23 – वर्ण व्यवस्था का औचित्य
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, यह चारों वर्ण हिन्दू समाज के चार स्तम्भ हैं जिन पर समाज की आधार शिला टिकी हुयी है। सभी वर्णों के कार्य़ क्षेत्र का भी महत्व बराबर है। सभी का लक्ष्य पूरे समाज का कल्याण सेवा और परस्पर निर्भरता है। जो अशिक्षित हो, संस्कार हीन हो, और पाँच यम तथा पाँच नियम का पालन नहीं करते हों उन्हें ही शूद्र की श्रेणी में रखा गया है। सभी शूद्र अपने पुरुषार्थ से ज्ञान प्राप्त कर के ही, अपने कर्मों से उच्चतर वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं।
कालान्तर व्यवसाईक आधार पर बने सामाजिक वर्गीकरण में वैचारिक तथा आर्थिक वर्गीकरण भी समा गया है जिस का कुछ असर रीति रिवाजों पर भी पडा है और समाज में परिवारिक सम्बन्ध वर्णों तथा जातियों में सीमित हो गये हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी भारत के साथ साथ अन्य देशों में भी हुयी है लेकिन इस के अपवाद भी प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं।
कर्मानुसार जीवन शैली
आधुनिक प्रशासनिक विशेज्ञ्य जिन तथ्यों को कार्य पद्धति तथा कार्य संस्कृति में शामिल करते हैं उन्हें ‘जाब डिस्क्रिपशन’ तथा ‘जाब स्पेसिफिकेशन’ कहा जाता है। यही तथ्य हिन्दू वर्ण व्यवस्था में पहले से ही संकलित थे। हिन्दू समाज ने प्रत्येक वर्ण के लिये कार्य शैली तथा जीवन पद्धति केवल कार्यशाला तक ही सीमित नहीं रखी थी अपितु उसे जीवन पर्यन्त अपनाने की सलाह दी है। ब्राह्मणों के लिये जीवन पर्यन्त यम-नियम पालन के साथ साधारण और सात्विक जीवन शैली निर्धारित की गयी है। जहाँ उन के लिये माँस मदिरा रहित सात्विक भोजन सुझाया गया है वहीं क्षत्रियों और वैश्यों के लिये राजसिक भोजन के साथ राग रंग के सभी प्रावधान भी नियोजित किये हैं। शूद्र वर्ग के लिये तामसिक भोजन को पर्याप्त माना है क्यों कि इस वर्ण को परिश्रम करने के लिये अतिरिक्त ऊर्जा चाहिये। स्वास्थ के प्रति जागरूक सभी आधुनिक समुदायों में भी लोग इसी प्रकार के भोजन और जीवन प्रणाली को अपनाने की सलाह देते हैं। आधुनिक प्रशासनिक सोच विचार और प्राचीन भारतीय सामाजिक गठन जीवन शैली में कोई फर्क नहीं। विश्व में सभी जगह बुद्धिजीवी सात्विक जीवन शैली अपनाते हैं, प्रशासनिक अधिकारी वर्ग और व्यापारी वर्ग राजसिक शैली तथा श्रमिक वर्ग तामसिक जीवन बिताते हैं।
श्रम का सम्मान
हिन्दू समाज ने प्रत्येक प्रकार की सामाजिक सेवा को .यत्थोचित सम्मान दिया है जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण वानर रूपी हनुमान जी को देवतुल्य पद की प्राप्ति है। सभी कार्यों में सेवक धर्म को उच्च मानते हुये हनुमान जी को सेवक धर्म का प्रतीक माना गया है तथा उन्हें पँचदेवों में उन्हें प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था में शरीरिक श्रम को पूर्णत्या सम्मानित किया गया है।
क्षमतानुसार श्रम विभाजन
बनजारा जीवन पद्धति में सभी बराबर थे, परन्तु सभी सभ्य समाजों में शिक्षा, समृद्धि तथा व्यवसाय के आधार पर आज भी सामाजिक वर्गीकरण है। ‘लार्डस्’ और ‘कामनर्स’ इंगलैण्ड में भी हैं। अमेरिका में श्वेत और ‘ब्लैक्स’ हैं, आका और गुलाम इस्लाम में चले आ रहे हैं, किन्तु श्रम विभाजन पर आधारित भारतीय समाज रंग या नस्ल भेद पर आधारित विश्व के अन्य समाजों से बेहतर है। मल्टी नेशनल कम्पनियों में भी प्रशासनिक सुविधा के लिये श्रमिकों को पृथक पृथक विभागों, ग्रेडों तथा श्रेणियों में बाँटा जाता है।
