हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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23 – वर्ण व्यवस्था का औचित्य


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, यह चारों वर्ण हिन्दू समाज के चार स्तम्भ हैं जिन पर समाज की आधार शिला टिकी हुयी है। सभी वर्णों के कार्य़ क्षेत्र का भी महत्व बराबर है। सभी का लक्ष्य पूरे समाज का कल्याण सेवा और परस्पर निर्भरता है। जो अशिक्षित हो, संस्कार हीन हो, और पाँच यम तथा पाँच नियम का पालन नहीं करते हों उन्हें ही शूद्र की श्रेणी में रखा गया है। सभी शूद्र अपने पुरुषार्थ से ज्ञान प्राप्त कर के ही, अपने कर्मों से उच्चतर वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं।

कालान्तर व्यवसाईक आधार पर बने सामाजिक वर्गीकरण में वैचारिक तथा आर्थिक वर्गीकरण भी समा गया है जिस का कुछ असर रीति रिवाजों पर भी पडा है और समाज में परिवारिक सम्बन्ध वर्णों तथा जातियों में सीमित हो गये हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी भारत के साथ साथ अन्य देशों में भी हुयी है लेकिन इस के अपवाद भी प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं।

कर्मानुसार जीवन शैली 

आधुनिक प्रशासनिक विशेज्ञ्य जिन तथ्यों को कार्य पद्धति तथा कार्य संस्कृति में शामिल करते हैं उन्हें जाब डिस्क्रिपशन तथा जाब स्पेसिफिकेशन कहा जाता है। यही तथ्य हिन्दू वर्ण व्यवस्था में पहले से ही संकलित थे। हिन्दू समाज ने प्रत्येक वर्ण के लिये कार्य शैली तथा जीवन पद्धति केवल कार्यशाला तक ही सीमित नहीं रखी थी अपितु उसे जीवन पर्यन्त अपनाने की सलाह दी है। ब्राह्मणों के लिये जीवन पर्यन्त यम-नियम पालन के साथ साधारण और सात्विक जीवन शैली निर्धारित की गयी है। जहाँ उन के लिये माँस मदिरा रहित सात्विक भोजन सुझाया गया है वहीं क्षत्रियों और वैश्यों के लिये राजसिक भोजन के साथ राग रंग के सभी प्रावधान भी नियोजित किये हैं। शूद्र वर्ग के लिये तामसिक भोजन को पर्याप्त माना है क्यों कि इस वर्ण को परिश्रम करने के लिये अतिरिक्त ऊर्जा चाहिये। स्वास्थ के प्रति जागरूक सभी आधुनिक समुदायों में भी लोग इसी प्रकार के भोजन और जीवन प्रणाली को अपनाने की सलाह देते हैं। आधुनिक प्रशासनिक सोच विचार और प्राचीन भारतीय सामाजिक गठन जीवन शैली में कोई फर्क नहीं। विश्व में सभी जगह बुद्धिजीवी सात्विक जीवन शैली अपनाते हैं, प्रशासनिक अधिकारी वर्ग और व्यापारी वर्ग राजसिक शैली तथा श्रमिक वर्ग तामसिक जीवन बिताते हैं।  

श्रम का सम्मान

हिन्दू समाज ने प्रत्येक प्रकार की सामाजिक सेवा को .यत्थोचित सम्मान दिया है जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण वानर रूपी हनुमान जी को देवतुल्य पद की प्राप्ति है। सभी कार्यों में सेवक धर्म को उच्च मानते हुये हनुमान जी को सेवक धर्म का प्रतीक माना गया है तथा उन्हें पँचदेवों में उन्हें प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था में शरीरिक श्रम को पूर्णत्या सम्मानित किया गया है।

क्षमतानुसार श्रम विभाजन

बनजारा जीवन पद्धति में सभी बराबर थे, परन्तु सभी सभ्य समाजों में शिक्षा, समृद्धि तथा व्यवसाय के आधार पर आज भी सामाजिक वर्गीकरण है। लार्डस् और कामनर्स इंगलैण्ड में भी हैं। अमेरिका में श्वेत और ‘ब्लैक्स’ हैं, आका और गुलाम इस्लाम में चले आ रहे हैं, किन्तु श्रम विभाजन पर आधारित भारतीय समाज रंग या नस्ल भेद पर आधारित विश्व के अन्य समाजों से बेहतर है। मल्टी नेशनल कम्पनियों में भी प्रशासनिक सुविधा के लिये श्रमिकों को पृथक पृथक विभागों, ग्रेडों तथा श्रेणियों में बाँटा जाता है।

