हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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21 – जीवन के चरण


सामान्य जीवन काल की अवधि ऐक सौ वर्ष मानते हुये ऋषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार भागों में विभाजित किया है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। प्रत्येक आश्रम की अवधि पच्चीस वर्ष है तथा उन के क्रमशः नाम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम हैं। इन के वर्गीकरण का आधार पूर्णत्या प्राकृतिक है जो शरीरिक विकास के तथ्यों से प्रमाणित होजाता है। यौन अंगों का विकसित होना और फिर शिथिल हो जाना, बालों का पकना या झड़ जाना, शरीर में उत्साह तथा शक्ति का क्षीण होने लगना आदि जीवन के व्यतीत होते चरणों का प्रत्यक्ष आभास है। आज भले ही आश्रमों के नाम बदले गये हों परन्तु समस्त विश्व में आज भी सभी सभ्य मानव इसी हिन्दू आश्रम पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं और करते रहैं गे।

ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जन्म से ले कर जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु तक का समय विध्यार्थी जीवन माना गया है जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति काल जन्म से ही आरम्भ हो जाता है जब नवजात अपने चारों ओर के वातावरण को, माता-पिता, सम्बन्धियों, और पशु-पक्षियों को पहचानने लगता है। बाल्य काल आरम्भ होने पर औपचारिक शिक्षा के लिये गुरुकुल विद्यालय जाता है। शिक्षा क्रम सामान्यता पच्चीस वर्ष की आयु तक  चलता रहता है।

विध्यार्थी जीवन का मुख्य लक्ष्य चरित्र निर्माण, ज्ञान अर्जित करना तथा जीवन में आने वाली ज़िम्मेदारियों को झेलने की क्षमता प्राप्त करना है। सफलता तभी मिल सकती है जब विध्यार्थी अधिक से अधिकतर जीवन में काम आने वाली कलाओं – कौशलों में निपुण हो, अच्छी आदतों तथा विचारों से बलवान शरीर तथा स्थिर बुद्धि का विकास करे, और अपने मनोभावों तथा इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का निरन्तर अभ्यास करे। अगामी पच्हत्तर वर्ष के जीवन की नींव विध्यार्थी जीवन में ही पड़ती है। यदि कोई इस काल में कठिनाईयों को झेलने की क्षमता अर्जित नहीं करता तो उस का अगामी जीवन कष्टप्रद ही रहेगा। इसी लिये विध्यार्थी जीवन में कठिनाईयों का सामना करने की क्षमता अत्याधिक विकसित करनी चाहिये।

जीवन के आदर्शों तथा संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के लिये, ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि विध्यार्थी इस काल के दैनिक जीवन में निम्नलिखित आदतों को अपनायेः-

  • भोजन वस्त्र तथा रहन-सहन में सादगी और प्राकृतिक जीवन शैली।
  • ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासात्मिक द़ृष्टिकोण और कठोर परिश्रम का संकल्प,
  • सकारात्मक आदर्शवादी विचारधारा और कर्मशील व्यक्तित्व,
  • स्वच्छ विचारों के साथ स्वस्थ एवं बलवान शरीर,
  • हर प्रकार के नशीले पदार्थों के सेवन से मुक्ति,
  • नकारात्मिक विचारों, आदतों, आचर्णों तथा भाषा का बहिष्कार,
  • गुरुजनो और आयु में बड़ों के प्रति आदरभाव तथा मित्रों के प्रति सद्भाव और संवेदनशीलता, तथा
  • निजि जीविका उपार्जन के लिये व्यवसायिक ज्ञान में दक्षता और निपुणता की प्राप्ति।

गृहस्थ आश्रम वैवाहित नागरिक

प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जीवन के अगामी पच्चीस वर्ष से पचास वर्ष तक की आयु का समय गृहस्थ आश्रम है जिस में उन्हें वैवाहित नागरिक की तरह रहना चाहिये। हिन्दूओं को मानव जीवन किसी पाप अथवा किसी ईश्वरीय अविज्ञा के फलस्वरूप नहीं मिलता अपितु उन के पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप है। अतः किसी हिन्दू को अपने जन्म के कारण अपने माता पिता के लिये शर्मिन्दा होने की कोई ज़रुरत नहीं। उल्टे हिन्दू समाज में तो अवैवाहितों तथा संतान हीनों को अप्राकृतिक एवं अपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है। प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है कि वह ईश्वर की सृष्टि कि निरन्तरता बनाये रखने में अपना योगदान दे। अपनी संतान उत्पन्न कर के उस का समाज हित के लिये पालन पौषण और परिशिक्षित करे। इस उत्तरदाईत्व को निभाने के लिये धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन भी करे। हिन्दू समाज में ब्रह्मचार्यों और सन्यासियों की तुलना में राम और कृष्ण जैसे आदर्श गृहस्थियों की पूजा की जाती है।

जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करने के बजाये गृहस्थाश्रम निभाना उत्तम और प्राकृतिक है। चाहैं कोई कितना भी महान ऋषिपद पा ले परन्तु यदि उस ने गृहस्थ धर्म नही निभाया तो कई बार प्राकृति ही उस स्त्री-पुरुष को दण्डित करती है और उन की कीर्ति को नष्ट कर देती है। ऐसे पुरुष और महिलायें आप्रकृतिक और निक्रिष्ट जीवन ही जीते हैं और जीवन भर स्वार्थी तथा ईर्शालु ही रहते हैं। करोडों की संख्या में से कोई ऐक ही अपवाद मिल सकता है साधारणत्या बिलकुल ही नहीं।

गृहस्थ आश्रम हिन्दू समाज की आधारशिला है जिस के सहारे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम तथा पर्यावरण के सभी अंग निर्वाह करते हैं। ऐकान्त स्वार्थी जीवन जीने के बजाये मानवों को गृहस्थियों का तरह अपने कर्मों दूारा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये पाँच दैनिक यज्ञ करने चाहियें। हिन्दू समाज की इस प्राचीन परम्परा को विदेशों में भी औपचारिक तौर पर वर्ष में एक दिन निभाया जाता है, किन्तु भारतीय अपनी परम्पराओं को पहचानने के बजाय समझते हैं कि यह प्रथायें विदेशों से आई हैं।

  1. पर्यावरण के लिये देव यज्ञ – प्रत्येक प्राणी प्रतिदिन प्रकृति से कुछ ना कुछ लेता है अतः सभी का कर्तव्य है कि जो कुछ लिया है उस की ना केवल भरपाई की जाये अपितु प्रकृतिक संसाधनों में वृद्धि भी की जाये। पेड़-पौधों को जल, खाद देना तथा नये पेड़ लगाना और इसी प्रकार के अन्य कार्य  इस क्षेत्र में आते हैं। वर्ष में एक अन्तर्राष्टीय पर्यावरण दिवस (इन्टरनेशनल एनवायर्मेन्ट डे) मनाने का आडम्बर करने के बजाये र्यावर्ण संरक्षण के लिय प्रत्येक गृहस्थी को नित्य स्वेच्छा से योगदान देना चाहिये।
  2. पूर्वजों के लिये पितृ यज्ञ हिन्दू समाज में अपने से आयु में बड़ों का स्दैव सम्मान किया जाता है। वर्तमान पीढ़ी के पास आज जो भी सुविधायें हैं वह सब पूर्वजों ने प्रदान की हैं। वर्तमान पीढ़ी तो आगे आने वाली पीढ़ी के लिये उन्ही सुविधाओं में केवल सुधार या वृद्धि करे गी। इसलिये वर्तमान पीढ़ी का दाईत्व है कि वह अपने पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञ्यता स्दैव प्रगट करती रहै तथा अपने माता पिता तथा अन्य बज़ुर्गों की देख भाल और सहायता करे। इसी धन्यवाद की कृतज्ञ्यता भरी परम्परा को विदेशों में ‘थैंक्स गिविंग डे कहा जाता है।
  3. गुरू जनों के लिये ब्रह्म यज्ञ गुरुजनों को आदर सत्कार देना भारतीय समाज की  पुरानी परम्परा है। गुरु जन जिज्ञासु विद्यार्थियों को विद्या दान देते थे। उसे आज की तरह बेचते नहीं थे। गृहस्थियों का कर्तव्य है कि वह अपने आस पास के गुरुजनों, बुद्धिजीवियों की निजि आवश्यक्ताओं की आदर पूर्वक पूर्ति करें क्योंकि जिस विद्या के सहारे गृहस्थी जीविका कमाते हैं वह गुरुजनों ने उन्हें दानस्वरूप दी थी, बेची नहीं थी। यदि बुद्धिजीवी और गुरुजन भी अपनी जीविका कमाने में लगे रहें गे तो नये अविष्कारों के लिये समय कौन निकाले गा ? बुद्धिजीवी होने के कारण ही ब्राह्मणों का सदा सम्मान किया जाता था तथा उन्हें जीविका के लिये आदर सहित दान दिया जाता था। उस दान को भिक्षा नहीं कहा जाता था बल्कि दक्षिणा (पर्सनल ऐक्सपर्टाईज फीस) कहा जाता था। इस के अतिरिक्त गृहस्थियों को शिक्षिण केन्द्रों तथा विद्यालयों के लिये भी दान करना चाहिये। आजकल इसी प्रथा का भृष्ट रुप ‘एडमिशन डोनेशन तथा साल में एक दिन ‘टीचर्स डे मनाना है।
  4. समाज के लिये नरि यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य समाज तथा मानव कल्याण है। इस यज्ञ में अपने आस पास स्वच्छता और सुरक्षा रखना, समाज में भाईचारे को बढ़ावा देना तथा त्यौहारों को सामूहिक तौर से मनाना आदि शामिल है जिस से समाज में सम्वेदन शीलता, सदभावना, कर्मनिष्ठा तथा देशप्रेम को बढ़ावा मिलता है। विदेशों में इसे ‘सोशल सर्विस डे कहा जाता है। भारत में आजकल इसी का विकृत रूप किट्टी पार्टी तथा नेताओं के उदघाटन समारोह हैं।
  5. पशु पक्षियों के लिये भूत यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य पशु-पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति संवेदनशीलता रखना है। भारत में  कुछ समृद्ध लोग पशुओं के लिये पियाऊ आदि लगवाते थे परन्तु आज कल कई पशु पक्षी प्यासे ही मर जाते हैं। बीमार तथा घायल जीवों के लिये चिकित्सालय बनवाना भी मानवों की जिम्मेदारी है क्यों कि हम ने पशुपक्षियों के आवास उन से छीन लिये हैं। विदेशियों ने तो पालतु जानवरों को छोड़ कर अन्य जानवरों का सफाया ही कर दिया है किन्तु गर्व की बात है कि भारत में अब भी कुछ लोग चींटियों और पक्षियों के लिये आनाज के दाने बिखेरते देखे जा सकते हैं।

