हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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56 – भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण


आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृति अलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।  
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी। 

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है। 

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध 

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पल से मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।  

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके। 

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

चाँद शर्मा

 

 

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

36 – तकनीकी उपलब्द्धियाँ


हिन्दू शास्त्रों में विश्वकर्मा को समस्त सर्जन कलाओं का अग्रज माना जाता है। भारत के इंजिनियर तथा कारीगर आज भी प्रत्येक शुभ कार्य को आरम्भ करने से पूर्व सर्व प्रथम विश्वकर्मा की पूजा करते हैं। देवी देवताओं के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण का श्रेय भी विश्वकर्मा को ही प्राप्त है। विश्व के अन्य देशों में तकनीक और आविष्कार का उदय आकस्माक हुआ। उस के विपरीत भारत में तकनीक और अविष्कार लगातार कोशिशों और अनुभवों के आधार पर हुये हैं।

विश्वकर्मा ने विष्णु का सुदर्शन चक्र, रामायण का शिव-धनुष, तथा अर्जुन का गाँडीव धनुष बनाया था। विश्वकर्मा ने ही इन्द्रप्रस्थ के आश्चर्य जनक भवन, इन्द्र की राजधानी अमरावती, तथा कुबेर का पुष्पक-विमान बनाया था, जिसे रावण ने कुबेर से छीन लिया था। पुष्पक विमान सात मंजिला पाँच सितारा होटल जैसा था और मन की गति से चलता था। वह अमेरिका के ऐयर फोर्स वन विमान से कहीं अधिक आधुनिक था। आज कल टच-स्क्रीन तकनीक की सहायता से हम मन वाँच्छित आँकडे प्राप्त कर सकते हैं, सटैल्थ बम-वर्षक विमान भी बन चुके हैं तीन मंजिला जुम्बो जेट भी उडान भरते हैं, परन्तु पुष्पक विमान जैसी तकनीक अभी तक विकसित नहीं हुई है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम चाहें तो इन्हें आस्था माने या खोया हुआ इतिहास, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि उन सम्भव होने वाले सभी आविष्कारों की कल्पना तो हम भारत वासियों ने ही करी थी।

पहिये का अविष्कार

पहिये का अविष्कार मानव विज्ञान के इतिहास में अभूतपूर्व उपलब्द्धी थी जिस के बल पर मानव ने गति को दिशा परिवर्तन और तीव्रता प्रदान की है। पता नहीं क्यों पहिये के अविष्कार का श्रेय इराक को दिया जाता है जहाँ रेतीले मैदान हैं, जबकि सर्वप्रथम हम पौराणिक चित्रों में सुदर्शन चक्र के माध्यम से ही पहिये का साक्षाताकार करते हैं। रामायण महाभारत काल से पहले ही पहिये का चमत्कारी आविष्कार भारत में हो चुका था और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था। जब कि इराक के लोग उन्नीसवीं सदी तक रेगिस्तान में ऊँटों की सवारी करते हैं और योरूपीय साँटाकलाज़ को भी बिना पहिये की गाडी सलैज पर ही आता जाता दिखाया जाता है।

पहिये की तकनीक के सहारे याँत्रिक मशीनों और उपकरणों में शक्ति को निरन्तरता, गति तथा दिशा प्रदान करी जाती है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति में  पहिये का महत्व सर्वाधिक है। विश्व की सब से प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से प्राप्त (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलोना हाथ गाडी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रमाणित करती है कि विश्व में पहिये का निर्माण इराक में नहीं बल्कि भारत में ही हुआ था।  

चरखा चक्र

चरखा चक्र निस्संदेह भारत की अन्य देन है। इस के आविष्कार से वस्त्रों के उत्पादन का खर्चा कम हुआ तथा कालान्तर चरखा चक्र के साथ पेटी जोड कर शक्ति वितरण की तकनीक भी आई। यह अविष्कार अत्यन्त महत्वशाली था क्यों कि इस प्रयोग से भारत ने योरूप को निरन्तर चाल का विचार दिया जिस के कारण आज के युग में याँत्रिक (मेकेनिकल) प्रगति सम्भव हुयी है। इस खोज का श्रेय भास्कराचार्य को जाता है। भारत से यह तकनीक अरबों के माध्यम से योरूप पहुँची थी और आज समस्त विश्व में वैज्ञिानिक प्रगति का माध्यम बनी है।

राजाभोज के समय की ‘समरांगणा सूत्रधारा’ (1100 ईस्वी) में कई याँत्रिक खोजो का वर्णन है जैसे कि चक्री (पुल्ली), लिवर, ब्रिज, छज्जे (केन्टीलिवर) आदि। कालान्तर अरब वासियों ने उन्हें सीखा और अरबी फारसी भाषाओं के माध्यम से डा विंसी के मैकेनिक आलेखों दूारा योरुपवासियों में उन्हीं तकनीकों को प्रचारित किया। कदाचित योरुप वासियों ने यह अनुमान भी लगा लिया कि यह सभी अविष्कार अरबों ने किये।

