हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘ब्रह्मा’

50 – प्राचीन वायुयानों के तथ्य


भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

  • मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
  • आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1.     ऋगवेद– इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

  • जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
  • कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
  • त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
  • त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
  • वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
  • विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2.     यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3.         विमानिका शास्त्र 1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

  • विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।
  • विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं। 
  • इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। 
  • ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4.         यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

  • अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
  • अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
  • अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

  • पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
  • शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
  • शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।
  • शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
  • शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
  • निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
  • आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
  • चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
  • स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
  • हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे। 

5.         समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था।  पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

  • रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
  • सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
  • त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
  • शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं 

6.         कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय  ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

चाँद शर्मा

 

45 – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति


“संगीत है शक्ति ईश्वर की हर सुर में बसे हैं राम

रागी जो सुनाये राग मधुर, रोगी को मिले आराम।”

भारत में देवी देवताओं से ले कर साधारण मानवों तक हर किसी के जीवन में संगीत किसी ना किसी रूप में जुडा हुआ है। संगीत-रहित जीवन की कलपना केवल नारकीय जीवन के साथ ही करी जा सकती है। गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं को संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना गया है।

लिखित कला और विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी संगीत का स्थान विश्व में प्राचीनतम है। संगीत को विज्ञान तथा कला, दोनो के क्षेत्र में समान महत्व मिला है। जैसे दैविक शक्तियों को शस्त्रों के साथ जोडा गया है उसी प्रकार संगीत के वाद्य यंत्रो और नृत्यों को भी देवी देवताओं के साथ जोडा गया है। भगवान शिव डमरू की ताल के साथ ताँडव नृत्य करते हैं, तो देवी सरस्वती वीणा वादिनी हैं। भगवान विष्णु के प्रतीक कृष्ण वँशी की तान सुनाते हैं और रास नृत्य भी करते थे। देवऋषि नारद तथा राक्षसाधिपति रावण वीणा वादन में पारंगत हैं। गाँडीवधारी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुधर होने के साथ साथ नृत्य शिक्षक भी हैं। अप्सराओं तथा गाँधर्वों का तो संगीत कला के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान हैं। भारत में देवी देवताओं से ले कर जन साधारण तक सभी का जीवन संगीत मय है। हर कोई संगीत को जीवन का मुख्य अंग मानता है।

संगीत के प्राचीन ग्रन्थ

सामवेद के अतिरिक्त भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’ संगीत कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय संगीत पद्धति में ‘स्वरों’ तथा उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’ (इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट, वादन क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’ (रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।

वाद्य यन्त्र गायन का अनुसरण और संगत करते थे। वादक ऐकल प्रदर्शन (सोलो परफारमेंस) के अतिरिक्त जुगलबन्दी (ड्येट), तथा वाद्य वृन्द (आरकेस्ट्रा) में भी भाग लेते थे। वाद्य वृन्द में ‘तन्त्र-वाद्य’ (मिजराफ से बजाये जाने वाले), ‘तत-वाद्य’ ( गज से बजाये जाने वाले) ‘सुश्रिर-वाद्य’ (बाँसुरी आदि) तथा ‘घट-वाद्य’ ताल देने वाले वाद्य) आदि सभी वाद्य सम्मिलित थे। आज के सिमफनी आरकेस्ट्रा में भी वाद्यों के मुख्य अंग यही होते है क्यों कि ‘ब्रास (ट्रम्पेट आदि) और वुडविण्ड (कलारिनेट आदि) वाद्य भी सुश्रिर-वाद्यों की श्रेणी में आ जाते हैं।

संगीत का विकास और प्रसार

हिन्दू मतानुसार मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। नाद-साधन (म्यूजिकल साउँड) भी मोक्ष प्राप्ति का ऐक मार्ग है। नाद-साधन के लिये ऐकाग्रता, मन की पवित्रता, तथा निरन्तर साधना की आवश्यक्ता है जो योग के ही अंग हैं। आनन्द की अनुभूति ही संगीत साधना की प्राकाष्ठा है। संगीत के लिये भक्ति भावना अति सहायक है इस लिये संगीत आरम्भ से ही मन्दिरों, कीर्तनों (डिस्को), तथा सामूहिक परम्पराओं के साथ जुडा रहा है।  भारत का अनुसरण करते हुये पाश्चात्य देशों में भी संगीत का आरम्भ और विकास चर्च के आँगन से ही हुआ था फिर वह नाट्यशालाओं में विकसित हुआ, और फिर जनसाधारण के साथ लोकप्रिय संगीत (पापुलर अथवा पाप म्यूज़िक) बन गया।

छन्द-गायन तथा जातीय-गायन वैदिक काल से ही वैदिक परम्पराओं के साथ जुड गया था जिस का उल्लेख महाकाव्यों, और सामाजिक साहित्य में मिलता है। भारत में यह कला ईसा से कई शताब्दियाँ पूर्व ही पूर्णत्या विकसित हो चुकी थी। इसी सामूहिक कंठ-गायन को पाश्चात्य जगत में कोरल संगीत कहा जाता है।

वैदिक छन्द-गायन की परम्परायें लिखित थीं। छन्दोग्य उपनिष्द पुजारी वर्ग को समान गायन परिशिक्षण देने का महत्वपूर्ण माध्यम था। ‘समन’ का गायन और वीणा के माध्यम से वादन दोनो होते थे। मन्दिरों के प्राँगणों में नृत्य भी पूजा अर्चना का अंग था। मन्दिरों से पनप कर यह कला राजगृहों तथा उत्सवों को सजाने लग गयी और फिर समस्त सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मुस्लिम काल में संगीत राज घरानों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया था। 

प्रथम दशक में भारतीय संगीत सम्बन्धी साहित्य के कई मौलिक ग्रँथ उपलब्ध हैं जिन से संगीत के विकास का पता चलता है। सप्तवीं शताब्दी में मातँगा कृत ‘बृहदेशी’ ऐक मुख्य ग्रँथ है जिस में प्रथम बार ‘राग’ का वर्णन किया गया है। अन्य कृति शारंगदेव का ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’ है जो तेहरवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस में तत्कालिक शौलियों, पद्धतियों और परम्पराओं का विस्तरित उल्लेख है।

ईसा से 200-300 वर्ष पूर्व पिंगल ने संगीत पद्धति के क्षेत्र में योग्दान दिया है। उस के आलेखों में बाईनरी संख्या तथा ‘पास्कल-त्रिभुज’ का आलेख भी मिलता है। संगीत के क्षेत्र में ‘श्रुति’ (ध्वनि का सूक्षम रूप जो सुना और अनुसरन किया जा सके) का आधार वायु में आन्दोलन कारी तरंगें है जिन्हें ‘अनुराणना’ (टोनल हार्मनीज) कहा जाता है। दो या उस से अधिक श्रुतियों को मिला कर स्वरों की रचना भारत के संगीतिज्ञ्यों ने करी थी।

राग पद्धति

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति रागों पर आधारित है । रागों की उत्पत्ति ‘थाट’ से होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’ मानी गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’ थाटों का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, पूर्वी, मारवा और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव (मूड – थीम) का घोतक है। राग शब्द सँस्कृत के बीज शब्द ‘रंज’ से लिया गया है। अतः प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन करना अनिवार्य है अन्यथ्वा आपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता। हिन्दूस्तानी संगीत में प्रत्येक राग अपने निर्धारित समय पर अधिक प्रभावकारी होता है जबकि इस प्रकार की समय-सारणी पाश्चात्य संगीत में नहीं है।

गायक हो या वादक, वह निर्धारित सीमा के अन्दर रह कर ही  अपने मनोभावों का संगीत के माध्यम से प्रदर्शन करता है। इस के साथ साथ वह संगत करने वाले ताल वाद्य की समय सीमा में भी बन्धा रहता है। उसे का प्रदर्शन निर्धारित ‘आवृतियों’ में ही कर के दिखाना होता है। इस की तुलना में पाश्चात्य संगीत में गीतों के लिये किसी विशिष्ट समय की प्रतिबन्धित मर्यादा नहीं होती। समस्त पाश्चात्य संगीत भारत के पाँच थाटों में समा जाता है। हिन्दुस्तानी संगीत में ‘धुन’ (मेलोडी) की प्रधानता रहती है जबकि पाश्चात्य संगीत में संगत (हार्मनी) प्रधान है। दोनो का सम्बन्ध क्रमशः आत्मा और शरीर के जैसा है।   

स्वर मालिका तथा लिपि

भारतीय संगीत शास्त्री अन्य कई बातों में भी पाश्चात्य संगीत कारों से कहीं आगे और प्रगतिशील थे। भारतीयों ने ऐक ‘सप्तक’ ( सात स्वरों की क्रमबद्ध लडी – ‘सा री ग म प ध और नि को 22 श्रुतियों (इन्टरवल) में बाँटा था जब कि पाश्चात्य संगीत में यह दूरी केवल 12 सेमीटोन्स में ही विभाजित करी गयी है। भारतीयों ने स्वरों के नामों के प्रथम अक्षर के आधार पर ‘सरगमें’ बनायी जिन्हें गाया जा सकता है। ईरानियों और उन के  पश्चात मुसलमानों ने भी भारतीय स्वर मालाओं (सरगमों) को अपनाया है। 

स्वरों की पहचान के लिये पाश्चात्य संगीतिज्ञों ने ग्यारहवीं शताब्दी में पहले ‘डो री मी फा सोल ला ती आदि शब्दों का प्रयोग किया, और फिर ‘ला ला’, ‘मम’ ‘ओ ओ’ आदि आवाजों का इस्तेमाल किया जिन का कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय समानता के विचार से अब पाश्चात्य संगीत के स्वर अंग्रेजी भाषा के अक्षरों से ही बना दिये गये हैं जैसे कि ‘ऐ बी सी डी ई एफ जी’ – लेकिन उन का भी संगीत के माधुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं। उन की आवाज की ऊँच-नीच और काल का अनुमान स्वर लिपि की रेखाओं (स्टेव) पर बने अनगिनित चिन्हों के माध्यम से ही लगाया जाता है। इस की तुलना में भारतीय स्वर लिपि को उन की लिखावट के अनुसार ही तत्काल गाया और बजाया जा सकता है। स्वरों के चिन्ह भी केवल बारह ही होते हैं। अन्य कई बातों में भी भारतीय संगीत पद्धति पाश्चात्य संगीत पद्धति से बहुत आगे है लेकिन उन सब का उल्लेख करना सामान्य रुचि का विषय नहीं है। 

भारतीय परम्पराओं का पश्चिम में असर

पाश्चात्य संगीत की थ्योरी के जनक का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तु को जाता है जो ईसा से 300 वर्ष पूर्व हुये थे। अब पिछले कई वर्षों से पाश्चात्य संगीतज्ञ्य भारतीय संगीत की परम्पराओं में दिलचस्पी ले रहे हैं। 22 श्रुतियों के भारतीय सप्तक को उन्हों नें 24 अणु स्वरों (माईक्रोटोन्स) में बाँटने की कोशिश भी करी है। वास्तव में उन्हों ने अपने 12 सेमीटोन्स को दुगुणा कर दिया है। उस के लिये ऐक नया की-बोर्ड (पियानो की तरह का वाद्य) बनाया गया था जिस में ऐक सफेद और ऐक काला परदा (की) जोडा गया था परन्तु वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। इस की तुलना में भारत के उच्च कोटि के वादक और गायक 22 श्रुतियों का सक्ष्मता के साथ प्रदर्शन करते हैं। सारंगी भारत का ऐक ऐसा वाद्य है जिस पर सभी माईक्रोटोन्स सुविधा पूर्वक निकाले जा सकते हैं। 

चतु्र्थ से छटी शताब्दी तक गुप्त काल में कलाओं का प्रदर्शन अपने उत्कर्श पर पहुँच चुका था। इस काल में संस्कृत साहित्य सर्वोच्च शिखर पर था और ओपेरानृत्य नाटिकाओं का भारत में विकास हुआ। इसी काल में संगीत की पद्धति का निर्माण भी हुआ। उसी का पुनरालोकन पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे ने पुनः आधुनिक काल में किया है जिसे अब हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति कहा जाता है। इस के अतिरिक्त दक्षिण भारत में कर्णाटक संगीत भी प्रचल्लित है। दोना पद्धतियों में समानतायें तथा विषमतायें स्वभाविक हैं।

भारतीय संगीत को जन-जन तक पहुँचाने में सिने जगत के संगीत निर्देशकों का प्रमुख महत्व है जिन में संगीतकार नौशाद का योग्दान महत्वशाली है जिन्हों ने इस में पाश्चात्य विश्ष्टताओं का समावेश सफलता से किया लेकिन भारतीय रूप को स्रवोपरि ही रखा।