वानप्रस्थ आश्रम – वरिष्ठ नागरिक

पचास वर्ष से पच्हत्तर वर्ष तक की आयु का समय वानप्रस्थ आश्रम है। वरिष्ठ नागरिकों के लिये यह निवृत जीवन है तथा सभी देशों में लगभग इसी तरह का प्राविधान है। यह वह समय है जब स्वेच्छा से वर्तमान पीढ़ी आगामी पीढ़ी को गृहस्थियों की जिम्मेदारी दे कर मुक्त होती है तथा युवा संतान कार्यभार सम्भालना आरम्भ कर देती है। वरिष्ठ पीढ़ी अपना समय पौत्रों का नैतिक, मानसिक तथा संस्कारिक  प्रशिक्षण करने में व्यतीत करती है। इस के अतिरिक्त यह समय स्वाध्याय, आत्म चिन्तन और जीवन के आधे अधूरे लक्ष्यों को पूरा करने का होता है। जीवन का यह काल वर्तमान पीढ़ी को भूत काल तथा भविष्य काल से जोड़ने का सेतु है। अतः वानप्रस्थ आश्रम में मानव को निम्नलिखित उत्तरदाईत्व निभाने चाहियें –

  • निजि जीवन में संचति किये सकारातमिक अनुभवों को युवाओं के आग्रहनुसार उन के साथ बाँटना तथा उन का मार्ग दर्शन करना।
  • पौत्रों का नैतिक, मानसिक तथा संस्कारिक  प्रशिक्षण करना तथा उन को अच्छी आदतें सिखाना।
  • अपने अहम का शमन करना तथा आडम्बर रहित जीवन जीना।
  • ऩिजि अपेक्षाओं तथा आवश्यक्ताओं को स्वेच्छा से त्यागना।
  • अपने व्यक्तित्व में काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पर पूर्ण नियन्त्रण करना।
  • युवा गृहस्थियों की दैनिक जिम्मेदारियों तथा यज्ञों में उन के आग्रहनुसार सहायता करना।

सन्यास आश्रम निवृत जीवन

जीवन का अन्तिम चरण संन्यास आश्रम है। यदि जीवन सफल रहा है तो मानव में कोई अतृप्त कामना शेष नहीं रहती। इसीलिये यह काल मोक्ष का प्राप्ति की अन्तिम पादान है। प्रचीन काल में संन्यासी अन्तरमुखी हो कर यह समय वनवास में बिताया बिताते थे। अपनी पिछली छवि और यादें स्वेच्छा से ही मिटा कर नया नामकरण कर लेते थे। अपने अहम को मिटाने के लिये उन्हें दर्पण भी देखना वर्जित था।

आजकल भी कुछ लोग ‘रिटायरमेंट होम में स्वेच्छा से चले जाते हैं और कई संतान दूआरा भी ‘ओल्ड होम्स में भेजे जाते हैं। उचित तो यह है कि 75 वर्ष की आयु होने पर उन्हें अपनी उपाधियाँ, उपलब्धियाँ, पदवियाँ तथा समृद्धि का प्रदर्शन स्वयं ही त्याग देना चाहिये किन्तु ऐसा बहुत कम ही लोग कर पाते है। राजनेता तो इस का पूर्ण अपवाद हैं।

आज के संदर्भ में जरूरी नहीं कि सभी को घर बार छोड कर वनों, पर्यटक स्थलों, सागर तटों अथवा पर्वत स्थलों पर वातानुकूलित कुटिया बनवा कर या फुटपाथों पर अतिकर्मण कर के सन्यासी जीवन प्रारम्भ करना चाहिये। सन्यास ऐक मनोस्थिति है ना कि भौतिक दशा। मानसिक सन्यास वर्तमान घर की चार दिवारी में लेना अधिक उपयुक्त होगा। सन्यास आश्रम में निम्नलिखित कार्य करने चाहियें –