वर्ण व्यवस्था में कर्तव्य विभाजन किसी वर्ण के अन्तर्गत जन्म लेने के आधार पर नहीं था। प्राचीन काल के समाज में जितने भी काम किये जाते थे, उन से सम्बन्धित कर्तव्यों का बटवारा मनु महाराज ने वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्यों की मनोदशा तथा रुचि के अनुसार किया था। विश्व में कोई भी देश, जाति, या समाज ऐसा नहीं है जिस में सामाजिक वर्गीकरण और असामानतायें ना हों। यहाँ तक कि वह सोशोलिस्ट ’ देश, जो अपने देश की व्यवस्था को पूर्णत्या जाति हीन रख कर सभी के लिये बराबरी का दावा करते हैं वहाँ भी कुछ लोग दूसरों से अधिक प्रभावशाली होते हैं।

व्यवसायिक वातावर्ण

सामान्य स्थितियों के लिये परिवारिक अथवा पैत्रिक व्यवसाय का चुनाव यथार्थपूर्ण एवमं उचित है क्योंकि पैत्रिक व्यवसाय के गुणों का प्रभाव बालक में होना स्वाभाविक है। परम्परानुसार सभी देशों में संतान अपने माता पिता की सम्पति के साथ अपना पैत्रिक व्यवसाय भी अपनाती आयी है। इंगलैण्ड में और कई देशों में आज भी राजा का पद राज परिवार के ज्येष्ट पुत्र को ही प्रदान किया जाता है। ऐसा करने का मुख्य कारण यह है कि होश सम्भालने के साथ ही बालक अपने पैत्रिक व्यवसाय के वातावरण से परिचित होना शुरु कर देता है और व्यस्क होने पर उसे ही अपने माता पिता की विरासत समझ कर सहज में अपना लेता है। परिवारिक वातावर्ण का प्रभाव दक्षता प्राप्त करने में भी सहायक होंता हैं।

बाल्यकाल से किसी भी बालक की रुचि जान लेना कठिन है। इसलिये परिवारिक व्यवसाय को ही अस्थायी तौर पर चुनने का रिवाज चला आ रहा है। जो बालक परिवारिक गुण, वातावरण तथा व्यवसाय चुन लेते हैं उन्हे उस व्यवसाय से जुड़े उपकरण, अनुभव तथा व्यावसायिक सम्बन्ध सहजता में ही प्राप्त हो जाते हैं जो निजि तथा व्यवसाय की सफलता के मार्ग खोल देने में सहायक होते हैं। किन्तु जन्मजात व्यवसाय के विरुध अन्य व्यवसाय क्षमता और रुचि के आधार पर प्राप्त करने में किसी विरोध का कोई औचित्य नहीं। 

जन्म-जात का अपवाद

हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं – अपनी जन्म जाति से नहीं। इस में कोई शक नहीं कि पैत्रिक व्वसाय के बदले दूसरा व्यवसाय अपनाने के लिये उन्हें कड़ा परिश्रम भी करना पडा था।

केवल किसी वर्ण में जन्म पाने से कोई भी छोटा या बड़ा नहीं बन जाता। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति मे उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राह्णण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे ऐक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राह्णणों का वध करना भी उचित था।

      आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणानां च संगरे।

             स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ चघ्नन्धर्मण न दुष्यति।।

      गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

             आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। (मनु स्मृति 8- 349-350)

(जब स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। ऐसे समय धर्मतः हिंसा करने में दोष नहीं है। गुरु, ब्राह्मण, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी हो कर मारने के लिये आये तो उसे बे-खटके मार डाले।)

उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध

वैज्ञानिक जन्म-जात (जैनेटिक) असमानताओं पर विचार करें तो सभी मानव ऐक समान नहीं होते। साधारणत्या जो फल जिस पेड पर लगता है वह उसी के नाम से पहचाना जाता है उस के गुण बाद में दिखते हैं। जैसे कहने मात्र के लिये कबूतर और बाज ‘पक्षियों’ की श्रेणी में आते हैं, शेर और बैल दोनो चौपाये हैं। लेकिन कबूतर के अण्डों से बाज नहीं पैदा होते। इसी तरह यदि शेर के शावकों को बचपन से ही गाय का दूध पिला कर घरेलू पशूओं के साथ ही पाला जाय तो भी बडे होने पर उन्हें हल या में बैलगाडी में नहीं जोता जा सकता।

प्रकृति ने ही मानव मस्तिष्क में असमान्तायें बनायी हैं। ऐक ही माता पिता की सन्ताने बुद्धि, विचारों तथा रुचि में ऐक दूसरे से भिन्न होती हैं। मनुष्य की बुद्धि का विकास जन्म तथा पालन पोषण के वातावरण पर निर्भर करता है। उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिये उत्तम बुद्धि की आवश्यक्ता पड़ती है। उच्च शिक्षा के साधन सीमित तथा महंगे होने के कारण उन को ऐसे विद्यार्थियों पर बर्बाद नहीं किया जा सकता जिन में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की तथा कड़ी मेहनत करने की कमी हो।  उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लगते रहे हैं और आज भी लगते है। उच्च शिक्षा की योग्यता परखने के लिये विद्यार्थियों को रुचि परीक्षा (एप्टीच्यूट टैस्ट) में उत्तीर्ण होना पड़ता है। जो इस परीक्षा में निर्धारित स्तर तक के अंक प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाता।

समाज हित में प्रतिबन्ध

ज्ञान की शक्ति दुधारी तलवार की तरह होती है। उस का प्रयोग सृजन तथा विनाश दोनो के लिये किया जा सकता है। जैसे जिस व्यक्ति के संस्कार होंगे वैसे ही वह ज्ञान को प्रयोग में लाये गा। जो लोग कमप्यूटर-वायरस बनाते हैं वह भी कमप्यूटर विशेज्ञ होते हैं। जो रक्त तथा किडनी चुरा कर बेचते हैं वह भी डाक्टर होते हैं। वह अपने बुरे संस्कारों के कारण ऐसे घृणित काम करते हैं।  महाभारत में ज्ञान के दुर्प्योग का ऐक उदाहरण है। जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या से ऐक कुत्ते का मुहँ बन्द करते देखा तो उन्हों नें एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में माँग कर उस की धनुर्विद्या को निष्क्रिय करवा कर क्रूरता का अपयश अपने सिर ले लिया था। और भी कई उल्लेख मिलते हैं जब उच्च ज्ञान का दुर्प्योग होने की सम्भावना का विचार कर के ऋषि अपने ही शिष्य के ज्ञान को शाप दे कर सीमित अथवा निष्क्रिय कर देते थे। 

आज अमेरिका और संयुक्त राष्ट्रपरिष्द भी गुरु द्रोणाचार्य की नीति अपनाते हैं। य़दि अमेरिका अथवा विकसित योरूपीय देश प्रमाणु शक्ति का परीक्षण करता है तो उस में उन्हें कोई आपत्ति नहीं दिखती, परन्तु यदि कोई अविकसित देश प्रमाणु परीक्षण करे तो उन्हें वह आपत्तिजनक लगता है क्योंकि अविकसित होने के कारण वह देश शक्ति का दुर्प्योग करें गा।

सार्वजनिक स्वास्थ हित में प्रतिबन्ध

 
समाज में कई कार्यक्षेत्र ऐसे भी होते हैं जहाँ का वातावरण दुष्कर और दुर्गन्ध पूर्ण होता है। अतः सार्वजनिक स्वास्थ हित में यह आवश्यक है कि संक्रामिक वातावर्ण में काम करने वाले लोगों को सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत रखा जाये। जैसे आप्रेशन थियेटर तथा इसी प्रकार के अन्य स्थल सभी लोगों के लिये वर्जित होते हैं उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति जो प्रदूष्णयुक्त स्थलों से जुडे रहते हैं उन को रसोईयों, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजिक सुविधाओं से निष्कासित रखने का प्रावधान है। यह हिन्दू समाज के स्वास्थ के प्रति जागरुकता का प्रमाण है तथा आज भी ज़रूरी है। आधुनिक देशों तथा समुदायों मे भी प्रदूष्णयुक्त व्यक्तियों के साथ स्मपर्क पर पाबन्दी लगी रहती है।

