हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘संस्कृति’

नेहरू की याद में…


बातें कुछ कडवी ज़रूर हैं परन्तु सच्चाई ऐसी ही होती है।

आज से लगभग 350 वर्ष पहले मुसलमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दु गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन्हें इनसाफ़ दिलाने के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। मगर इनसाफ़ नहीं मिला। 350 वर्ष बाद आज भी कशमीरी हिन्दुओं की हालत वहीं की वहीं है और वह शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर-उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दुओं ने पलायन करने के इलावा अपने बचाव के लिये और क्या सीखा ?

भारत विभाजन के बाद सरदार पटेल ने अपनी सूझ-बूझ से लगभग 628 रियास्तों का भारत में विलय करवाया किन्तु जब कशमीर की बारी आयी तो नेहरू ने शैख़ अब्दुल्ला से अपनी यारी निभाने के लिये सरदार पटेल के किये-कराये पर पानी फेर दिया और भारत की झोली में एक ऐसा काँटा डाल दिया जो आजतक हमारे वीर सिपाहियों का लगातार खून ही पी रहा है। विभाजन पश्चात अगर शरर्णाथी हिन्दु – सिक्खों को कशमीर में बसने दिया होता तो आज कशमीरी हिन्दु मारे मारे इधर-उधर नहीं भटकते, किन्तु नेहरू के मुस्लिम प्रेम और शैख़ अब्दुल्ला से वचन-बध्दता ने ऐसा नहीं करने दिया।

सैंकड़ों वर्षों की ग़ुलामी के बाद हमारा प्राचीन भारत जब स्वतन्त्र हुआ – तब नेहरु जी को विचार आया कि इतने महान और प्राचीन देश का कोई ‘पिता’ भी तो होना चाहिये। नवजात पाकिस्तान ने तो जिन्नाह को अपना ‘क़ायदे-आज़म’ नियुक्त कर दिया, अतः अपने आप को दूरदर्शी समझने वाले नेहरू जी ने भी तपाक से गाँधी जी को इस प्राचीन देश का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा दिया। बीसवीं शताब्दी में ‘पिता’ प्राप्त कर लेने का अर्थ था कि प्राचीन होने के बावजूद भी भारत, इसराईल, पाकिस्तान या बंग्लादेश की तरह एक राष्ट्रीयता हीन देश था।

राष्ट्रपिता के ‘जन्म’ से पहले अगर भारत का कोई राष्ट्रीय अस्तीत्व ही नहीं था तो हम किस आधार पर अपने देश के लिये विश्व-गुरू होने का दावा करते रहे हैं ? हमारी प्राचीन सभ्यता के जन्मदाता फिर कौन थे ? क्यों हम ने बीसवीं शताब्दी के गाँधी जी को अपना राष्ट्रपिता मान कर अपने-आप ही अपनी प्राचीन सभ्यता से नाता तोड़ लिया? इस से बडी मूर्खता और क्या हो सकती थी?

राष्ट्र को पिता मिल जाने के बाद फिर जरूरत पडी एक राष्ट्रगान की। दूरदर्शी नेहरू जी ने मुसलमानों की नाराज़गी के भय से वन्देमात्रम् को त्याग कर टैगोर रचित ‘जन गन मन अधिनायक जय है ’ को अपना राष्ट्रगान भी चुन लिया। दोनों में अन्तर यह है कि जहाँ वन्देमात्रम् स्वतन्त्रता संग्राम में स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रेरित करता रहा वहीं ‘जन गन मन ’ मौलिक तौर पर इंगलैन्ड के सम्राट की अगवाई करने के लिये मोती लाल नेहरू ने टैगोर से लिखवाया था। इस गान में केवल उन्हीं प्रदेशों का नाम है जो सन् 1919 में इंगलैन्ड के सम्राट के ग़ुलाम थे। यहाँ यह भी बताना उचित हो गा कि ‘टैगोर’ शब्द अंग्रेजों को प्रिय था इस लिये रोबिन्द्र नाथ ठाकुर को टैगोर कहा जाता है। आज भी इस राष्ट्रगान का ‘अर्थ’ कितने भारतीय समझते हैं यह आप स्वयं अपने ही दिल से पूछ लीजिये।

विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया था। अपने प्रियजनों को कटते और अपने घरों को अपने सामने लुटते देख कर जब लाखों हिन्दु सिक्ख भारत आये तो उन के आँसू पोंछने के बजाय ‘राष्ट्रपिता’ ने उन्हें फटकारा कि वह ‘पाकिस्तान में ही क्यों नही रहे। वहां रहते हुये अगर वह मर भी जाते तो भी उन के लिये यह संतोष की बात होती कि वह अपने ही मुसलमान भाईयों के हाथों से ही मारे जाते ’।

मुस्लिम प्रेम से भरी ऐसी अद्भुत सलाह कोई ‘महात्मा’ ही दे सकता था कोई सामान्य समझबूझ वाला आदमी तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। पाकिस्तान और मुस्लमानों के प्रेम में लिप्त हमारे राष्ट्रपिता ने जिस दिन ‘हे-राम’ कह कर अन्तिम सांस ली तो उसी दिन को नेहरू जी ने भारत का ‘शहीद-दिवस’ घोषित करवा दिया। वैसे तो भगत सिहं, सुखदेव, राजगुरू, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे कितने ही महापरुषों ने आज़ादी के लिये अपने प्राणों की बलि दी थी परन्तु वह सभी राष्ट्रपिता की तरह मुस्लिम प्रेमी नहीं थे, अतः इस सम्मान से वंचित रहे ! उन्हें ‘आतंकी’ का दर्जा दिया जाता था। राष्ट्रपिता और महान शहीद का सम्मान करने के लिये अब हर हिन्दु का यही ‘राष्ट्र-धर्म’ रह गया है कि वह अपना सर्वस्व दाव पर लगा कर मुस्लमानों को हर प्रकार से खुश रखे।

भारत को पुनः खण्डित करने की प्रतिक्रिया नेहरू जी ने अपना पद सम्भालते ही शुरू कर दी थी। भाषा के आधार पर देश को बाँटा गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो घोषित करवा दिया लेकिन सभी प्रान्तों को छूट भी दे दी कि जब तक चाहें सरकारी काम काज अंग्रेज़ी में करते रहें। शिक्षा का माध्यम प्रान्तों की मन मर्जी पर छोड़ दिया गया। फलस्वरूप कई प्रान्तों ने हिन्दी को नकार कर केवल प्रान्तीय भाषा और अंग्रेज़ी भाषा को ही प्रोत्साहन दिया और हिन्दी आज उर्दू भाषा से भी पीछे खड़ी है क्योंकि अब मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण उर्दू को विशेष प्रोत्साहन दिया जाये गा।

भारत वासियों ने आज़ादी इस लिये मांगी थी कि अपने देश को अपनी संस्कृति के अनुसार शासित कर सकें। सदियों की ग़ुलामी के कारण अपनी बिखर चुकी संस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिये यह आवश्यक था कि अपने प्राचीन ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में शामिल कर के उन का आंकलन किया जाता। वैज्ञानिक सुविधायें प्रदान करवा के उन का मूल्यांकन करवाया गया होता, मगर नेहरू जी के आदेशानुसार उन मौलिक विध्या ग्रंथों को धर्म निर्रपेक्षता के नाम पर पाठ्यक्रमों से खारिज ही कर दिया गया।

कशमीर विवाद के अतिरिक्त नेहरू की अन्य भूल तिब्बत को चीन के हवाले करना था। देश के सभी वरिष्ट नेताओं की सलाह को अनसुना कर के उन्हों ने चीन की सीमा को भारत का माथे पर जड़ दिया। चीन के अतिक्रमण के बारे में देश को भ्रामित करते रहे। जब पानी सिर से ऊपर निकल गया तो अपनी सैन्य क्षमता परखे बिना देश को चीन के साथ युध्द में झोंक दिया और सैनिकों को अपने जीवन के साथ मातृभूमि और सम्मान भी बलिदान करना पड़ा। भारत सरकार ने यह जानने के लिये कि हमारे देश की ऐसी दुर्गति के लिये कौन ज़िम्मेदार था ब्रिटिश लेफटीनेन्ट जनरल हेन्डरसन ब्रुक्स से जो जाँच करवायी थी उस की रिपोर्ट नेहरू जी के समय से ही आज तक प्रकाशित नहीं की गयी।

1962 की पराजय के बाद ‘ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी’ गीत को सुन कर वीर जवाहर रो पडे थे इस लिये हम भी आये दिन यही गीत सुबक सुबक कर गाते हैं और शहीदों के परिवारों का मनोबल ऊँचा करते हैं। काश वीर जवाहर आजाद हिन्द फौज के इस गीत को कभी गाते तो हमारे राष्ट्र का मनोबल कभी नीचे ना गिरता –

कदम कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा, यह जिन्दगी है कौम की उसे कौम पर लुटाये जा।

पंडित नेहरू ने भारत इतिहास के  स्वर्ण-युग को “गोबर युग ” कह कर नकार दिया था। वह स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि ‘मैं विचारों से अंग्रेज़, रहन-सहन से मुसलिम और आकस्माक दु्र्घना से ही हिन्दु हूं’। काश यह आकस्माकी दु्र्घना ना हुई होती तो कितना अच्छा होता। इस बाल-दिवस पर नेहरू की जगह ऐक पटेल जैसा बालक और पैदा हो गया होता तो यह देश सुरक्षित होता।

आज़ादी के बाद देश में काँग्रेस बनाम नेहरू परिवार का ही शासन रहा है, इस लिये जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों का सही आंकलन नहीं किया गया। आने वाली पीढीयां जब भी उन की करतूतों का मूल्यांकन करें गी तो उन की तुलना तुग़लक वंश के सर्वाधिक पढे-लिखे सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक से अवश्य करें गी और नेहरू की याद के साथ भी वही सलूक किया जाये गा जो सद्दाम हुसैन के साथ किया गया थी – तभी भारत के इतिहास में नेहरू जी को उनका यत्थेष्ट स्थान प्राप्त होगा।

चाँद शर्मा

दिखावा नहीं आदत


आजकल हम लोग सफाई-अभियान में जुटे हैं। मन्त्रियों ने हाथ में झाडू पकडे तो सफाई के प्रति जागृति आ गयी। लेकिन मन्त्रियों का हर रोज सडक पर झाडू से सफाई में लगे रहना समस्या का समाधान नहीं। कुछ दिनों के बाद यह परिक्रिया केवल ऐक खेल-तमाशा बन कर रह जाये गी। सफाई का काम वास्तव में उन्हीं लोगों को करना चाहिये जो इस के लिये नियुक्त हैं। विभागों में उन का अन्य स्थानों पर दुर्प्योग नहीं किया जाना चाहिये और वह अपना काम ठीक तरह से करते हैं इस की कडी जवाबदारी रहनी जरूरी है।

आस्थाओं के बहाने गन्दगी

नागरिकों की निजि जिम्मेदारी है कि वह जगह जगह गन्दगी ना फैलायें। हमारी नदियां और जल स्त्रोत्र इस लिये गन्दे है कि हम हर रोज आस्था के नाम से नदियों की आरती कर के फूलों से भरी टोकरियां नदियों में बहा देते हैं। इस के इलावा और कई तरहों से हम स्वयं ही जल को गन्दा करने के काम अन्धविशवास से करते चले आ रहै हैं। हमारे अन-पढ पुजारी लोगों को फूल अनाज और दूध वगैरा पानी में बहा देने की सलाह देते रहते हैं ताकि मृतकों की आत्मा को शान्ति मिल सके चाहे जीवित लोग गन्दगी पीते रहैं। अगर आस्थायें गन्दगी फैलाने का कारण बन जायें तो उन का कोई महत्व नहीं रहता। हर रोज आरती के बहाने नदियों में फूल बहा कर नदियों को गन्दगी भेन्ट करते हैं, नदियों को साफ नहीं करते। नदी के प्रति श्रद्धा दिखाने के अन्य साफं रास्ते भी अपनाये जा सकते हैं।