  • अपने समस्त सामाजिक उत्तरदाईत्व बन्धनों तथा अपेक्षाओं से मुक्ति।
  • सुख सम्पदाओं तथा सम्वन्धों के मोह से स्वैच्छिक वैराग्य।
  • पूर्णतया प्राकृतिक जीवन निर्वाह तथा उपकरणों का त्याग।

आश्रम पद्धति का विशलेषण

प्रत्येक विधान का अपवाद भी होता है। यह ज़रूरी नहीं कि ब्रह्मचर्य से सन्यास यात्रा के लिये प्रत्येक चरण पर रुका जाय। मानव चाहे तो किसी भी चरण से गृहस्थ, वानप्रस्थ  या सन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता है। किन्तु आदर्श और संतुलित जीवन व्यापन के लिये सभी चरण क्रमवार ही चलने चाहियें।

विशेष स्थिति में ऐक या दो चरण पीछे भी लौटा जा सकता है जैसा कि वीर बन्दा बहादुर बैरागी ने किया था। हिन्दू धर्म ने जीवन को अत्यन्त सीमित कमरों में नहीं बाँटा केवल सुझाया ही है। साराशं में जीवन की गति क्रमशः आगे के चरण में जानी चाहिये

आजकल के जीवन में तनाव तथा असमानताओं का ऐक मुख्य कारण आश्रम जीवन पद्धति का लुप्त होना भी है। यही वजह है कि विदेशों में रहने वाले काम काजी दम्पति अपने बच्चों में संस्कार शिक्षण के लिये वानप्रस्थ आश्रम की पुनर्स्थापना की जरूरत महसूस कर के अपने माता पिता को विदेश ले जाने के लिये हमैशा ललायत रहते हैं।

चाँद शर्मा

20 – व्यक्तित्व विकास


आजकल बड़े नगरों में व्यक्तित्व विकास के कई केन्द्र भारी फ़ीस ले कर युवाओं को नौकरियों के प्रशिक्षण देते हैं। वहाँ व्याख्यानों, गोष्ठियों  तथा सामूहिक वार्तालाप के माध्यम से युवाओं को अंग्रेज़ी में बातचीत करना तथा शिष्टाचार के गुर सिखाये जाते हैं। वास्तव में यह प्रशिक्षण सीमित होता है और किसी ना किसी नौकरी या पद विशेष के लिये ही कुछ सीमा तक उपयुक्त होता है। इसे मानवी व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता।

हर व्यक्ति को पद तथा परिस्थितिनुसार कार्य प्रणाली भी बदलनी पड़ती है। प्रत्येक व्यवसाय की कार्य शैली तथा कार्य स्थल का वातावरण ऐक दूसरे से भिन्न होता है। अतः कार्य स्थल के वातावरण और कार्य शौली के अनुसार प्रत्येक कार्य वर्ग के लिये अलग अलग क्षमताओं की आवश्यक्ता भी पड़ती है। व्यक्ति तथा उस के कार्य क्षेत्र को आसानी से ऐक दूसरे के अनुकूल नहीं बदला जा सकता। व्यक्तित्व विकास के आधुनिक पाठयक्रम का क्षेत्र किसी ऐक व्यवसाय तक ही सीमित होता है।          

व्यक्तित्व विकास का मूल उद्दैश्य मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना होना चाहिये कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपना कार्य सक्ष्मता से कर सके। भारत की प्राचीन व्यक्तित्व विकास पद्धति इस कसौटी पर सक्ष्म है। 

क्रिया के निमित आवेश 

शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति के साथ साथ सभी जीव अपनी भावनाओं से भी प्रेरित हो कर अपने अपने कर्म करते हैं। हिन्दू विचारघारा में पाँच प्रकार की तीव्र भावनाओं के आवेशों की पहचान की गयी है जो समस्त जीवों में ऐक समान है। यह भावनायें हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में से किसी भी भावना का आवेश आते ही शरीर में ऐक प्रकार की रसायनिक क्रिया अपने आप आरम्भ हो जाती है जो मानव की बुद्धि को प्रभावित कर देती हैं। प्रभाव सकारात्मिक हो तो आवेश बुद्धि का सहायक बन कर कर्म का मार्ग भी दर्शाते हैं और उस के लिये साहस और क्षमता भी अर्जित कर देते हैं। ऐसी अवस्था में आवेश की रसायनिक क्रिया से प्रोत्साहित मानव अपनी जान की बाज़ी लगा कर दूसरे की जान बचाता है, ख्याति पाने के लिये असाध्य काम भी कर लेता है। आवेश के प्रभाव से ग्रस्त मानव में थोडे समय के लिये अदभुत क्षमता पैदा हो जाती हैं जिस पर बाद में मानव स्वयं ही अपनी छिपी हुई क्षमता पर आश्चर्य करने लगता है। यह आवेशों का सकारात्मिक पक्ष है।

