हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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71 – ऐक से अनेक की हिन्दू शक्ति


इस समय देश की राजसत्ता खोखले आदर्शवादी राजनैताओं के हाथ में है जो पूर्णत्या स्वार्थी हैं। उन से मर्यादाओं की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इन नेताओं को सभी जानते पहचानते हैं। उन का अस्तीतव कुछ परिवारों तक ही सीमित है। उन्हों ने अपने परिवारों के स्वार्थ के लिये अहिंसा और धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर हिन्दू विरोधी काम ही किये हैं और हिन्दूओं को देश की सत्ता से बाहर रखने के लिये ‘अनैतिक ऐकजुटता’ बना रखी है। अब प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि  वह किसी दूसरे पर अहसान करने के लिये नहीं – बल्कि अपने देश, धर्म, समाज, राजनीति, नैतिक्ता और संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदाईत्व को निभाये ताकि हमारे पूर्वजों की पहचान मिटने ना पाये।

हिन्दू हित रक्षक सरकार

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने अपने देशद्रोही मखौटे को पूरी तरह से उतार कर यहाँ तक कह दिया है कि ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’, ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’, और ‘देश के साधनों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार है’। अब संशय के लिये कुछ भी नहीं बचा।

आज भारत को ऐक हिन्दू हित रक्षक सरकार की आवश्क्ता है जो हमारी संस्कृति तथा मर्यादाओं को पुनर्स्थापित कर सके। हमारे अपने मौलिक ज्ञान के पठन-पाठन की व्यव्स्था कर सके तथा धर्म के प्रति आतंकवादी हिंसा को रोक कर हमारे परिवारों को सुरक्षा प्रदान कर सके। आत्म-निर्भर होने के लिये हमें अपनी मौलिक तकनीक का ज्ञान अपनी राष्ट्रभाषा में विकसित करना होगा। पूर्णत्या स्वदेशी पर आत्म-निर्भर होना होगा। अपने बचाव के लिये प्रत्येक हिन्दू को अब स्वयं-सक्ष्म (सैल्फ ऐम्पावर्ड) बनना होगा।

समय और साधन

हमारा अधिकांश समाज भी भ्रष्ट, कायर, स्वार्थी और दिशाहीन हो चुका है। चरित्रवान और सक्षम नेतृत्व की कमी है लेकिन भारत के लिये इमानदार तथा सक्ष्म नैताओं का आयात बाहर से नहीं किया जा सकता। जो उपलब्द्ध हैं उन्हीं से ही काम चलाना हो गा। हम कोई नया राजनैतिक दल भी नहीं खडा कर सकते जिस के सभी सदस्य दूध के धुले और इमानदार हों। इसलिये अब किसी वर्तमान राजनैतिक दल के साथ ही सहयोग करना होगा ताकि हिन्दू विरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके। यदि वर्तमान हिन्दू सहयोगी दल नैतिकता तथा आदर्श की कसौटी पर सर्वोत्तम ना भी हो तो भी हिन्दू विरोधियों से तो अच्छा ही होगा।

हिन्दू राजनैतिक ऐकता

भारत में मिलीजुली सरकारें निरन्तर असफल रही हैं। वोट बैंक की राजनीति के कारण आज कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जो खुल कर ‘हिन्दू-राष्ट्र’ का समर्थन कर सके। सभी ने धर्म-निर्पेक्ष रहने का ढोंग कर रखा है जिसे अब उतार फैंकवाना होगा। इसलिये हिन्दूओं के निजि अध्यात्मिक विचार चाहे कुछ भी हों उन्हें ‘राजनैतिक ऐकता’ करनी होगी। ऐक हिन्दू ‘वोट-बैंक’ संगठित करना होगा। इस लक्ष्य के लिये समानताओं को आधार मान कर विषमताओं को भुलाना होगा ताकि हिन्दू वोट बिखरें नहीं और सक्षम हिन्दू सरकार की स्थापना संवैधानिक ढंग से हो सकें जो संविधान में संशोधन कर के देश को धर्म हीन राष्ट्र के बदले हिन्दू-राष्ट्र में परिवर्तित कर सके।