फूल-चोरी

जब कभी आप सुबह सैर के लिये निकलते हैं तो देखा होगा कि कुछ लोग दूसरों के आंगन से या सार्वजनिक पार्कों से फूल चोरी करते हैं। दुसरे लोगों की आहट से ही चौंक जाते हैं और इधर उघर देख कर, और सम्भल कर फिर फूल-चोरी में लग जाते हैं। वह सफेदपोश चोर ताजा हवा के बजाये, अपना दिन ऐक कमीनी हरकत से शुरु करते हैं। अपने घर में लौट कर या रास्ते में ही किसी मन्दिर में जा कर चोरी किये फूलों को भगवान की मूर्ति पर चढा देते हैं और बदले में अपने लिये भगवान से कुछ ना कुछ मांगते रहते हैं।

सोचने की बात है जो महा शक्ति इतनी तरह के फूलों को पैदा कर सकती है क्या वह उन फूलचोरों की हरकत से संतुष्ट हो जाये गी ? वास्तव में यह फूलचोर सिर्फ चोरी ही नहीं करते बल्कि फूलों की भ्रूण हत्या भी करते हैं। वह फूलों को खिलने और खुशबू देने से पहले ही तोड लेते हैं। समय से पहले तोडे गये फूलों के बीज भी नष्ट हो जाते हैं। अगर भगवान को फूल अर्पण ही करने हैं तो अपने घरों में फूल उगायें और उन्हें पौधे पर ही खिलने दें। भगवान जहाँ कहीं भी हों गे उन तक फूलों की खुशबू और आप की मेहनत की रिपोर्ट पहुँच ही जाये गी।

आप ने यह भी देखा होगा कि कई लोग भगवान पर चढाये गये फूलों, फलों और कई तरह के अनाजों को नदियों, नहरों और तालाबों आदि पानी में बहा देते हैं जो साफ कर के पीने के लिये इस्तेमाल होता है। इस में हवन तथा अस्थियों की राख और कई तरह की बेकार चीजें भी डाली जाती है।

विदेशों में जल स्त्रोत्रों को गन्दा करना कानूनी अपराध है लेकिन भारतवासी यही काम लोग पण्डितों के बहकावे में आ कर स्वेछा से करते हैं। अगर सुखे और इस्तेमाल किये गये फूलों को  फैला दिया जाये जहाँ उन के बीज फिर से उग जायें या कम से कम खाद ही बन जायें तो क्या यह उत्तम विकल्प नहीं होगा ? यही बात फैंके गये अनाजों के बारे में भी लागू होती है।

आस्था का प्रदूष्ण

कई सडकों पर चाय आदि बेचनेवाले कई दुकानदार ऐक कप में थोडा दूध या चाय बनाकर सडक पर बिखेर देते हैं और मन में सोचते हैं कि उन्हों ने वह भगवान को अर्पित कर दी। वास्तव में उस घटिया स्तर की वस्तु को कोई जानवर भी नहीं पिये गा। निश्चय जानिये हृदय, आदर और स्वछता से अरपित करी गई चाय को भगवान किसी जानवर के रूप में आ कर जरूर स्वीकार कर लें गे। क्या यह अच्छा नहीं कि उस के बदले आप हर रोज जानवरों के पीने के लिये पानी की व्यवस्था कर दें। सिवाय पालतु जानवरों के आज कल दूसरे जानवरों को गर्मी में नहाना तो दूर पीने तक का पानी भी नहीं मिलता।

खुशी की गुण्डागर्दी

अपने बच्चों को खुश रखने के लिये माता पिता उन्हें दिवाली पर पटाखे और होली पर रंग खरीद कर देते हैं। बच्चे गुबारों में पानी और रंग भर कर और पटाखों को चला कर सडकों पर आते जाते लोगों पर फैंकते है। किसी की आँख में लगे या सिर पर, किसी का ऐक्सीडेन्ट होजाये तोभी माता पिता को कोई परवाह नहीं रहती क्यो कि उस वक्त बच्चों पर किसी का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वह अपने माता पिता की तहजीब का प्रदर्शन ही सडक पर कर रहै होते हैं। क्या यह न्याय संगत नहीं होगा कि जो माता पिता अपने बच्चों स् इस प्रकार के घातक कुकर्म करवाते हैं वह समाज के दुशमन हैं। बच्चों के बदले उन्हें जेल की सलाखों के पीछे डालना चाहिये।

अभियान नहीं पहचान

इन छोटी छोटी मगर दूरगामी बातों को आदत में डाल लें गे तो दिखावटी सफाई – अभियानों की जरूरत कम हो जाये गी। विदेशों में नाटक बाजी के बजाये यह बातें नागरिकों की आदत में शामिल हो चुकी हैं। सफाई का जितना महत्व हिन्दू-धर्म में है उतना और किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हमारा हर त्यौहार घर और शरीर की सफाई से शुरु होता था, लेकिन आजकल गन्दगी फैला कर खत्म होता है। हमारी बातें विदेशियों ने अपना ली और हम केवल विश्व-गुरु का स्वांग कर के उन लोगों की गन्दगी को अब गर्व से चख रहै हैं।

विदेशों की नकल ही करनी है तो सफाई को नौटंकी के बजाये आदत बनाना चाहिये। यह विदेशी नकल नहीं हमारी अपनी संस्कृति है जिस पर अब विदेशी लेबल चढा हुआ है।

चाँद शर्मा

 

सदाचारी भारत से बलात्कारी ईण्डिया क्यों ?


आज कल सर संघचालक मोहन भागवत जी के कथन पर मीडिया और सेक्यूलरिस्टों नें वबाल मचा रखा है कि भारत क्या है और इण्डिया क्या है। अंग्रेजी भाषा में भी प्रापर नाऊन का ट्रांसलेशन तो नहीं किया जाता लेकिन गुलामी की मानसिक्ता वाले कुछ  देसी अंग्रेजों को शौक है कि वह भारत को ‘इण्डिया’ कहें और पवित्र गंगा नदी को ‘रिवर गैंजिज़’ कहैं। मुख्य फर्क यह है कि भारत अपनी प्राचीन हिन्दू संस्कृति पर गर्व करता है। सभी सैक्यूलर अपने आप को इण्डियन कहलाना पसंद करते हैं और उन्हें पाश्चात्य संस्कृति ही प्रगतिशील दिखाई पडती है।

ऐक अन्य विवाद चल रहा है कि मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर महिलाओं को कष्ट तो झेलना ही पडे गा। अब इस में गल्त कुछ नहीं कहा गया था। चाहे स्त्री हो या पुरुष, स्थानीय सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर कष्ट तो झेलना ही पडता है।

भारतीय समाज में कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है। उस की छवि गृह लक्ष्मी, आदर्श सहायिका तथा आदर्श संरक्षिता की है। भारतीय स्त्रियों के आदर्श ‘लैला ’ और ‘ज्यूलियट’ के बजाय सीता, सावित्री, गाँधारी, दमयन्ती के चरित्र रखे जाते है। भारतीय समाज में जहाँ प्राचीन काल से ही कन्याओं को रीति रिवाज रहित गाँधर्व विवाह तक करने की अनुमति रही है लेकिन साथ ही निर्लज्जता अक्ष्म्य है। निर्लज औरत को शूर्पणखा का प्रतीक माना जाता है फिर चाहे वह परम सुन्दरी ही क्यों ना हो। सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करने वाली स्त्री का जीवन सरल नहीं है। रामायण की नायिका सीता को आदर्श पत्नी होते हुये भी केवल एक अपरिचित सन्यासी रूपी रावण को भिक्षा देने के कारण परिवार की मर्यादा का उल्लंधन करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी और परिवार में पुनः वापिस आने के लिये अग्नि परीक्षा से उत्तीर्ण होना पड़ा था।

अपने आप को इण्डियन कहने में गर्व महसूस करने वाले यह भी देखें कि भारतीय समाज की तुलना में अन्य देशों में स्थिति क्या थी। वहाँ स्त्रियों को केवल मनोरंजन और विलास का साधन मान कर हरम के पर्दे के पीछे ही रखा जाता रहा है। अन्य समाजों में प्रेमिका से विवाह करने का प्राविधान केवल शारीरिक सम्बन्धों का अभिप्राय प्रगट करता है किन्तु हिन्दू समाज में ‘जिस से विवाह करो-उसी से प्रेम करो’ का सिद्धान्त कर्तव्यों तथा अध्यात्मिक सम्बन्धों का बोध कराता है।

आजकल पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण कुछ लोग स्त्री-पुरुषों में लैंगिक समान्ता का विवाद खडा कर के विषमता पैदा कर रहै हैं। वह इसलिये भ्रम पैदा कर रहै हैं ताकि भारतीय महिलायें पाश्चात्य संस्कृति को अपना लें। स्त्रियाँ पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करें और प्रतिदून्दी की तरह अपना अधिकार माँगें। स्त्रियाँ सहयोगिनी बनने के बजाय उन की प्रतिदून्दी बन जायें और हिन्दू समाज में परिवार की आधार शिला ही कमजोर हो जाये।

समझने की बात यह है कि जो अल्ट्रा-माडर्न स्त्रियाँ दूसरों को भड़काती हैं वह भी जब अपने लिये वर चुनती हैं तो अपनी निजि क्षमता से उच्च पति ही अपने लिये खोजती हैं। कोई भी कन्या अपने से कम योग्यता या क्षमता वाले व्यक्ति को अपना पति नहीं चुनती। उन की यही आकांक्षा ही उन की ‘फ्रीडम ’ के खोखलेपन को प्रमाणित करती है।

परम्पराओं के लिहाज से हमारे गाँव आज भी भारतीय संस्कृति से संलगित हैं और शहरों में पाश्चात्य इण्डियन संस्कृति अपनी घुस पैठ बनाने में लगी है ताकि भारत के घरेलू जीवन को तनावपूर्ण बना कर तहस नहस कर दिया जाये। यह देश अपनी सभ्यता को छोड कर फिर से असभ्यता को तरफ मुड जाये जहाँ समलैंगिक रिश्ते वैवाहिक बन्धनों पर हावी हो जाये।

भारत और इण्डिया के फर्क को श्री वेदप्रिय वेदानुरागी ने अपनी निम्नलिखित पंक्तियों में बहुत सक्ष्मता से समझाया हैः-

भारत में गाँव है, गली है, चौबारा है, इंडिया में सिटी है, मॉल है, पंचतारा है।
       भारत में घर है, चबूतरा है, दालान है, इंडिया में बस फ्लैट और मकान है।
       भारत में काका है, बाबा है, दादा है, दादी है, इंडिया में अंकल आंटी की आबादी है।
       भारत में खजूर है, जामुन है, आम है, इंडिया में मैगी, पिज्जा, माजा का नकली आम है।
       भारत में मटके है, दोने है, पत्तल है, इंडिया में पोलिथिन, वाटर और वाईन की बोटल है।
       भारत में गाय है, गोबर है, कंडे है, इंडिया में चिकन-बिरयानी और अंडे है।
       भारत में दूध है, दही है, लस्सी है, इंडिया में पेप्सी, कोक, और विस्की है।
       भारत में रसोई है, आँगन है, तुलसी है, इंडिया में रूम है, कमोड की कुर्सी है।
       भारत में कथडी है, खटिया है, खर्राटे हैं, इंडिया में बेड है, डनलप है और करवटें है।
       भारत में मंदिर है, मंडप है, पंडाल है, इंडिया में पब है, डिस्को है, हॉल है।
       भारत में गीत है, संगीत है, रिदम है, इंडिया में डान्स है, पॉप है, आईटम है।
       भारत में बुआ है, मौसी है, बहन है, इंडिया में सब के सब ‘कजन’ हैं।

       भारत में पीपल है, बरगद है, नीम है, इंडिया में वाल पर नंगे सीन हैं।
       भारत में आदर है, प्रेम है, सत्कार है, इंडिया में स्वार्थ, नफरत और दुत्कार है।
       भारत में हजारों भाषा हैं, बोली है, इंडिया में एक अंग्रेजी ही बडबोली है।
       भारत सीधा है, सहज है, सरल है, इंडिया धूर्त है, चालाक है, कुटिल है।
       भारत में संतोष है, सुख है, चैन है, इंडिया बदहवास, दुखी, और बेचैन है।

क्योंकि …
       भारत को देवों ने, वीरों ने रचाया है, इंडिया को अंग्रेजी चमचों ने बसाया है।

(- साभार श्री विश्वप्रिय वेदानुरागी)

 आजकल मीडिया रेप, कत्ल, नेताओं की बयानबाजी, तथा अपराध की खबरों से भरा रहता है। सोचना पडता है कि क्या यही हमारी दैनिक दिन चर्या बन चुकी है या फिर यह सब सोच समझ कर देश वासियों का ध्यान साकारात्मिक कामों से हटाने के लिये किया जा रहा है ताकि घोटाले और देश बेचने का सिलसिला ओट के पीछे चलता रहै? क्या हम सदाचारी अध्यात्मिक देश वासी अब केवल बलात्कारी, घोटाले बाज और ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों पर जीने वाले बन चुके हैं। ‘इण्डिया शाईनिंग’ से ‘इण्डिया डिकलाईनिंग’ की तरफ क्यों जा रहै हैं?

