हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘लार्ड मैकाले’

63 – अंग्रेजों की बन्दर बाँट


अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी स्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की अपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के विपरीत भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी, जो इस्लाम की देन थी।

दासता का जाल

योरपीय व्यापारिक कम्पनियाँ सैनिक क्षमता के साथ छद्म भेष में भारत आईं थी। उन के पास उत्तम हथि्यार, तोपें, गोला बारूद तथा अनुशासित सैनिक और कर्मठ कर्मचारी थे। परस्परिक ईर्षा और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होते हुये भी इसाई धर्म नें उन को ऐक सूत्र में बाँधे रखा। अब उन के पास अपने आप को भारतियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और सभ्य कहलाने का मनोबल भी था जिस का योरुपीय आगन्तुकों ने पूरा फायदा उठाया। लोभ और भय का प्रयोग कर के उन्हों ने इसाई धर्म का प्रचार किया और स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन किये। अपने अधिकार क्षेत्रों को सुदृढ करने के पश्चात उन्हों ने मूर्ख और स्वार्थी शासकों की आपसी कलह को विस्तार देना आरम्भ किया। ऐक को दूसरे से लड़वा कर स्वयं न्यायकर्ता के रूप में ढलते गये। भूखी बिल्लियों के झगडे में मध्यस्तता करते करते बन्दर पूरी रोटी के मालिक बन बैठे। अन्ततः ब्रिटेन ने अन्य योरुपीय देशों से बाझी मार ली। भारत में इंगलैण्ड की व्यवसासिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘कम्पनी-बहादुर’ के नाम से सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बन कर भारत के मूर्ख, झगडालू, तथा ईर्षालू शासकों को पालतु कुत्तों की तरह पीठ थप-थपा कर शासन करने लगी। 

‘कम्पनी बहादुर’ ने 1857 तक भारत पर राज्य किया। उस के पश्चात सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गयी। हिन्दूओं की अपेक्षा मुस्लमान कई स्थानों पर सत्ता में बने हुये थे। इसाईयों के लिये उन का धर्म परिवर्तन करवाना कठिन था क्यों कि कट्टरपंथी मानसिक्ता के कारण धर्म परिवर्तन करने से मुस्लिम समाज परवर्तितों का बहिष्कार कर देता था। हिन्दूओं के पास ना तो सत्ता थी ना ही कट्टरपंथी मानसिक्ता। अतः वह धर्म परिवर्तन का सुगम लक्ष्य बनते रहै।

अंग्रेज़ी पिठ्ठुओं का उदय

1857 के ‘स्वतन्त्रता-संग्राम’ के युद्ध की घटनाओं को दोहराने की आवश्यक्ता नहीं जो कि जन साधारण की ओर से ‘इसाईकरण’ का विरोध था। कुछ ऐक को छोड कर अधिकतर राजाओं के ‘व्यक्तिगत कारण’ थे जिन की वजह से उन्हों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाय़ी थी। भारतीयों की आपसी फूट, तालमेल की कमी और अधिकाँश राजघरानों की देश के प्रति गद्दारी के कारण 1857 का जन आन्दोलन संगठित अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विफल हो गया। उस के पश्चात अंगेजी शासक अधिक सावधान हो गये और उन्हों ने अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये नाम मात्र ‘सुधारों’ की आड ले ली।

भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ‘सलतनते इंग्लिशिया’ (महारानी विक्टोरिया) के अधिकार में चला गया। अपने शासन को भारत में स्वीकृत करवाने के लिये अंग्रेजों ने मिथ्या प्रचार किया कि जैसे मध्य ऐशिया से भारत आये आर्यों ने ‘स्थानीय द्राविड लोगों को दास बना कर’ अपना शासन कायम किया था, उसी प्रकार अंग्रेज भी यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे हैं और उन का जीवन ‘सुधार’ रहै हैं। इस मिथ्याप्रचार की सफलता में हिन्दू धर्म ही ऐक मात्र बाधक था जिसे मिटाना अंग्रेजों के लिये जरूरी था।