  • सभी नागरिकों के लिये समान कानून हों और किसी भी अल्पसंख्यक या वर्ग के लिये विशेष प्रावधान नहीं होंने चाहियें।
  • जिन धर्मों का जन्म स्थली भारत नहीं उन्हें सार्वजनिक स्थलों पर निजि धर्म प्रसार का अधिकार नहीं होना चाहिये। विदेशी धर्मों का प्रसारण केवल जन्मजात अनुयाईयों तक ही सीमित होना चाहिये। उन्हे भारत में धर्म परिवर्तन करने की पूर्णत्या मनाही होनी चाहिये।
  • अल्पसंख्यक समुदायों के संस्थानों में किसी भी प्रकार का राष्ट्र विरोधी प्रचार, प्रसार पूर्णत्या प्रतिबन्धित होना चाहिये।
  • देश के किसी भी प्रान्त को दूसरे प्रान्तों की तुलना में विशेष दर्जा नहीं देना चाहिये।
  • अल्पसंख्यकों के विदेशियों से विवाह सम्बन्ध पूर्णत्या निषेध होने चाहियें। किसी भी विदेशी को विवाह के आधार पर भारत की नागरिकता नहीं देनी चाहिये।
  • समस्त भारत के शिक्षा संस्थानों में समान पाठयक्रम होना चाहियें। पाठयक्रम में भारत के प्राचीन ग्रन्थों को प्रत्येक स्तर पर शामिल करना चाहिये।
  • जो हिन्दू विदेशों में अस्थाय़ी ढंग से रहना चाहें या सरकारी पदों पर तैनात हों उन्हें देश की संस्कृति का ज्ञान परिशिक्षण देना चाहिये ताकि वह देश की स्वच्छ छवि विदेशों में प्रस्तुत कर सकें।
  • देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से घुस पैठ करवाना तथा उस में सहयोग करने पर आरोपियों को आजीवन कारवास अथवा मृत्यु दण्ड देने का प्रावघान होना चाहिये। निर्दोषता के प्रमाण की जिम्मेदारी आरोपी पर होनी चाहिये।

धर्म गुरूओं की जिम्मेदारी

संसार में आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, तथा राजनैतिक घटनाओं के प्रभावों से कोई वर्ग अछूता नहीं रह सकता। संन्यासियों को भी जीने के लिये कम से कम पचास वस्तुओं की निरन्तर अपूर्ति करनी पडती है। धर्म गुरूओं की भी समाज के प्रति कुछ ना कुछ जिम्मेदारी है।यदि वह निर्लेप रह कर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते तो उन्हें भी हिन्दू समाज से नकार देना ही धर्म है।

धार्मिक संस्थानों की व्यवस्था – आर्थिक दृष्टि से कई धर्म गुरू सम्पन्न और सक्षम हैं। अतः उन्हें राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के लिये सार्वजनिक स्थलों के समीप धर्म ग्रंथों के पुस्तकालय, व्यायाम शालायें, योग केन्द्र, तथा स्वास्थ केन्द्र अपने खर्चे पर स्थापित करनें चाहियें। जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक मन्दिर और सार्वजनिक स्थल को इन्टरनेट के माध्यम से दूसरे मन्दिरों से जोडना चाहिये। मन्दिरों और धार्मिक संस्थानों का नियन्त्रण अशिक्षित पुजारियों को बाजाय धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में ट्रस्ट दूारा होना चाहिये।

मन्दिरों की सुरक्षा –हमारे मन्दिर तथा पूजा स्थल सार्वजनिक जीवन के केन्द्र हैं परन्तु आज वह आतंकवादियों से सुरक्षित नहीं। सभी पूजा स्थलों और अन्य महत्वशाली स्थलों पर सशस्त्र सुरक्षा कर्मी ‘सिख सेवादारों’ की भान्ति रखने चाहियें। उन के पास आतंकवादियों के समक्ष हथियार, सम्पर्क साधन तथा परिशिक्षण होना आवश्यक हैं ताकि संकट समय सशस्त्र बलों के पहुँचने तक वह धर्म स्थल की, और वहाँ फँसे लोगों की रक्षा, स्वयं कर सकें। सशस्त्र बलों के आने के पश्चात, सेवादार उन के सहायक बन कर, अपना योगदान दे सकते हैं। सेवादारों की नियुक्ति, चैयन, परिशिक्षण, वेतन तथा अनुशासन तीर्थ स्थल के प्रशासक के आधीन होना चाहिये। इस व्यवस्था के लिये आर्थिक सहायता सरकार तथा संस्थान मिल कर करें और जरूरत पडने पर पर्यटकों पर कुछ प्रवेश शुल्क भी लगाने की अनुमति रहनी चाहिये। सेवादोरों की नियुक्ति के लिये भूतपूर्व सैनिकों तथा पुलिस कर्मियों का चैयन किया जा सकता है।