रेप के अपराध में पीडिता महिलायें ही होती हैं और अधिकतर मामलों में पीडित और अपराधी ऐक दूसरे के परिचित ही होते हैं। क्या महिलाओं तथा उन के परिजनों की कोई जिम्मेदारी नहीं होती कि वह किसी के साथ ऐकान्त स्थान पर जाने से पहले उस व्यक्ति के बारे में जानकारी रखें? क्या माता पिता अपने बच्चों के इन्टरनेट, मोबाईल तथा पाकेट खर्च पर कोई नियन्त्रण रखना जरूरी समझते? क्या दुर्घटना होने से पूर्व सावधान रहना और दूसरे को सचेत करना व्यक्ति की स्वतन्त्रता छीनना होता है? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता असीमित हो सभी पुरुष रेपिस्ट नहीं होते, सभी स्त्रियाँ चरित्रवान नहीं होतीं। राम और रावण दोनों पुरुष थे, सीता और शूर्पनखा दोनों स्त्रियाँ थीं।

स्त्री और पुरुष, सभी को अपने ऊपर मर्यादाओं का अंकुश अपने आप लगाना होगा। यही भारत की संस्कृति और पहचान है। अति सभी तरह की बुरी होती है फिर वह चाहे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता हो या सामाजिक अनुशासन।

चाँद शर्मा

नौटंकी छोडो, संस्कृति से नाता जोडो


सामूहिक बलात्कार के विषय पर अब नेताओं ने जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाने के लिये राजनैतिक नौटंकी शुरु कर दी है।

  • जगह जगह कैण्डल मार्च हो रहै हैं।
  • अपने दफतर में फाईलें निपटाने का बजाये शीला दिक्षित सडकों पर सम्मान मार्च निकाल कर पुलिस का समय बरबाद कर रही हैं।
  • साल 2013 को महिला सुरक्षा वर्ष के तौर पर मनाया जाये।
  • शशि थरूर का कहना है कि रेप कानून का नाम पडिता दामिनी से जोडा जाये। महाराष्ट्र सरकार मुम्बई में फ्लाईओवर का नाम दामिनी के नाम पर रख दे गी। अगर कुतब मीनार का नाम दामिनी मीनार रख दिया जाये तो क्या रेप समस्या हल हो जाये गी?
  • दिल्ली सरकार ने ‘मरणोपरान्त’ पीडिता को 15 लाख रुपये और उत्तर प्रदेश सरकार 20 लाख रुपये अनुदान देने की घोषणा कर दी है। अगर इतनी राशि प्रत्येक रेप पीडिता को दी जाये गी तो शायद रेप ऐक अलग से ‘बिजनेस’ ही बन जाये गा। रेप पीडितों को कम्पनसेशन देने के बजाये बलात्कारियों को मृत्युदण्ड दो।

जरूरत है किः –

  • कानून को सख्ती से लागू किया जाय और न्यायिक परिक्रिया को सरल और तेज किया जाये।
  • पुरुष और महिलायें दोनो ही अपने लिबास, व्यवहार और आचार में अपने आप को स्वयं अनुशासित करें और असुरक्षित वातावरण में जाने से बचें। इस दुर्घटना को ‘स्त्री-पुरुष आधारित संघर्ष’ ना बनाया जाय।

घोटालों का वर्ष था, या रेप वर्ष था, दो हजार बारह भारत पे करस था

अब दो हजार तेरह  ‘भारत-वर्ष’ बना दो, संस्कृतिक-प्रतीक ‘भगवा’ फिर से लहरा दो।

चाँद शर्मा

71 – ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति


इस समय देश की राजसत्ता खोखले आदर्शवादी राजनैताओं के हाथ में है जो पूर्णत्या स्वार्थी हैं। उन से मर्यादाओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इन नेताओं को सभी जानते पहचानते हैं। उन का अस्तीतव कुछ परिवारों तक ही सीमित है। उन्हों ने अपने परिवारों के स्वार्थ के लिये अहिंसा और धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर हिन्दू विरोधी काम ही किये हैं और हिन्दूओं को देश की सत्ता से बाहर रखने के लिये ‘अनैतिक ऐकजुटता’ बना रखी है। अब प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि  वह किसी दूसरे पर अहसान करने के लिये नहीं – बल्कि अपने देश, धर्म, समाज, राजनीति, नैतिक्ता और संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदाईत्व को निभाये ताकि हमारे पूर्वजों की पहचान मिटने ना पाये।

हिन्दू हित रक्षक सरकार

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने अपने देशद्रोही मखौटे को पूरी तरह से उतार कर यहाँ तक कह दिया है कि ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’, ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’, और ‘देश के साधनों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार है’। अब संशय के लिये कुछ भी नहीं बचा।

आज भारत को ऐक हिन्दू हित रक्षक सरकार की आवश्क्ता है जो हमारी संस्कृति तथा मर्यादाओं को पुनर्स्थापित कर सके। हमारे अपने मौलिक ज्ञान के पठन-पाठन की व्यव्स्था कर सके तथा धर्म के प्रति आतंकवादी हिंसा को रोक कर हमारे परिवारों को सुरक्षा प्रदान कर सके। आत्म-निर्भर होने के लिये हमें अपनी मौलिक तकनीक का ज्ञान अपनी राष्ट्रभाषा में विकसित करना होगा। पूर्णत्या स्वदेशी पर आत्म-निर्भर होना होगा। अपने बचाव के लिये प्रत्येक हिन्दू को अब स्वयं-सक्ष्म (सैल्फ ऐम्पावर्ड) बनना होगा।

समय और साधन

हमारा अधिकांश समाज भी भ्रष्ट, कायर, स्वार्थी और दिशाहीन हो चुका है। चरित्रवान और सक्षम नेतृत्व की कमी है लेकिन भारत के लिये इमानदार तथा सक्ष्म नैताओं का आयात बाहर से नहीं किया जा सकता। जो उपलब्द्ध हैं उन्हीं से ही काम चलाना हो गा। हम कोई नया राजनैतिक दल भी नहीं खडा कर सकते जिस के सभी सदस्य दूध के धुले और इमानदार हों। इसलिये अब किसी वर्तमान राजनैतिक दल के साथ ही सहयोग करना होगा ताकि हिन्दू विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके। यदि वर्तमान हिन्दू सहयोगी दल नैतिकता तथा आदर्श की कसौटी पर सर्वोत्तम ना भी हो तो भी हिन्दू विरोधियों से तो अच्छा ही होगा।

हिन्दू राजनैतिक ऐकता

भारत में मिलीजुली सरकारें निरन्तर असफल रही हैं। वोट बैंक की राजनीति के कारण आज कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जो खुल कर ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का समर्थन कर सके। सभी ने धर्म-निर्पेक्ष रहने का ढोंग कर रखा है जिसे अब उतार फैंकवाना होगा। इसलिये हिन्दूओं के निजि अध्यात्मिक विचार चाहे कुछ भी हों उन्हें ‘राजनैतिक ऐकता’ करनी होगी। ऐक हिन्दू ‘वोट-बैंक’ संगठित करना होगा। इस लक्ष्य के लिये समानताओं को आधार मान कर विषमताओं को भुलाना होगा ताकि हिन्दू वोट बिखरें नहीं और सक्षम हिन्दू सरकार की स्थापना संवैधानिक ढंग से हो सकें जो संविधान में संशोधन कर के देश को धर्म हीन राष्ट्र के बदले हिन्दू-राष्ट्र में परिवर्तित कर सके।

  • सभी नागरिकों के लिये समान कानून हों और किसी भी अल्पसंख्यक या वर्ग के लिये विशेष प्रावधान नहीं होंने चाहियें।
  • जिन धर्मों का जन्म स्थली भारत नहीं उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर निजि धर्म प्रसार का अधिकार नहीं होना चाहिये। विदेशी धर्मों का प्रसारण केवल जन्मजात अनुयाईयों तक ही सीमित होना चाहिये। उन्हे भारत में धर्म परिवर्तन करने की पूर्णत्या मनाही होनी चाहिये।
  • अल्पसंख्यक समुदायों के संस्थानों में किसी भी प्रकार का राष्ट्र विरोधी प्रचार, प्रसार पूर्णत्या प्रतिबन्धित होना चाहिये।
  • देश के किसी भी प्रान्त को दूसरे प्रान्तों की तुलना में विशेष दर्जा नहीं देना चाहिये।
  • अल्पसंख्यकों के विदेशियों से विवाह सम्बन्ध पूर्णत्या निषेध होने चाहियें। किसी भी विदेशी को विवाह के आधार पर भारत की नागरिकता नहीं देनी चाहिये।
  • समस्त भारत के शिक्षा संस्थानों में समान पाठयक्रम होना चाहियें। पाठयक्रम में भारत के प्राचीन ग्रन्थों को प्रत्येक स्तर पर शामिल करना चाहिये।
  • जो हिन्दू विदेशों में अस्थाय़ी ढंग से रहना चाहें या सरकारी पदों पर तैनात हों उन्हें देश की संस्कृति का ज्ञान परिशिक्षण देना चाहिये ताकि वह देश की स्वच्छ छवि विदेशों में प्रस्तुत कर सकें।
  • देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से घुस पैठ करवाना तथा उस में सहयोग करने पर आरोपियों को आजीवन कारवास अथवा मृत्यु दण्ड देने का प्रावघान होना चाहिये। निर्दोषता के प्रमाण की जिम्मेदारी आरोपी पर होनी चाहिये।

धर्म गुरूओं की जिम्मेदारी

संसार में आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, तथा राजनैतिक घटनाओं के प्रभावों से कोई वर्ग अछूता नहीं रह सकता। संन्यासियों को भी जीने के लिये कम से कम पचास वस्तुओं की निरन्तर अपूर्ति करनी पडती है। धर्म गुरूओं की भी समाज के प्रति कुछ ना कुछ जिम्मेदारी है।यदि वह निर्लेप रह कर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते तो उन्हें भी हिन्दू समाज से नकार देना ही धर्म है।

धार्मिक संस्थानों की व्यवस्था – आर्थिक दृष्टि से कई धर्म गुरू सम्पन्न और सक्षम हैं। अतः उन्हें राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के लिये सार्वजनिक स्थलों के समीप धर्म ग्रंथों के पुस्तकालय, व्यायाम शालायें, योग केन्द्र, तथा स्वास्थ केन्द्र अपने खर्चे पर स्थापित करनें चाहियें। जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक मन्दिर और सार्वजनिक स्थल को इन्टरनेट के माध्यम से दूसरे मन्दिरों से जोडना चाहिये। मन्दिरों और धार्मिक संस्थानों का नियन्त्रण अशिक्षित पुजारियों को बाजाय धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में ट्रस्ट दूारा होना चाहिये।

मन्दिरों की सुरक्षा –हमारे मन्दिर तथा पूजा स्थल सार्वजनिक जीवन के केन्द्र हैं परन्तु आज वह आतंकवादियों से सुरक्षित नहीं। सभी पूजा स्थलों और अन्य महत्वशाली स्थलों पर सशस्त्र सुरक्षा कर्मी ‘सिख सेवादारों’ की भान्ति रखने चाहियें। उन के पास आतंकवादियों के समक्ष हथियार, सम्पर्क साधन तथा परिशिक्षण होना आवश्यक हैं ताकि संकट समय सशस्त्र बलों के पहुँचने तक वह धर्म स्थल की, और वहाँ फँसे लोगों की रक्षा, स्वयं कर सकें। सशस्त्र बलों के आने के पश्चात, सेवादार उन के सहायक बन कर, अपना योगदान दे सकते हैं। सेवादारों की नियुक्ति, चैयन, परिशिक्षण, वेतन तथा अनुशासन तीर्थ स्थल के प्रशासक के आधीन होना चाहिये। इस व्यवस्था के लिये आर्थिक सहायता सरकार तथा संस्थान मिल कर करें और जरूरत पडने पर पर्यटकों पर कुछ प्रवेश शुल्क भी लगाने की अनुमति रहनी चाहिये। सेवादोरों की नियुक्ति के लिये भूतपूर्व सैनिकों तथा पुलिस कर्मियों का चैयन किया जा सकता है।

