हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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सुधारक, निन्दक या सहायक


 

सोशल मीडिया में प्रखर ज्ञानियों के कुछ कमेन्ट्स पढ कर केवल औपचारिकता के नाते केवल अपने विचार लिख रहा हूँ। यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मेरे निजि विचार हैं अगर किसी को तर्क-संगत ना लगे, तो ना आगे पढें और ना मानें। मेरे पास केवल ऐक साधारण व्यक्ति का दिमाग़ है, पहिरावा और साधन हैं और मैं जो कुछ साधारण बुद्धि से समझता हूँ वही दूसरों के साथ कई बार बाँट लेता हूँ। किसी दूसरे को सुधारने या बिगाडने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है।

सामान्य भौतिक ज्ञान

भौतिक शास्त्र के सामान्य ज्ञान के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वाचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने–बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन–विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जीवत प्राणी

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधारित है। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने–आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

जीवन-आत्मा

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार बिजली कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार बिजली एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। बिजली काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

ऐकता और भिन्नता

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से बिजली प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

कण-कण में ईश्वर

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं और यह सिद्धान्त वेदों के प्रकट होने से भी पूर्व आदि-वासियों को पता था जो प्राकृति के अंगों में भी, ईश्वर को कण-कण में अनुभव करते थे और इन में मानवों से लेकर चूहे तक सभी शामिल हैं। स्नातन धर्म की शुरुआत यहीं से हुयी है।

ईश्वर की मानवी परिभाषा

ईश्वरीय शक्तियों को मानवी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन के बारे में अभी विज्ञान भी बहुत कुछ नहीं जानता। जिस दिन विज्ञान या कोई महाऋषि जिन में स्वामी दयानन्द भी शामिल हैं ईश्वर को अपनी परिभाषा में बान्ध सके गे उसी दिन ईश्वर सीमित हो कर ईश्वर नहीं रहै गा। ईश्वर की शक्तियों के कुछ अंशों को ही जाना जा सकता है जैसे अन्धे आदमियों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर अनादी तथा अनन्त है और वैसे ही रहै गा। यही सब से बडा सत्य है।

समुद्र के जल में आथाह शक्ति होती है। बड़े से बड़े जहाज़ों को डुबो सकता है। लेकिन अगर उस जल को किसी लोटे में भर दिया जाये तो उस जल में भी समुद्री जल के सभी गुण विधमान होंते हैं लेकिन लोटे में रखा जल में जहाज़ को डुबोने की शक्ति नहीं हो गी । अगर उस जल को वापिस समुद्र में डाल दिया जाये तो फिर से जहाज़ों को डुबोने की शक्ति उस जल को भी प्राप्त हो जाये गी। यह बात भी पूर्णत्या वैज्ञानिक सत्य है।

मूर्ति की आवश्यक्ता

जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं । यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता का बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसे मिट्टी का खिलोना या माडल बना की दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उस की पूजा करने में भी कोई बुराई नहीं समझता। मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।

तर्क और आस्था

जहां तर्क समाप्त होता है वहीं से आस्था का जन्म होता है। जहां आस्था में तर्क आ जाये वहीं पर आस्था समाप्त हो जाती है और विज्ञान शुरु हो जाता है। दोनो गोलाकार के दो सिरे हैं। हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। सूर्य की पेन्टिगं पर ‘ओइम’ लिख कर उसे अपना झण्डा बना लेना आर्य समाज की आस्था है, जो किसी वैज्ञानिक तर्क पर आधारित नहीं है, ऐक तरह का असत्य, और मूर्ति पूजा ही है।  लेकिन अपनी आस्था का आदर तर्कशास्त्री आर्य समाजी भी करते हैं।

हिन्दू-ऐकता

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। मेरा निजि मानना है कि वैदिक धर्म और सनातन धर्म ऐक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड है। बिना चित्रों के तो विज्ञान की पुस्तक भी बोरिंग होती है। आप अपने घर में अतिथियों को अपनेविवाह और जन्म दिन की ऐलबम दिखाते हो तो क्या वह सभी ‘असत्य ’ होता है?