वर्ण व्यवस्था में कर्तव्य विभाजन किसी वर्ण के अन्तर्गत जन्म लेने के आधार पर नहीं था। प्राचीन काल के समाज में जितने भी काम किये जाते थे, उन से सम्बन्धित कर्तव्यों का बटवारा मनु महाराज ने वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्यों की मनोदशा तथा रुचि के अनुसार किया था। विश्व में कोई भी देश, जाति, या समाज ऐसा नहीं है जिस में सामाजिक वर्गीकरण और असामानतायें ना हों। यहाँ तक कि वह ‘सोशोलिस्ट ’ देश, जो अपने देश की व्यवस्था को पूर्णत्या जाति हीन रख कर सभी के लिये बराबरी का दावा करते हैं वहाँ भी कुछ लोग दूसरों से अधिक प्रभावशाली होते हैं।
व्यवसायिक वातावर्ण
सामान्य स्थितियों के लिये परिवारिक अथवा पैत्रिक व्यवसाय का चुनाव यथार्थपूर्ण एवमं उचित है क्योंकि पैत्रिक व्यवसाय के गुणों का प्रभाव बालक में होना स्वाभाविक है। परम्परानुसार सभी देशों में संतान अपने माता पिता की सम्पति के साथ अपना पैत्रिक व्यवसाय भी अपनाती आयी है। इंगलैण्ड में और कई देशों में आज भी राजा का पद राज परिवार के ज्येष्ट पुत्र को ही प्रदान किया जाता है। ऐसा करने का मुख्य कारण यह है कि होश सम्भालने के साथ ही बालक अपने पैत्रिक व्यवसाय के वातावरण से परिचित होना शुरु कर देता है और व्यस्क होने पर उसे ही अपने माता पिता की विरासत समझ कर सहज में अपना लेता है। परिवारिक वातावर्ण का प्रभाव दक्षता प्राप्त करने में भी सहायक होंता हैं।
बाल्यकाल से किसी भी बालक की रुचि जान लेना कठिन है। इसलिये परिवारिक व्यवसाय को ही अस्थायी तौर पर चुनने का रिवाज चला आ रहा है। जो बालक परिवारिक गुण, वातावरण तथा व्यवसाय चुन लेते हैं उन्हे उस व्यवसाय से जुड़े उपकरण, अनुभव तथा व्यावसायिक सम्बन्ध सहजता में ही प्राप्त हो जाते हैं जो निजि तथा व्यवसाय की सफलता के मार्ग खोल देने में सहायक होते हैं। किन्तु जन्मजात व्यवसाय के विरुध अन्य व्यवसाय क्षमता और रुचि के आधार पर प्राप्त करने में किसी विरोध का कोई औचित्य नहीं।
जन्म-जात का अपवाद
हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं – अपनी जन्म जाति से नहीं। इस में कोई शक नहीं कि पैत्रिक व्वसाय के बदले दूसरा व्यवसाय अपनाने के लिये उन्हें कड़ा परिश्रम भी करना पडा था।
केवल किसी वर्ण में जन्म पाने से कोई भी छोटा या बड़ा नहीं बन जाता। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति मे उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राह्णण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे ऐक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राह्णणों का वध करना भी उचित था।
आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणानां च संगरे।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ चघ्नन्धर्मण न दुष्यति।।
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। (मनु स्मृति 8- 349-350)