मैकाले शिक्षा पद्धति 

इस्लामी शासन के समय में हिन्दूओं का पठनपाठन बिखर गया था। मुस्लिम जन साधारण को ज्ञान के अन्दर कोई दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजों ने भारतियों को अपनी सोच विचार के अनुरूप ढालने के लिये नयी शिक्षा प्रणाली लागू की जिस का मूल जनक लार्ड मैकाले था। उस शिक्षा पद्धति का मुख्य उद्देश्य हिन्दूओं में अपने प्राचीन ग्रन्थों और पूर्वजों के प्रति अविशवास जगाना था तथा अंग्रेजी सभ्यता, सोच विचार, रहन सहन के प्रति भारतियों को लुभाना था ताकि जीवन के हर क्षेत्र में वह अपने स्वाभिमान को स्वयं ही त्याग कर अंग्रेजी मानसिक दासता सहर्ष स्वीकार कर लें और उसे आगे फैलायें। उस शिक्षा प्रणाली को ‘धर्म-निर्पेक्ष वैज्ञिानिक सोच’ का नाम दे दिया गया। जो कुछ भारतीय था वह ‘रूढी-वाद’ और दकियानूसी घोषित कर दिया गया। 

काँग्रेस का छलावा

ऐक अन्य अंग्रेज ऐ ओ ह्यूम ने मैकाले पद्धति से पढे भारतियों के लिये ऐक नया अर्ध राजनैतिक संगठन इंडियन नेशनल काँग्रेस के नाम से आरम्भ किया जिस का मुख्य उद्देश्य मामूली पढे लिखे भारतियों को सलतनते इंग्लिशिया के स्थानीय सरकारी तन्त्र का ‘हिस्सा’ बना कर साधारण जन-जीवन से दूर रखना था ताकि वह अपनी राजनैतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति अंग्रेजी खिलौनों से कर के संतुष्ट रहैं। अंग्रेजों के संरक्षण में बने इस राजनैतिक संगठन से उन्हें कोई भय नहीं था और उन का अनुमान सही निकला।

‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर अंग्रेजों ने कुछ औपचारिक ‘सुधार’ भी किये थे जिन का मूल उद्देश्य उपनेष्वादी तन्त्र को मजबूत करना था। लिखित कानून लागू किये गये। स्थानीय रीति रिवाज अंग्रेजी मुनसिफों को समझाने के लिये ब्राह्मण तथा मौलवी सलाहकारों (ऐमिक्स-क्यूरी) की नियुक्ति का प्रावधान न्यायालयों में किया गया था। ब्राह्मणों के पास परिवार चलाने के लिये रीति-रिवाज करवाने की दक्षिणा के अतिरिक्त आमदनी का कोई साधन नहीं रहा था। अतः उन्हों ने अपने स्वार्थ हित में रीतिरिवाजों को अधिक जटिल तथा खर्चीला बना दिया। जन साधारण रीति रिवाजों को आडम्बर और बोझ समझ कर उन से विमुख होने लगे। परिणाम अंग्रेजों के लिये हितकर था। उन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने के और भी बहाने मिलने लगे। ग़रीब लोग हिन्दू धर्म को त्याग कर इसाई बनने लगे। इस्लामी शासन के समय चली हुई बाल विवाह, सती प्रथा, तथा कन्या हत्या (दुख्तर कशी) इत्यादि कुरीतियों को निषेध करवाने हिन्दू समाज सुधारक आगे आये परन्तु अंग्रेजी पद्धति से शिक्षशित लोगों ने उन सुधारों का श्रेय भी अंग्रेजों को ही दिया।