हिन्दू समाज के विघटन की राजनीति  

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यकाल में कुछ लोगों ने छुआछूत की प्रथा को अनुचित ढंग से बढ़ावा भी दिया और हिन्दू समाज को बाँटने की दिशा में विकृत योगदान दिया जिस के कारण हिन्दू समाज को बदनामी और इसाईयों तथा मुसलमानों को दुष्प्रचार कर के धर्मान्तरण करने के का बहाना भी मिला। कुछ अयोग्य राजनेताओं को अपने लिये वोट बैंक भी प्राप्त हुये हैं जिन के सहारे वह अपने लिये उच्च पदवियाँ तलाशते रहते हैं। सत्यता यह है कि शूद्र हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं और सामाजिक आधारशिला का चौथा पाया। उन के प्रति छुआ छूत की प्रथा केवल प्रदूष्ण निग्रह के निमित थी जो आधुनिक उपकरणों के आजाने से अब अप्रासंगिक हो चुकी है।

प्राचीन काल में शूद्रों, वैश्यों तथा क्षत्रियों ने अपनी अपनी उन्नति कर के अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारा तथा ऐक से दूसरे वर्ण में प्रवेश किया। कालान्तर वर्ण व्यवस्था जन्मजात बनती गयी। जिस प्रकार एक बालक व्यस्क होने पर पिता की सम्पत्ति गृहण करता है उसी प्रकार उसे वर्ण संज्ञा भी विरासत में ही मिलने लगी थी। इस से बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि भारत की प्रजा तन्त्र और धर्म निर्पेक्ष शासन व्यवस्था में प्रधान मन्त्री पद के दावेदार आज भी केवल ऐक ही राजनैतिक परिवार से आते हैं और समाज जागरण छोड समाचार पत्र उन के प्रसार में जुट जाते हैं। आज कल कोई नेता पिछडे वर्ण के लोगों को परिश्रम कर के आगे बढने के लिये प्रेरित नहीं करता केवल आरक्षण की मांग ही करता है ताकि वह स्दैव पिछडे ही रहैं।

यह दुर्भाग्य है कि आजकल भी यही सिद्धान्त सरकारी नियमों में अपनाया जा रहा है। आज भी जाति का प्रमाण पत्र जन्म के आधार पर ही दिया जाता है कर्म के आधार पर नहीं। जैसे विद्यालय और महाविद्यालय योग्यता के आधार पर प्रमाण पत्र देते हैं उसी प्रकार सरकारी विभाग जन्म के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र दे देते हैं – यथार्थ की ओर कोई नहीं देखता। यह विडम्बना है कि आज के हिन्दू ज्ञानी बनने के बजाय अज्ञानता और पिछड़ेपन का प्रमाण पत्र पाने की होड़ में लगे हुये है। आज जरूरत इस बात की है आरक्षण का लालच दे कर कुछ वर्गों को स्दैव के लिये पिछडा बना कर रखने के बजाय उन को परिश्रम तथा ज्ञान के माध्यम से समाज में उन्नत किया जाये।

 

चाँद शर्मा

 

16. मानव इतिहास – पुराण


पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख करी गयी हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः  पुराण समर्पित किये गये हैं।  इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-

  1. ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय  तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  2. पद्म पुराण – पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।
  3. विष्णु पुराण – विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
  4. शिव पुराण शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।
  5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।
  6. नारद पुराण – नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।
  7. मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
  8. अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
  9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण,  भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।
  10. ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
  11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
  12. वराह पुराण –  वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
  13. सकन्द पुराण – सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
  14. वामन पुराण – वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
  15. कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
  16. मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
  17. गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके। 
  18. ब्रह्माण्ड पुराण – ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

