हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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मुस्लिम तुष्टीकरण या धर्म निर्पेक्षता ?


आज का सबसे मुख्य प्रश्न यही है की “क्या मुल्ला तुष्टिकरण को हम वास्तविक रूप में हम धर्मनिरपेक्षता का नाम दे सकते है?” कांग्रेस को देख कर यही आभास होता है कि कोई भी राजनैतिक दल सारी नैतिक जिम्मेदारियां ताक पर रख के कैसे नीचता की गहराइयों को छू सकता है!

आज कल विश्व की सबसे प्रमुख समस्या इस्लामी आतंकवाद है जिसके उन्मूलन के लिए विश्व के सबसे सशक्त प्रमुख देश अनवरत प्रयासरत हैं! दूसरी और भारत के भ्रष्ट नेता हैं जो चंद वोटों के लिए अपने देश से गद्दारी भी कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता की आड में आतंकवादी संगठनो को शह दे रहे हैं!

यह कैसी विडम्बना है कि जब सनी लियॉन जैसी पोर्न कलाकार को राष्ट्रीय टेलीविज़न पर परोसा जाता है! और इस पर कोई आपत्ति नहीं की जाती है! यहाँ मुल्ले सरे आम तिरंगे को आग लगा देते हैं और कांग्रेस कुछ नहीं कहती! यहाँ एक आतंकवादी को ‘श्री हाफिज सईद’ कहता है वह भी भारत का गृह मंत्री! वह जहां एक “दामिनी” की इज्ज़त तार तार कर, बलात्कार कर, उसे नृशंसता से मार देने वाला आदमी नाबालिग करार दिया जाता है और उसकी बिना जांच हुए केवल 3 साल के लिए सिर्फ सुधार गृह में भेज जाता है! क्यों मेहरबान है उस पर यह कांग्रेस सरकार क्यूंकि उसका नाम “मोहम्मद अफरोज” है! अगर उसे सज़ा दी गयी तो मुल्ला समुदाय नाराज़ नहीं हो जायेगा? वह भी JNU में बैठे लोग! जो कि कांग्रेस के झूठे प्रचारतंत्र का हिस्सा हैं! यहाँ हिन्दू स्वयंसेवक जो कि सदा से देश पर अपना सर्वस्व लुटाता आया है उसे “भगवा आतंकवादी ” की संज्ञा दी जाती है!

यह वह देश है जहां ऐम ऐफ हुसैन जैसे मानसिक रोगी हिन्दू देवी देवताओ की अश्लील पेंटिंग बनाते है तो उसे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का नाम दिया जाता है! और जब इस देश के वरिष्ठ कलाकार कमल हसन इस्लामिक आतंवाद पर फिल्म बनाते हैं तो कांग्रेस जैसी पार्टी सिर्फ मुल्ला तुष्टिकरण के चलते उस पर प्रतिबन्ध लगाती है! कोर्ट की आज्ञा की अवहेलना करते हुए आगे बढचढ के फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा रही है कांग्रेस!

यह सब साफ़ तौर पर वोटो की घिनौनी राजनीती है कोई धर्मनिरपेक्षता नहीं है! और इस सबको हम सब चुपचाप कब तक देखते रहेंगे? आज कांग्रेसी भारत माता का चीरहरण कर रहे हैं! हम कब तक पांडव, विदुर और धृतराष्ट्र बने रहेंगे?

अगर समय की यही मांग है तो हमें कृष्ण बनना ही होगा और एक और महाभारत का आवाहन करना होगा! इसी के बाद शायद शांति और धर्म की स्थापना संभव हो!

नरेन्द्र शशिशीश (फेसबुक)

(श्री नरेन्द्र शशिशीश फेसबुक पर युवा हिन्दू के नाते हिन्दूओं की चेतना के लिये अनथक प्रयास कर रहै हैं। उन के लेख को प्रस्तुत करना मेरे लिये उन के जोश, उत्साह, मेहनत और साहस के प्रति मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ – चाँद शर्मा)

69 – हिन्दूओं की दिशाहीनता


आज का हिन्दू दिशाहीनता के असमंजस में उदासीन, असुरक्षित और ऐकाकी जीवन जी रहा है। अपने आप को अकेला और लाचार समझ कर या तो देश से भाग जाना चाहता है या मानसिक पलायनवाद की शरण में खोखला आदर्शवादी और धर्म-निर्पेक्ष बना बैठा है। “हम क्या कर सकते हैं” हिन्दूओं के निराश जीवन का सारंश बन चुका है।

कोई भी व्यक्ति या समाज अपने पर्यावरण और घटनाओं के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। सुरक्षित रहने के लिये सभी को आने वाले खतरों से सजग रहना जरूरी है। विभाजन के पश्चात हिन्दू या तो पाकिस्तान में मार डाले गये थे या उन्हें इस्लाम कबूल करना पडा था। जिन्हें धर्म त्यागना मंज़ूर नहीं था उन्हें अपना घर बार छोड कर हिन्दुस्तान की ओर पलायन करना पडा था। पहचान के लिये प्रधानता धर्म की थी राष्ट्रीयता की नहीं थी। यदि आगे भी देश की राजनीति को कुछ स्वार्थी धर्म-निर्पेक्ष नेताओं के सहारे छोड दें गे और अपने धर्म को सुरक्षित नहीं करें गे तो भविष्य में भी हिन्दू डर कर पलायन ही करते रहैं गे।

इतिहास की अवहेलना

इतिहास अपने आप को स्दैव क्रूर ढंग से दोहराता है। आज से लगभग 450 वर्ष पहले मुस्लमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दू गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दू आज भी कशमीर से पलायन कर के शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। उन्हों ने ऐकता और कर्मयोग के मार्ग को नहीं अपनाया।

मुन्शी प्रेम चन्द ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने का जो चित्रण किया है वही दशा आज हिन्दूओं की भी है। उस समय लखनऊ के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे कि अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये अवध की रियासत पर अधिकार कर लिया था। आज हम क्रिकेट मैच, रोने धोने वाले घरेलू सीरयल और फिल्मी खबरें देखने में अपना समय नष्ट कर रहे हैं और अपने देश-धर्म की सुरक्षा की फिकर करने की फुर्सत किसी हिन्दू को नहीं। इटली मूल की ऐक महिला ने तो साफ कह दिया है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। हम ने चुप-चाप सुन लिया है और सह भी लिया है। हिन्दूओं का हिन्दूस्तान अल्पसंख्यकों के अधिकार में जा रहा है और देश के प्रधानमन्त्री ने भी कहा है कि देश के साधनों पर उन्हीं का ही “पहला अधिकार” है।

हिन्दूओं की भारत में अल्पसंख्या

हिन्दूओं की जैसी दशा कशमीर में हो चुकी है वैसी ही शीघ्र केरल, कर्नाटक, आन्ध्र, बंगाल, बिहार तथा उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में भी होने वाली है। यदि वह समय रहते जागृत और संगठित नहीं हुये तो उन्हें वहाँ से भी पलायन करना पडे गा। वहाँ मुस्लिम और इसाई जनसंख्या दिन प्रतिदिन बढ रही है। शीघ्र ही वह हिन्दू जनगणना से कहीं आगे निकल जाये गे। इन विदेशी घर्मों ने धर्म-निर्पेक्षता को हृदय से नहीं स्वीकारा है और धर्म-र्निर्पेक्षता का सरकारी लाभ केवल अपने धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये उठा रहै हैं। वह अपनी राजनैतिक जडें कुछ स्वार्थी हिन्दू राजनेताओं के सहयोग से भारत में मजबूत कर रहै हैं। उन के सक्ष्म होते ही भारत फिर से मुस्लमानों और इसाईयों के बीच बट कर उन के आधीन हो जाये गा। हिन्दूओं के पास अब समय और विकल्प थोडे ही बचे हैं।  

प्राकृतिक विकल्प

सृष्टि में यदि पर्यावरण अनुकूल ना हो तो सभी प्राणियों की पास निम्नलिखित तीन विकल्प होते हैं- 

  • प्रथम – किसी अन्य अनुकूल स्थान की ओर प्रस्थान कर देना।
  • दूतीय – वातावरण के अनुसार अपने आप को बदल देना।
  • तीसरा – वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना।

प्रथम विकल्प हिन्दू किसी अन्य स्थान की ओर प्रस्थान कर देना

विश्व में अब कोई भी हिन्दू देश नहीं रहा जो पलायन करते हिन्दूओं की जनसंख्या को आसरा दे सके गा। ऐक ऐक कर के सभी हिन्दू देश संसार से मिट चुके हैं। इस कडी का अन्तिम हिन्दू देश नेपाल था। आने वाली पीढियों को यह विशवास दिलाना असम्भव होगा कि कभी इरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लंका, म्यनमार, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, जावा, मैक्सिको, पेरू और बाँग्लादेश आदि ‘हिन्दू देश’ थे जहाँ मन्दिर और शिवालयों में आरती हुआ करती थी। अब अगर हिन्दूस्तान भी हिन्दूओं उन से छिन गया तो कहाँ जायें गे?