भारतीय नृत्य कला

भारतीय नृत्य की गौरवशाली परम्परा ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है।  भारत का सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त नृत्य प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता काल की ऐक मुद्रा है जिस में ऐक नृत्याँगना को हडप्पा के अवशेषों पर नृत्य करते दिखाया गया है। भारत के लिखित इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से 200 ईसा पूर्व तक की कडी टूटी हुई है।

भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र अनुसार देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना करी थी कि वह संसार को ऐक ऐसी कला प्रदान करें जिस से वेदों का ज्ञान जनसाधारण में फैलाया जा सके। इस प्रकार शिव ने चारों वेदों से कुछ कुछ अंश ले कर ‘पँचम-वेद’ की रचना की जिसे ‘नाट्य’ कहा गया। शिव ने ऋगवेद से ‘नाद’, सामवेद से ‘स्वर’, अथर्व वेद से ‘अभिनय’ तथा यजुर्वेद से ‘गायन’ लिया। इसी लिये शिव को प्रदर्शन कलाओं का आराध्य देव माना जाता है।

शिव के अनुरोध पर पार्वती ने कोमल ‘लास्य’ शैली नृत्य का सृजन किया तथा असुर राजकुमारी ऊषा को इस की शिक्षा दी। ऊषा ने उस शैली को भारत के पश्चिमी भाग में प्रचिलित किया। इस शैली का प्रथम लास्य नृत्य इन्द्र के विजय-ध्वजारोहण समारोह पर किया गया था। असुरों ने जब वह नृत्य देखा तो उन्हों ने इसे नयी युद्धघोषणा समझ लिया तथा उन्हें ब्रह्मा जी ने समझा बुझा कर शान्त किया। ब्रह्मा जी ने आदेश दिया कि भविष्य में लास्य नृत्य केवल पृथ्वी पर ही किया जाये गा।

विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर के साथ लास्य नृत्य किया था तथा मुद्राओं के दूारा उसी का हाथ उस के सिर पर रखवा कर भस्मासुर को भस्म करवाया था। कृष्ण ने भी कालिया नाग मर्दन के समय और गोपियों के साथ जो रास नृत्य किया था वह भी लास्य नृत्य का ही अंग माना जाता है। शिव का अन्य नृत्य ताँडव नृत्य होता है जिस में रौद्र भाव प्रधान होता है।

भरत मुनि रचित नाट्य-शास्त्र की परिभाषानुसार नाट्य कला में मंच पर प्रदर्शित करने योग्य सभी विषय नृत्य की श्रेणा में आते हैं जैसे कि नृत्य के साथ साथ नाटक और संगीत। संगीत का नाट्य के साथ योग अवश्य है क्यों कि इस का नाटक में बहुत महत्व है।

नाट्य शास्त्रानुसार नृतः, नृत्य, और नाट्य में तीन पक्ष हैं –

  • नृतः केवल नृत्य है जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं। यही आजकल का ऐरोबिक नृत्य है।
  • नृत्य में भाव-दर्शन की प्रधानता है जिस में चेहरे, भंगिमाओं तथा मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है।
  • नाट्य में शब्दों और वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है।

भारत में कई शास्त्रीय नृत्य की की शैलियाँ हैं जिन में ‘भरत-नाट्यम’, ‘कथक’, ‘कथकली’, ‘मणिपुरी’, ‘कुचीपुडी’ मुख्य हैं लेकिन उन सब का विस्तरित वर्णन यहाँ प्रसंगिक नहीं।

इस के अतिरिक्त कई लोक नृत्य हैं जिन में गुजरात का ‘गरबा’, पंजाब का ‘भाँगडा’ तथा हरियाणा का ‘झूमरा’ मुख्य हैं। सभी लोक नृत्य भारतीय जन जीवन के किसी ना किसी पक्ष को उजागर करते हैं प्रमाणित करते हैं कि भारतीय जीवन पूर्णत्या संगीत मय है। 

चाँद शर्मा

44 – भारत की वास्तु कला


भाषा, भोजन, भेष और भवन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने त्रेता युग में समुद्र पर पुल बाँधा था, महाभारत काल में लाक्षा ग्रह का निर्माण किया था, पाटली पुत्र से ले कर तक्षशिला तक भव्य राज मार्ग का निर्माण कर दिखाया और विश्व के प्राचीनत्म व्यवस्थित नगरों को बसाया था, लेकिन आज उन्हीं के देश में विश्व की अन्दर अपनी पहचान के लिये प्राचीन इमारत केवल ताजमहल है जिस में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की हड्डियाँ दफन हैं। हमारे सभी प्राचीन हिन्दू स्मार्क या तो ध्वस्त कर दिये गये हैं या उन की मौलिक पहचान नष्ट हो चुकी है। अधिकाँश इमारतों के साथ जुडे गौरवमय इतिहास की गाथायें भी विवादस्पद बनी हुई हैं। हमारा अतीत उपेक्षित हो रहा हैं परन्तु हम धर्म-निर्पेक्ष बनने के साथ साथ अब शर्म-निर्पेक्ष भी हो चुके हैं।

वास्तु शास्त्र

वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन आरोग्यदायक, आर्थिक दृष्टी से सम्पन्नयुक्त, आध्यात्मिक विकास के लिये  प्राकृति के अनुकूल, और सामाजिक दृष्टी से बाधा रहित होने चाहियें। तकनीक, कलाकृति तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भारत की निर्माण कला का आदि ग्रन्थ ‘वास्तु-शास्त्र’ है जिसे मय दानव ने रचा था। रावण की स्वर्णमयी लंकापुरी का निर्माण मय दानव ने किया था। नगर स्थापित्य, विस्तार, रूपरेखा तथा भवन निर्माण के बारे में वास्तु शास्त्र में चर्चित जानकारी आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रासंगिक है। इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज के ‘वैज्ञानिक-युग’ में भी भारत के बाहर रहने वाले हिन्दू आज भी अपने घरों, कर्म-शालाओं, दफतरों आदि को वास्तु शास्त्र के अनुकूल बनवाते हैं और भारी खर्चा कर के उन में परिवर्तित करवाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता

जब विश्व में अन्य स्थानों पर मानव गुफाओं में सिर छिपाते थे तब विश्व में आधुनिक रहवास और नगर प्रबन्ध का प्रमाण  सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से मिलता है। वहाँ के अवशेषों से प्रमाणित होता है कि भारतीय नगर व्यवस्था पूर्णत्या विकसित थी। नगरों के भीतर शौचालयों की व्यव्स्था थी और निकास के बन्दोबस्त भी थे। भूतल पर बने स्नानागारों में भट्टियों में सेंकी गयी पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। नालियाँ 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर बनी थीं। चौडी गलियाँ और समकोण पर चौराहे नगर की विशेषता थे। घरों के मुख्य भवन नगर की चार दिवारी के अन्दर सुरक्षित थे। इन के अतिरिक्त नगर में पानी की बावडी और नहाने के लिये सामूहिक स्नान स्थल भी था। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष हडप्पा और अन्य स्थानों पर मिले हैं परन्तु संसार के प्राचीनतम् नगर काशी, प्रयाग, अयोध्या, मथुरा, कशयपपुर (मुलतान), पाटलीपुत्र, कालिंग आदि पूर्णत्या विकसित महा नगर थे।

कृषि का विकास ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार में देखे जा सकते हैं। कृषि के लिये सर्वप्रथम जल संग्रह बाँध सौराष्ट्र में बना था जिसे शक महाराज रुद्रामणि प्रथम ने ईसा से 150 वर्ष पूर्व बनवाया था। पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस के साथ रैवाटिका पहाडी पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

मोइनजोदाडो नगर में ऐक विस्तरित स्नान स्थल था जिस में जल रिसाव रोकने के पर्याप्त बन्दोबस्त थे। स्थल ऐक कूऐं से जुडा था जहाँ से जल का भराव होता था। निकास के लिये पक्की ईंटों की नाली था। नीचे उतरने कि लिये सीढियाँ थीं, परकोटे के चारों ओर वस्त्र बदलने के लिये कमरे बने थे और ऊपरी तल पर जाने कि लिये सीढियाँ बनाई गयीं थीं। लगभल सात सौ कूऐँ मोइनजोदाडो नगर की जल आपूर्ति करते थे और प्रत्येक घर जल निकास व्यव्स्था से जुडा हुआ था। नगर में ऐक आनाज भण्डार भी था। समस्त प्रबन्ध प्रभावशाली तथा नगर के केन्द्रीय संस्थान के आधीन क्रियात्मक था। मनुस्मृति में स्थानिय सार्वजनिक स्थलों की देख रेख के बारे में पर्याप्त उल्लेख हैं। यहाँ कहना भी प्रसंगिक होगा कि जिस प्रकार बन्दी मजदूरों पर कोडे बरसा कर भव्य इमारतों का निर्माण विदेशों में किया गया था वैसा कुकर्म भारत के किसी भवन-निर्माण के साथ जुडा हुआ नहीं है।

मौर्य काल

मौर्य कालीन वास्तु कला काष्ट के माध्यम पर रची गयी है। लकडी को पालिश करने की कला इतनी विकसित थी कि उस की चमक में अपना चेहरा देखा जा सकता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने काष्ट के कई भवन, महल और भव्य स्थल बनवाये थे। उस ने बिहार में गंगा के किनारे ऐक दुर्ग 14.48 किलोमीटर लम्बा, और 2.41 किलोमीटर चौडा था। किन्तु आज किले के केवल कुछ शहतीर ही अवशेष स्वरूप बचे हैं। 

ईसा से 3 शताब्दी पूर्व सम्राट अशोक ने प्रस्तर के माध्यम से अपनी कलात्मिक पसन्द को प्रगट किया था। उन के काल की पत्थर में तराशे स्तम्भ, जालियाँ, स्तूप, सिंहासन तथा अन्य प्रतिमायें उन के काल की विस्तरित वास्तुकला के प्रमाण स्वरूप भारत में कई स्थलों पर खडे हैं।  छोटी से छोटी कला कृतियों पर सुन्दरता से पालिश करी गयी है और वह दर्पण की तरह चमकती हैं।

सारनाथ स्तम्भ अशोक काल की उत्कर्श उपलब्द्धि है। अशोक ने कई महलों का निर्माण भी करवाया किन्तु उन में अधिकतर ध्वस्त हो चुके हैं। अशोक का पाटलीपुत्र स्थित महल विशिष्ट था। उस के चारों ओर ऊची ईँट की दीवार थी तथा सब से अधिक भव्य 76.2 मीटर ऊंचा तिमंजिला महल था। इस महल से प्रभावित चीनी यात्री फाह्यान ने कहा था कि इसे तो देवताओं ने ही बनाया होगा क्यों कि ऐसी पच्चीकारी कोई मानव हाथ नहीं कर सकता। अशोक के समय से ही बुद्ध-शैली की वास्तु कला का प्रचार आरम्भ हुआ।  

गुप्त काल

गुप्त काल को भारत का सु्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में एलोरा तथा अजन्ता गुफाओं का भव्य चित्रों का निर्माण हुआ। एलोरा की विस्तरित गुफाओं के मध्य में स्थित कैलास मन्दिर एक ही चट्टान पर आधारित है। एलिफेन्टा की गुफाओं में ‘त्रिमूर्ति’ की भव्य प्रतिमा तथा विशाल खम्भों के सहारे खडी गुफा की छत के नीचे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशाल मूर्ति प्राचीन भव्यता का परिचय देती है। इस मन्दिर का मार्ग ऐक ऊचे दूार से है। अतः कितनी मेहनत के साथ चट्टान और मिट्टी के संयोग से कारीगरों ने इस का निर्माण किया हो गा वह स्वयं में आश्चर्यजनक है और आस्था तथा दृढनिश्चय का ज्वलन्त उदाहरण है।

पश्चिमी तट पर काली चट्टान पर बना बुद्ध-मन्दिर प्रथम शताब्दी काल का है। यह मन्दिर दुर्गम चोटी पर निर्मित है तथा इस का मुख दूार अरब सागर की ओर है और दक्षिणी पठार और तटीय घाटी से पृथक है। 

यद्यपि दक्षिण पठार पर निर्मित अधिक्तर मन्दिर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ध्वस्त या कुरूप कर दिये थे परन्तु सौभाग्य से भारत की प्राचीन वास्तु कला की भव्यता और उस के विनाश की कहानी सुनाने के लिये दक्षिण भारत में कुछ मन्दिरों के अवशेष बचे हुये हैं।