भगवान राम ने भी रामेश्वरम पर शिवलिंग स्थापित कर के मूर्ति पूजा करी थी। तो क्या भगवान राम आर्य नहीं थे? कोई भी स्नातनी हिन्दू आर्य-समाजियों को मूर्ति पूजा के लिये बाध्य नहीं करता। लेकिन जिस तरह घरों में आर्य-समाजी अपने माता-पिता की तसवीरें लगाते हैं स्वामी दयानन्द सरसवती के चित्र लगाते हैं उसी तरह शिव, राम, और कृष्ण के चित्र भी लगा दें तो सारा हिन्दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी स्नातनी हिन्दू आर्य हैं और वेदों, उपनिष्दों, रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों और पुराणों को लिखने वाले सभी ऋषि आर्य थे। आर्य-समाजी नहीं थे। आर्य-समाज तो ऐक संगठन का नाम है।

आर्य समाजी सुधारक

हर आर्य-समाजी अपने आप को स्नातन धर्म का ‘सुधारक’ समझता है चाहे उस ने वेदों की पुस्तक की शक्ल भी ना देखी हो। आधे से ज्यादा आर्य समाजियों ने तो ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ भी नहीं पढा होगा। जरूरत है आर्य समाजी अपनी तालिबानी मानसिक्ता पर दोबारा विचार करेँ। आर्य समाजी कहते हैं ‘जर्मन और अंग्रेज़ों ने हमारे वेद पढ कर सारी प्रगति करी है। वैज्ञानिक अविष्कार किये हैं।’ चलो – यह बात तो ठीक है। उन्हों ने हमारे ग्रंथ पढ कर और रिसर्च करी, मेहनत करी और अविष्कार किये। अब आर्य समाजी यह बताये कि उन्हों ने अपने ग्रंथ पढ कर कौन-कौन से अविष्कार किये हैं। स्वामी दयानन्द ने उन्हें वेदों का महत्व बता दिया फिर आर्य समाजी किसी ऐक अविष्कार का नाम तो बताये। अगर नहीं करे तो क्यों नहीं करे?  क्या उस के लिये भी जर्मन, अंग्रेज़ या स्नातनी हिन्दू कसूरवार हैं? दूसरों को कोसते रहने से क्या मिला? आर्य समाजी कभी स्नातनी हिन्दूओं को कभी जैनियों – बौधों और सिखों का विरोध कर के हिन्दू ऐकता को  खण्डित करने के इलावा और क्या करते रहै हैं? दूसरों की ग़लतियां निकालने के इलावा इन्हों ने और क्या किया है – वह बताने का प्रयास क्यों नहीं करते?

हम ने अकसर आर्य समाजियों को स्नातनी विदूवानों को पाखणडी या मिथ्याचारी कहते ही सुना है। आर्य समाजियों के लिये अब चुनौती है कि दूसरों की निन्दा करते रहने के बजाये अब वह अपने वैदिक ज्ञान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन इण्डिया’ की अग्रिम पंकित में अपना स्थान बनाये। आस्था का दूसरा नाम दृढ़ निश्चय होता है। आप किसी भी मूर्ति, वस्तु, स्थान, व्यक्ति, गुरु के साथ आस्था जोड कर मेहनत करने लग जाईये सफलता मिले गी। वैज्ञानिक की आस्था अपने आत्म विशवास और सिखाये गये तथ्यों पर होती है। वह प्रयत्न करता रहता है और अन्त में अविष्कार कर दिखाता है।

जिहादी मानसिक्ता

किसी हिन्दू को अपने आप को आर्य कहने के लिये आर्य समाज से प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। सभी हिन्दू आर्य हैं और सभी आर्य हिन्दू हैं। फिर आर्य समाज ने दोनो के बीच में अन्तर क्यों डाल रखा है।  स्नातन धर्म ने तो स्वामी दयानन्द को महर्षि कह कर ही सम्बोधित किया है। लेकिन यह समझ लेना कि स्वामी दयानन्द सर्वज्ञ थे और उन में कोई त्रुटि नहीं थी उसी इस्लामी मानसिक्ता की तरह है जैसे मुहम्मद के बाद कोई अन्य पैग़म्बर नहीं हो सकता।

अधाकांश आर्य समाजियों के मूहँ से वेदिक ज्ञान कम और दूसरों के प्रति आलोचनायें, निन्दा, गालियां ही अधिक निकलती हैं जैसे सत्य समझने – समझाने का लाईसेंस केवल उन्हीं के पास है। सत्य की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने में लगे रहते हैं हर धर्म घटक में गन्दगी कहाँ पर है। इसे सत्य की खोज तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता।

चुनौती

कुछ करना है तो आर्य समाजियों को युवाओं में नैतिकता का पाठ पढाने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिये। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशस, वेलेन्टाईन-डे, न्यू-इयर-डे, आतंकवादियों आदि की विकृतियों को भारत में फैलने से रोकने के लिये क्या करना चाहिये, उस पर विचार कर के किसी नीति को सफलता से अपनाये और सक्षम कर के दिखायें।