सिवाय मूर्ख हिन्दूओं के कोई भी देश दूसरे देश के शर्णार्थियों को स्दैव के लिये अपनी धरती पर स्थापित नहीं कर सकता। शर्णार्थियों को स्दैव स्थानीय लोगों का शोशण और विरोध झेलना पडता है। इस लिये प्रथम विकल्प में हिन्दूओं के लिये भारत से पलायन कर के अपने लिये नया सम्मान जनक घर तलाशना असम्भव है।

दूसरा विकल्प वातावरण अनुसार अपने आप को बदल देना

भारत में कई ‘धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी’ हैं जो रात दिन प्रचार करते रहते हैं कि हमें समय के साथ चलना चाहिये। बाहर से आने वालों के लिये अपने दरवाजे खोल कर भारत को पर्यटकों, घुसपैठियों, और समलैंगिकों का धर्म-निर्पेक्ष देश बना देना चाहिये जहाँ सभी साम्प्रदायों को अपने अपने ढंग की जीवन शैली जीने का अधिकार हो। यदि उन की सलाह मान ली जाय तो हिन्दूओं को “अरब और ऊँट” वाली कथा अपने घर में दोहरानी होगी। देश के कई विभाजन भी करने पडें गे ताकि आने वाले सभी पर्यटकों को उन की इच्छानुसार जीने दिया जाये। मुस्लिम और हिन्दू, मुस्लिम और इसाई, इसाई और हिन्दू ऐक ही शैली में नहीं जीते। सभी में प्रस्पर हिंसात्मिक विरोधाभास हैं। शान्ति तभी हो सकती थी यदि सभी ऐक ही आचार संहिता के तले रहते परन्तु भारत में ‘धर्म-निर्पेक्षों’ वैसा नहीं होने दिया।

यह सोचना भी असम्भव होगा कि लाखों वर्ष की प्राचीन हिन्दू सभ्यता इस परिस्थिति से समझोता कर सकें गी और उन समुदायों के रीति रिवाजों को अपना ले गी जो अज्ञानता के दौर से आज भी पूर्णत्या निकल नहीं पाये हैं। अन्य धर्मों में पादरियों और मौलवियों के कथन पर यकीन करना लाज़मी है नहीं तो उस की सजा मृत्युदण्ड है, किन्तु स्वतन्त्र विचार के हिन्दू उन आस्थाओं पर कभी भी विशवास नहीं कर सकें गे। हिन्दूओं की संख्या भले ही शून्य की ओर जाने लगे फिर भी हिन्दू अकेले ही विश्व के किसी कोने में भी जीवित रहै गा क्यों कि यही मानवता का प्राकृतिक धर्म है। मानवता प्रलयकाल से पहले समाप्त नहीं हो सकती यह भी प्रकृति का नियम है। अतः हिन्दू पहचान मिटाने का दूसरा विकल्प भी असम्भव है।

तीसरा विकल्प वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना

हिन्दूओं के पास अब केवल यही ऐक प्रभावशाली, स्थायी, तर्क संगत तथा सम्मान जनक विकल्प है कि वह अपने प्रतिकूल धर्म-निर्पेक्ष वातावरण को बदल कर उसे अपने अनुकूल हिन्दूवादी बनाये।   

समय समय पर हिन्दू समाज के ध्वस्त मनोबल को पुनर्स्थापित करने के लिये श्री कृष्ण, चाण्क्य, शिवाजी, तथा गुरू गोबिन्द सिहं जैसे महा जन नायकों ने भी यही विकल्प अपनाया था। हमारा वर्तमान संविधान और सरकार केवल धर्म-निर्पेक्षता का छलावा मात्र हैं। वास्तव में वह केवल अल्पसंख्यक तुष्टिकारक और हिन्दू विरोधी हैं। हमारे संवैधानिक प्रतिष्ठान भी अल्पसंख्यक संरक्षण और तुष्टिकरण का कार्य करते हैं। यदि इस संविधान को नहीं बदला गया तो निश्चय ही भारत का विघटन होता चला जाये गा। इस को रोकना है तो हिन्दूओं को संगठित हो कर पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत कर भारत में हिन्दू रक्षक सरकार की स्थापना करनी होगी जो संविधान में परिवर्तन करने में सक्षम हो। भारत को “हिन्दू-राष्ट्र” घोषित करना होगा और मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को कानूनी तरीके से दूर करना होगा। हिन्दू सरकार ही भारत की परम्पराओं और गौरव को पुनर्जीवित कर सकती है और यह हमारा अधिकार तथा कर्तव्य दोनों हैं।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना

आज हिन्दूओं को अपने ही घर हिन्दूस्तान में अल्पसंख्यकों के सामने विनती करनी पडती है। इस शर्मनाक स्थिति से उबरने के लिये हिन्दूओं को वैधानिक तरीके से सरकार तथा संविधान बदलने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं है। अतः हिन्दूओं को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये राजनैतिक तौर पर संगठित हो के ऐक सशक्त वोट बैंक बनाना होगा।

  • उन्हें किसी ऐक राजनैतिक दल को सम्पूर्ण सहयोग देना पडे गा या फिर नया हिन्दू राजनैतिक दल बना कर चुनाव में उतरना हो गा। समय और वर्तमान परिस्थितियों में नया राजनैतिक दल संगठित करना ऐक कठिन और तर्कहीन विचार होगा। अतः किसी शक्तिशाली दल को समर्थन देना ही क्रियात्मक उपाय है।
  • हिन्दूओं को अपने मतों का विभाजन रोकना होगा। खोखले आदर्शवाद की चमक में हिन्दू इस खेल को समझ नहीं पा रहै अल्पसंख्यक संगठित रह कर राजनैतिक संतुलन को बिगाडते हैं ताकि हिन्दूओं को सत्ता से वंचित रखा जाय। 
  • हिन्दूओं को नियन्त्रण करना होगा कि अल्पसंख्यक और हिन्दू विरोधी तत्व अनाधिकृत ढंग से मताधिकार तो प्राप्त नहीं कर रहै। घुसपैठिये भारत में कोई कर नहीं देते किन्तु सभी प्रकार की आर्थिक सुविधायें उठाते हैं जो भारत के वैधिनिक नागरिकों पर ऐक बोझ हैं। हिन्दू नागरिकों को पुलिस से सहयोग करना चाहिये ताकि वह अतिक्रमण को हटाये।
  • हमें भारत का निर्माण उन भारतीयों के लिये ही करना होगा जिन्हें विदेशियों के बदले भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा, तथा भारतीय महानायकों से प्रेम हो।

हमें अपनी धर्म निर्पेक्षता के लिये किसी विदेशी सरकार से प्रमाणपत्र लेने की आवश्यक्ता नहीं। किसी अन्य देश को भारत में साम्प्रदायक दंगों सम्बन्धित तथ्य खोजने के लिये मिशन भेजने का कोई अधिकार नहीं है। धर्म-निर्पेक्षता स्वतन्त्र भारत का आन्तरिक मामला है। बांग्ला देश का उदाहरण हमारे सम्मुख है जो विश्व पटल पर अपनी इच्छानुसार कई बार धर्म-निर्पेक्ष से इस्लामी देश बना है। हमें बिना किसी झिझक के भारत को ऐक हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहिये। हिन्दू और भारत ऐक दूसरे के पूरक हैं। यह नहीं भूलना चाहिये कि मुस्लिम शासकों के समय भी भारत को ‘हिन्दुस्तान’ ही कहा जाता था।

हिन्दू समाज का संगठन

हिन्दू विचारकों तथा धर्म गुरूओं को हर प्रकार से विक्षिप्त हिन्दूओं को कम से कम राजनैतिक तौर पर किसी ऐक हिन्दू संस्था के अन्तरगत ऐकत्रित करना होगा। यदि अल्पसंख्यक धर्मान्तरण और जिहादी आतंकवाद को त्याग कर अपने आप को भारतीय संस्कृति के साथ जोडें और मुख्य धारा से संयुक्त हो कर अपने आप को राष्ट्र के प्रति समर्पित करें तो वह भी इस प्रकार की राष्ट्रवादी संस्था से सम्मानपूर्वक जुड सकते हैं। 

घर वापसी आन्दोलन

जिन्हों ने पहले किसी भय या प्रलोभन के कारण धर्म परिवर्तन किया था और अब स्वेच्छा से हिन्दू धर्म में पुनः लौट आना चाहें तो उन का स्वाग्त करना चाहिये।

जो कोई भी ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्तानुसार जीवन शैली जीता हो, अपने भारतीय पूर्वजों का सम्मान करता हो वह चाहे किसी भी निजि पूजा पद्धति में विशवास रखता हो उसे हिन्दू मान लेना चाहिये। परन्तु उसे समान आचार संहिता, समान राष्ट्रभाषा, समान संस्कृति तथा भारत की मुख्य धारा को अपना कर अल्पसंख्यक वर्ण को त्यागना होगा।

भारत को गौरवमय बनाने का विकल्प हमारे पास अगले निर्वाचन के समय तक ही है जिस के लिये समस्त हिन्दूओं को संगठित होना पडे गा । यदि हम इस लक्ष्य के प्रति कृतसंकल्प हो जाये तो अगले चुनाव में ही भारत अपने प्राचीन गौरव के मार्ग पर दोबारा अग्रेसर हो सकता है। यदि हम प्रयत्न करें तो सर्वत्र अन्धेरा नहीं हुआ अभी उम्मीद की किरणें बाकी है – परन्तु अगर अभी नहीं तो फिर कभी नहीं होगा।

चाँद शर्मा

60 – हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।

असमानताओं का संघर्ष

भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।

इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।

समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।

हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ

कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 

कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।

मन्दिरों का विध्वंस

समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।

कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।

विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।

ईस्लामीकरण का दौर

सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।

बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।

हिन्दूओं की बचाव नीति

मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 

हिन्दूओं की बचाव नीति

अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-

पलायनवाद – बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार – निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।

वंशावली पंजीकरण की प्रथा

इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।

ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।

सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 

कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।

जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

59 – ईस्लाम का अतिक्रमण


इस्लाम भारत में जिहादी लुटेरों और शत्रुओं की तरह आया जिन्हें हिन्दूओं से घृणा थी। मुस्लिम स्थानीय लोगों को ‘काफिर’ कहते थे और उन्हें को कत्ल करना अपना ‘धर्म’ मानते थे। उन्हों ने लाखों की संख्या में हिन्दूओं को कत्ल किया और वह सभी कुछ ध्वस्त करने का प्रयास किया जो स्थानीय लोगों को अपनी पहचान के लिये प्रिय था। इस्लामी जिहादियों का विशवास था कि अल्लाह ने केवल उन्हें ही जीने का अधिकार दिया था और अल्लाह ने मुहमम्द की मार्फत उन्हें आदेश भिजवा दिया था कि जो मुस्लमान नहीं उन्हें मुस्लमान बना डालो, ना बने तो उन्हें कत्ल कर डालो।

आदेश का पालन करने में लगभग 63000 हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त किया गया, लूटा गया, और उन में से कईयों को मस्जिदों में तबदील कर दिया गया। हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमायें तोड कर मुस्लमानों के पैरों तले रौंदी जाने के लिये उन्हें नव-निर्मत मस्जिदों की सीढियों के नीचे दबा दिया जाता था। जो दबाई या अपने स्थान से उखाडी नहीं जा सकतीं थीं उन्हें विकृत कर दिया जाता था। उन कुकर्मों के प्रमाण आज भी भारत में जगह जगह देखे जा सकते हैं। ‘इस्लामी फतेह’ को मनाने के लिये हिन्दूओं के काटे गये सिरों के ऊंचे ऊंचे मीनार युद्ध स्थल पर बनाये जाते थे। पश्चात कटे हुये सिरों को ठोकरों से अपमानित कर के मार्गों पर दबा दिया जाता था ताकि काफिरों के सिर स्दैव मुस्लमानों के पैरों तले रौंदे जाते रहैं।

