हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘दक्षिणा’

26 – हमारी सामाजिक परम्परायें


किसी भी देश या समाज के कानून वहाँ के सामाजिक विकास, सभ्यता, तथा नैतिक्ता मूल्यों के दर्पण होते हैं। जहाँ कोई नियम-कानून नहीं होते वहाँ ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के आधार पर जंगल-राज होता है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व समस्त योरूप में जंगल-राज ही था मगर जो लोग यह समझते हैं कि भारत में शिष्टाचार के औपचारिक नियम योरुप वासियों की देन है वह केवल अपनी अज्ञानता का ही प्रदर्शन करते हैं क्यों कि सभ्यता और शिष्टाचार का आरम्भ तो भारत से ही हुआ था। हिन्दू समाज की सामाजिक परम्परायें मानव समाज के और स्थानीय पर्यावरण के सभी अंगों को एक सूत्र में रखने के अभिप्राय से विकसित हुई हैं ताकि ‘जियो और जीने दो ’ के आदर्श को साकार किया जा सकें।

समाज शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ मनुसमृति में सभी नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यवसायिक विषयों पर विस्तरित आलेख हैं। मनुस्मृति के पश्चात अन्य स्मृतियां भी समय समय पर सामाजिक व्यवस्था में प्रभावशाली रहीं परन्तु मुख्यतः मूल मनुस्मृति ही सर्वोपरि रही। समय समय पर उन प्रावधानों पर पुनर्विचार और संशोधन भी होते रहे हैं तथा अधिकाँश प्रावधान आज भी सभी मानवी समाजों में वैद्य हैं। केवल उदाहरण के लिये यहाँ कुछ सीमित सी बातों का उल्लेख किया गया है।

सार्वजनिक स्वच्छता  

भोजन तथा स्वास्थ सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये मनुस्मृति में लिखा है कि आदर की दृष्टी से किया भोजन बल और तेज का देता है, और अनादर की दृष्टी से किया गया भोजन दोनों का नाश कर देता है। किसी को जूठा ना दे और ना किसी का जूठा स्वयं ही खावें। अधिक भोजन न करे और ना ही बिना भोजन कर कहीं यात्रा करे। परोसे गये भोजन की कभी आलोचना नहीं करनी चाहिये। प्रत्येक भोजन के पश्चात दाँत तथा मुख को अच्छी तरह से स्वच्छ करना चाहिये। यह सभी नियम आज भी सर्वमान्य हैं जैसे तब थे। 

किसी को भी नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिये। जल के स्त्रोत्र में, जुते हुये खेत में, राख के ढेर पर, किसी मन्दिर य़ा अन्य सार्वजनिक स्थल पर मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिये। राख को इस लिये शामिल किया गया है क्यों कि यह सभी पदार्थों को शुद्ध करने का सक्ष्म साधन है। नियमों के उल्लंघन के कारण प्रदूषण सब से बडी समस्या बन चुका है।

भारतीय शिष्टाचार  

सम्बोधन – आजकल अन्य समाजों में माता पिता के अतिरिक्त सभी पुरुषों को ‘अंकल’ और स्त्रियों को आँटी ’ कह कर ही सम्बोधित किया जाता है जो ध्यानाकर्षण करने के लिये केवल औपचारिक सम्बोधन मात्र ही होता है। इस की तुलना में भारतीय समाज में सभी सम्बन्धों को कोई ना कोई विशिष्ट नाम दिया गया है ताकि ऐक दूसरे के सम्बन्धों की घनिष्टता को पहचाना जा सके। कानूनी सम्बन्धों का परिवारों में प्रयोग नहीं होता। किसी को ‘फादर इन ला, मदर इन ला, सन इन ला, या ‘डाटर इन ला कह कर नहीं पुकारा जाता। हिन्दू समाज में सभी मानवी सम्बन्धों को आदर पूर्वक सार्थक किया गया है। सभी सम्बन्ध प्राकृतिक सम्बन्धों से आगे विकसित होते हैं और वह कानून का सहारा नहीं लेते।

आयु का सम्मान – सम्बन्धों में आयु का विशेष महत्व है। अपने अग्रजों को स्दैव उन के सम्बन्ध की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है उन के नाम से नहीं। वरिष्ठ आयु में कनिष्ठों को स्दैव प्रिय शब्द और आशीर्वाद ही प्रदान कर के सम्बोधित करते हैं। यह केवल अग्रजों का विशेष अधिकार है कि वह कनिष्ठों को उन के नाम से पुकारें। आजकल टी वी चैनलों पर बेटे-बेटी की आयु वाले पाश्चातय संस्कृति में ढले एंकर अपने दादा-दादी की आयु वालों को नाम से सम्बोधित कर के अपना संस्कारी दिवालियापन ही परस्तुत करते हैं और इस बेशर्मी को ‘प्रगतिशीलता’ मान बैठे हैं। उन्हें ज्ञात ही नहीं कि उन के पूर्वज मनु नें सभ्य शिष्टाचार की मर्यादायें ईसा के जन्म से कई शताब्दियाँ पूर्व स्थापित कीं थीं। 

