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50 – प्राचीन वायुयानों के तथ्य


भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

  • मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
  • आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1.     ऋगवेद– इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

  • जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
  • कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
  • त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
  • त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
  • वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
  • विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2.     यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3.         विमानिका शास्त्र 1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

  • विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।
  • विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं। 
  • इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। 
  • ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4.         यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

  • अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
  • अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
  • अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

  • पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
  • शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
  • शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।
  • शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
  • शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
  • निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
  • आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
  • चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
  • स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
  • हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे। 

5.         समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था।  पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

  • रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
  • सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
  • त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
  • शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं 

6.         कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय  ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

चाँद शर्मा

 

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

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