हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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51 – अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण


आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे  ‘बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख 

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी  के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन  के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। 

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक –स्टोन्सकी संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी। 

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है। 

महाभारत के आलेख

इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट  था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर  के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…” 

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स  को हीटसीकिंग और साऊडसीकरस  कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी

प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख भी किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तरित उल्लेख है। इसी प्रकार ऐक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अशविन वैज्ञानिक के साथ युद्ध का वर्णन है जिस से भारत के तत्कालित अन्तरीक्ष ज्ञान तथा एन्टी  –ग्रेविटी  तकनीक के बारे में जागृति का आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जब कि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था। रामायण में हनुमान की उडान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है

       “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।।    (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि…  तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।।(64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महा कपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)…  तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनि निष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)

       “जिस समय वह कूदे, उस समय उन के वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्ष  उखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश  में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब  गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मत से दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए  साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”  

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता है कि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं  कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चात इस का पाठक यह अर्थ निकालें कि ओबामा  वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के  अज्ञान को आप क्या कहैं गे ?

राजस्थान से भी

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव  राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?

भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन में से कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफ ओ (अन आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है कि सभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन  के थ्रिल्लर – राईटर  नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार 

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है। उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञान होना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है। 

कंसेप्ट का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट  को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स  का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे। यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखक का तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है। 

बज़बम

पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्ष पश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।

जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्व प्रथम बज़ बमों के लिये पल्स –जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह ऐक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी। 

तिलिसम नहीं यथार्थ

ऐक वर्ष पूर्व 2009 तक पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर ऐक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये ऐक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया।

इस के कुछ समय पश्चात ऐक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन  से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।

सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।

हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम

आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखते हैं जिसे आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गया है वह भी हो सकता है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

जो विदेशी पर्यटक भारत आ कर चरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं। 

य़ह आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं। 

चाँद शर्मा

31 – उच्च शिक्षा के संस्थान


हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय हिन्दू जीवन में जिज्ञासा को स्दैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

ज्ञान अर्जित की परिक्रिया

प्राथमिक ज्ञान माता-पिता के संरक्षण और घर के वातावरण में यम-नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्मों से शुरू होता था।

गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे कि पहले से रजिस्ट्रेशन कर के गुरू मन्त्र शिष्यों कान में पढे जायें ताकि कोई दूसरा उसी अच्छी बात को सुन ना ले। ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे। गुरू अपने शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।

ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे इकठ्ठे करना नहीं होता था बल्कि विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –

  • श्रृवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर गृहण करना,
  • मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
  • निद्यासना – ज्ञान को जीवन में क्रियात्मिक करना।

दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।

  • जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था।
  • जो दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
  • इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था। 

स्नात्कों का सम्मान

विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों में प्रमाणपत्र देने का रिवाज उस समय नहीं था, परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण थाः-

  • ‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
  • ‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
  • ‘आदित्य’ -44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।

आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कह सकते हैं। कालान्तर वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क टूट गया। 

ज्ञान की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता

वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महाकाव्यों के अतिरिक्त भारत में विद्या पढने पढाने का प्रावधान वैदिक काल से ही सक्षम मापदण्डों के आधार पर स्थापित हो चुके थे। जिस समय पृथ्वी के अन्य भागों में सभ्यता वनों से गाँवों की ओर जाने का केवल प्रयत्न मात्र ही कर रही थी उस समय से पूर्व भारत के ऋषि मुनियों, अशविनों (वैज्ञानिको) तथा बुद्धिजीवियों ने धरती को माप लिया था। उस से भी आगे उन्हों ने वर्ष को मासो, ऋतुओं, पखवाडों, दिवसों, पलों एवम विपलों (नेनो सैकिण्डों) में बाँट लिया था और आज का विज्ञान उन्हीं खोजों की पुष्टि मात्र ही कर रहा है। वेद ज्ञान केवल अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान ही नहीं है बल्कि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। ऋगवेद के कथन अनुसार विज्ञान के ज्ञान तथा उस के प्रत्यक्ष क्रियात्मिक प्रयोग के बिना दारिद्रता को समृद्धी में बदलना असम्भव है।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व ऐलोपैथी नाम का कोई विज्ञान विश्व में नहीं था परन्तु आयुर्वेद पद्धति से जटिल रोगों का भी  सफल उपचार होता था। जब विश्व की अन्य मानव जातियों को पृथ्वी के महादूीपों और महासागरों के बारे में ही पूर्ण जानकारी नहीं थी और वह जानवरों की खाल पहन कर खोह और गुफाओं में रहते थे और केवल मांसाहार पर ही निर्भर हो कर डार्क ऐज में जीवन व्यतीत कर रही थी तब भी वैदिक ज्ञान की पूर्णत्या वैज्ञिानिक धारणाओं के प्रमाण लिखित रूप में भारत को ज्ञात थे, उदाहरण स्वरूप जैसे किः-