जन सुविधायें – हिन्दू तीर्थस्थलों के पर्यटन के लिये सुविधाओं, सबसिडी, और देश से बाहर हिन्दू ग्रन्थों इतिहास की शोघ के लिये परितोष्क की व्यव्स्था होनी चाहिये। हिन्दू ग्रन्थों पर शोध करने की सुविधायें प्रत्येक विश्वविद्यालय के स्तर तक उप्लब्द्ध करनी चाहिये। वर्तमान हज के प्रशासनिक तन्त्र का इस्तेमाल भारत के सभी समुदायों के लिये उपलब्द्ध होना चाहिये।

ऐतिहासिक पहचान – मुस्लिम आक्रान्ताओं दूारा छीने गये सभी हिन्दू स्थलों को वापिस ले कर उन्हें प्राचीन वैभव के साथ पुनः स्थापित करना चाहिये। अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिये सभी स्थलों और नगरों के वर्तमान नाम और पिन कोड के साथ प्राचीन नाम का प्रयोग अपने आप ही शुरु कर देना चाहिये ताकि हिन्दू समाज में जागृति आये।

दुष्प्रचार का खण्डन – मिशनरियें तथा अहिन्दू कट्टरपँथियों के दुष्प्रचार का खण्डन होना चाहिये। इस के साथ ही हिन्दू जीवन शैली के सार्थक और वैज्ञानिक आधार की सत्यता का प्रचार भी किया जाना चाहिये। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो हिन्दूओं की उप्लब्द्धियाँ विदेशियों ने हथिया लीं हैं उन पर अपना अधिकार जताना आवशयक है।

रीति-रिवाजों में सुधार – रीति-रिवाजों के बारे में अध्यात्मिक पक्ष की तुलना में यथार्थ पक्ष को महत्व दिया जाना चाहिये। व्याख्यानों दूारा अपने अनुयाईयों को हिन्दू जीवन शैली के साकारात्मक पक्ष और दैनिक जीवन में काम आने वाली राजनीति पर बल देना चाहिये ताकि अध्यात्मिक्ता के प्रभाव में अनुयाई निषक्रिय हो कर ना बैठ जायें। जिस प्रकार नैतिकता के बिना राजनीति अधर्म और अनैतिक होती है उसी प्रकार कर्महीन धर्म भी अधर्म होता है।

हिन्दू जननायकों का सम्मान– हिन्दू आदर्शों के सभी जन नायकों का सम्मान करने के लिये उन के चित्र घरों, मन्दिरों, तथा सार्वजनिक स्थलों पर लगाने चाहियें। मन्दिरों में इस प्रकार के चित्र देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलग प्रवेश दूारों पर लगाने चाहियें ताकि वह किसी की आस्थाओं के विरुद्ध ना हो और ध्यानाकर्ष्क भी रहैं।

नेतृत्व कौन करे ?

प्रश्न उठता है हिन्दूवादी संगठन कौन करे गा? हिन्दूराष्ट्र बनाने के लिये हिन्दूवादी कहाँ से आयें गे ? अगर आप का उत्तर है कि “वह वक्त आने पर हो जाये गा” या “हम करें गे” तो वह कभी नहीं सफल होगा। आजकल ‘हम’ का अर्थ ‘कोई दूसरा करे गा’ लगाया जाता है और हम उस में अपने आप को शामिल नहीं करते हैं। इस लिये अब सच्चे देश भक्तों को कर्मयोगी बन कर यह संकलप करना होगा कि “यह संगठन मैं करूँ गा और देश की पहली हिन्दूवादी इकाई मैं स्वयं बन जाऊँ गा”। अपनी सोच और शक्ति को ‘हम’ से “मैं” पर केन्द्रित कर के इसी प्रकार से आगे भी सोचना और करना होगा। “अब मुझे किसी दूसरे के साथ आने का इन्तिजार नहीं है। मुझे आज से और अभी से करना है – अपने आप को हिन्दू-राष्ट्र के प्रति समर्पित इकाई बनाना है। सब से पहले अपनी ही सोच और जीवन शैली को बदलना है। मुझे ही मन से, वचन से और कर्म से सच्चा हिन्दूवादी बनना है।”केवल यही मानस्किता हिन्दूवादियों को संगठित कर सकती है जो हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करें गे। दूसरों को उपदेश देने से कुछ नहीं होगा।

कर्म ही धर्म है

“मेरा इतिहास मुझे बार बार चेतावनी देता रहा है कि कायर, शक्तिहीन तथा असमर्थ लोगों का जीवन मृत्यु से भी बदतर और निर्थक होता है। बनावटी धर्म-निर्पेक्षता का नाटक बहुत हो चुका। भारत हिन्दू प्रधान देश है और वही रहै गा। मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। भारत मेरा देश है मैं इसे किसी दूसरे को हथियाने नहीं दूँ गा।”

“स्वदेश तथा अपने घर की सफाई के लिये मुझे अकेले ही सक्रिय होना है। कोई दूसरा मेरे उत्थान के लिये परिश्रम नहीं करे गा। हिन्दूवादी सरकार चुनने का अवसर तो मुझे केवल निर्वाचन के समय ही प्राप्त होगा किन्तु कई परिवेश हैं जहाँ मैं बिना सरकारी सहायता और किसी सहयोगी के अकेले ही अपने भविष्य के लिये बहुत कुछ कर सकता हूँ। मेरे पास समय अधिक नहीं है। मैं कई व्यक्तिगत निर्णय तुरन्त क्रियात्मक कर सकता हूँ। प्रत्येक निर्णय मुझे हिन्दूराष्ट्र की ओर ले जाने वाली सीढी का काम करे गा – जैसे किः-

  • “अपने निकटतम हिन्दू संगठन से जुड कर कुछ समय उन के साथ बिताऊँ ताकि मेरा मानसिक, बौधिक और सामाजिक अकेलापन दूर हो जाये। मेरे पास कोई संगठन न्योता देने नहीं आये गा, मुझे स्वयं ही संगठन में आपने आप जा कर जुडना है”।
  • “अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को सीखूं, अपनाऊँ और फैलाऊँ। जब ऐक सौ करोड लोग इसे मेरे साथ इस्तेमाल करें गे तो अन्तर्राष्ट्रीय भाषा हिन्दी ही बने गी। मुझे अपने पत्रों, लिफाफों, नाम प्लेटों में हिन्दी का प्रयोग करना है। मैं अंग्रेजी का इस्तेमाल सीमित और केवल अवश्यकतानुसार ही करूं गा ” ।
  • “मुझे किसी भी स्वार्थी, भ्रष्ट, दलबदलू, जातिवादी, प्रदेशवादी, अल्पसंखयक प्रचारक और तुष्टिकरण वादी राज नेता को निर्वाचन में अपना वोट नहीं देना है और केवल हिन्दू वादी नेता को अपना प्रतिनिधि चुनना है”।
  • “मुझे उन फिल्मों, व्यक्तियों और कार्यों का बहिष्कार करना है, जो मेरे ही धन से, कला और वैचारिक स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू विरोधी गतिविधियाँ करते हैं ”।
  • “मुझे जन्मदिन, विवाह तथा अन्य परिवारिक अवसरों को हिन्दू रीति रिवाजों के साथ आडम्बर रहित सादगी से मनाना है और उन्हें विदेशीकरण से मुक्त रखना है ”।
  • “जन-जागृति के लिये पत्र पत्रिकाओं तथा अन्य प्रचार स्थलों में लेख लिखूँ गा, और दूसरे साथियों के विचारों को पढूँ गा। हिन्दूओं के साथ अधिक से अधिक मेल-जोल करने के लिये मैं स्वयं अपने निकटतम घरों, पार्को, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर जा कर उन में दैनिक जीवन के सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों पर विचार-विमर्श करूँ गा”।
  • “मैं अपने देश में किसी भी अवैध रहवासी अथवा घुस पैठिये को किसी प्रकार की नौकरी य़ा किसी प्रकार की सहायता नहीं दूंगा। मैं अवैध मतदाताओं के सम्बन्ध में पुलिस तथा स्थानीय निर्वाचन आयुक्त को सूचित करूं गा ताकि उन के नाम सूची से काटे जा सकें ”।
  • “अपने निजी जीवन में उपरोक्त बातों को अपनाने का भरसक और निरन्तर प्रयत्न करते रहने के साथ साथ अपने जैसा ही कम से कम ऐक और सहयोगी अपने साथ जोडूँगा ताकि मैं अकेला ही ऐक से ग्यारह की संख्या तक पहुँच सकूँ”।

संगठित प्रयास

जब ऐक से ग्यारह की संख्या हो जाये तो समझिये आपका संगठन तैय्यार हो गया। यह संगठित टोली अब आगे भी इस तरह अपने आप को मधुमक्खी के छत्ते की तरह अन्य टोलियों के साथ संगठित कर के अपना विस्तार और सम्पर्क तेजी से कर सकती है।

धर्म रक्षा का मौलिक अधिकार

सभी देशों में नागरिकों को अधिकार है कि वह निजि जीवन में पडने वाली बाधाओं को स्वयं दूर करने का प्रयत्न करें। अपने देश को बचाने के लिये हिन्दू युवाओं की यही संगठित टोलियाँ ऐक जुट हो कर अन्य नागरिकों, नेताओं और धर्म गुरुओं का साथ प्रभावशाली सम्पर्क बना सकती हैं।

धर्मान्तरण करवाने वाले पादरियों को गली मुहल्लों से पकड कर पुलिस के हवाले करना चाहिये। उसी प्रकार आतंकवादियों और उन के समर्थकों तथा अन्य शरारती तत्वों को पकड कर पुलिस को सौंप देना चाहिये। यदि कोई लेख, चित्र, या कोई अन्य वस्तु हिन्दू भावनाओं का तिरस्कार करने के लिये सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करी जाती है तो उसे आरोपी से छीन कर नष्ट कर देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य तथा अधिकार है।

आपसी सम्पर्क के लिये मंथन और चिन्तन बैठकें करते रहना चाहिये। अपने निकट के वातावरण में दैनिक प्रतिरोधों, दूषित परम्पराओं तथा बाधाओं का निस्तारण स्वयं निर्णय कर के करते रहना चाहिये और अपना स्थानीय प्रभुत्व स्थापित करना चाहिये। अपने प्रति होने वाली शरारत का उनमूलन समस्या के पनपने और रिवाज की भान्ति स्थाय़ी रूप लेने से पहले ही कर देना उचित है।

अधिकाँश लोगों को हमारे वातावरण में हिन्दू विरोधी खतरों की जानकारी ही नहीं है। लेकिन जब हमारा घर प्रदूषित और मलिन हो रहा है तो रोने चिल्लाने के बजाये उसे सुधारने के लिये हमें स्वयं कमर कसनी होगी और अकेले ही पहल करनी होगी। दूसरे लोग अपने आप सहयोग देने लगें गे। इसी तरह से जनान्दोलन आरम्भ होते हैं। वर्षा की बून्दों से ही सागर की लहरे बनती हैं जिन में ज्वार आने से उन की शक्ति अपार हो जाती है। हमें हिन्दू महासागर को पुनः स्वच्छ बून्दों से भरना है। हिन्दू स्व-शक्ति जागृत करने के लिये किसी अवतार के चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करनी है।

निस्संदेह प्रत्येक हिन्दू से निष्ठावादी हिन्दू बन जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। कुछ अंश मात्र कृत्घन, कायर तथा गद्दार हिन्दू स्दैव भारत में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये विरोध करते रहैं गे। परन्तु उन से निराश होने की कोई जरूरत नहीं। संगठित और कृतसंकल्प टोली के सामने असंगठित और कायर भीड की कोई क्षमता नहीं होती। हिन्दू महासागर की लहरें महासुनामी का ज्वार बन कर देश के प्रदूष्ण को बहा ले जायें गी।

चाँद शर्मा

68 – अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू


बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।

बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।

प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता

शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।

दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-

  • अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
  • हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
  • भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।