इस के विपरीत यदि आवेश नकारात्मिक हों तो मानव चोरी, हत्या, बलात्कार, और कई बार आत्महत्या आदि करने को उद्यत हो उठता है। इस कारण से इन भावनात्मिक आवेशों को विकार भी कहा गया है और इन को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। इन्हीं विकारों के कारण पशु पक्षी भी सहवास, भोजन, ठिकाने, सुरक्षा तथा अपने प्रभाव के लिये मानवों की तरह ही लडते हैं। आवेश के नकारात्मिक प्रभाव से ग्रस्त मानव और पशु के स्वभाव तथा कर्म में कोई अन्तर नहीं होता।

आवेशों का जीवन में प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी ऐक अथवा अनेक आवेशों अथवा विकारों के प्रभाव के अधीन होता है। यही आवेश कई बार व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान भी बन जाते हैं। कुछ लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। कुछ उग्र स्वभाव के, कुछ कामुक तथा अप्राकृतिक आदतों के शिकार भी होते हैं। लोभ या मोह वश कुछ लोग सामाजिक तथा नैतिक मर्यादाओं को लाँघ कर अपने स्वजनो और मित्रों या किसी ऐक ही व्यक्ति का हित करने में लगे रहते हैं। कई लालच और लोभ में इतने ग्रस्त होते हैं कि उन के जीवन में अन्य कर्तव्यों का कोई महत्व नहीं रहता। आवेशों तथा विकारों में फर्क की लकीर अति सूक्षम होती है जैसे किसी असाध्य कार्य की पूर्ति स्वाभिमान बन जाती है तो किसी असाध्य कार्य को पूरा करने का केवल दावा करना अहंकार बन जाता है। क्रोध के आवेश में रण भूमि में शत्रु की हत्या करना वीरता है किन्तु क्रोध या अभिमान वश स्वार्थ के लिये किसी की हत्या करना दण्डनीय अपराध होता।

कुछ आवेश माता पिता से संस्कारों के रूप में जन्मजात होते हैं तो कुछ संगति तथा रहवास के वातावरण के कारण अपने आप पनप उठते हैं। मानव की आवश्यक्ताये भी उस के अर्जित आवेशों के स्वभावानुकूल ही बनती हैं जिन की पूर्ति के लिये मानव कर्म करते रहते हैं और फल पाते हैं। किसी ऐक ही अच्छे या बुरे कर्म से मानव जीवन में अच्छे-बुरे कर्मों के अटूट चक्कर आरम्भ हो जाते हैं जहाँ से बाहर निकल पाना कई बार असम्भव भी हो जाता है। 

मानव के शरीर में जिस प्रकार का आवेश प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यक्ति का स्वभाव और व्यक्तित्व बन जाता है। कोई झगडालु, ईर्षालु, लालची, दबंग, डरपोक या रसिक आदि बन जाता है तो कोई वीर, निडर, दयालु और दानवीर बन जाता है। सभी मानव अपने अपने आवेशानुसार कर्म कर के उसी प्रकार के परिणाम भी भुगतते है। आवेश दुधारी तलवार की तरह हैं। आत्म सम्मान के आवेश से प्रेरित हो कर ही कुछ लोग वीरता और साहस के काम कर जाते है जिस के कारण व्यक्ति, परिवार और समाज गर्वित होता है और इस के विपरीत कुछ अहंकार के कारण छोटी सी बात पर ही दूसरों की हत्या कर देते हैं और फाँसी पर लटक जाते हैं। वह अपने परिवारों के लिये दुःख और लज्जा का कारण बन जाते हैं।

आवेश नियन्त्रण

मानव संसाधन विकास के पाठ्यक्रम में पाश्चात्य दार्शनिक अब्राहम मासलो की ‘नीड थियोरी पढाई जाती है और इस के अन्तर्गत निजि आवश्यक्ताओं की पूर्ति को ही कर्म का निमित माना गया है। अब्राहम मासलो के अनुसार निजि आवश्यक्तायें शारीरिक तथा मानसिक क्रमशः निम्न और उच्च श्रेणियों में विभाजित की गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिये मानवों को प्रेरणा मिलती है। लेकिन अब्राहम मासलो का ज्ञान और सिद्धान्त अधूरे हैं। उस में यह नहीं बताया गया कि आवश्यक्तायें जन्म ही क्यों लेती हैं ? इस तथ्य का उत्तर आवेशों के भारतीय सिद्धान्त में छुपा है। आवेशों के सक्रिय होने पर ही इच्छाओं और आवश्यक्ताओं का जन्म होता है जिन की पूर्ति के लिये पुरुषार्थ करना पडता है। इसीलिये इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने पर बल दिया जाता है।  

आवेशों को संतुलित रखना जरूरी है। यदि आवेशों पर नियन्त्रण ना किया जाय तो वह विकार बन कर सब से बडे शत्रु बन जाते हैं और जीव को विनाश की ओर धकेल देते हैं। अपने आवेशों को नियन्त्रित करना, तथा विपक्षी के नकारात्मिक आवेशों को अपनी इच्छानुसार सकारात्मिक बनाना ही किसी व्यक्ति की क्षमता और सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। इसी को दक्षता और कार्य निपुणता कहते हैं।