9 -विष्णु के दस अवतार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)

हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते  रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –

  1. मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी।  तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
  2. कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
  3. वराह अवतार भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
  4. नर-सिहं अवतार भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित  हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
  5. वामन अवतार वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी।  राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
  6. परशुराम अवतार परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक  प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
  7. राम अवतार – परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
  8. कृष्ण अवतार कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
  9. बुद्ध अवतार विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
  10. कलकी अवतार विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।

 अवतार-वाद

 हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।

हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने  अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।

  • सृष्टि की जन्म प्रक्रिया – एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
  • मानव जीवन के विभन्न पड़ाव – एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
  • राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त – कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
  • भूगोलिक घटनायें – एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।

मानना, ना मानना – निजि निर्णय

अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।

कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। 

चाँद शर्मा

 

7 – प्राकृति का व्यक्तिकरण


स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपनी अनुभूतियों से प्राकृति की शक्तियों को पहचान कर साधारण मानवों के बोध के लिये उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दी है। शक्तियों के परस्पर प्रभाव तथा क्षमताओं को समझाने के लिये देवी देवताओं की कथाओं के साथ साथ उन के चित्र भी बनाये गये जो लोक प्रिय हो गये। उस समय ज्ञान लिखित नहीं था – केवल सुन कर ही श्रुति के आधार पर ही याद रखा जाता था। श्रुति से स्मृति ही ज्ञान का प्रवाह था। कालान्तर जन साधारण मे स्मर्ण रखने के लिये देवी – देवताओं के चिन्हों तथा बुतों के पूजन की स्थानीय विधियां भी प्रचिलित हो गयीं। गुण दोषों का व्यक्तिकरण कर के उन पर साहित्य का सृजन होने लगा। गुण-वाचक संज्ञाओं को सांकेतिक ढंग से वर्णित तथा चित्रित कर दिया गया।

हवा तो अदृष्य होती है किन्तु यदि तेज़ हवा को सांकेतिक ढंग से दिखाना हो तो झूलते हुये पेड़, हल्के पदार्थों का हवा में उड़ना तथा  धूल से आकाश का ढक जाना चित्रित कर दिया जाता है। इसी प्रकार से महा मानवों, राक्षसों तथा देवी देवताओं का भी सांकेतिक चित्रण किया गया। उन की शक्तियां दर्शाने के लिये उन के चार या और अधिक हाथ, एक से अधिक सिर तथा अन्य तरीकों से चित्रकारों की कलपना ने उन्हे अलंकृत कर दिया। इन सब प्रथाओं की पहल भी भारत से ही हुई। सृष्टि के आरम्भ से ही सभ्यता तथा ज्ञान के विकास में भारत ही विश्व के अन्य मानव समुदायों का मार्ग दर्शक था।

सैंकडों वर्ष पश्चात धीरे धीरे विश्व में जहाँ जहाँ भी पैगनज़िम फैला तो उस के साथ ही दंत-कथाओं के माध्यम से ऐसी ही प्रतिक्रिया अन्य स्थानों पर भी फैलती गयी। अंग्रेज़ी साहित्य में केंटरबरी टेल्स तथा अरबी साहित्य में अरेबियन नाईटस जैसे मनोरंजक और काल्पनिक कथा संग्रह भी लिखे गये किन्तु उन का कोई वैज्ञ्यानिक आधार नहीं था।