बच्चों और युवाओं को वेद-ज्ञान, संस्कृत भाषा का आसान तरीके से ज्ञान का पाठ्य क्रम तैय्यार कर के ऐसा साहित्य तैय्यार करें ताकि वह ‘जेक ऐण्ड जिल’ को भूल कर भारतीयता अपनायें और साथ ही साथ ज्ञान भी हासिल करें। ज्ञान का अर्थ कुछ मंत्र रटा कर तोते की तरह बुलवाना नहीं होता, बल्कि ज्ञान को इस्तेमाल कर के वह अपनी जीविका इज्जत के साथ कमा सकें। युवाओं को व्यकतित्व विकास की शिक्षा आधुनिक तकनीक के साथ लेकिन भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुरूप किस प्रकार दी जाये इस को क्रियात्मिक रूप देना चाहिये। व्यकतित्व ऐसा होना चाहिये जो दुनियां के किसी भी वातावरण में आत्म विश्वास और दक्षता के साथ आधुनिक उपकरणों के साथ काम कर सके। ऐसा व्यकतित्व नहीं बने कि वह केवल दूर-दराज गाँव में छिप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीविका कमाने लायक ही बन पायें।

किसी प्रकार का साफ्टवेयर या हार्डवेयर अपनी वैदिक योग्यता से सम्पूर्ण स्वदेश बनायें ताकि हमें बाहर से यह सामान ना मंगवाना पडे। हमारे पास इंजीनियर, तकनीशियन, प्रयोग-शालायें, अर्थ-शास्त्री आदि सभी कुछ तो है। अब क्यों नहीं हम वह सब कुछ कर सकते जो अंग्रेज़ों और जर्मनी वालों ने आज से 200 वर्ष पूर्व  “हमारी नकल मार के” कर दिखाया था। इस प्रकार के कई सकारात्मिक काम आर्य समाजी अब कर के दिखा सकते हैं। उन्हें चाहिये कि आम लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण दिखायें कि हमारा यह हमारा ज्ञान विदेशियों ने चुराया था, अब हमारे पास है जिस का इस्तेमाल कर के हम विश्व में अपनी जगह बना रहै हैं। रोक सको तो रोक लो। केवल मूर्ति पूजा का विरोध कर के और अपने वेदों का खोखला ढिंढोरा पीट कर आप विश्व में अपनी बात नहीं मनवा सकते। कुछ कर के दिखाने की चुनौती आर्य बन्धुओं, वेदान्तियों और प्रचारकों को स्वीकार करनी पडे गी।

सत्यं वदः – प्रियं वदः

बहस और शास्त्रार्थ में ना कोई जीता है और ना ही कोई जीते गा। मैं भारत की प्राचीन उपलब्धियों का पूर्ण समर्थन करता हूँ लेकिन लेकिन आर्य समाजी मानसिक्ता का नहीं। सत्य को कलात्मिक तरीके से कहना ही वैज्ञानिक कला है। ऐक नेत्र हीन को सूरदास कहता है तो दूसरा अन्धा – बस यही फर्क है। “सत्यं वदः – प्रियं वदः ” का वेद-मंत्र  आर्यसमाजी भूल चुके हैं। इस लिये किसी की आस्था का अपमान कर के सत्यवादी या सुधारक नहीं बन बैठना चाहिये। यही भूल स्वामी दयानन्द ने भी कर दी थी। अब उसी काम का टेन्डर आमिर खान ने भर दिया है और प्रोफिट कमा रहा है। जो कुछ बातें आर्य समाजी करते रहै हैं वही आमिर खान ने भी करी हैं जिस का समर्थन फेसबुक पर आर्य समाजी कर के हिन्दूओं का मज़ाक उडा रहै हैं। सोच कर देखो – दोनों में कोई फर्क नहीं।

मेरा लक्ष्य केवल अपने विचार को दूसरों के साथ शेयर करना है किसी को मजबूर करना या उन का सुधारक बनना नहीं है। मुझे भी अब आगे बहस नहीं करनी है। जो सहमत हों वही अपनी इच्छा करे तो मानें। वेदिक विचार और सनातनधर्म की आस्था दोनों ऐक ही सिक्के के पहलू हैं और दोनों बराबर हैं। किसी को भी अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बन कर दूसरे का सुधारक बनने की जरूरत नहीं।

चाँद शर्मा

निर्धारित स्थान कम होने के कारण श्री वेदानुरागी जी की टिप्पणियों का उत्तर यहां दिया जा रहा हैः –

 

आप की टिप्पणियों के बारे में मैं केवल अपने विचारों को स्पष्ट कर रहा हूँ उन को मानना या ना मानना आप की मरज़ी है। आर्य-समाजी अपने वेदिक ज्ञान की चोरीका दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहने के बजाये खुद कोई चमत्कारी अविष्कार कर के दिखायें तभी देश और वेदों का गौरव वास्तव में बढे गा।

भगवान की सारी परिभाषायें मानवों ने ही बनाई हैं। भगवान उन परिभाषाओं से परे भी हो सकते हैं जो आजतक बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और ऋषियों ने बनाई हैं। ईश्वर को देखने और दिखाने का दावा करने वाले सभी प्रवक्ता उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्हों ने हाथी को टटोल कर प्रमाणित कर दिया था। इस लिये यह कहना कि ईश्वर यह कर सकता है, वह नहीं कर सकता आदि बेकार की बातें हैं।