इतिहास से छेड-छाड

भारत का प्रचीन इतिहास तो इस्लामी आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था। पौराणिक प्रयाग का नाम अकबर ने ‘इलाहबाद’ रखवा दिया था, महाभारत का पाँचाल ‘फरुखाबाद’ बन चुका था। ऱाम की अयोध्या नगरी में राम मन्दिर के मल्बे से बाबरी मस्जिद बनवा कर उस का नाम ‘फैजाबाद’ रख दिया गया था। अधिकतर हिन्दू नगरों और पूजा स्थलों को नष्ट कर के उन्हीं के स्थान पर इस्लामी स्मारक बन चुके थे। भारतीय इतिहास का पुनर्वालोकन करने कि लिये लंका, बर्मा, तिब्बत, चीन तथा कुछ अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों से अंग्रजों ने कुछ बचे खुचे ग्रन्थों को आधार बनाया। टूटी कडियों को जोडने के लिये उन्हों ने ‘अंग्रेजी हितों के अनुरूप’ मन घडंत तथ्यों का समावेश भी किया।

वैचारिक दासता

मानसिक आधीनता के कारण हमारी वैचारिक स्वतन्त्रता नष्ट हो चुकी थी। हम ने प्रत्येक तथ्य को अंग्रेजी मापदण्डों के अनुसार परखना शुरु कर दिया था। जो कूछ योरुप वासियों को नहीं पता था या जिस तथ्य का अनुमोदन वह नहीं करते थे वह हमारे ‘देसी बुद्धिजीवियों’ को भी ‘स्वीकृत’ नहीं था चाहे वही तथ्य हमारे सम्मुख अपने स्थूल रूप में विद्यमान खडा हो। लन्दन में ब्रिटिश संग्रहालय ज्ञान का विश्ष्ट मन्दिर बन चुका था जहाँ दुनिया भर से लूटे और चुराये गये पुरात्त्वों को सजा कर रखा जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र में “ग्रेट ब्रिटैन विश्व की इकलौती महा शक्ति बन चुका था। उन्हों ने भारत में भी अपने समर्थक बुद्धिजीवियों की ऐक सशक्त टोली खडी कर ली थी जो उन की राजनैतिक सत्ता और वैचारिक प्रभुत्व को सुदृढ करने में जुट चुकी थी।  

सामाजिक, वेष-भूषा, खान-पान, आमोद-प्रमोद, शिक्षा और विचारधारा के हर क्षेत्र में इस्लामी परम्पराओं की अपेक्षा हिन्दूओं का ब्रिटिश सभ्यता से अधिक प्रभावित होना स्वाभाविक था क्योंकि वास्तव में वह हिन्दू परम्पराओं के मूल रूप का ही ‘विकृत संस्करण’ थीं। सहज में ही अंग्रेजी प्रशासनिक क्रिया पद्धति, शिक्षण-प्रणाली, तथा दैनिक काम-काज में नापतोल, कैलेँडर, समय सारिणी, खेल-कूद, कानूनी परिभाषाये, व्यापारिक रीतिरिवाजों ने स्थानीय परम्पराओं को स्थगित कर के अपनी जगह बना ली। चमक दमक के कारण अंग्रेजी पद्धतियां प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान हो गयी।

यह व्यंगात्मक है कि हिन्दूओं ने यद्यपि अंग्रेजी माध्यम से अपने ही पूर्वजों के लगाये हुये पौधों के फलों पर मोहित होना स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह योरुप की चमकीली पालिश के नीचे छुपे तथ्यों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके जो उन्हीं के अपने ही पूर्वजों के लगाये गये बीज थे। हिन्दू चिन्ह मिट चुकने के कारण अन्तिम उत्पाद पर योरोपियन मुहर लग चुकी थी जिस कारण आज अंग्रेज प्रगति और विज्ञान के जन्मदाता समझे जाते हैं।

हिन्दू गौरव का पुनरोत्थान

हालात सुधरे तो धीरे धीरे सत्यता भी उभरी। उन्नीसवी शताब्दी में कई हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन शुरु हुये  जिन के कारण अन्धेरी सुरंग के पार कुछ रौशनी दिखायी पडने लगी। भारत वासियों ने अधुनिक विश्व को पुनः देखना आरम्भ किया। बीसवीं शताब्दी में भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध तथा दिूतीय विश्व युद्ध में भाग लिया और अपने रक्त से विदेशी शासन को सींचा। उस का सकारात्मिक प्रभाव भारत के हित में था। भारतीय तब तक तत्कालिक शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों से दूर रहे थे। विश्व युद्धों के कारण भारत के जन साधारण ने योरुप तथा अन्य देशों की प्रगति को जब अपनी आँखों से देखा तो उन के अन्दर भी अपने देश को आगे बढाने की भावना पुनः जागृत हुई। उन्हों ने दूसरे देशों के नागरिकों को स्वतन्त्र राष्ट्र के रुप में देखा तो उन की स्वतन्त्र रहने की भावना ने चिंगारी का रूप लिया जिस के फलस्वरूप ही लोगों में स्वतन्त्रता के लिये चेतना की भावना उमड कर तीव्र होती गयी। 

