हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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63 – अंग्रेजों की बन्दर बाँट


अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी स्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की अपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के विपरीत भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी, जो इस्लाम की देन थी।

दासता का जाल

योरपीय व्यापारिक कम्पनियाँ सैनिक क्षमता के साथ छद्म भेष में भारत आईं थी। उन के पास उत्तम हथि्यार, तोपें, गोला बारूद तथा अनुशासित सैनिक और कर्मठ कर्मचारी थे। परस्परिक ईर्षा और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होते हुये भी इसाई धर्म नें उन को ऐक सूत्र में बाँधे रखा। अब उन के पास अपने आप को भारतियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और सभ्य कहलाने का मनोबल भी था जिस का योरुपीय आगन्तुकों ने पूरा फायदा उठाया। लोभ और भय का प्रयोग कर के उन्हों ने इसाई धर्म का प्रचार किया और स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन किये। अपने अधिकार क्षेत्रों को सुदृढ करने के पश्चात उन्हों ने मूर्ख और स्वार्थी शासकों की आपसी कलह को विस्तार देना आरम्भ किया। ऐक को दूसरे से लड़वा कर स्वयं न्यायकर्ता के रूप में ढलते गये। भूखी बिल्लियों के झगडे में मध्यस्तता करते करते बन्दर पूरी रोटी के मालिक बन बैठे। अन्ततः ब्रिटेन ने अन्य योरुपीय देशों से बाझी मार ली। भारत में इंगलैण्ड की व्यवसासिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘कम्पनी-बहादुर’ के नाम से सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बन कर भारत के मूर्ख, झगडालू, तथा ईर्षालू शासकों को पालतु कुत्तों की तरह पीठ थप-थपा कर शासन करने लगी। 

‘कम्पनी बहादुर’ ने 1857 तक भारत पर राज्य किया। उस के पश्चात सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गयी। हिन्दूओं की अपेक्षा मुस्लमान कई स्थानों पर सत्ता में बने हुये थे। इसाईयों के लिये उन का धर्म परिवर्तन करवाना कठिन था क्यों कि कट्टरपंथी मानसिक्ता के कारण धर्म परिवर्तन करने से मुस्लिम समाज परवर्तितों का बहिष्कार कर देता था। हिन्दूओं के पास ना तो सत्ता थी ना ही कट्टरपंथी मानसिक्ता। अतः वह धर्म परिवर्तन का सुगम लक्ष्य बनते रहै।

अंग्रेज़ी पिठ्ठुओं का उदय

1857 के ‘स्वतन्त्रता-संग्राम’ के युद्ध की घटनाओं को दोहराने की आवश्यक्ता नहीं जो कि जन साधारण की ओर से ‘इसाईकरण’ का विरोध था। कुछ ऐक को छोड कर अधिकतर राजाओं के ‘व्यक्तिगत कारण’ थे जिन की वजह से उन्हों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाय़ी थी। भारतीयों की आपसी फूट, तालमेल की कमी और अधिकाँश राजघरानों की देश के प्रति गद्दारी के कारण 1857 का जन आन्दोलन संगठित अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विफल हो गया। उस के पश्चात अंगेजी शासक अधिक सावधान हो गये और उन्हों ने अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये नाम मात्र ‘सुधारों’ की आड ले ली।

भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ‘सलतनते इंग्लिशिया’ (महारानी विक्टोरिया) के अधिकार में चला गया। अपने शासन को भारत में स्वीकृत करवाने के लिये अंग्रेजों ने मिथ्या प्रचार किया कि जैसे मध्य ऐशिया से भारत आये आर्यों ने ‘स्थानीय द्राविड लोगों को दास बना कर’ अपना शासन कायम किया था, उसी प्रकार अंग्रेज भी यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे हैं और उन का जीवन ‘सुधार’ रहै हैं। इस मिथ्याप्रचार की सफलता में हिन्दू धर्म ही ऐक मात्र बाधक था जिसे मिटाना अंग्रेजों के लिये जरूरी था।

