हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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सुधारक, निन्दक या सहायक


 

सोशल मीडिया में प्रखर ज्ञानियों के कुछ कमेन्ट्स पढ कर केवल औपचारिकता के नाते केवल अपने विचार लिख रहा हूँ। यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मेरे निजि विचार हैं अगर किसी को तर्क-संगत ना लगे, तो ना आगे पढें और ना मानें। मेरे पास केवल ऐक साधारण व्यक्ति का दिमाग़ है, पहिरावा और साधन हैं और मैं जो कुछ साधारण बुद्धि से समझता हूँ वही दूसरों के साथ कई बार बाँट लेता हूँ। किसी दूसरे को सुधारने या बिगाडने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है।

सामान्य भौतिक ज्ञान

भौतिक शास्त्र के सामान्य ज्ञान के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वाचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने–बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन–विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जीवत प्राणी

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधारित है। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने–आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

जीवन-आत्मा

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार बिजली कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार बिजली एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। बिजली काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

ऐकता और भिन्नता

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से बिजली प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

कण-कण में ईश्वर

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं और यह सिद्धान्त वेदों के प्रकट होने से भी पूर्व आदि-वासियों को पता था जो प्राकृति के अंगों में भी, ईश्वर को कण-कण में अनुभव करते थे और इन में मानवों से लेकर चूहे तक सभी शामिल हैं। स्नातन धर्म की शुरुआत यहीं से हुयी है।

ईश्वर की मानवी परिभाषा

ईश्वरीय शक्तियों को मानवी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन के बारे में अभी विज्ञान भी बहुत कुछ नहीं जानता। जिस दिन विज्ञान या कोई महाऋषि जिन में स्वामी दयानन्द भी शामिल हैं ईश्वर को अपनी परिभाषा में बान्ध सके गे उसी दिन ईश्वर सीमित हो कर ईश्वर नहीं रहै गा। ईश्वर की शक्तियों के कुछ अंशों को ही जाना जा सकता है जैसे अन्धे आदमियों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर अनादी तथा अनन्त है और वैसे ही रहै गा। यही सब से बडा सत्य है।

समुद्र के जल में आथाह शक्ति होती है। बड़े से बड़े जहाज़ों को डुबो सकता है। लेकिन अगर उस जल को किसी लोटे में भर दिया जाये तो उस जल में भी समुद्री जल के सभी गुण विधमान होंते हैं लेकिन लोटे में रखा जल में जहाज़ को डुबोने की शक्ति नहीं हो गी । अगर उस जल को वापिस समुद्र में डाल दिया जाये तो फिर से जहाज़ों को डुबोने की शक्ति उस जल को भी प्राप्त हो जाये गी। यह बात भी पूर्णत्या वैज्ञानिक सत्य है।

मूर्ति की आवश्यक्ता

जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं । यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता का बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसे मिट्टी का खिलोना या माडल बना की दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उस की पूजा करने में भी कोई बुराई नहीं समझता। मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।

तर्क और आस्था

जहां तर्क समाप्त होता है वहीं से आस्था का जन्म होता है। जहां आस्था में तर्क आ जाये वहीं पर आस्था समाप्त हो जाती है और विज्ञान शुरु हो जाता है। दोनो गोलाकार के दो सिरे हैं। हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। सूर्य की पेन्टिगं पर ‘ओइम’ लिख कर उसे अपना झण्डा बना लेना आर्य समाज की आस्था है, जो किसी वैज्ञानिक तर्क पर आधारित नहीं है, ऐक तरह का असत्य, और मूर्ति पूजा ही है।  लेकिन अपनी आस्था का आदर तर्कशास्त्री आर्य समाजी भी करते हैं।

हिन्दू-ऐकता

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। मेरा निजि मानना है कि वैदिक धर्म और सनातन धर्म ऐक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड है। बिना चित्रों के तो विज्ञान की पुस्तक भी बोरिंग होती है। आप अपने घर में अतिथियों को अपनेविवाह और जन्म दिन की ऐलबम दिखाते हो तो क्या वह सभी ‘असत्य ’ होता है?

भगवान राम ने भी रामेश्वरम पर शिवलिंग स्थापित कर के मूर्ति पूजा करी थी। तो क्या भगवान राम आर्य नहीं थे? कोई भी स्नातनी हिन्दू आर्य-समाजियों को मूर्ति पूजा के लिये बाध्य नहीं करता। लेकिन जिस तरह घरों में आर्य-समाजी अपने माता-पिता की तसवीरें लगाते हैं स्वामी दयानन्द सरसवती के चित्र लगाते हैं उसी तरह शिव, राम, और कृष्ण के चित्र भी लगा दें तो सारा हिन्दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी स्नातनी हिन्दू आर्य हैं और वेदों, उपनिष्दों, रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों और पुराणों को लिखने वाले सभी ऋषि आर्य थे। आर्य-समाजी नहीं थे। आर्य-समाज तो ऐक संगठन का नाम है।

आर्य समाजी सुधारक

हर आर्य-समाजी अपने आप को स्नातन धर्म का ‘सुधारक’ समझता है चाहे उस ने वेदों की पुस्तक की शक्ल भी ना देखी हो। आधे से ज्यादा आर्य समाजियों ने तो ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ भी नहीं पढा होगा। जरूरत है आर्य समाजी अपनी तालिबानी मानसिक्ता पर दोबारा विचार करेँ। आर्य समाजी कहते हैं ‘जर्मन और अंग्रेज़ों ने हमारे वेद पढ कर सारी प्रगति करी है। वैज्ञानिक अविष्कार किये हैं।’ चलो – यह बात तो ठीक है। उन्हों ने हमारे ग्रंथ पढ कर और रिसर्च करी, मेहनत करी और अविष्कार किये। अब आर्य समाजी यह बताये कि उन्हों ने अपने ग्रंथ पढ कर कौन-कौन से अविष्कार किये हैं। स्वामी दयानन्द ने उन्हें वेदों का महत्व बता दिया फिर आर्य समाजी किसी ऐक अविष्कार का नाम तो बताये। अगर नहीं करे तो क्यों नहीं करे?  क्या उस के लिये भी जर्मन, अंग्रेज़ या स्नातनी हिन्दू कसूरवार हैं? दूसरों को कोसते रहने से क्या मिला? आर्य समाजी कभी स्नातनी हिन्दूओं को कभी जैनियों – बौधों और सिखों का विरोध कर के हिन्दू ऐकता को  खण्डित करने के इलावा और क्या करते रहै हैं? दूसरों की ग़लतियां निकालने के इलावा इन्हों ने और क्या किया है – वह बताने का प्रयास क्यों नहीं करते?