(जब स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। ऐसे समय धर्मतः हिंसा करने में दोष नहीं है। गुरु, ब्राह्मण, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी हो कर मारने के लिये आये तो उसे बे-खटके मार डाले।)
उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध
वैज्ञानिक जन्म-जात (जैनेटिक) असमानताओं पर विचार करें तो सभी मानव ऐक समान नहीं होते। साधारणत्या जो फल जिस पेड पर लगता है वह उसी के नाम से पहचाना जाता है उस के गुण बाद में दिखते हैं। जैसे कहने मात्र के लिये कबूतर और बाज ‘पक्षियों’ की श्रेणी में आते हैं, शेर और बैल दोनो चौपाये हैं। लेकिन कबूतर के अण्डों से बाज नहीं पैदा होते। इसी तरह यदि शेर के शावकों को बचपन से ही गाय का दूध पिला कर घरेलू पशूओं के साथ ही पाला जाय तो भी बडे होने पर उन्हें हल या में बैलगाडी में नहीं जोता जा सकता।
प्रकृति ने ही मानव मस्तिष्क में असमान्तायें बनायी हैं। ऐक ही माता पिता की सन्ताने बुद्धि, विचारों तथा रुचि में ऐक दूसरे से भिन्न होती हैं। मनुष्य की बुद्धि का विकास जन्म तथा पालन पोषण के वातावरण पर निर्भर करता है। उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिये उत्तम बुद्धि की आवश्यक्ता पड़ती है। उच्च शिक्षा के साधन सीमित तथा महंगे होने के कारण उन को ऐसे विद्यार्थियों पर बर्बाद नहीं किया जा सकता जिन में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की तथा कड़ी मेहनत करने की कमी हो। उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लगते रहे हैं और आज भी लगते है। उच्च शिक्षा की योग्यता परखने के लिये विद्यार्थियों को रुचि परीक्षा (एप्टीच्यूट टैस्ट) में उत्तीर्ण होना पड़ता है। जो इस परीक्षा में निर्धारित स्तर तक के अंक प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाता।
समाज हित में प्रतिबन्ध
ज्ञान की शक्ति दुधारी तलवार की तरह होती है। उस का प्रयोग सृजन तथा विनाश दोनो के लिये किया जा सकता है। जैसे जिस व्यक्ति के संस्कार होंगे वैसे ही वह ज्ञान को प्रयोग में लाये गा। जो लोग कमप्यूटर-वायरस बनाते हैं वह भी कमप्यूटर विशेज्ञ होते हैं। जो रक्त तथा किडनी चुरा कर बेचते हैं वह भी डाक्टर होते हैं। वह अपने बुरे संस्कारों के कारण ऐसे घृणित काम करते हैं। महाभारत में ज्ञान के दुर्प्योग का ऐक उदाहरण है। जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या से ऐक कुत्ते का मुहँ बन्द करते देखा तो उन्हों नें एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में माँग कर उस की धनुर्विद्या को निष्क्रिय करवा कर क्रूरता का अपयश अपने सिर ले लिया था। और भी कई उल्लेख मिलते हैं जब उच्च ज्ञान का दुर्प्योग होने की सम्भावना का विचार कर के ऋषि अपने ही शिष्य के ज्ञान को शाप दे कर सीमित अथवा निष्क्रिय कर देते थे।
आज अमेरिका और संयुक्त राष्ट्रपरिष्द भी गुरु द्रोणाचार्य की नीति अपनाते हैं। य़दि अमेरिका अथवा विकसित योरूपीय देश प्रमाणु शक्ति का परीक्षण करता है तो उस में उन्हें कोई आपत्ति नहीं दिखती, परन्तु यदि कोई अविकसित देश प्रमाणु परीक्षण करे तो उन्हें वह आपत्तिजनक लगता है क्योंकि अविकसित होने के कारण वह देश शक्ति का दुर्प्योग करें गा।
सार्वजनिक स्वास्थ हित में प्रतिबन्ध