धातु तथा खनिज

धातुओं तथा खनिजों के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुयी थी। ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी क्षेत्र में स्वर्ण, चाँदी, तथा ताँबे की खदाने थीं। वैदिक काल में ताँबे, काँसे, तथा पीतल का प्रयोग घरेलू बर्तन बनाने, अस्त्र – शस्त्र तथा मूर्तियों के निर्माण में होता था। जहाँ अन्य देशों के माईथोलोजिकल देवी देवता पशुओं के सींगों वाले मुकट पहने चित्रित किये जाते हैं वहीं भारत के देवी देवता स्दैव सुवर्ण-रत्न जटित मुकट पहने होते हैं। 

पातञ्जली ऋषि ने लोहशास्त्र ग्रन्थ में धातुओं के प्रयोग से कई प्रकार के रसायन, लवण, और लेप बनाने के निर्देश दिये हैं। धातुओं के निरीक्षण, सफाई तथा निकालने के बारे में भी निर्देश हैं। स्वर्ण तथा पलेटिनिम को पिघलाने के लिये अकुआ रेगिना तरह का घोल नाइटरिक एसिड तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण से तैय्यार किया जाता था। तथा इस का श्रेय भी पातञ्जली ऋषि को जाता है।

मनु समृति में भी धातुओं को शुद्ध करने के बारे में उल्लेख मिलता हैः-

       अपामग्नेश्च संयोगाद्धेमं रौप्यं च निर्वभो।

                 तत्मात्तयोः स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः ।।

                         ताम्रायः कांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च।

                                 शौचं यथार्हं कर्तव्यं क्षारोम्लोदकवारिभिः ।। (मनु स्मृति5- 113-114)

अग्नि और जल के संयोग से सोना और चाँदी उत्पन्न होते हैं, इसलिये दोनो की शुद्धि अपने उत्पादक जल और अग्नि से ही श्रेष्ठ होती है। ताँबा, लोहा, काँसा, पीतल, राँगा और शीशा, इन की यथायोग्य क्षार, खटाई और जल से शुद्धि करनी चाहिए।

रसायन शास्त्र तथा धातु शास्त्र

भारत में रसायन शास्त्र की उपलब्द्धियाँ चिकित्सा, धातुविज्ञान तथा निर्माण के क्षेत्र से प्राप्त हुयीं। कौटिल्लय रचित अर्थशास्त्र में बाँधों तथा पुलों का वर्णन है जिन में झूलापुल (सस्पैन्शन ब्रिज) का भी वर्णन है। कृषि का विकास भी ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार (ईसा से 3000 वर्ष पूर्व) में देखे जा सकते हैं। भूतल पर बने स्नानागार, जिन में भट्टियों में सेंके गये पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये गये थे तथा 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर नालियाँ बनी थीं। हडप्पा के लोग तांम्बे, पीतल, काँसे की धातुओं का प्रयोग करना जानते थे। वहाँ से प्राप्त तलवारें ताँम्बे की बनी हुयी थीं। 

गुप्त काल से ही रोम वासी भारत को उद्यौगिक तथा सैनिक महाशक्ति के रूप में देखते थे। रसायनों का प्रयोग रंगाई, टेनिंग, साबुन निर्माण, सीमेन्ट निर्माण, तथा दर्पण निर्माण आदि के क्षेत्रों में अधिक होता था। दूसरी शताब्दी में नागार्जुन नें पारा धातु के बारे में मौलिक ग्रन्थ लिखा था। छटी शताब्दी से ही भारतीय रसायन प्रयाग से केलसीनेशन, डिस्टिलेशन, स्बलीमेशन, स्टीमिंग, फिक्सेशन, तथा बिना गर्मी के हल्के इस्पात निर्माण के क्षेत्र में भारतीयों की उपलब्धी योरूपवासियों से कहीं अधिक थी। भारत में कई प्रकार के खनिज लवण, चूर्ण और रसायन तैय्यार किये जाते थे।  

ईसा से लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतीयों को लोहा तथा मिश्र धातुओं के प्रयोग से इस्पात बनाने में सर्वाधिक निपुणता प्राप्त की थी जिस के प्रमाण ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई के उपरान्त मिले हैं। इस के अतिरिक्त भारतियों को जिस्त मिश्रण तथा पीतल आदि धातुओं का भी ज्ञान था।जिस्त की तकनीक भारत से चीन तथा योरूप गयी। 1735 ईस्वी तक योरूप के रसायन शास्त्री यही समझते थे कि जिस्त को धातु के रूप में ताँबे के बिना नहीं बदला जा सकता।

धातु उत्पादन

धातुओं का प्रयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी होता था। कई तरह के रसायन, सोने चाँदी की भस्म, तथा वर्क प्रयोग किये जाते थे। दक्षिण भारत धातु उद्योग के लिये प्रसिद्ध था तथा वहाँ के उत्पादन विश्व विख्यात थे, विशेष तौर परः-

