हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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67 – अलगावादियों का संरक्षण


बटवारे पश्चात का ऐक कडुआ सच यह है कि भारत को फिर से हडपने की ताक में अल्पसंख्यक अपने वोट बैंक की संख्या दिन रात बढा रहै हैं। मुस्लिम भारत में ऐक विशिष्ट समुदाय बन कर शैरियत कानून के अन्दर ही रहना चाहते हैं। इसाई भारत को इसाई देश बनाना चाहते हैं, कम्यूनिस्ट नक्सली तरीकों से माओवाद फैलाना चाहते हैं और पाश्चात्य देश बहुसंख्यक हिन्दूओं को छोटे छोटे साम्प्रदायों में बाँट कर उन की ऐकता को नष्ट करना चाहते हैं ताकि उन के षटयन्त्रों का कोई सक्षम विरोध ना कर सके। महाशक्तियाँ भारत को खण्डित कर के छोटे छोटे कमजोर राज्यों में विभाजित कर देना चाहती हैं। 

स्दैव की तरह अस्हाय हिन्दू

भारत सरकार ‘संगठित अल्पसंख्यकों’ की सरकार है जो ‘असंगठित हिन्दू जनता’ पर शासन करती है। सरकार केवल अल्पसंख्यकों के हित के लिये है जिस की कीमत बहुसंख्यक चुकाते रहै हैं। 

विभाजन के पश्चात ही काँग्रेस ने परिवारिक सत्ता कायम करने की कोशिश शुरू कर दी थी जिस के निरन्तर प्रयासों के बाद आज इटली मूल की ऐक साधारण महिला शताब्दियों पुरानी सभ्यता की सर्वे-सर्वा बना कर परोक्ष रूप से लूट-तन्त्री शासन चला रही है। यह सभी कुछ अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण दूारा संगठित कर के किया जा रहा है। राजनैतिक मूर्खता के कारण अपने ही देश में असंगठित हिन्दू फिर से और असहाय बने बैठे हैं।

‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धान्त अनुसार ईस्ट ईण्डिया कम्पनी ने स्वार्थी राजे-रजवाडों को ऐक दूसरे से लडवा कर राजनैतिक सत्ता उन से छीन ली थी। आज अधिकाँश जनता को ‘गाँधी-गिरी’ के आदर्शवाद, नेहरू परिवार की ‘कुर्बानियों’ और योजनाओं के कागजी सब्ज बागों, तथा अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण से बहला फुसला कर उन्हे हिन्दू विरोधी बनाया जा रहा है ताकि देश का इस्लामीकरण, इसाईकरण, या धर्म-खण्डन किया जा सके। हमेशा की तरह हिन्दू आज भी आँखें मूंद कर ‘आदर्श पलायनवादी’ बने बैठे हैं जब कि देश की घरती उन्हीं के पाँवों के नीचे से खिसकती जा रही है। देश के संसाधन और शासन तन्त्र की बागडोर अल्प संख्यकों के हाथ में तेजी से ट्रांसफर होती जा रही है।

भारत के विघटम का षटयन्त्र

खण्डित भारत, मुस्लिमों, इसाईयों, कम्यूनिस्टों तथा पाशचात्य देशों का संजोया हुआ सपना है। हिन्दू विरोधी प्रसार माध्यम अल्पसंख्यकों को विश्व पटल पर ‘हिन्दू हिंसा’ के कारण ‘त्रासित’ दिखाने में देर नहीं करते। अल्पसंख्यकों को विदेशी सरकारों से आर्थिक, राजनैतिक और कई बार आतंकवादी हथियारों की सहायता भी मिलती है किन्तु काँग्रेसी राजनेता घोटालों से अपना भविष्य सुदृढ करने के लिये देश का धन लूटने में व्यस्त रहते हैं। 

विदेशी आतंकवादी और मिशनरी अब अपने पाँव सरकारी तन्त्र में पसारने का काम कर रहै हैं। विदेशी सहायता से आज कितने ही नये हिन्दू साम्प्रदाय भारत में ही संगठित हो चुके हैं। कहीं जातियों के आधार पर, कहीं आर्थिक विषमताओं के आधार पर, कहीं प्राँतीय भाषाओं के नाम पर, तो कहीं परिवारों, व्यक्तियों, आस्थाओं, साधू-संतों और ‘सुधारों’ के नाम पर हिन्दूओं को उन की मुख्य धारा से अलग करने के यत्न चल रहै हैं। इस कार्य के लिये कई ‘हिन्दू धर्म प्रचारकों’ को भी नेतागिरी दी गयी है जो लोगों में घुलमिल कर काम कर रहै हैं। हिन्दू नामों के पीछे अपनी पहचान छुपा कर कितने ही मुस्लिम और इसाई मन्त्री तथा वरिष्ठ अधिकारी आज शासन तन्त्र में कार्य कर रहै हैं जो भोले भाले हिन्दूओं को हिन्दू परम्पराओं में ‘सुधार’ के नाम पर तोडने की सलाह देते हैं।