युवा वर्ग की उदासीनता

इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।

लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।

आत्म सम्मान हीनतता 

इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।

जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।

आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।

हिन्दू ग्रन्थो का विरोध

जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।

इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है। 

व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।

ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।

अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।

संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता 

प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।

इतिहास का विकृतिकरण

अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।

धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।

हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।

हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य 

पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।

उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।

हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।

चाँद शर्मा

67 – अलगावादियों का संरक्षण


बटवारे पश्चात का ऐक कडुआ सच यह है कि भारत को फिर से हडपने की ताक में अल्पसंख्यक अपने वोट बैंक की संख्या दिन रात बढा रहै हैं। मुस्लिम भारत में ऐक विशिष्ट समुदाय बन कर शैरियत कानून के अन्दर ही रहना चाहते हैं। इसाई भारत को इसाई देश बनाना चाहते हैं, कम्यूनिस्ट नक्सली तरीकों से माओवाद फैलाना चाहते हैं और पाश्चात्य देश बहुसंख्यक हिन्दूओं को छोटे छोटे साम्प्रदायों में बाँट कर उन की ऐकता को नष्ट करना चाहते हैं ताकि उन के षटयन्त्रों का कोई सक्षम विरोध ना कर सके। महाशक्तियाँ भारत को खण्डित कर के छोटे छोटे कमजोर राज्यों में विभाजित कर देना चाहती हैं। 

स्दैव की तरह अस्हाय हिन्दू

भारत सरकार ‘संगठित अल्पसंख्यकों’ की सरकार है जो ‘असंगठित हिन्दू जनता’ पर शासन करती है। सरकार केवल अल्पसंख्यकों के हित के लिये है जिस की कीमत बहुसंख्यक चुकाते रहै हैं। 

विभाजन के पश्चात ही काँग्रेस ने परिवारिक सत्ता कायम करने की कोशिश शुरू कर दी थी जिस के निरन्तर प्रयासों के बाद आज इटली मूल की ऐक साधारण महिला शताब्दियों पुरानी सभ्यता की सर्वे-सर्वा बना कर परोक्ष रूप से लूट-तन्त्री शासन चला रही है। यह सभी कुछ अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण दूारा संगठित कर के किया जा रहा है। राजनैतिक मूर्खता के कारण अपने ही देश में असंगठित हिन्दू फिर से और असहाय बने बैठे हैं।

‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धान्त अनुसार ईस्ट ईण्डिया कम्पनी ने स्वार्थी राजे-रजवाडों को ऐक दूसरे से लडवा कर राजनैतिक सत्ता उन से छीन ली थी। आज अधिकाँश जनता को ‘गाँधी-गिरी’ के आदर्शवाद, नेहरू परिवार की ‘कुर्बानियों’ और योजनाओं के कागजी सब्ज बागों, तथा अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण से बहला फुसला कर उन्हे हिन्दू विरोधी बनाया जा रहा है ताकि देश का इस्लामीकरण, इसाईकरण, या धर्म-खण्डन किया जा सके। हमेशा की तरह हिन्दू आज भी आँखें मूंद कर ‘आदर्श पलायनवादी’ बने बैठे हैं जब कि देश की घरती उन्हीं के पाँवों के नीचे से खिसकती जा रही है। देश के संसाधन और शासन तन्त्र की बागडोर अल्प संख्यकों के हाथ में तेजी से ट्रांसफर होती जा रही है।

भारत के विघटम का षटयन्त्र

खण्डित भारत, मुस्लिमों, इसाईयों, कम्यूनिस्टों तथा पाशचात्य देशों का संजोया हुआ सपना है। हिन्दू विरोधी प्रसार माध्यम अल्पसंख्यकों को विश्व पटल पर ‘हिन्दू हिंसा’ के कारण ‘त्रासित’ दिखाने में देर नहीं करते। अल्पसंख्यकों को विदेशी सरकारों से आर्थिक, राजनैतिक और कई बार आतंकवादी हथियारों की सहायता भी मिलती है किन्तु काँग्रेसी राजनेता घोटालों से अपना भविष्य सुदृढ करने के लिये देश का धन लूटने में व्यस्त रहते हैं। 

विदेशी आतंकवादी और मिशनरी अब अपने पाँव सरकारी तन्त्र में पसारने का काम कर रहै हैं। विदेशी सहायता से आज कितने ही नये हिन्दू साम्प्रदाय भारत में ही संगठित हो चुके हैं। कहीं जातियों के आधार पर, कहीं आर्थिक विषमताओं के आधार पर, कहीं प्राँतीय भाषाओं के नाम पर, तो कहीं परिवारों, व्यक्तियों, आस्थाओं, साधू-संतों और ‘सुधारों’ के नाम पर हिन्दूओं को उन की मुख्य धारा से अलग करने के यत्न चल रहै हैं। इस कार्य के लिये कई ‘हिन्दू धर्म प्रचारकों’ को भी नेतागिरी दी गयी है जो लोगों में घुलमिल कर काम कर रहै हैं। हिन्दू नामों के पीछे अपनी पहचान छुपा कर कितने ही मुस्लिम और इसाई मन्त्री तथा वरिष्ठ अधिकारी आज शासन तन्त्र में कार्य कर रहै हैं जो भोले भाले हिन्दूओं को हिन्दू परम्पराओं में ‘सुधार’ के नाम पर तोडने की सलाह देते हैं।

देशों के इतिहास में पचास से सौ वर्ष का समय थोडा समय ही माना जाता है। भारत तथा हिन्दू विघटन के बीज आज बोये जा रहै हैं जिन पर अगले तीस या पचास वर्षों में फल निकल पडें गे। इन विघटन कारी श्रंखलाओं के आँकडे चौंकाने वाले हैं। रात रात में किसी अज्ञात ‘गुरू’ के नाम पर मन्दिर या आश्रम खडे हो जाते हैं। वहाँ गुरू की ‘महिमा’ का गुण गान करने वाले ‘भक्त’ इकठ्टे होने शुरू हो जाते हैं। विदेशों से बहुमूल्य ‘उपहार’  आने लगते हैं। इस प्रकार पनपे अधिकाँश गुरू हिन्दू संगठन के विघटन का काम करने लगते हैं जिस के फलस्वरूप उन गुरूओं के अनुयायी हिन्दूओं की मुख्य धारा से नाता तोड कर केवल गुरू के बनाय हुये रीति-रिवाज ही मानने लगते हैं और विघटन की सीढियाँ तैय्यार हो जाती हैं। 

मताधिकार से शासन हडपने का षटयन्त्र

अधिकाँश हिन्दू मत समुदायों में बट जाते है, परन्तु अल्पसंख्यक अपने धर्म स्थलों पर ऐकत्रित होते हैं जहाँ उन के धर्म गुरू ‘फतवा’ या ‘सरमन’ दे कर हिन्दू विरोधी उमीदवार के पक्ष में मतदान करने की सलाह देते हैं और हिन्दूओं को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो जाते हैं। शर्म की बात है ‘प्रजातन्त्र’ होते हुये भी आज हिन्दू अपने ही देश में, अपने हितों की रक्षा के लिये सरकार नहीं चुन सकते। अल्पसंख्यक जिसे चाहें आज भारत में राज सत्ता पर बैठा सकते हैं।

स्वार्थी हिन्दू राजनैता सत्ता पाने के पश्चात अल्पसंख्यकों के लिये तुष्टिकरण की योजनायें और बढा देते हैं और यह क्रम लगातार चलता रहता है। वह दिन दूर नहीं जब अल्पसंख्यक बहुसंख्यक बन कर सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार बना ले गे। हिन्दू गद्दारों को तो ऐक दिन अपने किये का फल अवश्य भोगना पडे गा किन्तु तब तक हिन्दूओं के लिये भी स्थिति सुधारने की दिशा में बहुत देर हो चुकी होगी।

अल्पसंख्यक कानूनों का माया जाल

विश्व के सभी धर्म-निर्पेक्ष देशों में समान सामाजिक आचार संहिता है। मुस्लिम देशों तथा इसाई देशों में धार्मिक र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में वैसा कुछ भी नहीं है। ‘धर्म के आधार पर’ जब भारत का विभाजन हुआ तो यह साफ था कि जो लोग हिन्दुस्तान में रहें गे उन्हें हिन्दु धर्म और संस्कृति के साथ मिल कर र्निवाह करना होगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का भेद मिटाने के लिये भारत की समान आचार संहिता का आधार भारत की प्राचीन संस्कृति पर ही होना चाहिये था।

मुस्लिम भारत में स्वेच्छा से रहने के बावजूद भी इस प्रकार की समान आचार संहिता के विरुद्ध हैं। उन्हें कुछ देश द्रोही हिन्दू राजनेताओं का सहयोग भी प्राप्त है। अतः विभाजन के साठ-सत्तर वर्षों के बाद भी भारत में सभी धर्मों के लिये अलग अलग आचार संहितायें हैं जो उन्हे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों में बाँट कर रखती हैं। भारतीय ‘ऐकता’ है ही नहीं।

सोचने की बात यह है कि भारत में वैसे तो मुस्लिम अरब देशों वाले शैरियत कानून के मुताबिक शादी तलाक आदि करना चाहते हैं किन्तु उन पर शैरियत की दण्ड संहिता भी लागू करने का सुझाव दिया जाये तो वह उस का विरोध करनें में देरी नहीं करते, क्योंकि शैरियत कानून लागू करने जहाँ ‘हिन्दू चोर’ को भारतीय दण्ड संहितानुसार कारावास की सजा दी जाये गी वहीं ‘मुस्लिम चोर’ के हाथ काट देने का प्रावधान भी होगा। इस प्रकार जो कानून मुस्लमानों को आर्थिक या राजनैतिक लाभ पहुँचाते हैं वहाँ वह सामान्य भारतीय कानूनों को स्वीकार कर लेते हैं मगर भारत में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के लिये शैरियत कानून की दुहाई भी देते रहते हैं। 

धर्म-निर्पेक्ष्ता की आड में जहाँ महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर मुस्लमानों का भीड़ नमाज़ पढ सकती है, लाऊ-डस्पीकरों पर ‘अजा़न’ दे सकती है, किसी भी हिन्दू देवी-देवता का अशलील चित्र, फि़ल्में और उन के बारे में कुछ भी बखान कर सकती है – वहीं हिन्दू मन्दिर, पूजा स्थल, और त्योहारों के मण्डप बम धमाकों से स्दैव भयग्रस्त रहते हैं। हमारी धर्म-निर्पेक्ष कानून व्यवस्था तभी जागती है जब अल्प-संख्यक वर्ग को कोई आपत्ति हो।

धर्म की आड़ ले कर मुस्लमान परिवार नियोजन का भी विरोध करते हैं। आज भारत के किस प्रदेश में किस राजनैतिक गठबन्धन की सरकार बने वह मुस्लमान मतदाता ‘निर्धारित’ करते हैं लेकिन कल जब उन की संख्या 30 प्रतिशत हो जायें गी तो फिर वह अपनी ही सरकार बना कर दूसरा पाकिस्तान भी बना दें गे और शैरियत कानून भी लागू कर दें गे।

निस्संदेह, मुस्लिम और इसाई हिन्दू मत के बिलकुल विपरीत हैं। अल्पसंख्यकों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया बिलकुल नहीं है। केवल हिन्दु ही गांधी कथित ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के सुर आलापते रहै हैं। मुस्लमानों और इसाईयों ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ कभी नहीं गाया। वह तो राष्ट्रगान वन्दे मात्रम् का भी विरोध करते हैं। उन्हें भारत की मुख्य धारा में मिलना स्वीकार नहीं।

धर्मान्तरण पर अंकुश ज़रूरी

धर्म परिवर्तन करवाने के लिये प्रलोभन के तरीके सेवा, उपहार, दान दया के लिबादे में छिपे होते हैं। अशिक्षता, गरीबी, और धर्म-निर्पेक्ष सरकारी तन्त्र विदेशियों के लिये धर्म परिवर्तन करवाने के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करते है। कान्वेन्ट स्कूलों से पढे विद्यार्थियों को आज हिन्दू धर्म से कोई प्रेरणा नहीं मिलती। भारत में यदि कोई किसी का धर्म परिवर्तन करवाये तो वह ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ कहलाता है किन्तु यदि वह हिन्दू को हिन्दू ही बने रहने के लिये कहै तो वह ‘कट्टरपँथी, रूढिवादी और साम्प्रदायक’ माना जाता है। 