स्वतन्त्रता की चिंगारी

भारतवासियों में सब से पहले ऐ ओ ह्यूम की बनाई काँग्रेस में ही देश की प्रशास्निक व्यवस्था में अधिकार पाने की आकाँक्षा ने जन्म लिया। किन्तु मैकाले पद्धति से प्रशिक्षित उन भारतियों की मांग केवल स्थानीय प्रशासन तक ही सीमित थी जिसे अंग्रेजी सरकार ने कुछ उल्ट फैर के साथ मान लिया। धीरे धीरे काँग्रेस में लोकमान्य तिलक जैसे स्वाभिमानी राष्ट्रवादी नेता भी जुडने लगे और उन्हों ने स्वतन्त्रता को अपना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ जता कर ब्रिटिश सरकार की नीन्द उडा दी। परिणामस्वरूप उन्हें ‘विद्रोही’ बना कर अभियोग चलाये गये और कालेपानी की घोर यातनायें दी गयीं। स्वतन्त्रता की मांग को लेकर चिंगारी तो भडक उठी थी जिस ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जब हिंसक घटनायें होने लगीं तो अंग्रेजों को बातचीत में फुसलाये रखने के लिये अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों की जरूरत आन पडी।

विश्व युद्धों पश्चात पूरे विश्व में उपनेषवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग किसी ना किसी रूप में उठने लग गयी थी। युद्धों में नष्ट हुये साधनो के कारण ब्रिटिश सरकार के लिये उपनेषवादी सरकारों को चलाये रखना कठिन होता जा रहा था। भारत में एक ओर तो उन्हों ने उग्र स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रताडित किया तो दूसरी ओर अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों के साथ बात चीत का ढोंग किया और कुछ गिने चुने गाँधी, नेहरू और जिन्नाह जैसे नेताओं को हिन्दू मुस्लमानो का प्रतिनिधि बना कर भारत का बटवारा करने की योजना बनाई ताकि किसी ना किसी तरह से विक्षिप्त भारत को अपने प्रभाव में रख कर भविष्य में भी परोक्ष रूप से उपनेषवादी लाभ उठाये जा सकें।  

भारत का बटवारा

15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत को हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया और सत्ता ‘ब्रिटिश मान्य’ हिन्दू मुस्लिम प्रतिनिधियों को सौंप दी। मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी जिस के फलस्वरूप भारत के ऐक तिहाई भाग को भारत वासियों से छीन लिया और उन्हें उन के शताब्दियों पुराने रहवासों से खदेड भी दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की ‘इण्डियन नेशनेलिटी रहने के बावजूद वह पाकिस्तान से स्दैव के लिये खदेड दिये गये।

उल्लेखनीय है कि बटवारे से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ नहीं रहना चाहते थे इसलिये पाकिस्तान की मांग के पक्ष में 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान तो किया लेकिन जब घर बार छोडकर अपने मनचाहे देश में जाने का वक्त आया तो सिर्फ 15 प्रतिशत  मुसलमान ही पाकिस्तान गये थे। 85 प्रतिशत मुस्लमानों ने पाकिस्तान मिलने के बाद भी हिन्दुस्तान में आराम से बैठे रहै थे। विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में सदियों से रहते चले आ रहे हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया। वहां लाखों हिन्दुस्तानियों को केवल हिन्दु-सिख होने के कारण अपना घर-सामान सब छोड. कर पाकिस्तान से निकल कर भारत आना पडा परन्तु भारत में पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कर के भी मुसलमान अपने घरों में सुरक्षित बने रहे।