देशों के इतिहास में पचास से सौ वर्ष का समय थोडा समय ही माना जाता है। भारत तथा हिन्दू विघटन के बीज आज बोये जा रहै हैं जिन पर अगले तीस या पचास वर्षों में फल निकल पडें गे। इन विघटन कारी श्रंखलाओं के आँकडे चौंकाने वाले हैं। रात रात में किसी अज्ञात ‘गुरू’ के नाम पर मन्दिर या आश्रम खडे हो जाते हैं। वहाँ गुरू की ‘महिमा’ का गुण गान करने वाले ‘भक्त’ इकठ्टे होने शुरू हो जाते हैं। विदेशों से बहुमूल्य ‘उपहार’  आने लगते हैं। इस प्रकार पनपे अधिकाँश गुरू हिन्दू संगठन के विघटन का काम करने लगते हैं जिस के फलस्वरूप उन गुरूओं के अनुयायी हिन्दूओं की मुख्य धारा से नाता तोड कर केवल गुरू के बनाय हुये रीति-रिवाज ही मानने लगते हैं और विघटन की सीढियाँ तैय्यार हो जाती हैं। 

मताधिकार से शासन हडपने का षटयन्त्र

अधिकाँश हिन्दू मत समुदायों में बट जाते है, परन्तु अल्पसंख्यक अपने धर्म स्थलों पर ऐकत्रित होते हैं जहाँ उन के धर्म गुरू ‘फतवा’ या ‘सरमन’ दे कर हिन्दू विरोधी उमीदवार के पक्ष में मतदान करने की सलाह देते हैं और हिन्दूओं को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो जाते हैं। शर्म की बात है ‘प्रजातन्त्र’ होते हुये भी आज हिन्दू अपने ही देश में, अपने हितों की रक्षा के लिये सरकार नहीं चुन सकते। अल्पसंख्यक जिसे चाहें आज भारत में राज सत्ता पर बैठा सकते हैं।

स्वार्थी हिन्दू राजनैता सत्ता पाने के पश्चात अल्पसंख्यकों के लिये तुष्टिकरण की योजनायें और बढा देते हैं और यह क्रम लगातार चलता रहता है। वह दिन दूर नहीं जब अल्पसंख्यक बहुसंख्यक बन कर सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार बना ले गे। हिन्दू गद्दारों को तो ऐक दिन अपने किये का फल अवश्य भोगना पडे गा किन्तु तब तक हिन्दूओं के लिये भी स्थिति सुधारने की दिशा में बहुत देर हो चुकी होगी।

अल्पसंख्यक कानूनों का माया जाल

विश्व के सभी धर्म-निर्पेक्ष देशों में समान सामाजिक आचार संहिता है। मुस्लिम देशों तथा इसाई देशों में धार्मिक र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में वैसा कुछ भी नहीं है। ‘धर्म के आधार पर’ जब भारत का विभाजन हुआ तो यह साफ था कि जो लोग हिन्दुस्तान में रहें गे उन्हें हिन्दु धर्म और संस्कृति के साथ मिल कर र्निवाह करना होगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का भेद मिटाने के लिये भारत की समान आचार संहिता का आधार भारत की प्राचीन संस्कृति पर ही होना चाहिये था।

मुस्लिम भारत में स्वेच्छा से रहने के बावजूद भी इस प्रकार की समान आचार संहिता के विरुद्ध हैं। उन्हें कुछ देश द्रोही हिन्दू राजनेताओं का सहयोग भी प्राप्त है। अतः विभाजन के साठ-सत्तर वर्षों के बाद भी भारत में सभी धर्मों के लिये अलग अलग आचार संहितायें हैं जो उन्हे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों में बाँट कर रखती हैं। भारतीय ‘ऐकता’ है ही नहीं।

सोचने की बात यह है कि भारत में वैसे तो मुस्लिम अरब देशों वाले शैरियत कानून के मुताबिक शादी तलाक आदि करना चाहते हैं किन्तु उन पर शैरियत की दण्ड संहिता भी लागू करने का सुझाव दिया जाये तो वह उस का विरोध करनें में देरी नहीं करते, क्योंकि शैरियत कानून लागू करने जहाँ ‘हिन्दू चोर’ को भारतीय दण्ड संहितानुसार कारावास की सजा दी जाये गी वहीं ‘मुस्लिम चोर’ के हाथ काट देने का प्रावधान भी होगा। इस प्रकार जो कानून मुस्लमानों को आर्थिक या राजनैतिक लाभ पहुँचाते हैं वहाँ वह सामान्य भारतीय कानूनों को स्वीकार कर लेते हैं मगर भारत में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के लिये शैरियत कानून की दुहाई भी देते रहते हैं। 

धर्म-निर्पेक्ष्ता की आड में जहाँ महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर मुस्लमानों का भीड़ नमाज़ पढ सकती है, लाऊ-डस्पीकरों पर ‘अजा़न’ दे सकती है, किसी भी हिन्दू देवी-देवता का अशलील चित्र, फि़ल्में और उन के बारे में कुछ भी बखान कर सकती है – वहीं हिन्दू मन्दिर, पूजा स्थल, और त्योहारों के मण्डप बम धमाकों से स्दैव भयग्रस्त रहते हैं। हमारी धर्म-निर्पेक्ष कानून व्यवस्था तभी जागती है जब अल्प-संख्यक वर्ग को कोई आपत्ति हो।