खूनी नर-संहार और विधवंस  

मुस्लिम विजयों के उपलक्ष में हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मणों को मुख्यतः कत्ल करने का रिवाज चल पडा था। क्षत्रिय युद्ध भूमि पर वीर गति प्राप्त करते थे, वैश्य वर्ग को लूट लिया जाता था और अपमानित किया जाता था और शूद्रों को मुस्लमान बना कर गुलाम बना लिया जाता था।

उत्तरी भारत में सर्वाधिक ऐतिहासिक नरसंहार हुये जिन में से केवल कुछ का उदाहरण स्वरूप वर्णन इस प्रकार हैः- 

  • छच नामा के अनुसार 712 ईस्वी में जब मुहमम्द बिन कासिम नें सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो मुलतान शहर में 6 हजार हिन्दू योद्धा वीर गति को प्राप्त हुये थे। उन सभी के परिजनों को गुलाम बना लिया गया था।
  • 1399 ईस्वी में अमीर तैमूर नें दिल्ली विजय के पश्चात सार्वजनिक नरसंहार (कत्ले-आम) का हुक्म दिया था। उस के सिपाहियों ने ऐक ही दिन में ऐक लाख हिन्दूओं को कत्ल किया जो अन्य स्थानों के नरसंहारों और लूटमार के अतिरिक्त था।
  • 1425 ईस्वी में चन्देरी का दुर्ग जीतने के बाद मुगल आक्रान्ता बाबर ने 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी हिन्दूओं को कत्ल करवा दिया था तथा औरतों और बच्चों को गुलाम बना लिया था। चन्देरी का इलाका कई महीनों तक दुर्गन्ध से सडता रहा था।
  • 1568 ईस्वी में तथाकथित ‘उदार’ मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड के राजपूत किलेदार जयमल को उस समय गोली मार दी थी जब वह किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। उस के सिपहसालार फतेह सिहं को हाथ पाँव बाँध कर हाथी के पैरों तले कुचलवाया गया था। उसी स्थान पर उन तीस हजार हिन्दूओं को कत्ल भी किया गया था जिन्हों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था। आठ हजार महिलायें सती की अग्नि में प्रवेश कर गयीं थी।
  • 1565 ईस्वी में बाह्मनी सुलतानो ने संयुक्त तौर पर हिन्दू राज्य विजय नगर का विधवंस कत्ले आम तथा सर्वत्र लूटमार के साथ मनाया। फरिशता के उल्लेखानुसार  बाह्मनी सुलतान केवल निचले दर्जे के राजवाडे थे किन्तु वह काफिरों को सजा देने के बहाने हजारों की संख्या में हिन्दूओं का कत्ल करवा डालते थे।
  • आठारहवीं शताब्दी में नादिर शाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा, ध्वस्त किया और कत्लेआम करवाया ।

मुसलिम शासकों ने हिन्दूओ के नरसंहार का उल्लेख अभिमान स्वरूप अपने रोजनामचों (दैनिक गेजेट) में करवाया है क्यों कि वह इस को पवित्र कर्म मानते थे। काफिरों का कत्ल करवाने की संख्या के विषय में प्रत्येक अक्रान्ता और मुस्लिम शासक की अपनी अपनी धारणायें थी और परिताड़ण करने के नृशंसक तरीके थे जो सर्वथा क्रूर और अमानवीय होते थे। काफिरों को जिन्दा जलाना, आरे से चिरवा देना, उन की खाल उतरवा देना, उन्हें तेल के कडाहों में उबलवा देना आदि तो आम बातें थी जिन के चित्र संग्रहालयों में आज भी देखे जा सकते हैं।   

सर्वत्र अंधंकार मय युग

शीघ्र ही हिन्दूओं का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया, जिस के फलस्वरूपः-  

  • तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला आदि सभी विश्व विद्यालय धवस्त कर दिये गये तथा शिक्षा और ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अन्धकार छा गया।
  • बुद्धिजीवियों को चुन चुन की मार डाला जाता था। बालकों के प्रराम्भिक शिक्षण संस्थान ही बन्द हो गये। इस्लामी धार्मिक शिक्षा का काम मदरस्सों के माध्यम से कट्टरवादी मौलवियों नें शुरू कर दिया।
  • इस्लामी शासन के अन्तरगत सभी प्रकार के मौलिक भारतीय ज्ञान लुप्त हो गये। जहाँ कहीं हिन्दू प्रभाव बच पाया वहीँ संस्कृत व्याकरण, गणित, चिकित्सा तथा दर्शन और प्राचीन ग्रन्थों का पठन छिप छिपा कर बुद्धिजीवियों के निजी परिश्रमों से चलता रहा। परन्तु उन्हें राजकीय संरक्षण तथा आर्थिक सहायता देने वाला कोई नहीं था।
  • ‘जज़िया’ जैसे अधिकतर इस्लामी करों के प्रभाव से हिन्दूओं को धन का अभाव सताने लगा। हिन्दू गृहस्थियों के लिये दैनिक यज्ञ तो दूर उन के लिये परिवार का निजि खर्च चलाना भी दूभर हो गया था। वह बुद्धिजीवियों की आर्थिक सहायता करना तो असम्भव अपने बच्चों को साधारण शिक्षा भी नहीं दे सकते थे क्यों कि उन का धन, धान्य स्थानीय मुस्लिम जबरन हथिया लेते थे।
  • हिन्दूओं के लिये मुस्लमानों के अत्याचारों के विरुध न्याय, संरक्षण और सहायता प्राप्त करने का तो कोई प्रावधान ही नहीं बचा था। मुस्लमानों के समक्ष हिन्दूओं के नागरिक अधिकार कुछ नहीं थे। मानवता के नाम पर भी उन्हें जीवन का मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। न्याय के नाम से मुस्लिम की शिकायत पर मौखिक सुनवाई कर के साधारणत्या स्थानीय अशिक्षित मौलवी किसी भी हिन्दू को मृत्यु दण्ड तक दे सकते थे। हिन्दूओं के लिये केवल निराशा, हताशा, तथा भय का युग था और काली लम्बी सुरंग का कोई अन्त नहीं सूझता था।

इस कठिन और कठोर अन्धकारमय युग में भी हिन्दू बुद्धिजीवियों ने छिप छिपा कर ज्ञान की टिमटिमाती रौशनी को बुझने से बचाने के भरपूर पर्यत्न किये जिन में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य (1114 -1185) का नाम उल्लेखनीय है। ज्ञान क्षेत्र की स्वर्णमयी परम्परा को भास्कराचार्य ने आधुनिक युग के लिये अमूल्य योगदान पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त की व्याख्या कर के दिया।  

सामाजिक कुरीतियों का पदार्पण

अन्धकारमय वातावरण के कारण हिन्दू समाज में कई कुरीतियों ने महामारी बन कर जन्म ले लिया। प्रगति के स्थान पर अशिक्षता और अन्धविशवासों के कारण जीवन का स्वरुप और दृष्टिकोण निराशामय और नकारात्मिक हो गया था जिस के फलस्वरूपः-

  • मुस्लिम लूटमार, छीना झपटी और जजि़या जैसे विशेष करों के कारण हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे।  
  • शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। उन का व्यवसायिक प्रशिक्षण बन्द हो जाने से उन की अर्थ व्यव्स्था छिन्न भिन्न हो गयी थी। वह केवल मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमा सकते थे। उस क्षेत्र में भी ‘बेगार’ लेने का प्रचलन हो गया था तथा काम के बदले में उन्हें केवल मुठ्ठी भर अनाज ही उपलब्द्ध होता था। किसानों की जमीन शासकों ने हथिया ली थी। उन का अनाज शासक अधिकृत कर लेते थे।
  • पहले संगीत साधना हिन्दूओं के लिये उपासना तथा मुक्ति का मार्ग था। अब वही कला मुस्लिम उच्च वर्ग के प्रमोद का साधन बन गयी थी। साधना उपासना की कथक नृत्य शैली मुस्लिम हवेलियों में कामुक ‘मुजरों’ के रूप में परिवर्तित हो गयी ताकि काम प्रधान भाव प्रदर्शन से लम्पट आनन्द उठा सकें। 
  • अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ। इस में कई स्वार्थी हिन्दूओं ने भी योगदान दिया।
  • अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन भी पड गया। पुरोहितों ने यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया ।

हिन्दू समाज का विघटन 

असुरक्षित ब्राह्मण विदूान मुसलमानों से अपमानित होते थे और हिन्दूओं से उपेक्षित हो रहे थे। उन्हें अपना परम्परागत पठन पाठन, दान ज्ञान का मार्ग त्यागना पड गयाथा। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा। जीविका के लिये भी उन्हें रीतिरीवाजों के लिये अवसर और बहाने तराशने पडते थे जिस के कारण साधारण जनता के लिये संस्कार और रीति रिवाज केवल दिखावा और बोझ बनते गये। हिन्दू समाज का कोई मार्ग-दर्शक ना रहने के कारण प्रान्तीय रीति रिवाजों और परम्पराओं का फैलाव होने लगा था। जातियों में कट्टरता आ गयी तथा ऐक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को घृणा, भय, तथा अविशवास से देखने लगे थे। हिन्दू समाज का पूरा ताना बाना जो परस्पर सहयोग, विशवास और प्रेम पर निर्भर था विकृत हो गया। रीतिरिवाज जटिल, विकृत और खर्चीले हो जाने के कारण हर्ष- उल्लास देने के बजाय दुःख दायक हो गये। अन्ततः निर्धन लोग रीति रिवाजों की उपेक्षा कर के धर्म-परिवर्तन के लिये भी तत्पर हो गये। 

अपमानजनक वातावरण

हिन्दूओं के आत्म सम्मान को तोडने के लिये मुस्लमानों ने क्षत्रियों का अपने सामने घोडे पर चढना वर्जित कर दिया था। उन के सामने वह शस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। अतः कई क्षत्रियों ने परम्परागत सैनिक और प्रशासनिक जीवन छोड कर कृषि या जीविका के अन्य व्यवसाय अपना लिये। धर्म रक्षा का मुख्य कर्तव्य क्षत्रियों से छूट गया। जो कुछ क्षत्रिय बचे थे वह युद्ध भूमि पर मुस्लमानों के विरुद्ध या कालान्तर मुस्लमानों के लिये लडते लडते हिन्दू योद्धाओं के हाथों वीर गति पा चुके थे। हिन्दू राजा मुगलों की डयौहडियों पर ‘चौकीदारी’ करते थे या हाथ बाँधे दरबार में खडे रहते थे।   