हम ने अकसर आर्य समाजियों को स्नातनी विदूवानों को पाखणडी या मिथ्याचारी कहते ही सुना है। आर्य समाजियों के लिये अब चुनौती है कि दूसरों की निन्दा करते रहने के बजाये अब वह अपने वैदिक ज्ञान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन इण्डिया’ की अग्रिम पंकित में अपना स्थान बनाये। आस्था का दूसरा नाम दृढ़ निश्चय होता है। आप किसी भी मूर्ति, वस्तु, स्थान, व्यक्ति, गुरु के साथ आस्था जोड कर मेहनत करने लग जाईये सफलता मिले गी। वैज्ञानिक की आस्था अपने आत्म विशवास और सिखाये गये तथ्यों पर होती है। वह प्रयत्न करता रहता है और अन्त में अविष्कार कर दिखाता है।

जिहादी मानसिक्ता

किसी हिन्दू को अपने आप को आर्य कहने के लिये आर्य समाज से प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। सभी हिन्दू आर्य हैं और सभी आर्य हिन्दू हैं। फिर आर्य समाज ने दोनो के बीच में अन्तर क्यों डाल रखा है।  स्नातन धर्म ने तो स्वामी दयानन्द को महर्षि कह कर ही सम्बोधित किया है। लेकिन यह समझ लेना कि स्वामी दयानन्द सर्वज्ञ थे और उन में कोई त्रुटि नहीं थी उसी इस्लामी मानसिक्ता की तरह है जैसे मुहम्मद के बाद कोई अन्य पैग़म्बर नहीं हो सकता।

अधाकांश आर्य समाजियों के मूहँ से वेदिक ज्ञान कम और दूसरों के प्रति आलोचनायें, निन्दा, गालियां ही अधिक निकलती हैं जैसे सत्य समझने – समझाने का लाईसेंस केवल उन्हीं के पास है। सत्य की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने में लगे रहते हैं हर धर्म घटक में गन्दगी कहाँ पर है। इसे सत्य की खोज तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता।

चुनौती

कुछ करना है तो आर्य समाजियों को युवाओं में नैतिकता का पाठ पढाने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिये। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशस, वेलेन्टाईन-डे, न्यू-इयर-डे, आतंकवादियों आदि की विकृतियों को भारत में फैलने से रोकने के लिये क्या करना चाहिये, उस पर विचार कर के किसी नीति को सफलता से अपनाये और सक्षम कर के दिखायें।

बच्चों और युवाओं को वेद-ज्ञान, संस्कृत भाषा का आसान तरीके से ज्ञान का पाठ्य क्रम तैय्यार कर के ऐसा साहित्य तैय्यार करें ताकि वह ‘जेक ऐण्ड जिल’ को भूल कर भारतीयता अपनायें और साथ ही साथ ज्ञान भी हासिल करें। ज्ञान का अर्थ कुछ मंत्र रटा कर तोते की तरह बुलवाना नहीं होता, बल्कि ज्ञान को इस्तेमाल कर के वह अपनी जीविका इज्जत के साथ कमा सकें। युवाओं को व्यकतित्व विकास की शिक्षा आधुनिक तकनीक के साथ लेकिन भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुरूप किस प्रकार दी जाये इस को क्रियात्मिक रूप देना चाहिये। व्यकतित्व ऐसा होना चाहिये जो दुनियां के किसी भी वातावरण में आत्म विश्वास और दक्षता के साथ आधुनिक उपकरणों के साथ काम कर सके। ऐसा व्यकतित्व नहीं बने कि वह केवल दूर-दराज गाँव में छिप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीविका कमाने लायक ही बन पायें।

किसी प्रकार का साफ्टवेयर या हार्डवेयर अपनी वैदिक योग्यता से सम्पूर्ण स्वदेश बनायें ताकि हमें बाहर से यह सामान ना मंगवाना पडे। हमारे पास इंजीनियर, तकनीशियन, प्रयोग-शालायें, अर्थ-शास्त्री आदि सभी कुछ तो है। अब क्यों नहीं हम वह सब कुछ कर सकते जो अंग्रेज़ों और जर्मनी वालों ने आज से 200 वर्ष पूर्व  “हमारी नकल मार के” कर दिखाया था। इस प्रकार के कई सकारात्मिक काम आर्य समाजी अब कर के दिखा सकते हैं। उन्हें चाहिये कि आम लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण दिखायें कि हमारा यह हमारा ज्ञान विदेशियों ने चुराया था, अब हमारे पास है जिस का इस्तेमाल कर के हम विश्व में अपनी जगह बना रहै हैं। रोक सको तो रोक लो। केवल मूर्ति पूजा का विरोध कर के और अपने वेदों का खोखला ढिंढोरा पीट कर आप विश्व में अपनी बात नहीं मनवा सकते। कुछ कर के दिखाने की चुनौती आर्य बन्धुओं, वेदान्तियों और प्रचारकों को स्वीकार करनी पडे गी।

सत्यं वदः – प्रियं वदः

बहस और शास्त्रार्थ में ना कोई जीता है और ना ही कोई जीते गा। मैं भारत की प्राचीन उपलब्धियों का पूर्ण समर्थन करता हूँ लेकिन लेकिन आर्य समाजी मानसिक्ता का नहीं। सत्य को कलात्मिक तरीके से कहना ही वैज्ञानिक कला है। ऐक नेत्र हीन को सूरदास कहता है तो दूसरा अन्धा – बस यही फर्क है। “सत्यं वदः – प्रियं वदः ” का वेद-मंत्र  आर्यसमाजी भूल चुके हैं। इस लिये किसी की आस्था का अपमान कर के सत्यवादी या सुधारक नहीं बन बैठना चाहिये। यही भूल स्वामी दयानन्द ने भी कर दी थी। अब उसी काम का टेन्डर आमिर खान ने भर दिया है और प्रोफिट कमा रहा है। जो कुछ बातें आर्य समाजी करते रहै हैं वही आमिर खान ने भी करी हैं जिस का समर्थन फेसबुक पर आर्य समाजी कर के हिन्दूओं का मज़ाक उडा रहै हैं। सोच कर देखो – दोनों में कोई फर्क नहीं।

मेरा लक्ष्य केवल अपने विचार को दूसरों के साथ शेयर करना है किसी को मजबूर करना या उन का सुधारक बनना नहीं है। मुझे भी अब आगे बहस नहीं करनी है। जो सहमत हों वही अपनी इच्छा करे तो मानें। वेदिक विचार और सनातनधर्म की आस्था दोनों ऐक ही सिक्के के पहलू हैं और दोनों बराबर हैं। किसी को भी अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बन कर दूसरे का सुधारक बनने की जरूरत नहीं।

चाँद शर्मा

निर्धारित स्थान कम होने के कारण श्री वेदानुरागी जी की टिप्पणियों का उत्तर यहां दिया जा रहा हैः –

 

आप की टिप्पणियों के बारे में मैं केवल अपने विचारों को स्पष्ट कर रहा हूँ उन को मानना या ना मानना आप की मरज़ी है। आर्य-समाजी अपने वेदिक ज्ञान की चोरीका दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहने के बजाये खुद कोई चमत्कारी अविष्कार कर के दिखायें तभी देश और वेदों का गौरव वास्तव में बढे गा।

भगवान की सारी परिभाषायें मानवों ने ही बनाई हैं। भगवान उन परिभाषाओं से परे भी हो सकते हैं जो आजतक बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और ऋषियों ने बनाई हैं। ईश्वर को देखने और दिखाने का दावा करने वाले सभी प्रवक्ता उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्हों ने हाथी को टटोल कर प्रमाणित कर दिया था। इस लिये यह कहना कि ईश्वर यह कर सकता है, वह नहीं कर सकता आदि बेकार की बातें हैं।