धर्म की आड़ ले कर मुस्लमान परिवार नियोजन का भी विरोध करते हैं। आज भारत के किस प्रदेश में किस राजनैतिक गठबन्धन की सरकार बने वह मुस्लमान मतदाता ‘निर्धारित’ करते हैं लेकिन कल जब उन की संख्या 30 प्रतिशत हो जायें गी तो फिर वह अपनी ही सरकार बना कर दूसरा पाकिस्तान भी बना दें गे और शैरियत कानून भी लागू कर दें गे।

निस्संदेह, मुस्लिम और इसाई हिन्दू मत के बिलकुल विपरीत हैं। अल्पसंख्यकों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया बिलकुल नहीं है। केवल हिन्दु ही गांधी कथित ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के सुर आलापते रहै हैं। मुस्लमानों और इसाईयों ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ कभी नहीं गाया। वह तो राष्ट्रगान वन्दे मात्रम् का भी विरोध करते हैं। उन्हें भारत की मुख्य धारा में मिलना स्वीकार नहीं।

धर्मान्तरण पर अंकुश ज़रूरी

धर्म परिवर्तन करवाने के लिये प्रलोभन के तरीके सेवा, उपहार, दान दया के लिबादे में छिपे होते हैं। अशिक्षता, गरीबी, और धर्म-निर्पेक्ष सरकारी तन्त्र विदेशियों के लिये धर्म परिवर्तन करवाने के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करते है। कान्वेन्ट स्कूलों से पढे विद्यार्थियों को आज हिन्दू धर्म से कोई प्रेरणा नहीं मिलती। भारत में यदि कोई किसी का धर्म परिवर्तन करवाये तो वह ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ कहलाता है किन्तु यदि वह हिन्दू को हिन्दू ही बने रहने के लिये कहै तो वह ‘कट्टरपँथी, रूढिवादी और साम्प्रदायक’ माना जाता है। 

इन हालात में धर्म व्यक्ति की ‘निजी स्वतन्त्रता’ का मामला नहीं है। जब धर्म के साथ जेहादी मानसिक्ता जुड़ जाती है जो ऐक व्यक्ति को दूसरे धर्म वाले का वध कर देने के लिये प्रेरित है तो फिर वह धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। इस प्रकार के धर्म को मानने वाले अपने धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं को भी दूषित करते है। अतः सरकार को उन पर रोक लगानी आवशयक है और भारत में धर्मान्तरण की अनुमति नहीं होनी चाहिये। जन्मजात विदेशी धर्म पालन की छूट को विदेशी धर्म के विस्तार करने में तबदील नहीं किया जा सकता। धर्म-निर्पेक्षता की आड में ध्रमान्तरण दूारा देश को विभाजित करने या हडपने का षटयंत्र नहीं चलाया जा सकता।

घुसपैठ का संरक्षण

धर्मान्तरण और अवैध घुसपैठ के कारण आज असम, नागलैण्ड, मणिपुर, मेघालय, केरल, तथा कशमीर आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक बन चुके हैं और शर्णार्थी बन कर दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहै हैं। वह दिन दूर  नहीं जब यह घुस पैठिये अपने लिये पाकिस्तान की तरह का ऐक और प्रथक देश भी माँगें गे।

भारत में चारों ओर से अवैध घुस पैठ हो रही है। अल्पसंख्यक ही घुसपैठियों को आश्रय देते हैं। घुसपैठ के माध्यम से नशीले पदार्थों तथा विसफोटक सामान की तस्करी भी होती है। देश की अर्थ व्यवस्था को नष्ट करने के लिये देश में नकली करंसी भी लाई जा रही है। किन्तु धर्म-निर्पेक्षता और मानव अधिकार हनन का बहाना कर के घुस पैठियों को निष्कासित करने का कुछ स्वार्थी और देशद्रोही नेता विरोघ करने लगते है। इस प्रकार इसाई मिशनरी, जिहादी मुस्लिम तथा धर्म-निर्पेक्ष स्वार्थी नेता इस देश को दीमक की तरह नष्ट करते जा रहे हैं।

तुष्टिकरण के प्रसार माध्यम

विभाजन पश्चात गाँधी वादियों ने बट चुके हिन्दुस्तान में मुसलमानों को बराबर का ना केवल हिस्सेदार बनाया था, बल्कि उन्हें कट्टर पंथी बने रह कर मुख्य धारा से अलग रहने का प्रोत्साहन भी दिया। उन्हें जताया गया कि मुख्य धारा में जुडने के बजाये अलग वोट बेंक बन कर रहने में ही उन्हें अधिक लाभ है ताकि सरकार को दबाव में ला कर प्रभावित किया जा सके । दुर्भाग्यवश हिन्दू गाँधीवादी बन कर वास्तविक्ता की अनदेखी करते रहै हैं।

