हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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29 – राष्ट्रीय नायकों के पर्व


पाश्चात्य सभ्यता में रंगे लोग आजकल केक काट कर और तालियाँ बजवा कर अपना जन्मदिन स्वयं ही मना लेते हैं – लेकिन यह उस तरह है जैसे कोई अपना चुटकला सुना कर अपने आप ही हँस ले और दूसरे उस का मूहँ देखते रहैं। अपने जन्मदिन पर खुशी दूसरे दिखायें तो वह बात और होती है। वास्तव में जन्म दिन तथा विवाह की वर्षगाँठ मनाने की प्रथा भारतीयों ने योरूप वासियों से नहीं सीखी। भारत में ही महापुरुषों के जन्म मना कर अन्य लोगो को महा पुरुषों की तरह पुण्य कर्म करने के लिये प्रोत्साहित करने का प्रथा रही है। प्रेरणा नायकों की संख्या अधिक होने के कारण कुछ मुख्य महानायकों से जुडे पर्वों का संक्षिप्त वर्णन ही यहाँ दिया गया है जो समस्त भारत में मनाये जाते हैं और भारत की साँस्कृतिक विविधता में ऐकता के बोधक हैं। 

महाशिवरात्री – महा-शिवरात्री त्रिदेव भगवान शिव का पर्व है। यह पर्व फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) के कृष्ण पक्ष में आता है। इस दिन शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था। आराधक पूरा दिन उपवास करते हैं और कुछ तो जल भी नहीं ग्रहण करते। समस्त रात्री लोग शिव मन्दिरों में पूजा करते हैं। शिव लिंग को दूध, दही, शहद और गुलाब जल अथवा गंगा जल से स्नान कराया जाता है। इसी दिन से शिव के प्रतीक विषधर सर्प भी निद्रा (हाईबरनेशन) से जाग कर खुले वातावरण में निकलने लगते हैं। 

महावीरजयन्ती – भगवान महावीर के जन्म के उपलक्ष में महावीर-जयन्ती विशेषतः गुजरात तथा राजस्थान में जैन समुदाय दूारा उल्लास के साथ मनायी जाती है। भगवान महावीर ने अहिंसा तथा सरल जीवन मार्ग से मोक्ष मार्ग का ज्ञान दिया था। इस दिन भगवान महावीर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा निकाली जाती है।

रामनवमी राम-नवमी भगवान विष्णु के सप्तम अवतार भगवान राम का जन्म दिवस है और चैत्र मास (मार्च अप्रैल) के शुकल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आता है। मन्दिरों को सजाया जाता है तथा लोक नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मूर्तियों को सजाया जाता है। रामायण महाकाव्य का निरन्तर उच्चारण होता रहता है। कथा वाचक रामायण की कथा को गा कर, नाटकीय ढंग से दिखा कर पर्दर्शन करते हैं। ऱाम तथा सीता की भव्य झाँकियाँ निकाली जाती हैं तथा मूर्तियों की भव्य तरीके से पूजा अर्चना की जाती है। समस्त भारत में यह त्यौहार विशेष उल्लास से मनाया जाता है। 

बैसाखीः बैसाखी विक्रमी सम्वत का प्रथम दिवस है। यही एकमात्र हिन्दू पर्व है जो रोमन केलेन्डर के साथ अकसर 13 अप्रैल को ही आता है परन्तु प्रत्येक 36 वर्ष के पश्चात 14 अप्रैल को आता है। इस दिन सूर्य मेष राशि (ऐरीस) में प्रवेश करता है जो ज़ोडिक अनुसार प्रथम राशि है। लोग बैसाखी के दिन प्रातः नदी स्नान से आरम्भ करते हैं। इसी दिन से कृषि की कटाई का काम भी आरम्भ होता है तथा किसानों को अपने परिश्रम का पुरस्कार मिलता है। इस के अतिरिक्त बैसाखी के साथ भारतीय जन जीवन की अन्य कई घटनायें जुडी हुई हैं जो संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-

