलवार की भैन्ट चढ गये। जिहादी वास्तव में सभ्यता से कोसों दूर केवल भेडों और ऊँटों को पालने का काम करते रहे थे। कोई भी देश उस प्रकार की तत्कालिक हिंसात्मक विनाश का सामना नहीं कर पाया जो असभ्य खूनियों ने विस्तरित संख्या में फैला दी थी। इस्लाम  के फतेह किये गये इलाकों में रक्तपात तभी रुका जब स्थानीय लोग या तो ईस्लामी धर्म में परिवर्तित हो गये या फिर कत्ल कर डाले गये। इस्लाम के जिहादियों ने स्थानीय लोगों को कत्ल तो किया ही, उन के पूजा स्थल भी ध्वस्त कर दिया और उन के धार्मिक ग्रन्थों तथा साहित्य को जला डाला, उन की परम्पराओं पर प्रतिबन्ध लगाये ताकि स्थानीय लोगों की पहचान का कोई भी चिन्ह बाकी ना रहै। बचे खुचे लोग या तो दुर्गम स्थलों पर जा कर रहने लगे, या इस्लाम में परिवर्तित हो कर मुसलमानों के गुलाम बना दिये गये। 

ऐशिया तथा योरूप के देशों ने मृत्यु के सामने साधारणत्या इस्लाम कबूल कर लिया किन्तु भारत में वातावरण वैसा नहीं था। भारत में मुहमम्द के जन्म से सदियों पहले ही सभ्यता का अंकुर फूट कर अब ऐक विशाल वृक्ष का रुप ले चुका था। हिन्दूओं ने इस्लाम को नहीं स्वीकारा और इस लिये भारत में इस्लाम का कडा विरोध निश्चित ही था। भारतवासियों के लिये वह प्रश्न गौरव के साथ जीने और गौरव के साथ ही मरने से जुडा था। भारत में भी गाँव और नगर आग से फूंक डाले गये, जनता का कत्ले आम किया गया फिर भी हिन्दू स्दैव इस्लाम की विरोध करते रहै।

चाँद शर्मा

26 – हमारी सामाजिक परम्परायें


किसी भी देश या समाज के कानून वहाँ के सामाजिक विकास, सभ्यता, तथा नैतिक्ता मूल्यों के दर्पण होते हैं। जहाँ कोई नियम-कानून नहीं होते वहाँ ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के आधार पर जंगल-राज होता है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व समस्त योरूप में जंगल-राज ही था मगर जो लोग यह समझते हैं कि भारत में शिष्टाचार के औपचारिक नियम योरुप वासियों की देन है वह केवल अपनी अज्ञानता का ही प्रदर्शन करते हैं क्यों कि सभ्यता और शिष्टाचार का आरम्भ तो भारत से ही हुआ था। हिन्दू समाज की सामाजिक परम्परायें मानव समाज के और स्थानीय पर्यावरण के सभी अंगों को एक सूत्र में रखने के अभिप्राय से विकसित हुई हैं ताकि ‘जियो और जीने दो ’ के आदर्श को साकार किया जा सकें।

समाज शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ मनुसमृति में सभी नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यवसायिक विषयों पर विस्तरित आलेख हैं। मनुस्मृति के पश्चात अन्य स्मृतियां भी समय समय पर सामाजिक व्यवस्था में प्रभावशाली रहीं परन्तु मुख्यतः मूल मनुस्मृति ही सर्वोपरि रही। समय समय पर उन प्रावधानों पर पुनर्विचार और संशोधन भी होते रहे हैं तथा अधिकाँश प्रावधान आज भी सभी मानवी समाजों में वैद्य हैं। केवल उदाहरण के लिये यहाँ कुछ सीमित सी बातों का उल्लेख किया गया है।

सार्वजनिक स्वच्छता  

भोजन तथा स्वास्थ सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये मनुस्मृति में लिखा है कि आदर की दृष्टी से किया भोजन बल और तेज का देता है, और अनादर की दृष्टी से किया गया भोजन दोनों का नाश कर देता है। किसी को जूठा ना दे और ना किसी का जूठा स्वयं ही खावें। अधिक भोजन न करे और ना ही बिना भोजन कर कहीं यात्रा करे। परोसे गये भोजन की कभी आलोचना नहीं करनी चाहिये। प्रत्येक भोजन के पश्चात दाँत तथा मुख को अच्छी तरह से स्वच्छ करना चाहिये। यह सभी नियम आज भी सर्वमान्य हैं जैसे तब थे। 