  • कर्नाटक –कर्नाटक पतले और महीन तारों के उत्पादन में प्रसिद्ध था जो संगीत वाद्यों में इस्तेमाल किये जाते थे। उस समय पाश्चात्य तथा अन्य देशों के वाद्य यन्त्रों में तारों के स्थान पर जानवरों की अन्तडियों का प्रयोग किया जाता था।
  • केरल केरल लोहे को भट्टियों में ढालने के लिये प्रसिद्ध था। इस के अतिरिक्त केरल के धातु विशेषज्ञ्य धातु को विशेष प्रकार की तकनीक से दर्पण बनाने में भी प्रयोग करते थे जैसा कि अरनमला में किया गया है।
  • तामिल नाडु – तामिल नाडु से उत्तम प्रकार का इस्पात रोम के अतिरिक्त समस्त विश्व को निर्यात किया जाता था।
  • आन्ध्र आन्ध्र प्रदेश का कोनास्मुद्रम विश्व प्रसिद्ध वूटस – स्टील उत्पादन के लिये जाना जाता था। यह इस्पात अस्त्र-शस्त्र बनाने में प्रयोग होता था। सुलतान सलाहुद्दीन की दमस्कस तलवार इसी धातु से निर्मित हुई थी। भारत में लोहे से इस्पात बनाने की कला का प्रति स्पर्धी अन्य कोई देश नहीं था।
  • राजस्थान – ईसा से  400 वर्ष पूर्व उदयपुर के समीप झावर में जिंक की खाने थीं 

झेलम के राजा पोरस ने विश्व-विजेता सिकंदर को उपहार स्वरूप स्वर्ण या रजत नहीं भेजे थे अपितु उसे 30 पाऊड उच्च कोटि का भारत निर्मित इस्पात उपहार में दिया था। कालान्तर मुसलिम कारीगर भारत के धातु ज्ञान को पूर्व ऐशिया, मध्य ऐशिया तथा योरूप में ले गये और उसी प्रणाली से दमस्कस तलवारों का निर्माण किया। यह तकनीक भारत से ईरान तथा ईरान से अन्य मुसलिम देशों के माध्यम से योरूप गयी।

नटराज की प्रतिमा पाँच धातुओं के मिश्रण से बनी है। यूनानी इतिहासकार फिलोत्रस ने भी अपने उल्लेखों में दो से अधिक धातुओं के मिश्रण की भारतीय तकनीक का वर्णन किया है। हिन्दू मन्दिरों के कलश स्दैव स्वर्ण, पीतल तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से तैय्यार होते थे। 

तकनीकी मापदण्डों का निर्माण

  • छटी शताब्दी में यतिव्रासाभा ने अपनी कृति तिलोयापन्नति में समय तथा दूरी मापने के लिये तालिकायें बनाईं तथा अनिश्चित समय के मापने के परिमाणों का निर्माण किया।
  • यकास्पति मिश्र ने डेस्कारटेस (AD 1644). से आठ सौ वर्ष पूर्व (840 ईस्वी) में अपनी कृति न्यायसुचिनिबन्ध में सोलिड कोर्डिनेट ज्योमैट्री का उल्लेख किया।  उस ने यह भी बताया कि किसी भी अंतरीक्ष में ऐक कण की स्थिति अन्य स्थित चिन्ह से तीन काल्पलिक रेखाओं के मिलान और माप से आँकलन की जा सकती है।
  • न्याय विशेषिका के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य दिवस की अवधि 1,944,000 क्षण मापी। ऐक क्षण आधुनिक सैकिण्ड के दशमलव 044 भाग के बराबर होता है। ऐक ‘त्रुटि’ को समय के लिये सब से छोटा मापदण्ड माना गया है।
  • शिल्पशास्त्र में लम्बाई मापने कि लिये सब से छोटा मापदण्ड ‘पारामणु’ था जो आधुनिक इंच के 1/349525 भाग के बराबर है। यह मापदण्ड न्याय विशेषिका के ‘त्रास्रेणु’ (अन्धेरे कमरे में आने वाली सूर्य किरण की रौशनी में दिखने वाला अति सूक्षम कण) के बराबर था।  वराहमिहिर के अनुसार 86 त्रास्रेणु ऐक उंगली के बराबर (ऐक इंच का तीन चौथाई भाग) होते हैं। 64 त्रास्रेणु ऐक बाल के बराबर मोटे होते हैं।

दिल्ली का लोह स्तम्भ

भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्ष प्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के स्मीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लग भग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वँश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्य जनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। कुछ प्रमाणों के अनुसार यह स्तम्भ  पहले विष्णु मन्दिर का गरूड़ स्तम्भ था। मुस्लिम शासकों ने मन्दिर को लूट कर ध्वस्त कर दिया था और स्तम्भ को उखाड कर उसे विजय चिन्ह स्वरूप ‘कुव्वतुल-इसलाम मसजिद’ के समीप दिल्ली में गाड़ दिया था।