इस देश में हजारों ऋषि-मुनि हुये हैं जो स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी अधिक विद्वान थे। उन सभी के ज्ञान को केवल सत्यार्थ-प्रकाश पढ कर पाखण्ड’, ‘असत्य, याअनर्गलबातें कहना, अपने आप को सभी का सुधारक बोल कर अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बने रहना तालिबानी मानस्क्ता नहीं तो और क्या है? स्वामी दयानन्द ने अपने विचारों का ऐक थिसिस सत्यार्थ-प्रकाश लिखा है वह उन के व्यक्तिगत विचार थे। कोई भी स्नातक कुछ गिने-चुने विषयों में पारंगत हो सकता है, विश्वविधालय की सभी फैक्लटियों में पारंगत नहीं माना जाता। स्नातन धर्म के किसी भी प्राचीन ऋषि, या महऋषि ने सर्वज्ञ होने का दावा कभी नहीं किया।

आदि-मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं तथा उपलब्धियों का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे-धीरे आर्य समाज की स्थापना से सैंकडों वर्ष पूर्व स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया है। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं जिन्हें वेदिक-धर्म कहा जाता रहा है।

आर्यशब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तथा सभ्यव्यक्ति के लिये किया जाता है भारत में बाहर से आने वालों को उन की सभ्यता और रहन सहन के अनुसार यवन, मलेच्छ, विधर्मी, दस्यु या अनार्य कह कर पहचाना जाता था।आर्य-समाजऐक संस्था का नाम है इसी संस्था के लोगों को आजकल आर्य-समाजीकहा जाता है। वास्तव में सभी स्नातन धर्मी आर्यहैं और सभी आर्यहिन्दू हैं। इस ऐकता को समझना चाहिये। उसी तरह आर्य-समाजियों के अपने आप को हिन्दू कहने में शर्माना नहीं चाहिये।

आदि काल से ही हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता आया है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। हिन्दू धर्म ने कुछ सार्थक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी महत्व दे कर अपनाया है। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

जब आप कोई फिल्म देखते हैं तो फिल्म की कहानी, पात्र, दृष्य और सम्वाद सभी कुछ ‘असत्य’ है लेकिन फिर भी फिल्म के वातावरण के साथ अपनी भावनाओं को जोड कर दर्शक हँसते, रोते और भावुक हो जाते हैं। उसी तरह मन्दिर या किसी धर्म-स्थल के वातावरण में भक्त अपनी भावनाओं को जोड कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। किसी भी विषय से सम्बन्धित अगर कोई ट्रैनिंग-ऐड नौसिखियों के इलावा अगर किसी विकसित के लिये भी इस्तेमाल कर दी जाये तो वह कोई बहुत बडा अपराध नहीं हो सकता। अगर कोई व्यस्क भी अपनी इच्छा से मूर्ति पूजा कर लें तो उस में कोई बुराई नहीं है।

आप का कथन “ईश्वर चूहे में है लेकिन चूहा ईश्वर नहीं है”- लेकिन चूहा भी उसी ईश्वर का अंश तो हैअगर आप किसी रंग-बिरंगे शीशों-जडित कमरे में खडे होकर अपना प्रतिबिम्ब देखें गे तो वह हर शीशे में टुकडे के रंग के अनुसार ही दिखाई दे गा। इस का अर्थ यह नहीं कि आप को ‘बांट’ दिया गया है। उसी तरह सृष्टिकर्ता भगवान का प्रतिबिम्ब भी हर क़ृति में है, जिस में चूहा भी शामिल है। भगवान की छवि चूहे या किसी भी छोटे-बडे जीव में निहार लेना भगवान को टुकडों में बांटना नहीं होता। उस के लिये फतवा जारी कर देना कि मूर्ति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा करना आध्यात्मिक अपराध है केवल तालिबानी मानसिक्ता के सिवा और कुछ नहीं।

जिस तरह वायु सभी जगह मौजूद है परन्तु अदृष्य है, रंग या धूयें के माध्यम से प्रगट हो कर दिखाई दे देती है, उसी तरह ईश्वर भी सभी जगह मौजूद है मगर दिखाई नहीं देते। वह किसी भी स्थान पर किसी अन्य माध्यम से प्रगट होने का आभास दे सकते हैं। मैं ने चूहे की मूर्ति पूजा करने को नहीं कहा था लेकिन चूहे के कारण सभी मूर्तियों में भगवान का ना होने का फतवा देना भी ज्ञानयुक्त नहीं था।

अगर भगवान की मूर्ति से थोडा प्रसाद चूहे ने उठा लिया था तो भगवान क्या बालक मूलशंकर की शंका को समाप्त करने के लिये वहां चूहे को प्रसाद चुराने के अपराध में भस्म कर देते? अगर आप ही का अबोध ग्रैंडसन आप के खाने की प्लेट में से बिना पूछे कुछ उठा कर खा ले तो क्या आप उसे दण्ड दें गे?

अगर कोई अपनी आस्था किसी वस्तु में रखता है तो आप का क्या जाता है। आप उस पर बेकार नुक्ताचीनी मत करो। मूर्ति पूजा विरोधी तालिबानी ऐजेण्डा मत अपनाओ। हिन्दू समाज में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये सब घटकों के साथ चलो। इस प्रकार का कथन कि “हम तो सभी के सुधारक हैं ” उद्दण्ड मानसिक्ता का प्रतीक है ।

आप ने लिखा है कि “आर्य समाज के विद्वान शोध कर नए साधन बनायेंगे लेकिन पहले उनके समुचित वेतन की व्यवस्था कर…अरब रुपया खर्च कर के एक शोध केंद्र बना कर दीजिये…गुरुकुल आर्य समाज के सब से ज्यादा हैं। ” अगर आप योरुप के वैज्ञानकों की जीवनियां पढें तो आप को पता चले गा कि उन में से किसी के पास सरकारी साधन नहीं थे। उन्हों ने पहले अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपने प्रयासों को शुरु किया था। आविष्कार करने के लिये पहले उद्देश की कल्पना करनी पडती है फिर उस का चित्र बनता है। चित्र के अनुसार अविष्कार की मूर्ति (माडल) तैय्यार की जाती है। फिर माडल को साकार करने के लिये सीमित साधन, लग्न, आस्था, सकारात्मिक सोच और हिम्मत की जरूरत पडती है। शुष्क विज्ञान की जरूरत इस के बाद पडती है।

राईट बन्धु उडने की कल्पना कर के अपने जिस्म पर पक्षियों की तरह पंख लगा कर छत से कूद पडे थे। हिम्मत के सहारे काम करते रहै और ऐक दिन हवाई जहाज बन गया। योरुप के वैज्ञानिक हमारा वेदिक ज्ञान चुरा कर अविष्कार के बाद अविष्कार करते चले गये और हमारे स्वदेशी आर्य समाजी केवल मूर्ति विरोध को अपना ऐजेंडा बना कर आज भी वहीं खडे हैं।

जार्ज स्टीफ्नसन ने जब देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो पहले उस को प्रयोग में लाने के लिये कल्पना के सहारे चित्र बनाये जो आर्य-समाजी सोच के अनुसारअसत्यथे। ऐक बालक ने देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो उस ने अपनी इमेजिनेश्न, आस्था, सकारात्मिक वैज्ञानिक सोच और लग्न के सहारे स्टीम इंजन बना कर दिखा दिया।

चित्र का बनाना इस्लाम में भी अपराध है इस लिये आज तक किसी मुस्लिम ने भी कोई अविष्कार नहीं किया। शुष्क वेदिक ज्ञान होते हुये भी हमारे पास कल्पना की उडान, सक्रात्मिक सोच और हिम्मत नहीं थी इसी लिये आर्य-समाजी भी कोई अविष्कार नहीं कर सकते और केवल मूर्तियों के माडलों के बहिष्कार पर ही फतवा जारी करते रहै हैं।