जन सुविधायें – हिन्दू तीर्थस्थलों के पर्यटन के लिये सुविधाओं, सबसिडी, और देश से बाहर हिन्दू ग्रन्थों इतिहास की शोघ के लिये परितोष्क की व्यव्स्था होनी चाहिये। हिन्दू ग्रन्थों पर शोध करने की सुविधायें प्रत्येक विश्वविद्यालय के स्तर तक उप्लब्द्ध करनी चाहिये। वर्तमान हज के प्रशासनिक तन्त्र का इस्तेमाल भारत के सभी समुदायों के लिये उपलब्द्ध होना चाहिये।

ऐतिहासिक पहचान – मुस्लिम आक्रान्ताओं दूारा छीने गये सभी हिन्दू स्थलों को वापिस ले कर उन्हें प्राचीन वैभव के साथ पुनः स्थापित करना चाहिये। अपनी ऐतिहासिक पहचान के लिये सभी स्थलों और नगरों के वर्तमान नाम और पिन कोड के साथ प्राचीन नाम का प्रयोग अपने आप ही शुरु कर देना चाहिये ताकि हिन्दू समाज में जागृति आये।

दुष्प्रचार का खण्डन – मिशनरियें तथा अहिन्दू कट्टरपँथियों के दुष्प्रचार का खण्डन होना चाहिये। इस के साथ ही हिन्दू जीवन शैली के सार्थक और वैज्ञानिक आधार की सत्यता का प्रचार भी किया जाना चाहिये। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो हिन्दूओं की उप्लब्द्धियाँ विदेशियों ने हथिया लीं हैं उन पर अपना अधिकार जताना आवशयक है।

रीति-रिवाजों में सुधार – रीति-रिवाजों के बारे में अध्यात्मिक पक्ष की तुलना में यथार्थ पक्ष को महत्व दिया जाना चाहिये। व्याख्यानों दूारा अपने अनुयाईयों को हिन्दू जीवन शैली के साकारात्मक पक्ष और दैनिक जीवन में काम आने वाली राजनीति पर बल देना चाहिये ताकि अध्यात्मिक्ता के प्रभाव में अनुयाई निषक्रिय हो कर ना बैठ जायें। जिस प्रकार नैतिकता के बिना राजनीति अधर्म और अनैतिक होती है उसी प्रकार कर्महीन धर्म भी अधर्म होता है।

हिन्दू जननायकों का सम्मान– हिन्दू आदर्शों के सभी जन नायकों का सम्मान करने के लिये उन के चित्र घरों, मन्दिरों, तथा सार्वजनिक स्थलों पर लगाने चाहियें। मन्दिरों में इस प्रकार के चित्र देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलग प्रवेश दूारों पर लगाने चाहियें ताकि वह किसी की आस्थाओं के विरुद्ध ना हो और ध्यानाकर्ष्क भी रहैं।

नेतृत्व कौन करे ?

प्रश्न उठता है हिन्दूवादी संगठन कौन करे गा? हिन्दूराष्ट्र बनाने के लिये हिन्दूवादी कहाँ से आयें गे ? अगर आप का उत्तर है कि “वह वक्त आने पर हो जाये गा” या “हम करें गे” तो वह कभी नहीं सफल होगा। आजकल ‘हम’ का अर्थ ‘कोई दूसरा करे गा’ लगाया जाता है और हम उस में अपने आप को शामिल नहीं करते हैं। इस लिये अब सच्चे देश भक्तों को कर्मयोगी बन कर यह संकलप करना होगा कि “यह संगठन मैं करूँ गा और देश की पहली हिन्दूवादी इकाई मैं स्वयं बन जाऊँ गा”। अपनी सोच और शक्ति को ‘हम’ से “मैं” पर केन्द्रित कर के इसी प्रकार से आगे भी सोचना और करना होगा। “अब मुझे किसी दूसरे के साथ आने का इन्तिजार नहीं है। मुझे आज से और अभी से करना है – अपने आप को हिन्दू-राष्ट्र के प्रति समर्पित इकाई बनाना है। सब से पहले अपनी ही सोच और जीवन शैली को बदलना है। मुझे ही मन से, वचन से और कर्म से सच्चा हिन्दूवादी बनना है।”केवल यही मानस्किता हिन्दूवादियों को संगठित कर सकती है जो हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करें गे। दूसरों को उपदेश देने से कुछ नहीं होगा।