समाज में कई कार्यक्षेत्र ऐसे भी होते हैं जहाँ का वातावरण दुष्कर और दुर्गन्ध पूर्ण होता है। अतः सार्वजनिक स्वास्थ हित में यह आवश्यक है कि संक्रामिक वातावर्ण में काम करने वाले लोगों को सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत रखा जाये। जैसे आप्रेशन थियेटर तथा इसी प्रकार के अन्य स्थल सभी लोगों के लिये वर्जित होते हैं उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति जो प्रदूष्णयुक्त स्थलों से जुडे रहते हैं उन को रसोईयों, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजिक सुविधाओं से निष्कासित रखने का प्रावधान है। यह हिन्दू समाज के स्वास्थ के प्रति जागरुकता का प्रमाण है तथा आज भी ज़रूरी है। आधुनिक देशों तथा समुदायों मे भी प्रदूष्णयुक्त व्यक्तियों के साथ स्मपर्क पर पाबन्दी लगी रहती है।
हिन्दू समाज के विघटन की राजनीति
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यकाल में कुछ लोगों ने छुआछूत की प्रथा को अनुचित ढंग से बढ़ावा भी दिया और हिन्दू समाज को बाँटने की दिशा में विकृत योगदान दिया जिस के कारण हिन्दू समाज को बदनामी और इसाईयों तथा मुसलमानों को दुष्प्रचार कर के धर्मान्तरण करने के का बहाना भी मिला। कुछ अयोग्य राजनेताओं को अपने लिये वोट बैंक भी प्राप्त हुये हैं जिन के सहारे वह अपने लिये उच्च पदवियाँ तलाशते रहते हैं। सत्यता यह है कि शूद्र हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं और सामाजिक आधारशिला का चौथा पाया। उन के प्रति छुआ छूत की प्रथा केवल प्रदूष्ण निग्रह के निमित थी जो आधुनिक उपकरणों के आजाने से अब अप्रासंगिक हो चुकी है।
प्राचीन काल में शूद्रों, वैश्यों तथा क्षत्रियों ने अपनी अपनी उन्नति कर के अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारा तथा ऐक से दूसरे वर्ण में प्रवेश किया। कालान्तर वर्ण व्यवस्था जन्मजात बनती गयी। जिस प्रकार एक बालक व्यस्क होने पर पिता की सम्पत्ति गृहण करता है उसी प्रकार उसे वर्ण संज्ञा भी विरासत में ही मिलने लगी थी। इस से बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि भारत की प्रजा तन्त्र और धर्म निर्पेक्ष शासन व्यवस्था में प्रधान मन्त्री पद के दावेदार आज भी केवल ऐक ही राजनैतिक परिवार से आते हैं और समाज जागरण छोड समाचार पत्र उन के प्रसार में जुट जाते हैं। आज कल कोई नेता पिछडे वर्ण के लोगों को परिश्रम कर के आगे बढने के लिये प्रेरित नहीं करता केवल आरक्षण की मांग ही करता है ताकि वह स्दैव पिछडे ही रहैं।
यह दुर्भाग्य है कि आजकल भी यही सिद्धान्त सरकारी नियमों में अपनाया जा रहा है। आज भी जाति का प्रमाण पत्र जन्म के आधार पर ही दिया जाता है कर्म के आधार पर नहीं। जैसे विद्यालय और महाविद्यालय योग्यता के आधार पर प्रमाण पत्र देते हैं उसी प्रकार सरकारी विभाग जन्म के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र दे देते हैं – यथार्थ की ओर कोई नहीं देखता। यह विडम्बना है कि आज के हिन्दू ज्ञानी बनने के बजाय अज्ञानता और पिछड़ेपन का प्रमाण पत्र पाने की होड़ में लगे हुये है। आज जरूरत इस बात की है आरक्षण का लालच दे कर कुछ वर्गों को स्दैव के लिये पिछडा बना कर रखने के बजाय उन को परिश्रम तथा ज्ञान के माध्यम से समाज में उन्नत किया जाये।
चाँद शर्मा