आप का तर्क है कि “आपके पुराणों में लिखा है की गणेश जी का सर शिव जी ने हाथी के बच्चे का सर काट कर लगा दिया था तो आप क्या ऐसा कर के दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो कम से कम इस झूठी कहानी को तो नकार दीजिये” पुराणों में भी शुष्क वेदिक ज्ञान को कलात्मिक ढंग से समझाया गया है।

‘कनसेपेप्ट’ हमेशा काल्पनिक, और कई बार फूहड तथा हास्यस्पद भी होती है लेकिन जब लग्न और ‘टैक्नोलोजी’ के सहारे वह साकार हो उठती है तो उसे ही अविष्कार कहा जाता है। ‘कनसेपेप्ट’ दीर्घायु होती है मगर ‘टैक्नोलोजी’ तेज़ी से बदलती रहती है। पुराणों की कल्पना को आज के विज्ञान ने साकार कर के दिखा दिया है। अगर स्वामी जी के नीरस दिमाग़ में थोडी कलात्मिक कल्पना शक्ति भी होती तो उन्हों ने पुराणिक ज्ञान की निन्दा नहीं करनी थी। स्नातन धर्म हिन्दू विचारधारा का कलात्मिक पक्ष है जब कि वेदिक धर्म वैज्ञानिक पक्ष है – दोनो ऐक दूसरे के पूरक हैं। ऐक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

जिन संत कवियों के अंशो का सहारा आप ने लिया है वह ना तो वेदिक साहित्य के ज्ञाता थे और ना ही संस्क़त भाषा के सनात्क थे। जो कुछ उन के निजि विचार थे वह उन्हों ने अपभ्रंश भाषाओं में लिख डाले हैं। सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मिक उन्नति के लिये उन्हें कीर्तिमान नहीं माना जा सकता। अगर में कहूँ कि ऐक कवि ने यह भी लिखा है “ तेरी सूरत में रब दिखता है यारा मैं क्या करूं? ” तो केवल इसी आधार पर आप मूर्ति पूजा करने लग जायें गे?

 

अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ था। लेकिन कृष्ण का महत्व कपडे और माखन चुराने या 16 हज़ार रानियां रखने के कारण नहीं है – गीता के ज्ञान के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि आर्य-समाजी तो गीता और मनुस्मृति के भी विरोघी हैं।

 

रीति-रिवाज सामाजिक होते हैं, उन्हें समयानुसार बदला जा सकता है। शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। कई कुरीतियों ने जन्म लिया था। हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे। अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन पड गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विवाह नहीं किया था इस लिये वह गृहस्थाश्रम की जिम्मेवारियों को नहीं समझते थे वरना रीति रीवाजो के लिये ब्राहमणों को दोषी ना बोलते। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा और यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया।

 

भारत में सती प्रथा बाहर से आयी है। उस का समर्थन हिन्दूओं ने कभी नहीं किया। यदि आप इस तथ्य को प्रमाणों के साथ जानना चाहें तो इस लिंक पर पढ सकते हैं जो विषय को संक्षिप्त रखने के लिये मैं यहां पर दोबारा नहीं लिख रहा हूँ।

 

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है। हिन्दूओं का धर्मान्तरण कराने के लिये अकसर कहा जाता है कि सती प्रथा की आड में हिन्दू विधवाओं को जीवित जला दिया जाता था तथा हिन्दू जन्म के समय ही कन्याओं का वध कर देते थे। दुष्प्रचार के प्रभाव तथा निजि अज्ञानता के कारण हिन्दू अपने आप को हीन समझ कर आज भी उन की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं और अपने धर्म के प्रति शर्मिन्दा हो जाते हैं। वह नहीं जानते कि वास्तव में इन बातों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। तथ्य इस के विपरीत है। प्रमाण जानने के लिये कृप्या यह लिंक देख लें। http://wp.me/p2jmur-5J .

13 – सामाजिक ग्रंथ मनु-स्मृति


मनु स्मृति विश्व में मानवी कानून का प्रथम ग्रंथ है जहाँ से सभ्यता का विकास आरम्भ हुआ। मौलिक ग्रंथ में लगभग ऐक लाख श्लोक थे किन्तु कालान्तर इस ग्रंथ में कई बदलाव भी हुये। उपलब्द्ध संस्करण लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के हैं। उन में 12 अध्याय हैं तथा विविध विषयों पर संस्कृत भाषा में रचित श्लोक हैं जो मानव सभ्यता के सभी अंगों से जुडे हुये हैं। ग्रंथ की विषय सूची में सृष्टि की उत्पति, काल चक्र, भौतिक ज्ञान, रसायन ज्ञान, वनस्पति विज्ञान, राजनीति, देश की सुरक्षा, शासन व्यव्स्था, व्यापार, सार्वजनिक स्वास्थ, सार्वजनिक सेवायें, सार्वजनिक स्थलों की देख रेख, यातायात, अपराध नियन्त्रण, दण्ड विधान, सामाजिक सम्बन्ध, महिलाओं, बच्चों तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा, व्यक्तिगत दिन-चर्या, उत्तराधिकार आदि सम्बन्धी नियम उल्लेख किये गये हैं

ग्रंथ की भाषा की विशेषता है कि केवल कर्तव्यों का ही उल्लेख किया गया है जिन में से अधिकार परोक्ष रूप से अपने आप उजागर होते हैं। आधुनिक कानूनी पुस्तकों की तरह जो विषय उल्लेखित नहीं, उन के बारे में विश्ष्टि समति बना कर या सामान्य ज्ञान से निर्णय करने का प्रावधान भी है।

समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं। उन्हें संसार की सभी सभ्य जातियों ने समय के साथ साथ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ हैं। आज के युग में भी सभी देशों ने उन्हीं संस्कारों को कानूनी ढंग से लागू किया हुआ है भले ही वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों।

रीति-रिवाज सम्बन्धित व्यक्तियों को किसी विशेष घटना के घटित होने की औपचारिक सूचना देने के लिये किये जाते हैं। मानव जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित मनु दूआरा सुझाये गये सोलह वैज्ञानिक संस्कारों का विवरण इस प्रकार है जो सभी सभ्य देशों में किसी ना किसी रुप में मनाये जाते हैं-