कर्म ही धर्म है

“मेरा इतिहास मुझे बार बार चेतावनी देता रहा है कि कायर, शक्तिहीन तथा असमर्थ लोगों का जीवन मृत्यु से भी बदतर और निर्थक होता है। बनावटी धर्म-निर्पेक्षता का नाटक बहुत हो चुका। भारत हिन्दू प्रधान देश है और वही रहै गा। मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है। भारत मेरा देश है मैं इसे किसी दूसरे को हथियाने नहीं दूँ गा।”

“स्वदेश तथा अपने घर की सफाई के लिये मुझे अकेले ही सक्रिय होना है। कोई दूसरा मेरे उत्थान के लिये परिश्रम नहीं करे गा। हिन्दूवादी सरकार चुनने का अवसर तो मुझे केवल निर्वाचन के समय ही प्राप्त होगा किन्तु कई परिवेश हैं जहाँ मैं बिना सरकारी सहायता और किसी सहयोगी के अकेले ही अपने भविष्य के लिये बहुत कुछ कर सकता हूँ। मेरे पास समय अधिक नहीं है। मैं कई व्यक्तिगत निर्णय तुरन्त क्रियात्मक कर सकता हूँ। प्रत्येक निर्णय मुझे हिन्दूराष्ट्र की ओर ले जाने वाली सीढी का काम करे गा – जैसे किः-

  • “अपने निकटतम हिन्दू संगठन से जुड कर कुछ समय उन के साथ बिताऊँ ताकि मेरा मानसिक, बौधिक और सामाजिक अकेलापन दूर हो जाये। मेरे पास कोई संगठन न्योता देने नहीं आये गा, मुझे स्वयं ही संगठन में आपने आप जा कर जुडना है”।
  • “अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को सीखूं, अपनाऊँ और फैलाऊँ। जब ऐक सौ करोड लोग इसे मेरे साथ इस्तेमाल करें गे तो अन्तर्राष्ट्रीय भाषा हिन्दी ही बने गी। मुझे अपने पत्रों, लिफाफों, नाम प्लेटों में हिन्दी का प्रयोग करना है। मैं अंग्रेजी का इस्तेमाल सीमित और केवल अवश्यकतानुसार ही करूं गा ” ।
  • “मुझे किसी भी स्वार्थी, भ्रष्ट, दलबदलू, जातिवादी, प्रदेशवादी, अल्पसंखयक प्रचारक और तुष्टिकरण वादी राज नेता को निर्वाचन में अपना वोट नहीं देना है और केवल हिन्दू वादी नेता को अपना प्रतिनिधि चुनना है”।
  • “मुझे उन फिल्मों, व्यक्तियों और कार्यों का बहिष्कार करना है, जो मेरे ही धन से, कला और वैचारिक स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू विरोधी गतिविधियाँ करते हैं ”।
  • “मुझे जन्मदिन, विवाह तथा अन्य परिवारिक अवसरों को हिन्दू रीति रिवाजों के साथ आडम्बर रहित सादगी से मनाना है और उन्हें विदेशीकरण से मुक्त रखना है ”।
  • “जन-जागृति के लिये पत्र पत्रिकाओं तथा अन्य प्रचार स्थलों में लेख लिखूँ गा, और दूसरे साथियों के विचारों को पढूँ गा। हिन्दूओं के साथ अधिक से अधिक मेल-जोल करने के लिये मैं स्वयं अपने निकटतम घरों, पार्को, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर जा कर उन में दैनिक जीवन के सामाजिक तथा राजनैतिक विषयों पर विचार-विमर्श करूँ गा”।
  • “मैं अपने देश में किसी भी अवैध रहवासी अथवा घुस पैठिये को किसी प्रकार की नौकरी य़ा किसी प्रकार की सहायता नहीं दूंगा। मैं अवैध मतदाताओं के सम्बन्ध में पुलिस तथा स्थानीय निर्वाचन आयुक्त को सूचित करूं गा ताकि उन के नाम सूची से काटे जा सकें ”।
  • “अपने निजी जीवन में उपरोक्त बातों को अपनाने का भरसक और निरन्तर प्रयत्न करते रहने के साथ साथ अपने जैसा ही कम से कम ऐक और सहयोगी अपने साथ जोडूँगा ताकि मैं अकेला ही ऐक से ग्यारह की संख्या तक पहुँच सकूँ”।