हाल ही में ईन्डियन इन्टीच्यूट आफ टेकनोलोजी कानपुर के विशेषज्ञ्यों नें स्तम्भ का निरीक्षण कर के अपना मत प्रगट किया है कि स्तम्भ को जंग से सुरक्षित रखने के लिये उस पर मिसाविट नाम के रसायन की  ऐक पतली सी परत चढाई गयी थी जो लोह, आक्सीजन तथा हाईड्रोजन के मिश्रण से तैय्यार की गयी थी। यही परिक्रिया आजकल अणुशक्ति के प्रयाग में लाये जाने वाले पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये डिब्बे बनाने में प्रयोग की जाती है। सुरक्षा परत को बनाने में उच्च कोटि का पदार्थ प्रयोग किया गया था जिस में फासफोरस की मात्रा लोहे की तुलना में एक प्रतिशत के लगभग थी। आज कल यह अनुपात आधे प्रतिशत तक भी नहीं होता। फासफोरस का अधिक प्रयोग प्राचीन भारतीय धातु ज्ञान तथा तकनीक का प्रमाण है जो धातु वैज्ञ्यिानिकों को आश्चर्य चकित कर रही है।

आजकल विकसित देश टेक्नोलोजी ट्राँसफर को हथियार बना कर अविकसित देशों पर आर्थिक दबाव बढाते हैं। जो लोग पाश्चात्य तकनीक की नकल करने की वकालत करते हैं उन्हें स्वदेशी तकनीक पर शोध करना चाहिये ताकि हम आत्म निर्भर हो सकें।

चाँद शर्मा

 

 

 

31 – उच्च शिक्षा के संस्थान


हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय हिन्दू जीवन में जिज्ञासा को स्दैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

ज्ञान अर्जित की परिक्रिया

प्राथमिक ज्ञान माता-पिता के संरक्षण और घर के वातावरण में यम-नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्मों से शुरू होता था।

गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे कि पहले से रजिस्ट्रेशन कर के गुरू मन्त्र शिष्यों कान में पढे जायें ताकि कोई दूसरा उसी अच्छी बात को सुन ना ले। ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे। गुरू अपने शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।

ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे इकठ्ठे करना नहीं होता था बल्कि विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –

  • श्रृवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर गृहण करना,
  • मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
  • निद्यासना – ज्ञान को जीवन में क्रियात्मिक करना।

दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।

  • जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था।
  • जो दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
  • इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था। 

स्नात्कों का सम्मान

विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों में प्रमाणपत्र देने का रिवाज उस समय नहीं था, परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण थाः-

  • ‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
  • ‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
  • ‘आदित्य’ -44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।

आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कह सकते हैं। कालान्तर वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क टूट गया। 

ज्ञान की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता

वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महाकाव्यों के अतिरिक्त भारत में विद्या पढने पढाने का प्रावधान वैदिक काल से ही सक्षम मापदण्डों के आधार पर स्थापित हो चुके थे। जिस समय पृथ्वी के अन्य भागों में सभ्यता वनों से गाँवों की ओर जाने का केवल प्रयत्न मात्र ही कर रही थी उस समय से पूर्व भारत के ऋषि मुनियों, अशविनों (वैज्ञानिको) तथा बुद्धिजीवियों ने धरती को माप लिया था। उस से भी आगे उन्हों ने वर्ष को मासो, ऋतुओं, पखवाडों, दिवसों, पलों एवम विपलों (नेनो सैकिण्डों) में बाँट लिया था और आज का विज्ञान उन्हीं खोजों की पुष्टि मात्र ही कर रहा है। वेद ज्ञान केवल अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान ही नहीं है बल्कि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। ऋगवेद के कथन अनुसार विज्ञान के ज्ञान तथा उस के प्रत्यक्ष क्रियात्मिक प्रयोग के बिना दारिद्रता को समृद्धी में बदलना असम्भव है।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व ऐलोपैथी नाम का कोई विज्ञान विश्व में नहीं था परन्तु आयुर्वेद पद्धति से जटिल रोगों का भी  सफल उपचार होता था। जब विश्व की अन्य मानव जातियों को पृथ्वी के महादूीपों और महासागरों के बारे में ही पूर्ण जानकारी नहीं थी और वह जानवरों की खाल पहन कर खोह और गुफाओं में रहते थे और केवल मांसाहार पर ही निर्भर हो कर डार्क ऐज में जीवन व्यतीत कर रही थी तब भी वैदिक ज्ञान की पूर्णत्या वैज्ञिानिक धारणाओं के प्रमाण लिखित रूप में भारत को ज्ञात थे, उदाहरण स्वरूप जैसे किः-

  • सूर्य कभी उदय नहीं होता ना ही वह अस्त होता है। पृथ्वी सूर्य की परिकर्मा करती है जिस से सूर्योदय तथा सूर्यास्त का आभास होता है। (सामवेद 121)
  • सौर मण्डल के ग्रहों में आपसी ध्रुवाकर्षण के कारण पृथ्वी स्थिर रहती है  (ऋगवेद 1-103-2,1-115-4, 5-81-2)
  • पृथ्वी की धुरी को कभी ज़ंग नहीं लगता जिस पर पृथ्वी सदा घूमती रहती है। (ऋगवेद 1-164 – 29)
  • ऋगवेद में समय की गति का कालचक्र दिया गया है तथा भौतिक ज्ञान, कृषि विज्ञान, खगोल शास्त्र, गणित और अंक गणित का विवर्ण है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ग, चौदह भवनों, लोकों तथा छः महादूीपों, चार महासागरों का वर्णन मिलता है जो आज प्रत्य़क्ष रूप मे विद्मान हैं। भारत के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य की परिकर्मा के मार्ग को पहचाना, अन्य गृहों की गति की विस्तरित तथा प्रमाणित जानकारी दी और उन के पृथ्वी पर पडने वाले प्रभावों का आंकलन कर के उस ज्ञान को मानव के दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड दिया था।