  1. गर्भाधानः इस प्राकृतिक संस्कार से ही जीव जन्म लेता है और यह क्रिया सभी देशों, धर्मों और सभी प्राणियों में सर्वमान्य है। निजी जीवन से पहले यह संस्कार माता-पिता भावी संतान के लिये सम्पन्न करते हैं, पशचात सृष्टी के क्रम को चलंत रखने के लिये यह सभी प्राणियों का मौलिक कर्तव्य है कि वह स्वयं अपना अंश भविष्य के लिये प्रदान करें। सभी देशों में गृहस्थ जीवन की सार्थकि्ता इसी में है।
  2. पंस्वानाः पुंसवन संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है। गर्भस्त शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अतः शिशु के कल्याण के लिये गर्भवती मां को पुष्ट एवं सात्विक आहार देने के साथ ही अच्छा साहित्य तथा महा पुरूषों की प्रेरक कथायें आदि भी सुनानी चाहियें और उस के शयन कक्ष में महा पुरूषों के चित्र लगाने चाहियें। भ्रूण तथा मां के स्वास्थ के लिये पिता के लिये उचित है कि वह शिशु के जन्म के कम से कम दो मास पशचात तक सहवास ना करे। यह और बात है कि आधुनिक काल में विकृति वश इस नियम का पूर्णतया पालन नहीं होता परन्तु नियम की सत्यता से इनकार तो नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी इस नियम का उल्लंघन नहीं करते।
  3. सीमान्थोनानाः इस काल में गर्भ में पल रहे बच्चे में मुख्य शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं। गर्भवती स्त्री को घर में ही रहना चाहिये ताकि गर्भपात ना हो और गर्भस्थ शिशु का कोई अंग विकृत ना हो क्यों कि इस अवधि में शिशु के अंगों का विकास होता है। इस वैज्ञियानिक तथ्य को भारतीय समाज ने पाश्चात्य वैज्ञियानकों से हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था। आज कल इसी संस्कार को गोद भराना और पशचिमी देशों में ‘बेबी शावर के नाम से मनाया जाता है।
  4. जातकर्मः शिशु के जन्म लेने के पश्चात यह प्रथम संस्कार है। देश काल के रिवाज अनुसार पवित्र वस्तुओं से, जैसे सोने की सलाई के साथ गाय के घी-शहद मिश्रण से, नवजात शिशु की जीभ पर अपने धर्म का कोई शुभ अक्षर जैसे कि ‘ऊँ’ या ‘राम’ आदि, परिवार के विशिष्ट सदस्य दुआरा लिखवाया जाता है। इस भावात्मक संस्कार का लक्ष्य है कि जीवन में शिशु बड़ा हो कर अपनी वाणी से सभी के लिये शुभ वचन बोले जिस की शुरूआत जातकर्मः संस्कार से परिवार के अग्रजों से करवाई जाती है। पाश्चात्य देशों में आज भी डिलवरी रूम में डाक्टर नाल काटने की क्रिया पिता को बुला कर उसी के हाथों से सम्पन्न करवाते हैं।
  5. नामकरणः जन्म के गयारवें दिन, या देश काल की प्रथानुसार किसी और दिन अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में नवजात शिशु का नामकर्ण किया जाता है ताकि सभी को शिशु का परिचय मिल जाये। हिन्दू प्रथानुसार नामकरण पिता दुआरा कुल के अनुरूप किया जाता है। अशुभ, भयवाचक या घृणासूचक नाम नहीं रखे जाते। संसार में कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जहाँ कोई बिना नाम के ही जीवन जीता हो।
  6. निष्क्रमणः जन्म के तीन या चार मास बाद शिशु की आँखें तेज़ रौशनी देख सकती हैं। अतः उस समय बच्चे को कक्ष से बाहर ला कर प्रथम बार सूर्य-दर्शन कराया जाता है। दिन में केवल सूर्य ही ऐक ऐसा नक्षत्र है जो हमारे समस्त कार्य क्षेत्र को प्रभावित करता है अतः यह संस्कार बाह्य जगत से शिशु का प्रथम साक्षात्कार करवाता है। अन्य देशों में प्रकृति से प्रथम साक्षात्कार स्थानीय स्थितियों के अनुकूल करवाया जाता है।
  7. अन्नप्राशनः जन्म के पाँच मास बाद स्वास्थ की दृष्टि से नवजात को प्रथम बार कुछ ठोस आहार दिया जाता है। इस समय तक उस के दाँत भी निकलने शुरू होते हैं और पाचन शक्ति का विकास होने लगता है। यह बात सर्वमान्य है कि आहार व्यक्ति के कर्मानुसार होना ही स्वास्थकारी है। अतः परिवार के लोग अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में बच्चे को अपनी शैली का भोजन खिला कर यह विदित करते हैं कि नवजात से परिवार की क्या अपेक्षायें हैं। सभी देशों और सभ्यताओं में स्थानीय परिस्थतियों के अनुकूल भोजन से जुड़े अपने अपने नियम हैं, किन्तु संस्कार का मौलिक लक्ष्य ऐक समान है।
  8. चूड़ाकर्मः केवल यही संस्कार लिंग भेद पर आधारित है। लेकिन यह लिंगभेद भी विश्व में सर्वमान्य है। जन्म के ऐक से तीन वर्ष बाद लड़कों के बाल पूर्णत्या काटे जाते हैं लड़कियों के नहीं। ज्ञानतंतुओ के केन्द्र पर शिखा (चोटी) रखी जाती है। स्वच्छता रखने के कारण कटे हुये बालों को किसी ना किसी प्रकार से विसर्जित कर दिया जाता है। सभी देशों में लिंग भेद को आधार मान कर स्त्री-पुर्षों के लिये प्रथक प्रथक वेश-भूषा का रिवाज प्राचीन समय से ही चलता रहा है। आजकल लड़के-लड़कियों की वेश-भूषा में देखी जाने वाली समानता के विकृत कारण भी सभी देशों मे ऐक जैसे ही हैं।
  9. कर्णवेधाः यह संस्कार छठे, सातवें आठवें या ग्यारवें वर्ष मे किया जाता है। इस का वैज्ञानिक महत्व है। जहां कर्ण छेदन किया जाता है वहां स्मरण शक्ति की सूक्ष्म शिरायें होती हैं एक्यूप्रेशर की इस क्रिया से स्मरण शक्ति बढती है तथा काम भावना का शमन होता है। प्राचीन समय से ही स्त्री-पुरूष अपने अंगों को समान रूप से अलंकृत करते आये हैं। कानों में कुण्डल, गले में माला और उंगलियों में अंगूठियाँ तो अवश्य ही पहनी जातीं थीं। आज भी यह पहनने का रिवाज है जिस के लिये कानों में छेद करने की प्रथा विश्व के सभी देशों में चली आ रही है।
  10. उपनयनः छः से आठ वर्ष की आयु होने पर बालक-बालिकाओं को विद्या ग्रहण करने के लिये पाठशाला भेजने का प्राविधान है। आज कल भारत में तथा अन्य देशों में स्थानीय या ‘रेज़िडेंशियल स्कूलों में पढ़ने के लिये बालक-बालिकाओं को भेजा जाता है। कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जहाँ शिक्षा की ऐसी व्यवस्था ना हो।
  11. वेदारम्भः वैदिक शिक्षा को भारत में उच्च शिक्षा के समान माना गया है। मौलिक शिक्षा के बाद उच्च स्तर के शिक्षा क्रम का विधान आज भी सभी देशों की शिक्षा प्रणाली का मुख्य अंग है। भारत की ही तरह विदेशों में भी उच्च शिक्षा क्षमता और रुचि (एप्टीट्यूड टेस्ट) के आधार पर ही दी जाती है।
  12. समवर्तनाः भारत में शिक्षा पूर्ण होने पर दीक्षान्त समारोह का आयोजन गुरू जनो के समक्ष आयोजित होता था। विद्यार्थी गुरू दक्षिणा दे कर शिक्षा का सद्उपयोग करने की गुरू जनों के समक्ष प्रतिज्ञा करते हैं। स्नातकों को परमाण स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता था जो देव ऋण, पित्र ऋण और ऋषि ऋण का प्रतीक है। आज भी सभी यूनिवर्स्टियों में इसी तरह का आयोजन किया जाता है। विश्वविधालयों में स्नातक गाउन पहन कर डिग्री प्राप्त करते हैं तथा निर्धारित शप्थ भी लेते हें। पशचिमी देशों में तो ग्रेज्युएशन समारोह विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है।
  13. विवाहः शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात मानव को विवाह दुआरा गृहस्थ जीवन अपनाना होता है क्योंकि सृष्ठी का आधार गृहस्थियों पर ही टिका हुआ है। धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना, संसाधनों का प्रयोग एवम् उपार्जन करना तथा संतान उत्पति कर के सृष्ठी के क्रम को आगे चलाये रखना मानव जीवन का ऐक मुख्य कर्तव्य है। संसार के सभी सभ्य देशों में आज भी विवाहित जीवन को ही समाज की आधारशिला माना गया है। विश्व भर में वैवाहिक सम्बन्धों की वैध्यता को आधार मान कर ही किसी को जन्म से जायज़ अथवा नाजायज़ संतान कहा जाता है।
  14. वानप्रस्थः विश्व में सत्ता परिवर्तन का शुरूआत वानप्रस्थ से ही हुई थी। स्वेच्छा से अपनी अर्जित सम्पदाओं और अधिकारों को त्याग कर अपने उत्तराधिकारी को अपना सर्वस्य सौंप देना ही वानप्रस्थ है। इस को हम आज की भाषा में रिटायरमेंट भी कह सकते हैं। घरेलू जीवन से ले कर सार्वजनिक संस्थानों तक सभी जगहों पर यह क्रिया आज भी मान्य है।
  15. सन्यासः सभी इच्छाओं की पूर्ति, ऩिजी कर्तव्यों का पालन, और सभी प्रकार के प्रलोभनो से मुक्ति पाने के बाद ही यह अवस्था प्राप्त होती है परन्तु इस की चाह सभी को रहती है चाहे कोई मुख से स्वीकार करे या नहीं। इस अवस्था को पाने के बाद ही मोक्ष रूपी पूर्ण सन्तुष्टी (टोटल सेटिस्फेक्शन) का मार्ग खुलता
  16. अन्तेयेष्ठीः मृत्यु पश्चात शरीर को सभी देशों में सम्मान पूर्वक विदाई देने की प्रथा किसी ना किसी रूप में प्रचिलित है। कहीं चिता जलायी जाती है तो कहीं मैयत दफनायी जाती है। मानव जीवन का यह सोलहवाँ और अंतिम संस्कार है।