  • मुग़ल बादशाह जहाँगीर के हुक्म से सिख गुरु अर्जुन देव तथा उन के अनुयाईयों को अमानुषीय तरीके से उबलते तेल के कडाहे में फेंक कर उन पर कई तरह के असाहनीय अत्याचार किये गये थे जिस कारण बैसाखी के दिन गुरु अर्जुन देव ने लाहौर शहर के पास रावी नदी में जल स्माधि ले ली थी।
  • बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में गुरु गोबिन्द सिहं नें हिन्दू युवाओं को ‘संत-सिपाही’ की पहचान प्रदान करी थी। उन्हें मुस्लिम अत्याचार सहने के बजाय  अत्याचारों के विरुद्ध लडने के लिये भक्ति मार्ग के साथ साथ कर्मयोग का मार्ग भी अपनाने का आदेश दिया था। इसी पर्व से ‘खालसा-पंथ’ की नींव पड़ी थी।
  • इसी दिन स्वामी दया नन्द सरस्वती ने बम्बई शहर में आर्य समाज की औपचारिक स्थापना की थी। मध्य काल से हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियाँ आ चुकीं थीं जिन के उनमूलन के लिये आर्य समाज संस्था ने हिन्दू समाज में सुधार कार्य किया और वैदिक संस्कृति को पुनर्स्थापित किया।

बुद्धपूर्णिमा – भगवान बुद्ध को विष्णु का नवम अवतार माना गया है। इस के उपलक्ष में वैशाख मास (अप्रैल- मई) की बुद्ध-पूर्णिमा का बहुत महत्व है क्यों कि इसी दिन भगवान बुद्ध के जीवन की तीन अति महत्वशाला घटनायें घटी थीं। बुद्ध का जन्म, उन को ज्ञान प्रकाश, तथा उन का निर्वाण (शरीर त्याग) बुद्ध-पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। यह पर्व समस्त भारत में और विशेषतः बौध समुदाय में उल्लास के साथ मनाया जाता है। 

गुरुपूर्णिंमा – अषाढ मास की पूर्णमासी (जुलाई – अगस्त) के दिन गुरुपूर्णिमा का पर्व महाऋषि वेद व्यास की समृति में माया जाता है। उन्हों ने चारों वेदों और अठ्ठारह पुराणों का संकलन तथा महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। हमें केवल भावनात्मिक अध्यापक दिवस (टीचर्स डे) मनाने के बजाय गुरु-पूर्णिमा को ही सरकारी तौर पर मनाना चाहिये।

रक्षाबन्धन रक्षा-बन्धन का त्यौहार मुख्यतः भाई बहन के पवित्र रिशतो का त्यौहार है। इस को समाज का संकलप-दिवस भी कह सकते हैं। यह पर्व श्रावण मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। इस दिन भाई अपनी बहनों की सभी समस्याओं, आपदाओं, तथा परिस्थितियों में रक्षा करने का संकलप लेते हैं। प्रतीक स्वरुप बहने भाईयों की कलाई पर राखी बाँध कर उन्हे धर्म के बन्धन की सम़ृति दिलाती हैं कि वह अपने धर्म की भी रक्षा करें। भाई बहनों को रक्षा की प्रतिज्ञा के साथ कुछ उपहार भी देते हैं। इसी  प्रकार ब्राह्मण भी समाज के क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों की कलाई पर राखी बाँध कर उन से धर्म पालन तथा धर्म की रक्षा का संकलप कराते हैं। प्रति वर्ष यह त्यौहार प्रतिज्ञा दिवस के तौर पर सभी को ऐक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

जन्माष्टमी जन्माष्टमी का त्यौहार भगवान कृष्ण के जन्म दिन के उपलक्ष में भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। मन्दिरों को सजाया जाता है। अध्यात्मिक प्रवचन होते हैं। दूर दूर से यात्री इन स्थलों पर पहुँचते हैं। आटे को गीला कर के लोग घरों में दूार से अन्दर तक फर्श पर बच्चे के पैरों के निशान छापते है जिस का अभिप्राय भगवान कृष्ण की बाल लीला की स्मृति कराना है। कृष्ण जन्म मध्य रात्रि को हुआ था अतः उस समय इस उत्सव की प्रकाष्ठा होता है।