प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों मे नव गृहों का आवाहन कर के उन को पूजित करना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि प्राचीन खगोल शास्त्री हमारे सौर मण्डल के सभी गृहों की गति, दशा, मार्ग और उन के प्रभाव को ना केवल जानते थे बल्कि उन के दुष्प्रभाव को दूर करने के उपाय भी विभिन्न प्रकार के रत्नों से करने में सक्षम थे। समस्त संसार में राशि चक्रों (ज़ोडेक साईन) का जो चित्रण भारत की जन्त्ररियों में देखने को उपलब्द्ध है वही आँकडे (डाटा) नासा की स्टार अलामेनिक में भी आज छपते हैं।

भारत के विशेषज्ञ्यों ने पदार्थों की भौतिकता, पशु पक्षियों की पैत्रिक श्रंखला, और वनस्पतियों तथा उन के बीजों का भी पूर्ण आँकलन किया था। वाल्मिकि रामायण में सभी जीवों की उत्पति तथा श्रंखला का विवरण दिया गया है जो पूर्णत्या विवेक संगित है और डारविन को भी अपनी खोज पर पुनः विचार करने की सलाह दे सकता है।

विज्ञान, चिकित्सा, तथा गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत की देन अदिूतीय है। भाषा, व्याकरण, धातु ज्ञान, रसायन, तथा मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत का योगदान सर्वाधिक है। यह तथ्य उस काल के हैं जब यूनान के दार्शनिक अरस्तु (एरिस्टोटल), सुकरात (सोक्रेटस), अफलातून (प्लेटो) आदि पैदा भी नहीं हुये थे लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार में उन्हें ही आधुनिक ज्ञान विज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है। .           

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान

प्राचीन भारत में शिक्षा के संस्थानों को गुरुकुल, आश्रम, विहार तथा परिष्द के नाम से जाना जाता था। ऐसे संस्थान देश भर में फैले हुये थे। राज तन्त्र की सहायता से विद्यार्थियों को बिना शुल्क परिशिक्षण तथा रहवास की सुविधायें प्राप्त थीं। उच्च शिक्षा के लिये तक्षशिला, काशी, विदर्भ, अजन्ता, नालन्दा, तथा विक्रमशिला (मगद्ध) में विश्विद्यालय थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। उच्च कोटि के आचार्यों, शिक्षकों, स्नातकों के नाम इन विश्वविद्यालयों से जुडे हुये हैं जिन में से व्याकरण रचिता पाणनि, शल्य चिकित्सा शास्त्री चरक, तथा नीतिज्ञ विष्णुगुप्त चाणक्य विश्विख्यात हैं। यह सभी अपने अपने ज्ञान क्षेत्रों मे यूनान तथा पाश्चात्य जगत के बुद्धि जीवियों के अग्रज थे। कुछ विश्वविख्यात विश्विद्यालय इस प्रकार थेः-