सामाजिक कुरीतियों का चलन

मुस्लिम नवाबों तथा शासकों की कामुक दृष्टि सुन्दर और युवा लडके लडकियों पर स्दैव रहती थी। उन्हें पकड कर जबरन मुस्लमान बनाया जाता था तथा उन का यौन शोषण किया जाता था। इसी लिये हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिये पर्दा करने का रिवाज चल पडा। फलस्वरुप विश्षेत्या उत्तरी भारत में रात के समय विवाह करने की प्रथा चल पडी थी। वर पक्ष वधु के घर सायं काल के अन्धेरे में जाते थे, रात्रि को विवाह-संस्कार सम्पन्न कर के प्रातः सूर्योदय से पूर्व वधु को सुरक्षित घर ले आते थे। समाजिक बिखराव के कारण हिन्दू समाज में कन्या भ्रूण की हत्या, बाल विवाह, जौहर तथा विधवा जलन की कुप्रथायें भी बचावी विकल्पों के रूप में फैल गयीं।

मुस्लिम हिन्दूओं की तरह बाहर लघू-शंका के लिये नहीं जाते थे और इस चलन को ‘कुफ़र’ मानते थे। उन के समाज में लघु-शंका पर्दे में की जाती थी। गन्दगी को बाहर फैंकवाने के लिये और हिन्दूओं को अपमानित करने के लिये उन्हों ने सिरों पर मैला ढोने के लिये मजबूर किया। इस प्रथा ने हिन्दू समाज में मैला ढोने वालों के प्रति घृणा और छुआ छुत को और बढावा दिया क्यों कि हिन्दू विचार धारा में यम नियम के अन्तर्गत स्वच्छता का बहुत महत्व था। छुआ छूत का कारण स्वच्छता का अभाव था। स्वार्थी तत्वों ने इस का अत्याधिक दुषप्रचार धर्म परिवर्तन कराने के लिये और हिन्दू समाज को खण्डित करने के लिये किया जो अभी तक जारी है।   

चाँद शर्मा

 

51 – अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण


आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे  ‘बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख 

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी  के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन  के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। 

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक –स्टोन्सकी संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी। 

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है। 

महाभारत के आलेख

इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट  था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर  के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…” 

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स  को हीटसीकिंग और साऊडसीकरस  कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी

प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख भी किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तरित उल्लेख है। इसी प्रकार ऐक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अशविन वैज्ञानिक के साथ युद्ध का वर्णन है जिस से भारत के तत्कालित अन्तरीक्ष ज्ञान तथा एन्टी  –ग्रेविटी  तकनीक के बारे में जागृति का आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जब कि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था। रामायण में हनुमान की उडान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है

       “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।।    (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि…  तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।।(64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महा कपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)…  तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनि निष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)

       “जिस समय वह कूदे, उस समय उन के वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्ष  उखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश  में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब  गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मत से दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए  साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”  

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता है कि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं  कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चात इस का पाठक यह अर्थ निकालें कि ओबामा  वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के  अज्ञान को आप क्या कहैं गे ?

राजस्थान से भी

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव  राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?

भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन में से कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफ ओ (अन आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है कि सभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन  के थ्रिल्लर – राईटर  नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार 

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है। उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञान होना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है। 

कंसेप्ट का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट  को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स  का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे। यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखक का तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है। 

बज़बम

पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्ष पश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।

जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्व प्रथम बज़ बमों के लिये पल्स –जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह ऐक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी। 

तिलिसम नहीं यथार्थ

ऐक वर्ष पूर्व 2009 तक पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर ऐक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये ऐक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया।

इस के कुछ समय पश्चात ऐक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन  से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।

सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।

हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम

आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखते हैं जिसे आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गया है वह भी हो सकता है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

जो विदेशी पर्यटक भारत आ कर चरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं। 

य़ह आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं। 

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

45 – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति


“संगीत है शक्ति ईश्वर की हर सुर में बसे हैं राम

रागी जो सुनाये राग मधुर, रोगी को मिले आराम।”

भारत में देवी देवताओं से ले कर साधारण मानवों तक हर किसी के जीवन में संगीत किसी ना किसी रूप में जुडा हुआ है। संगीत-रहित जीवन की कलपना केवल नारकीय जीवन के साथ ही करी जा सकती है। गायन, वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं को संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना गया है।

लिखित कला और विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी संगीत का स्थान विश्व में प्राचीनतम है। संगीत को विज्ञान तथा कला, दोनो के क्षेत्र में समान महत्व मिला है। जैसे दैविक शक्तियों को शस्त्रों के साथ जोडा गया है उसी प्रकार संगीत के वाद्य यंत्रो और नृत्यों को भी देवी देवताओं के साथ जोडा गया है। भगवान शिव डमरू की ताल के साथ ताँडव नृत्य करते हैं, तो देवी सरस्वती वीणा वादिनी हैं। भगवान विष्णु के प्रतीक कृष्ण वँशी की तान सुनाते हैं और रास नृत्य भी करते थे। देवऋषि नारद तथा राक्षसाधिपति रावण वीणा वादन में पारंगत हैं। गाँडीवधारी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुधर होने के साथ साथ नृत्य शिक्षक भी हैं। अप्सराओं तथा गाँधर्वों का तो संगीत कला के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान हैं। भारत में देवी देवताओं से ले कर जन साधारण तक सभी का जीवन संगीत मय है। हर कोई संगीत को जीवन का मुख्य अंग मानता है।

संगीत के प्राचीन ग्रन्थ

सामवेद के अतिरिक्त भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’ संगीत कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय संगीत पद्धति में ‘स्वरों’ तथा उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’ (इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट, वादन क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’ (रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।

वाद्य यन्त्र गायन का अनुसरण और संगत करते थे। वादक ऐकल प्रदर्शन (सोलो परफारमेंस) के अतिरिक्त जुगलबन्दी (ड्येट), तथा वाद्य वृन्द (आरकेस्ट्रा) में भी भाग लेते थे। वाद्य वृन्द में ‘तन्त्र-वाद्य’ (मिजराफ से बजाये जाने वाले), ‘तत-वाद्य’ ( गज से बजाये जाने वाले) ‘सुश्रिर-वाद्य’ (बाँसुरी आदि) तथा ‘घट-वाद्य’ ताल देने वाले वाद्य) आदि सभी वाद्य सम्मिलित थे। आज के सिमफनी आरकेस्ट्रा में भी वाद्यों के मुख्य अंग यही होते है क्यों कि ‘ब्रास (ट्रम्पेट आदि) और वुडविण्ड (कलारिनेट आदि) वाद्य भी सुश्रिर-वाद्यों की श्रेणी में आ जाते हैं।

संगीत का विकास और प्रसार

हिन्दू मतानुसार मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। नाद-साधन (म्यूजिकल साउँड) भी मोक्ष प्राप्ति का ऐक मार्ग है। नाद-साधन के लिये ऐकाग्रता, मन की पवित्रता, तथा निरन्तर साधना की आवश्यक्ता है जो योग के ही अंग हैं। आनन्द की अनुभूति ही संगीत साधना की प्राकाष्ठा है। संगीत के लिये भक्ति भावना अति सहायक है इस लिये संगीत आरम्भ से ही मन्दिरों, कीर्तनों (डिस्को), तथा सामूहिक परम्पराओं के साथ जुडा रहा है।  भारत का अनुसरण करते हुये पाश्चात्य देशों में भी संगीत का आरम्भ और विकास चर्च के आँगन से ही हुआ था फिर वह नाट्यशालाओं में विकसित हुआ, और फिर जनसाधारण के साथ लोकप्रिय संगीत (पापुलर अथवा पाप म्यूज़िक) बन गया।

छन्द-गायन तथा जातीय-गायन वैदिक काल से ही वैदिक परम्पराओं के साथ जुड गया था जिस का उल्लेख महाकाव्यों, और सामाजिक साहित्य में मिलता है। भारत में यह कला ईसा से कई शताब्दियाँ पूर्व ही पूर्णत्या विकसित हो चुकी थी। इसी सामूहिक कंठ-गायन को पाश्चात्य जगत में कोरल संगीत कहा जाता है।

वैदिक छन्द-गायन की परम्परायें लिखित थीं। छन्दोग्य उपनिष्द पुजारी वर्ग को समान गायन परिशिक्षण देने का महत्वपूर्ण माध्यम था। ‘समन’ का गायन और वीणा के माध्यम से वादन दोनो होते थे। मन्दिरों के प्राँगणों में नृत्य भी पूजा अर्चना का अंग था। मन्दिरों से पनप कर यह कला राजगृहों तथा उत्सवों को सजाने लग गयी और फिर समस्त सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मुस्लिम काल में संगीत राज घरानों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया था। 

प्रथम दशक में भारतीय संगीत सम्बन्धी साहित्य के कई मौलिक ग्रँथ उपलब्ध हैं जिन से संगीत के विकास का पता चलता है। सप्तवीं शताब्दी में मातँगा कृत ‘बृहदेशी’ ऐक मुख्य ग्रँथ है जिस में प्रथम बार ‘राग’ का वर्णन किया गया है। अन्य कृति शारंगदेव का ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’ है जो तेहरवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस में तत्कालिक शौलियों, पद्धतियों और परम्पराओं का विस्तरित उल्लेख है।

ईसा से 200-300 वर्ष पूर्व पिंगल ने संगीत पद्धति के क्षेत्र में योग्दान दिया है। उस के आलेखों में बाईनरी संख्या तथा ‘पास्कल-त्रिभुज’ का आलेख भी मिलता है। संगीत के क्षेत्र में ‘श्रुति’ (ध्वनि का सूक्षम रूप जो सुना और अनुसरन किया जा सके) का आधार वायु में आन्दोलन कारी तरंगें है जिन्हें ‘अनुराणना’ (टोनल हार्मनीज) कहा जाता है। दो या उस से अधिक श्रुतियों को मिला कर स्वरों की रचना भारत के संगीतिज्ञ्यों ने करी थी।