गणेशचतुर्थी – गणेश-चतुर्थी भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में गणेश जी के जन्मदिन के उपलक्ष में मनायी जाती है। गणपति की बडी बडी भव्य मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। दस दिन तक नित्य उन को सजा कर पूजा अर्चना की जाता है। उस के पश्चात उन मूर्तियों की शोभा यात्रा निकली जाती है तथा उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। पहले यह पर्व महाराष्ट्र तथा पडोसी प्रदेशो में विशेष तौर पर मानया जाता था परन्तु आज कल समस्त देश में गणेश-चतुर्थी का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है। इस पर्व का नैतिक तथा भावनात्मिक महत्व भी है। ऐक पौराणिक कथानुसार ऐक बार चन्द्र ने चोरी छिपे गणेश जी के डील डौल का उपहास किया था तो गणेश जी ने चन्द्र को शापित कर दिया कि जो कोई तुम्हें गणेश-चतुर्थी के दिन निहारे गा वह चोरी के आरोप से लाँच्छित होगा। इस लिये इस दिन लोग चन्द्रमाँ की ओर नहीं देखते। इस का अभिप्राय है कि व्यक्ति को बुरी संगति से भी दूर रहना चाहिये।

दीपावली – इस पर्व को दीपमाला भी कहते हैं तथा इसे कार्तिक मास (अकतूबर – नवम्बर) के कृष्ण पक्ष के अन्तिम दो दिनों तक मनाया जाता है। इस पर्व के कई कारण हैं जिन में से धन सम्पति की देवी लक्ष्मी तथा भगवान विष्णु का विवाह, महाकाली दुर्गा दूारा महिषासुर का वध, तथा भगवान ऱाम की रावण पर विजय के पश्चात अयोध्या में वापसी की समृति मुख्य हैं। इसी दिन कृष्ण ने भी नरकासुर का वध किया था। युद्ध तथा युद्धाभ्यास पर प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी वर्ग भी सैना के साथ जाता था ताकि वह सैनिकों के लिये अवश्यक सामिग्री जुटाते रहैं। प्रत्येक वर्ष प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी नये लेखे खातों में खोलते थे और समृद्धि के लिये गणेष और लक्ष्मी का पूजन भी करते थे। इस अवसर पर घरों को सजाया जाता है, रत्रि को दीप माला की जाती है। पटाखे और मिठाईयों से जीवन उल्लास मय हो जाता है। दीपावली भारत में धन सम्पति की खुशियों की चरम सीमा का अवसर होता है।

गुरु नानक जयन्ती – गुरु नानक सिख समुदाय के प्रथम गुरु थे। उन की जयन्ती का समारोह कार्तिक मास (नवम्बर) की पूर्णिमा से  लगभग तीन दिन तक मनाया जाता है। निशान साहिब (ध्वज) तथा श्री गुरु ग्रंथ साहिब की पालकी में शोभा यात्रा निकाली जाती है। गुरुदूारों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अखण्ड पाठ किया जाता है तथा स्मापन के समय गुरु के लंगर के माध्यम से सभी को प्रसाद के रूप में भोजन करवाया जाता है। गतका (तलवारबाजी) का प्रदर्शन किया जाता है। यह पर्व विशेषत्या पंजाब और हरियाणा में तो मनाया जाता है परन्तु विश्व भर में जहाँ जहाँ सिख साम्प्रदाय है, वहाँ भी पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है।

इन के अतिरिक्त जिन अन्य जन नायकों से जुडे पर्व उत्साह और उल्लास के साथ मनाये जाते हैं उन में संत रविदास, महाराज उग्रसेन, ऋषि वाल्मिकि, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी मुख्य हैं।

भारत में किसी नायक या घटना का शोक दिवस मना कर सार्वजनिक तौर पर रोने पीटने का कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता। मृतकों की बरसियाँ भी नहीं मनाई जातीं यह रिवाज कोई पिछले दो तीन सौ वर्षों से ही जुडे हैं और आजकल तो हर छोटे बडे नेता की बरसी मनाने का रिवाज सा चल पडा है। इस का धर्म या हिन्दू संस्कृति से कोई वास्ता नहीं।