चाँद शर्मा

53 – भारतीय बुद्धिमता की चमक


विदेशी इतिहासकारों का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी विदेशों से विद्यार्थी भारत स्थित तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे। इस के विपरीत भारत के स्नात्क शिक्षा का प्रसारण करने के लिये  ही विदेशों में जाते थे।

लार्ड मैकाले की भारत में शिक्षा प्रसारण नीति के बाद जो भी इतिहास की पुस्तकें भारत के स्कूलों और कालेजों में पढाई जाने लगीं थीं उन में सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व काल का इतिहास ही नदारद था। केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि मगध सम्राट महा पद्म घनानन्द की सैनिक शक्ति की आहट मात्र से सिकन्दर के सैनिक इतने डर गये थे कि उन्हों ने अपने विश्व विजेता को स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया। लेकिन नन्द वँश या उस से पहले के वँशों के बारे में कोई उल्लेख अंग्रेज़ी इतिहास में नहीं मिलते। ऐसा तो हो नहीं सकता कि ऩन्द जैसा शक्तिशाली साम्राज्य ऐक ही वर्ष में पैदा हो गया था जिस से विश्व विजेता सिकन्दर की सैना भी डर जाये।

वह कौन थे जिन्हों ने तक्षशिला और नालन्दा जैसे विश्व विद्यालय स्थापित किये थे? सपेरे? लुटेरे, या फिर अन्धविशवासी? किन्तु इन सभी प्रश्नो पर इतिहास मौन है। पाश्चात्य इतिहासकारों ने सिकन्दर पूर्व इतिहास को माइथोलोजी बता कर उसे नकार रखा है और उसी दिशा में हमारी पहचान को मिटाने की भरसक कोशिशें आज भी जारी हैं। दुर्भाग्यवश मैकाले शिक्षानीति के दुष्प्रभाव के कारण अपने देश के नक्काल ‘बुद्धिजीवी’ भी अंग्रेज़ी इतिहास को ही सत्य मान कर अपने साँस्कृतिक इतिहास को भुलाना स्वीकार कर बैठे हैं। हमारे इतिहास पर काला पर्दा डालने के पीछे ईसाईयों की स्वार्थी कुटिल नीति और सोची समझी साजिश थी।

सत्य को दबाया तो गया परन्तु विदेशी सर्जित इतिहास में से भी भारत के गौरवमय तथ्य सिर उठा कर सत्य को छिपाने के प्रमाण स्वरूप बोलते हैं।

योरुप की प्रथम जागृति

भारत की समृद्धि तथा विकास के चर्चे तो यूनान तथा सभी देशों में सिकन्दर के भारत आगमन से पूर्व ही थे। सिकन्दर भारत के सीमावर्ती पंजाब क्षेत्र के तक्षशिला विश्व विद्यालय से अति प्रभावित था। उसी से प्रेरणा ले कर सिकन्दर ने मिस्त्र में सिकन्दरिया (एलेग्ज़ेन्डरिया) नाम के विश्व विद्यालय का निर्माण करवाया था जो कालान्तर भारतीय तथा यूनानी विद्या प्रसार के केन्द्र के तौर पर विकसित हो गया। इस के पश्चात ही सिकन्दर ने मिस्त्र, ऐशिया माईनर, ईरान, बेकटीरिया तथा उत्तर पश्चिमी भारत के प्रान्तों को मिला कर अपनी हैलेनिस्टिक ऐम्पायर स्थापित की थी जिस के माध्यम से भारतीय कलाओं और ज्ञान विज्ञान का यूनान की ओर निर्यात बढ गया।

प्रचुर संख्या में भारतीय ग्रन्थों का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया तथा उन्हे सिकन्दरिया के पुस्कालय में रखा गया। सिकन्दर अपने साथ कई बुद्धिजीवियों और ब्राह्मणों को भी यूनान ले गया था । कालान्तर सिकन्दरिया मैडिटरेनियन प्रदेश में ऐक महत्वशाली महानगर के रूप में विकसित हुआ। वहाँ का पुस्कालय तथा पुरातत्वालय योरुप का प्रथम अन्तराष्ट्रीय विद्याध्यन केन्द्र बन गया था। योरुपीय देशों की प्रथम जागृति की शुरात यहीं से हुयी थी।