मैकाले शिक्षा पद्धति 

इस्लामी शासन के समय में हिन्दूओं का पठनपाठन बिखर गया था। मुस्लिम जन साधारण को ज्ञान के अन्दर कोई दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजों ने भारतियों को अपनी सोच विचार के अनुरूप ढालने के लिये नयी शिक्षा प्रणाली लागू की जिस का मूल जनक लार्ड मैकाले था। उस शिक्षा पद्धति का मुख्य उद्देश्य हिन्दूओं में अपने प्राचीन ग्रन्थों और पूर्वजों के प्रति अविशवास जगाना था तथा अंग्रेजी सभ्यता, सोच विचार, रहन सहन के प्रति भारतियों को लुभाना था ताकि जीवन के हर क्षेत्र में वह अपने स्वाभिमान को स्वयं ही त्याग कर अंग्रेजी मानसिक दासता सहर्ष स्वीकार कर लें और उसे आगे फैलायें। उस शिक्षा प्रणाली को ‘धर्म-निर्पेक्ष वैज्ञिानिक सोच’ का नाम दे दिया गया। जो कुछ भारतीय था वह ‘रूढी-वाद’ और दकियानूसी घोषित कर दिया गया। 

काँग्रेस का छलावा

ऐक अन्य अंग्रेज ऐ ओ ह्यूम ने मैकाले पद्धति से पढे भारतियों के लिये ऐक नया अर्ध राजनैतिक संगठन इंडियन नेशनल काँग्रेस के नाम से आरम्भ किया जिस का मुख्य उद्देश्य मामूली पढे लिखे भारतियों को सलतनते इंग्लिशिया के स्थानीय सरकारी तन्त्र का ‘हिस्सा’ बना कर साधारण जन-जीवन से दूर रखना था ताकि वह अपनी राजनैतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति अंग्रेजी खिलौनों से कर के संतुष्ट रहैं। अंग्रेजों के संरक्षण में बने इस राजनैतिक संगठन से उन्हें कोई भय नहीं था और उन का अनुमान सही निकला।

‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर अंग्रेजों ने कुछ औपचारिक ‘सुधार’ भी किये थे जिन का मूल उद्देश्य उपनेष्वादी तन्त्र को मजबूत करना था। लिखित कानून लागू किये गये। स्थानीय रीति रिवाज अंग्रेजी मुनसिफों को समझाने के लिये ब्राह्मण तथा मौलवी सलाहकारों (ऐमिक्स-क्यूरी) की नियुक्ति का प्रावधान न्यायालयों में किया गया था। ब्राह्मणों के पास परिवार चलाने के लिये रीति-रिवाज करवाने की दक्षिणा के अतिरिक्त आमदनी का कोई साधन नहीं रहा था। अतः उन्हों ने अपने स्वार्थ हित में रीतिरिवाजों को अधिक जटिल तथा खर्चीला बना दिया। जन साधारण रीति रिवाजों को आडम्बर और बोझ समझ कर उन से विमुख होने लगे। परिणाम अंग्रेजों के लिये हितकर था। उन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने के और भी बहाने मिलने लगे। ग़रीब लोग हिन्दू धर्म को त्याग कर इसाई बनने लगे। इस्लामी शासन के समय चली हुई बाल विवाह, सती प्रथा, तथा कन्या हत्या (दुख्तर कशी) इत्यादि कुरीतियों को निषेध करवाने हिन्दू समाज सुधारक आगे आये परन्तु अंग्रेजी पद्धति से शिक्षशित लोगों ने उन सुधारों का श्रेय भी अंग्रेजों को ही दिया।