मीनाक्षी मन्दिर मदुराई –शिव पार्वती को समर्पित सातवी शताब्दी में निर्मितमीनाक्षी मन्दिरहै जिस का विस्तार 45 ऐकड में फैला हुआ था। इस मन्दिर का वर्गाकारी निर्माण रेखागणित की दृष्टी से अपने आप में ही ऐक अचम्भा है। मन्दिर स्वर्ण तथा रत्नों से सम्पन्न था। इसी मन्दिर में शिव की नटराज मूर्ति स्थित है। दीवारों तथा स्तम्भों पर मूर्तिकला के उत्कर्श नमूने हैं। इसी मन्दिर से जुडा हुआ ऐक सहस्त्र स्तम्भों (वास्तव में 985) का प्रांगण है और प्रत्येक स्तम्भ केवल हाथ से आघात करने पर ही संगीत मयी ध्वनि देकर इस मन्दिर की भव्यता के विनाश की करुणामयी गाथा कहता है। इस को 1310 में सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी के हुक्म से मलिक काफूर ने तुडवा डाला था।

भारत के सूर्य मन्दिर 

भारत में सूर्य को आनादि काल से ही प्रत्यक्ष देवता माना गया है जो विश्व में उर्जा, जीवन, प्रकाश का स्त्रोत्र और जीवन का आधार है। अतः भारत में कई स्थलों पर सूर्य के  भव्य मन्दिर बने हुये थे जिन में मुलतान (पाकिस्तान), मार्तण्ड मन्दिर (कशमीर), कटरामाल (अलमोडा), ओशिया (राजस्थान) मोढेरा (गुजरात), तथा कोणार्क (उडीसा) मुख्य हैं। सभी मन्दिरों में उच्च कोटि की शिल्पकारी तथा सुवर्ण की भव्य मूर्तियाँ थीं और सभी मन्दिर मुस्लिम आक्राँताओं ने लूट कर ध्वस्त कर डाले थे।

  • कोणार्क के भव्य मन्दिर का निर्माण 1278 ईस्वी में हुआ था। मन्दिर सूर्य के 24 पहियों वाले रथ को दर्शाता है जिस में सात घोडे जुते हैं। रथ के पहियों का व्यास 10 फुट का है और प्रत्येक पहिये में 12 कडियाँ हैं जो समय गणना की वैज्ञानिक्ता समेटे हुये हैं। मन्दिर के प्रवेश दूार पर दो सिहं ऐक हाथी का दलन करते दिखाये गये हैं।  ऊपर जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। मन्दिर के चारं ओर पशु पक्षियों, देवी देवताओं तथा स्त्री पुरुषों की भव्य आकृतियाँ खजुरोहो की भान्ति नक्काशी गयी हैं। मूर्ति स्थापना की विशेषता है कि बाहर से ही सूर्य की किरणेसूर्य देवता की प्रतिमा कोप्रातः, सायं और दोपहर को पूर्णत्या प्रकाशित करती हैं। इस भव्य मन्दिर के अवशेष आज भी अपनी लाचारी बयान कर रहै हैं।
  • मोढेरा सूर्य मन्दिर गुजरात में पशुपवती नदी के तट पर स्थित है जिस की पवित्रता और भव्यता का वर्णन सकन्द पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। इस स्थान का नाम धर्मारण्य था। रावण वध के पश्चात भगवान राम ने यहाँ पर यज्ञ किया था और कालान्तर 1026 ईस्वी में सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम नें मोढेरा सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था। मन्दिर में कमल के फूल रूपी विशाल चबूतरे पर सूर्य की ऱथ पर आरूढ सुवर्ण की प्रतिमा थी। मन्दिर परिसर में ऐक विशाल सरोवर तथा 52 स्तम्भों पर टिका ऐक मण्डप था। 52 स्तम्भ वर्ष के सप्ताहों के प्रतीक हैं। स्तम्भों तथा दीवारों पर खुजुरोहो की तरह की आकर्षक शिल्पकला थी। शिल्पकला की सुन्दरता का आँकलन देख कर ही किया जा सकता है। आज यह स्थल भी हिन्दूओं की उपेक्षा का प्रतीक चिन्ह बन कर रह गया है।
  • मुलतान (पाकिस्तान) में भी कभी भव्य सूर्य मन्दिर था। मुलतान विश्व के प्राचीनतम् दस नगरों में से ऐक था जिस का नाम कश्यप ऋषि के नाम से कश्यपपुर था। इस नगर को प्रह्लाद के पिता दैत्य हरिण्यकशिपु ने स्थापित किया था। इसी नगर में हरिण्यकशिपु की बहन होलिका ने प्रह्लाद गोद में बिठा कर उसे जलाने का यत्न किया था परन्तु वह अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। कश्यपपुर महाभारत काल में त्रिग्रतराज की राजधानी थी जिसे अर्जुन ने परास्त किया था। पश्चात इस नगर का नाम मूल-स्थान पडा और फिर अपभ्रंश हो कर वह मुलतान बन गया। सूर्य के भव्य मन्दिर को महमूद गज़नवी ने ध्वस्त कर दिया था।

भारत से बाहर भी कुछ अवशेष भारतीय वास्तु कला की समृद्धि की दास्तान सुनाने के लिये प्रमाण स्वरूप बच गये थे। अंगकोर (थाईलैण्ड) मन्दिर ऐक विश्व स्तर का आश्चर्य स्वरूप है। भारतीय सभ्यता ने छः शताब्दियों तक ईरान से चीन सागर, साईबेरिया की बर्फानी घाटियों से जावा बोरनियो, और सुमात्रा तक फैलाव किया था और अपनी भव्य वास्तुकला, परम्पराओं, और आस्थाओ से धरती की ऐक चौथाई जनसंख्या को विकसित कर के प्रभावित किया था। 

राजपूत काल

झाँसी तथा ग्वालियार के मध्य स्थित दतिया और ओरछा के राजमहल राजपूत काल के उत्कर्ष नमूने हैं। यह भवन सिंगल यूनिट की तरह हैं जो तत्कालिक मुग़ल परम्परा के प्रतिकूल है। दतिया के नगर में यह भव्य महल प्राचीन काल की भव्यता के साक्षी हैं। महल की प्रत्येक दीवार 100 गज लम्बी चट्टान से सीधी खडी की गयी है। यह निर्णय करना कठिन है कि मानवी कला और प्राकृति के बीच की सीमा कहाँ से आरम्भ और समाप्त होती है। सभी ओर महानता तथा सुदृढता का आभास होता है। क्षतिज पर गुम्बजों की कतार उभर कर इस स्थान के छिपे खजानों के रहिस्यों का प्रमाण देती है। 

ओरछा के समीप खजुरोहो के मन्दिर विश्व से पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह भारत की अध्यात्मिक्ता, भव्यता, तथा विलास्ता के इतिहास के मूक साक्षी हैं। हाल ही में ऐक देश भक्त ने निजि हेलीकोप्टर किराये पर ले कर महरोली स्थित कुतुब मीनार के ऊपर से फोटो लिये थे और उन चित्रों को कई वेबसाईट्स पर प्रसारित किया था। ऊपर से कुतुब मीनार ऐक विकसित तथा खिले हुये कमल की तरह दिखता है जिसे पत्थर में तराशा गया है। उस की वास्तविक परिकल्पना पूर्णत्या हिन्दू चिन्ह की है।

समुद्र पर पुल बाँधने का विचार भारत के लोगों ने उस समय किया जब अन्य देश वासियों को विश्व के मभी महा सागरों का कोई ज्ञान नहीं था।  इस सेतु को अमेरिका ने चित्रों को माध्यम से प्रत्यक्ष भी कर दिखाया है और इस को ऐडमेस-ब्रिज (आदि मानव का पुल) कहा जाता है किन्तु विश्व की प्राचीनत्म धरोहर रामसेतु को भारत के ही कुछ कलंकित नेता घ्वस्त करने के जुगाड कर रहै थे। भारत सरकार में इतनी क्षमता भी नहीं कि जाँच करवा कर कह सके कि राम सेतु मानव निर्मित है य़ा प्रकृतिक। हमारी धर्म-निर्पेक्ष सरकार मुगलकालीन मसजिदों के सौंदर्यकरण पर खर्च कर सकती है लेकिन हिन्दू मन्दिरों पर खर्च करते समय ‘धर्मनिर्पेक्षी-विवशता’ की आड ले लेती है।

चाँद शर्मा

 

33 – सृष्टि का काल चक्र


आधुनिक वैज्ञानिक अब कहते हैं कि हमारी सृष्टि में अनगिनत ग्रह प्रति दिन पैदा हो रहे है और कई ग्रह अपना समय पूरा कर के विलीन हो रहै हैं – लेकिन हिन्दूग्रंथ तो आधुनिक वैज्ञानिकों से हजारों वर्षों पहले से ही कहते आ रहै हैं कि सृष्टि अनादि है – उस का कोई आरम्भ नहीं, सष्टि अनन्त है – उस का कोई अन्त भी नहीं। भारत के अंग्रेजी-प्रेमी शायद आज भी नहीं जानते कि केवल हिन्दू शास्त्रों के समय सम्बन्धी आँकडे ही आधुनिक वैज्ञानिक खगोल शास्त्रियों के आँकडों से मेल खाते हैं।

समय की गणना

आधुनिक वैज्ञानिक यह भी मानने लगे हैं कि सृष्टि के कालचक्र में ब्रह्मा का (यूनिवर्स) ऐक दिवस और रात्रि, पृथ्वी के एक दिवस और रात्रि के समय से 8.64 कोटि वर्षों बडी होती है। मनु स्मृति के प्रथम अध्याय में इस धरती के समय का विस्तरित उल्लेख किया गया है। आँख झपकने में जो समय लगता है उसे ऐक निमिष कहा गया है। निमिष के आधार पर समय तालिका इस प्रकार हैः-

  • 18 निमिष = ऐक कास्था
  • 30 कास्था = 1 कला
  • 30 कला = 1 महू्र्त
  • 30 महूर्त = अहोरात्र
  • 30 अहोरात्र = 1 मास

ऐक अहोरात्र को सूर्य कार्य करने के लिये दिन, तथा विश्राम करने के लिये रात्रि में विभाजित करता है। प्रत्येक मास के दो ‘पक्ष’ होते हैं जिन्हें ‘शुकल-पक्ष’ और ‘कृष्ण-पक्ष’ कहते हैं। पँद्रह दिन के शुकल पक्ष में चाँदनी रातें होती हैं तथा उतनी ही अवधि के कृष्ण पक्ष में अन्धेरी रातें होती हैं। सभी माप दण्डों का सरल आधार ‘30’ की संख्या है। यह समय विभाजन प्रत्यक्ष, वैज्ञानिक, और प्रकृति के अनुकूल है।

दिन का आरम्भ सूर्योदय के साथ होता है जब सभी जीव अपने आप जाग जाते है। नदियों के जल में स्वच्छता और प्रवाह होता है, कमल खिलते है, ताज़ा हवा चल रही होती है तथा प्रकृति सभी को नये, शुद्ध वातावरण का आभास दे देती है। उसी प्रकार जब सूर्यास्त के साथ रात होती है, पशु पक्षी अपने आवास की ओर अपने आप लौट पडते हैं, नदियों का जल धीमी गति से बहने लगता है, फूल मुर्झा जाते है तथा प्रकृति सभी गति विधियां स्थागित करने का संकेत दे देती है। इन प्रत्यक्ष तथ्यों की तुलना में रोमन कैलेण्डर के अनुसार चाहे दिन हो या रात, 12 बजे जब तिथि बदलती है तो प्रकृति में कोई फेर बदल प्रत्यक्ष नहीं होता। सभी कुछ बनावटी और बासी होता है।

पाश्चात्य केलैण्डर

रोमन कैलेण्डर को जूलियस सीज़र ने रोम विजय के पश्चात ग्रैगेरियन कैलेण्डर के नाम से लागू करवाया था। इस कैलेण्डर का आज भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

वैसे तो ईसाई ऐक ईश्वर को मानने का दावा करते हैं और अधिक देवी देवताओं में विशवास करने के लिये हिन्दूओं का उपहास उडाते हैं। किन्तु उन के पास कोई जवाब नहीं कि उन्हों ने अपने दिनों तथा महीनों को देवी देवताओं के नामों से क्यों जोडा हुआ हैं। उन के सप्ताह में सन गाड का दिन – ‘सनडे’’ मून गाडेस का दिन – ‘मनडे, ट्यूज देवता का दिन – ‘ट्यूजडे, वुडन देवता का दिन – ‘वेडनेसडे, थोर देवता का दिन – ‘थर्सडे, फ्रिग्गा गाडेस का दिन – ‘फ्राईडे, तथा सैटर्न देवता का दिन – ‘सैटरडे होता है। वास्तव में सप्ताह के दिनों के नाम भी रोमन वासियों नें भारत से ही चुराये हैं क्यों कि हमारे पूर्वजों ने दिनों के नाम सौर मण्डल के ग्रहों पर रखे गये थे जैसे कि रविवार (सूर्य), सोमवार (चन्द्र), मंगलवार (मंगल), बुद्धवार (बुद्ध), बृहस्पतिवार (बृहस्पति), शुक्रवार (शुक्र), और शनिवार (शनि)। क्योंकि बडी वस्तु को ‘गुरु’ कहा जाता है और छोटी को ‘लधु ’ – इसलिये बृहस्पतिवार को गुरुवार भी कहा जाता है। हमारे पूर्वजों को आधुनिक वैज्ञानिकों से बहुत पहले ही ज्ञात था कि बृहस्पति सौर मण्डल का सब से बडा ग्रह है।