इन हालात में धर्म व्यक्ति की ‘निजी स्वतन्त्रता’ का मामला नहीं है। जब धर्म के साथ जेहादी मानसिक्ता जुड़ जाती है जो ऐक व्यक्ति को दूसरे धर्म वाले का वध कर देने के लिये प्रेरित है तो फिर वह धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। इस प्रकार के धर्म को मानने वाले अपने धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं को भी दूषित करते है। अतः सरकार को उन पर रोक लगानी आवशयक है और भारत में धर्मान्तरण की अनुमति नहीं होनी चाहिये। जन्मजात विदेशी धर्म पालन की छूट को विदेशी धर्म के विस्तार करने में तबदील नहीं किया जा सकता। धर्म-निर्पेक्षता की आड में ध्रमान्तरण दूारा देश को विभाजित करने या हडपने का षटयंत्र नहीं चलाया जा सकता।

घुसपैठ का संरक्षण

धर्मान्तरण और अवैध घुसपैठ के कारण आज असम, नागलैण्ड, मणिपुर, मेघालय, केरल, तथा कशमीर आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक बन चुके हैं और शर्णार्थी बन कर दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहै हैं। वह दिन दूर  नहीं जब यह घुस पैठिये अपने लिये पाकिस्तान की तरह का ऐक और प्रथक देश भी माँगें गे।

भारत में चारों ओर से अवैध घुस पैठ हो रही है। अल्पसंख्यक ही घुसपैठियों को आश्रय देते हैं। घुसपैठ के माध्यम से नशीले पदार्थों तथा विसफोटक सामान की तस्करी भी होती है। देश की अर्थ व्यवस्था को नष्ट करने के लिये देश में नकली करंसी भी लाई जा रही है। किन्तु धर्म-निर्पेक्षता और मानव अधिकार हनन का बहाना कर के घुस पैठियों को निष्कासित करने का कुछ स्वार्थी और देशद्रोही नेता विरोघ करने लगते है। इस प्रकार इसाई मिशनरी, जिहादी मुस्लिम तथा धर्म-निर्पेक्ष स्वार्थी नेता इस देश को दीमक की तरह नष्ट करते जा रहे हैं।

तुष्टिकरण के प्रसार माध्यम

विभाजन पश्चात गाँधी वादियों ने बट चुके हिन्दुस्तान में मुसलमानों को बराबर का ना केवल हिस्सेदार बनाया था, बल्कि उन्हें कट्टर पंथी बने रह कर मुख्य धारा से अलग रहने का प्रोत्साहन भी दिया। उन्हें जताया गया कि मुख्य धारा में जुडने के बजाये अलग वोट बेंक बन कर रहने में ही उन्हें अधिक लाभ है ताकि सरकार को दबाव में ला कर प्रभावित किया जा सके । दुर्भाग्यवश हिन्दू गाँधीवादी बन कर वास्तविक्ता की अनदेखी करते रहै हैं।

उसी कडी में अल्संखयकों को ऊँचे पदों पर नियुक्त कर के हम अपनी धर्म निर्पेक्षता का बखान विश्व में करते रहै हैं। अब अल्पसंख्यक सरकारी पदों में अपने लिये आरक्षण की मांग भी करने लगे हैं। काँग्रेस के प्रधान मंत्री तो अल्पसंख्यकों को देश के सभी साधनों में प्राथमिक अधिकार देने की घोषणा भी कर चुके हैं। देशद्रोही मीडिया ने भारत को एक धर्म-हीन देश समझ रखा है कि यहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर देश को खण्डित करने का कुचक्र रच सकता है।

अल्पसंख्यक जनगणना में वृद्धि

विभाजन से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। आज भारत में मुसलमानों की संख्या फिर से 15 प्रतिशत से भी उपर बढ चुकी है। वह अपना मत संख्या बढाने में संलगित हैं ताकि देश पर अधिकार ना सही तो एक और विभाजन की करवाया जाय। विभाजन के पश्चात हिन्दूओं का अब केवल यही राष्ट्रधर्म रह गया है कि वह अल्पसंख्यकों की तन मन और धन से सेवा कर के उन का तुष्टिकरण ही करते रहैं नहीं तो वह हमारी राष्ट्रीय ऐकता को खण्डित कर डालें गे।

हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा है। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये उन्हें संकल्प ले कर कर्म करना होगा और अपने घर को प्रदूषणमुक्त करना होगा। अभी आशा की ऐक किरण बाकी है। अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर उन्हें एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे हो कर उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – बल्कि धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

61 – इस्लामीकरण का विरोध


इस्लाम को भारत में सफलता मिलने का ऐक कारण यहाँ के शासकों में परस्पर कलह, जातीय अहंकार, और राजपूतों में कूटनीति का आभाव था। वह वीरता के साथ युद्ध में मरना तो जानते थे किन्तु देश के लिये संगठित हो कर जीना नहीं जानते थे। युद्ध जीतने की चालों में पराजित हो जाते थे तथा भीतर छिपे गद्दारों को पहचानने में चूकते रहै। पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को पराजित कर के क्षमादान दिया तो अगले ही वर्ष गौरी ने कूटनीति से पृथ्वीराज चौहान को हरा कर उसे यात्नामयी मृत्यु प्रदान कर दी। इस प्रकार की घटनायें भारत के इतिहास में बार बार होती रही हैं। आज तक हिन्दूओं ने अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। 

इस्लाम ने हिन्दू धर्म की किसी भी आस्था और विशवास का आदर नहीं किया और इसी कारण दोनो ऐक दूसरे के विरोधी ही रहे हैं। भारत हिन्दूओं का जन्म स्थान था अतः जब भी सम्भव हुआ हिन्दूओं ने मुस्लिम शासन को भारत से उखाड देने के प्रयत्न भी कियेः-

  • राणा संग्राम सिहं कन्हुआ के युद्ध में मुग़ल आक्रान्ता बाबर को पराजित करने के निकट थे। बाबर ने सुलह का समय माँगा और मध्यस्थ बने राजा शिलादित्य को प्रलोभन दे कर उसी से राणा संग्राम सिहँ के विरुद्ध गद्दारी करवाई जिस के कारण राणा संग्राम सिहँ की जीत पराजय में बदल गयी। भारत में मुग़ल शासन स्थापित हो गया।
  • हेम चन्द्र विक्रमादितीय ने शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी से दिल्ली का शासन छीन कर भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित कर दिया था। अकबर की सैना को दिल्ली पर अधिकार करने से रोकने के लिये उस ने राजपूतों से जब सहायता माँगी तो राजपूतों ने उस के आधीन रहकर लडने से इनकार कर दिया था। पानीपत के दूसरे युद्ध में जब वह विजय के समीप था तो दुर्भाग्य से ऐक तीर उस की आँख में जा लगा। पकडे जाने के पश्चात घायल अवस्था में ही हेम चन्द्र विक्रमादितीय का सिर काट कर काबुल भेज दिया गया था और दिल्ली पर मुगल शासन दोबारा स्थापित हो गया।
  • महाराणा प्रताप ने अकेले दम से स्वतन्त्रता की मशाल जवलन्त रखी किन्तु राजपूतों में ऐकता ना होने के कारण वह सफल ना हो सके। अकबर और उस के पश्चात दूसरे मुगल बादशाहों ने भी राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाया और युद्ध जीते। अपने ही अपनों को मारते रहै।
  • महाराज कृष्ण देव राय ने दक्षिण भारत के विजयनगर में ऐक सशक्त हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया था किन्तु बाहम्नी के छोटे छोटे सुलतानों ने ऐकता कर के विजयनगर पर आक्रमण किया। महाराज कृष्ण देव राय अपने ही निकट सम्बन्धी की गद्दारी के कारण पराजित हो गये और विजयनगर के सम्रद्ध साम्राज्य का अन्त हो गया। 
  • छत्रपति शिवाजी ने दक्षिण भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया। औरंगज़ेब ने मिर्जा राजा जयसिहँ की सहायता से शिवा जी को सन्धि के बहाने दिल्ली बुलवा कर कैद कर लिया था। सौभागय से शिवाजी कैदखाने से निकल गये और फिर उन्हों ने औरंगजेब को चैन से जीने नहीं दिया। शिवाजी की मृत्यु पश्चात औरंगजेब ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी को भी धोखे से परास्त किया और अपमान जनक ढंग से यातनायें दे कर मरवा दिया।
  • गुरु गोबिन्द सिहं नेसवा लाख से ऐक लडाऊँ” के मनोबल के साथ अकेले ही मुगलों के अत्याचारों का सशस्त्र विरोध किया किन्तु उन्हें भी स्थानीय हिन्दू राजाओं का सहयोग प्राप्त नही हुआ था। दक्षिण जाते समय ऐक पठान ने उन के ऊपर घातक प्रहार किया जिस के ऊपर उन्हों ने पूर्व काल में दया की थी। उत्तरी भारत में सोये हुये क्षत्रित्व को झकझोर कर जगानें और सभी वर्गों को वीरता के ऐक सूत्र में बाँधने की दिशा में गुरु गोबिन्द सिहं का योगदान अदिूतीय था।

अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते रहै हैं। विश्व गुरु कहलाने वाले देश के लिये यह शर्म की बात है कि समस्त विश्व में अकेला भारत ही ऐक देश है जो हजार वर्ष तक निरन्तर गुलाम रहा था। गुलामी भरी मानसिक्ता आज भी हमारे खून मे समाई हुयी है जिस कारण हम अपने पूर्व-गौरव को अब भी पहचान नहीं सकते। 

खालसा का जन्म

मुगल बादशाह औरंगजेब ने भारत के इस्लामी करण की गतिविधियाँ तीव्र कर दीं थी। औरंगजेब को उस के सलाहकारों ने आभास करवा दिया गया था कि यदि ब्राह्मण धर्म परिवर्तन कर के मुस्लमान हो जायें गे तो बाकी हिन्दू समाज भी उन का अनुसरण करे गा। अतः औरंगजेब के अत्याचारों का मुख्य लक्ष्य हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मण थे।

कशमीर के विक्षिप्त ब्राह्मणों ने गुरु तेग़ बहादुर से संरक्षण की प्रार्थना की। गुरु तेग़ बहादुर अपने स्पुत्र गोविन्द राय को उत्तराधिकारी नियुक्त कर के औरंगजेब से मिलने दिल्ली पहुँचे किन्तु औरंगजेब ने उन्हे उन के शिष्यों समेत बन्दी बना कर उन्हें अमानवी यातनायें दीं और  गुरु तेग़बहादुर का शीश दिल्ली के चाँदनी चौक में कटवा दिया था। 

पिता की शहादत का समाचार युवा गुरु गोविन्द राय के पास पहुँचा। उन्हों ने 30 मार्च 1699 को आनन्दपुर साहिब में ऐक सम्मेलन किया और अपने शिष्यों की आत्मा को झंझोड कर धर्म रक्षा के लिये प्ररेरित किया। जन सभा में अपनी तलवार निकाल कर उन्हों ने धर्म-रक्षार्थ बलि देने के लिये ऐक शीश की माँग की। थोडे कौहतूल के पश्चात ऐक वीर उठा जिसे गुरु जी बलि देने के लिये ऐक तम्बू के भीतर ले गये। थोडे समय पश्चात खून से सनी तलवार हाथ में ले कर गुरु जी वापिस आये और संगत से ऐक और सिर बलि के लिये माँगा। उसी प्रकार बलि देने के लिये गुरु जी पाँच युवाओं को ऐक के बाद ऐक तम्बू के भीतर ले गये और हर बार रक्त से सनी हुई नंगी तलवार ले कर वापिस लौटे। संगत में भय, हडकम्प और असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गय़ी और लोग डर के इधर उधर खिसकने लगे। तब अचानक श्वेत वस्त्र पहने पाँचों युवाओं के साथ गुरु जी तम्बू से बाहर निकल आये।

जनसभा में गुरू जी ने पाँचो वीरों को ‘अमृत छका कर’ अपना शिष्य घोषित किया और उन्हे ‘खालसा’ (पवित्र) की उपाधि प्रदान कर के कहा कि प्रतीक स्वरूप पाँचों शिष्य उन के विशेष अग्रज प्रियजन हों गे। तब उन नव खालसों को कहा कि वह अपने गुरु को भी ‘अमृत छका कर’ खालसा समुदाय में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार ‘खालसा-पँथ’ का जन्म हुआ था। आज भी प्रतीक स्वरूप सिखों के धार्मिक जलूसों की अगुवाई ‘पाँच-प्यारे’ ही करते हैं।