इतिहास से छेड-छाड

भारत का प्रचीन इतिहास तो इस्लामी आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था। पौराणिक प्रयाग का नाम अकबर ने ‘इलाहबाद’ रखवा दिया था, महाभारत का पाँचाल ‘फरुखाबाद’ बन चुका था। ऱाम की अयोध्या नगरी में राम मन्दिर के मल्बे से बाबरी मस्जिद बनवा कर उस का नाम ‘फैजाबाद’ रख दिया गया था। अधिकतर हिन्दू नगरों और पूजा स्थलों को नष्ट कर के उन्हीं के स्थान पर इस्लामी स्मारक बन चुके थे। भारतीय इतिहास का पुनर्वालोकन करने कि लिये लंका, बर्मा, तिब्बत, चीन तथा कुछ अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों से अंग्रजों ने कुछ बचे खुचे ग्रन्थों को आधार बनाया। टूटी कडियों को जोडने के लिये उन्हों ने ‘अंग्रेजी हितों के अनुरूप’ मन घडंत तथ्यों का समावेश भी किया।

वैचारिक दासता

मानसिक आधीनता के कारण हमारी वैचारिक स्वतन्त्रता नष्ट हो चुकी थी। हम ने प्रत्येक तथ्य को अंग्रेजी मापदण्डों के अनुसार परखना शुरु कर दिया था। जो कूछ योरुप वासियों को नहीं पता था या जिस तथ्य का अनुमोदन वह नहीं करते थे वह हमारे ‘देसी बुद्धिजीवियों’ को भी ‘स्वीकृत’ नहीं था चाहे वही तथ्य हमारे सम्मुख अपने स्थूल रूप में विद्यमान खडा हो। लन्दन में ब्रिटिश संग्रहालय ज्ञान का विश्ष्ट मन्दिर बन चुका था जहाँ दुनिया भर से लूटे और चुराये गये पुरात्त्वों को सजा कर रखा जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र में “ग्रेट ब्रिटैन विश्व की इकलौती महा शक्ति बन चुका था। उन्हों ने भारत में भी अपने समर्थक बुद्धिजीवियों की ऐक सशक्त टोली खडी कर ली थी जो उन की राजनैतिक सत्ता और वैचारिक प्रभुत्व को सुदृढ करने में जुट चुकी थी।  

सामाजिक, वेष-भूषा, खान-पान, आमोद-प्रमोद, शिक्षा और विचारधारा के हर क्षेत्र में इस्लामी परम्पराओं की अपेक्षा हिन्दूओं का ब्रिटिश सभ्यता से अधिक प्रभावित होना स्वाभाविक था क्योंकि वास्तव में वह हिन्दू परम्पराओं के मूल रूप का ही ‘विकृत संस्करण’ थीं। सहज में ही अंग्रेजी प्रशासनिक क्रिया पद्धति, शिक्षण-प्रणाली, तथा दैनिक काम-काज में नापतोल, कैलेँडर, समय सारिणी, खेल-कूद, कानूनी परिभाषाये, व्यापारिक रीतिरिवाजों ने स्थानीय परम्पराओं को स्थगित कर के अपनी जगह बना ली। चमक दमक के कारण अंग्रेजी पद्धतियां प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान हो गयी।

यह व्यंगात्मक है कि हिन्दूओं ने यद्यपि अंग्रेजी माध्यम से अपने ही पूर्वजों के लगाये हुये पौधों के फलों पर मोहित होना स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह योरुप की चमकीली पालिश के नीचे छुपे तथ्यों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके जो उन्हीं के अपने ही पूर्वजों के लगाये गये बीज थे। हिन्दू चिन्ह मिट चुकने के कारण अन्तिम उत्पाद पर योरोपियन मुहर लग चुकी थी जिस कारण आज अंग्रेज प्रगति और विज्ञान के जन्मदाता समझे जाते हैं।

हिन्दू गौरव का पुनरोत्थान

हालात सुधरे तो धीरे धीरे सत्यता भी उभरी। उन्नीसवी शताब्दी में कई हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन शुरु हुये  जिन के कारण अन्धेरी सुरंग के पार कुछ रौशनी दिखायी पडने लगी। भारत वासियों ने अधुनिक विश्व को पुनः देखना आरम्भ किया। बीसवीं शताब्दी में भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध तथा दिूतीय विश्व युद्ध में भाग लिया और अपने रक्त से विदेशी शासन को सींचा। उस का सकारात्मिक प्रभाव भारत के हित में था। भारतीय तब तक तत्कालिक शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों से दूर रहे थे। विश्व युद्धों के कारण भारत के जन साधारण ने योरुप तथा अन्य देशों की प्रगति को जब अपनी आँखों से देखा तो उन के अन्दर भी अपने देश को आगे बढाने की भावना पुनः जागृत हुई। उन्हों ने दूसरे देशों के नागरिकों को स्वतन्त्र राष्ट्र के रुप में देखा तो उन की स्वतन्त्र रहने की भावना ने चिंगारी का रूप लिया जिस के फलस्वरूप ही लोगों में स्वतन्त्रता के लिये चेतना की भावना उमड कर तीव्र होती गयी। 