पोर्तगीज भाषा में कैलैण्डर शब्द को ‘कालन्दर’ बोलते हैं जो संस्कृत के शब्द ‘कालन्तर’ (काल+अन्तर) का अपभृंश है। संस्कृत में कालन्तर उसी श्रेणी का शब्द है जैसे युगान्तर, मनवन्तर, कल्पान्तर आदि हैं। इन मापदण्डों का प्रयोग सौर मण्डल की काल गणना के लिये किया जाता है। रोमन कैलैण्डर के महीने सेप्टेम्बर, ओक्टोबर, नवेम्बर और डिसेम्बर का स्त्रोत्र भी संस्कृत के क्रमशः सप्तमबर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवम्बर, तथा दशम्बर से है जिनका शब्दिक अर्थ सातवें, आठवें, नवमें और दसवें अम्बर (आसमान) से है।

अंग्रेजों का अपना कोई कैलैण्डर नहीं था और वह जूलियन कैलैण्डर  को इस्तेमाल करते थे जिस में या साल ‘मार्च’ के महीने से शुरु होता था। साल में केवल दस महीने ही होते थे। मार्च से गिनें तो सेप्टेम्बर, ओक्टोबर, नवेम्बर और डिसेम्बर सातवें, आठवें, नौवें तथा दसवें महीने ही बनते हैं। जैसे जैसे अंग्रेजों में वैज्ञानिक जागृति आई तो उन्हों ने 1750 में ग्रीगेरियन कैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) को सरकारी कैलैण्डर बनाया और समय गणना को नयी सीख अनुसार पूरा करने के लिये दो महीने ‘जनवरी’ और ‘फरवरी’ भी जोड दिये। परम्परागत जनवरी 31 दिन का था और फरवरी में कभी 28 और कभी 29 दिन होते थे जिस का वैज्ञानिक आधार कुछ नहीं था। पश्चात ब्रिटिश संसद ने अपना वर्ष को मार्च के बदले जनवरी 1772 से प्रारम्भ करना शुरू किया क्यों कि क्रिस्मस के बाद पहला महीना जनवरी आता था।

राशी चक्र की वैज्ञानिक्ता

पाश्चात्य कैलेण्डर की तुलना में भारत का विक्रमी कैलेण्डर पृथ्वी के सौर मण्डल पर आधारित और वैज्ञानिक है। हमारी पृथ्वी सू्र्य की परिक्रमा लगभग सवा तीन सौ पैंसठ दिन में करती है। ऋगवेद में अनगिनित ताराग्रहों का वर्णन है, जिन को विभाजित कर के पृथ्वी दूारा सूर्य की वार्षिक परिक्रमा के मार्ग का मानचित्र बनाया गया है। मार्ग की पहचान के लिये सितारों के दर्श्नीय फैलाव के अनुरूप, उन के काल्पनिक रेखा चित्र बना कर उन्हें आकृतियों से मिलाया गया है। प्रत्येक विभाग को किसी जन्तु या वस्तु की आकृति के आधार पर ऐक राशि का नाम दिया गया है। राशियों के भारतीय रेखा चित्र आज विश्व भर में ज़ोडियक साईन के नाम से जाने जाते है। केवल ज़ोडियक नामों को ही स्थानीय देशों की भाषा में परिवर्तित किया गया है चित्र भारतीय चित्रों की तरह ही हैं।

360 दिनों को 12 राशियों में बाँट कर वर्ष के अन्दर 30 दिनों के बारह मास बनाये गये हैं। यह वह समय है जब पृथ्वी सूर्य परिक्रमा करते समय एक राशि भाग में लगाती है। दूसरे शब्दों में सूर्य पृथ्वी के उस राशि भाग में रहता है। उसी अवधि को ऐक मास कहा गया है। भारतीय कैलेन्डर के अनुसार स्दैव मास के प्रथम दिन पर ही सूर्य ऐक से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। यह सब कुछ वैज्ञानिक है और प्रत्यक्ष है। बारह राशियों के इसी वैज्ञानिक तथ्य को सूर्य के रथ के पहिये की बारह कडियाँ के रूप में चित्रों के माध्यम से भी दर्शाया गया है। राशियों की आकृतियों के आधार पर ही नाविक उन्हें ऐक से बारह अम्बरों (आसमान के टुकडों) की भान्ति भी पहचानने लगे थे।

महीनों के नामों की बैज्ञानिकता

हमारे समस्त वैदिक मास (महीने) का नाम 28 में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं l जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है उसी नक्षत्र के नाम पर उस मास का नाम हुआ l 1. चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास l 2. विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास l 3. ज्येष्ठा नक्षत्र से ज्येष्ठ मास l 4. पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा से आषाढ़ l 5. श्रावण नक्षत्र से श्रावण मास l 6. पूर्वाभाद्रपद या उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद l 7. अश्विनी नक्षत्र से अश्विन मास l 8. कृत्तिका नक्षत्र से कार्तिक मास l 9,. मृगशिरा नक्षत्र से मार्गशीर्ष मास l 10. पुष्य नक्षत्र से पौष मास l 11. माघा मास से माघ मास l 12. पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास l

भारतीय खगोल वैज्ञानिकों ने पाश्चात्य वैज्ञानिकों से पूर्व इस तथ्य पर भी विचार किया था कि सूर्य की परिकर्मा में पृथ्वी को सवा 365 दिन लगते हैं। अतः हिन्दू कैलेण्डरों के अन्दर प्रत्येक बारह वर्ष के पश्चात ऐक वर्ष तेरह महीनों का आता है जो दिनों की कमी को पूरा कर देता है। इसी बारह वर्ष की अवधि का सम्बन्ध भारत के कुम्भ आयोजनों से भी है जो हरिदूआर, प्रयाग, काशी तथा नाशिक में हजारों वर्षों से आयोजित किये जा रहै हैं। इस की तुलना में रोमन कौलेण्डर में यह काल लगभग मास के दूसरे या तीसरे सप्ताह में आता है, जो वैज्ञानिक ना हो कर केवल परम्परागत है। रोमन कैलेण्डर के 30 दिनों या 31 दिनों के महीनों तथा फरवरी में 28 या 29 दिनों के होने का कारण वैज्ञानिक नहीं, बल्कि काम चलाऊ है।

अप्राकृतिक रोमन कैलेण्डर हमारे ऊपर उस समय थोपा गया था जब अंग्रेज़ विश्व में अपना उपनेष्वाद फैला रहे थे। ब्रिटेन का अपना कोई कैलेण्डर नहीं था। इसाई देश होने के कारण उन्हों ने रोमन कैलेण्डर को अपना रखा था। ब्रिटेन का समय भारत से लग भग साढे पाँच घन्टे पीछे चलता है। जब भारत में प्रातः साढे पाँच बजे सूर्योदय होता है तो उस समय इंग्लैण्ड में मध्य रात्रि का समय होता है। भारत के ‘प्रत्यक्ष सूर्योदय’ के समय नया दिन आरम्भ करने की प्रथानुसार अंग्रेजों ने अपने देश में मध्य रात्रि के समय नया दिन घोषित कर लिया और उसी प्रथा को अपनी सभी कालोनियों पर थोप दिया। भारत के अतिरिक्त किसी कालोनी का निजि कैलेण्डर नहीं था, अतः किसी देश ने कोई आपत्ति भी नहीं जतायी। ग़ुलाम की भान्ति उन्हों ने अंग्रेजी मालिक का हुक्म स्वीकार कर लिया। किन्तु भारत में स्थानीय पाँचांग चलता रहा है जिस की अनदेखी भारत के सरकारी तन्त्र ने धर्म निर्पेक्षता की आड में करी है।

युग-काल का विधान

हमारे पूर्वजों ने केवल पृथ्वी की समय गणना का विधान ही नहीं बनाया था, बल्कि उन्हों ने सृष्टि की युग गणना का विधान भी बनाया था जिस के आँकडों को आज विज्ञान भी स्वीकारनें पर मजबूर हो रहा है।

भारतीय गणना के अनुसार चार युगों का ऐक चतुर्युग होता है। यह वह समय है जो ‘हमारा सूर्यमण्डल’ अपने से बडे महासूर्य मण्डल की परिकर्मा करने में लगाता है। यह गणना मन-घडन्त नहीं अपितु ऋगवेद के 10800 पद्धो तथा 432000 स्वरों में दी गयी है।

सतयुग, त्रेता, दूापर, और कलियुग चार युग माने जाते हैं। चार युगों से ऐक चतुर्युग बनता है। चतुर्युग के अन्दर युगों के अर्न्तकाल का अनुपात 4:3:2:1 होता है। अतः प्रत्येक युग की अवधि इस प्रकार हैः-

  • सतयुग – 17 लाख 28 हज़ार वर्ष
  • त्रेता युग – 12 लाख 96 हज़ार वर्ष
  • दूापर युग – 8 लाख 64 हज़ार वर्ष
  • कलियुग – 4 लाख 32 हज़ार वर्ष  (कुल जोड – 432000 वर्ष)

71 चतुर्युगों से ऐक मनवन्तर बनता है (30 करोड 67 लाख 20 हज़ार वर्ष) यह वह समय है जो महासूर्य मण्डल अपने से भी अधिक विस्तरित सौर मण्डल की परिकर्मा करने में लगाता है। इस से आगे भी बडे सूर्य मण्डल हैं जिन की परिकर्मा हो रही है तथा वह अनगिनित हैं।

सृष्टि के सर्जन तथा विसर्जन 

सृष्टि के सर्जन तथा विसर्जन का चक्र निरन्तर निर्विघ्न चलता रहता है। सर्जन 4.32 करोड वर्ष (ऐक चतुर्युग) तक चलता है जिस के पश्चात उतने ही वर्ष विसर्जन होता है। सृष्टि-कल्प वह समय है जब ब्रह्मा सृष्ठि की रचना करते हैं । इसी के बराबर समय का प्रलय-कल्प भी होता है। प्रलय-कल्प में सृष्ठि का विसर्जन होता है । सृष्ठि और प्रलय ऐक दूसरे के पीछे चक्र की तरह चलते रहते हैं जैसे हमारे दिनों के पीछे रातें आती है।  सर्जन-विसर्जन के समय का जोड 8.64 करोड वर्ष होता है जिसे ब्रह्मा का ऐक दिवस (अहरोत्रा) माना गया है। ऐसे 360 अहरोत्रों से ब्रह्मा का ऐक वर्ष बनता है जो हमारे 3110.4 केटि वर्षों के बराबर है।

हिन्दू शास्त्रों ने ऐक कल्प को 14 मनुवन्तरों में विभाजित किया है। प्रत्येक मनुवन्तर में 30844800 वर्ष होते हैं अथवा 308.448 लाख वर्ष होते हैं।

हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार वर्तमान सृष्टि की रचना श्वेतावराह कल्प में 1.972 करोड वर्ष पूर्व हुई थी। उस के पश्चात छः मनुवन्तर बीत चुके हैं और सातवाँ वैभास्वत मनुवन्तर अभी चल रहा है। पिछले मनुवन्तर जो बीत चुके हैं उन के नाम स्वयंभर, स्वारोचिश, ओत्तमी, तमस, रविवत तथा चक्षाक्ष थे।

सातवें मनुवन्तर के 28 चतुर्युग भी बीत चुके हैं और हम 29वें चतुर्युग के कलियुग में इस समय (2012 ईसवी) जी रहे हैं । वर्तमान कलियुग के भी 5004 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं

भागवत पुराण के अनुसार भक्त ध्रुव के पिता राजा उत्तानपाद स्वयंभर मनु के युग में हुये थे जो आज (2012 ईसवी) से 1.99 करोड वर्ष पूर्व है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इन गणाओं की अनदेखी करते रहे लेकिन जब अमेरिकन शोधकर्ता माईकल ए क्रामो ने कहा कि मानव आज से 2 करोड वर्ष पूर्व धरती पर आये तो भागवत पूराण के कथन की पुष्टि हो गयी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह काल गणना खगौलिक है। इस गणना के अनुसार आज की मानवी घटनाओं को जोडना उचित नहीं होगा। जैसे हाथी तोलने वाले माप दण्डों से स्वर्ण को नहीं तोला जाता उसी प्रकार किसी व्यक्ति की आयु का आंकलन ‘लाईट-यीर्स’ या ‘नैनो-सैकिण्डस में नहीं किया जाता।