त्यौहारों तथा पर्वों ने भारतीय समाज की साँस्कृतिक, आर्थिक, तथा अध्यात्मिक प्रगति में महत्वशाली योग दान दिया है। पर्व हमारी साँस्कृतिक आखण्डता के प्रतीक हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय और साधनों के आभाव तथा विदेशी दुष्प्रभाव के कारण कुछ पर्व अपनी मूल दिशा और दशा से विक़ृत हो गये हैं। कुछ असामाजिक तत्वों ने उन का रूप भी बिगाड दिया है। इस वजह से उन पर्वों से सम्बन्धित उल्लास और योगदान कुछ फीके पड गये हैं। हिन्दू समाज सुधारकों तथा सजग नागरिकों को चाहिये कि वह कुरीतियों को दूर करें और इन पर्वों का गौरव पुनर्स्थापित कर के उन्हे विदेशी गन्दगी के प्रभाव से स्वच्छ रखें।

देखा जाय तो ईद, मुहर्रम, ईस्टर, गुड फ्राईडे, क्रिसमिस आदि त्यौहारों का भारत की संस्कृति या घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह त्यौहार हमारे लिये आर्थिक उपनेषवाद का ऐक हिस्सा हैं। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादकों को बढावा देने के लिये कई विदेशी त्यौहारों की भारत के जन जीवन में घुस पैठ करवा रही हैं जिस से यह आभास होता है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति ही नहीं थी। वर्ष में ऐक दिन फादर्स डे या मदर्स डे मना लेने से माता पिता की सेवा नही होती जिन्हें बाकी वर्ष वृद्धाश्रमों में छोड दिया जाता है। यही हाल टीचरों का है। वेलन्टाईन डे केवल नाचने और सार्वजनिक स्थानों पर चुम्बन-आलिंगन करने का बहाना मात्र है।  जब हमारी अपनी संस्कृति इतनी समृद्ध है तो हमें योरूप वासियों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। यह केवल हमारे मन में हीन भावना भरने तथा विदेशी कम्पनियों के सामान को बेचने का निमित मात्र है।  हमें अपनी साँस्कृतिक विरासत की रक्षा स्वयं करनी है और बाहर से त्यौहार आयात करने की जरूरत नहीं। 

भारत में क्रिसमिस पर्व के साथ साथ पहली जनवरी को नब वर्ष दिवस को भी व्यापारिक क्षेत्र की वजह से बहुत बढावा मिल रहा है क्यों कि इस के बहाने से ग्रीटिंग कार्ड, साँटा क्लाज के छोटे बडे पुतले, क्रिसमिस ट्री, क्रास आदि बेचे जाते हैं, तथा होटलों में खानपान के लिये लाखों की संख्या में टरकियाँ (ऐक विशेष प्रकार की मुर्ग़ी) खाने के लिये काटी जातीं है। शराब पीकर वाहन चालक दूर्घटनाओं के साथ इसाईयों के नव वर्ष की शुरूात करते हैं। इन सभी बातों का भारतीय परम्पराओं और भावनाओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और विदेशी कम्पनियाँ तथा उन के भारतीय ऐजेन्ट केवल भारतीय मूल्यों के हानि के लिये कर रहै हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई रंगी पुती स्त्री को देख कर चकाचौंध हो जाये और अपनी सुशिक्षित ऐवम सभ्य माता को कोसने लगे। पर्व आयात वही देश करते हैं जिन की अपनी कोई सभ्यता या परम्परा ना हो किन्तु भारत के लोगों को इस प्रकार के त्यौहारों को मनाने के बदले भारतीय मूल के त्यौहारों के मनाने की शैली में और अधिक सुधार तथा उल्लास लाना चाहिये।  

चाँद शर्मा

 

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

हिन्दू महा सागर – विषय सूची


(पढने के लिये रेखांकित शीर्षक पर कल्कि करें)

हिन्दू महा सागर – ऐक परिचय

प्रथम प्रकरण – विचारधारा

(सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। विभिन्नता केवल शरीरों में ही है।यही हिन्दू धर्म की मुख्य विचारघारा है।    संसार का प्रथम मानव धर्म प्राकृतिक नियमों पर आधारित था जो कालान्तर आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ।)           

  1. सृष्टि और सृष्टिकर्ता
  2. स्नातन धर्म के जन्मदाता
  3. सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध
  4. धर्म का विकास और महत्व
  5. स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता 