इस देश में हजारों ऋषि-मुनि हुये हैं जो स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी अधिक विद्वान थे। उन सभी के ज्ञान को केवल सत्यार्थ-प्रकाश पढ कर पाखण्ड’, ‘असत्य, याअनर्गलबातें कहना, अपने आप को सभी का सुधारक बोल कर अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बने रहना तालिबानी मानस्क्ता नहीं तो और क्या है? स्वामी दयानन्द ने अपने विचारों का ऐक थिसिस सत्यार्थ-प्रकाश लिखा है वह उन के व्यक्तिगत विचार थे। कोई भी स्नातक कुछ गिने-चुने विषयों में पारंगत हो सकता है, विश्वविधालय की सभी फैक्लटियों में पारंगत नहीं माना जाता। स्नातन धर्म के किसी भी प्राचीन ऋषि, या महऋषि ने सर्वज्ञ होने का दावा कभी नहीं किया।

आदि-मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं तथा उपलब्धियों का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे-धीरे आर्य समाज की स्थापना से सैंकडों वर्ष पूर्व स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया है। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं जिन्हें वेदिक-धर्म कहा जाता रहा है।

आर्यशब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तथा सभ्यव्यक्ति के लिये किया जाता है भारत में बाहर से आने वालों को उन की सभ्यता और रहन सहन के अनुसार यवन, मलेच्छ, विधर्मी, दस्यु या अनार्य कह कर पहचाना जाता था।आर्य-समाजऐक संस्था का नाम है इसी संस्था के लोगों को आजकल आर्य-समाजीकहा जाता है। वास्तव में सभी स्नातन धर्मी आर्यहैं और सभी आर्यहिन्दू हैं। इस ऐकता को समझना चाहिये। उसी तरह आर्य-समाजियों के अपने आप को हिन्दू कहने में शर्माना नहीं चाहिये।

आदि काल से ही हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता आया है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। हिन्दू धर्म ने कुछ सार्थक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी महत्व दे कर अपनाया है। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

जब आप कोई फिल्म देखते हैं तो फिल्म की कहानी, पात्र, दृष्य और सम्वाद सभी कुछ ‘असत्य’ है लेकिन फिर भी फिल्म के वातावरण के साथ अपनी भावनाओं को जोड कर दर्शक हँसते, रोते और भावुक हो जाते हैं। उसी तरह मन्दिर या किसी धर्म-स्थल के वातावरण में भक्त अपनी भावनाओं को जोड कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। किसी भी विषय से सम्बन्धित अगर कोई ट्रैनिंग-ऐड नौसिखियों के इलावा अगर किसी विकसित के लिये भी इस्तेमाल कर दी जाये तो वह कोई बहुत बडा अपराध नहीं हो सकता। अगर कोई व्यस्क भी अपनी इच्छा से मूर्ति पूजा कर लें तो उस में कोई बुराई नहीं है।

आप का कथन “ईश्वर चूहे में है लेकिन चूहा ईश्वर नहीं है”- लेकिन चूहा भी उसी ईश्वर का अंश तो हैअगर आप किसी रंग-बिरंगे शीशों-जडित कमरे में खडे होकर अपना प्रतिबिम्ब देखें गे तो वह हर शीशे में टुकडे के रंग के अनुसार ही दिखाई दे गा। इस का अर्थ यह नहीं कि आप को ‘बांट’ दिया गया है। उसी तरह सृष्टिकर्ता भगवान का प्रतिबिम्ब भी हर क़ृति में है, जिस में चूहा भी शामिल है। भगवान की छवि चूहे या किसी भी छोटे-बडे जीव में निहार लेना भगवान को टुकडों में बांटना नहीं होता। उस के लिये फतवा जारी कर देना कि मूर्ति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा करना आध्यात्मिक अपराध है केवल तालिबानी मानसिक्ता के सिवा और कुछ नहीं।

जिस तरह वायु सभी जगह मौजूद है परन्तु अदृष्य है, रंग या धूयें के माध्यम से प्रगट हो कर दिखाई दे देती है, उसी तरह ईश्वर भी सभी जगह मौजूद है मगर दिखाई नहीं देते। वह किसी भी स्थान पर किसी अन्य माध्यम से प्रगट होने का आभास दे सकते हैं। मैं ने चूहे की मूर्ति पूजा करने को नहीं कहा था लेकिन चूहे के कारण सभी मूर्तियों में भगवान का ना होने का फतवा देना भी ज्ञानयुक्त नहीं था।

अगर भगवान की मूर्ति से थोडा प्रसाद चूहे ने उठा लिया था तो भगवान क्या बालक मूलशंकर की शंका को समाप्त करने के लिये वहां चूहे को प्रसाद चुराने के अपराध में भस्म कर देते? अगर आप ही का अबोध ग्रैंडसन आप के खाने की प्लेट में से बिना पूछे कुछ उठा कर खा ले तो क्या आप उसे दण्ड दें गे?