भारतीय कैलैण्डर की उपेक्षा 

अंग्रेज़ी पद्धति अनुसार प्रशिक्षित भारतीय युवा अपने गौरवशाली पूर्वजों की उपलब्धियों को भूल कर अपने आप में ही गर्वित रहते हैं। जो कुछ अंग्रेज़ थूकते रहै मैकाले प्रशिक्षित भारतीय उसे खुशी से चाटते रहै हैं। आज से केवल पचास वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज घटनाओं को भारत के देसी महीनों के माध्यम से याद रखते थे किन्तु वह प्रथा अब लुप्त होती जा रही है। भारत के अंगेजी प्रशक्षित आधुनिक युवा देसी महीनों के नाम भी क्रमवार नहीं बता सकते। कदाचित वह समझते हैं कि भारत का अपना कोई कैलेण्डर ही नहीं था और रोमन कैलेण्डर के बिना हम प्रगति ही नहीं कर सकते। अपनी मनोविकृति के कारण हम आदि हो चुके हैं कि सत्य वही होता है जिसे पाश्चात्य वैज्ञानिक माने। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व पश्चिम के वैज्ञानिक ऐक स्वर में बोल रहे थे कि चन्द्रमां पर जल नहीं है। परन्तु जब भारत के चन्द्रयान ने चाँद की धरती पर जल के प्रमाण दिये तो अमेरिकी नासा ने भी पुनः खोज कर के भारत के कथन की पुष्टि कर दी।

अंतरीक्ष की भारतीय समय सारणी को भी आज के विज्ञान के माध्यम से परखा जा सकता है। यदि यह काम विदेशी ना करें तो भारत के वैज्ञानिकों को स्वयं करना चाहिये। हमारी उपलब्धियों को स्वीकृति ना देना पाश्चात्य देशों के स्वार्थ हित में है क्यों कि उन्हों ने भारत की उपलब्धियों को हडप कर अपना बनाया हुआ है। लेकिन हम किस कारण अपने पूर्वजों की धरोहर उन्हें हथियाने दें ? हम अपनी उपलब्दधियों की प्रमाणिक्ता पाने के लिये पाश्चात्य देशों के आगे हाथ क्यों फैलाते रहते हैं ?

आजकल कुछ देश भक्त अंग्रेजी नव-वर्ष पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं जो कि ऐक शुभ संकेत है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। अपनी उप्लब्द्धी की जानकारी भी रहनी चाहिये और उसे यथा सम्भव अंग्रेज़ी कैलेण्डर का साथ मिलाते रहना चाहिये। दुर्भाग्यवश अंग्रेजी कैलेण्डर ही अन्तरराष्ट्रीय मान्यता रखता है उसे बदलने के लिये पहले अपने घर में भारतीय कैलेण्डर की जानकारी तो होनी चाहिये। आज के युवा अपने देसी महीनों के नाम भी क्रमवार नहीं बता सकते जो पिछली पीढी तक सभी गाँवों में प्रचिल्लत थे। क्या हम अपने प्राईमरी स्कूलों में यह जानकारी फिर से पढा सकें गे?

चाँद शर्मा

 

32 – विज्ञान-आस्था का मिश्रण


जो बात समझ में ना आये उसे अंग्रेजी भाषा में मिथ कहा जाता है। स्नातन धर्म के वैदिक गूढ ज्ञान तथा उसी ज्ञान का कलात्मिक चित्रण जब पाश्चात्य विचारकों की समझ में नहीं आया तो उन्हों ने उसे ‘मिथ या ‘माईथोलोजी कह कर अपना पल्ला झाड लिया। उन्हीं के प्रभाव तले प्रशिक्षित कुछ बन्दरछापी भारतीयों नें भी स्नातन धर्म को ‘माईथोलोजीकह कर भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को विश्वविद्यालयों के क्षेत्र से निष्कासित कर दिया। कमी ज्ञान में नहीं थी – परन्तु उन की गुलामी भरी सोच और समझ में थी।

हिन्दू धर्म का अध्यात्मवाद पूर्णत्या आस्थाओं और विज्ञान का मिश्रण है। उदाहरण के लिये श्रीमद भाग्वद गीता के इस कथन की वैज्ञानिक्ता परख लीजिये –

‘जैसे घडे के फूट जाने के बाद घडे की मिट्टी पुनः मिट्टी में मिल जाती है, समुद्र में उठी लहरों का जल पुनः समुद्र में समा जाता है, स्वर्ण आभूषणों को गलाने के बाद स्वर्ण पुनः अपने मौलिक रूप में परिवर्तित हो जाता है – उसी प्रकार शरीर में बन्धी आत्मा शरीर छोड देने के पश्चात पुनः परमात्मा में विलीन हो जाती है। अन्ततः सृष्टी में सभी अपने अपने मौलिक स्वरुप में जा मिलते हैं’।

गीता के इस अध्यात्मवाद में छुपी भौतिक विज्ञान की सत्यता को क्या कोई वैज्ञानिक नकार सकता है?

पूर्णत्या वैज्ञानिक मानवीय आस्थायें

विश्व में इसाई तथा इस्लाम दो अन्य मुख्य धर्म हैं। इन दोनों धर्मों के जनकों के कर्म क्षेत्रों की भूमि मध्य ऐशिया में थी। दोनो धर्म स्नातन धर्म से कई शताब्दियों पश्चात आये। उन का आपसी अन्तर काल लगभग सात सौ वर्षों का है। उन दोनों धर्मों की अधिकाँश आस्थायें स्नातन धर्म और पुराणों में थोडा बहुत फेर बदल कर के विकसित हुयी हैँ, किन्तु दोनों धर्म भूगौलिक क्षेत्र तथा समय की सीमा में बन्धे हुये हैं।

उन की तुलना में स्नातन धर्म की विशेषता है कि उस के देवी देवता, पूर्वज किसी विशेष भूगौलिक क्षेत्र में सीमित नहीं रहै बल्कि उन्हों ने समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पद चिन्ह छोडे हैं। धार्मिक आस्थायें समय और स्थान की सीमा से आज़ाद हैं। स्नातन धर्म के देवी देवता जहां चाहें प्रगट हो सकते हैं और जब चाहे अन्तर्ध्यान हो सकते हैं। इतना ही नहीं, स्नातन धर्म ने आस्थाओं और मानस चित्रण के साथ वैज्ञानिक तथ्यों को भी कलात्मिक ढंग से जोड़ा है। उसी चित्रण को हम अपना अध्यात्मिक साहित्य मानते हैं जिसे पौराणिक साहित्य या पाश्चात्य विचारकों की भाषा में ‘माईथोलोजी’कहा जाता है।

ज्ञान का आँकलन 

स्नातन धर्म की विचारधारा हर प्रकार के वैचारिक आँकलन के लिये खुली पुस्तक की तरह है। आस्थाओं की नींव रखने के लिये भी प्रमाणिता के धरातल की आवशक्ता होती है। जब तर्क के बाद तर्क ऐक ही निर्णय का आभास प्रगट कते हैं तभी आस्था जन्म लेती है। गर्व की बात है कि हिन्दू धर्म की आस्थाओं को चुनौती कभी भी दी जा सकती है और उन की शाशवता को कोई खतरा नहीं है। इसी लिये वैज्ञिानिक तथ्यों के साथ हिन्दू आस्थाओं पर पुनर्विचार और आँकलन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। स्नातन धर्म में आस्थाओं को चुनौती देने वालों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता। 

हिन्दू धर्म के अनुयायी स्दैव धार्मिक विषयों को औपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलत करने का अनुगृह करते रहे हैं क्यों कि उन्हें पूर्ण विशवास है कि यदि हिन्दू आस्थाओं को विज्ञान और आधुनिक उपक्रमों के साथ तर्क की कसौटी पर परखा जाये गा तो तथ्य आस्थाओं के पक्ष में प्रमाणित हो जायें गे और भ्रामिकता मिट जाये गी। हिन्दू धर्म को दोनों परिस्थितियाँ स्वीकार है । यही हिन्दू धर्म की प्रबल शक्ति है। हिन्दू धर्म की आस्थायें तथा मान्यतायें इतनी सुदृढ हैं कि उन्हें आलोचना का कोई भय नहीं है। 

हिन्दू धर्म को धर्मान्धता या नास्तिकता से भी कोई खतरा नहीं है। धार्मिक आस्थाओं को खुले आम नकारने वाले को भी ना केवल बोलने दिया जाता है और सुना जाता है, बल्कि उसे अपनी नकारात्मिक अनास्तिक्ता का प्रचार भी करने दिया जाता है। यह सिद्ध करता है कि हिन्दू धर्म में विज्ञान तथा आस्थायें ऐक दूसरे के विपरीत ना हो कर ऐक दूसरे की पूरक हैं।

सृष्टि सर्जन

स्नातन मत के माध्यम से वैज्ञायानिक विचारों का उदय ऋगवेद से प्रारम्भ हुआ। वेदों के विचार से सृष्टि की रचना से पूर्व कुछ नहीं था। यह अवस्था उस रेखा को उजागर करती है जो शून्य तथा गुण-सम्पन्न भौतिक्ता के मध्य में रहती है। इसी समय को पाश्चात्य विचारकों की ‘बिग-बैंग थ्यिोरी के साथ जोडा है। यह विचार उस सत्य की ओर ईशारा करता है जो पूर्णतया वैज्ञायानक विचार है ना कि अन्ध-विशवास। जिस ‘बोसोनो अणु या ‘गाड-पार्टिकल के बारें में विश्व के वैज्ञानिक आज खोज में जुटे हैं उसी परिस्थिति का बखान भारतीय ग्रंथ हजारों वर्षों से करते चले आ रहै हैं। यहाँ पर केवल दो ही तथ्यों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। 

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय में ही सृष्टि की रचना, पृथ्वी पर जीवों के जन्म तथा उन की प्रकृति के बारे में विस्तरित जानकारी इस प्रकार उप्लब्द्ध हैः-

       आसीदितं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।

       अप्रतक्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।।

       ततः स्वयंभूभर्गवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्।

       महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः।। (मनु स्मृति 1 – 5-6)

अर्थात – पहले यह संसार तम (अन्धकार) प्रकृति से घिरा था, जिस से कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। अनुमान करने योग्य कोई रूप नहीं था जिस से तर्क दूारा लक्षण स्थिर कर सके। सभी ओर अज्ञान और शून्य की अवस्था थी। इस के बाद प्रलयावस्था के नाश करने वाले लक्षण सृष्टि के सामर्थ्य से युक्त, स्वयंभु भगवान महाभूतादि (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) पंच तत्वों का प्रकाश करते हुए प्रकट हुए। (यहाँ यह स्पष्टीकरण भी जरूरी है कि ‘तम’ का अपना कोई अस्तीत्व नहीं होता। ‘रौशनी का अभाव’ ही तम की अवस्था है।)

पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु का प्रगट होना आधुनिक भौतिक विज्ञान का जन्म है क्यों कि उन्हीं महाभूतों के मिश्रण से ही सृष्टी के अन्य पदार्थ विकसित हुये या मानव दूारा विकसित किये गये हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार प्रथम जीवन जल और गर्मी से उत्पन्न हुआ। जल सूर्याग्नि की तपश और वायु के कारण आकाश में उडता है तथा फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर आता है जिस से पैड-पौधे जन्म लेते हैं, जीव उत्पन्न होते हैं और पश्चात मानव का जन्म होता है। यही आस्थायें मानवी विज्ञान का आधार हैं जिन्हें सरलता के साथ समझाने के लिये हम देवी देवता का रूप में चित्रण भी कर सकते हैं और उन्हीं तथ्यों को आधार बना कर रौचक कथायें भी लिख सकते हैं। समस्त वेदों, उपनिष्दों, पुराणों में मनुस्मृति की तरह ही सृष्टि की उत्पत्ति का बखान किया गया है और कहीं भी विरोधाभास नहीं है।