स्वतन्त्रता की चिंगारी

भारतवासियों में सब से पहले ऐ ओ ह्यूम की बनाई काँग्रेस में ही देश की प्रशास्निक व्यवस्था में अधिकार पाने की आकाँक्षा ने जन्म लिया। किन्तु मैकाले पद्धति से प्रशिक्षित उन भारतियों की मांग केवल स्थानीय प्रशासन तक ही सीमित थी जिसे अंग्रेजी सरकार ने कुछ उल्ट फैर के साथ मान लिया। धीरे धीरे काँग्रेस में लोकमान्य तिलक जैसे स्वाभिमानी राष्ट्रवादी नेता भी जुडने लगे और उन्हों ने स्वतन्त्रता को अपना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ जता कर ब्रिटिश सरकार की नीन्द उडा दी। परिणामस्वरूप उन्हें ‘विद्रोही’ बना कर अभियोग चलाये गये और कालेपानी की घोर यातनायें दी गयीं। स्वतन्त्रता की मांग को लेकर चिंगारी तो भडक उठी थी जिस ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जब हिंसक घटनायें होने लगीं तो अंग्रेजों को बातचीत में फुसलाये रखने के लिये अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों की जरूरत आन पडी।

विश्व युद्धों पश्चात पूरे विश्व में उपनेषवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग किसी ना किसी रूप में उठने लग गयी थी। युद्धों में नष्ट हुये साधनो के कारण ब्रिटिश सरकार के लिये उपनेषवादी सरकारों को चलाये रखना कठिन होता जा रहा था। भारत में एक ओर तो उन्हों ने उग्र स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रताडित किया तो दूसरी ओर अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों के साथ बात चीत का ढोंग किया और कुछ गिने चुने गाँधी, नेहरू और जिन्नाह जैसे नेताओं को हिन्दू मुस्लमानो का प्रतिनिधि बना कर भारत का बटवारा करने की योजना बनाई ताकि किसी ना किसी तरह से विक्षिप्त भारत को अपने प्रभाव में रख कर भविष्य में भी परोक्ष रूप से उपनेषवादी लाभ उठाये जा सकें।  

भारत का बटवारा

15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत को हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया और सत्ता ‘ब्रिटिश मान्य’ हिन्दू मुस्लिम प्रतिनिधियों को सौंप दी। मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी जिस के फलस्वरूप भारत के ऐक तिहाई भाग को भारत वासियों से छीन लिया और उन्हें उन के शताब्दियों पुराने रहवासों से खदेड भी दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की ‘इण्डियन नेशनेलिटी रहने के बावजूद वह पाकिस्तान से स्दैव के लिये खदेड दिये गये।

उल्लेखनीय है कि बटवारे से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ नहीं रहना चाहते थे इसलिये पाकिस्तान की मांग के पक्ष में 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान तो किया लेकिन जब घर बार छोडकर अपने मनचाहे देश में जाने का वक्त आया तो सिर्फ 15 प्रतिशत  मुसलमान ही पाकिस्तान गये थे। 85 प्रतिशत मुस्लमानों ने पाकिस्तान मिलने के बाद भी हिन्दुस्तान में आराम से बैठे रहै थे। विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में सदियों से रहते चले आ रहे हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया। वहां लाखों हिन्दुस्तानियों को केवल हिन्दु-सिख होने के कारण अपना घर-सामान सब छोड. कर पाकिस्तान से निकल कर भारत आना पडा परन्तु भारत में पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कर के भी मुसलमान अपने घरों में सुरक्षित बने रहे।