उसी कडी में अल्संखयकों को ऊँचे पदों पर नियुक्त कर के हम अपनी धर्म निर्पेक्षता का बखान विश्व में करते रहै हैं। अब अल्पसंख्यक सरकारी पदों में अपने लिये आरक्षण की मांग भी करने लगे हैं। काँग्रेस के प्रधान मंत्री तो अल्पसंख्यकों को देश के सभी साधनों में प्राथमिक अधिकार देने की घोषणा भी कर चुके हैं। देशद्रोही मीडिया ने भारत को एक धर्म-हीन देश समझ रखा है कि यहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर देश को खण्डित करने का कुचक्र रच सकता है।

अल्पसंख्यक जनगणना में वृद्धि

विभाजन से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। आज भारत में मुसलमानों की संख्या फिर से 15 प्रतिशत से भी उपर बढ चुकी है। वह अपना मत संख्या बढाने में संलगित हैं ताकि देश पर अधिकार ना सही तो एक और विभाजन की करवाया जाय। विभाजन के पश्चात हिन्दूओं का अब केवल यही राष्ट्रधर्म रह गया है कि वह अल्पसंख्यकों की तन मन और धन से सेवा कर के उन का तुष्टिकरण ही करते रहैं नहीं तो वह हमारी राष्ट्रीय ऐकता को खण्डित कर डालें गे।

हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा है। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये उन्हें संकल्प ले कर कर्म करना होगा और अपने घर को प्रदूषणमुक्त करना होगा। अभी आशा की ऐक किरण बाकी है। अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर उन्हें एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे हो कर उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – बल्कि धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

61 – इस्लामीकरण का विरोध


इस्लाम को भारत में सफलता मिलने का ऐक कारण यहाँ के शासकों में परस्पर कलह, जातीय अहंकार, और राजपूतों में कूटनीति का आभाव था। वह वीरता के साथ युद्ध में मरना तो जानते थे किन्तु देश के लिये संगठित हो कर जीना नहीं जानते थे। युद्ध जीतने की चालों में पराजित हो जाते थे तथा भीतर छिपे गद्दारों को पहचानने में चूकते रहै। पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को पराजित कर के क्षमादान दिया तो अगले ही वर्ष गौरी ने कूटनीति से पृथ्वीराज चौहान को हरा कर उसे यात्नामयी मृत्यु प्रदान कर दी। इस प्रकार की घटनायें भारत के इतिहास में बार बार होती रही हैं। आज तक हिन्दूओं ने अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। 

इस्लाम ने हिन्दू धर्म की किसी भी आस्था और विशवास का आदर नहीं किया और इसी कारण दोनो ऐक दूसरे के विरोधी ही रहे हैं। भारत हिन्दूओं का जन्म स्थान था अतः जब भी सम्भव हुआ हिन्दूओं ने मुस्लिम शासन को भारत से उखाड देने के प्रयत्न भी कियेः-

  • राणा संग्राम सिहं कन्हुआ के युद्ध में मुग़ल आक्रान्ता बाबर को पराजित करने के निकट थे। बाबर ने सुलह का समय माँगा और मध्यस्थ बने राजा शिलादित्य को प्रलोभन दे कर उसी से राणा संग्राम सिहँ के विरुद्ध गद्दारी करवाई जिस के कारण राणा संग्राम सिहँ की जीत पराजय में बदल गयी। भारत में मुग़ल शासन स्थापित हो गया।
  • हेम चन्द्र विक्रमादितीय ने शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी से दिल्ली का शासन छीन कर भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित कर दिया था। अकबर की सैना को दिल्ली पर अधिकार करने से रोकने के लिये उस ने राजपूतों से जब सहायता माँगी तो राजपूतों ने उस के आधीन रहकर लडने से इनकार कर दिया था। पानीपत के दूसरे युद्ध में जब वह विजय के समीप था तो दुर्भाग्य से ऐक तीर उस की आँख में जा लगा। पकडे जाने के पश्चात घायल अवस्था में ही हेम चन्द्र विक्रमादितीय का सिर काट कर काबुल भेज दिया गया था और दिल्ली पर मुगल शासन दोबारा स्थापित हो गया।
  • महाराणा प्रताप ने अकेले दम से स्वतन्त्रता की मशाल जवलन्त रखी किन्तु राजपूतों में ऐकता ना होने के कारण वह सफल ना हो सके। अकबर और उस के पश्चात दूसरे मुगल बादशाहों ने भी राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाया और युद्ध जीते। अपने ही अपनों को मारते रहै।
  • महाराज कृष्ण देव राय ने दक्षिण भारत के विजयनगर में ऐक सशक्त हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया था किन्तु बाहम्नी के छोटे छोटे सुलतानों ने ऐकता कर के विजयनगर पर आक्रमण किया। महाराज कृष्ण देव राय अपने ही निकट सम्बन्धी की गद्दारी के कारण पराजित हो गये और विजयनगर के सम्रद्ध साम्राज्य का अन्त हो गया। 
  • छत्रपति शिवाजी ने दक्षिण भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया। औरंगज़ेब ने मिर्जा राजा जयसिहँ की सहायता से शिवा जी को सन्धि के बहाने दिल्ली बुलवा कर कैद कर लिया था। सौभागय से शिवाजी कैदखाने से निकल गये और फिर उन्हों ने औरंगजेब को चैन से जीने नहीं दिया। शिवाजी की मृत्यु पश्चात औरंगजेब ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी को भी धोखे से परास्त किया और अपमान जनक ढंग से यातनायें दे कर मरवा दिया।
  • गुरु गोबिन्द सिहं नेसवा लाख से ऐक लडाऊँ” के मनोबल के साथ अकेले ही मुगलों के अत्याचारों का सशस्त्र विरोध किया किन्तु उन्हें भी स्थानीय हिन्दू राजाओं का सहयोग प्राप्त नही हुआ था। दक्षिण जाते समय ऐक पठान ने उन के ऊपर घातक प्रहार किया जिस के ऊपर उन्हों ने पूर्व काल में दया की थी। उत्तरी भारत में सोये हुये क्षत्रित्व को झकझोर कर जगानें और सभी वर्गों को वीरता के ऐक सूत्र में बाँधने की दिशा में गुरु गोबिन्द सिहं का योगदान अदिूतीय था।

अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते रहै हैं। विश्व गुरु कहलाने वाले देश के लिये यह शर्म की बात है कि समस्त विश्व में अकेला भारत ही ऐक देश है जो हजार वर्ष तक निरन्तर गुलाम रहा था। गुलामी भरी मानसिक्ता आज भी हमारे खून मे समाई हुयी है जिस कारण हम अपने पूर्व-गौरव को अब भी पहचान नहीं सकते। 

खालसा का जन्म

मुगल बादशाह औरंगजेब ने भारत के इस्लामी करण की गतिविधियाँ तीव्र कर दीं थी। औरंगजेब को उस के सलाहकारों ने आभास करवा दिया गया था कि यदि ब्राह्मण धर्म परिवर्तन कर के मुस्लमान हो जायें गे तो बाकी हिन्दू समाज भी उन का अनुसरण करे गा। अतः औरंगजेब के अत्याचारों का मुख्य लक्ष्य हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मण थे।

कशमीर के विक्षिप्त ब्राह्मणों ने गुरु तेग़ बहादुर से संरक्षण की प्रार्थना की। गुरु तेग़ बहादुर अपने स्पुत्र गोविन्द राय को उत्तराधिकारी नियुक्त कर के औरंगजेब से मिलने दिल्ली पहुँचे किन्तु औरंगजेब ने उन्हे उन के शिष्यों समेत बन्दी बना कर उन्हें अमानवी यातनायें दीं और  गुरु तेग़बहादुर का शीश दिल्ली के चाँदनी चौक में कटवा दिया था। 

पिता की शहादत का समाचार युवा गुरु गोविन्द राय के पास पहुँचा। उन्हों ने 30 मार्च 1699 को आनन्दपुर साहिब में ऐक सम्मेलन किया और अपने शिष्यों की आत्मा को झंझोड कर धर्म रक्षा के लिये प्ररेरित किया। जन सभा में अपनी तलवार निकाल कर उन्हों ने धर्म-रक्षार्थ बलि देने के लिये ऐक शीश की माँग की। थोडे कौहतूल के पश्चात ऐक वीर उठा जिसे गुरु जी बलि देने के लिये ऐक तम्बू के भीतर ले गये। थोडे समय पश्चात खून से सनी तलवार हाथ में ले कर गुरु जी वापिस आये और संगत से ऐक और सिर बलि के लिये माँगा। उसी प्रकार बलि देने के लिये गुरु जी पाँच युवाओं को ऐक के बाद ऐक तम्बू के भीतर ले गये और हर बार रक्त से सनी हुई नंगी तलवार ले कर वापिस लौटे। संगत में भय, हडकम्प और असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गय़ी और लोग डर के इधर उधर खिसकने लगे। तब अचानक श्वेत वस्त्र पहने पाँचों युवाओं के साथ गुरु जी तम्बू से बाहर निकल आये।

जनसभा में गुरू जी ने पाँचो वीरों को ‘अमृत छका कर’ अपना शिष्य घोषित किया और उन्हे ‘खालसा’ (पवित्र) की उपाधि प्रदान कर के कहा कि प्रतीक स्वरूप पाँचों शिष्य उन के विशेष अग्रज प्रियजन हों गे। तब उन नव खालसों को कहा कि वह अपने गुरु को भी ‘अमृत छका कर’ खालसा समुदाय में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार ‘खालसा-पँथ’ का जन्म हुआ था। आज भी प्रतीक स्वरूप सिखों के धार्मिक जलूसों की अगुवाई ‘पाँच-प्यारे’ ही करते हैं।