जीव-विज्ञान

हमारे पूर्वजों को सभी प्रकार के जीवों से ले कर मानव के जन्म तक का पूर्ण ज्ञान था। बृहत विष्णु पुराण के अनुसार सब से पहले जल में सृष्टि हुई फिर वानर जो कि मानवों के अग्रज हैं। यही विचारधारा कालान्तर डारविन नें अपने नाम से पंजीकृत करवा कर ‘एवोलुशन थियोरी के नाम से प्रचारित कर ली। आदिकाल से पशु-पक्षी अपने जैसे जीवों को ही उत्पन्न करते चले आ रहै हैं। पशु पक्षियों ने अपनी संतानों को परिशिक्षण देने के लिये कोई विद्यालय नहीं बनाये। फिर भी उन के नवजात अपनी जाति के रहन-सहन को अपने आप ही सीख जाते हैं। डिस्कवरी तथा नेशनल ज्योग्राफिक टी वी चैनलों पर इन सभी तथ्यों को अब प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। प्राणी-विज्ञान के इसी तथ्य को डारविन से सैंकडों वर्ष पूर्व मनुसमृति में इस प्रकार उजागर किया गया थाः-  

       यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुड्क्त प्रथमं प्रभुः।

       स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः ।। (मनु स्मृति1- 28)

       अर्थात- पहले ब्रह्मा ने जिस जीव को जिस कार्य में नियुक्त किया, वह बारम्बार उत्पन्न हो कर भी अपने पूर्व-कर्म को करने लगा।

विष्णु के दस अवतार भी सृष्ठि सर्जन की कहानी को कलात्मिक ढंग से उजागर करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से ही समस्त जीवों में आत्मा बार बार उसी परमात्मा की ही पुनर्वृति करती है। इसी विचार को छन्दोग्य उपनिष्द ने भी व्यक्त किया है। पौराणिक कथाओं तथा लोक कथाओं में पशु-पक्षियों और पैड-पौधों का मानवी भाषा में बात करना इस वैज्ञानिक तथ्य को प्रमाणित करता है कि ना केवल पशु-पक्षियों में बल्कि पैड-पौधों में भी जीवन के साथ साथ संवेदनायें भी विद्यमान है। इसी तथ्य की पुनर्वृति करने के लिये विश्व के आधुनिक वैज्ञिानिकों और तर्क शास्त्रियों ने सर जगदीशचन्द्र बोस को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया था। 

कर्म विधान

श्रीमद्भागवद गीता मेंकर्म विधान की व्याख्या की गयी है। मानव कर्म करता है तो प्रतिक्रिया ईश्वर करता है। जो बोया जाये गा वही काटा जाये गा का विधान सर्व-सम्मत है। 

कर्म विधान में फल के अनुसार चार प्रकार के कर्म हैं-

  • निष्काम-कर्म – जो कर्म निजि मोक्ष प्राप्ति के लिये करे जाते है। इन से अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति पूर्णत्या संतुष्टि मिलती है जैसे मानव सेवा तथा ज्ञान का वितरण आदि।
  • पुण्य-कर्म – जव क्रम तथा उस को करने का उद्देष्य पवित्र हों तो उन्हें पुण्य-कर्म कहा जाता है जैसे किसी की जान बचाना।
  • पाप-कर्म – जिस कर्म का उद्देष्य तथा कर्म दोनो ही किसी का अनिष्ट करने के लिये किये जायें वह पाप-कर्म होते हैं।
  • मिश्रित-कर्म – जब कर्म तो अच्छा हो किन्तु उस के पीछे उद्देष्य अच्छा ना हो या उद्देष्य तो अच्छा हो परन्तु कर्म अच्छा ना हो।जैसे कोई अच्छी फसल पाने के लिये अन्य जीवों का नाश कर देना।

कर्मों का ही ऐक अन्य वर्गीकरण इस प्रकार हैः-

  • क्रियामान-कर्म – जो कर्म वर्तमान में किये जाते हैं तथा उन कर्मों से अन्य कर्म उत्पन्न होते हैं।
  • संचित-कर्म – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परन्तु उन का फल अभी आना बाकी है।
  • प्रारब्ध – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परिपक्व होने के पश्चात उन के फल वर्तमान में प्रगट हो रहे हों उन्हें प्रारब्ध अथवा भाग्य कहा जाता है। हमारा जन्म मरण सभी कुछ प्रारब्ध का परिणाम है।

यह प्रारब्ध का परिणाम है कि कोई राजा के महल में पैदा हो जाता है तो कोई निर्धन की कुटिया में जन्म लेता है। कुछ पूर्ण्त्या स्वस्थ, सुन्दर, गोरे, काले, लम्बे, छोटे पैदा होते हैं तो कुछ कमज़ोर, बीमार, विकृत पैदा होते हैं। मानव स्वयं अपनी प्रारब्ध का निर्माण करता है। जो हम इस जन्म में कर रहे होते हैं परिपक्व हो कर वही हमें अगले जन्म में प्राप्त हो गा। कर्म ही सृष्टि का मूल कारण है। मानव पर केवल उस के निजि कर्मों का ही असर नहीं पडता अपितु वह दूसरों के, अपने सम्वन्धियों, तथा जाति वालों के संयुक्त कर्मों से भी प्रभावित होता है। वैचारिक वैज्ञानिक्ता इस के विपरीत नहीं हो सकती।

कारण तथा प्रभाव का रहस्य  

आस्था है कि पुण्य कर्मों से पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसी बात को वैज्ञानिक आधार से समझने के लिये यदि कोई कडवी या तीखी मिर्च युक्त वस्तु खाये गा तो स्वाद भी कडुआ या जलाने वाला हो जायेगा। इस के उपरान्त वही व्यक्ति यदि कुछ मीठा खा लेगा तो भले ही प्रथम कर्म का प्रभाव पूर्णत्या नष्ट नहीं होगा किन्तु वर्तमान स्वाद कुछ सुखमय अवश्य हो जाये गा। कडुवे और मीठे कर्मों के परस्पर अनुपात के आधार पर ही व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःख निर्भर करते हैं। 

कर्म के प्रभाव की व्याख्या को आज विश्व के वैज्ञिानिक तथा दार्शनिक भीकारण तथा प्रभाव(ऐक्शन ऐण्ड रीऐकशन थियोरी)के नाम सेप्रमाणित मानते हैं। कर्म का अर्थ क्रिया से है। प्रमाणित तथ्य है कि प्रत्येक क्रिया के समान उस की प्रतिक्रिया भी होती है। जो कोई भी कर्म करता है ईश्वर उस का फल कर्म करने वाले को अवश्य देता है।

हिन्दू धर्म की आस्थाये तथा विचारधारायें बारबार प्रमाणित होकर हिन्दू साहित्य के माध्यम मे हमें प्राप्त हुयी हैं। इस लिये स्नातन धर्म यथार्थ में ज्ञान और आस्था का मिश्रण है।

चाँद शर्मा

16. मानव इतिहास – पुराण


पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख करी गयी हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः  पुराण समर्पित किये गये हैं।  इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-

  1. ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय  तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  2. पद्म पुराण – पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।
  3. विष्णु पुराण – विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
  4. शिव पुराण शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।
  5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।
  6. नारद पुराण – नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।
  7. मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
  8. अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
  9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण,  भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।
  10. ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
  11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
  12. वराह पुराण –  वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
  13. सकन्द पुराण – सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
  14. वामन पुराण – वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
  15. कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
  16. मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
  17. गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके। 
  18. ब्रह्माण्ड पुराण – ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

8 – संसार का प्रशासनिक विधान


यूनानी दार्शनिक अरस्तु तथा योरूप के अन्य राजनीति शास्त्रियों और प्रशासनाचार्यों के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व भारतीय पौराणिक गृंथों में प्रशासन का जो स्वरूप दर्शाया गया था वह आज भी प्रशासनाचार्यों के लिये ऐक कीर्तिमान है। संसार के प्रशासन का विभागी-करण, उत्तरदाईत्व वितरण, कार्य क्षेत्रों का वर्णन तथा कार्य करने के साधन आज की सरकारों से अधिक सक्ष्म हैं। आधुनिक सरकारों में केवल साधनों और कर्मचारियों के नामों में ही थोड़ा बहुत बदलाव आया है, किन्तु सिद्धाँतों में कोई बदलाव नहीं आया।

भारत के ऋषि-मुनियों ने संसार के प्रशासन की जो व्याख्या की है वही विश्व के अन्य धर्म समुदायों ने भी थोड़ा बहुत स्थानीय फेरबदल कर के अपना है। उन्हों ने केवल देवी देवताओं को स्थानीय भाषा में नाम और परिधान ही बदले कर सभी कुछ भारतीय ही अपनाया है। मानस रुप में सौर मण्डल के सभी ग्रह तथा तत्व प्रशासन कार्यालय में शामिल हैं।

आधुनिक शब्दावली में संसार का प्रशासन मुख्यता इस प्रकार चलता हैः –

देवराज इन्द्र – इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के अधिपति हैं। संसार में सभी कुछ शक्ति से चलता है अतः वर्षा तथा विद्युत आदि शक्ति के सभी साधन उन के आधीन हैं जो इस सत्य को दर्शाता है कि शक्ति के बिना कोई भी प्रशासन नहीं चल सकता। देवराज इन्द्र का रहन-सहन तथा कार्य शैली उद्योग जगत के किसी भी मुख्य निदेशक के समान ही है। इन्द्र सर्वोच्च सृष्टि कर्ता के प्रधान प्रतिनिधि हैं तथा वह अपनी कार्य सिद्धी के लिये उन सभी साधनों का प्रयोग करते हैं जो आज के युग में अमेरिका, रूस या अन्य किसी भी देश के खुफिया तंत्र इस्तेमाल करते हैं।

साम दाम दण्ड और भेद के सभी हथियारों का आवश्यक्तानुसार प्रयोग करने से इन्द्र कभी भी नहीं हिचकिचाते। यदि उन की सत्ता के विरुद्ध कोई भी खतरा पनपने लगता है तो इन्द्र उस से निपटने के लिये शक्ति के साथ सुरा और सुन्दरी का सहारा भी लेते रहते हैं। उन का वाहन ऐश्वर्य का प्रतीक चिन्ह सफेद हाथी ऐरावत है तथा मुख्य शस्त्र वज्र। सारांश यह कि इन्द्र सभी प्रकार के सुख साधनों से सम्पन्न हैं क्योंकि वह स्वर्ग के स्वामी हैं।

प्रशासक में कलात्मिक रुचि भी होनी चाहिये अतः इन्द्र के चारों ओर अप्सराओं तथा गँधर्वों का जमावडा भी रहता है जो देवताओं के निजि मनोरंजन के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी ज़रूरत पड़ने पर कर्तव्य पालन के लिये कृत संकल्प हैं। इन्द्र के अमरावती मुख्यालय से अधिक समर्थवान तथा सुखदायक अन्य कोई सचिवालय संसार में नहीं है।

अग्नि – अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियाँ अग्नि के दूआरा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। अग्नि सभी प्राणियों में पाचन शक्ति का प्रतीक है। अर्थात सभी पदार्थ अग्नि में भस्म हो कर ही एक से दूसरे रूप में परिवर्तित होते हैं। चित्रों में अग्नि के दो चेहरे दर्शाये जाते हैं जो स्दैव विपरीत दिशाओं में निहारते रहते हैं। इस का अर्थ अग्नि की सार्थक तथा विनाशक शक्तियों को दर्शाना है। अग्नि पवित्र भी करती हैं तथा भस्म भी करती है।

सूर्य – सूर्य प्रत्यक्ष देवता है जो हमारे सौर मण्डल का केन्द्र है। सौर मण्डल में होने वाली सभी क्रियायें सूर्य की ऊर्जा से ही सम्पन्न होती हैं तथा जीवन के प्रत्येक अंग पर सूर्य का प्रभाव क्षेत्र है। दिन-रात पर सूर्य का ही अधिकार है अतः वह विश्व में समय निदेशक भी है। उस का कार्य-भार सरकार के मुख्य सचिव जैसा है।

वायु – वायु को पवन देव भी कहा जाता है तथा उन के आधीन वह प्राणदायनी शक्ति है जिस के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षण भर में नष्ट हो सकता है। वायु को सर्व व्यापक रहना पडता है। वनस्पतियों की प्रजनन क्रिया (फल-फूल लगना) में वायु का ही मुख्य योगदान है जो स्त्री-पुरुष पौधों को सम्पर्क में लाती है।

वरुण – वरुण जल स्त्रोत्रों का स्वामी है तथा वायु की तरह विश्व की एक अन्य जीवनदायनी शक्ति का संचालन करता है। वरुण को बर्फ के रूप में रिझ़र्व स्टाक रखना पडता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पडती है। अगर यही काम आजकल के किसी भ्रष्ट ठेकेदार के हाथ में होता तो सोचिये क्या स्थिति बन गयी होती।