  • तक्षशिला – ईसा के जन्म से सात सौ वर्ष पूर्व विश्व का प्रथम विश्विद्यालय तक्षशिला में स्थापित किया गया था। यह हिन्दू स्नात्कों का अग्रगामी शैक्षिक प्रतिष्ठान था। सिकन्दर महान के समय से पूर्व ही यह चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐक  ख्याति प्राप्त केन्द्र था। तक्षशिला में 10500 स्नात्कों के रहने का प्रबन्ध था तथा वहाँ 60 प्रकार के विषयों मे उच्च शिक्षा की व्यव्स्था थी। मुख्यता धर्म, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विज्ञान, गणित, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, राजनीति तथा संगीत शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने हेतु  बेबीलोन, यूनान, इराक, अरब, ईरान, सीरिया तथा चीन के छात्र आते थे।
  • विक्रमशिला – मगद्ध में गंगा तट पर स्थित विक्रमशिला प्रतिष्ठान खगोल शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था। वहां 8000 शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष तक फलता रहा। महाकवि कालीदास नें वहाँ के प्रशिक्षण के बारे में उल्लेख किया है तथा वहाँ काण्व ऋषि प्रकख्यात प्राचार्य कुलपति (वाईस चाँसलर) थे। 
  • अजन्ता – अजन्ता प्रतिष्ठान कला तथा वास्तु शास्त्र के लिये विश्व विख्यात था तथा आज भी वहाँ की भव्य कला कृतियाँ प्रमाण स्वरूप दर्शनीय हैं।
  • नालन्दा – नालन्दा विशवविद्यालय की स्थापना ईसा के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी तथा भारत में शिक्षण क्षैत्र का यह ऐक अदिूतीय कीर्तिमान था। अपने जीवनकाल में महात्मा बुद्ध कई बार नालन्दा गये थे। सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ऐवम बुद्धिजीवी फाह्यान भी नालन्दा में ठहरे थे तथा उन्हों ने वहाँ के .योगियों के पवित्र, सरल, कुशल प्रशिक्षण पद्धति का विस्तरित वर्णन अपने उल्लेखों में दिया है। नालन्दा में लगभग 2000 शिक्षक तथा विश्व भर के समस्त बुद्ध देशों से 10000 शिक्षार्थी रहते थे और यह विश्व स्तर का प्रतिष्टान था। यहां के प्राचार्यों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुभान्दु, असंगा, स्थिरमति, धर्मपाल, शिल्प्हद्र, शान्तिदेव, तथा पद्मसम्भव जैसे प्रकाणड विदूान उल्लेखनीय हैं।
  • ओदान्तपुरी – ओदान्तपुरी विशवविद्यालय भी नालन्दा के निकट था जिसे महाराज गोपाल ने स्थापित किया था जहाँ 12000 शिक्षार्थी शिक्षा पाते थे। मुस्लिम आक्राँताओं ने इस के चारों ओर बनी ऊँची चार दिवारी के कारण विशवविद्यालय को दुर्ग समझ कर ध्वस्त कर दिया और स्नातकों तथा आचार्यों को मार डाला।
  • जगद्दाला – जगद्दाला विशवविद्यालय राजा देवपाल (810-850) ने स्थापित किया था जहाँ बुद्धमत की तान्त्रिक पद्धति की शिक्षा दीक्षा होती थी। 1027 में मुस्लिम आक्राँताओं ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
  •  वल्लभी – वल्लभी विशवविद्यालय में बौध ह्यीनयान मत के अतिरिक्त राजनीति, कृषि, अर्थशास्त्र, और न्याय शास्त्र के पाठ्यक्रम की शिक्षा का प्रावधान था। इसे मैत्रिका वंश के राजाओं ने स्थापित किया था।

 विश्व ज्ञान को योगदान

आज हम आक्सफोर्ड, कैमब्रिज और हारवर्ड आदि विश्वविद्यालयों के नाम से प्रभावित हो कर भूल जाते हैं कि भारत में उन से भी भव्य विश्वविद्यालय थे। गुप्त वँश के सम्राटों ने भी बहुत से शिक्षा प्रशिष्ठानों को संरक्षण दिया तथा सम्राट अशोक और हर्ष वर्द्धन ने भी अपने शासन काल में मोनास्टरियों को संरक्षण प्रदान किया था।

भारत के विश्वविद्यालयों का मानव ज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। वहाँ के स्नात्कों, आचार्यों तथा बुद्धिजीवियों ने विद्या, कला और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अमूल्य तथा मौलिक योग दान दिया है जिस का प्रयोग आधुनिक वैज्ञानिक मानव विकास के लिये आधुनिक तकनीक और उपक्रमों से कर रहे है। कला और विज्ञान के हर क्षेत्र से सम्बन्धित मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे जिन में से अधिकाँश आज भी उप्लब्द्ध तथा प्रासंगिक हैं।

 दुर्भाग्य से शिक्षा के कई महान संस्थान धर्मान्धता के कारण मुसलिम लुटेरों ने ध्वस्त कर दिये। उन्हों ने सभी मोनास्टरीयों को और शिक्षण परिष्ठानों को नष्ठ कर डाला था। नालन्दा विश्वविद्यालय को 1193 में बख्तियार खिलजी ने जला दिया था और वहाँ के सभी बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। उसी प्रकार अन्य विश्वविद्यालय विनाशग्रस्त हो गये। मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे ‘कुफर’ की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। आज नालन्दा विशवविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का विचार अवश्य ही सराहनीय है।  

चाँद शर्मा

10 – हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ


हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। हिन्दू धर्म ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है। यह प्रत्येक हिन्दू की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, या कुछ एक को, अथवा सभी को पड़े, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है। सारांश यह कि हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठना बाध्य नहीं है।

संक्षिप्त समझने के लिये हिन्दूओं की प्राचीन पुस्तकों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः –

  • यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ
  • महा काव्य तथा इतिहास
  • सामाजिक ग्रंथ

1.    यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ


चार वेद ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्व-वेद तथा साम वेद स्नातन धर्म के मूल ग्रंथ हैं जो किसी एक ग्रंथाकार ने नहीं लिखे, अपितु कई परम ज्ञानी ऋषि मुनियों के अनुसंधान तथा उन की अनुभूतियों के संकलन हैं। वैदिक ज्ञान ऋषियों पर ईश्वर कृपा से उसी प्रकार प्रगट हुआ था जैसे साधारण मानव कुछ लिखने के लिये जब ऐकाग्र हो कर विचार करते हैं तो विचार अपने आप ही प्रगट होने लगते हैं। इस अवस्था को ईश्वरीय प्रेरणा कहा जाता है।