प्रत्यभिवादन – प्रत्येक अग्रज तथा कनिष्ठ को अभिवादन का यथेष्ट उत्तर अवश्य देना चाहिये। भारत की यह प्रथा आज सभी देशों के सैनिक नियमों में भी शामिल है।     

          यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

                 नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ।। (मनु स्मृति 2- 125-126)

       जो विप्र अभिवादन करने का प्रत्यभिवादन करना नहीं जानता हो पण्डितों को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिये। जैसे शूद्र है वैसा ही वह भी है।

गुरू-शिष्य परम्परा – यदि अग्रज अपने स्थान पर ना हों तो उन के आसन पर नहीं बैठना चाहिये तथा परोक्ष में भी गुरु का नाम आदर से लेना चाहिये। गुरु के चलने, बोलने या किसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा की नकल नहीं करें। जहाँ गुरु का उपहास अथवा निन्दा होती हो वहाँ कानों को बन्द कर लें अथवा कहीं अन्यत्र चले जायें।

सोये हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, मुहं फेर कर खड़े हुए गुरु से संभाषण नहीं करना चहिये। यदि गुरु बैठे हों तो स्वयं उठ कर, खड़े हों तो सामने जा कर, आते हों तो उन के सम्मुख चल कर, चलते हों तो उन के पीछे दौड़ कर गुरु की आज्ञा सुननी चाहिये।

अतिथि सत्कार भारतीय समाज में अतिथि को देव तुल्य मान कर सत्कार करने का विधान हैः

                 अप्रणोद्योSतिथिः सायं सूर्योढी गृहमेधिना।

                       काले प्राप्तास्त्वकाले वा नास्यानश्नगृहे वसेत्।। (मनु स्मृति 3- 105)

       सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिये। अतिथि समय पर आये या असमय, उसे भोजन उवश्य करा दें।

सेवकों की देख भाल सेवकों के साथ संवेदनशीलता का व्यवहार करने के विषय में विस्तरित विवर्ण मनु स्मृति में हैं जैसे कि –

                भुभवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भ़त्येषु चैव हि।

                       भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्ठं तु दम्पति।। (मनु स्मृति 3- 116)

पहले ब्राह्मणों को और अपने भृत्यों को भोजन करा कर पीछे जो अन्न बचे वह पति पत्नी भोजन करें।

हिन्दू धर्म में रीति रिवाजों को मानना स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि किसी पुजारी से कोई पूजा, अर्चना या विधि करवायी है तो उसे उचित दक्षिणा देना अनिवार्य है। सदा सत्य बोलना चाहिये और प्रिय वचन बोलने चाहिये।

वृद्ध, रोगी, भार वाहक, स्त्रियाँ, विदूान, राजा तथा वाहन पर बैठे रोगियों का मार्ग पर पहला अधिकार होता है।

कुछ प्रावधानों का संक्षिप्त उल्लेख इस लिये किया गया है कि भारतीय जीवन का हर क्षेत्र विस्तरित नियमों से समाजिक बन्धनों के साथ जुडा हुआ है जो वर्तमान में अनदेखे किये जा रहै हैं।

अपराध तथा दण्ड 

आज के संदर्भ में यह प्रावधान अति प्रसंगिक हैं। प्रत्येक शासक  का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपराधियों को उचति दण्ड दे। जो कोई भी अपराधियों का संरक्षण करे, उन से सम्पर्क रखे, उन को भोजन अथवा आश्रय प्रदान करें उन्हें भी अपराधी की भान्ति दण्ड देना चाहिये।

मनु महाराज ने बहुत सारे दण्डों का विधान भी लिखा है। जैसे कि जो कोई भी जल स्त्रोत्रों के दूषित करे, मार्गों में रुकावट डाले, गति रोधक खडे करे – उन को कडा दण्ड देना चाहिये।

महत्वशाली तथ्य यह भी है कि मनु महाराज नें रोगियों, बालकों, वृद्धों,स्त्रियों और त्रास्तों को मानवी आधार पर दण्ड विधान से छूट भी दी है।

राजकीय व्यव्स्था को प्रभावशाली बनाये रखने के विचार से अपराधियों को सार्वजनिक स्थलों पर दण्ड देने का विधान सुझाया गया है। लेख को सीमित रखने के लिये केवल भावार्थ ही दिये गये हैं जिन के बारे में वर्तमान शासक आज भी सजग नहीं हैं –

  • गौ हत्या, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना या केवल मनोरंजन के लिये पशुओ का वद्य करना।
  • राज तन्त्र के विरुद्ध षटयन्त्र करना।
  • हत्या तथा काला जादू टोना करना।
  • स्त्रियों, बच्चों की तस्करी करना तथा माता पिता तथा गुरूओं की अन देखी करना
  • पर-स्त्री गमन, राजद्रोह, तथा वैश्या-वृति करना और करवाना।
  • प्रतिबन्धित वस्तुओ का व्यापार करना, जुआ खेलना और खिलाना।
  • चोरी, झपटमारी, तस्करी, आदि।
  • उधार ना चुकाना तथा व्यापारिक अनुबन्धों से पलट जाना।