विश्व में सभी जगह शरीरिक जीवन के वजूद में आने से पूर्व का प्रथम संस्कार (गर्भाधानः) पिछली पीढी (माता पिता) करती है और शरीरिक जीवन का अन्त हो जाने पश्चात अन्तिम संस्कार अगली पीढी (संतान) करती है और इसी क्रम में सभी जगह मानव जीवन इन्ही घटनाओं के साथ चलता आया है और चलता रहे गा। सभी देशों और धर्मों में गर्भाधान, सीमान्थोनाना, जातकर्म, नामकरण, उपनयन, वेदारम्भ, समवर्तना, विवाह, वानप्रस्थ, अन्तेयेष्ठी जैसे दस संस्कारों का स्थानीय रीतिरिवाजों और नामों के अनुसार  पंजीकरण भी होता है। मनु रचित विधान ही मानव सभ्यता की आधार शिला और मार्ग दर्शन का स्त्रोत्र है जिस के कारण भारत को विश्व की प्राचीनत्म सभ्यता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ।

अंग्रेज़ी भाषा की परिभाषिक शब्दावली पर गर्व करने वाले आधुनिक कानून विशेषज्ञों और मैनेजमेंट गुरूओं को मनु स्मृति से अतिरिक्त प्रेरणा लेने की आज भी ज़रूरत है। मनु महाराज के बनाये नियम श्रम विभाजन, श्रम सम्मान तथा समाज के सभी वर्गों के परस्पर आधारित सम्बन्धों पर विचार कर के बनाये गये हैं। इन संस्कारों के बिना जीवन नीरस और पशु समान हो जाये गा। संस्कारों को समय और साधनों के अनुसार करने का प्रावधान भी मनुस्मृति में है। 

यह हिन्दूओं का दुर्भाग्य है कि कुछ राजनेता स्वार्थवश मनुस्मृति पर जातिवाद का दोष मढते है किन्तु सत्यता यह है कि उन्हों ने इस ग्रंथ को पढना तो दूर देखा तक भी नहीं होगा। धर्म निर्पेक्षता की आड में आजकल हमारे विद्यालयों में प्रत्येक विषय की परिभाषिक शब्दावली का मूल स्त्रोत्र यूनानी अथवा पाश्चात्य लेखक ही माने जाते है और हमारी आधुनिक युवा पीढी अपने पूर्वजों को अशिक्षित मान कर शर्म महसूस करती है। हम ने स्वयं ही अपने दुर्भाग्य से समझोता कर लिया है और अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान को नकार दिया है। जो लोग मनुसमृति जैसे ग्रंथ को कोसते हैं वह अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुये अपने उन पूर्वजों की बुद्धिमत्ता के प्रति कृतघ्नता व्यक्त करते हैं जिन्हों ने मानव समाज को ऐक परिवार का स्वरूप दिया और पशुता के जीवन से मुक्त कर के सभ्यता का पाठ पढाया।  

चाँद शर्मा

12 – दर्शनशास्त्र – तर्क विज्ञान


आज कल अंग्रेज़ी विचारक जब किसी तथ्य का विशलेषण करते हैं तो उस का थ्री डाईमेंशनल वुयू लेते हैं जैसे कि लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई। किन्तु सही अनुमान लगाने के लिये लक्ष्य के आगे, पीछे, दाहिने, बाँयें, ऊपर और नीचे भी देखना पडता है। इसी को उन्हीं की भाषा में सिख्सअथ डाईमेंशनल वुयू कह सकते है। दर्शन शास्त्रों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ऐसा ही किया था और विश्व में तर्क विज्ञान लोजिक की नींव डाली थी।

मानव की अतृप्त जिज्ञासा उसे सृष्टि के अदभुत रहस्यों का अनुसंधान करने के लिये स्दैव ही प्रोत्साहित करती रही है। सृष्टि को किस ने बनाया, मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ, मृत्यु के पश्चात मैं कहाँ जाऊँगा आदि मूल प्रश्नों का उत्तर खोजने में मानव आदि काल से ही लगा रहा है। इन्हीं रहस्यों की खोज ने दार्शनिक्ता के साहित्य को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने समाधिष्ट हो कर आत्म चिन्तन तथा अन्तर विशलेष्ण कर के उन जटिल प्रश्नों का उत्तर खोजा है।

तथ्यों की सच्चाई को देखना ही उन का दर्शन करना है अतः इस क्रिया को दर्शन ज्ञान की संज्ञा दी गयी है। स्नातन धर्म विचारधारा केवल एक ही परम सत्य में विशवास रखती है किन्तु उसी सत्य का छः प्रथक -प्रथक दृष्टिकोणों से आंकलन किया गया है। यही छः वैचारिक आंकलन (सिख्सअथ डाईमेंशनल वुयू) स्नातन धर्म की दार्शनिक्ता पद्धति का आधार हैं। इन षट् दर्शनों में बहुत सी समानतायें हैं क्यों कि सभी विचारधारायें उपनिष्दों से ही उपजी हैं, विशलेषण की पद्धति में भिन्नता है।