व्यवसाय की श्रेणी से उऩ पाँच युवकों में ऐक क्षत्रिय जाति का दुकानदार था, ऐक जाट कृष्क, ऐक छिम्बा धोबी, ऐक कुम्हार, तथा ऐक नाई था किन्तु गुरु जी ने व्यवसायिक जाति की सीमाओं को तोड कर उन्हें ‘धार्मिक ऐकता’ के सूत्र में बाँध दिया और आदेश दिया कि वह अपने नाम के साथ ‘सिहँ’ (सिंघ) जोडें। उन्हें किसी का ‘दास’ कहलाने की जरूरत नहीं। गुरु गोविन्द राय ने भी अपना नाम गोबिन्द सिंहँ रख लिया। महिलाओं के योगदान को महत्व देते हुये उन्हों ने आदेश दिया कि सभी स्त्रियाँ अपने नाम के पीछे राजकीय सम्मान का सूचक ‘कौर’ (कुँवर) शब्द लगायें। दीनता और दासता की अवस्था में गिरे पडे हिन्दू समाज को इस प्रकार के मनोबल की अत्यन्त आवशयक्ता थी जो गुरु जी ने अपने मार्ग दर्शन से प्रदान की। 

दूरदर्शता और प्रेरणा के प्रतीक गुरु गोबिन्द सिहँ ने अपने नव निर्मित शिष्यों को ऐक विशिष्ट ‘पहचान’ भी प्रदान की ताकि उन का कोई भी खालसा शिष्य जोखिम के सामने कायर बन कर धर्म और शरणागत की रक्षा के कर्तव्य से अपने आप को छिपा ना सके और अपने आप चुनौती स्वीकार करे। अतः खालसा की पहचान के लिये उन्हें पाँच प्रतीक ‘चिन्ह’ धारण करने का आदेश भी दिया था। सभी चिन्ह ‘क’ अक्षर से आरम्भ होते हैं जैसे कि केश, कँघा, कछहरा, कृपाण, और कडा। इन सब का महत्व था। वैरागियों की भान्ति मुण्डे सिरों के बदले अपने शिष्यों को राजसी वीरों की तरह केश रखने का आदेश दिया, स्वच्छता के लिये कँघा, घोडों पर आसानी से सवारी कर के युद्ध करने के लिये कछहरा (ब्रीचिस), कृपाण (तलवार) और अपने साथियों की पहचान करने के लिये दाहिने हाथ में फौलाद का मोटा कडा पहनने का आदेश दिया।

हिन्दू समुदाय को जुझारू वीरता से जीने की प्ररेणा का श्रेय दसवें गुरु गोबिन्द सिहँ को जाता है। केवल भक्ति मार्ग अपना कर पलायनवाद की जगह उन्हें ‘संत-सिपाही’ की छवि में परिवर्तित कर के कर्मयोग का मार्ग अपनाने को लिये प्रोत्साहित किया। अतः उत्तरी भारत में सिख समुदाय धर्म रक्षकों के रूप में उभर कर मुस्लिम जुल्म के सामने चुनौती बन कर खडा हो गया।

इस्लामी शासन का अंत

औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात भारत में  कोई शक्तिशाली केन्द्रीय शासक नही रहा था। मुगलों में उत्तराधिकार का युद्ध लगभग 150 वर्ष तक चलता रहा। थोडे थोडे समय के लिये कई निकम्मे बादशाह आये और आपसी षटयन्त्रों के कारण चलते बने। दक्षिण तथा पूर्वी भारत योरुपीय उपनेष्वादी सशक्त व्यापारिक कम्पनियों के आधीन होता चला गया। कई मुगलिया सामन्त और सैनानायक स्वयं सुलतान बन बैठे और उपनेष्वादी योरुपियन कम्पनियों के हाथों कठपुतलियों की तरह ऐक दूसरे को समाप्त करते रहै। ऐकता, वीरता तथा देश भक्ति का सर्वत्र अभाव था। मकबरों, हरमों, तथा वैशियाओं के कोठों के साये मे बैठ कर तीतर बटेर लडवाना और फिर उन्हें भून कर खा जाना शासकों की की दिनचर्या बन चुकी थी। असुरक्षा, अशिक्षता, गरीबी, अज्ञान, अकाल, महामारियों की भरमार हो गयी और ‘सोने की चिडिया’ कहलाने वाला भारत मुस्लिम शासन के फलस्वरूप सपेरों और लुटेरो के देश की छवि ग्रहण करता गया।

इसी बीच ईरान से नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरों ने भारत आकर बची खुची धन सम्पदा लूटी और हिन्दूओं का कत्लेआम करवाया। हिन्दुस्तान का संरक्षक कोई नहीं था। मुगल शासन केवल लालकिले की चार दिवारी में ही सिमट चुका था अन्य सर्वत्र जगह अन्धकार था। भारत जिस की लाठी उस की भैंस के सिद्धान्त पर चलने लग पडा था। 

हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति का भ्रम 

इस्लाम से पूर्व जो कोई भी मानव समुदाय बाहर से आये थे, भारत वासियों ने उन सभी का सत्कार किया था, और उन के साथ ज्ञान, विज्ञान, कला दार्शनिकता का आदान प्रदान भी किया। कालान्तर वह सभी भारतीय संस्कृति से घुल मिल गये। उन सभी ने भारत को अपना देश माना। मुसलमानों की दशा इस से भिन्न थी। प्रथम तो वह स्थानीय लोगों के साथ मिल जुल कर रहने के लिये नहीं आये थे बल्कि वह भारत में आक्रान्ताओं और लुटेरों की तरह आये। उन का स्पष्ट और पूर्व घोषित मुख्य उद्देश काफिरों को समाप्त कर के इस्लामी राज्य कायम करना था जिस के चारमुख्य आधार स्तम्भ थे ‘जिहाद’, ‘तलवार’, ‘गुलामी’ और ‘जज़िया’। उन का लक्ष्य था ‘स्वयं जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’।