राग पद्धति

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति रागों पर आधारित है । रागों की उत्पत्ति ‘थाट’ से होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’ मानी गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’ थाटों का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, भैरवी, काफी, आसावरी, पूर्वी, मारवा और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव (मूड – थीम) का घोतक है। राग शब्द सँस्कृत के बीज शब्द ‘रंज’ से लिया गया है। अतः प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन करना अनिवार्य है अन्यथ्वा आपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता। हिन्दूस्तानी संगीत में प्रत्येक राग अपने निर्धारित समय पर अधिक प्रभावकारी होता है जबकि इस प्रकार की समय-सारणी पाश्चात्य संगीत में नहीं है।

गायक हो या वादक, वह निर्धारित सीमा के अन्दर रह कर ही  अपने मनोभावों का संगीत के माध्यम से प्रदर्शन करता है। इस के साथ साथ वह संगत करने वाले ताल वाद्य की समय सीमा में भी बन्धा रहता है। उसे का प्रदर्शन निर्धारित ‘आवृतियों’ में ही कर के दिखाना होता है। इस की तुलना में पाश्चात्य संगीत में गीतों के लिये किसी विशिष्ट समय की प्रतिबन्धित मर्यादा नहीं होती। समस्त पाश्चात्य संगीत भारत के पाँच थाटों में समा जाता है। हिन्दुस्तानी संगीत में ‘धुन’ (मेलोडी) की प्रधानता रहती है जबकि पाश्चात्य संगीत में संगत (हार्मनी) प्रधान है। दोनो का सम्बन्ध क्रमशः आत्मा और शरीर के जैसा है।   

स्वर मालिका तथा लिपि

भारतीय संगीत शास्त्री अन्य कई बातों में भी पाश्चात्य संगीत कारों से कहीं आगे और प्रगतिशील थे। भारतीयों ने ऐक ‘सप्तक’ ( सात स्वरों की क्रमबद्ध लडी – ‘सा री ग म प ध और नि को 22 श्रुतियों (इन्टरवल) में बाँटा था जब कि पाश्चात्य संगीत में यह दूरी केवल 12 सेमीटोन्स में ही विभाजित करी गयी है। भारतीयों ने स्वरों के नामों के प्रथम अक्षर के आधार पर ‘सरगमें’ बनायी जिन्हें गाया जा सकता है। ईरानियों और उन के  पश्चात मुसलमानों ने भी भारतीय स्वर मालाओं (सरगमों) को अपनाया है। 

स्वरों की पहचान के लिये पाश्चात्य संगीतिज्ञों ने ग्यारहवीं शताब्दी में पहले ‘डो री मी फा सोल ला ती आदि शब्दों का प्रयोग किया, और फिर ‘ला ला’, ‘मम’ ‘ओ ओ’ आदि आवाजों का इस्तेमाल किया जिन का कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय समानता के विचार से अब पाश्चात्य संगीत के स्वर अंग्रेजी भाषा के अक्षरों से ही बना दिये गये हैं जैसे कि ‘ऐ बी सी डी ई एफ जी’ – लेकिन उन का भी संगीत के माधुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं। उन की आवाज की ऊँच-नीच और काल का अनुमान स्वर लिपि की रेखाओं (स्टेव) पर बने अनगिनित चिन्हों के माध्यम से ही लगाया जाता है। इस की तुलना में भारतीय स्वर लिपि को उन की लिखावट के अनुसार ही तत्काल गाया और बजाया जा सकता है। स्वरों के चिन्ह भी केवल बारह ही होते हैं। अन्य कई बातों में भी भारतीय संगीत पद्धति पाश्चात्य संगीत पद्धति से बहुत आगे है लेकिन उन सब का उल्लेख करना सामान्य रुचि का विषय नहीं है। 

भारतीय परम्पराओं का पश्चिम में असर

पाश्चात्य संगीत की थ्योरी के जनक का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तु को जाता है जो ईसा से 300 वर्ष पूर्व हुये थे। अब पिछले कई वर्षों से पाश्चात्य संगीतज्ञ्य भारतीय संगीत की परम्पराओं में दिलचस्पी ले रहे हैं। 22 श्रुतियों के भारतीय सप्तक को उन्हों नें 24 अणु स्वरों (माईक्रोटोन्स) में बाँटने की कोशिश भी करी है। वास्तव में उन्हों ने अपने 12 सेमीटोन्स को दुगुणा कर दिया है। उस के लिये ऐक नया की-बोर्ड (पियानो की तरह का वाद्य) बनाया गया था जिस में ऐक सफेद और ऐक काला परदा (की) जोडा गया था परन्तु वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। इस की तुलना में भारत के उच्च कोटि के वादक और गायक 22 श्रुतियों का सक्ष्मता के साथ प्रदर्शन करते हैं। सारंगी भारत का ऐक ऐसा वाद्य है जिस पर सभी माईक्रोटोन्स सुविधा पूर्वक निकाले जा सकते हैं। 

चतु्र्थ से छटी शताब्दी तक गुप्त काल में कलाओं का प्रदर्शन अपने उत्कर्श पर पहुँच चुका था। इस काल में संस्कृत साहित्य सर्वोच्च शिखर पर था और ओपेरानृत्य नाटिकाओं का भारत में विकास हुआ। इसी काल में संगीत की पद्धति का निर्माण भी हुआ। उसी का पुनरालोकन पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे ने पुनः आधुनिक काल में किया है जिसे अब हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति कहा जाता है। इस के अतिरिक्त दक्षिण भारत में कर्णाटक संगीत भी प्रचल्लित है। दोना पद्धतियों में समानतायें तथा विषमतायें स्वभाविक हैं।

भारतीय संगीत को जन-जन तक पहुँचाने में सिने जगत के संगीत निर्देशकों का प्रमुख महत्व है जिन में संगीतकार नौशाद का योग्दान महत्वशाली है जिन्हों ने इस में पाश्चात्य विश्ष्टताओं का समावेश सफलता से किया लेकिन भारतीय रूप को स्रवोपरि ही रखा।

भारतीय नृत्य कला

भारतीय नृत्य की गौरवशाली परम्परा ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है।  भारत का सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त नृत्य प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता काल की ऐक मुद्रा है जिस में ऐक नृत्याँगना को हडप्पा के अवशेषों पर नृत्य करते दिखाया गया है। भारत के लिखित इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से 200 ईसा पूर्व तक की कडी टूटी हुई है।

भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र अनुसार देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना करी थी कि वह संसार को ऐक ऐसी कला प्रदान करें जिस से वेदों का ज्ञान जनसाधारण में फैलाया जा सके। इस प्रकार शिव ने चारों वेदों से कुछ कुछ अंश ले कर ‘पँचम-वेद’ की रचना की जिसे ‘नाट्य’ कहा गया। शिव ने ऋगवेद से ‘नाद’, सामवेद से ‘स्वर’, अथर्व वेद से ‘अभिनय’ तथा यजुर्वेद से ‘गायन’ लिया। इसी लिये शिव को प्रदर्शन कलाओं का आराध्य देव माना जाता है।

शिव के अनुरोध पर पार्वती ने कोमल ‘लास्य’ शैली नृत्य का सृजन किया तथा असुर राजकुमारी ऊषा को इस की शिक्षा दी। ऊषा ने उस शैली को भारत के पश्चिमी भाग में प्रचिलित किया। इस शैली का प्रथम लास्य नृत्य इन्द्र के विजय-ध्वजारोहण समारोह पर किया गया था। असुरों ने जब वह नृत्य देखा तो उन्हों ने इसे नयी युद्धघोषणा समझ लिया तथा उन्हें ब्रह्मा जी ने समझा बुझा कर शान्त किया। ब्रह्मा जी ने आदेश दिया कि भविष्य में लास्य नृत्य केवल पृथ्वी पर ही किया जाये गा।

विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर के साथ लास्य नृत्य किया था तथा मुद्राओं के दूारा उसी का हाथ उस के सिर पर रखवा कर भस्मासुर को भस्म करवाया था। कृष्ण ने भी कालिया नाग मर्दन के समय और गोपियों के साथ जो रास नृत्य किया था वह भी लास्य नृत्य का ही अंग माना जाता है। शिव का अन्य नृत्य ताँडव नृत्य होता है जिस में रौद्र भाव प्रधान होता है।

भरत मुनि रचित नाट्य-शास्त्र की परिभाषानुसार नाट्य कला में मंच पर प्रदर्शित करने योग्य सभी विषय नृत्य की श्रेणा में आते हैं जैसे कि नृत्य के साथ साथ नाटक और संगीत। संगीत का नाट्य के साथ योग अवश्य है क्यों कि इस का नाटक में बहुत महत्व है।

नाट्य शास्त्रानुसार नृतः, नृत्य, और नाट्य में तीन पक्ष हैं –

  • नृतः केवल नृत्य है जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं। यही आजकल का ऐरोबिक नृत्य है।
  • नृत्य में भाव-दर्शन की प्रधानता है जिस में चेहरे, भंगिमाओं तथा मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है।
  • नाट्य में शब्दों और वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है।

भारत में कई शास्त्रीय नृत्य की की शैलियाँ हैं जिन में ‘भरत-नाट्यम’, ‘कथक’, ‘कथकली’, ‘मणिपुरी’, ‘कुचीपुडी’ मुख्य हैं लेकिन उन सब का विस्तरित वर्णन यहाँ प्रसंगिक नहीं।

इस के अतिरिक्त कई लोक नृत्य हैं जिन में गुजरात का ‘गरबा’, पंजाब का ‘भाँगडा’ तथा हरियाणा का ‘झूमरा’ मुख्य हैं। सभी लोक नृत्य भारतीय जन जीवन के किसी ना किसी पक्ष को उजागर करते हैं प्रमाणित करते हैं कि भारतीय जीवन पूर्णत्या संगीत मय है। 

चाँद शर्मा

29 – राष्ट्रीय नायकों के पर्व


पाश्चात्य सभ्यता में रंगे लोग आजकल केक काट कर और तालियाँ बजवा कर अपना जन्मदिन स्वयं ही मना लेते हैं – लेकिन यह उस तरह है जैसे कोई अपना चुटकला सुना कर अपने आप ही हँस ले और दूसरे उस का मूहँ देखते रहैं। अपने जन्मदिन पर खुशी दूसरे दिखायें तो वह बात और होती है। वास्तव में जन्म दिन तथा विवाह की वर्षगाँठ मनाने की प्रथा भारतीयों ने योरूप वासियों से नहीं सीखी। भारत में ही महापुरुषों के जन्म मना कर अन्य लोगो को महा पुरुषों की तरह पुण्य कर्म करने के लिये प्रोत्साहित करने का प्रथा रही है। प्रेरणा नायकों की संख्या अधिक होने के कारण कुछ मुख्य महानायकों से जुडे पर्वों का संक्षिप्त वर्णन ही यहाँ दिया गया है जो समस्त भारत में मनाये जाते हैं और भारत की साँस्कृतिक विविधता में ऐकता के बोधक हैं। 