चाँद शर्मा

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

32 – विज्ञान-आस्था का मिश्रण


जो बात समझ में ना आये उसे अंग्रेजी भाषा में मिथ कहा जाता है। स्नातन धर्म के वैदिक गूढ ज्ञान तथा उसी ज्ञान का कलात्मिक चित्रण जब पाश्चात्य विचारकों की समझ में नहीं आया तो उन्हों ने उसे ‘मिथ या ‘माईथोलोजी कह कर अपना पल्ला झाड लिया। उन्हीं के प्रभाव तले प्रशिक्षित कुछ बन्दरछापी भारतीयों नें भी स्नातन धर्म को ‘माईथोलोजीकह कर भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को विश्वविद्यालयों के क्षेत्र से निष्कासित कर दिया। कमी ज्ञान में नहीं थी – परन्तु उन की गुलामी भरी सोच और समझ में थी।

हिन्दू धर्म का अध्यात्मवाद पूर्णत्या आस्थाओं और विज्ञान का मिश्रण है। उदाहरण के लिये श्रीमद भाग्वद गीता के इस कथन की वैज्ञानिक्ता परख लीजिये –

‘जैसे घडे के फूट जाने के बाद घडे की मिट्टी पुनः मिट्टी में मिल जाती है, समुद्र में उठी लहरों का जल पुनः समुद्र में समा जाता है, स्वर्ण आभूषणों को गलाने के बाद स्वर्ण पुनः अपने मौलिक रूप में परिवर्तित हो जाता है – उसी प्रकार शरीर में बन्धी आत्मा शरीर छोड देने के पश्चात पुनः परमात्मा में विलीन हो जाती है। अन्ततः सृष्टी में सभी अपने अपने मौलिक स्वरुप में जा मिलते हैं’।

गीता के इस अध्यात्मवाद में छुपी भौतिक विज्ञान की सत्यता को क्या कोई वैज्ञानिक नकार सकता है?

पूर्णत्या वैज्ञानिक मानवीय आस्थायें

विश्व में इसाई तथा इस्लाम दो अन्य मुख्य धर्म हैं। इन दोनों धर्मों के जनकों के कर्म क्षेत्रों की भूमि मध्य ऐशिया में थी। दोनो धर्म स्नातन धर्म से कई शताब्दियों पश्चात आये। उन का आपसी अन्तर काल लगभग सात सौ वर्षों का है। उन दोनों धर्मों की अधिकाँश आस्थायें स्नातन धर्म और पुराणों में थोडा बहुत फेर बदल कर के विकसित हुयी हैँ, किन्तु दोनों धर्म भूगौलिक क्षेत्र तथा समय की सीमा में बन्धे हुये हैं।

उन की तुलना में स्नातन धर्म की विशेषता है कि उस के देवी देवता, पूर्वज किसी विशेष भूगौलिक क्षेत्र में सीमित नहीं रहै बल्कि उन्हों ने समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पद चिन्ह छोडे हैं। धार्मिक आस्थायें समय और स्थान की सीमा से आज़ाद हैं। स्नातन धर्म के देवी देवता जहां चाहें प्रगट हो सकते हैं और जब चाहे अन्तर्ध्यान हो सकते हैं। इतना ही नहीं, स्नातन धर्म ने आस्थाओं और मानस चित्रण के साथ वैज्ञानिक तथ्यों को भी कलात्मिक ढंग से जोड़ा है। उसी चित्रण को हम अपना अध्यात्मिक साहित्य मानते हैं जिसे पौराणिक साहित्य या पाश्चात्य विचारकों की भाषा में ‘माईथोलोजी’कहा जाता है।

