हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

7 – प्राकृति का व्यक्तिकरण


स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपनी अनुभूतियों से प्राकृति की शक्तियों को पहचान कर साधारण मानवों के बोध के लिये उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दी है। शक्तियों के परस्पर प्रभाव तथा क्षमताओं को समझाने के लिये देवी देवताओं की कथाओं के साथ साथ उन के चित्र भी बनाये गये जो लोक प्रिय हो गये। उस समय ज्ञान लिखित नहीं था – केवल सुन कर ही श्रुति के आधार पर ही याद रखा जाता था। श्रुति से स्मृति ही ज्ञान का प्रवाह था। कालान्तर जन साधारण मे स्मर्ण रखने के लिये देवी – देवताओं के चिन्हों तथा बुतों के पूजन की स्थानीय विधियां भी प्रचिलित हो गयीं। गुण दोषों का व्यक्तिकरण कर के उन पर साहित्य का सृजन होने लगा। गुण-वाचक संज्ञाओं को सांकेतिक ढंग से वर्णित तथा चित्रित कर दिया गया।

हवा तो अदृष्य होती है किन्तु यदि तेज़ हवा को सांकेतिक ढंग से दिखाना हो तो झूलते हुये पेड़, हल्के पदार्थों का हवा में उड़ना तथा  धूल से आकाश का ढक जाना चित्रित कर दिया जाता है। इसी प्रकार से महा मानवों, राक्षसों तथा देवी देवताओं का भी सांकेतिक चित्रण किया गया। उन की शक्तियां दर्शाने के लिये उन के चार या और अधिक हाथ, एक से अधिक सिर तथा अन्य तरीकों से चित्रकारों की कलपना ने उन्हे अलंकृत कर दिया। इन सब प्रथाओं की पहल भी भारत से ही हुई। सृष्टि के आरम्भ से ही सभ्यता तथा ज्ञान के विकास में भारत ही विश्व के अन्य मानव समुदायों का मार्ग दर्शक था।

सैंकडों वर्ष पश्चात धीरे धीरे विश्व में जहाँ जहाँ भी पैगनज़िम फैला तो उस के साथ ही दंत-कथाओं के माध्यम से ऐसी ही प्रतिक्रिया अन्य स्थानों पर भी फैलती गयी। अंग्रेज़ी साहित्य में केंटरबरी टेल्स तथा अरबी साहित्य में अरेबियन नाईटस जैसे मनोरंजक और काल्पनिक कथा संग्रह भी लिखे गये किन्तु उन का कोई वैज्ञ्यानिक आधार नहीं था।