महाशिवरात्री – महा-शिवरात्री त्रिदेव भगवान शिव का पर्व है। यह पर्व फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) के कृष्ण पक्ष में आता है। इस दिन शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था। आराधक पूरा दिन उपवास करते हैं और कुछ तो जल भी नहीं ग्रहण करते। समस्त रात्री लोग शिव मन्दिरों में पूजा करते हैं। शिव लिंग को दूध, दही, शहद और गुलाब जल अथवा गंगा जल से स्नान कराया जाता है। इसी दिन से शिव के प्रतीक विषधर सर्प भी निद्रा (हाईबरनेशन) से जाग कर खुले वातावरण में निकलने लगते हैं। 

महावीरजयन्ती – भगवान महावीर के जन्म के उपलक्ष में महावीर-जयन्ती विशेषतः गुजरात तथा राजस्थान में जैन समुदाय दूारा उल्लास के साथ मनायी जाती है। भगवान महावीर ने अहिंसा तथा सरल जीवन मार्ग से मोक्ष मार्ग का ज्ञान दिया था। इस दिन भगवान महावीर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा निकाली जाती है।

रामनवमी राम-नवमी भगवान विष्णु के सप्तम अवतार भगवान राम का जन्म दिवस है और चैत्र मास (मार्च अप्रैल) के शुकल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आता है। मन्दिरों को सजाया जाता है तथा लोक नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मूर्तियों को सजाया जाता है। रामायण महाकाव्य का निरन्तर उच्चारण होता रहता है। कथा वाचक रामायण की कथा को गा कर, नाटकीय ढंग से दिखा कर पर्दर्शन करते हैं। ऱाम तथा सीता की भव्य झाँकियाँ निकाली जाती हैं तथा मूर्तियों की भव्य तरीके से पूजा अर्चना की जाती है। समस्त भारत में यह त्यौहार विशेष उल्लास से मनाया जाता है। 

बैसाखीः बैसाखी विक्रमी सम्वत का प्रथम दिवस है। यही एकमात्र हिन्दू पर्व है जो रोमन केलेन्डर के साथ अकसर 13 अप्रैल को ही आता है परन्तु प्रत्येक 36 वर्ष के पश्चात 14 अप्रैल को आता है। इस दिन सूर्य मेष राशि (ऐरीस) में प्रवेश करता है जो ज़ोडिक अनुसार प्रथम राशि है। लोग बैसाखी के दिन प्रातः नदी स्नान से आरम्भ करते हैं। इसी दिन से कृषि की कटाई का काम भी आरम्भ होता है तथा किसानों को अपने परिश्रम का पुरस्कार मिलता है। इस के अतिरिक्त बैसाखी के साथ भारतीय जन जीवन की अन्य कई घटनायें जुडी हुई हैं जो संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-

  • मुग़ल बादशाह जहाँगीर के हुक्म से सिख गुरु अर्जुन देव तथा उन के अनुयाईयों को अमानुषीय तरीके से उबलते तेल के कडाहे में फेंक कर उन पर कई तरह के असाहनीय अत्याचार किये गये थे जिस कारण बैसाखी के दिन गुरु अर्जुन देव ने लाहौर शहर के पास रावी नदी में जल स्माधि ले ली थी।
  • बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में गुरु गोबिन्द सिहं नें हिन्दू युवाओं को ‘संत-सिपाही’ की पहचान प्रदान करी थी। उन्हें मुस्लिम अत्याचार सहने के बजाय  अत्याचारों के विरुद्ध लडने के लिये भक्ति मार्ग के साथ साथ कर्मयोग का मार्ग भी अपनाने का आदेश दिया था। इसी पर्व से ‘खालसा-पंथ’ की नींव पड़ी थी।
  • इसी दिन स्वामी दया नन्द सरस्वती ने बम्बई शहर में आर्य समाज की औपचारिक स्थापना की थी। मध्य काल से हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियाँ आ चुकीं थीं जिन के उनमूलन के लिये आर्य समाज संस्था ने हिन्दू समाज में सुधार कार्य किया और वैदिक संस्कृति को पुनर्स्थापित किया।

बुद्धपूर्णिमा – भगवान बुद्ध को विष्णु का नवम अवतार माना गया है। इस के उपलक्ष में वैशाख मास (अप्रैल- मई) की बुद्ध-पूर्णिमा का बहुत महत्व है क्यों कि इसी दिन भगवान बुद्ध के जीवन की तीन अति महत्वशाला घटनायें घटी थीं। बुद्ध का जन्म, उन को ज्ञान प्रकाश, तथा उन का निर्वाण (शरीर त्याग) बुद्ध-पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। यह पर्व समस्त भारत में और विशेषतः बौध समुदाय में उल्लास के साथ मनाया जाता है। 

गुरुपूर्णिंमा – अषाढ मास की पूर्णमासी (जुलाई – अगस्त) के दिन गुरुपूर्णिमा का पर्व महाऋषि वेद व्यास की समृति में माया जाता है। उन्हों ने चारों वेदों और अठ्ठारह पुराणों का संकलन तथा महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। हमें केवल भावनात्मिक अध्यापक दिवस (टीचर्स डे) मनाने के बजाय गुरु-पूर्णिमा को ही सरकारी तौर पर मनाना चाहिये।

रक्षाबन्धन रक्षा-बन्धन का त्यौहार मुख्यतः भाई बहन के पवित्र रिशतो का त्यौहार है। इस को समाज का संकलप-दिवस भी कह सकते हैं। यह पर्व श्रावण मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। इस दिन भाई अपनी बहनों की सभी समस्याओं, आपदाओं, तथा परिस्थितियों में रक्षा करने का संकलप लेते हैं। प्रतीक स्वरुप बहने भाईयों की कलाई पर राखी बाँध कर उन्हे धर्म के बन्धन की सम़ृति दिलाती हैं कि वह अपने धर्म की भी रक्षा करें। भाई बहनों को रक्षा की प्रतिज्ञा के साथ कुछ उपहार भी देते हैं। इसी  प्रकार ब्राह्मण भी समाज के क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों की कलाई पर राखी बाँध कर उन से धर्म पालन तथा धर्म की रक्षा का संकलप कराते हैं। प्रति वर्ष यह त्यौहार प्रतिज्ञा दिवस के तौर पर सभी को ऐक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

जन्माष्टमी जन्माष्टमी का त्यौहार भगवान कृष्ण के जन्म दिन के उपलक्ष में भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। मन्दिरों को सजाया जाता है। अध्यात्मिक प्रवचन होते हैं। दूर दूर से यात्री इन स्थलों पर पहुँचते हैं। आटे को गीला कर के लोग घरों में दूार से अन्दर तक फर्श पर बच्चे के पैरों के निशान छापते है जिस का अभिप्राय भगवान कृष्ण की बाल लीला की स्मृति कराना है। कृष्ण जन्म मध्य रात्रि को हुआ था अतः उस समय इस उत्सव की प्रकाष्ठा होता है।

गणेशचतुर्थी – गणेश-चतुर्थी भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में गणेश जी के जन्मदिन के उपलक्ष में मनायी जाती है। गणपति की बडी बडी भव्य मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। दस दिन तक नित्य उन को सजा कर पूजा अर्चना की जाता है। उस के पश्चात उन मूर्तियों की शोभा यात्रा निकली जाती है तथा उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। पहले यह पर्व महाराष्ट्र तथा पडोसी प्रदेशो में विशेष तौर पर मानया जाता था परन्तु आज कल समस्त देश में गणेश-चतुर्थी का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है। इस पर्व का नैतिक तथा भावनात्मिक महत्व भी है। ऐक पौराणिक कथानुसार ऐक बार चन्द्र ने चोरी छिपे गणेश जी के डील डौल का उपहास किया था तो गणेश जी ने चन्द्र को शापित कर दिया कि जो कोई तुम्हें गणेश-चतुर्थी के दिन निहारे गा वह चोरी के आरोप से लाँच्छित होगा। इस लिये इस दिन लोग चन्द्रमाँ की ओर नहीं देखते। इस का अभिप्राय है कि व्यक्ति को बुरी संगति से भी दूर रहना चाहिये।

दीपावली – इस पर्व को दीपमाला भी कहते हैं तथा इसे कार्तिक मास (अकतूबर – नवम्बर) के कृष्ण पक्ष के अन्तिम दो दिनों तक मनाया जाता है। इस पर्व के कई कारण हैं जिन में से धन सम्पति की देवी लक्ष्मी तथा भगवान विष्णु का विवाह, महाकाली दुर्गा दूारा महिषासुर का वध, तथा भगवान ऱाम की रावण पर विजय के पश्चात अयोध्या में वापसी की समृति मुख्य हैं। इसी दिन कृष्ण ने भी नरकासुर का वध किया था। युद्ध तथा युद्धाभ्यास पर प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी वर्ग भी सैना के साथ जाता था ताकि वह सैनिकों के लिये अवश्यक सामिग्री जुटाते रहैं। प्रत्येक वर्ष प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी नये लेखे खातों में खोलते थे और समृद्धि के लिये गणेष और लक्ष्मी का पूजन भी करते थे। इस अवसर पर घरों को सजाया जाता है, रत्रि को दीप माला की जाती है। पटाखे और मिठाईयों से जीवन उल्लास मय हो जाता है। दीपावली भारत में धन सम्पति की खुशियों की चरम सीमा का अवसर होता है।

गुरु नानक जयन्ती – गुरु नानक सिख समुदाय के प्रथम गुरु थे। उन की जयन्ती का समारोह कार्तिक मास (नवम्बर) की पूर्णिमा से  लगभग तीन दिन तक मनाया जाता है। निशान साहिब (ध्वज) तथा श्री गुरु ग्रंथ साहिब की पालकी में शोभा यात्रा निकाली जाती है। गुरुदूारों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अखण्ड पाठ किया जाता है तथा स्मापन के समय गुरु के लंगर के माध्यम से सभी को प्रसाद के रूप में भोजन करवाया जाता है। गतका (तलवारबाजी) का प्रदर्शन किया जाता है। यह पर्व विशेषत्या पंजाब और हरियाणा में तो मनाया जाता है परन्तु विश्व भर में जहाँ जहाँ सिख साम्प्रदाय है, वहाँ भी पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है।