ज्ञान का आँकलन 

स्नातन धर्म की विचारधारा हर प्रकार के वैचारिक आँकलन के लिये खुली पुस्तक की तरह है। आस्थाओं की नींव रखने के लिये भी प्रमाणिता के धरातल की आवशक्ता होती है। जब तर्क के बाद तर्क ऐक ही निर्णय का आभास प्रगट कते हैं तभी आस्था जन्म लेती है। गर्व की बात है कि हिन्दू धर्म की आस्थाओं को चुनौती कभी भी दी जा सकती है और उन की शाशवता को कोई खतरा नहीं है। इसी लिये वैज्ञिानिक तथ्यों के साथ हिन्दू आस्थाओं पर पुनर्विचार और आँकलन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। स्नातन धर्म में आस्थाओं को चुनौती देने वालों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता। 

हिन्दू धर्म के अनुयायी स्दैव धार्मिक विषयों को औपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलत करने का अनुगृह करते रहे हैं क्यों कि उन्हें पूर्ण विशवास है कि यदि हिन्दू आस्थाओं को विज्ञान और आधुनिक उपक्रमों के साथ तर्क की कसौटी पर परखा जाये गा तो तथ्य आस्थाओं के पक्ष में प्रमाणित हो जायें गे और भ्रामिकता मिट जाये गी। हिन्दू धर्म को दोनों परिस्थितियाँ स्वीकार है । यही हिन्दू धर्म की प्रबल शक्ति है। हिन्दू धर्म की आस्थायें तथा मान्यतायें इतनी सुदृढ हैं कि उन्हें आलोचना का कोई भय नहीं है। 

हिन्दू धर्म को धर्मान्धता या नास्तिकता से भी कोई खतरा नहीं है। धार्मिक आस्थाओं को खुले आम नकारने वाले को भी ना केवल बोलने दिया जाता है और सुना जाता है, बल्कि उसे अपनी नकारात्मिक अनास्तिक्ता का प्रचार भी करने दिया जाता है। यह सिद्ध करता है कि हिन्दू धर्म में विज्ञान तथा आस्थायें ऐक दूसरे के विपरीत ना हो कर ऐक दूसरे की पूरक हैं।

सृष्टि सर्जन

स्नातन मत के माध्यम से वैज्ञायानिक विचारों का उदय ऋगवेद से प्रारम्भ हुआ। वेदों के विचार से सृष्टि की रचना से पूर्व कुछ नहीं था। यह अवस्था उस रेखा को उजागर करती है जो शून्य तथा गुण-सम्पन्न भौतिक्ता के मध्य में रहती है। इसी समय को पाश्चात्य विचारकों की ‘बिग-बैंग थ्यिोरी के साथ जोडा है। यह विचार उस सत्य की ओर ईशारा करता है जो पूर्णतया वैज्ञायानक विचार है ना कि अन्ध-विशवास। जिस ‘बोसोनो अणु या ‘गाड-पार्टिकल के बारें में विश्व के वैज्ञानिक आज खोज में जुटे हैं उसी परिस्थिति का बखान भारतीय ग्रंथ हजारों वर्षों से करते चले आ रहै हैं। यहाँ पर केवल दो ही तथ्यों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। 

मनु स्मृति के प्रथम अध्याय में ही सृष्टि की रचना, पृथ्वी पर जीवों के जन्म तथा उन की प्रकृति के बारे में विस्तरित जानकारी इस प्रकार उप्लब्द्ध हैः-

       आसीदितं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।

       अप्रतक्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।।

       ततः स्वयंभूभर्गवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्।

       महाभूतादि वृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः।। (मनु स्मृति 1 – 5-6)

अर्थात – पहले यह संसार तम (अन्धकार) प्रकृति से घिरा था, जिस से कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। अनुमान करने योग्य कोई रूप नहीं था जिस से तर्क दूारा लक्षण स्थिर कर सके। सभी ओर अज्ञान और शून्य की अवस्था थी। इस के बाद प्रलयावस्था के नाश करने वाले लक्षण सृष्टि के सामर्थ्य से युक्त, स्वयंभु भगवान महाभूतादि (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) पंच तत्वों का प्रकाश करते हुए प्रकट हुए। (यहाँ यह स्पष्टीकरण भी जरूरी है कि ‘तम’ का अपना कोई अस्तीत्व नहीं होता। ‘रौशनी का अभाव’ ही तम की अवस्था है।)

पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु का प्रगट होना आधुनिक भौतिक विज्ञान का जन्म है क्यों कि उन्हीं महाभूतों के मिश्रण से ही सृष्टी के अन्य पदार्थ विकसित हुये या मानव दूारा विकसित किये गये हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार प्रथम जीवन जल और गर्मी से उत्पन्न हुआ। जल सूर्याग्नि की तपश और वायु के कारण आकाश में उडता है तथा फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर आता है जिस से पैड-पौधे जन्म लेते हैं, जीव उत्पन्न होते हैं और पश्चात मानव का जन्म होता है। यही आस्थायें मानवी विज्ञान का आधार हैं जिन्हें सरलता के साथ समझाने के लिये हम देवी देवता का रूप में चित्रण भी कर सकते हैं और उन्हीं तथ्यों को आधार बना कर रौचक कथायें भी लिख सकते हैं। समस्त वेदों, उपनिष्दों, पुराणों में मनुस्मृति की तरह ही सृष्टि की उत्पत्ति का बखान किया गया है और कहीं भी विरोधाभास नहीं है।

जीव-विज्ञान

हमारे पूर्वजों को सभी प्रकार के जीवों से ले कर मानव के जन्म तक का पूर्ण ज्ञान था। बृहत विष्णु पुराण के अनुसार सब से पहले जल में सृष्टि हुई फिर वानर जो कि मानवों के अग्रज हैं। यही विचारधारा कालान्तर डारविन नें अपने नाम से पंजीकृत करवा कर ‘एवोलुशन थियोरी के नाम से प्रचारित कर ली। आदिकाल से पशु-पक्षी अपने जैसे जीवों को ही उत्पन्न करते चले आ रहै हैं। पशु पक्षियों ने अपनी संतानों को परिशिक्षण देने के लिये कोई विद्यालय नहीं बनाये। फिर भी उन के नवजात अपनी जाति के रहन-सहन को अपने आप ही सीख जाते हैं। डिस्कवरी तथा नेशनल ज्योग्राफिक टी वी चैनलों पर इन सभी तथ्यों को अब प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। प्राणी-विज्ञान के इसी तथ्य को डारविन से सैंकडों वर्ष पूर्व मनुसमृति में इस प्रकार उजागर किया गया थाः-  

       यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुड्क्त प्रथमं प्रभुः।

       स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः ।। (मनु स्मृति1- 28)

       अर्थात- पहले ब्रह्मा ने जिस जीव को जिस कार्य में नियुक्त किया, वह बारम्बार उत्पन्न हो कर भी अपने पूर्व-कर्म को करने लगा।

विष्णु के दस अवतार भी सृष्ठि सर्जन की कहानी को कलात्मिक ढंग से उजागर करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से ही समस्त जीवों में आत्मा बार बार उसी परमात्मा की ही पुनर्वृति करती है। इसी विचार को छन्दोग्य उपनिष्द ने भी व्यक्त किया है। पौराणिक कथाओं तथा लोक कथाओं में पशु-पक्षियों और पैड-पौधों का मानवी भाषा में बात करना इस वैज्ञानिक तथ्य को प्रमाणित करता है कि ना केवल पशु-पक्षियों में बल्कि पैड-पौधों में भी जीवन के साथ साथ संवेदनायें भी विद्यमान है। इसी तथ्य की पुनर्वृति करने के लिये विश्व के आधुनिक वैज्ञिानिकों और तर्क शास्त्रियों ने सर जगदीशचन्द्र बोस को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया था। 

कर्म विधान

श्रीमद्भागवद गीता मेंकर्म विधान की व्याख्या की गयी है। मानव कर्म करता है तो प्रतिक्रिया ईश्वर करता है। जो बोया जाये गा वही काटा जाये गा का विधान सर्व-सम्मत है। 