भारत की स्वतन्त्र, ज्ञानवर्ती विचारधारा, तथा सत्य अहिंसा की सोचविचार के सामने इस्लामी कट्टरवाद, वैचारिक प्रतिबन्ध, तथा क्रूरतम हिंसा भारत के निवासियों के लिये पूर्णत्या नकारात्मिक थी। उन के साथ सम्बन्धों का होना अपने विध्वंस को न्योता देने के बराबर था। हिन्दू समाज का कोई भी कण मुस्लिम विचारधारा और जीवन शैली के अनुकूल नहीं था। अतः हिन्दू मुस्लिम विलय की प्रतिक्रिया का सम्पूर्ण अभाव दोनो तरफ निशचित था। वह भारत में सहयोग अथवा प्रयोग वश नहीं आये थे केवल उसे हथियाने लूटने और हिन्दू सभ्यता को बरबाद करने आये थे। लक्ष्य हिन्दूओं को मित्र बनाना नहीं था बल्कि उन्हें गुलाम, या मुस्लमान बनाना था या फिर उन्हें कत्ल करना था।

जब तक मुस्लमान अपनी विचारधारा और जीवन शैली का प्रचार विस्तार अपने जन्म स्थान अरब देशों तक सीमित रखते रहे हिन्दूओं को उन के साथ कोई आपत्ति या अवरोध नहीं था। किन्तु जब उन्हों ने अपना विधान भारत वासियों पर जबरन थोपना चाहा तो संघर्ष लाज़मी था। वह जियो और जीने दो में विशवास ही नहीं करते थे जो भारतीय परम्परा का मूल आधार है। इन कारणों से इस्लाम भारत में अस्वीकारनीय हो गया।हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति ऐक राजनैतिक छलावा या भ्रम से अधिक कुछ नहीं है जिस की तुलना आग और पैट्रोल से ही करी जा सकती है।

चाँद शर्मा

58 – क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?

हिन्दू धर्म का विग्रह

ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर ‘सुधार’ स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।

बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था – बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।

कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।

ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।

हिन्दू धर्म का मध्यान्ह

सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 

कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।

अति सर्वत्र वर्ज्येत

भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।

विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।

विनाश की ओर

हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन – अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है –  को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

ईस्लामी विनाश की आँधी

इस्लाम की स्थापना कर के जब मुहमम्द ने आपस में स्दैव लडते रहने वाले रक्त पिपासु अनुयाईयों को उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक दुनियाँ को फतेह कर के अल्लाह का पैगाम फैला देने का आदेश दिया तो जहाँ कहीं भी सभ्य मानव समुदाय अपने अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहै थे वहाँ मुजाहिदों ने जिहाद आरम्भ कर दिया। शान्ति से जीवन काटते लोगों को जिहादियों की क्रूरता और बरबर्ता का अनुमान ही नहीं था। आन की आन में ही वहशियों ने उन्हें तथा उन की सभ्यताओं को तहस नहस कर के रख दिया।

मुहमम्द ने अपने आप को खुदा का इकलौता रसूल (प्रतिनिधि) घोषित किया था तथा अपने बन्दों को हुक्म दे रखा था कि उस के बताये उसूलों को तर्क की कसौटी पर मत परखें। केवल मुहमम्द पर इमान लाने के बदले में सभी को मुस्लिम समाज में मुस्सावियत (बराबरी) का हक़ दिया जाता था जिस के बाद उन क परम कर्तव्य था कि वह इस्लाम के ना मानने वालों को अल्लाह के नाम से कत्ल कर डालें। इस्लाम की विचारधारा में ‘जियो और जीने दो’ के बजाय ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ का ही प्रवधान था। अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने अपनी निजि पकड अरबवासियों पर कायम रखने के लिये उन्हें आदेश दिये किः-

              तुम अल्लाह और उस के भेजे गये रसूल (मुहम्मद), और कुरान पर यकीन करो। जो भी व्यक्ति अल्लाह, अल्लाह के फरिशतों, अल्लाह की किताब (कुरान),  अल्लाह के (मुहम्मद के जरिये दिये गये) आदेशों और अक़ाबत पर यकीन ना करे वह मुनक्कर (भटका हुआ) है। (4.136)

मुहम्माद ने अल्लाह के नाम पर अपने समर्थकों को काफिरों के वास्ते आदेश दियेः-

  • (याद रखो जब) अल्लाह ने अपना ‘आदेश’ फरिशतों से कहा-“ बेशक मैं तुम विशवस्नीयों के साथ हूँ, मैं काफिरों के दिल में खौफ पैदा करूँगा, और तुम उन की गर्दन के ऊपर, उंगलियों के छौरों और पैरों के अंगूठों पर सख्ती से वार करना।”(8.12)
  • उन के (काफिरों के) खिलाफ जितनी ताकत जुटा सको वह ताकतवर घोडों के समेत जुटाओ ताकि अल्लाह और तुम्हारे दुशमनों और उन के साथियों (जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है) के दिल में खौफ पैदा हो। तुम अल्लाह के लिये जो कुछ भी करो गे उस की भरपाई अल्लाह तुम्हें करे गा और तुम्हारे साथ अन्याय नहीं हो गा।(8.60)