असामाजिक व्यवहार

मनु महाराज ने कई प्रकार के अनैतिक व्यवहार उल्लेख किये हैं जैसे किः –

  • दिन के समय सोना, दूसरों के अवगुणों का बखान करना, निन्दा चुगली, अपरिचित स्त्री से घनिष्टता रखना।
  • सार्वजनिक स्थलों पर मद्य पान, नाचना तथा आवारागर्दी करना,
  • सार्वजनिक शान्ति भंग करना, कोलाहल करना।
  • किसी की कमजोरी को दुर्भावना से उजागर करना।
  • बुरे कर्मों से अपनी शैखी बघारना,
  • ईर्षा करना,
  • गाली गलोच करना,
  • विपरीत लिंग के अपरिचितों को फूल, माला, उपहार आदि भेजना, उन से हँसी मजाक करना, उन के आभूष्णों, अंगों को छूना, आलिंगन करना, उन के साथ आसन पर बैठना तथा वह सभी काम जिन से सामाजिक शान्ति भंग हो करना शामिल हैं।

जन क्ल्याण सुविधायें

मनु ने उल्लेख किया है कि शासक को कुयें तथा नहरें खुदवानी चाहियें और राज्य की सीमा पर मन्दिरों का निर्माण करवाना चाहिये। असामाजिक गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिये प्रशासन को ऐसे स्थानों पर गुप्तचरों के दूारा निगरानी रखनी चाहिये जैसे कि मिष्टान्न भण्डार, मद्य शालायें, चौराहै, विश्रामग्रह, खाली घर, वन, उद्यान, बाजार, तथा वैश्याग्रह।

मनु ने जन कल्याण सम्बन्धी इन विष्यों पर भी विस्तरित विधान सुझाये हैं-

  • नाविकों के शुल्क, तथा दुर्घटना होने पर मुआवजा,
  • ऋण, जमानत, तथा गिरवी रखने के प्रावधान,
  • पागलों तथा बालकों का संरक्षँण तथा अभिभावकों के कर्तव्य,
  • धोबीघाटों पर स्वच्छता सम्बन्धी नियम.
  • कर चोरी, तस्करी, तथा मिलावट खोरी, और झोला छाप चिकित्स्कों पर नियंत्रण,
  • व्यवसायिक सम्बन्धी नियम,
  • उत्तराधिकार के नियम  

शासक को जन सुविधायाओं के निर्माण तथा उन्हें चलाने के लिये कर लेना चाहिये। कर व्यवस्था से निर्धनों को छूट नहीं होनी चाहिये अन्यथ्वा निर्धनों को स्दैव छूट पाने की आदत पड जाये गी। आज के युग में जब सरकारें तुष्टिकरण और सबसिडिज की राजनीति करती हैं उस के संदर्भ में मनु महाराज का यह विघान अति प्रसंगिक है। शासकों को व्यापिरियों के तोलने तथा मापने के उपकरणों का निरन्तर नीरीक्षण करते रहना चाहिये। 

तन्त्र को क्रियावन्त रखने के उपाय 

कोई भी विधान तब तक सक्षम नहीं होता जब तक उस को लागू करने के उपायों का समावेष ना किया जाय। इस बात को भी मनु ने अपने विधान में उचित स्थान दिया है। मनुस्मृति में ज्यूरी की तरह अनुशासनिक समिति का विस्तरित प्रावधान किया गया है। विधान में जो विषय अलिखित हैं उन्हें सामन्य ज्ञान के माध्यम से समय, स्थान तथा लक्ष्य पर विचार कर के सुलझाना चाहिये। य़ह उल्लेख भी किया गया है कि ऐक विदूान का मत ऐक सहस्त्र अज्ञानियों के मत के बराबर होता है। वोट बैंक की गणना का कोई अर्थ नहीं।

प्रत्येक विधान तत्कालिक समाज की उन्नति का पैमाना होता है। मनु ने उस समय विधान बनाये थे जब संसार के अधिकतर मानवी समुदाय गुफाओं में रहते थे और बंजारा जीवन से ही मुक्त नहीं हो पाये थे। भारतीय समाज कोई पिछडा हुआ दकियानूसी समाज नहीं था ना ही सपेरों या लुटेरों का देश था जैसा कि योरूपवासी अपनी ही अज्ञानता वश कहते रहे हैं और हमारे अंग्रेज़ी ग्रस्त भारतीय उन की हाँ में हाँ मिलाते रहे हैं। उन्हें आभास होना चाहिये कि आदि काल से ही हिन्दू सभ्यता ऐक पूर्णत्या विकसित सभ्यता थी और हम उसी मनुवादी सभ्यता के वारिस हैं।   

चाँद शर्मा

टैग का बादल