कर्म विधान में फल के अनुसार चार प्रकार के कर्म हैं-

  • निष्काम-कर्म – जो कर्म निजि मोक्ष प्राप्ति के लिये करे जाते है। इन से अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति पूर्णत्या संतुष्टि मिलती है जैसे मानव सेवा तथा ज्ञान का वितरण आदि।
  • पुण्य-कर्म – जव क्रम तथा उस को करने का उद्देष्य पवित्र हों तो उन्हें पुण्य-कर्म कहा जाता है जैसे किसी की जान बचाना।
  • पाप-कर्म – जिस कर्म का उद्देष्य तथा कर्म दोनो ही किसी का अनिष्ट करने के लिये किये जायें वह पाप-कर्म होते हैं।
  • मिश्रित-कर्म – जब कर्म तो अच्छा हो किन्तु उस के पीछे उद्देष्य अच्छा ना हो या उद्देष्य तो अच्छा हो परन्तु कर्म अच्छा ना हो।जैसे कोई अच्छी फसल पाने के लिये अन्य जीवों का नाश कर देना।

कर्मों का ही ऐक अन्य वर्गीकरण इस प्रकार हैः-

  • क्रियामान-कर्म – जो कर्म वर्तमान में किये जाते हैं तथा उन कर्मों से अन्य कर्म उत्पन्न होते हैं।
  • संचित-कर्म – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परन्तु उन का फल अभी आना बाकी है।
  • प्रारब्ध – जो कर्म भूत काल में किये गये थे परिपक्व होने के पश्चात उन के फल वर्तमान में प्रगट हो रहे हों उन्हें प्रारब्ध अथवा भाग्य कहा जाता है। हमारा जन्म मरण सभी कुछ प्रारब्ध का परिणाम है।

यह प्रारब्ध का परिणाम है कि कोई राजा के महल में पैदा हो जाता है तो कोई निर्धन की कुटिया में जन्म लेता है। कुछ पूर्ण्त्या स्वस्थ, सुन्दर, गोरे, काले, लम्बे, छोटे पैदा होते हैं तो कुछ कमज़ोर, बीमार, विकृत पैदा होते हैं। मानव स्वयं अपनी प्रारब्ध का निर्माण करता है। जो हम इस जन्म में कर रहे होते हैं परिपक्व हो कर वही हमें अगले जन्म में प्राप्त हो गा। कर्म ही सृष्टि का मूल कारण है। मानव पर केवल उस के निजि कर्मों का ही असर नहीं पडता अपितु वह दूसरों के, अपने सम्वन्धियों, तथा जाति वालों के संयुक्त कर्मों से भी प्रभावित होता है। वैचारिक वैज्ञानिक्ता इस के विपरीत नहीं हो सकती।

कारण तथा प्रभाव का रहस्य  

आस्था है कि पुण्य कर्मों से पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसी बात को वैज्ञानिक आधार से समझने के लिये यदि कोई कडवी या तीखी मिर्च युक्त वस्तु खाये गा तो स्वाद भी कडुआ या जलाने वाला हो जायेगा। इस के उपरान्त वही व्यक्ति यदि कुछ मीठा खा लेगा तो भले ही प्रथम कर्म का प्रभाव पूर्णत्या नष्ट नहीं होगा किन्तु वर्तमान स्वाद कुछ सुखमय अवश्य हो जाये गा। कडुवे और मीठे कर्मों के परस्पर अनुपात के आधार पर ही व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःख निर्भर करते हैं। 

कर्म के प्रभाव की व्याख्या को आज विश्व के वैज्ञिानिक तथा दार्शनिक भीकारण तथा प्रभाव(ऐक्शन ऐण्ड रीऐकशन थियोरी)के नाम सेप्रमाणित मानते हैं। कर्म का अर्थ क्रिया से है। प्रमाणित तथ्य है कि प्रत्येक क्रिया के समान उस की प्रतिक्रिया भी होती है। जो कोई भी कर्म करता है ईश्वर उस का फल कर्म करने वाले को अवश्य देता है।

हिन्दू धर्म की आस्थाये तथा विचारधारायें बारबार प्रमाणित होकर हिन्दू साहित्य के माध्यम मे हमें प्राप्त हुयी हैं। इस लिये स्नातन धर्म यथार्थ में ज्ञान और आस्था का मिश्रण है।

चाँद शर्मा

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

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