दूसरा प्रकरण – देवी देवता

(हिन्दू ऐक ही ईश्वर को निराकार मानते हुये उसे कई रूपों में साकार भी मानते हैं तथा जन साधारण को व्याख्या करने के लिये चिन्हों का प्रयोग भी करते हैं जो ईश्वरीय शक्ति के वैज्ञियानिक रूप को दर्शाते हैं। संसार की गति विधियों का जो विधान प्राचीन ऋषियों ने कल्पना तथा अनुभूतित तथ्यों के आधार पर किया उसी के अनुसार आज भी विश्व की सरकारें चलती हैं। सृष्टि के विधान में जब भी कोई कर्तव्य विमुख होता है और अधर्म बढने लगता है तो सृष्टिकर्ता सृष्टि के संचालन धर्म की पुनः स्थापना कर देते हैं।)

  1. निराकार की साकार प्रस्तुति 
  2. प्राकृति का व्यक्तिकरण
  3. संसार का प्रशासनिक विधान
  4. विष्णु के दस अवतार

तीसरा प्रकरण – हिन्दू साहित्य

तीसरा प्रकरण – मानव ज्ञान के मौलिक ग्रंथ

(कई धर्मों में आस्थाओं पर टिप्पणी करना अपराध माना जाता है किन्तु हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति वैचारिक रूप से स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ अनिवार्य हो। हिन्दू ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है लेकिन हिन्दू चाहे तो की किसी ऐक पुस्तक को, अथवा सभी को, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को विश्व गुरू माना जाता था। वेद, उपनिष्द, दर्शनशास्त्र, रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं किन्तु धर्म निर्पेक्षता के ढोंग के कारण भारत सरकार ने ही उन्हें केवल हिन्दू साहित्य समझ कर शिक्षा के क्षेत्रों में अछूता छोड़ दिया है।)                       

  1. हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ
  2. उपनिष्द – वेदों की व्याख्या
  3. दर्शनशास्त्र – तर्क विज्ञान
  4. समाजिक आधार – मनु समृति
  5. रामायण – प्रथम महाकाव्य
  6. विशाल महाभारत
  7. मानव इतिहास – पुराण
  8. पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म

चौथा प्रकरण – व्यक्तिगत जीवन

(जीवन में आदर्शों की आधारशिला यम नियम हैं। जिन के अभ्यास से गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं। सभी जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की भावनाओं से प्रेरित हो कर कर्म करते हैं। आवेश की प्रधानताओं के अनुसार ही व्यक्तित्व बनता है। आवेशों को साधना से नियन्त्रित और संतुलित किया जा सकता है। जीवन में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं जिन में से धर्म अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। जीवन को चार प्राकृतिक भागों में विभाजित किया है, जिन्हेंब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम कहा जाता है। आजकल के जीवन में तनाव का मुख्य कारण आश्रम जीवन पद्धति का लुप्त होना है।)

  1. आदर्श जीवन का निर्माण
  2. मानव जीवन के लक्ष्य 
  3. व्यक्तित्व विकास
  4. जीवन के चरण

पाँचवां प्रकरण – हिन्दू समाज

(सामाजिक वर्गीकरण आज भी सभी देशों और जातियों में है जो नस्ल, रंग-भेद, या विजेता और पराजित  अवस्था के कारण है। वहाँ निचले वर्ण से ऊँचे वर्ण में प्रवेश लगभग असम्भव है, किन्तु हिन्दू समाज में मनु के वर्गीकरण का आधार रुचि, निपुणता, परस्पर-निर्भरता, श्रम-विभाजन, श्रमसम्मान तथासमाज के लिये व्यक्ति का योग्दान था। जन्म से सभी निम्न वर्ण माने जाते हैं किन्तु सभी अपने पुरुषार्थ से योग्यता और उच्च वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं। यह दुर्भाग्य है कि आजकल सरकारी विभाग केवल जन्म-जाति के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र, आरक्षण और विशेष सुविधायें राजनेताओं के स्वार्थ के  कारण प्रदान कर देते हैं। अन्य देशों और धर्मों की अपेक्षा हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त रही है। स्त्रियों के लिये कीर्तिमान के तौर पर ऐक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है ताकि स्त्री पुरुष ऐक दूसरे के प्रतिदून्दी बनने के बजाय सहयोगी बने। धर्मान्तरण कराने के लिये हिन्दू विरोधी गुट छुआ-छूत, सती प्रथा तथा कन्याओं के वध का दुष्प्रचार करते रहै हैं जबकि हिन्दू समाज में सामाजिक शिष्टाचार का महत्व सभ्यता के आरम्भ से ही है।)