इन के अतिरिक्त जिन अन्य जन नायकों से जुडे पर्व उत्साह और उल्लास के साथ मनाये जाते हैं उन में संत रविदास, महाराज उग्रसेन, ऋषि वाल्मिकि, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी मुख्य हैं।

भारत में किसी नायक या घटना का शोक दिवस मना कर सार्वजनिक तौर पर रोने पीटने का कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता। मृतकों की बरसियाँ भी नहीं मनाई जातीं यह रिवाज कोई पिछले दो तीन सौ वर्षों से ही जुडे हैं और आजकल तो हर छोटे बडे नेता की बरसी मनाने का रिवाज सा चल पडा है। इस का धर्म या हिन्दू संस्कृति से कोई वास्ता नहीं।

त्यौहारों तथा पर्वों ने भारतीय समाज की साँस्कृतिक, आर्थिक, तथा अध्यात्मिक प्रगति में महत्वशाली योग दान दिया है। पर्व हमारी साँस्कृतिक आखण्डता के प्रतीक हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय और साधनों के आभाव तथा विदेशी दुष्प्रभाव के कारण कुछ पर्व अपनी मूल दिशा और दशा से विक़ृत हो गये हैं। कुछ असामाजिक तत्वों ने उन का रूप भी बिगाड दिया है। इस वजह से उन पर्वों से सम्बन्धित उल्लास और योगदान कुछ फीके पड गये हैं। हिन्दू समाज सुधारकों तथा सजग नागरिकों को चाहिये कि वह कुरीतियों को दूर करें और इन पर्वों का गौरव पुनर्स्थापित कर के उन्हे विदेशी गन्दगी के प्रभाव से स्वच्छ रखें।

देखा जाय तो ईद, मुहर्रम, ईस्टर, गुड फ्राईडे, क्रिसमिस आदि त्यौहारों का भारत की संस्कृति या घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह त्यौहार हमारे लिये आर्थिक उपनेषवाद का ऐक हिस्सा हैं। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादकों को बढावा देने के लिये कई विदेशी त्यौहारों की भारत के जन जीवन में घुस पैठ करवा रही हैं जिस से यह आभास होता है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति ही नहीं थी। वर्ष में ऐक दिन फादर्स डे या मदर्स डे मना लेने से माता पिता की सेवा नही होती जिन्हें बाकी वर्ष वृद्धाश्रमों में छोड दिया जाता है। यही हाल टीचरों का है। वेलन्टाईन डे केवल नाचने और सार्वजनिक स्थानों पर चुम्बन-आलिंगन करने का बहाना मात्र है।  जब हमारी अपनी संस्कृति इतनी समृद्ध है तो हमें योरूप वासियों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। यह केवल हमारे मन में हीन भावना भरने तथा विदेशी कम्पनियों के सामान को बेचने का निमित मात्र है।  हमें अपनी साँस्कृतिक विरासत की रक्षा स्वयं करनी है और बाहर से त्यौहार आयात करने की जरूरत नहीं। 

भारत में क्रिसमिस पर्व के साथ साथ पहली जनवरी को नब वर्ष दिवस को भी व्यापारिक क्षेत्र की वजह से बहुत बढावा मिल रहा है क्यों कि इस के बहाने से ग्रीटिंग कार्ड, साँटा क्लाज के छोटे बडे पुतले, क्रिसमिस ट्री, क्रास आदि बेचे जाते हैं, तथा होटलों में खानपान के लिये लाखों की संख्या में टरकियाँ (ऐक विशेष प्रकार की मुर्ग़ी) खाने के लिये काटी जातीं है। शराब पीकर वाहन चालक दूर्घटनाओं के साथ इसाईयों के नव वर्ष की शुरूात करते हैं। इन सभी बातों का भारतीय परम्पराओं और भावनाओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और विदेशी कम्पनियाँ तथा उन के भारतीय ऐजेन्ट केवल भारतीय मूल्यों के हानि के लिये कर रहै हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई रंगी पुती स्त्री को देख कर चकाचौंध हो जाये और अपनी सुशिक्षित ऐवम सभ्य माता को कोसने लगे। पर्व आयात वही देश करते हैं जिन की अपनी कोई सभ्यता या परम्परा ना हो किन्तु भारत के लोगों को इस प्रकार के त्यौहारों को मनाने के बदले भारतीय मूल के त्यौहारों के मनाने की शैली में और अधिक सुधार तथा उल्लास लाना चाहिये।  

चाँद शर्मा

 

21 – जीवन के चरण


सामान्य जीवन काल की अवधि ऐक सौ वर्ष मानते हुये ऋषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार भागों में विभाजित किया है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। प्रत्येक आश्रम की अवधि पच्चीस वर्ष है तथा उन के क्रमशः नाम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम हैं। इन के वर्गीकरण का आधार पूर्णत्या प्राकृतिक है जो शरीरिक विकास के तथ्यों से प्रमाणित होजाता है। यौन अंगों का विकसित होना और फिर शिथिल हो जाना, बालों का पकना या झड़ जाना, शरीर में उत्साह तथा शक्ति का क्षीण होने लगना आदि जीवन के व्यतीत होते चरणों का प्रत्यक्ष आभास है। आज भले ही आश्रमों के नाम बदले गये हों परन्तु समस्त विश्व में आज भी सभी सभ्य मानव इसी हिन्दू आश्रम पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं और करते रहैं गे।

ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जन्म से ले कर जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु तक का समय विध्यार्थी जीवन माना गया है जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति काल जन्म से ही आरम्भ हो जाता है जब नवजात अपने चारों ओर के वातावरण को, माता-पिता, सम्बन्धियों, और पशु-पक्षियों को पहचानने लगता है। बाल्य काल आरम्भ होने पर औपचारिक शिक्षा के लिये गुरुकुल विद्यालय जाता है। शिक्षा क्रम सामान्यता पच्चीस वर्ष की आयु तक  चलता रहता है।

विध्यार्थी जीवन का मुख्य लक्ष्य चरित्र निर्माण, ज्ञान अर्जित करना तथा जीवन में आने वाली ज़िम्मेदारियों को झेलने की क्षमता प्राप्त करना है। सफलता तभी मिल सकती है जब विध्यार्थी अधिक से अधिकतर जीवन में काम आने वाली कलाओं – कौशलों में निपुण हो, अच्छी आदतों तथा विचारों से बलवान शरीर तथा स्थिर बुद्धि का विकास करे, और अपने मनोभावों तथा इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का निरन्तर अभ्यास करे। अगामी पच्हत्तर वर्ष के जीवन की नींव विध्यार्थी जीवन में ही पड़ती है। यदि कोई इस काल में कठिनाईयों को झेलने की क्षमता अर्जित नहीं करता तो उस का अगामी जीवन कष्टप्रद ही रहेगा। इसी लिये विध्यार्थी जीवन में कठिनाईयों का सामना करने की क्षमता अत्याधिक विकसित करनी चाहिये।

जीवन के आदर्शों तथा संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के लिये, ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि विध्यार्थी इस काल के दैनिक जीवन में निम्नलिखित आदतों को अपनायेः-

  • भोजन वस्त्र तथा रहन-सहन में सादगी और प्राकृतिक जीवन शैली।
  • ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासात्मिक द़ृष्टिकोण और कठोर परिश्रम का संकल्प,
  • सकारात्मक आदर्शवादी विचारधारा और कर्मशील व्यक्तित्व,
  • स्वच्छ विचारों के साथ स्वस्थ एवं बलवान शरीर,
  • हर प्रकार के नशीले पदार्थों के सेवन से मुक्ति,
  • नकारात्मिक विचारों, आदतों, आचर्णों तथा भाषा का बहिष्कार,
  • गुरुजनो और आयु में बड़ों के प्रति आदरभाव तथा मित्रों के प्रति सद्भाव और संवेदनशीलता, तथा
  • निजि जीविका उपार्जन के लिये व्यवसायिक ज्ञान में दक्षता और निपुणता की प्राप्ति।

गृहस्थ आश्रम वैवाहित नागरिक

प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जीवन के अगामी पच्चीस वर्ष से पचास वर्ष तक की आयु का समय गृहस्थ आश्रम है जिस में उन्हें वैवाहित नागरिक की तरह रहना चाहिये। हिन्दूओं को मानव जीवन किसी पाप अथवा किसी ईश्वरीय अविज्ञा के फलस्वरूप नहीं मिलता अपितु उन के पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप है। अतः किसी हिन्दू को अपने जन्म के कारण अपने माता पिता के लिये शर्मिन्दा होने की कोई ज़रुरत नहीं। उल्टे हिन्दू समाज में तो अवैवाहितों तथा संतान हीनों को अप्राकृतिक एवं अपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है। प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है कि वह ईश्वर की सृष्टि कि निरन्तरता बनाये रखने में अपना योगदान दे। अपनी संतान उत्पन्न कर के उस का समाज हित के लिये पालन पौषण और परिशिक्षित करे। इस उत्तरदाईत्व को निभाने के लिये धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन भी करे। हिन्दू समाज में ब्रह्मचार्यों और सन्यासियों की तुलना में राम और कृष्ण जैसे आदर्श गृहस्थियों की पूजा की जाती है।

जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करने के बजाये गृहस्थाश्रम निभाना उत्तम और प्राकृतिक है। चाहैं कोई कितना भी महान ऋषिपद पा ले परन्तु यदि उस ने गृहस्थ धर्म नही निभाया तो कई बार प्राकृति ही उस स्त्री-पुरुष को दण्डित करती है और उन की कीर्ति को नष्ट कर देती है। ऐसे पुरुष और महिलायें आप्रकृतिक और निक्रिष्ट जीवन ही जीते हैं और जीवन भर स्वार्थी तथा ईर्शालु ही रहते हैं। करोडों की संख्या में से कोई ऐक ही अपवाद मिल सकता है साधारणत्या बिलकुल ही नहीं।

गृहस्थ आश्रम हिन्दू समाज की आधारशिला है जिस के सहारे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम तथा पर्यावरण के सभी अंग निर्वाह करते हैं। ऐकान्त स्वार्थी जीवन जीने के बजाये मानवों को गृहस्थियों का तरह अपने कर्मों दूारा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये पाँच दैनिक यज्ञ करने चाहियें। हिन्दू समाज की इस प्राचीन परम्परा को विदेशों में भी औपचारिक तौर पर वर्ष में एक दिन निभाया जाता है, किन्तु भारतीय अपनी परम्पराओं को पहचानने के बजाय समझते हैं कि यह प्रथायें विदेशों से आई हैं।