व्यवसाय की श्रेणी से उऩ पाँच युवकों में ऐक क्षत्रिय जाति का दुकानदार था, ऐक जाट कृष्क, ऐक छिम्बा धोबी, ऐक कुम्हार, तथा ऐक नाई था किन्तु गुरु जी ने व्यवसायिक जाति की सीमाओं को तोड कर उन्हें ‘धार्मिक ऐकता’ के सूत्र में बाँध दिया और आदेश दिया कि वह अपने नाम के साथ ‘सिहँ’ (सिंघ) जोडें। उन्हें किसी का ‘दास’ कहलाने की जरूरत नहीं। गुरु गोविन्द राय ने भी अपना नाम गोबिन्द सिंहँ रख लिया। महिलाओं के योगदान को महत्व देते हुये उन्हों ने आदेश दिया कि सभी स्त्रियाँ अपने नाम के पीछे राजकीय सम्मान का सूचक ‘कौर’ (कुँवर) शब्द लगायें। दीनता और दासता की अवस्था में गिरे पडे हिन्दू समाज को इस प्रकार के मनोबल की अत्यन्त आवशयक्ता थी जो गुरु जी ने अपने मार्ग दर्शन से प्रदान की। 

दूरदर्शता और प्रेरणा के प्रतीक गुरु गोबिन्द सिहँ ने अपने नव निर्मित शिष्यों को ऐक विशिष्ट ‘पहचान’ भी प्रदान की ताकि उन का कोई भी खालसा शिष्य जोखिम के सामने कायर बन कर धर्म और शरणागत की रक्षा के कर्तव्य से अपने आप को छिपा ना सके और अपने आप चुनौती स्वीकार करे। अतः खालसा की पहचान के लिये उन्हें पाँच प्रतीक ‘चिन्ह’ धारण करने का आदेश भी दिया था। सभी चिन्ह ‘क’ अक्षर से आरम्भ होते हैं जैसे कि केश, कँघा, कछहरा, कृपाण, और कडा। इन सब का महत्व था। वैरागियों की भान्ति मुण्डे सिरों के बदले अपने शिष्यों को राजसी वीरों की तरह केश रखने का आदेश दिया, स्वच्छता के लिये कँघा, घोडों पर आसानी से सवारी कर के युद्ध करने के लिये कछहरा (ब्रीचिस), कृपाण (तलवार) और अपने साथियों की पहचान करने के लिये दाहिने हाथ में फौलाद का मोटा कडा पहनने का आदेश दिया।

हिन्दू समुदाय को जुझारू वीरता से जीने की प्ररेणा का श्रेय दसवें गुरु गोबिन्द सिहँ को जाता है। केवल भक्ति मार्ग अपना कर पलायनवाद की जगह उन्हें ‘संत-सिपाही’ की छवि में परिवर्तित कर के कर्मयोग का मार्ग अपनाने को लिये प्रोत्साहित किया। अतः उत्तरी भारत में सिख समुदाय धर्म रक्षकों के रूप में उभर कर मुस्लिम जुल्म के सामने चुनौती बन कर खडा हो गया।

इस्लामी शासन का अंत

औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात भारत में  कोई शक्तिशाली केन्द्रीय शासक नही रहा था। मुगलों में उत्तराधिकार का युद्ध लगभग 150 वर्ष तक चलता रहा। थोडे थोडे समय के लिये कई निकम्मे बादशाह आये और आपसी षटयन्त्रों के कारण चलते बने। दक्षिण तथा पूर्वी भारत योरुपीय उपनेष्वादी सशक्त व्यापारिक कम्पनियों के आधीन होता चला गया। कई मुगलिया सामन्त और सैनानायक स्वयं सुलतान बन बैठे और उपनेष्वादी योरुपियन कम्पनियों के हाथों कठपुतलियों की तरह ऐक दूसरे को समाप्त करते रहै। ऐकता, वीरता तथा देश भक्ति का सर्वत्र अभाव था। मकबरों, हरमों, तथा वैशियाओं के कोठों के साये मे बैठ कर तीतर बटेर लडवाना और फिर उन्हें भून कर खा जाना शासकों की की दिनचर्या बन चुकी थी। असुरक्षा, अशिक्षता, गरीबी, अज्ञान, अकाल, महामारियों की भरमार हो गयी और ‘सोने की चिडिया’ कहलाने वाला भारत मुस्लिम शासन के फलस्वरूप सपेरों और लुटेरो के देश की छवि ग्रहण करता गया।

इसी बीच ईरान से नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरों ने भारत आकर बची खुची धन सम्पदा लूटी और हिन्दूओं का कत्लेआम करवाया। हिन्दुस्तान का संरक्षक कोई नहीं था। मुगल शासन केवल लालकिले की चार दिवारी में ही सिमट चुका था अन्य सर्वत्र जगह अन्धकार था। भारत जिस की लाठी उस की भैंस के सिद्धान्त पर चलने लग पडा था। 

हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति का भ्रम 

इस्लाम से पूर्व जो कोई भी मानव समुदाय बाहर से आये थे, भारत वासियों ने उन सभी का सत्कार किया था, और उन के साथ ज्ञान, विज्ञान, कला दार्शनिकता का आदान प्रदान भी किया। कालान्तर वह सभी भारतीय संस्कृति से घुल मिल गये। उन सभी ने भारत को अपना देश माना। मुसलमानों की दशा इस से भिन्न थी। प्रथम तो वह स्थानीय लोगों के साथ मिल जुल कर रहने के लिये नहीं आये थे बल्कि वह भारत में आक्रान्ताओं और लुटेरों की तरह आये। उन का स्पष्ट और पूर्व घोषित मुख्य उद्देश काफिरों को समाप्त कर के इस्लामी राज्य कायम करना था जिस के चारमुख्य आधार स्तम्भ थे ‘जिहाद’, ‘तलवार’, ‘गुलामी’ और ‘जज़िया’। उन का लक्ष्य था ‘स्वयं जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’।

भारत की स्वतन्त्र, ज्ञानवर्ती विचारधारा, तथा सत्य अहिंसा की सोचविचार के सामने इस्लामी कट्टरवाद, वैचारिक प्रतिबन्ध, तथा क्रूरतम हिंसा भारत के निवासियों के लिये पूर्णत्या नकारात्मिक थी। उन के साथ सम्बन्धों का होना अपने विध्वंस को न्योता देने के बराबर था। हिन्दू समाज का कोई भी कण मुस्लिम विचारधारा और जीवन शैली के अनुकूल नहीं था। अतः हिन्दू मुस्लिम विलय की प्रतिक्रिया का सम्पूर्ण अभाव दोनो तरफ निशचित था। वह भारत में सहयोग अथवा प्रयोग वश नहीं आये थे केवल उसे हथियाने लूटने और हिन्दू सभ्यता को बरबाद करने आये थे। लक्ष्य हिन्दूओं को मित्र बनाना नहीं था बल्कि उन्हें गुलाम, या मुस्लमान बनाना था या फिर उन्हें कत्ल करना था।

जब तक मुस्लमान अपनी विचारधारा और जीवन शैली का प्रचार विस्तार अपने जन्म स्थान अरब देशों तक सीमित रखते रहे हिन्दूओं को उन के साथ कोई आपत्ति या अवरोध नहीं था। किन्तु जब उन्हों ने अपना विधान भारत वासियों पर जबरन थोपना चाहा तो संघर्ष लाज़मी था। वह जियो और जीने दो में विशवास ही नहीं करते थे जो भारतीय परम्परा का मूल आधार है। इन कारणों से इस्लाम भारत में अस्वीकारनीय हो गया।हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति ऐक राजनैतिक छलावा या भ्रम से अधिक कुछ नहीं है जिस की तुलना आग और पैट्रोल से ही करी जा सकती है।

चाँद शर्मा

57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

44 – भारत की वास्तु कला


भाषा, भोजन, भेष और भवन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने त्रेता युग में समुद्र पर पुल बाँधा था, महाभारत काल में लाक्षा ग्रह का निर्माण किया था, पाटली पुत्र से ले कर तक्षशिला तक भव्य राज मार्ग का निर्माण कर दिखाया और विश्व के प्राचीनत्म व्यवस्थित नगरों को बसाया था, लेकिन आज उन्हीं के देश में विश्व की अन्दर अपनी पहचान के लिये प्राचीन इमारत केवल ताजमहल है जिस में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की हड्डियाँ दफन हैं। हमारे सभी प्राचीन हिन्दू स्मार्क या तो ध्वस्त कर दिये गये हैं या उन की मौलिक पहचान नष्ट हो चुकी है। अधिकाँश इमारतों के साथ जुडे गौरवमय इतिहास की गाथायें भी विवादस्पद बनी हुई हैं। हमारा अतीत उपेक्षित हो रहा हैं परन्तु हम धर्म-निर्पेक्ष बनने के साथ साथ अब शर्म-निर्पेक्ष भी हो चुके हैं।

वास्तु शास्त्र

वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन आरोग्यदायक, आर्थिक दृष्टी से सम्पन्नयुक्त, आध्यात्मिक विकास के लिये  प्राकृति के अनुकूल, और सामाजिक दृष्टी से बाधा रहित होने चाहियें। तकनीक, कलाकृति तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भारत की निर्माण कला का आदि ग्रन्थ ‘वास्तु-शास्त्र’ है जिसे मय दानव ने रचा था। रावण की स्वर्णमयी लंकापुरी का निर्माण मय दानव ने किया था। नगर स्थापित्य, विस्तार, रूपरेखा तथा भवन निर्माण के बारे में वास्तु शास्त्र में चर्चित जानकारी आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रासंगिक है। इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज के ‘वैज्ञानिक-युग’ में भी भारत के बाहर रहने वाले हिन्दू आज भी अपने घरों, कर्म-शालाओं, दफतरों आदि को वास्तु शास्त्र के अनुकूल बनवाते हैं और भारी खर्चा कर के उन में परिवर्तित करवाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता

जब विश्व में अन्य स्थानों पर मानव गुफाओं में सिर छिपाते थे तब विश्व में आधुनिक रहवास और नगर प्रबन्ध का प्रमाण  सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से मिलता है। वहाँ के अवशेषों से प्रमाणित होता है कि भारतीय नगर व्यवस्था पूर्णत्या विकसित थी। नगरों के भीतर शौचालयों की व्यव्स्था थी और निकास के बन्दोबस्त भी थे। भूतल पर बने स्नानागारों में भट्टियों में सेंकी गयी पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। नालियाँ 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर बनी थीं। चौडी गलियाँ और समकोण पर चौराहे नगर की विशेषता थे। घरों के मुख्य भवन नगर की चार दिवारी के अन्दर सुरक्षित थे। इन के अतिरिक्त नगर में पानी की बावडी और नहाने के लिये सामूहिक स्नान स्थल भी था। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष हडप्पा और अन्य स्थानों पर मिले हैं परन्तु संसार के प्राचीनतम् नगर काशी, प्रयाग, अयोध्या, मथुरा, कशयपपुर (मुलतान), पाटलीपुत्र, कालिंग आदि पूर्णत्या विकसित महा नगर थे।

कृषि का विकास ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार में देखे जा सकते हैं। कृषि के लिये सर्वप्रथम जल संग्रह बाँध सौराष्ट्र में बना था जिसे शक महाराज रुद्रामणि प्रथम ने ईसा से 150 वर्ष पूर्व बनवाया था। पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस के साथ रैवाटिका पहाडी पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

मोइनजोदाडो नगर में ऐक विस्तरित स्नान स्थल था जिस में जल रिसाव रोकने के पर्याप्त बन्दोबस्त थे। स्थल ऐक कूऐं से जुडा था जहाँ से जल का भराव होता था। निकास के लिये पक्की ईंटों की नाली था। नीचे उतरने कि लिये सीढियाँ थीं, परकोटे के चारों ओर वस्त्र बदलने के लिये कमरे बने थे और ऊपरी तल पर जाने कि लिये सीढियाँ बनाई गयीं थीं। लगभल सात सौ कूऐँ मोइनजोदाडो नगर की जल आपूर्ति करते थे और प्रत्येक घर जल निकास व्यव्स्था से जुडा हुआ था। नगर में ऐक आनाज भण्डार भी था। समस्त प्रबन्ध प्रभावशाली तथा नगर के केन्द्रीय संस्थान के आधीन क्रियात्मक था। मनुस्मृति में स्थानिय सार्वजनिक स्थलों की देख रेख के बारे में पर्याप्त उल्लेख हैं। यहाँ कहना भी प्रसंगिक होगा कि जिस प्रकार बन्दी मजदूरों पर कोडे बरसा कर भव्य इमारतों का निर्माण विदेशों में किया गया था वैसा कुकर्म भारत के किसी भवन-निर्माण के साथ जुडा हुआ नहीं है।