हिन्दू चित्रावली की विशेषतायें

कुछ बातों में हिन्दू व्याख्यायें अन्य धर्मों से अलग हैं जैसे किः-

भूगोलिक तथा समय सीमाओं से स्वतन्त्र  – हिन्दू चित्रावली अन्य सभी समुदायों से अधिक सुन्दर, यथार्थवादी, व्याख्या सम्पन्न तथा पूर्णत्या मौलिक और वैज्ञ्यानिक थी। वह हर प्रकार के भूगौलिक तथा समय सीमाओं से भी मुक्त थी। हिन्दूओं के पौराणिक साहित्य के पात्र ना केवल धरती पर बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पग-चिन्ह छोड़ चुके हैं। ना केवल दैविक शक्तियां बल्कि कई ऋषि-मुनि और साधारण मानव भी  एक गृह से अन्य लोकों में विचरते रहे हैं। यह तथ्य उजागर करता है कि पौराणिक युग से ही हिन्दूओं का भूगौलिक तथा अंतरीक्ष ज्ञान अन्य मानव समाजों से बहुताधिक सम्पन्न था। देवी देवताओं के अतिरिक्त कई ऋषि-मुनि और तपस्वी जन्म मरण के बन्धन से मुक्त थे और चिरंजीवी की पदवी पा चुके थे जिन मे हनुमान, परशुराम, नारद, वेदव्यास, दुर्वासा, जामावन्त तथा अशवथामा के नाम प्रमुख हैं। वह किसी भी स्थान पर प्रगट अथवा किसी भी स्थान से अदृष्य होने में भी सक्ष्म माने जाते हैं। हिन्दू धर्म का कोई भी देवी देवता दारिद्रता में लिप्त नहीं है। सभी सुन्दर तथा रत्नजडित वस्त्राभूष्णों से सुसज्जित रहते हैं और किसी भी प्राणी को वरदान दे कर उस के आभाव को दूर करने में सक्ष्म है। हर देवी देवता के पास अपराधी को दण्ड देने के लिये अस्त्र-शस्त्र तथा पुन्यकर्मी को पुरस्कृत करने के लिये पुष्प भी रहते हैं। कोई भी देवी देवता लाचार नहीं कि लोग उसे सूली पर टाँग दें और वह कुछ भी ना कर सके। जो देवता स्वयं ही लाचार और दरिद्र हो वह दूसरे का भला नहीं कर सकता। किसी को कोई साँवन्तना भी नहीं दे सकता। अतः हिन्दू देवी –देवता समृद्ध, शक्तिशाली, परम ज्ञानी होने के साथ साथ मानवी भावनायें रखते हैं।

परियावरण का प्रतिनिधित्व – हिन्दूओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया है। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखना, जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देना, बेल, पीपल, तुलसी, नीम और वट वृक्ष आदि को प्रतीक स्वरूप पूजित करना, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता के समान पूज्य मान कर प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य है। पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की ही तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना हुआ है लेकिन स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। ईश्वर को सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य को दर्शाने के लिये छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्ह और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है।

स्वर्ग और नरक – प्रत्येक धर्म ने अपने स्थानीय वातावरण अनुसार स्वर्ग और नरक की कल्पना की है। जो कुछ भी उन के स्थानीय वातावरण में सुखदायक है वह स्वर्ग के समान है और जो कुछ उन के स्थानीय वातावरण में दुखदायक है वैसा ही उन का नरक भी है। अतः तपते हुये रेगिस्तान में पनपे मुसलमानों का स्वर्ग (बहशित, जन्नत) छायादार तथा ठंडा रहता है और बहुत सारे जल स्त्रोत्रों से परिपूर्ण है क्यों कि अरब में इन्हीं वस्तुओं की कमी है। बहिशत फल-फूलों से लदा हुआ है तथा वहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ अल्लाह के विशवासनीयों की सेवा करने के लिये हरदम तैनात रहती हैं।  इसलामी नरक (दोज़ख, जहन्नुम) हमेशा आग की तरह तपता रहता है जैसा कि अरब का वास्तविक वातावरण है। दोज़ख में काफिरों (विधर्मियों) को यात्ना देने का सामान हर समय तैय्यार रहता है ताकि काफिरों और हिन्दूओं  को बुतपरस्ती करने के अपराध में जलाया जा सके। कदाचित उन्हें यह विदित नहीं कि हिन्दूओं का शरीर तो दाह संस्कार के समय से ही जल चुका होता है और आत्मा कभी नहीं जलती।

इस के विपरीत योरूप में बसे इसाईयों के स्वर्ग में सूर्योदय तो सदा सुख प्रदान करता है किन्तु उन का नरक बर्फ से हमेशा ढके रहने के कारण एकदम ठंडा है। सभी धर्मों का काल्पनिक स्वर्ग आकाश में है और नरक धरती के नीचे है। स्वर्ग का प्रशासन देवताओं, हूरों, परियों अथवा अप्सराओं के अधीन है और वह श्रंगार, गायन तथा नृत्य के माध्यम से स्वर्गवासियों का मनोरंजन करनें में पारंगत हैं। नरक क्रूर प्रशासकों के आधीन है जो देखने में क्रूर, भद्दे और बेडौल शरीर वाले हैं। स्वर्ग में जाने के लिये ईश्वर के पुत्र या प्रतिनिधि की सिफारिश होनी ज़रूरी है।