किसी को भी नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिये। जल के स्त्रोत्र में, जुते हुये खेत में, राख के ढेर पर, किसी मन्दिर य़ा अन्य सार्वजनिक स्थल पर मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिये। राख को इस लिये शामिल किया गया है क्यों कि यह सभी पदार्थों को शुद्ध करने का सक्ष्म साधन है। नियमों के उल्लंघन के कारण प्रदूषण सब से बडी समस्या बन चुका है।

भारतीय शिष्टाचार  

सम्बोधन – आजकल अन्य समाजों में माता पिता के अतिरिक्त सभी पुरुषों को ‘अंकल’ और स्त्रियों को आँटी ’ कह कर ही सम्बोधित किया जाता है जो ध्यानाकर्षण करने के लिये केवल औपचारिक सम्बोधन मात्र ही होता है। इस की तुलना में भारतीय समाज में सभी सम्बन्धों को कोई ना कोई विशिष्ट नाम दिया गया है ताकि ऐक दूसरे के सम्बन्धों की घनिष्टता को पहचाना जा सके। कानूनी सम्बन्धों का परिवारों में प्रयोग नहीं होता। किसी को ‘फादर इन ला, मदर इन ला, सन इन ला, या ‘डाटर इन ला कह कर नहीं पुकारा जाता। हिन्दू समाज में सभी मानवी सम्बन्धों को आदर पूर्वक सार्थक किया गया है। सभी सम्बन्ध प्राकृतिक सम्बन्धों से आगे विकसित होते हैं और वह कानून का सहारा नहीं लेते।

आयु का सम्मान – सम्बन्धों में आयु का विशेष महत्व है। अपने अग्रजों को स्दैव उन के सम्बन्ध की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है उन के नाम से नहीं। वरिष्ठ आयु में कनिष्ठों को स्दैव प्रिय शब्द और आशीर्वाद ही प्रदान कर के सम्बोधित करते हैं। यह केवल अग्रजों का विशेष अधिकार है कि वह कनिष्ठों को उन के नाम से पुकारें। आजकल टी वी चैनलों पर बेटे-बेटी की आयु वाले पाश्चातय संस्कृति में ढले एंकर अपने दादा-दादी की आयु वालों को नाम से सम्बोधित कर के अपना संस्कारी दिवालियापन ही परस्तुत करते हैं और इस बेशर्मी को ‘प्रगतिशीलता’ मान बैठे हैं। उन्हें ज्ञात ही नहीं कि उन के पूर्वज मनु नें सभ्य शिष्टाचार की मर्यादायें ईसा के जन्म से कई शताब्दियाँ पूर्व स्थापित कीं थीं। 

प्रत्यभिवादन – प्रत्येक अग्रज तथा कनिष्ठ को अभिवादन का यथेष्ट उत्तर अवश्य देना चाहिये। भारत की यह प्रथा आज सभी देशों के सैनिक नियमों में भी शामिल है।     

          यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

                 नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ।। (मनु स्मृति 2- 125-126)

       जो विप्र अभिवादन करने का प्रत्यभिवादन करना नहीं जानता हो पण्डितों को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिये। जैसे शूद्र है वैसा ही वह भी है।

गुरू-शिष्य परम्परा – यदि अग्रज अपने स्थान पर ना हों तो उन के आसन पर नहीं बैठना चाहिये तथा परोक्ष में भी गुरु का नाम आदर से लेना चाहिये। गुरु के चलने, बोलने या किसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा की नकल नहीं करें। जहाँ गुरु का उपहास अथवा निन्दा होती हो वहाँ कानों को बन्द कर लें अथवा कहीं अन्यत्र चले जायें।

सोये हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, मुहं फेर कर खड़े हुए गुरु से संभाषण नहीं करना चहिये। यदि गुरु बैठे हों तो स्वयं उठ कर, खड़े हों तो सामने जा कर, आते हों तो उन के सम्मुख चल कर, चलते हों तो उन के पीछे दौड़ कर गुरु की आज्ञा सुननी चाहिये।