दर्शन शास्त्रों की शैली 

दर्शन शास्त्रों को संस्कृत सूत्रों में लिखा गया है। सूत्र लेखन एक विशष्ठ कला है जिस में कम से कम शब्दों का प्रयोग कर के अधिकत्म भावार्थ दिया जाता है। किसी विषय की पुनार्वृति नहीं की जाती। इस प्रक्रिया से सूत्रों का मूल अर्थ समझने में कुछ कठिनाई भी अवश्य होती है। जन-साधारण उन्हें केवल व्याख्या, टिप्पणी अथवा मीमांसा की सहायता से ही समझ सकते हैं। सौभाग्य से हिन्दू धर्म साहित्य में बहुत से विदऊआनो ने मीमांसायें लिखी हैं जो जन साधारण को उपलब्ध हैं। हिन्दू दर्शन शास्त्र के प्रति बढ़ती हुई रुचि की वजह से कई नये परन्तु सक्ष्म मीमांसाकारों ने भी अपना अमूल्य योग-दान दिया है जिन में रामकृष्ण मिशन के वैदान्ती अग्रगण्य हैं। जिन वैज्ञानिक तथ्यों पर सभी आधुनिक वैचारिक भी एकमत हैं वह इस प्रकार हैः-

  • सृष्टि चक्र अनन्त, निरन्तर तथा चिरन्तर हैं। सृष्टि का ना कोई आदि है ना कोई अन्त है। सृष्टि चक्र में सृष्टि का स़ृजन, पालन तथा हनन शामिल है।
  • आत्मा जीवन मृत्यु का निमित हैं। आत्मा बार बार पुनर्जन्म लेती रहती है।
  • धार्मिक मूल्य ही सृष्टि, मानव जीवन तथा प्रारब्ध का आधार हैं।
  • ज्ञान तथा योग मोक्ष और मुक्ति प्राप्ति का साधन हैं।

षट दर्शन

दर्शन शास्त्रों में अध्यात्मिक दार्शनिक्ता के साथ साथ मनोविज्ञान, भौतिक ज्ञान, तथा कई विषयों जैसे कि हिप्नोटिज्म तथा मेसमेरिज्म, हठयोग आदि, पर सूक्षम ज्ञान को उदाहरण सहित दर्शाया गया है। इन ग्रंथों को यदि मानवी ज्ञान का कोष (एनसाईक्लोपीडिया) कहा जाय तो वह भी पर्याप्त ना होगा। प्रत्येक विषय के तत्वों का निचोड कर के पुनः व्याख्या के साथ समझाया गया है।

उदाहरण के लिये, दर्शन शास्त्रों में दार्शनिक्ता से करी गयी छानबीन का ऐक नमूना इस प्रकार है।

ऐक छोटे से छोटे कीट से ले कर बडे से बडे सम्राट तक सभी हर समय तीनों प्रकार के – अध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःखों से छुटकारा पाने का यत्न करते रहते हैं, किन्तु छुटकारा फिर भी नहीं मिलता। मृगतृष्णा के सदृश जिन वस्तुओं के पीछे मनुष्य सुख समझकर दौडता रहता है, प्राप्त होने पर वे दःख का कारण ही सिद्ध होती हैं। इस लिये तत्वदर्शी के लिये निम्न चार प्रश्न उपस्थित होते हैं –

  • हेय – दुःख का वास्तविक स्वरूप क्या है जिस का त्याग किया जा सके।
  • हेय हेतु – दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है – उस के कारण को पहचानना।
  • हान –  दुःख रहित अवस्था कैसी होती है।
  • हानोपाय – दुःख निवृति का उपाय क्या है।

इन चारों रहस्यपूर्ण प्रश्नों को समझने के लिये दर्शन शास्त्रों में इन तीन तत्वों को  छोटे छोटे और सरल सूत्रों में युक्ति युक्त कर के इस प्रकार वर्णन किया गया हैः-

  • चेतनतत्व आत्मा – दुःख किस को होता है जिस को दुःख होता है उस (जीव) का वास्तविक स्वरूप क्या है।
  • जडतत्व – जहाँ से दुःख की उत्पति होती है और जिस का धर्म ही दुःख है उसे प्रकृति कहते हैं। इस के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने से पहला और दूसरा दोनों प्रश्न सुलझ जाते हैं।
  • चेतनतत्व परमातमा – ऊपरलिखित दोनों तत्वों के अतिरिक्त ऐक तीसरे तत्व को मानना भी आवश्यक हो जाता है जो पहले के अनुकूल और दूसरे के प्रतिकूल हो । जिस में पूर्ण ज्ञान हो, जो सर्वज्ञ हो, सर्व व्यापक और सर्व शक्तिमान हो। उसी के पास पहुँचना ही आत्मा का लक्ष्य है। इस तर्क से तीसरे और चौथे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है।

दार्शनिक्ता के छः मुख्य स्त्रोत्र मीसांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग वेदों के उपांग कहलाते हैं तथा उन का उदाहरण सहित सारांश इस प्रकार हैः –

मीमांसा शास्त्र – वेद मन्त्रों में आत्मा तथा परमात्मा की जानकारी को ज्ञानकाण्ड तथा कर्म काण्ड, उपासना और ज्ञानकाण्ड पर विचार करने को मीमांसा कहते हैं। मीमांसा के दो भाग हैं। कर्मकाण्ड को पूर्व मीमांसा तथा ज्ञानकाण्ड को उत्तरी मीमांसा कहते हैं। मीमांसा शास्त्र दर्शनों में सब से बडा है। इस के सुत्रों की संख्या 2644 है और इस में 909 अधिकरण हैं जो अन्य सभी दर्शनों की सम्मिलित संख्या के बराबर हैं। मीमांसा अधिकरणों के विषय ईश्वर, प्रकृति, जीवात्मा, पुनर्जन्म, मृत्यपश्चात अवस्था, कर्म, उपासना, ज्ञान, बन्ध और मोक्ष हैं। वेद मन्त्रों में बतलाई हुई शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है। कर्म तीन प्रकार के हैं जिन्हें नित्यकर्म (नित्य करने योग्य), निमत्तक कर्म (किसी कारण वश करने वाले कर्म – जैसे पुत्र होने पर उस का नामकरण करना) तथा काम्य कर्म (किसी इच्छा पूर्ति के लिये) कहते हैं। मन की वृतियों को सब ओर से हटा कर केवन एक लक्ष्य पर  केन्द्रित करने की शिक्षा का नाम उपासना है। ईसा से कोई 600-100 वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने मीमांसा शास्त्र की रचना करी थी। वह महाऋषि बाद्रायाण के शिष्य थे। इन के कथन का सार है कि कर्म के बिना सभी ज्ञान निष्फल है और वह सुखदायक नहीं हो सकता। जब तक सत्य बोलना क्रियात्मिक जीवन शैली में नहीं अपनाया जाता उस का कोरा ज्ञान होना बेमतलब है। केवल कर्म रहित ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

वेदान्त शास्त्र – इस दार्शनिक्ता के जनक महाऋषि बाद्रायण थे जो ईसा से 600-200 वर्ष पूर्व हुये। सारांश में विविधता केवल देखने में है परन्तु वास्तव में सभी में सृजनकर्ता की ही छवि है। ज्ञान प्रत्येक काल में बढता रहता है और उस का अर्जित करना कभी समाप्त नहीं होता। वैदिक ज्ञान संकलित ज्ञान का विशलेषण तथा ग्रहण करना निरन्तर क्रिया है। अतः वेदान्त शास्त्र आधुनिक विचारधारा का अग्रज है।