यमराज – यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों के भौतिक शरीरों को नष्ट कर के उन के तत्वों को पुनः रीसाईकिलिंग करना ही उन का मुख्य उत्तरदाईत्व है। य़मराज के बिना पृथ्वी पर ही जीवन नरक समान हो जाये गा क्योंकि मृत्यु के अभाव में चंगेज़खाँ, बाबर, औरंगज़ेब तथा नादिरशाह जैसे दुष्ट पात्र आज भी हमारे जीवन को त्रासित कर रहे होते। यमराज विश्व में बदलाव के निमित हैं। विश्व की सब से बडी म्युनिस्पेलिटी के महापौर यमराज ही हैं।

कुबेर – कुबेर धन के अधिपति है तथा उन की छवि की तुलना किसी भी अर्थ शास्त्री या किसी भी वित्त मंत्री से कर सकते हैं। कुबेर देते ही है लेकिन बदले में वह कोई कर वसूल नहीं करते। ऐसी व्यव्स्था और किसी आदर्श सरकार में नहीं है।

मित्रः – मित्रः इमानदारी, मित्रता तथा व्यव्हारिक सम्बन्धों के प्रतीक देवता हैं। तुलनात्मक तौर पर उन्हें आधुनिक युग के किसी वरिष्ठ जन-सम्पर्क ऐवं स्तर्कता विभागाध्यक्ष का अग्रज कहा जा सकता है।

कामदेव – कामदेव स़ृष्टि में समस्त प्रजन्न क्रिया के निदेशक हैं। उन की पत्नी रति की तुलना विश्व-सुन्दरी से की जा सकती है तथा रति-कामदेव दम्पति आधुनिक युग में भी प्रेम प्रसंगों की सभी कल्पनाओं के प्रेरणादायक हैं । उन के बिना सृष्टि की कलपना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग ( बिना शरीर ) भी कहा जाता है। इस का अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिस का भौतिक वजूद नहीं होता। युवा रति-कामदेव दम्पति का तो प्रसंगिक औचित्य है लेकिन उन के समक्ष हाथ में पुष्प बाण लिये अधनंगे बाल रूपी रोमन क्यूपिड में चुलबुले पन के अतिरिक्त कोई औचित्य नहीं।

आदिति – आदिति को भूत, भविष्य, चेतना, तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त – संसार के लेखा जोखा कार्यालय को सम्भालते हैं और यमराज, स्वर्ग, तथा नरक के मुख्यालयों में ताल-मेल भी कराते रहते हैं।

सृष्टि के प्रशासन से सम्बन्धित देवी तथा देवताओं की सूची बहुत लम्बी है। यहाँ संक्षिप्त में केवल मुख्य देवों का ही चित्रण तथा उल्लेख किया गया है जो इस तथ्य को उजागर करता है कि प्राचीन काल में भी स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों की विचार धारा प्रशासन के क्षेत्र में कितनी सशक्त और यथार्थयुक्त थी। भारत केवल सपेरों का ही देश नहीं था अपितु आधुनिक प्रशासकों का मार्ग दर्शक भी था। प्रशासन के सभी कार्यक्षेत्रों का सुन्दर और सरल तरीके से व्यक्तिकरण कर दिया गया है।

अन्य धर्मों में तो अल्लाह और गाड सभी कार्य अपने पैगम्बर या पुत्र के माध्यम से ही करते है लेकिन हिन्दू विचार धारा में सभी प्राणी जिन में पशु पक्षी भी शामिल हैं सृष्टि के विधान में अपना अपना योग्दान देते रहते हैं। इसी लिये हिन्दूओं के पास 33 करोड देवी देवता हैं जो सृष्टि के विशाल प्रजातन्त्र को चलाते हैं और इसी तालमेल को हम आज इकोलोजिकल बैलेंस कहते हैं।

नारी प्रतिनिधित्व

विश्व में अपने प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं। इन की तुलना में हिन्दू समाज ने स्त्रियों की अनदेखी कभी नहीं की। सम्स्त प्राणियों के वैवाहिक सम्बन्धों को भी महत्व दिया गया है। उत्तरदाईत्व का वितरण स्त्री-पुरूषों के परस्परिक सम्बन्धों के अनुकूल ही किया गया है। वरदान देने तथा श्राप देने की क्षमता ईश्वरीय दम्पतियों में भी समान है। देवी देवता अकेले नहीं है और अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं।

त्रिमूर्ति –  भगवान ब्रह्मा – सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु -लक्ष्मी (पालन तथा साधन), और शिव – पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति) का परस्पर सम्बन्ध प्रसंगिक है। कार्य विभाजन अनुसार पत्नीयां ही पतियों की शक्तियाँ हैं। सृजन के लिये विद्या की, पौषण के लिये धन की तथा विध्वंस और रक्षा के लिये शक्ति की आवशयक्ता पड़ती है। त्रिमूर्ति की स्त्री शक्तियाँ भी अपने हाथों में पुष्प एवं शस्त्र धारण करती हैं जो विद्या, धन तथा शक्ति की सृजनता और ध्वंस करने की क्षमता का प्रतीक है।

अन्य देवी देवताओं का दाम्पत्य चित्रण भी इसी प्रकार प्रसंगिक है। कुछ अन्य पौराणिक देवगण यह हिन्दू धर्म की विचारधारा की विशालता है कि स्नातन धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की गणना करी जाती है क्यों कि वसुदैव कुटुम्बकम की भावना को सार्थक करने कि लिये हर प्राणी के जीवन को महत्व दिया गया है।

छोटा बडा कोई नहीं सभी अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं किन्तु सभी का वर्णन करना सम्भव नहीं। कुछ जाने पहचाने देवों की व्याख्या ही यहाँ की गयी हैः –

गणेष – गणेष बुद्धिमता के देव हैं तथा विघ्न नाशक माने जाते हैं। ऋद्धि और सिद्धी उन की पत्नियाँ हैं। पूजा–अर्चना में सर्व प्रथम गणेष जी की पूजा का विधान है क्यों कि बुद्धिमता के दुआरा ही सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। गणेष का शरीर मानव जैसा है किन्तु उन का शीश हाथी का है। उन का वाहन चूहा होता है। प्रकृति के एक छोटे से जीव का वाहन होना तथा प्रकृति के एक बड़े जीव का शीश धारण करना प्राणियों की उत्पति तथा विकास की परिक्रिया को भी दर्शाता है कि चूहा क्रमशः हाथी और फिर मानव में विकसित होता है। छोटे बडें सभी जीव परियावरण में ऐक दूसरे पर आश्रित हैं।

कार्तिकेय – कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वह देवताओं के सेनापति हैं। उन का वाहन मोर है तथा वह भगवान शिव के पुत्र हैं।

देवऋर्षि नारद – नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वह तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। उन को आधुनिक संदेशवाहकों का अग्रज कहना उचित होगा। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है तथा ऐक निजि सचिव की भान्ति स्दैव ईश्वर के सम्पर्क में रहते हैं। एक परम कुशल संदेशवाहक की तरह वह किसी भी स्थान पर किसी भी समय पहुँच सकते हैं। देवऋषि नारद उपने ऊपर कटाक्ष करने में अपनी ऐक ही मिसाल हैं। यह अत्यन्त शर्मनाक बात है कि देवऋर्षि नारद को चल-चित्रों तथा नाटकों में एक विदूषक की छवि में परस्तुत किया जाता है य़ा व्यंगात्मक ढंग से किसी भी चुगलखोर की तुलना उन से की जाती है। देवऋर्षि नारद सर्वोच्च ऋषि हैं।

हनुमान – हनुमान जी भी चिरंजीवी हैं। उन को एक आदर्श, निस्वार्थ, एवं कर्मठ योगी के रूप में दर्शाया जाता है। उन्हों ने अपने आप को प्रभु राम की सेवा के लिये पूर्णतया समर्पित कर दिया था। सेवा भाव के अतिरिक्त हनुमान जी विनम्र, बलशाली, बुद्धिमान आठ सिद्धियों के स्वामी हैं। यह सिद्धियाँ अणिमा (अदृष्य होना), लघिमा (अपना रूप सूक्ष्म कर के गुप्त होना) गरिमा (अपना रूप विशाल कर लेना) प्राप्ति (किसी भी अभिलाषित वस्तु की प्राप्ति होना) प्राकाम्यं (मन चाहा कार्य हो जाना), महिमा (अपना स्वरूप विशाल कर लेना), ईशित्वं (इश्वर की तरह शक्ति पा लेना), और वशित्वं (किसी को भी वश में कर लेना) हैं।

विचार करें तो इन में से कई सिद्धियाँ आज कम्प्यूटर की एनीमेशन तकनीक से कोई भी साधारण मानव यथार्थ कर सकता हैं। जो भ्रम आज कम्प्यूटर टच स्क्रीन के माध्यम से पैदा किया जा सकता है वही यदि योग साधना से अगर हनुमान जी ने प्राप्त किया हो तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। हनुमान जी ने कभी अपने बल अथवा बुद्धी पर गर्व नहीं किया।

हिन्दू धर्माचार्यों ने दार्शनिक्ता की सूक्ष्म विचारधारा के विकास को चित्रों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से जन-साधारण तक पहुंचाने की कोशिश लगातार की है। एक ओर ऋषि मुनियों की जटिल दार्शनिक्ता का सूक्ष्म ज्ञान वैज्ञियानिक तर्क की हर कसौटी पर खरा उतरता रहा है ता दूसरी ओर सूक्ष्म ज्ञान का मानवीकरण कर के उसे कथाओं तथा चित्रों के माध्यम से जन-साधारण तक भी पहुँचाया गया है।

सूक्ष्म ज्ञान तथा पौराणिक संग्रहों में समयानुसार यथोचित संशोधन भी होते रहे हैं। इस ज्ञान का भण्डार हमारे पास वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महा-काव्यों के साहित्य में आज भी संकलित तथा सुरक्षित है।

हिन्दू धर्म कोरा पैग्निज़िम या अन्ध-विशवास नहीं अपितु यथार्थवाद तथा कल्पना का सृजनात्मक मिश्रण है।

चाँद शर्मा

7 – प्राकृति का व्यक्तिकरण


स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपनी अनुभूतियों से प्राकृति की शक्तियों को पहचान कर साधारण मानवों के बोध के लिये उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दी है। शक्तियों के परस्पर प्रभाव तथा क्षमताओं को समझाने के लिये देवी देवताओं की कथाओं के साथ साथ उन के चित्र भी बनाये गये जो लोक प्रिय हो गये। उस समय ज्ञान लिखित नहीं था – केवल सुन कर ही श्रुति के आधार पर ही याद रखा जाता था। श्रुति से स्मृति ही ज्ञान का प्रवाह था। कालान्तर जन साधारण मे स्मर्ण रखने के लिये देवी – देवताओं के चिन्हों तथा बुतों के पूजन की स्थानीय विधियां भी प्रचिलित हो गयीं। गुण दोषों का व्यक्तिकरण कर के उन पर साहित्य का सृजन होने लगा। गुण-वाचक संज्ञाओं को सांकेतिक ढंग से वर्णित तथा चित्रित कर दिया गया।

हवा तो अदृष्य होती है किन्तु यदि तेज़ हवा को सांकेतिक ढंग से दिखाना हो तो झूलते हुये पेड़, हल्के पदार्थों का हवा में उड़ना तथा  धूल से आकाश का ढक जाना चित्रित कर दिया जाता है। इसी प्रकार से महा मानवों, राक्षसों तथा देवी देवताओं का भी सांकेतिक चित्रण किया गया। उन की शक्तियां दर्शाने के लिये उन के चार या और अधिक हाथ, एक से अधिक सिर तथा अन्य तरीकों से चित्रकारों की कलपना ने उन्हे अलंकृत कर दिया। इन सब प्रथाओं की पहल भी भारत से ही हुई। सृष्टि के आरम्भ से ही सभ्यता तथा ज्ञान के विकास में भारत ही विश्व के अन्य मानव समुदायों का मार्ग दर्शक था।

सैंकडों वर्ष पश्चात धीरे धीरे विश्व में जहाँ जहाँ भी पैगनज़िम फैला तो उस के साथ ही दंत-कथाओं के माध्यम से ऐसी ही प्रतिक्रिया अन्य स्थानों पर भी फैलती गयी। अंग्रेज़ी साहित्य में केंटरबरी टेल्स तथा अरबी साहित्य में अरेबियन नाईटस जैसे मनोरंजक और काल्पनिक कथा संग्रह भी लिखे गये किन्तु उन का कोई वैज्ञ्यानिक आधार नहीं था।