आवेशों को साधना के माध्यम से, स्वेछिक अनुशासन से, यम नियमों से नियन्त्रित किया जा सकता है ताकि उन का साकारात्मिक लाभ उठाया जा सके। काम को ब्रह्मचर्य, स्वच्छता, और सदाचार से, क्रोध को सत्य और अहिंसा से, लोभ को संतोष और अस्तेय की भावना से, मोह को वैराग्य, निष्पक्ष्ता और कर्तव्य परायणता से, तथा अहंकार को अपारिग्रह, सरलता, ज्ञान शालीनता तथा सेवा सहयोग से वश में रखा जा सकता है। यम नियम का निरन्तर अभ्यास ही प्राणी को पशुता से मानवता की ओर ले जाता है। जब तक आलस्य और अज्ञान की परिवृतियों को यम नियम से नियन्त्रित नहीं किया जाये गा मानव का व्यक्तित्व संतुलित नहीं हो सकता।

स्वेच्छिक अनुशासन

हिन्दू समाज में निजि रुचि अनुसार व्यवसाय चुनने तथा स्वैच्छिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। अनुशासन को सैनिक तरीकों से लागू नहीं करवाया जाता। प्रत्याशी को आत्म-निरीक्षण, स्वैच्छिक अनुशासन तथा स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा फिर उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास  निरन्तर चलता रहता है। बालक को आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष सिखाये जाते है। यम नियम बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम एवमं महत्व पूर्ण कदम है। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम विश्व के किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म अनुयायी हों, हमारे जीवन की अधिकतर समस्यायें तो पैदा ही नहीं होंगी। यदि दूसरों के कारण समस्यायें उत्पन्न हो भी गयीं तो वह प्रभावित किये बिना अपने आप ही निषक्रिय भी हो जायें गी तथा यम नियमों का पालन करने वाले के जीवन में कोई तनाव और हताशा नहीं होगी।

आत्म विकास

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं उन में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि अनुसार किसी भी साधना का मार्ग अपने लिये चुन सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग साधना को अपना सकते हैं। भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुन सकते हैं। इसी प्रकार तर्कवादी राज योग से अपने निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संनयासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है।

सारांश यह है कि इस प्रकार से जो व्यक्तित्व निर्माण हो गा वह विश्व भर में सभी परिस्थितियों में सफल रहे गा। हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि आज भी भारत के विद्यार्थी विदेशों में सफल हैं जहाँ उन्हीं देशों के स्थानीय छात्र उन से स्पर्धा नहीं कर पाते। भारतीय सैनिक प्रथम तथा दूसरे महायुद्ध के कठिनत्म प्रदेशों में भी सक्षम रहै जब कि अन्य देशों के सैनिक उन कठिनाईयों को झेल नहीं पाये। वियतनाम जैसे छोटे देश के सामने अमेरिका जैसे समर्द्ध तथा शक्तिशाली देश के सैनिक समझोता कर के वहाँ से सुरक्षित निकलने का मार्ग खोजने के लिये मजबूर हो गये थे।  भारत का वाहन चालक विदेशों में भी धडल्ले से गाड़ी चला सकता है लेकिन एक विदेशी चालक अति-आधुनिक कार को अपने देश से बाहर नहीं चला सकता। इस प्रक्रिया में भारतीय व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक क्षमता छिपी हुयी है जो उसे सभी परिस्थितियों का सामना करने का हौसला देती है। यह गुणवत्ता आधुनिक तकनीक से नहीं उपजी अपितु इस का श्रेय भारतीय जीवन के उन मूल्यों को जाता है जो व्यक्ति को हर कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। भारतीय व्यकतित्व विकास पद्धति हर अग्नि परीक्षा में सफल होती रही है।  

तुलनात्मिक विशलेषण 

भारतीय पाठ्यक्रम में स्दैव आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता रहा है। गुरुकुल वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के दूारा व्यक्ति का विकास किया जाता था। उसी पद्धति का ही आज स्वामी रामदेव पुर्नप्रचार सफलता पूर्वक कर रहै हैं।

आजकल व्यक्ति की वास्तविक कमियों को बनावटी ढंग से छुपा दिया जाता है उस में योग्यताओं को विकसित नहीं किया जाता। बनावटी शिष्टाचार, वेषभूषा तथा ‘वर्क कलचर केवल आवरण हैं जो असली पर्सनेलिटी को थोडी देर के लिये ढक देते हैं। पाश्चात्य व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को दूसरे मानव से प्रतिस्पर्धा करने के लिये उकसाती है। सदाचारी बनने के बजाय मानव स्वेच्छाचारी तथा पूर्ण स्वार्थी बन कर समाज में दूसरों को मात देने की राह पर चलने लगता है। वह समाज को जोडने के बजाय समाज को तोड़ कर निजि सफलता को ही प्राथमिकता देता है। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से यही क्रम आजकल हमारे विद्यालयों, दफतरों तथा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है जिस के कारण निराशा, हताशा तथा निरंकुशता का वातावरण ही समाज में पनप रहा है। हिन्दू व्यक्तित्व सृष्टि के सभी जीवों में एकीकरण ढूंडता है, प्रतिस्पर्धी नहीं।

हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को निजि कर्तव्यों की ओर प्रोत्साहित करती है निजि अधिकारों तथा स्वार्थों की ओर नहीं। निजि कर्तव्यों में सर्व प्रथम देश, समाज तथा परिवार की प्राथमिक्ता है और निजि स्वार्थ सभी के पश्चात आता है। दैनिक कार्य क्षैत्र में सर्वप्रथम पर्यावरण, पशु पक्षियों के प्रति उत्तरदाईत्व को स्थान दिया गया है। पाश्चात्य व्यवसायिक कम्पनियाँ जिस सामाजिक उत्तरदाईत्व की केवल चर्चा करती हैं वह भारतीयों ने दैनिक जीवन शैली में सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही अपना लिया था। विदेशों में कोई व्यक्ति स्वैच्छा से पीपल, बरगद या तुलसी के पौधै को पानी नहीं देता ना ही चींटियों से ले कर बड़े जानवरों के लिये गर्मी में पेय जल की व्यव्स्था ही करता है। भारत में यह कार्य किसी मजबूरी से नहीं अपितु निजि व्यक्तित्व की प्रेरणा से किया जाता है। मोक्ष (टोटल सेटिस्फेक्शन) की परिकल्पना व्यवसायिक संतुष्टि (जोब सेटिस्फेक्शन) से कहीं ऊँची परिकल्पना है। अतः हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को मानवता का अभिन्न अंग बनने को प्रेरित करती है तभी उस का पूर्ण वास्तविक विकास होता है – केवल नौकरी पाने के लिये विकास नहीं करवाया जाता।

जीवन में ऐकीकरण

आजकल हर व्यक्ति की ‘प्राईवेट लाईफ ‘और ‘प्बलिक लाईफ में ऐकीकरण नहीं होता। इस का अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति जो समाज में ईमानदार, सत्यवादी और चरित्रवान होने का दावा करता है वह अपने निजि जीवन में बेइमान, झूठा या व्यभिचारी भी रह सकता है। यह व्यकतित्व का विकास नहीं विनाश है क्यों कि अन्दर बाहर व्यक्ति को ऐक समान ही होना चाहिये।

ज्ञान को केवल प्राप्त कर लेना ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। शिक्षा तथा शिष्टता के सदाचारी गुणों को दैनिक क्रियाओं में निरन्तर अपनाना भी आवश्यक है। केवल यह जान लेना कि इमानदारी और सत्य का पालन करना चाहिये पर्याप्त नहीं जब तक इमानदारी और सत्य को मन, वचन तथा कर्म से जीवन के हर प्रत्यक्ष और अपर्त्यक्ष रूप में अपनाया और दर्शाया ना जाये। यम नियम तथा गीता के योग इन्हीं को व्यक्तित्व विकास की सीढियाँ मानते हैं।

पाश्चात्य जीवन पद्धति केवल कामचलाऊ नौकरी पाने के लिये ही विकसित करती है और मानव को ऐक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना कर स्वार्थी जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित करती है जबकि भारतीय जीवन शैली व्यक्ति को परिवार, समाज और पर्यावरण के कल्याण और पूर्ण विकास की ओर विकसित करती है।   

चाँद शर्मा 

1 – सृष्टि और सृष्टिकर्ता


सृष्टि में सृजन-विसृजन का क्रम चलता रहता है। जिन तथ्यों को हम आज वैज्ञियानिक सत्य मानते हैं, उन की जानकारी का श्रेय उन लोगों को जाता है जिन्हें हम वनवासी कहते हैं। वही हमारे पूर्वज थे। वनवासियों ने निजि अनुभूतियों से प्राकृतिक तथ्यों का ज्ञान संचित कर के आने वाली पीढि़यों के लिये संकलन किया। वही ज्ञान आज के विज्ञान की आधारशिला हैं। 

सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने – बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन – विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जड़ और चैतन्य

सृष्टि में जीवन दो प्रकार के हैं – जड़ और चैतन्य। सभी प्रकार  की वनस्पतियां जड जीवन की श्रेणी में  आतीं हैं। इन का जीवन वातावरण पर निर्भर करता है। यदि वातावरण अनुकूल हो तो फलते फूलते हैं अन्यथा मर जाते हैं। जड़ जीवन के प्राणी स्वयं को अथवा वातावरण को बदल नहीं सकते और ना ही प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं।

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं

चैतन्य श्रैणी में पशु-पक्षी, जलचर तथा मानव आते हैं। इन का जीवन भी वातावरण पर आधारित है, किन्तु इन के पास जीवित रहने के अन्य विकल्प भी हैं। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने – आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं, अपने भोजन, आवास तथा सुरक्षा के लिये अन्य विकल्प भी ढूंड सकते हैं। जड़ प्राणी परिवर्तनशील  नहीं होते इस के विपरीत चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। 