हिन्दू धर्मानुसार स्वर्ग में केवल पुन्यकर्मी ही अपने पुरषार्थ से ही रहवास पाते हैं तथा पाप करने वाले नरक में य़मराज के अधीन रह कर यातना पाते हैं। अन्य धर्मों और हिन्दू धर्म के स्वर्ग- नरक की परिकल्पना में मुख्य अन्तर यह है कि  अन्य धर्म पुनर्जन्म में विशवास नहीं रखते। इस कारण से अन्य धर्मियों के पास वर्तमान जन्म के पश्चात पुन्य कर्म करने का कोई विकल्प ही नहीं बचता है। केवल हिन्दू ही अगले जन्म में पुन्य कर्म कर के प्रायश्चित कर सकते हैं और नारकीय जीवन से मुक्ति पा कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।वह उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं, उन के पास आशा की किरण है।

त्रिमूर्ति – हिन्दू ऐक ईश्वर में विशवास रखते हैं लेकिन उसी सर्व-व्यापि, सर्व शक्तिमान एवं सर्वज्ञ्य ईश्वर को तीन प्रथक रूपों में, तीन मुख्य क्रियाओं के कर्ता के तौर पर भी निहारते है। इन तीनों रूपों को त्रिमूर्ति का संज्ञा दी गयी है। उन के चित्रों में वैज्ञिय़ानिक तथ्यों की कलात्मिक ढंग से व्याख्या दर्शायी गयी है। 

  • ब्रह्मा- ब्रह्मा के रूप में ईश्वर सृष्टि के सर्जन करता हैं। उन के चित्र में चार मुख तथा चार हाथ दर्शाये जाते हैं। प्रत्येक मुख एक एक वेद के का उच्चारण प्रतीक है. उन के हाथ में जल से भरा कमण्डल सृष्टि की सर्जन शक्ति का प्रतीक है। उन के दूसरे हाथ में माला के मनकों की गणना करते रहना सृष्टि के कालचक्र का स्वरूप है। तीसरे हाथ में वेद का ज्ञान तथा चौथे हाथ में कमल का फूल ब्रह्मशक्ति का प्रतीक है। भगवान ब्रह्मा विद्या एवं कला की देवी सरस्वती के पति हैं। विद्या एवं कला ब्रह्मा की सर्जन शक्ति का आधार हैं अतः उन का संयोग ब्रह्मा के साथ यथेष्ट है। ब्रह्मा का वाहन विवेकशील, सुन्दर तथा स्वछ पक्षी हँस होता है। ब्रह्मा का मुख्य दाईत्व सर्जन करना हैं अतः सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह सृष्टि के अन्य कामों में कोई दखल नहीं देते। ब्रह्मा को सर्जन कर्ता होने की वजह से परम पिता भी कहा जाता है तथा उन्हें अकसर वृद्ध ही दर्शाया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देष्य यह भी है कि साधनहीन बुद्धिमान व्यक्ति भी  कोई कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता और एक वृद्ध की तरह आशक्त होता है। संसार भर में ब्रह्मा की उपासना का केवल एक ही मन्दिर पुष्कर, राजस्थान में है। बुद्धि-जीवियों को चापलूसों की ज़रूरत नहीं पडती।
  • विष्णु- विष्णु के रूप में ईश्वर सृष्टि के पालक हैं। चित्रण में उन के भी चार हाथ दर्शाये जाते हैं तथा उन का शरीर नील-वरण का होता है। उन के हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं जो संसाधनों की शक्ति तथा पुरस्कार के प्रतीक हैं। वह शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं तथा धन-वैभव की देवी लक्ष्मी उन की पत्नी के रूप में स्दैव उन के चरणों के समीप रहती है। सर्व-व्यापि होते हुये भी उन का निवास क्षीर सागर में होता है क्योंकि संसार का समस्त धन वैभव सागर से ही निकला है। उन का चित्रण पूर्णत्या ऐशवर्य तथा सुख वैभव का प्रतीक है तभी तो वह सृष्टि के पालन करने में समर्थ हैं। भगवान विष्णु का वाहन महातेजस्वी पक्षी गरुड़ है। सृष्टि के भरण-पोषण तथा प्रशासन भगवान विष्णु के दाईत्व में होने के कारण जब भी सृष्टि में कोई विकट समस्या उत्पन होती है अथवा धर्म की हानि होती है और लोग अपने  कर्तव्य भूल कर मनमानी करने लगते हैं तो उस समस्या के समाधान के लिये भगवान विष्णु स्वयं अवतार ले कर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। स्पष्ट है धन – वैभव वालों के भक्त भी अधिक होते हैं।
  • महेशवर- महेशवर अथवा भगवान शिव की छवि में ईश्वर को सृष्टि के संहारक के रूप में दर्शाया जाता है। भगवान शिव स्दैव ध्यान मुद्रा में कैलास पर्वत पर विराजते हैं। उन के कंठ में विषैले सर्पों की माला, माथे पर चन्द्र तथा हाथ में त्रिशूल रहता है तथा एक हाथ आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में रहता है। सृष्टि के संहारक होते हुये भी भगवान शिव करुणामय तथा सकारात्मक शक्ति के प्रतीक हैं और वह पाप नाशक हैं। उन का वाहन नन्दी बैल है तथा उन की पत्नी शक्ति की देवी दुर्गा है जिन को कई नामों  तथा रूपों में दर्शाया जाता है। भगवान शिव को समस्त कलाओं का स्त्रोत्र भी माना जाता है तथा उन के ताँडव नृत्य को उन की संहारक क्रिया के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। स्पष्ट है शक्तिशाली का सभी आदर करते हैं, डरते हैं तथा उस का संरक्षण प्राप्त करते हैं। 