  1. हिन्दू समाज का गठन
  2. वर्ण व्यवस्था का औचित्य
  3. हिन्दू समाज और महिलायें
  4. सती तथा भ्रूण हत्या
  5. हमारी सामाजिक परम्परायें

छठा प्रकरण – प्राकृतिक जीवन

(पूजा पाठ करना प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है। क्रियाओं को निर्धारित प्रणाली से करना ही रीति रिवाज कहलाता है जो घटना के घटित होने के प्रमाण स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। यह समय और समाज की ज़रूरतों के अनुसार बदलते रहते हैं। पर्व नीरस जीवन में परिवर्तन तथा खुशी का रंग भरने के निमित हैं। हिन्दू पर्व भारत की ऋतुओं, पर्यावरण, स्थलों, देश के महा पुरुषों तथा देश में ही घटित घटनाओं के साथ जुड़े हैं। हमें विदेशों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। साधना का ऐक महत्व पूर्ण अंग वृत लेना है। साधनायें आवेशों, विकारों, मनोभावों तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने में सहायक है।)

  1. पूजा और रीति रिवाज
  2. पर्यावरण सम्बन्धित पर्व 
  3. राष्ट्र नायकों के पर्व
  4. वृत और स्वस्थ जीवन 

सातवां प्रकरण – हिन्दू गौरव

(वैज्ञानिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैंक्योंकि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। आज से हजारों वर्ष पूर्व भारत में उच्च शिक्षा के लिये विश्विद्यालय थे जहाँ से वैज्ञायानिक विचारों का उदय हुआ लेकिन आज से केवल आठ सौ वर्ष पूर्व तक विश्व की अन्य मानव जातियाँ डार्क ऐज में ही जीवन व्यतीत कर रही थीं। ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर मौलिक शब्दावली और ग्रंथ भारत में लिखे गये थे। उदाहरण स्वरूप कुछ ही विषयों की जानकारी संक्षिप्त में यहाँ दी गयी है।)

  1. उच्च शिक्षा के संस्थान
  2. विज्ञान-आस्था का मिश्रण
  3. सृष्टि का काल चक्र
  4. गणित क्षेत्र में योगदान
  5. भारत का भौतिक ज्ञान
  6. तकनीकी उपलब्द्धियाँ
  7. ज्योतिष विज्ञान
  8. चिकित्सा क्षेत्र के जनक
  9. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति

आठवां प्रकरण –कला-संस्कृति

(भाषा, भोजन, भेष, भवन और भजन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। पाश्चात्य देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और केवल मांसाहार कर के ही पेट भरते थे तब भी भारत को ऐक अत्यन्त विकसित और समृद्ध देश के रूप में जाना जाता था। संस्कृत आज भी कम्पयूटरों के उपयोग के लिय सर्वोत्तम भाषा है और इस का साहित्य सर्वाधिक मौलिक, समृद्ध और सम्पन्न है। साहित्य सर्जन की सभी शैलियों का विकास भारत में ही हुआ था। भारतीय जीवन में अध्यात्मिक्ता के साथ साथ मर्यादित विलासता का भी समावेश रहा है। भारतीय खेलों के लिय किसी विश्ष्ट तथा महंगे साजोसामान की जरूरत नहीं पडती। विश्व में लगर प्रबन्ध का प्राचीनतम प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से ही मिले हैं। भारतीय संगीत तुलना में आज भी पाश्चात्य संगीत से अधिक विस्तरित, वैज्ञानिक, कलात्मिक और प्रगतिशील है।)
 
  1. देव-वाणी संस्कृत भाषा
  2. विश्व को साहित्यिक देन
  3. समृद्ध भारतीय जन जीवन
  4. खेल कूद के प्रावधान 
  5. भारत की वास्तु कला
  6. हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति

नौवां प्रकरण – सैन्य क्षमता

(प्रजातान्त्रिक प्रतिनिधि सरकार की परिकल्पना को भारतवासियों ने रोम तथा इंग्लैंड से कई हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप दे दिया था। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे। भारत को ऐक समृद्ध सैनिक महाशक्ति माना जाता था। युद्ध-भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम, और कायरता को अधोगति समझा जाता था। प्रथम शताब्दि में युद्ध कला, युद्ध-नियम तथा शस्त्राभ्यिास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा विमानों की संचलन प्रणाली सम्बन्धी निर्देश भी उपलब्द्ध हैं जिन में प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मिक जानकारी उपलब्द्ध है।)

  1. राजनीति शास्त्र का उदय
  2. राष्ट्वाद की पहचान – हिन्दुत्व
  3. भारत की सैनिक परम्परायें
  4. वीरता की प्रतियोग्यतायें
  5. प्राचीन वायुयानों के तथ्य
  6. अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण

दसवां प्रकरण – ज्ञानकोषों की तस्करी

ज्ञान-विज्ञान, कला और सभ्यता के सभी क्षेत्रों के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर से ही आरम्भ हुआ था। भारतीय ग्रन्थों के यूनानी भाषा में अनुवाद से आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप रिनेसाँ के काल में हुआ। रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। भारत के ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पाश्चात्य बुद्धजीवियों की तरह कोई पेटेन्ट नहीं करवाये इस लिये जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद विश्व में फैला तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान का हस्तान्तिकरण हो गया और विज्ञान के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने के लिये ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रयोग आरम्भ हुआ।

  1. भारत का वैचारिक शोषण
  2. भारतीय बुद्धिमता की चमक
  3. भारतीय ज्ञान का निर्यात
  4. योरुप में भारतीय रोशनी
  5. भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण
  6. पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त

ग्यारहवां प्रकरण – विनाश लीला

देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। अति सदैव बुरी होती है। हिमालय की गोद में हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति इतने निशचिन्त हो गये थे कि उन का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया। दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन बढ जाने से निर्धन लोग इस्लाम कबूलने लग गये। कर्मयोग को त्याग हिन्दू पलायनवाद पर आश्रित हो गये। अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते गये।

  1. क्षितिज पर अन्धकार
  2. इस्लाम का अतिक्रमण
  3. हिन्दू मान्यताओं का विनाश
  4. इस्लामीकरण का विरोध
  5. कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद
  6. अंग्रेजों की बन्दर बाँट

बारहवां प्रकरण – वर्तमान

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर होता है – बटवारे के बाद जब भारत की सीमायें ऐक बार फिर सिमिट गयीं तो हिन्दूओं को पाकिस्तान से निकलना पडा था। प्राचीन इतिहास से नाता तोड कर हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह  प्रचारित किये गये विवादस्पद ‘राष्ट्रपिता’ का परिचय ले कर अपनी नयी धर्म-निर्पेक्ष पहचान बनाने में लगे हुए हैं। काँग्रेसी नेताओं ने आक्रान्ताओं को खण्डित भारत का फिर से हिस्सेदार बना लिया है और मुस्लमानों को प्रलोभनों से संतुष्ट रखना अब हिन्दूओं के लिये नयी ज़िम्मेदारी है। अपने वोट बैंक की संख्या बढा कर अल्पसंख्यक फिर से भारत को हडप जाने की ताक में हैं। उन्हों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया नहीं है। हमारे राजनैता उदारवादी बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है। हिन्दूओं की पहचान, राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्म-सम्मान  सभी कुछ नष्ट हो रहै हैं। हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा और पलायनवाद है। अगर हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है तो एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होना पडे गा, उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़। गर्व से कहना हो गा कि हम हिन्दू हैं  और आदि काल से भारत हमारा देश है।  अगर अभी नहीं किया तो फिर कभी नहीं  होगा !  

  1. बटवारे के पश्चात भारत
  2. हिन्दू विरोधी गुटबन्दी
  3. आरक्षण की राजनीति
  4. अलगावादियों का संरक्षण
  5. अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू
  6. हिन्दूओं की दिशाहीनता
  7. धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र?
  8. ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति
  9. अभी नहीं तो कभी नहीं

निम्नलिखित हिन्दू महासागर का भाग नहीं हैं।

हिन्दू जागृति

हिन्दू गौरव

चेतावनी

राष्ट्रीयता

हिन्दू समाज

हमारे राजनेता

वर्तमान

मोदी सरकार

हमारा मीडिया

टैग का बादल