अतिथि सत्कार भारतीय समाज में अतिथि को देव तुल्य मान कर सत्कार करने का विधान हैः

                 अप्रणोद्योSतिथिः सायं सूर्योढी गृहमेधिना।

                       काले प्राप्तास्त्वकाले वा नास्यानश्नगृहे वसेत्।। (मनु स्मृति 3- 105)

       सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिये। अतिथि समय पर आये या असमय, उसे भोजन उवश्य करा दें।

सेवकों की देख भाल सेवकों के साथ संवेदनशीलता का व्यवहार करने के विषय में विस्तरित विवर्ण मनु स्मृति में हैं जैसे कि –

                भुभवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भ़त्येषु चैव हि।

                       भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्ठं तु दम्पति।। (मनु स्मृति 3- 116)

पहले ब्राह्मणों को और अपने भृत्यों को भोजन करा कर पीछे जो अन्न बचे वह पति पत्नी भोजन करें।

हिन्दू धर्म में रीति रिवाजों को मानना स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि किसी पुजारी से कोई पूजा, अर्चना या विधि करवायी है तो उसे उचित दक्षिणा देना अनिवार्य है। सदा सत्य बोलना चाहिये और प्रिय वचन बोलने चाहिये।

वृद्ध, रोगी, भार वाहक, स्त्रियाँ, विदूान, राजा तथा वाहन पर बैठे रोगियों का मार्ग पर पहला अधिकार होता है।

कुछ प्रावधानों का संक्षिप्त उल्लेख इस लिये किया गया है कि भारतीय जीवन का हर क्षेत्र विस्तरित नियमों से समाजिक बन्धनों के साथ जुडा हुआ है जो वर्तमान में अनदेखे किये जा रहै हैं।

अपराध तथा दण्ड 

आज के संदर्भ में यह प्रावधान अति प्रसंगिक हैं। प्रत्येक शासक  का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपराधियों को उचति दण्ड दे। जो कोई भी अपराधियों का संरक्षण करे, उन से सम्पर्क रखे, उन को भोजन अथवा आश्रय प्रदान करें उन्हें भी अपराधी की भान्ति दण्ड देना चाहिये।

मनु महाराज ने बहुत सारे दण्डों का विधान भी लिखा है। जैसे कि जो कोई भी जल स्त्रोत्रों के दूषित करे, मार्गों में रुकावट डाले, गति रोधक खडे करे – उन को कडा दण्ड देना चाहिये।

महत्वशाली तथ्य यह भी है कि मनु महाराज नें रोगियों, बालकों, वृद्धों,स्त्रियों और त्रास्तों को मानवी आधार पर दण्ड विधान से छूट भी दी है।

राजकीय व्यव्स्था को प्रभावशाली बनाये रखने के विचार से अपराधियों को सार्वजनिक स्थलों पर दण्ड देने का विधान सुझाया गया है। लेख को सीमित रखने के लिये केवल भावार्थ ही दिये गये हैं जिन के बारे में वर्तमान शासक आज भी सजग नहीं हैं –

  • गौ हत्या, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना या केवल मनोरंजन के लिये पशुओ का वद्य करना।
  • राज तन्त्र के विरुद्ध षटयन्त्र करना।
  • हत्या तथा काला जादू टोना करना।
  • स्त्रियों, बच्चों की तस्करी करना तथा माता पिता तथा गुरूओं की अन देखी करना
  • पर-स्त्री गमन, राजद्रोह, तथा वैश्या-वृति करना और करवाना।
  • प्रतिबन्धित वस्तुओ का व्यापार करना, जुआ खेलना और खिलाना।
  • चोरी, झपटमारी, तस्करी, आदि।
  • उधार ना चुकाना तथा व्यापारिक अनुबन्धों से पलट जाना।