मौर्य काल

मौर्य कालीन वास्तु कला काष्ट के माध्यम पर रची गयी है। लकडी को पालिश करने की कला इतनी विकसित थी कि उस की चमक में अपना चेहरा देखा जा सकता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने काष्ट के कई भवन, महल और भव्य स्थल बनवाये थे। उस ने बिहार में गंगा के किनारे ऐक दुर्ग 14.48 किलोमीटर लम्बा, और 2.41 किलोमीटर चौडा था। किन्तु आज किले के केवल कुछ शहतीर ही अवशेष स्वरूप बचे हैं। 

ईसा से 3 शताब्दी पूर्व सम्राट अशोक ने प्रस्तर के माध्यम से अपनी कलात्मिक पसन्द को प्रगट किया था। उन के काल की पत्थर में तराशे स्तम्भ, जालियाँ, स्तूप, सिंहासन तथा अन्य प्रतिमायें उन के काल की विस्तरित वास्तुकला के प्रमाण स्वरूप भारत में कई स्थलों पर खडे हैं।  छोटी से छोटी कला कृतियों पर सुन्दरता से पालिश करी गयी है और वह दर्पण की तरह चमकती हैं।

सारनाथ स्तम्भ अशोक काल की उत्कर्श उपलब्द्धि है। अशोक ने कई महलों का निर्माण भी करवाया किन्तु उन में अधिकतर ध्वस्त हो चुके हैं। अशोक का पाटलीपुत्र स्थित महल विशिष्ट था। उस के चारों ओर ऊची ईँट की दीवार थी तथा सब से अधिक भव्य 76.2 मीटर ऊंचा तिमंजिला महल था। इस महल से प्रभावित चीनी यात्री फाह्यान ने कहा था कि इसे तो देवताओं ने ही बनाया होगा क्यों कि ऐसी पच्चीकारी कोई मानव हाथ नहीं कर सकता। अशोक के समय से ही बुद्ध-शैली की वास्तु कला का प्रचार आरम्भ हुआ।  

गुप्त काल

गुप्त काल को भारत का सु्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में एलोरा तथा अजन्ता गुफाओं का भव्य चित्रों का निर्माण हुआ। एलोरा की विस्तरित गुफाओं के मध्य में स्थित कैलास मन्दिर एक ही चट्टान पर आधारित है। एलिफेन्टा की गुफाओं में ‘त्रिमूर्ति’ की भव्य प्रतिमा तथा विशाल खम्भों के सहारे खडी गुफा की छत के नीचे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशाल मूर्ति प्राचीन भव्यता का परिचय देती है। इस मन्दिर का मार्ग ऐक ऊचे दूार से है। अतः कितनी मेहनत के साथ चट्टान और मिट्टी के संयोग से कारीगरों ने इस का निर्माण किया हो गा वह स्वयं में आश्चर्यजनक है और आस्था तथा दृढनिश्चय का ज्वलन्त उदाहरण है।

पश्चिमी तट पर काली चट्टान पर बना बुद्ध-मन्दिर प्रथम शताब्दी काल का है। यह मन्दिर दुर्गम चोटी पर निर्मित है तथा इस का मुख दूार अरब सागर की ओर है और दक्षिणी पठार और तटीय घाटी से पृथक है। 

यद्यपि दक्षिण पठार पर निर्मित अधिक्तर मन्दिर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ध्वस्त या कुरूप कर दिये थे परन्तु सौभाग्य से भारत की प्राचीन वास्तु कला की भव्यता और उस के विनाश की कहानी सुनाने के लिये दक्षिण भारत में कुछ मन्दिरों के अवशेष बचे हुये हैं।

मीनाक्षी मन्दिर मदुराई –शिव पार्वती को समर्पित सातवी शताब्दी में निर्मितमीनाक्षी मन्दिरहै जिस का विस्तार 45 ऐकड में फैला हुआ था। इस मन्दिर का वर्गाकारी निर्माण रेखागणित की दृष्टी से अपने आप में ही ऐक अचम्भा है। मन्दिर स्वर्ण तथा रत्नों से सम्पन्न था। इसी मन्दिर में शिव की नटराज मूर्ति स्थित है। दीवारों तथा स्तम्भों पर मूर्तिकला के उत्कर्श नमूने हैं। इसी मन्दिर से जुडा हुआ ऐक सहस्त्र स्तम्भों (वास्तव में 985) का प्रांगण है और प्रत्येक स्तम्भ केवल हाथ से आघात करने पर ही संगीत मयी ध्वनि देकर इस मन्दिर की भव्यता के विनाश की करुणामयी गाथा कहता है। इस को 1310 में सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी के हुक्म से मलिक काफूर ने तुडवा डाला था।

भारत के सूर्य मन्दिर 

भारत में सूर्य को आनादि काल से ही प्रत्यक्ष देवता माना गया है जो विश्व में उर्जा, जीवन, प्रकाश का स्त्रोत्र और जीवन का आधार है। अतः भारत में कई स्थलों पर सूर्य के  भव्य मन्दिर बने हुये थे जिन में मुलतान (पाकिस्तान), मार्तण्ड मन्दिर (कशमीर), कटरामाल (अलमोडा), ओशिया (राजस्थान) मोढेरा (गुजरात), तथा कोणार्क (उडीसा) मुख्य हैं। सभी मन्दिरों में उच्च कोटि की शिल्पकारी तथा सुवर्ण की भव्य मूर्तियाँ थीं और सभी मन्दिर मुस्लिम आक्राँताओं ने लूट कर ध्वस्त कर डाले थे।

  • कोणार्क के भव्य मन्दिर का निर्माण 1278 ईस्वी में हुआ था। मन्दिर सूर्य के 24 पहियों वाले रथ को दर्शाता है जिस में सात घोडे जुते हैं। रथ के पहियों का व्यास 10 फुट का है और प्रत्येक पहिये में 12 कडियाँ हैं जो समय गणना की वैज्ञानिक्ता समेटे हुये हैं। मन्दिर के प्रवेश दूार पर दो सिहं ऐक हाथी का दलन करते दिखाये गये हैं।  ऊपर जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। मन्दिर के चारं ओर पशु पक्षियों, देवी देवताओं तथा स्त्री पुरुषों की भव्य आकृतियाँ खजुरोहो की भान्ति नक्काशी गयी हैं। मूर्ति स्थापना की विशेषता है कि बाहर से ही सूर्य की किरणेसूर्य देवता की प्रतिमा कोप्रातः, सायं और दोपहर को पूर्णत्या प्रकाशित करती हैं। इस भव्य मन्दिर के अवशेष आज भी अपनी लाचारी बयान कर रहै हैं।
  • मोढेरा सूर्य मन्दिर गुजरात में पशुपवती नदी के तट पर स्थित है जिस की पवित्रता और भव्यता का वर्णन सकन्द पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। इस स्थान का नाम धर्मारण्य था। रावण वध के पश्चात भगवान राम ने यहाँ पर यज्ञ किया था और कालान्तर 1026 ईस्वी में सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम नें मोढेरा सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था। मन्दिर में कमल के फूल रूपी विशाल चबूतरे पर सूर्य की ऱथ पर आरूढ सुवर्ण की प्रतिमा थी। मन्दिर परिसर में ऐक विशाल सरोवर तथा 52 स्तम्भों पर टिका ऐक मण्डप था। 52 स्तम्भ वर्ष के सप्ताहों के प्रतीक हैं। स्तम्भों तथा दीवारों पर खुजुरोहो की तरह की आकर्षक शिल्पकला थी। शिल्पकला की सुन्दरता का आँकलन देख कर ही किया जा सकता है। आज यह स्थल भी हिन्दूओं की उपेक्षा का प्रतीक चिन्ह बन कर रह गया है।
  • मुलतान (पाकिस्तान) में भी कभी भव्य सूर्य मन्दिर था। मुलतान विश्व के प्राचीनतम् दस नगरों में से ऐक था जिस का नाम कश्यप ऋषि के नाम से कश्यपपुर था। इस नगर को प्रह्लाद के पिता दैत्य हरिण्यकशिपु ने स्थापित किया था। इसी नगर में हरिण्यकशिपु की बहन होलिका ने प्रह्लाद गोद में बिठा कर उसे जलाने का यत्न किया था परन्तु वह अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। कश्यपपुर महाभारत काल में त्रिग्रतराज की राजधानी थी जिसे अर्जुन ने परास्त किया था। पश्चात इस नगर का नाम मूल-स्थान पडा और फिर अपभ्रंश हो कर वह मुलतान बन गया। सूर्य के भव्य मन्दिर को महमूद गज़नवी ने ध्वस्त कर दिया था।

भारत से बाहर भी कुछ अवशेष भारतीय वास्तु कला की समृद्धि की दास्तान सुनाने के लिये प्रमाण स्वरूप बच गये थे। अंगकोर (थाईलैण्ड) मन्दिर ऐक विश्व स्तर का आश्चर्य स्वरूप है। भारतीय सभ्यता ने छः शताब्दियों तक ईरान से चीन सागर, साईबेरिया की बर्फानी घाटियों से जावा बोरनियो, और सुमात्रा तक फैलाव किया था और अपनी भव्य वास्तुकला, परम्पराओं, और आस्थाओ से धरती की ऐक चौथाई जनसंख्या को विकसित कर के प्रभावित किया था। 

राजपूत काल

झाँसी तथा ग्वालियार के मध्य स्थित दतिया और ओरछा के राजमहल राजपूत काल के उत्कर्ष नमूने हैं। यह भवन सिंगल यूनिट की तरह हैं जो तत्कालिक मुग़ल परम्परा के प्रतिकूल है। दतिया के नगर में यह भव्य महल प्राचीन काल की भव्यता के साक्षी हैं। महल की प्रत्येक दीवार 100 गज लम्बी चट्टान से सीधी खडी की गयी है। यह निर्णय करना कठिन है कि मानवी कला और प्राकृति के बीच की सीमा कहाँ से आरम्भ और समाप्त होती है। सभी ओर महानता तथा सुदृढता का आभास होता है। क्षतिज पर गुम्बजों की कतार उभर कर इस स्थान के छिपे खजानों के रहिस्यों का प्रमाण देती है। 

ओरछा के समीप खजुरोहो के मन्दिर विश्व से पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह भारत की अध्यात्मिक्ता, भव्यता, तथा विलास्ता के इतिहास के मूक साक्षी हैं। हाल ही में ऐक देश भक्त ने निजि हेलीकोप्टर किराये पर ले कर महरोली स्थित कुतुब मीनार के ऊपर से फोटो लिये थे और उन चित्रों को कई वेबसाईट्स पर प्रसारित किया था। ऊपर से कुतुब मीनार ऐक विकसित तथा खिले हुये कमल की तरह दिखता है जिसे पत्थर में तराशा गया है। उस की वास्तविक परिकल्पना पूर्णत्या हिन्दू चिन्ह की है।

समुद्र पर पुल बाँधने का विचार भारत के लोगों ने उस समय किया जब अन्य देश वासियों को विश्व के मभी महा सागरों का कोई ज्ञान नहीं था।  इस सेतु को अमेरिका ने चित्रों को माध्यम से प्रत्यक्ष भी कर दिखाया है और इस को ऐडमेस-ब्रिज (आदि मानव का पुल) कहा जाता है किन्तु विश्व की प्राचीनत्म धरोहर रामसेतु को भारत के ही कुछ कलंकित नेता घ्वस्त करने के जुगाड कर रहै थे। भारत सरकार में इतनी क्षमता भी नहीं कि जाँच करवा कर कह सके कि राम सेतु मानव निर्मित है य़ा प्रकृतिक। हमारी धर्म-निर्पेक्ष सरकार मुगलकालीन मसजिदों के सौंदर्यकरण पर खर्च कर सकती है लेकिन हिन्दू मन्दिरों पर खर्च करते समय ‘धर्मनिर्पेक्षी-विवशता’ की आड ले लेती है।

चाँद शर्मा

 

टैग का बादल