  • सूर्य कभी उदय नहीं होता ना ही वह अस्त होता है। पृथ्वी सूर्य की परिकर्मा करती है जिस से सूर्योदय तथा सूर्यास्त का आभास होता है। (सामवेद 121)
  • सौर मण्डल के ग्रहों में आपसी ध्रुवाकर्षण के कारण पृथ्वी स्थिर रहती है  (ऋगवेद 1-103-2,1-115-4, 5-81-2)
  • पृथ्वी की धुरी को कभी ज़ंग नहीं लगता जिस पर पृथ्वी सदा घूमती रहती है। (ऋगवेद 1-164 – 29)
  • ऋगवेद में समय की गति का कालचक्र दिया गया है तथा भौतिक ज्ञान, कृषि विज्ञान, खगोल शास्त्र, गणित और अंक गणित का विवर्ण है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ग, चौदह भवनों, लोकों तथा छः महादूीपों, चार महासागरों का वर्णन मिलता है जो आज प्रत्य़क्ष रूप मे विद्मान हैं। भारत के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य की परिकर्मा के मार्ग को पहचाना, अन्य गृहों की गति की विस्तरित तथा प्रमाणित जानकारी दी और उन के पृथ्वी पर पडने वाले प्रभावों का आंकलन कर के उस ज्ञान को मानव के दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड दिया था।

प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों मे नव गृहों का आवाहन कर के उन को पूजित करना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि प्राचीन खगोल शास्त्री हमारे सौर मण्डल के सभी गृहों की गति, दशा, मार्ग और उन के प्रभाव को ना केवल जानते थे बल्कि उन के दुष्प्रभाव को दूर करने के उपाय भी विभिन्न प्रकार के रत्नों से करने में सक्षम थे। समस्त संसार में राशि चक्रों (ज़ोडेक साईन) का जो चित्रण भारत की जन्त्ररियों में देखने को उपलब्द्ध है वही आँकडे (डाटा) नासा की स्टार अलामेनिक में भी आज छपते हैं।

भारत के विशेषज्ञ्यों ने पदार्थों की भौतिकता, पशु पक्षियों की पैत्रिक श्रंखला, और वनस्पतियों तथा उन के बीजों का भी पूर्ण आँकलन किया था। वाल्मिकि रामायण में सभी जीवों की उत्पति तथा श्रंखला का विवरण दिया गया है जो पूर्णत्या विवेक संगित है और डारविन को भी अपनी खोज पर पुनः विचार करने की सलाह दे सकता है।

विज्ञान, चिकित्सा, तथा गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत की देन अदिूतीय है। भाषा, व्याकरण, धातु ज्ञान, रसायन, तथा मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत का योगदान सर्वाधिक है। यह तथ्य उस काल के हैं जब यूनान के दार्शनिक अरस्तु (एरिस्टोटल), सुकरात (सोक्रेटस), अफलातून (प्लेटो) आदि पैदा भी नहीं हुये थे लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार में उन्हें ही आधुनिक ज्ञान विज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है। .           

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान

प्राचीन भारत में शिक्षा के संस्थानों को गुरुकुल, आश्रम, विहार तथा परिष्द के नाम से जाना जाता था। ऐसे संस्थान देश भर में फैले हुये थे। राज तन्त्र की सहायता से विद्यार्थियों को बिना शुल्क परिशिक्षण तथा रहवास की सुविधायें प्राप्त थीं। उच्च शिक्षा के लिये तक्षशिला, काशी, विदर्भ, अजन्ता, नालन्दा, तथा विक्रमशिला (मगद्ध) में विश्विद्यालय थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। उच्च कोटि के आचार्यों, शिक्षकों, स्नातकों के नाम इन विश्वविद्यालयों से जुडे हुये हैं जिन में से व्याकरण रचिता पाणनि, शल्य चिकित्सा शास्त्री चरक, तथा नीतिज्ञ विष्णुगुप्त चाणक्य विश्विख्यात हैं। यह सभी अपने अपने ज्ञान क्षेत्रों मे यूनान तथा पाश्चात्य जगत के बुद्धि जीवियों के अग्रज थे। कुछ विश्वविख्यात विश्विद्यालय इस प्रकार थेः-