न्याय शास्त्र – ईसा से 400 वर्ष पूर्व गौतम ऋषि ने न्याय शास्त्र की रचना की थी। इस को तर्क विद्या भी कहा जाता है क्यों कि प्रत्येक विषय को तर्क की कसौटी से जाना और परखा गया है। न्याय सूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है। संसार में लोग दुःख से बचना चाहते हैं। यथार्थ ज्ञान का साघन प्रमाण है। प्रमाणों से किसी वस्तु की परीक्षा करना ही न्याय है। न्याय दर्शन के अनुसार चार मुख्य (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम) प्रमाण हैं जो आज भी विश्व भर के न्यायालयों की कार्य शैली की जड़ हैं। उदाहरण के तौर पर इन्द्रियों की अनुभूतियों से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाता है। जैसे धुआँ अग्नि के बिना नहीं होता इस लिये धुआँ अग्नि का अनुमान प्रमाण है। अज्ञान तथा इच्छायें दुःख के जन्म का कारण हैं। अतः दुःख के निवारण का अचूक विकल्प इच्छाओं पर नियन्त्रण और ज्ञान है।

वैशेषिका शास्त्र वैशेषिक सूत्रों की संख्या 370 है जो दस अध्यायों में विभक्त है। विशेष शब्द से तात्प्रिय है वह गुण जो ऐक वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करता हौ। उन विशोष तत्वों का ज्ञान ही सत्य की ओर ले जाता है। यदि कोई अन्धेरे में खम्बे को चोर समझ ले तो वास्तव में दर्शक नें चोर और खम्बे की समान विशेषता लम्बाई के आधार पर ही चोर से भय भीत होने का निर्णय कर लिया है जो सत्य से कोसों दूर है। य़दि उसे अन्य विशेषताओं का ज्ञान भी होता तो दर्शक को भय भीत ना होना पडता और वह दुःख रहित होता। दैनिक जीवन में हमारी मानसिक्ता इसी प्रकार से दुखों को प्रगट करती रहती है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व काणाद ऋषि ने अणु विज्ञान को जन्म दिया।

सांख्य शास्त्र – यह भारत की प्राचीनतम दार्शनिक्ता है जिसे कपिल ऋषि नें ईसा से 600 वर्ष पूर्व व्याखित किया था। इस के 527 सांख्य सूत्र हैं और छः अध्यायों में विभक्त है।  सांख्य के बहुत से प्राचीन ग्रन्थ इस समय लुप्त हैं, कई ऐक के केवल नाम ही मिलते हैं। यह पूर्णत्या वैज्ञियानिक मार्ग है। दुःख के कारण अध्यात्मिक (निजि शरीर और बुद्धि सें असमंजस), अधिभौतिक (दूसरों के कारण) कारण, तथा अतिदैविक (प्राकृतिक आपदायें)। उन कारणों का ज्ञान और तर्क संगत विशलेशण ही सुख दुख को समान कर सकता है। जिस प्रकार जागा हुआ मनुष्य स्वप्नावस्था में देखे शरीर को सत्य नहीं मानता, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष जिस शरीर से अपने शरीर का साक्षाताकार करता है उस शरीर को भी अपना नहीं मानता। उस के कर्मों में भी लिप्त नहीं होता। वह आत्मा को शरीर से अलग समझ कर परमात्मा से साक्षाताकार करता है और कर्म के अच्छे बुरे प्रभावों तथा परिणाम स्वरूप सुख दुख से भी मुक्त हो जाता है। सांख्य दर्शन ने विश्व की सभी दार्शनिक्ताओं विशेषकर यूनानीओं को प्रभावित किया है। गीता साँख्य योग का ही मुख्य ग्रन्थ है। सांख्य और योग के अभ्यन्तर रूप के अतिरिक्त कार्य क्षेत्र में उस का रूप कैसा होना चाहिये, इस बात को गीता में  विशेषता के साथ स्पष्ट शब्दों में दर्शाया गया है।   

योग शास्त्र – योग के दार्शनिक स्वरूप को समझने के लिये तो दर्शनों का ज्ञान आवश्यक है ही, परन्तु दर्शनों का यथार्थ ज्ञान भी योग दूआरा ही प्राप्त किया जा सकता है। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। यदि व्यवहार को शुद्ध और आहार को सात्ति्वक बना कर शरीर को ठीक रखें और विषयों से मन को हटा कर अनितर्मपख करें तो अपने भीतर के खजाने का पता लग सकता है। योग वास्तव में ऐक दर्शन नहीं है। वह तो वृत्तियों के रूप में  आत्मा के स्वरूप  को अनुभव करने की एक विशष्ट कला है। पर कला का भी दार्शनिक आधार होना चाहिये। जिस प्रकार न्याय (तर्क) का कला होने पर भी दर्शनों में समावेश किया जाता है उसी प्रकार योग की गणना दर्शनों में की गई है।  ईसा से 300 वर्ष पूर्व रचित पतंजलि योग सूत्र योग विद्या का विस्तरित ग्रंथ है। योग करना अपने आप को जानने का मार्ग है। साधारणत्या लोग आसन करने को ही योग समझते हैं, परन्तु योग का क्षेत्र अधिक विस्तरित है। इस के आठ अंग हैं। सदाचार तथा नैतिकता के सिद्धान्तों को यम कहते हैं। बिना स्वस्थ, स्वच्छ और निर्मल शरीर के योग मार्ग की प्रथम  सीढी पर पग धरना दुर्गम है।  स्वयं के प्रति अनुशासित और स्वच्छ रहना नियम हैं। शरीर के समस्त अंगों को क्रियात्मिक रखना आसन के अन्तर्गत आता है। प्राणायाम श्वासों को नियमित और स्वेच्छानुसार संचालित करना है। हर प्राणायाम शरीर और मन पर  अलग तरह के प्रभाव डालता है। पंचेन्द्रियों को संसार से हटा कर आत्म केन्द्रित करने की कला प्रत्याहार है। वह नियन्त्रित ना हों तो उन की अंतहीन माँगे कभी पूरी नहीं हो सकतीं। धारणा का अर्थ है मन का स्थिर केन्द्रण। ध्यान में व्यक्ति शरीर और संसार से विलग हो कर आद्यात्मा में खो जाता है। समाधि का अर्थ है साथ हो जाना। यह परम जागृति है। यही योग का लक्ष्य है।

दर्शन शास्त्र वैदिक ज्ञान को समझने में सहायक हैं। किन्तु हिन्दू इस संकलित ज्ञान को भी अंतिम परिकाष्ठा नही मानते। वह अतिरिक्त विशलेष्ण को प्रोत्साहित करते हैं क्यों कि वैचारिक स्वतन्त्रता ही स्नातन धर्म का आधार स्तम्भ है। य़ह हर मानव का अधिकार है कि वह चाहे तो पूरे को, या अधूरे को या किसी भी मत को स्वीकार ना करे। हिन्दू धर्म में वैचारिक विरोधाभास मान्य हैं। दर्शन शास्त्र ही विश्व में लोजिक और रीज़निंग के प्रथम ग्रंथ हैं जब कि योरूप के देशों के लोग हाथों की उंगलियों पर भी गिनना भी नहीं जानते थे।

चाँद शर्मा

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