सिकन्दर के यूनानी सिपाहियों ने भारतीय तथा ईरानी महिलाओं से विवाह भी किये थे और उन्हें अपने साथ स्वदेश ले गये थे। दोनो देशों के बीच व्यापारिक तथा राजनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गये थे। सिकन्दर के उत्तराधिकारी सैल्युकस ने तो अपनी पुत्री का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दिया था और उसी के फलस्वरूप यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने लगा था। मैगस्थनीज़ ने भारत के गौरवशाली वातावर्ण के इतिहास पाश्चात्य बुद्धजीवियों के लिये लिख छोडा है।

पाईथागोरस

य़ोरुप में विद्या के आधुनिकीकरण की नींव पाईथागोरस ने भारतीय गणित को यूनान में प्रसारित कर के डाली थी। पाईथागोरस की जीवनी उस की मृत्यु के लगभग दो शताब्दी पश्चात टुकडों में उजागर हुयी जिस से पता चलता है कि उस का जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व ऐशिया माईनर के ऐक दूीप सामोस पर हुआ था। संगीत और जिमनास्टिक की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वह मिस्त्र चला गया और बेबीलोन तथा उस के आसपास के क्षेत्रों में कुछ काल तक रहा था। उस क्षेत्र में भारतीय दर्शन ज्ञान, उपनिष्दों, गणित तथा रेखागणित का प्रसार और प्रभाव था सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय स्थापित होने से पूर्व ही था। भारतीय संगीत के धरातल पर ही पाईथागोरस ने पाशचात्य संगीत पद्धति की आधार शिला बनाई थी।

जब पाईथागोरस भारतीय प्रभाव के क्षेत्र में था तब ईरान ने मिस्त्र पर आक्रमण किया। पाईथागोरस को भी बन्दियों के साथ ईरान ले जाया गया । कालान्तर पाईथागोरस ईरान से पंजाब तक भारत में भी गया जहाँ उस ने यूनानी रीति रिवाज और वस्त्र त्याग कर भारत के पहाडी ढंग के टराउजर्स की तरह के परिधान अपना लिये थे। उसी तरह का परिधान पहने महारज कनिष्क को भी ऐक प्रतिमा में दिखाया गया है जो अफगानिस्तान में पाई गई थी। प्रतिमा में सम्राट कनिष्क को डबल ब्रेस्टिड कोट के साथ टराउजर्स पहने दिखाया गया है। यूनान में उस समय तक टराउजर्स नहीं पहनी जाती थीँ। टराउजर्स की ही तरह के पायजामे और सलवारें भारत ईरान घाटी में पहने जाते थे। अतः पाईथागोरस ने भारतीय रेखागणित के साथ साथ भारतीय वेश भूषा भी योरुप में प्रचिल्लत की थी।

भारतीय विचारघारा का प्रसार

लगभग बीस वर्षों तक पूर्वी देशों में रहने के उपरांत पाईथागोरस योरुप वापस जा कर इटली के क्रोटोन प्रान्त में रहने लगा। वहाँ पर यूनानी भाषा का प्रचार भी था। उस ने अपने मित्रों तथा शिष्यों की ऐक मणडली बनाई। उस टोली ने संसार को विश्व स्तरीय परिवार  – वसुदैव कुटम्बकम् के अनुरूप प्रचार किया तथा निजि जीवन में अनुशासित रहने पर भी बल दिया। 

पाईथागोरस ने पुनर्जीवन में विभिन्न शरीर पाने के भारतीय विचार को भी व्यक्त किया। उस ने अपने पुनर्जन्मों के समर्ण रखने का दावा किया तथा सभी जीवों में ऐकीकरण का भारतीय सिद्धान्त दोहराया। अपनी टोली के सदस्यों को जीवों  के प्रति दया और अहिंसा का बर्ताव करने को कहा। पाईथागोरस का कथन था कि जो जीवों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करे गा वह पुनर्जन्म अनुसार अगला जन्म पशु योनि में लेगा।