  • तक्षशिला – ईसा के जन्म से सात सौ वर्ष पूर्व विश्व का प्रथम विश्विद्यालय तक्षशिला में स्थापित किया गया था। यह हिन्दू स्नात्कों का अग्रगामी शैक्षिक प्रतिष्ठान था। सिकन्दर महान के समय से पूर्व ही यह चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐक  ख्याति प्राप्त केन्द्र था। तक्षशिला में 10500 स्नात्कों के रहने का प्रबन्ध था तथा वहाँ 60 प्रकार के विषयों मे उच्च शिक्षा की व्यव्स्था थी। मुख्यता धर्म, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विज्ञान, गणित, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, राजनीति तथा संगीत शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने हेतु  बेबीलोन, यूनान, इराक, अरब, ईरान, सीरिया तथा चीन के छात्र आते थे।
  • विक्रमशिला – मगद्ध में गंगा तट पर स्थित विक्रमशिला प्रतिष्ठान खगोल शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था। वहां 8000 शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष तक फलता रहा। महाकवि कालीदास नें वहाँ के प्रशिक्षण के बारे में उल्लेख किया है तथा वहाँ काण्व ऋषि प्रकख्यात प्राचार्य कुलपति (वाईस चाँसलर) थे। 
  • अजन्ता – अजन्ता प्रतिष्ठान कला तथा वास्तु शास्त्र के लिये विश्व विख्यात था तथा आज भी वहाँ की भव्य कला कृतियाँ प्रमाण स्वरूप दर्शनीय हैं।
  • नालन्दा – नालन्दा विशवविद्यालय की स्थापना ईसा के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी तथा भारत में शिक्षण क्षैत्र का यह ऐक अदिूतीय कीर्तिमान था। अपने जीवनकाल में महात्मा बुद्ध कई बार नालन्दा गये थे। सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ऐवम बुद्धिजीवी फाह्यान भी नालन्दा में ठहरे थे तथा उन्हों ने वहाँ के .योगियों के पवित्र, सरल, कुशल प्रशिक्षण पद्धति का विस्तरित वर्णन अपने उल्लेखों में दिया है। नालन्दा में लगभग 2000 शिक्षक तथा विश्व भर के समस्त बुद्ध देशों से 10000 शिक्षार्थी रहते थे और यह विश्व स्तर का प्रतिष्टान था। यहां के प्राचार्यों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुभान्दु, असंगा, स्थिरमति, धर्मपाल, शिल्प्हद्र, शान्तिदेव, तथा पद्मसम्भव जैसे प्रकाणड विदूान उल्लेखनीय हैं।
  • ओदान्तपुरी – ओदान्तपुरी विशवविद्यालय भी नालन्दा के निकट था जिसे महाराज गोपाल ने स्थापित किया था जहाँ 12000 शिक्षार्थी शिक्षा पाते थे। मुस्लिम आक्राँताओं ने इस के चारों ओर बनी ऊँची चार दिवारी के कारण विशवविद्यालय को दुर्ग समझ कर ध्वस्त कर दिया और स्नातकों तथा आचार्यों को मार डाला।
  • जगद्दाला – जगद्दाला विशवविद्यालय राजा देवपाल (810-850) ने स्थापित किया था जहाँ बुद्धमत की तान्त्रिक पद्धति की शिक्षा दीक्षा होती थी। 1027 में मुस्लिम आक्राँताओं ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
  •  वल्लभी – वल्लभी विशवविद्यालय में बौध ह्यीनयान मत के अतिरिक्त राजनीति, कृषि, अर्थशास्त्र, और न्याय शास्त्र के पाठ्यक्रम की शिक्षा का प्रावधान था। इसे मैत्रिका वंश के राजाओं ने स्थापित किया था।

 विश्व ज्ञान को योगदान

आज हम आक्सफोर्ड, कैमब्रिज और हारवर्ड आदि विश्वविद्यालयों के नाम से प्रभावित हो कर भूल जाते हैं कि भारत में उन से भी भव्य विश्वविद्यालय थे। गुप्त वँश के सम्राटों ने भी बहुत से शिक्षा प्रशिष्ठानों को संरक्षण दिया तथा सम्राट अशोक और हर्ष वर्द्धन ने भी अपने शासन काल में मोनास्टरियों को संरक्षण प्रदान किया था।

भारत के विश्वविद्यालयों का मानव ज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। वहाँ के स्नात्कों, आचार्यों तथा बुद्धिजीवियों ने विद्या, कला और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अमूल्य तथा मौलिक योग दान दिया है जिस का प्रयोग आधुनिक वैज्ञानिक मानव विकास के लिये आधुनिक तकनीक और उपक्रमों से कर रहे है। कला और विज्ञान के हर क्षेत्र से सम्बन्धित मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे जिन में से अधिकाँश आज भी उप्लब्द्ध तथा प्रासंगिक हैं।

 दुर्भाग्य से शिक्षा के कई महान संस्थान धर्मान्धता के कारण मुसलिम लुटेरों ने ध्वस्त कर दिये। उन्हों ने सभी मोनास्टरीयों को और शिक्षण परिष्ठानों को नष्ठ कर डाला था। नालन्दा विश्वविद्यालय को 1193 में बख्तियार खिलजी ने जला दिया था और वहाँ के सभी बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। उसी प्रकार अन्य विश्वविद्यालय विनाशग्रस्त हो गये। मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे ‘कुफर’ की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। आज नालन्दा विशवविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का विचार अवश्य ही सराहनीय है।  

चाँद शर्मा

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