हिन्दू चित्रावली की विशेषतायें

कुछ बातों में हिन्दू व्याख्यायें अन्य धर्मों से अलग हैं जैसे किः-

भूगोलिक तथा समय सीमाओं से स्वतन्त्र  – हिन्दू चित्रावली अन्य सभी समुदायों से अधिक सुन्दर, यथार्थवादी, व्याख्या सम्पन्न तथा पूर्णत्या मौलिक और वैज्ञ्यानिक थी। वह हर प्रकार के भूगौलिक तथा समय सीमाओं से भी मुक्त थी। हिन्दूओं के पौराणिक साहित्य के पात्र ना केवल धरती पर बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पग-चिन्ह छोड़ चुके हैं। ना केवल दैविक शक्तियां बल्कि कई ऋषि-मुनि और साधारण मानव भी  एक गृह से अन्य लोकों में विचरते रहे हैं। यह तथ्य उजागर करता है कि पौराणिक युग से ही हिन्दूओं का भूगौलिक तथा अंतरीक्ष ज्ञान अन्य मानव समाजों से बहुताधिक सम्पन्न था। देवी देवताओं के अतिरिक्त कई ऋषि-मुनि और तपस्वी जन्म मरण के बन्धन से मुक्त थे और चिरंजीवी की पदवी पा चुके थे जिन मे हनुमान, परशुराम, नारद, वेदव्यास, दुर्वासा, जामावन्त तथा अशवथामा के नाम प्रमुख हैं। वह किसी भी स्थान पर प्रगट अथवा किसी भी स्थान से अदृष्य होने में भी सक्ष्म माने जाते हैं। हिन्दू धर्म का कोई भी देवी देवता दारिद्रता में लिप्त नहीं है। सभी सुन्दर तथा रत्नजडित वस्त्राभूष्णों से सुसज्जित रहते हैं और किसी भी प्राणी को वरदान दे कर उस के आभाव को दूर करने में सक्ष्म है। हर देवी देवता के पास अपराधी को दण्ड देने के लिये अस्त्र-शस्त्र तथा पुन्यकर्मी को पुरस्कृत करने के लिये पुष्प भी रहते हैं। कोई भी देवी देवता लाचार नहीं कि लोग उसे सूली पर टाँग दें और वह कुछ भी ना कर सके। जो देवता स्वयं ही लाचार और दरिद्र हो वह दूसरे का भला नहीं कर सकता। किसी को कोई साँवन्तना भी नहीं दे सकता। अतः हिन्दू देवी –देवता समृद्ध, शक्तिशाली, परम ज्ञानी होने के साथ साथ मानवी भावनायें रखते हैं।

परियावरण का प्रतिनिधित्व – हिन्दूओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया है। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखना, जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देना, बेल, पीपल, तुलसी, नीम और वट वृक्ष आदि को प्रतीक स्वरूप पूजित करना, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता के समान पूज्य मान कर प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य है। पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की ही तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना हुआ है लेकिन स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। ईश्वर को सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य को दर्शाने के लिये छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्ह और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है।

स्वर्ग और नरक – प्रत्येक धर्म ने अपने स्थानीय वातावरण अनुसार स्वर्ग और नरक की कल्पना की है। जो कुछ भी उन के स्थानीय वातावरण में सुखदायक है वह स्वर्ग के समान है और जो कुछ उन के स्थानीय वातावरण में दुखदायक है वैसा ही उन का नरक भी है। अतः तपते हुये रेगिस्तान में पनपे मुसलमानों का स्वर्ग (बहशित, जन्नत) छायादार तथा ठंडा रहता है और बहुत सारे जल स्त्रोत्रों से परिपूर्ण है क्यों कि अरब में इन्हीं वस्तुओं की कमी है। बहिशत फल-फूलों से लदा हुआ है तथा वहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ अल्लाह के विशवासनीयों की सेवा करने के लिये हरदम तैनात रहती हैं।  इसलामी नरक (दोज़ख, जहन्नुम) हमेशा आग की तरह तपता रहता है जैसा कि अरब का वास्तविक वातावरण है। दोज़ख में काफिरों (विधर्मियों) को यात्ना देने का सामान हर समय तैय्यार रहता है ताकि काफिरों और हिन्दूओं  को बुतपरस्ती करने के अपराध में जलाया जा सके। कदाचित उन्हें यह विदित नहीं कि हिन्दूओं का शरीर तो दाह संस्कार के समय से ही जल चुका होता है और आत्मा कभी नहीं जलती।