मानव की श्रेष्ठता

मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। मानव मरूस्थल में, वनों में, पर्वतों पर, एवं अति-अधिक प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में भी जीवित रहने का क्षमता प्राप्त कर चुका है। वृक्षों को काट कर, नये वृक्ष उगा कर, दुर्गम क्षेत्रों में जल की व्वस्था कर के, भोजन के अतिरिक्त साधन जुटा कर, विद्युत उत्पादन कर के, रोगों के उपचार के लिये औषधियों की खोज कर के तथा अन्य कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

इन उपलब्धियों से मानव ने ना केवल अपने जीवन को परिवर्तित किया है बल्कि अन्य जड़ एवं चैतन्य प्राणियों के जीवन में भी अपना अधिकार बना लिया है। समस्त प्राणियों में श्रेष्टता प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप मानवों का यह उत्तरदाईत्व भी है कि वह अन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये परियावरण की रक्षा भी करें क्योंकि मानव पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों से अधिक सक्ष्म भी हैं।

प्राणियों में समानता 

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी के अन्दर निवास करती है तथा हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार विद्युत कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार विद्युत एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। विद्युत काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है। 

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से विद्युत प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है। 

शरीरिक विभिन्नताओं के बावजूद सभी प्राणियों में बहुत सारी समानतायें भी हैं जिन के आधार पर हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि उन सभी का सर्जन स्त्रोत्र एक ही है। हर चैतन्य प्राणी के पास सूघंने के लिये एक ही नासिका है जो दो आँखों के मध्य में स्थित है, सुनने के लिये दो कान और बोलने के लिये एक ही मुख है, पकड़ने के लिये दो हाथ और चलने-फिरने के लिये दो ही पैर हैं। सभी प्राणियों में भोजन खाने, चबाने, पचाने, मल विसर्जन करने तथा अपने जैसे दूसरे जीव को उत्पन्न करने की एक समान प्रणाली है। सभी प्राणियों के शरीर के अंग उन के शरीर के आकार अनुसार अन्य अंगों के साथ ताल मेल रख के कार्य करते हैं और किसी जंगली घास की तरह नहीं उग पड़े। सभी अंग अत्यन्त सावधानी तथा कार्य-कुशलता के विचार से इस प्रकार अन्य अंगों के साथ संलग्न किये गये हैं कि सभी परिस्थितियों में शरीर को पूर्ण क्षमता प्रदान कर सकें। कुछ अंग आवश्यक्तानुसार शरीर के अन्दर से उपयुक्त समयोपरान्त ही प्रगट होते हैं जैसे कि दाँत आदि। 

समस्त प्राणियों के शरीर में सामन्यता एक जैसी क्रियात्मक प्रणालियां हैं जैसे कि रक्तसंचार, श्वास, पाचन तथा स्नायु प्रणाली इत्यादी। सभी प्रणालियाँ अपने कार्य-क्षैत्र की प्रतिक्रियायों को प्राप्त करने तथा विशलेश्न करने के पश्चात उन को आवश्यक्तानुसार दूसरे अंगों को भेजनें में सक्ष्म हैं। प्रणालियां स्वचालित हैं तथा किसी प्रणाली में पनपी त्रुटि अन्य प्रणालियों को भी प्रभावित करती है। इतना ही नही बल्कि एक ही जीवित शरीर में कितनी प्रकार के अन्य सूक्ष्म जीवाणु  भी पलते रहते हैं जैसे कि रक्तकण, शुक्राणु तथा रोगाणु। प्रत्येक जीवाणु की निजि आयु सीमा तथा शरीर है। कई जीवाणु बिना उपकरण के नंगी आँख से दिखायी तो नहीं देते लेकिन उन के अस्तीत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सहस्त्रों प्रकार की वनस्पतियां, कीटाणु, जीवाणु, मच्छलियाँ, पशु-पक्षी और वानर इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

मानवों के पास अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई प्रकार की शरीरिक तथा मानसिक क्षमतायें अधिक हैं। पशु-पक्षियों की तुलना में मानव ना केवल अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियन्त्रण रख सकते हैं अपितु अन्य प्राणियों की भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं पर भी नियन्त्रण रख सकते हैं। अपनी इच्छानुसार मानव दूसरों के अन्दर क्रोध, प्रेम, वासना, लोभ, तथा भय के भाव उत्पन्न कर उन्हें अपनी इच्छानुसार नियन्त्रित भी कर सकते हैं। मानव परियावर्ण में होने वाले बदलाव का पूर्वाभास कर के तथा परिणाम का विचार कर के अग्रिम कारवाई करने में भी सक्ष्म हैं। मानव दूसरे मानवों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों से भी विशेष प्रणाली दुआरा संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। मानव अपनी इच्छानुसार अपने निजि कार्यक्षैत्र का च्यन करते हैं और अपने को कार्यवन्त रखने के लिये उन्हों ने अपने आप को उच्चतर मानसिक शक्तियों से पूर्णतया सक्षम बना लिया हैं। 

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं।

चाँद शर्मा

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