पाईथागोरस के प्रचार के फलस्वरूप यूनान में बुद्धिजीवियों का समाज जिन में सुकरात, अफलातून, अरस्तु (क्रमशः सोक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टोटल) आदि तथा कई अन्य उस के विचारों का उनुमोदन करने लगे। उन्हों ने भारतीय परम्परा के चार महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु का अनुमोदन तो किया किन्तु आकाश का यथार्थ नहीं समझ पाये। अतः यूनानी बुद्धिजीवियों ने आकाश तत्व का प्रतिपादन महाभूतों में नहीं किया।

योरूपीय जागरुक्ता के प्रेरक

जिन ग्रन्थों और सिद्धान्तों ने सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय के माध्यम से पाश्चात्य जगत में विचार क्रान्ति को प्रोत्साहन दे कर योरुप वासियों की प्रथम चेतना या प्रथम जागृति (फर्स्ट अवेकनिंग) को जगाया उन में से कुछ मुख्य भारतीय विषय इस प्रकार हैं –

  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में काम करने वाले ऐक यूनानी खगोल शास्त्री अरिस्टारक्स ने  300 –250 में सौर मण्डल का सिद्धान्त घोषित किया जो कालान्तर शताब्दियों पश्चात कोपरनिकस नें भी अपनाया और उसे विकसित किया।
  • सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में ही काम करने वाले ऐक अन्य यूनानी खगोल शास्त्री इराटोस्थनीज ने 250-200 में आकाश का ऐक मानचित्र बनाया जिस में 675 तारे दिखाये। उस ने पृथ्वी का व्यास भी नापा जो लगभग आधुनिक आँकडों के समीप मिलता जुलता था।  
  • रोमन सैना के साथ काम करने वाले ऐक य़ूनानी चिकित्साशास्त्री डियोकोरिडिस 01 –100 ने वनस्पतियों का अध्ययन कर के उन से औषधि तैयार करने पर शोध किया और डी माटेरा मैडिका नाम का ऐक ग्रन्थ रचा जिसे बाद में अरब वासियों ने भी संरक्षित किया। वह योरुप का प्रथम औषधि ग्रन्थ था तथा उस में 600 पौधों और 1000 औषधियों का उल्लेख किया गया था।
  • मिस्त्र में खगोल शास्त्री पटोल्मी (127 ईस्वी) ने पटोल्मी सिद्धान्त की व्याख्या कर के पृथ्वी को स्थिर और ग्रहों को पृथ्वी की परिक्रमा करते उल्लेखित किया। पाश्चात्य जगत में पटोल्मी सिद्धान्त का यही भ्रमात्मिक सिद्धानत 16 वी शताब्दी तक मान्य रहा। इस भ्रम का निकोलस कोपरनिकस ने खण्डन किया था और कहा कि सौर मण्डल का केन्द्र पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है जो केन्द्र में स्थिर है। वास्तव में तो यह सिद्धान्त भी प्राचीन भारतीय उल्लेखों के सामने अधूरा ही था क्यों कि भारतीय अपने सूर्य को भी अस्थिर घोषित कर चुके थे और कोटि कोटि ब्रह्माण्डों की घोषणा भी कर चुके थे।
  • ईसा के 200 वर्ष पश्चात पलोटिनस नें अपनी रचना इनीडस में जगत को ऐक ही स्त्रोत्र से व्यक्त हो रही श्रंखलाओं की कडी बताया। उस का कथन हिन्दू मतानुसार यय़ार्थ के अधिक निकट था।

सिकंद्रिया का विनाश

47 ईस्वी में जुलियस सीजर तथा पोम्पी महान के बीच युद्ध हुआ जिस के फलस्वरूप सिकन्द्रीया पुस्तकालय जल गया। ज्ञान के क्षेत्र में यह मानवता के लिये बहुत बडी दुर्घटना थी क्यों कि इस विनाश में 40,000 से अधिक ग्रन्थ अग्नि में क्षति ग्रस्त हो गये थे।