  1. पर्यावरण के लिये देव यज्ञ – प्रत्येक प्राणी प्रतिदिन प्रकृति से कुछ ना कुछ लेता है अतः सभी का कर्तव्य है कि जो कुछ लिया है उस की ना केवल भरपाई की जाये अपितु प्रकृतिक संसाधनों में वृद्धि भी की जाये। पेड़-पौधों को जल, खाद देना तथा नये पेड़ लगाना और इसी प्रकार के अन्य कार्य  इस क्षेत्र में आते हैं। वर्ष में एक अन्तर्राष्टीय पर्यावरण दिवस (इन्टरनेशनल एनवायर्मेन्ट डे) मनाने का आडम्बर करने के बजाये र्यावर्ण संरक्षण के लिय प्रत्येक गृहस्थी को नित्य स्वेच्छा से योगदान देना चाहिये।
  2. पूर्वजों के लिये पितृ यज्ञ हिन्दू समाज में अपने से आयु में बड़ों का स्दैव सम्मान किया जाता है। वर्तमान पीढ़ी के पास आज जो भी सुविधायें हैं वह सब पूर्वजों ने प्रदान की हैं। वर्तमान पीढ़ी तो आगे आने वाली पीढ़ी के लिये उन्ही सुविधाओं में केवल सुधार या वृद्धि करे गी। इसलिये वर्तमान पीढ़ी का दाईत्व है कि वह अपने पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञ्यता स्दैव प्रगट करती रहै तथा अपने माता पिता तथा अन्य बज़ुर्गों की देख भाल और सहायता करे। इसी धन्यवाद की कृतज्ञ्यता भरी परम्परा को विदेशों में ‘थैंक्स गिविंग डे कहा जाता है।
  3. गुरू जनों के लिये ब्रह्म यज्ञ गुरुजनों को आदर सत्कार देना भारतीय समाज की  पुरानी परम्परा है। गुरु जन जिज्ञासु विद्यार्थियों को विद्या दान देते थे। उसे आज की तरह बेचते नहीं थे। गृहस्थियों का कर्तव्य है कि वह अपने आस पास के गुरुजनों, बुद्धिजीवियों की निजि आवश्यक्ताओं की आदर पूर्वक पूर्ति करें क्योंकि जिस विद्या के सहारे गृहस्थी जीविका कमाते हैं वह गुरुजनों ने उन्हें दानस्वरूप दी थी, बेची नहीं थी। यदि बुद्धिजीवी और गुरुजन भी अपनी जीविका कमाने में लगे रहें गे तो नये अविष्कारों के लिये समय कौन निकाले गा ? बुद्धिजीवी होने के कारण ही ब्राह्मणों का सदा सम्मान किया जाता था तथा उन्हें जीविका के लिये आदर सहित दान दिया जाता था। उस दान को भिक्षा नहीं कहा जाता था बल्कि दक्षिणा (पर्सनल ऐक्सपर्टाईज फीस) कहा जाता था। इस के अतिरिक्त गृहस्थियों को शिक्षिण केन्द्रों तथा विद्यालयों के लिये भी दान करना चाहिये। आजकल इसी प्रथा का भृष्ट रुप ‘एडमिशन डोनेशन तथा साल में एक दिन ‘टीचर्स डे मनाना है।
  4. समाज के लिये नरि यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य समाज तथा मानव कल्याण है। इस यज्ञ में अपने आस पास स्वच्छता और सुरक्षा रखना, समाज में भाईचारे को बढ़ावा देना तथा त्यौहारों को सामूहिक तौर से मनाना आदि शामिल है जिस से समाज में सम्वेदन शीलता, सदभावना, कर्मनिष्ठा तथा देशप्रेम को बढ़ावा मिलता है। विदेशों में इसे ‘सोशल सर्विस डे कहा जाता है। भारत में आजकल इसी का विकृत रूप किट्टी पार्टी तथा नेताओं के उदघाटन समारोह हैं।
  5. पशु पक्षियों के लिये भूत यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य पशु-पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति संवेदनशीलता रखना है। भारत में  कुछ समृद्ध लोग पशुओं के लिये पियाऊ आदि लगवाते थे परन्तु आज कल कई पशु पक्षी प्यासे ही मर जाते हैं। बीमार तथा घायल जीवों के लिये चिकित्सालय बनवाना भी मानवों की जिम्मेदारी है क्यों कि हम ने पशुपक्षियों के आवास उन से छीन लिये हैं। विदेशियों ने तो पालतु जानवरों को छोड़ कर अन्य जानवरों का सफाया ही कर दिया है किन्तु गर्व की बात है कि भारत में अब भी कुछ लोग चींटियों और पक्षियों के लिये आनाज के दाने बिखेरते देखे जा सकते हैं।

वानप्रस्थ आश्रम – वरिष्ठ नागरिक

पचास वर्ष से पच्हत्तर वर्ष तक की आयु का समय वानप्रस्थ आश्रम है। वरिष्ठ नागरिकों के लिये यह निवृत जीवन है तथा सभी देशों में लगभग इसी तरह का प्राविधान है। यह वह समय है जब स्वेच्छा से वर्तमान पीढ़ी आगामी पीढ़ी को गृहस्थियों की जिम्मेदारी दे कर मुक्त होती है तथा युवा संतान कार्यभार सम्भालना आरम्भ कर देती है। वरिष्ठ पीढ़ी अपना समय पौत्रों का नैतिक, मानसिक तथा संस्कारिक  प्रशिक्षण करने में व्यतीत करती है। इस के अतिरिक्त यह समय स्वाध्याय, आत्म चिन्तन और जीवन के आधे अधूरे लक्ष्यों को पूरा करने का होता है। जीवन का यह काल वर्तमान पीढ़ी को भूत काल तथा भविष्य काल से जोड़ने का सेतु है। अतः वानप्रस्थ आश्रम में मानव को निम्नलिखित उत्तरदाईत्व निभाने चाहियें –

  • निजि जीवन में संचति किये सकारातमिक अनुभवों को युवाओं के आग्रहनुसार उन के साथ बाँटना तथा उन का मार्ग दर्शन करना।
  • पौत्रों का नैतिक, मानसिक तथा संस्कारिक  प्रशिक्षण करना तथा उन को अच्छी आदतें सिखाना।
  • अपने अहम का शमन करना तथा आडम्बर रहित जीवन जीना।
  • ऩिजि अपेक्षाओं तथा आवश्यक्ताओं को स्वेच्छा से त्यागना।
  • अपने व्यक्तित्व में काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार पर पूर्ण नियन्त्रण करना।
  • युवा गृहस्थियों की दैनिक जिम्मेदारियों तथा यज्ञों में उन के आग्रहनुसार सहायता करना।

सन्यास आश्रम निवृत जीवन

जीवन का अन्तिम चरण संन्यास आश्रम है। यदि जीवन सफल रहा है तो मानव में कोई अतृप्त कामना शेष नहीं रहती। इसीलिये यह काल मोक्ष का प्राप्ति की अन्तिम पादान है। प्रचीन काल में संन्यासी अन्तरमुखी हो कर यह समय वनवास में बिताया बिताते थे। अपनी पिछली छवि और यादें स्वेच्छा से ही मिटा कर नया नामकरण कर लेते थे। अपने अहम को मिटाने के लिये उन्हें दर्पण भी देखना वर्जित था।

आजकल भी कुछ लोग ‘रिटायरमेंट होम में स्वेच्छा से चले जाते हैं और कई संतान दूआरा भी ‘ओल्ड होम्स में भेजे जाते हैं। उचित तो यह है कि 75 वर्ष की आयु होने पर उन्हें अपनी उपाधियाँ, उपलब्धियाँ, पदवियाँ तथा समृद्धि का प्रदर्शन स्वयं ही त्याग देना चाहिये किन्तु ऐसा बहुत कम ही लोग कर पाते है। राजनेता तो इस का पूर्ण अपवाद हैं।

आज के संदर्भ में जरूरी नहीं कि सभी को घर बार छोड कर वनों, पर्यटक स्थलों, सागर तटों अथवा पर्वत स्थलों पर वातानुकूलित कुटिया बनवा कर या फुटपाथों पर अतिकर्मण कर के सन्यासी जीवन प्रारम्भ करना चाहिये। सन्यास ऐक मनोस्थिति है ना कि भौतिक दशा। मानसिक सन्यास वर्तमान घर की चार दिवारी में लेना अधिक उपयुक्त होगा। सन्यास आश्रम में निम्नलिखित कार्य करने चाहियें –

  • अपने समस्त सामाजिक उत्तरदाईत्व बन्धनों तथा अपेक्षाओं से मुक्ति।
  • सुख सम्पदाओं तथा सम्वन्धों के मोह से स्वैच्छिक वैराग्य।
  • पूर्णतया प्राकृतिक जीवन निर्वाह तथा उपकरणों का त्याग।

आश्रम पद्धति का विशलेषण

प्रत्येक विधान का अपवाद भी होता है। यह ज़रूरी नहीं कि ब्रह्मचर्य से सन्यास यात्रा के लिये प्रत्येक चरण पर रुका जाय। मानव चाहे तो किसी भी चरण से गृहस्थ, वानप्रस्थ  या सन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता है। किन्तु आदर्श और संतुलित जीवन व्यापन के लिये सभी चरण क्रमवार ही चलने चाहियें।

विशेष स्थिति में ऐक या दो चरण पीछे भी लौटा जा सकता है जैसा कि वीर बन्दा बहादुर बैरागी ने किया था। हिन्दू धर्म ने जीवन को अत्यन्त सीमित कमरों में नहीं बाँटा केवल सुझाया ही है। साराशं में जीवन की गति क्रमशः आगे के चरण में जानी चाहिये

आजकल के जीवन में तनाव तथा असमानताओं का ऐक मुख्य कारण आश्रम जीवन पद्धति का लुप्त होना भी है। यही वजह है कि विदेशों में रहने वाले काम काजी दम्पति अपने बच्चों में संस्कार शिक्षण के लिये वानप्रस्थ आश्रम की पुनर्स्थापना की जरूरत महसूस कर के अपने माता पिता को विदेश ले जाने के लिये हमैशा ललायत रहते हैं।

चाँद शर्मा

15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

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