अगर कोई अपनी आस्था किसी वस्तु में रखता है तो आप का क्या जाता है। आप उस पर बेकार नुक्ताचीनी मत करो। मूर्ति पूजा विरोधी तालिबानी ऐजेण्डा मत अपनाओ। हिन्दू समाज में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये सब घटकों के साथ चलो। इस प्रकार का कथन कि “हम तो सभी के सुधारक हैं ” उद्दण्ड मानसिक्ता का प्रतीक है ।

आप ने लिखा है कि “आर्य समाज के विद्वान शोध कर नए साधन बनायेंगे लेकिन पहले उनके समुचित वेतन की व्यवस्था कर…अरब रुपया खर्च कर के एक शोध केंद्र बना कर दीजिये…गुरुकुल आर्य समाज के सब से ज्यादा हैं। ” अगर आप योरुप के वैज्ञानकों की जीवनियां पढें तो आप को पता चले गा कि उन में से किसी के पास सरकारी साधन नहीं थे। उन्हों ने पहले अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपने प्रयासों को शुरु किया था। आविष्कार करने के लिये पहले उद्देश की कल्पना करनी पडती है फिर उस का चित्र बनता है। चित्र के अनुसार अविष्कार की मूर्ति (माडल) तैय्यार की जाती है। फिर माडल को साकार करने के लिये सीमित साधन, लग्न, आस्था, सकारात्मिक सोच और हिम्मत की जरूरत पडती है। शुष्क विज्ञान की जरूरत इस के बाद पडती है।

राईट बन्धु उडने की कल्पना कर के अपने जिस्म पर पक्षियों की तरह पंख लगा कर छत से कूद पडे थे। हिम्मत के सहारे काम करते रहै और ऐक दिन हवाई जहाज बन गया। योरुप के वैज्ञानिक हमारा वेदिक ज्ञान चुरा कर अविष्कार के बाद अविष्कार करते चले गये और हमारे स्वदेशी आर्य समाजी केवल मूर्ति विरोध को अपना ऐजेंडा बना कर आज भी वहीं खडे हैं।

जार्ज स्टीफ्नसन ने जब देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो पहले उस को प्रयोग में लाने के लिये कल्पना के सहारे चित्र बनाये जो आर्य-समाजी सोच के अनुसारअसत्यथे। ऐक बालक ने देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो उस ने अपनी इमेजिनेश्न, आस्था, सकारात्मिक वैज्ञानिक सोच और लग्न के सहारे स्टीम इंजन बना कर दिखा दिया।

चित्र का बनाना इस्लाम में भी अपराध है इस लिये आज तक किसी मुस्लिम ने भी कोई अविष्कार नहीं किया। शुष्क वेदिक ज्ञान होते हुये भी हमारे पास कल्पना की उडान, सक्रात्मिक सोच और हिम्मत नहीं थी इसी लिये आर्य-समाजी भी कोई अविष्कार नहीं कर सकते और केवल मूर्तियों के माडलों के बहिष्कार पर ही फतवा जारी करते रहै हैं।

आप का तर्क है कि “आपके पुराणों में लिखा है की गणेश जी का सर शिव जी ने हाथी के बच्चे का सर काट कर लगा दिया था तो आप क्या ऐसा कर के दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो कम से कम इस झूठी कहानी को तो नकार दीजिये” पुराणों में भी शुष्क वेदिक ज्ञान को कलात्मिक ढंग से समझाया गया है।

‘कनसेपेप्ट’ हमेशा काल्पनिक, और कई बार फूहड तथा हास्यस्पद भी होती है लेकिन जब लग्न और ‘टैक्नोलोजी’ के सहारे वह साकार हो उठती है तो उसे ही अविष्कार कहा जाता है। ‘कनसेपेप्ट’ दीर्घायु होती है मगर ‘टैक्नोलोजी’ तेज़ी से बदलती रहती है। पुराणों की कल्पना को आज के विज्ञान ने साकार कर के दिखा दिया है। अगर स्वामी जी के नीरस दिमाग़ में थोडी कलात्मिक कल्पना शक्ति भी होती तो उन्हों ने पुराणिक ज्ञान की निन्दा नहीं करनी थी। स्नातन धर्म हिन्दू विचारधारा का कलात्मिक पक्ष है जब कि वेदिक धर्म वैज्ञानिक पक्ष है – दोनो ऐक दूसरे के पूरक हैं। ऐक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

जिन संत कवियों के अंशो का सहारा आप ने लिया है वह ना तो वेदिक साहित्य के ज्ञाता थे और ना ही संस्क़त भाषा के सनात्क थे। जो कुछ उन के निजि विचार थे वह उन्हों ने अपभ्रंश भाषाओं में लिख डाले हैं। सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मिक उन्नति के लिये उन्हें कीर्तिमान नहीं माना जा सकता। अगर में कहूँ कि ऐक कवि ने यह भी लिखा है “ तेरी सूरत में रब दिखता है यारा मैं क्या करूं? ” तो केवल इसी आधार पर आप मूर्ति पूजा करने लग जायें गे?