दूसरी शताब्दी में रोम ऐक महाशक्ति के रूप में उजागर हुआ। नये नये ईसाई रंग में डूबे रोम-वासियों ने यूनानी सभ्यता के सभी चिन्हों और उन की अर्जित अथवा संकलित की हुई ज्ञान सम्पदा का विनाश कर दिया। रोम वासियों ने अपने राज्य का विस्तार उत्तरी अफरीका, ऐशिया माईनर तथा दक्षिणी योरूप तक फैला दिया जिस के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के सभी अंश जो चर्च की सम्मति से मेल नहीं खाते थे नष्ट कर दिये गये। यूनानी नगर ध्वस्त कर दिये गये, ज्ञान अर्जन – सर्जन रुक गये तथा बुद्धिजीवी मार डाले गये। कुछ थोडे यूनानी बुद्धिजीवी जान बचा कर योरुप के अन्य भागों में छिप सकने में सफल हो गये थे। वह कुछ ग्रंथों को अपने साथ ले जा पाये थे और चोरी छिपे बिजेन्टिन काल तक गुप्त ढंग से शोध कार्य करते रहै।

529 ईस्वी में जसटिन लेन ले ऐथेंस (यूनान) में अफलातून (प्लेटो) की अकादमी के बचे खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये और यूनानी ज्ञान भण्डार योरुप से पूर्णत्या मिट गये। ईसाईयो ने पेगनिज्म फैलाने का आरोप लगा कर बुद्धिजीवियों को मार डाला और उन के ग्रन्थ नष्ट कर दिये। इस प्रकार आज ज्ञान विज्ञान का ढिंढोरा पीटने वाले ईसाईयों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपना विनाशात्मिक योगदान दिया जो इतिहास के पृष्टों पर सुरक्षित है।

जो यूनानी बुद्धिजीवी संयोगवश बच सके थे उन्हों ने ईरान में शरण ली तथा वनवास में ही उन्हों ने अपनी अकादमी स्थापित कर के निजि ज्ञान यात्रा जारी रखी।

योरुपीय जागृति 

आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप में 14-15 वीं शताब्दी में हुआ जिसे उन के अपने इतिहास में पुनर्जागृति (रिनेसाँ) कहा जाता है। प्राचीन ग्रंथ फिर से खोज निकाले गये जिन में से युक्लिड की ज्योमैट्री, पटोल्मी की जियोग्राफी तथा गालेन की मेडिसन मुख्य थीं। यह वह समय था जब भारत में तुगलक तथा लोधी वंशजकों का राज्य था और उत्तर – पश्चिम दिशा से मुगलों के आक्रमण भी हो रहे थे। राजनैतिक उथल पथल तथा राजकीय संरक्षण के अभाव के कारण भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान भी लुप्त अवस्था में पहुँच चुका था।

यह वह काल था जब पूर्व में सूर्यास्त हो कर पश्चिम दिशा से उदय हो रहा था। भारत में मुसलिम शासकों ने अन्धकार युग फैला दिया था। हिन्दू ज्ञान विज्ञान ग्रन्थों के ढेर कुफर के नाम से जलाये जा रहे थे तथा हिन्दू बुद्धजीवियों का कत्ले आम साधारण दिनचर्या की बात बन चुकी थी। सभी वर्गों से सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणों का हो रहा था।

सौभाग्य से उस समय कुछ ग्रन्थ विनाश से बचा लिये गये थे। कुछ भारत से बाहर ले जाये जा चुके थे और वहाँ भी बचा लिये गये थे। उन्हीं ग्रन्थों से आधुनिक विज्ञान के अंकुर ने योरुप में पुनर्जन्म लिया और उस को रिनेसाँ का नाम दिया गया। जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद फैला तो योरुपीय संयोजकों ने उसी ज्ञान को अपना व्याख्यात कर के उन पर नये स्रजनकर्ताओं के नाम लिख दिये। भारतीय विद्या भण्डारों का हस्तान्तिकरण हो गया।

चाँद शर्मा

 

 

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

टैग का बादल