वास्तव में ईश्वर के तीनों स्वरूप एक ही सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तीन अलग अलग क्रियाओं के प्रतीक हैं। भगवान की तीनों क्रियायें – सृष्टि का सर्जन, पोषण तथा हनन उसी प्रकार हैं जैसे एक ही व्यक्ति माता-पिता के लिये पुत्र, पत्नी के लिये पति, तथा अपने बच्चों के लिये पिता होता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति तीन प्रथक प्रथक क्रियायें करता हुआ ही एक ही व्यक्ति है उसी तरह एक ही परमात्मा के तीन रूप त्रिमूर्ति में प्रगट होते हैं।

त्रिमूर्ति का विधान शक्ति के विभाजन के सिद्धान्त का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उन्नीसवीं शताब्दि में फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू ने योरूप वासियों को सिखाया था। मांटैस्क्यू का ज्ञान अधूरा था। उस ने विधि सर्जन, प्रशासन तथा न्याय पालिका को तो अलग कर दिया किन्तु उन में ताल मेल की व्यवस्था नहीं रखी जो आज सभी कुशासनों की जड है। भारतीय विधान में ऐसा दोष नहीं था। सर्व शक्तिमान ईश्वर को त्रिमूर्ति में तीन शक्तियों के तौर पर दर्शाया गया है जो सर्जन, पोष्ण तथा हनन का अलग अलग कार्य  करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं। अलग हो कर भी आपस में विचार विमर्श करती हैं। इस का सारांश यह है कि सृष्टि की सरकार शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के साथ साथ आपसी ताल-मेल को भी बनाये रखती है जिस की मानवी सरकारें अकसर अनदेखी करती हैं। प्रशासन के विभिन्न अंगों में तालमेल रखना एक अनिवार्यता है।

हिन्दू धर्मानुसार ईश्वर किसी विशेष स्थान या किसी भी समय सीमा के बन्धन से मुक्त है। ईश्वर अनादि है। उस का ना कोई आरम्भ और ना ही कोई अंत है। वह परम शाशवत है। उस की शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हो सकता।

चाँद शर्मा

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