हिन्दूओं की आस्था है कि वैदिक ज्ञान ऋषियों को लिपि के स्वरूप में प्राप्त हुआ था। हो सकता है ऐसा विशवास किसी को अटपटा भी लगे किन्तु आज के युग में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कम्पयूटरों के माध्यम से साधारण मानव भी सम्पादित लेख लिपि की शक्ल में एक साथ कई स्थानों पर भेज सकते हैं तथा उस का छपा हुआ संस्करण प्राप्त भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटरों का साईज़ भी दिन प्रति दिन छोटा होता जा रहा है। टच स्क्रीन पर तो केवल छू कर ही वाँच्छित ज्ञान फारमेटिड रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अतः वैदिक ऋषियों को यदि लिपि के स्वरूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था तो यह अविशवास की बात भी नहीं। तकनीक बदलती रहती है लेकिन कानसेप्ट तो आज भी वही है। कुछ और समय पश्चात हिन्दूओं की वैदिक आस्था अपने आप ही और स्पष्ट हो जाये गी क्यों कि सर्व शक्तिमान ईश्वर के शब्द कोष में वैज्ञयानिकों वाला असम्भव शब्द नहीं होता।

वैदिक ज्ञान पहले तो श्रुति के रूप में गुरू-शिष्य सम्पर्क से वितरित होता रहा, पश्चात मर्हृषि वेद व्यास ने उस ज्ञान को लिखित रूप में संकलित किया। लिखित ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। कमप्यूटर की भाषा में आज कल वेद हार्ड कापी में भी उपलब्द्ध हैं।

वैदिक ज्ञान केवल अध्यात्मिक ही नहीं अपितु उन सभी विषयों के बारे में था जो जीवन को प्रभावित करते हैं। वेदों में भौतिक, रसायन, राजनीति, कला-संस्कृति तथा अन्य कई विषय़ों पर मौलिक ज्ञान संचित है जो ऋषियों ने निजि अविष्कारिक यत्नों तथा अनूभूतियो सें संचित किया था। यह ज्ञान सूत्रों में उपलब्ध कराया गया है। आज की भाषा के एक्रोनिम्स की तरह सूत्रों की शैली सूक्ष्म होती है तथा स्मर्ण रखने के लिये सहायक होती है। किन्तु सूत्रों को विस्तार से पुनः व्याख्या कर के समझना पड़ता है।

वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औषधियों को सम्बोधन कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग कालान्तर अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जान कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था। संक्षेप में चार वेदों का मुख्य विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैः –

  • ऋगवेद ऋगवेद में अध्यात्मिक (स्पिरचुअल), मौलिक ज्ञान (फन्डामेंटल साईंस), विज्ञान (एप्लाईड साईंस), सृष्टि का भौतिक ज्ञान ( एस्ट्रो-फिज़िक्स) तथा प्रशासनिक (गवर्नेंस) आदि विषय वर्णित हैं।
  • यजुर्वेद यजुर्वेद में संसारिक, सामाजिक नीतियों, परम्पराओं, अधिकारों तथा कर्तव्य़ों की मौलिक रूप रेखा है। ऐक प्रकार से यह प्रोसीजुरल विषयों का ग्रंथ है।
  • साम वेद सामवेद में आराधना, दार्शनिक्ता, योग ज्ञान, तथा कलात्मिक विषय जैसे कि संगीत आदि वर्णित हैं।
  • अथर्व-वेद अथर्व वेद में चिकित्सा तथा शरीर सम्बन्धी विषय वर्णित हैं।

उप वेद प्रत्येक वेद के एक या एक से अधिक कई उप वेद हैं जिन में मूल अथवा अन्य विषयों पर अतिरिक्त ज्ञान है। उप वेदों के अतिरिक्त छः वेद-अंग भी हैं जो वेदों को समझने में सहायक हैं।

उपनिष्द – वेदों के संकलन के पश्चात भी कई ऋषियों ने  अपनी अनुभूतियों से ज्ञान कोष में वृद्धि की है। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना तथा उस में संशोधन भी किया है। इस प्रकार के ज्ञान को उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित किया गया है। उपनिष्दों की मूल संख्या लग भग 108 – 200 तक थी, किन्तु यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं की धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिया गया था। आज केवल 10 उपनिष्द ही उपलबद्ध हैं।

षट-दर्शन सृष्टि के आरम्भ से ही मानव निजि पहचान, सृष्टि, एवं सृष्टि कर्ता के बारे में जिज्ञासु रहा है और उन से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर ढूंडता रहा है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों की खोज ने ही हिन्दू आध्यात्मवाद की दार्शनिक्ता को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने अपनी अन्तरात्मा में झांका तथा सूक्ष्मता से गूढ मंथन कर के तथ्यों का दर्शन किया। प्रथक – प्रथक ऋषियों ने जो संकलन किया था उसी के आधार पर छः प्रमुख विचार धाराओं को षट-दर्शन कहा जाता है, जो भारतीय दार्शनिक्ता की अमूल्य धरोहर हैं। दर्शन शास्त्रों में बहुत सी समानतायें हैं क्योकि उन का मूल स्त्रोत्र उपनिष्द ही हैं।