 

अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ था। लेकिन कृष्ण का महत्व कपडे और माखन चुराने या 16 हज़ार रानियां रखने के कारण नहीं है – गीता के ज्ञान के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि आर्य-समाजी तो गीता और मनुस्मृति के भी विरोघी हैं।

 

रीति-रिवाज सामाजिक होते हैं, उन्हें समयानुसार बदला जा सकता है। शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। कई कुरीतियों ने जन्म लिया था। हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे। अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन पड गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विवाह नहीं किया था इस लिये वह गृहस्थाश्रम की जिम्मेवारियों को नहीं समझते थे वरना रीति रीवाजो के लिये ब्राहमणों को दोषी ना बोलते। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा और यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया।

 

भारत में सती प्रथा बाहर से आयी है। उस का समर्थन हिन्दूओं ने कभी नहीं किया। यदि आप इस तथ्य को प्रमाणों के साथ जानना चाहें तो इस लिंक पर पढ सकते हैं जो विषय को संक्षिप्त रखने के लिये मैं यहां पर दोबारा नहीं लिख रहा हूँ।

 

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है। हिन्दूओं का धर्मान्तरण कराने के लिये अकसर कहा जाता है कि सती प्रथा की आड में हिन्दू विधवाओं को जीवित जला दिया जाता था तथा हिन्दू जन्म के समय ही कन्याओं का वध कर देते थे। दुष्प्रचार के प्रभाव तथा निजि अज्ञानता के कारण हिन्दू अपने आप को हीन समझ कर आज भी उन की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं और अपने धर्म के प्रति शर्मिन्दा हो जाते हैं। वह नहीं जानते कि वास्तव में इन बातों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। तथ्य इस के विपरीत है। प्रमाण जानने के लिये कृप्या यह लिंक देख लें। http://wp.me/p2jmur-5J .

10 – हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ


हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। हिन्दू धर्म ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है। यह प्रत्येक हिन्दू की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, या कुछ एक को, अथवा सभी को पड़े, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है। सारांश यह कि हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठना बाध्य नहीं है।

संक्षिप्त समझने के लिये हिन्दूओं की प्राचीन पुस्तकों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः –

  • यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ
  • महा काव्य तथा इतिहास
  • सामाजिक ग्रंथ

1.    यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ


चार वेद ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्व-वेद तथा साम वेद स्नातन धर्म के मूल ग्रंथ हैं जो किसी एक ग्रंथाकार ने नहीं लिखे, अपितु कई परम ज्ञानी ऋषि मुनियों के अनुसंधान तथा उन की अनुभूतियों के संकलन हैं। वैदिक ज्ञान ऋषियों पर ईश्वर कृपा से उसी प्रकार प्रगट हुआ था जैसे साधारण मानव कुछ लिखने के लिये जब ऐकाग्र हो कर विचार करते हैं तो विचार अपने आप ही प्रगट होने लगते हैं। इस अवस्था को ईश्वरीय प्रेरणा कहा जाता है।

हिन्दूओं की आस्था है कि वैदिक ज्ञान ऋषियों को लिपि के स्वरूप में प्राप्त हुआ था। हो सकता है ऐसा विशवास किसी को अटपटा भी लगे किन्तु आज के युग में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कम्पयूटरों के माध्यम से साधारण मानव भी सम्पादित लेख लिपि की शक्ल में एक साथ कई स्थानों पर भेज सकते हैं तथा उस का छपा हुआ संस्करण प्राप्त भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटरों का साईज़ भी दिन प्रति दिन छोटा होता जा रहा है। टच स्क्रीन पर तो केवल छू कर ही वाँच्छित ज्ञान फारमेटिड रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अतः वैदिक ऋषियों को यदि लिपि के स्वरूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था तो यह अविशवास की बात भी नहीं। तकनीक बदलती रहती है लेकिन कानसेप्ट तो आज भी वही है। कुछ और समय पश्चात हिन्दूओं की वैदिक आस्था अपने आप ही और स्पष्ट हो जाये गी क्यों कि सर्व शक्तिमान ईश्वर के शब्द कोष में वैज्ञयानिकों वाला असम्भव शब्द नहीं होता।