अपने साथियों का मनोबल बढाने के लिये मुहम्मद ने उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन जन्नत में वादा कियेः-

  • अल्लाह तमाम मुस्लमानों को जन्नत में स्थान देगा जो कि खास उन्हीं के लिये बनाय़ी गयी है। (47.6)
  • काफिरों के लिये जहन्नुम की आग में जलना और यातनायें सहना ही है। (47.8)
  • ऐ रसूल (मुहम्मद)! मुस्लमानों को जंग के लिये तौय्यार करो। अगर तुम्हारी संख्या बीस है तो वह दो सौ काफिरों पर फतेह पाये गी और अगर ऐक सौ है तो ऐक हजार काफिरों पर फतेह पाये गी क्यों कि काफिरों को कुछ समझ नहीं होती। (8.65)

इस्लाम में काफिरों के साथ हर प्रकार के विवाहित सम्बन्ध वर्जित थे। मुहम्मद ने मृत्यु से कुछ महीने पहले अपना अंतिम फरमान स प्रकार दियाः-

मेरे बाद कोई रसूल, संदेशवाहक, और कोई नया मजहब नहीं होगा।… मैं तुम्हेरे पास खुदा की किताब (कुरान) और निजि सुन्ना (निजि जीवन चरित्र) अपनाते रहने के लिये छोड कर जा रहा हूँ। 

अतः मुहम्मद ने इस प्रकार का मजहबी आदेश और मानसिक्ता दे कर मुस्लमानो को दुनियाँ में जिहाद के जरिये इस्लाम फैलाने का फरमान दिया जो प्रत्येक मुस्लिम के लिये किसी भी गैर मुस्लिम को कत्ल करना उन के धर्मानुसार न्यायोचित मानता है। यदि कोई मुस्लिम काबा की जियारत (तीर्थयात्रा) करे तो वह ‘हाजी’ कहलाता है, लेकिन हाजी कहलाने से भी अधिक ‘पुण्य-कर्म’ हे किसी काफिर का गला काटना जिस के फलस्वरूप वह ‘गाजी’ कहला कर जन्नत में जगह पाये गा जहाँ प्रत्येक मुस्लमान के लिये 72 ‘हूरें’ (सुन्दरियाँ) उस की सभी वासनाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये हरदम तैनात रहैं गी।

सभ्यताओं का विनाश

इस मानसिक्ता और जोश के कारण इस्लाम नें लगभग आधे विश्व को तलवार के ज़ोर से फतेह कर

ऐक ऐक कर के अनेकों सभ्यतायें, जातियाँ और देश इस्लामी जिहादियों की तलवार की भैन्ट चढ गये। जिहादी वास्तव में सभ्यता से कोसों दूर केवल भेडों और ऊँटों को पालने का काम करते रहे थे। कोई भी देश उस प्रकार की तत्कालिक हिंसात्मक विनाश का सामना नहीं कर पाया जो असभ्य खूनियों ने विस्तरित संख्या में फैला दी थी। इस्लाम  के फतेह किये गये इलाकों में रक्तपात तभी रुका जब स्थानीय लोग या तो ईस्लामी धर्म में परिवर्तित हो गये या फिर कत्ल कर डाले गये। इस्लाम के जिहादियों ने स्थानीय लोगों को कत्ल तो किया ही, उन के पूजा स्थल भी ध्वस्त कर दिया और उन के धार्मिक ग्रन्थों तथा साहित्य को जला डाला, उन की परम्पराओं पर प्रतिबन्ध लगाये ताकि स्थानीय लोगों की पहचान का कोई भी चिन्ह बाकी ना रहै। बचे खुचे लोग या तो दुर्गम स्थलों पर जा कर रहने लगे, या इस्लाम में परिवर्तित हो कर मुसलमानों के गुलाम बना दिये गये। 

ऐशिया तथा योरूप के देशों ने मृत्यु के सामने साधारणत्या इस्लाम कबूल कर लिया किन्तु भारत में वातावरण वैसा नहीं था। भारत में मुहमम्द के जन्म से सदियों पहले ही सभ्यता का अंकुर फूट कर अब ऐक विशाल वृक्ष का रुप ले चुका था। हिन्दूओं ने इस्लाम को नहीं स्वीकारा और इस लिये भारत में इस्लाम का कडा विरोध निश्चित ही था। भारतवासियों के लिये वह प्रश्न गौरव के साथ जीने और गौरव के साथ ही मरने से जुडा था। भारत में भी गाँव और नगर आग से फूंक डाले गये, जनता का कत्ले आम किया गया फिर भी हिन्दू स्दैव इस्लाम की विरोध करते रहै।

चाँद शर्मा

57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

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