इस के विपरीत योरूप में बसे इसाईयों के स्वर्ग में सूर्योदय तो सदा सुख प्रदान करता है किन्तु उन का नरक बर्फ से हमेशा ढके रहने के कारण एकदम ठंडा है। सभी धर्मों का काल्पनिक स्वर्ग आकाश में है और नरक धरती के नीचे है। स्वर्ग का प्रशासन देवताओं, हूरों, परियों अथवा अप्सराओं के अधीन है और वह श्रंगार, गायन तथा नृत्य के माध्यम से स्वर्गवासियों का मनोरंजन करनें में पारंगत हैं। नरक क्रूर प्रशासकों के आधीन है जो देखने में क्रूर, भद्दे और बेडौल शरीर वाले हैं। स्वर्ग में जाने के लिये ईश्वर के पुत्र या प्रतिनिधि की सिफारिश होनी ज़रूरी है।

हिन्दू धर्मानुसार स्वर्ग में केवल पुन्यकर्मी ही अपने पुरषार्थ से ही रहवास पाते हैं तथा पाप करने वाले नरक में य़मराज के अधीन रह कर यातना पाते हैं। अन्य धर्मों और हिन्दू धर्म के स्वर्ग- नरक की परिकल्पना में मुख्य अन्तर यह है कि  अन्य धर्म पुनर्जन्म में विशवास नहीं रखते। इस कारण से अन्य धर्मियों के पास वर्तमान जन्म के पश्चात पुन्य कर्म करने का कोई विकल्प ही नहीं बचता है। केवल हिन्दू ही अगले जन्म में पुन्य कर्म कर के प्रायश्चित कर सकते हैं और नारकीय जीवन से मुक्ति पा कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।वह उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं, उन के पास आशा की किरण है।

त्रिमूर्ति – हिन्दू ऐक ईश्वर में विशवास रखते हैं लेकिन उसी सर्व-व्यापि, सर्व शक्तिमान एवं सर्वज्ञ्य ईश्वर को तीन प्रथक रूपों में, तीन मुख्य क्रियाओं के कर्ता के तौर पर भी निहारते है। इन तीनों रूपों को त्रिमूर्ति का संज्ञा दी गयी है। उन के चित्रों में वैज्ञिय़ानिक तथ्यों की कलात्मिक ढंग से व्याख्या दर्शायी गयी है। 

  • ब्रह्मा- ब्रह्मा के रूप में ईश्वर सृष्टि के सर्जन करता हैं। उन के चित्र में चार मुख तथा चार हाथ दर्शाये जाते हैं। प्रत्येक मुख एक एक वेद के का उच्चारण प्रतीक है. उन के हाथ में जल से भरा कमण्डल सृष्टि की सर्जन शक्ति का प्रतीक है। उन के दूसरे हाथ में माला के मनकों की गणना करते रहना सृष्टि के कालचक्र का स्वरूप है। तीसरे हाथ में वेद का ज्ञान तथा चौथे हाथ में कमल का फूल ब्रह्मशक्ति का प्रतीक है। भगवान ब्रह्मा विद्या एवं कला की देवी सरस्वती के पति हैं। विद्या एवं कला ब्रह्मा की सर्जन शक्ति का आधार हैं अतः उन का संयोग ब्रह्मा के साथ यथेष्ट है। ब्रह्मा का वाहन विवेकशील, सुन्दर तथा स्वछ पक्षी हँस होता है। ब्रह्मा का मुख्य दाईत्व सर्जन करना हैं अतः सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह सृष्टि के अन्य कामों में कोई दखल नहीं देते। ब्रह्मा को सर्जन कर्ता होने की वजह से परम पिता भी कहा जाता है तथा उन्हें अकसर वृद्ध ही दर्शाया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देष्य यह भी है कि साधनहीन बुद्धिमान व्यक्ति भी  कोई कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता और एक वृद्ध की तरह आशक्त होता है। संसार भर में ब्रह्मा की उपासना का केवल एक ही मन्दिर पुष्कर, राजस्थान में है। बुद्धि-जीवियों को चापलूसों की ज़रूरत नहीं पडती।
  • विष्णु- विष्णु के रूप में ईश्वर सृष्टि के पालक हैं। चित्रण में उन के भी चार हाथ दर्शाये जाते हैं तथा उन का शरीर नील-वरण का होता है। उन के हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं जो संसाधनों की शक्ति तथा पुरस्कार के प्रतीक हैं। वह शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं तथा धन-वैभव की देवी लक्ष्मी उन की पत्नी के रूप में स्दैव उन के चरणों के समीप रहती है। सर्व-व्यापि होते हुये भी उन का निवास क्षीर सागर में होता है क्योंकि संसार का समस्त धन वैभव सागर से ही निकला है। उन का चित्रण पूर्णत्या ऐशवर्य तथा सुख वैभव का प्रतीक है तभी तो वह सृष्टि के पालन करने में समर्थ हैं। भगवान विष्णु का वाहन महातेजस्वी पक्षी गरुड़ है। सृष्टि के भरण-पोषण तथा प्रशासन भगवान विष्णु के दाईत्व में होने के कारण जब भी सृष्टि में कोई विकट समस्या उत्पन होती है अथवा धर्म की हानि होती है और लोग अपने  कर्तव्य भूल कर मनमानी करने लगते हैं तो उस समस्या के समाधान के लिये भगवान विष्णु स्वयं अवतार ले कर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। स्पष्ट है धन – वैभव वालों के भक्त भी अधिक होते हैं।
  • महेशवर- महेशवर अथवा भगवान शिव की छवि में ईश्वर को सृष्टि के संहारक के रूप में दर्शाया जाता है। भगवान शिव स्दैव ध्यान मुद्रा में कैलास पर्वत पर विराजते हैं। उन के कंठ में विषैले सर्पों की माला, माथे पर चन्द्र तथा हाथ में त्रिशूल रहता है तथा एक हाथ आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में रहता है। सृष्टि के संहारक होते हुये भी भगवान शिव करुणामय तथा सकारात्मक शक्ति के प्रतीक हैं और वह पाप नाशक हैं। उन का वाहन नन्दी बैल है तथा उन की पत्नी शक्ति की देवी दुर्गा है जिन को कई नामों  तथा रूपों में दर्शाया जाता है। भगवान शिव को समस्त कलाओं का स्त्रोत्र भी माना जाता है तथा उन के ताँडव नृत्य को उन की संहारक क्रिया के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। स्पष्ट है शक्तिशाली का सभी आदर करते हैं, डरते हैं तथा उस का संरक्षण प्राप्त करते हैं। 