वैदिक ज्ञान पहले तो श्रुति के रूप में गुरू-शिष्य सम्पर्क से वितरित होता रहा, पश्चात मर्हृषि वेद व्यास ने उस ज्ञान को लिखित रूप में संकलित किया। लिखित ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। कमप्यूटर की भाषा में आज कल वेद हार्ड कापी में भी उपलब्द्ध हैं।

वैदिक ज्ञान केवल अध्यात्मिक ही नहीं अपितु उन सभी विषयों के बारे में था जो जीवन को प्रभावित करते हैं। वेदों में भौतिक, रसायन, राजनीति, कला-संस्कृति तथा अन्य कई विषय़ों पर मौलिक ज्ञान संचित है जो ऋषियों ने निजि अविष्कारिक यत्नों तथा अनूभूतियो सें संचित किया था। यह ज्ञान सूत्रों में उपलब्ध कराया गया है। आज की भाषा के एक्रोनिम्स की तरह सूत्रों की शैली सूक्ष्म होती है तथा स्मर्ण रखने के लिये सहायक होती है। किन्तु सूत्रों को विस्तार से पुनः व्याख्या कर के समझना पड़ता है।

वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औषधियों को सम्बोधन कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग कालान्तर अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जान कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था। संक्षेप में चार वेदों का मुख्य विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैः –

  • ऋगवेद ऋगवेद में अध्यात्मिक (स्पिरचुअल), मौलिक ज्ञान (फन्डामेंटल साईंस), विज्ञान (एप्लाईड साईंस), सृष्टि का भौतिक ज्ञान ( एस्ट्रो-फिज़िक्स) तथा प्रशासनिक (गवर्नेंस) आदि विषय वर्णित हैं।
  • यजुर्वेद यजुर्वेद में संसारिक, सामाजिक नीतियों, परम्पराओं, अधिकारों तथा कर्तव्य़ों की मौलिक रूप रेखा है। ऐक प्रकार से यह प्रोसीजुरल विषयों का ग्रंथ है।
  • साम वेद सामवेद में आराधना, दार्शनिक्ता, योग ज्ञान, तथा कलात्मिक विषय जैसे कि संगीत आदि वर्णित हैं।
  • अथर्व-वेद अथर्व वेद में चिकित्सा तथा शरीर सम्बन्धी विषय वर्णित हैं।

उप वेद प्रत्येक वेद के एक या एक से अधिक कई उप वेद हैं जिन में मूल अथवा अन्य विषयों पर अतिरिक्त ज्ञान है। उप वेदों के अतिरिक्त छः वेद-अंग भी हैं जो वेदों को समझने में सहायक हैं।

उपनिष्द – वेदों के संकलन के पश्चात भी कई ऋषियों ने  अपनी अनुभूतियों से ज्ञान कोष में वृद्धि की है। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना तथा उस में संशोधन भी किया है। इस प्रकार के ज्ञान को उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित किया गया है। उपनिष्दों की मूल संख्या लग भग 108 – 200 तक थी, किन्तु यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं की धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिया गया था। आज केवल 10 उपनिष्द ही उपलबद्ध हैं।

षट-दर्शन सृष्टि के आरम्भ से ही मानव निजि पहचान, सृष्टि, एवं सृष्टि कर्ता के बारे में जिज्ञासु रहा है और उन से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर ढूंडता रहा है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों की खोज ने ही हिन्दू आध्यात्मवाद की दार्शनिक्ता को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने अपनी अन्तरात्मा में झांका तथा सूक्ष्मता से गूढ मंथन कर के तथ्यों का दर्शन किया। प्रथक – प्रथक ऋषियों ने जो संकलन किया था उसी के आधार पर छः प्रमुख विचार धाराओं को षट-दर्शन कहा जाता है, जो भारतीय दार्शनिक्ता की अमूल्य धरोहर हैं। दर्शन शास्त्रों में बहुत सी समानतायें हैं क्योकि उन का मूल स्त्रोत्र उपनिष्द ही हैं।

2.    महा काव्य तथा इतिहास

प्राचीन काल में कवि ही महाकाव्यों के माध्यम से इतिहास का संरक्षण भी करते थे। भारत में कई महाकाव्य लिखे गये हैं। उन में रामायण तथा महाभारत का विशेष स्थान है। क्योंकि रामायण तथा महाभारत ने भारत के जन जीवन तथा उस की विचार धारा को अत्याधिक प्रभावित किया है।

रामायण – रामायण  की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की है तथा यह विश्व साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महा काव्य है। रामायण की कथा भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा है। राम का चरित्र कर्तव्य पालन में एक आदर्श पुत्र, पति, पिता तथा राजा के कर्तव्य पालन का प्रत्येक स्थिति के लिये एक कीर्तिमान है।  महा काव्य में केवल राम का पात्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का है और रामायण के अन्य पात्र मानव गुणों तथा अवगुणों की दृष्ठि से सामान्य हैं। वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा ले कर कई कवियों ने राम कथा पर महाकाव्यों की रचना की जिन में से गोस्वामी तुलसीदास कृत हिन्दी महा काव्य राम चरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय है। रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही एकमात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है। रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है तथा भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो।