असामाजिक व्यवहार

मनु महाराज ने कई प्रकार के अनैतिक व्यवहार उल्लेख किये हैं जैसे किः –

  • दिन के समय सोना, दूसरों के अवगुणों का बखान करना, निन्दा चुगली, अपरिचित स्त्री से घनिष्टता रखना।
  • सार्वजनिक स्थलों पर मद्य पान, नाचना तथा आवारागर्दी करना,
  • सार्वजनिक शान्ति भंग करना, कोलाहल करना।
  • किसी की कमजोरी को दुर्भावना से उजागर करना।
  • बुरे कर्मों से अपनी शैखी बघारना,
  • ईर्षा करना,
  • गाली गलोच करना,
  • विपरीत लिंग के अपरिचितों को फूल, माला, उपहार आदि भेजना, उन से हँसी मजाक करना, उन के आभूष्णों, अंगों को छूना, आलिंगन करना, उन के साथ आसन पर बैठना तथा वह सभी काम जिन से सामाजिक शान्ति भंग हो करना शामिल हैं।

जन क्ल्याण सुविधायें

मनु ने उल्लेख किया है कि शासक को कुयें तथा नहरें खुदवानी चाहियें और राज्य की सीमा पर मन्दिरों का निर्माण करवाना चाहिये। असामाजिक गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिये प्रशासन को ऐसे स्थानों पर गुप्तचरों के दूारा निगरानी रखनी चाहिये जैसे कि मिष्टान्न भण्डार, मद्य शालायें, चौराहै, विश्रामग्रह, खाली घर, वन, उद्यान, बाजार, तथा वैश्याग्रह।

मनु ने जन कल्याण सम्बन्धी इन विष्यों पर भी विस्तरित विधान सुझाये हैं-

  • नाविकों के शुल्क, तथा दुर्घटना होने पर मुआवजा,
  • ऋण, जमानत, तथा गिरवी रखने के प्रावधान,
  • पागलों तथा बालकों का संरक्षँण तथा अभिभावकों के कर्तव्य,
  • धोबीघाटों पर स्वच्छता सम्बन्धी नियम.
  • कर चोरी, तस्करी, तथा मिलावट खोरी, और झोला छाप चिकित्स्कों पर नियंत्रण,
  • व्यवसायिक सम्बन्धी नियम,
  • उत्तराधिकार के नियम  

शासक को जन सुविधायाओं के निर्माण तथा उन्हें चलाने के लिये कर लेना चाहिये। कर व्यवस्था से निर्धनों को छूट नहीं होनी चाहिये अन्यथ्वा निर्धनों को स्दैव छूट पाने की आदत पड जाये गी। आज के युग में जब सरकारें तुष्टिकरण और सबसिडिज की राजनीति करती हैं उस के संदर्भ में मनु महाराज का यह विघान अति प्रसंगिक है। शासकों को व्यापिरियों के तोलने तथा मापने के उपकरणों का निरन्तर नीरीक्षण करते रहना चाहिये। 

तन्त्र को क्रियावन्त रखने के उपाय 

कोई भी विधान तब तक सक्षम नहीं होता जब तक उस को लागू करने के उपायों का समावेष ना किया जाय। इस बात को भी मनु ने अपने विधान में उचित स्थान दिया है। मनुस्मृति में ज्यूरी की तरह अनुशासनिक समिति का विस्तरित प्रावधान किया गया है। विधान में जो विषय अलिखित हैं उन्हें सामन्य ज्ञान के माध्यम से समय, स्थान तथा लक्ष्य पर विचार कर के सुलझाना चाहिये। य़ह उल्लेख भी किया गया है कि ऐक विदूान का मत ऐक सहस्त्र अज्ञानियों के मत के बराबर होता है। वोट बैंक की गणना का कोई अर्थ नहीं।

प्रत्येक विधान तत्कालिक समाज की उन्नति का पैमाना होता है। मनु ने उस समय विधान बनाये थे जब संसार के अधिकतर मानवी समुदाय गुफाओं में रहते थे और बंजारा जीवन से ही मुक्त नहीं हो पाये थे। भारतीय समाज कोई पिछडा हुआ दकियानूसी समाज नहीं था ना ही सपेरों या लुटेरों का देश था जैसा कि योरूपवासी अपनी ही अज्ञानता वश कहते रहे हैं और हमारे अंग्रेज़ी ग्रस्त भारतीय उन की हाँ में हाँ मिलाते रहे हैं। उन्हें आभास होना चाहिये कि आदि काल से ही हिन्दू सभ्यता ऐक पूर्णत्या विकसित सभ्यता थी और हम उसी मनुवादी सभ्यता के वारिस हैं।   

चाँद शर्मा

टैग का बादल