2.    महा काव्य तथा इतिहास

प्राचीन काल में कवि ही महाकाव्यों के माध्यम से इतिहास का संरक्षण भी करते थे। भारत में कई महाकाव्य लिखे गये हैं। उन में रामायण तथा महाभारत का विशेष स्थान है। क्योंकि रामायण तथा महाभारत ने भारत के जन जीवन तथा उस की विचार धारा को अत्याधिक प्रभावित किया है।

रामायण – रामायण  की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की है तथा यह विश्व साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महा काव्य है। रामायण की कथा भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा है। राम का चरित्र कर्तव्य पालन में एक आदर्श पुत्र, पति, पिता तथा राजा के कर्तव्य पालन का प्रत्येक स्थिति के लिये एक कीर्तिमान है।  महा काव्य में केवल राम का पात्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का है और रामायण के अन्य पात्र मानव गुणों तथा अवगुणों की दृष्ठि से सामान्य हैं। वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा ले कर कई कवियों ने राम कथा पर महाकाव्यों की रचना की जिन में से गोस्वामी तुलसीदास कृत हिन्दी महा काव्य राम चरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय है। रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही एकमात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है। रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है तथा भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो।

महाभारतमहाभारत विश्व साहित्य का सब से विस्तरित ऐतिहासिक महाकाव्य है। मुख्यतः इस ग्रंथ में भारत के कितने ही वंशों की कथा को पिरोया गया है जो तत्कालित समय की घटनाओं तथा जीवन शैली का चित्रण करता है। इस महाकाव्य में हर पात्र मुख्य कथानक में निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ता है तथा मानव जीवन की उच्चता और नीचता को दर्शाता है। रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। रामायण और महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। जहाँ रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्र में विचरता है वहीं महाभारत का पटाक्षेप समस्त भारतवर्ष में फैला हुआ है। इस से प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक विस्तर्ति राष्ट्र था।

पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाओं में भी हिन्दू धर्म के विकास को भारत के राजनौतिक इतिहास तथा जन-जीवन की कथाओं के साथ संजोया गया है। पौराणिक कथायें देवी-देवताओं, महामानवों तथा जन साधारण के परस्पर सम्पर्कों का अदभुत मिश्रण हैं। कुछ कथायें यथार्थ में घटित एतिहासिक हैं तथा कुछ को बढा चढा कर भी दिखाया गया हैं। भारत का प्राचीन इतिहास आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अतः उस को पुनः ढूंडने के लिये पौराणिक इतिहास को आधार बना कर अन्य लिखित एतिहासिक कृतियों से तुलनात्मिक आंकलन किया जा सकता है। यदि हम पौराणिक कथाओं को इतिहास ना भी माने तो भी वह अपने आप में ऐक अमूल्य साहित्यक धरोहर हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिये।

3.    सामाजिक ग्रंथ

सामाजिक जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर कई मौलिक तथा विस्तरित ग्रंथ उपलब्ध हैं जैसे कि आयुर्वेद, व्याकरण, योग शास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि। उन सभी का वर्णन इस समय प्रासंगिक नहीं अतः केवल दो ही ग्रंथों को संक्षेप में यहाँ वर्णित किया है जिन्हों ने ना केवल भारतीय जीवन को अपितु समस्त विश्व के मानव जीवन को अत्याधिक प्रभावित किया है।

श्रीमद् भागवद् गीता मानव जीवन के हर पहलू से जुड़ी श्रीमद् भागवद् गीता सब से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथ है जो आज भी हर परिस्थिति में अपनाने योग्य है। गीता समस्त वैदिक तथा उपनिष्दों के ज्ञान का सारांश है तथा सहज भाषा में कर्तव्यपरायणता की शिक्षा देती है। यदि कोई किसी अन्य ग्रंथ को ना पढ़ना चाहे तो भी पूर्णतया सफल जीवन जीने के लिये केवल गीता की दार्शनिक्ता ही पर्याप्त है।

मनु स्मृति – मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं और संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्ष्म ग्रंथ अन्य. किसी भाषा में नहीं है।

हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को सभ्यता का अग्रज तथा विश्व गुरू माना जाता है।  किन्तु आज अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम पद्धति से पढ़े लिखे भारतीय युवाओं को अज्ञान के कारण अपने पूर्वजों पर गर्व और विशवास नहीं, और अपने आप पर भरोसा और साहस भी नहीं कि वह इस अनमोल विरासत को पुनः विश्व पटल पर सुशोभित कर सकें। वह मानसिक तौर पर प्रत्येक तथ्य को पाश्चात्य मापदण्डों से ही प्रमाणित करने के इतने ग़ुलाम हो चुके हैं कि मौलिक ग्रन्थ को अंग्रेज़ी प्रतिलिपि के आघार पर ही प्रमाणित करने की माँग करते हैं।

चाँद शर्मा

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