हिन्दू चित्रावली की विशेषतायें

कुछ बातों में हिन्दू व्याख्यायें अन्य धर्मों से अलग हैं जैसे किः-

भूगोलिक तथा समय सीमाओं से स्वतन्त्र  – हिन्दू चित्रावली अन्य सभी समुदायों से अधिक सुन्दर, यथार्थवादी, व्याख्या सम्पन्न तथा पूर्णत्या मौलिक और वैज्ञ्यानिक थी। वह हर प्रकार के भूगौलिक तथा समय सीमाओं से भी मुक्त थी। हिन्दूओं के पौराणिक साहित्य के पात्र ना केवल धरती पर बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पग-चिन्ह छोड़ चुके हैं। ना केवल दैविक शक्तियां बल्कि कई ऋषि-मुनि और साधारण मानव भी  एक गृह से अन्य लोकों में विचरते रहे हैं। यह तथ्य उजागर करता है कि पौराणिक युग से ही हिन्दूओं का भूगौलिक तथा अंतरीक्ष ज्ञान अन्य मानव समाजों से बहुताधिक सम्पन्न था। देवी देवताओं के अतिरिक्त कई ऋषि-मुनि और तपस्वी जन्म मरण के बन्धन से मुक्त थे और चिरंजीवी की पदवी पा चुके थे जिन मे हनुमान, परशुराम, नारद, वेदव्यास, दुर्वासा, जामावन्त तथा अशवथामा के नाम प्रमुख हैं। वह किसी भी स्थान पर प्रगट अथवा किसी भी स्थान से अदृष्य होने में भी सक्ष्म माने जाते हैं। हिन्दू धर्म का कोई भी देवी देवता दारिद्रता में लिप्त नहीं है। सभी सुन्दर तथा रत्नजडित वस्त्राभूष्णों से सुसज्जित रहते हैं और किसी भी प्राणी को वरदान दे कर उस के आभाव को दूर करने में सक्ष्म है। हर देवी देवता के पास अपराधी को दण्ड देने के लिये अस्त्र-शस्त्र तथा पुन्यकर्मी को पुरस्कृत करने के लिये पुष्प भी रहते हैं। कोई भी देवी देवता लाचार नहीं कि लोग उसे सूली पर टाँग दें और वह कुछ भी ना कर सके। जो देवता स्वयं ही लाचार और दरिद्र हो वह दूसरे का भला नहीं कर सकता। किसी को कोई साँवन्तना भी नहीं दे सकता। अतः हिन्दू देवी –देवता समृद्ध, शक्तिशाली, परम ज्ञानी होने के साथ साथ मानवी भावनायें रखते हैं।

परियावरण का प्रतिनिधित्व – हिन्दूओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया है। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखना, जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देना, बेल, पीपल, तुलसी, नीम और वट वृक्ष आदि को प्रतीक स्वरूप पूजित करना, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता के समान पूज्य मान कर प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य है। पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की ही तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना हुआ है लेकिन स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। ईश्वर को सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य को दर्शाने के लिये छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्ह और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है।

स्वर्ग और नरक – प्रत्येक धर्म ने अपने स्थानीय वातावरण अनुसार स्वर्ग और नरक की कल्पना की है। जो कुछ भी उन के स्थानीय वातावरण में सुखदायक है वह स्वर्ग के समान है और जो कुछ उन के स्थानीय वातावरण में दुखदायक है वैसा ही उन का नरक भी है। अतः तपते हुये रेगिस्तान में पनपे मुसलमानों का स्वर्ग (बहशित, जन्नत) छायादार तथा ठंडा रहता है और बहुत सारे जल स्त्रोत्रों से परिपूर्ण है क्यों कि अरब में इन्हीं वस्तुओं की कमी है। बहिशत फल-फूलों से लदा हुआ है तथा वहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ अल्लाह के विशवासनीयों की सेवा करने के लिये हरदम तैनात रहती हैं।  इसलामी नरक (दोज़ख, जहन्नुम) हमेशा आग की तरह तपता रहता है जैसा कि अरब का वास्तविक वातावरण है। दोज़ख में काफिरों (विधर्मियों) को यात्ना देने का सामान हर समय तैय्यार रहता है ताकि काफिरों और हिन्दूओं  को बुतपरस्ती करने के अपराध में जलाया जा सके। कदाचित उन्हें यह विदित नहीं कि हिन्दूओं का शरीर तो दाह संस्कार के समय से ही जल चुका होता है और आत्मा कभी नहीं जलती।

इस के विपरीत योरूप में बसे इसाईयों के स्वर्ग में सूर्योदय तो सदा सुख प्रदान करता है किन्तु उन का नरक बर्फ से हमेशा ढके रहने के कारण एकदम ठंडा है। सभी धर्मों का काल्पनिक स्वर्ग आकाश में है और नरक धरती के नीचे है। स्वर्ग का प्रशासन देवताओं, हूरों, परियों अथवा अप्सराओं के अधीन है और वह श्रंगार, गायन तथा नृत्य के माध्यम से स्वर्गवासियों का मनोरंजन करनें में पारंगत हैं। नरक क्रूर प्रशासकों के आधीन है जो देखने में क्रूर, भद्दे और बेडौल शरीर वाले हैं। स्वर्ग में जाने के लिये ईश्वर के पुत्र या प्रतिनिधि की सिफारिश होनी ज़रूरी है।

हिन्दू धर्मानुसार स्वर्ग में केवल पुन्यकर्मी ही अपने पुरषार्थ से ही रहवास पाते हैं तथा पाप करने वाले नरक में य़मराज के अधीन रह कर यातना पाते हैं। अन्य धर्मों और हिन्दू धर्म के स्वर्ग- नरक की परिकल्पना में मुख्य अन्तर यह है कि  अन्य धर्म पुनर्जन्म में विशवास नहीं रखते। इस कारण से अन्य धर्मियों के पास वर्तमान जन्म के पश्चात पुन्य कर्म करने का कोई विकल्प ही नहीं बचता है। केवल हिन्दू ही अगले जन्म में पुन्य कर्म कर के प्रायश्चित कर सकते हैं और नारकीय जीवन से मुक्ति पा कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।वह उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं, उन के पास आशा की किरण है।

त्रिमूर्ति – हिन्दू ऐक ईश्वर में विशवास रखते हैं लेकिन उसी सर्व-व्यापि, सर्व शक्तिमान एवं सर्वज्ञ्य ईश्वर को तीन प्रथक रूपों में, तीन मुख्य क्रियाओं के कर्ता के तौर पर भी निहारते है। इन तीनों रूपों को त्रिमूर्ति का संज्ञा दी गयी है। उन के चित्रों में वैज्ञिय़ानिक तथ्यों की कलात्मिक ढंग से व्याख्या दर्शायी गयी है। 

  • ब्रह्मा- ब्रह्मा के रूप में ईश्वर सृष्टि के सर्जन करता हैं। उन के चित्र में चार मुख तथा चार हाथ दर्शाये जाते हैं। प्रत्येक मुख एक एक वेद के का उच्चारण प्रतीक है. उन के हाथ में जल से भरा कमण्डल सृष्टि की सर्जन शक्ति का प्रतीक है। उन के दूसरे हाथ में माला के मनकों की गणना करते रहना सृष्टि के कालचक्र का स्वरूप है। तीसरे हाथ में वेद का ज्ञान तथा चौथे हाथ में कमल का फूल ब्रह्मशक्ति का प्रतीक है। भगवान ब्रह्मा विद्या एवं कला की देवी सरस्वती के पति हैं। विद्या एवं कला ब्रह्मा की सर्जन शक्ति का आधार हैं अतः उन का संयोग ब्रह्मा के साथ यथेष्ट है। ब्रह्मा का वाहन विवेकशील, सुन्दर तथा स्वछ पक्षी हँस होता है। ब्रह्मा का मुख्य दाईत्व सर्जन करना हैं अतः सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह सृष्टि के अन्य कामों में कोई दखल नहीं देते। ब्रह्मा को सर्जन कर्ता होने की वजह से परम पिता भी कहा जाता है तथा उन्हें अकसर वृद्ध ही दर्शाया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देष्य यह भी है कि साधनहीन बुद्धिमान व्यक्ति भी  कोई कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता और एक वृद्ध की तरह आशक्त होता है। संसार भर में ब्रह्मा की उपासना का केवल एक ही मन्दिर पुष्कर, राजस्थान में है। बुद्धि-जीवियों को चापलूसों की ज़रूरत नहीं पडती।
  • विष्णु- विष्णु के रूप में ईश्वर सृष्टि के पालक हैं। चित्रण में उन के भी चार हाथ दर्शाये जाते हैं तथा उन का शरीर नील-वरण का होता है। उन के हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं जो संसाधनों की शक्ति तथा पुरस्कार के प्रतीक हैं। वह शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं तथा धन-वैभव की देवी लक्ष्मी उन की पत्नी के रूप में स्दैव उन के चरणों के समीप रहती है। सर्व-व्यापि होते हुये भी उन का निवास क्षीर सागर में होता है क्योंकि संसार का समस्त धन वैभव सागर से ही निकला है। उन का चित्रण पूर्णत्या ऐशवर्य तथा सुख वैभव का प्रतीक है तभी तो वह सृष्टि के पालन करने में समर्थ हैं। भगवान विष्णु का वाहन महातेजस्वी पक्षी गरुड़ है। सृष्टि के भरण-पोषण तथा प्रशासन भगवान विष्णु के दाईत्व में होने के कारण जब भी सृष्टि में कोई विकट समस्या उत्पन होती है अथवा धर्म की हानि होती है और लोग अपने  कर्तव्य भूल कर मनमानी करने लगते हैं तो उस समस्या के समाधान के लिये भगवान विष्णु स्वयं अवतार ले कर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। स्पष्ट है धन – वैभव वालों के भक्त भी अधिक होते हैं।
  • महेशवर- महेशवर अथवा भगवान शिव की छवि में ईश्वर को सृष्टि के संहारक के रूप में दर्शाया जाता है। भगवान शिव स्दैव ध्यान मुद्रा में कैलास पर्वत पर विराजते हैं। उन के कंठ में विषैले सर्पों की माला, माथे पर चन्द्र तथा हाथ में त्रिशूल रहता है तथा एक हाथ आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में रहता है। सृष्टि के संहारक होते हुये भी भगवान शिव करुणामय तथा सकारात्मक शक्ति के प्रतीक हैं और वह पाप नाशक हैं। उन का वाहन नन्दी बैल है तथा उन की पत्नी शक्ति की देवी दुर्गा है जिन को कई नामों  तथा रूपों में दर्शाया जाता है। भगवान शिव को समस्त कलाओं का स्त्रोत्र भी माना जाता है तथा उन के ताँडव नृत्य को उन की संहारक क्रिया के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। स्पष्ट है शक्तिशाली का सभी आदर करते हैं, डरते हैं तथा उस का संरक्षण प्राप्त करते हैं। 

वास्तव में ईश्वर के तीनों स्वरूप एक ही सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तीन अलग अलग क्रियाओं के प्रतीक हैं। भगवान की तीनों क्रियायें – सृष्टि का सर्जन, पोषण तथा हनन उसी प्रकार हैं जैसे एक ही व्यक्ति माता-पिता के लिये पुत्र, पत्नी के लिये पति, तथा अपने बच्चों के लिये पिता होता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति तीन प्रथक प्रथक क्रियायें करता हुआ ही एक ही व्यक्ति है उसी तरह एक ही परमात्मा के तीन रूप त्रिमूर्ति में प्रगट होते हैं।

त्रिमूर्ति का विधान शक्ति के विभाजन के सिद्धान्त का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उन्नीसवीं शताब्दि में फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू ने योरूप वासियों को सिखाया था। मांटैस्क्यू का ज्ञान अधूरा था। उस ने विधि सर्जन, प्रशासन तथा न्याय पालिका को तो अलग कर दिया किन्तु उन में ताल मेल की व्यवस्था नहीं रखी जो आज सभी कुशासनों की जड है। भारतीय विधान में ऐसा दोष नहीं था। सर्व शक्तिमान ईश्वर को त्रिमूर्ति में तीन शक्तियों के तौर पर दर्शाया गया है जो सर्जन, पोष्ण तथा हनन का अलग अलग कार्य  करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं। अलग हो कर भी आपस में विचार विमर्श करती हैं। इस का सारांश यह है कि सृष्टि की सरकार शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के साथ साथ आपसी ताल-मेल को भी बनाये रखती है जिस की मानवी सरकारें अकसर अनदेखी करती हैं। प्रशासन के विभिन्न अंगों में तालमेल रखना एक अनिवार्यता है।

हिन्दू धर्मानुसार ईश्वर किसी विशेष स्थान या किसी भी समय सीमा के बन्धन से मुक्त है। ईश्वर अनादि है। उस का ना कोई आरम्भ और ना ही कोई अंत है। वह परम शाशवत है। उस की शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हो सकता।

चाँद शर्मा

टैग का बादल