महाभारतमहाभारत विश्व साहित्य का सब से विस्तरित ऐतिहासिक महाकाव्य है। मुख्यतः इस ग्रंथ में भारत के कितने ही वंशों की कथा को पिरोया गया है जो तत्कालित समय की घटनाओं तथा जीवन शैली का चित्रण करता है। इस महाकाव्य में हर पात्र मुख्य कथानक में निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ता है तथा मानव जीवन की उच्चता और नीचता को दर्शाता है। रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। रामायण और महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। जहाँ रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्र में विचरता है वहीं महाभारत का पटाक्षेप समस्त भारतवर्ष में फैला हुआ है। इस से प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक विस्तर्ति राष्ट्र था।

पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाओं में भी हिन्दू धर्म के विकास को भारत के राजनौतिक इतिहास तथा जन-जीवन की कथाओं के साथ संजोया गया है। पौराणिक कथायें देवी-देवताओं, महामानवों तथा जन साधारण के परस्पर सम्पर्कों का अदभुत मिश्रण हैं। कुछ कथायें यथार्थ में घटित एतिहासिक हैं तथा कुछ को बढा चढा कर भी दिखाया गया हैं। भारत का प्राचीन इतिहास आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अतः उस को पुनः ढूंडने के लिये पौराणिक इतिहास को आधार बना कर अन्य लिखित एतिहासिक कृतियों से तुलनात्मिक आंकलन किया जा सकता है। यदि हम पौराणिक कथाओं को इतिहास ना भी माने तो भी वह अपने आप में ऐक अमूल्य साहित्यक धरोहर हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिये।

3.    सामाजिक ग्रंथ

सामाजिक जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर कई मौलिक तथा विस्तरित ग्रंथ उपलब्ध हैं जैसे कि आयुर्वेद, व्याकरण, योग शास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि। उन सभी का वर्णन इस समय प्रासंगिक नहीं अतः केवल दो ही ग्रंथों को संक्षेप में यहाँ वर्णित किया है जिन्हों ने ना केवल भारतीय जीवन को अपितु समस्त विश्व के मानव जीवन को अत्याधिक प्रभावित किया है।

श्रीमद् भागवद् गीता मानव जीवन के हर पहलू से जुड़ी श्रीमद् भागवद् गीता सब से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथ है जो आज भी हर परिस्थिति में अपनाने योग्य है। गीता समस्त वैदिक तथा उपनिष्दों के ज्ञान का सारांश है तथा सहज भाषा में कर्तव्यपरायणता की शिक्षा देती है। यदि कोई किसी अन्य ग्रंथ को ना पढ़ना चाहे तो भी पूर्णतया सफल जीवन जीने के लिये केवल गीता की दार्शनिक्ता ही पर्याप्त है।

मनु स्मृति – मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं और संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्ष्म ग्रंथ अन्य. किसी भाषा में नहीं है।

हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को सभ्यता का अग्रज तथा विश्व गुरू माना जाता है।  किन्तु आज अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम पद्धति से पढ़े लिखे भारतीय युवाओं को अज्ञान के कारण अपने पूर्वजों पर गर्व और विशवास नहीं, और अपने आप पर भरोसा और साहस भी नहीं कि वह इस अनमोल विरासत को पुनः विश्व पटल पर सुशोभित कर सकें। वह मानसिक तौर पर प्रत्येक तथ्य को पाश्चात्य मापदण्डों से ही प्रमाणित करने के इतने ग़ुलाम हो चुके हैं कि मौलिक ग्रन्थ को अंग्रेज़ी प्रतिलिपि के आघार पर ही प्रमाणित करने की माँग करते हैं।

चाँद शर्मा

9 -विष्णु के दस अवतार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)

हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते  रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –

  1. मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी।  तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
  2. कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
  3. वराह अवतार भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
  4. नर-सिहं अवतार भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित  हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
  5. वामन अवतार वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी।  राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
  6. परशुराम अवतार परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक  प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
  7. राम अवतार – परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
  8. कृष्ण अवतार कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
  9. बुद्ध अवतार विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
  10. कलकी अवतार विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।

 अवतार-वाद

 हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।

हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने  अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।

  • सृष्टि की जन्म प्रक्रिया – एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
  • मानव जीवन के विभन्न पड़ाव – एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
  • राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त – कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
  • भूगोलिक घटनायें – एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।

मानना, ना मानना – निजि निर्णय

अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।

कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। 

चाँद शर्मा

 

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