वास्तव में ईश्वर के तीनों स्वरूप एक ही सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तीन अलग अलग क्रियाओं के प्रतीक हैं। भगवान की तीनों क्रियायें – सृष्टि का सर्जन, पोषण तथा हनन उसी प्रकार हैं जैसे एक ही व्यक्ति माता-पिता के लिये पुत्र, पत्नी के लिये पति, तथा अपने बच्चों के लिये पिता होता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति तीन प्रथक प्रथक क्रियायें करता हुआ ही एक ही व्यक्ति है उसी तरह एक ही परमात्मा के तीन रूप त्रिमूर्ति में प्रगट होते हैं।

त्रिमूर्ति का विधान शक्ति के विभाजन के सिद्धान्त का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उन्नीसवीं शताब्दि में फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू ने योरूप वासियों को सिखाया था। मांटैस्क्यू का ज्ञान अधूरा था। उस ने विधि सर्जन, प्रशासन तथा न्याय पालिका को तो अलग कर दिया किन्तु उन में ताल मेल की व्यवस्था नहीं रखी जो आज सभी कुशासनों की जड है। भारतीय विधान में ऐसा दोष नहीं था। सर्व शक्तिमान ईश्वर को त्रिमूर्ति में तीन शक्तियों के तौर पर दर्शाया गया है जो सर्जन, पोष्ण तथा हनन का अलग अलग कार्य  करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं। अलग हो कर भी आपस में विचार विमर्श करती हैं। इस का सारांश यह है कि सृष्टि की सरकार शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के साथ साथ आपसी ताल-मेल को भी बनाये रखती है जिस की मानवी सरकारें अकसर अनदेखी करती हैं। प्रशासन के विभिन्न अंगों में तालमेल रखना एक अनिवार्यता है।

हिन्दू धर्मानुसार ईश्वर किसी विशेष स्थान या किसी भी समय सीमा के बन्धन से मुक्त है। ईश्वर अनादि है। उस का ना कोई आरम्भ और ना ही कोई अंत है। वह परम शाशवत है। उस की शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हो सकता।

चाँद शर्मा

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