संगठित प्रयास

जब ऐक से ग्यारह की संख्या हो जाये तो समझिये आपका संगठन तैय्यार हो गया। यह संगठित टोली अब आगे भी इस तरह अपने आप को मधुमक्खी के छत्ते की तरह अन्य टोलियों के साथ संगठित कर के अपना विस्तार और सम्पर्क तेजी से कर सकती है।

धर्म रक्षा का मौलिक अधिकार

सभी देशों में नागरिकों को अधिकार है कि वह निजि जीवन में पडने वाली बाधाओं को स्वयं दूर करने का प्रयत्न करें। अपने देश को बचाने के लिये हिन्दू युवाओं की यही संगठित टोलियाँ ऐक जुट हो कर अन्य नागरिकों, नेताओं और धर्म गुरुओं का साथ प्रभावशाली सम्पर्क बना सकती हैं।

धर्मान्तरण करवाने वाले पादरियों को गली मुहल्लों से पकड कर पुलिस के हवाले करना चाहिये। उसी प्रकार आतंकवादियों और उन के समर्थकों तथा अन्य शरारती तत्वों को पकड कर पुलिस को सौंप देना चाहिये। यदि कोई लेख, चित्र, या कोई अन्य वस्तु हिन्दू भावनाओं का तिरस्कार करने के लिये सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित करी जाती है तो उसे आरोपी से छीन कर नष्ट कर देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य तथा अधिकार है।

आपसी सम्पर्क के लिये मंथन और चिन्तन बैठकें करते रहना चाहिये। अपने निकट के वातावरण में दैनिक प्रतिरोधों, दूषित परम्पराओं तथा बाधाओं का निस्तारण स्वयं निर्णय कर के करते रहना चाहिये और अपना स्थानीय प्रभुत्व स्थापित करना चाहिये। अपने प्रति होने वाली शरारत का उनमूलन समस्या के पनपने और रिवाज की भान्ति स्थाय़ी रूप लेने से पहले ही कर देना उचित है।

अधिकाँश लोगों को हमारे वातावरण में हिन्दू विरोधी खतरों की जानकारी ही नहीं है। लेकिन जब हमारा घर प्रदूषित और मलिन हो रहा है तो रोने चिल्लाने के बजाये उसे सुधारने के लिये हमें स्वयं कमर कसनी होगी और अकेले ही पहल करनी होगी। दूसरे लोग अपने आप सहयोग देने लगें गे। इसी तरह से जनान्दोलन आरम्भ होते हैं। वर्षा की बून्दों से ही सागर की लहरे बनती हैं जिन में ज्वार आने से उन की शक्ति अपार हो जाती है। हमें हिन्दू महासागर को पुनः स्वच्छ बून्दों से भरना है। हिन्दू स्व-शक्ति जागृत करने के लिये किसी अवतार के चमत्कार की प्रतीक्षा नहीं करनी है।

निस्संदेह प्रत्येक हिन्दू से निष्ठावादी हिन्दू बन जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। कुछ अंश मात्र कृत्घन, कायर तथा गद्दार हिन्दू स्दैव भारत में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये विरोध करते रहैं गे। परन्तु उन से निराश होने की कोई जरूरत नहीं। संगठित और कृतसंकल्प टोली के सामने असंगठित और कायर भीड की कोई क्षमता नहीं होती। हिन्दू महासागर की लहरें महासुनामी का ज्वार बन कर देश के प्रदूष्ण को बहा ले जायें गी।

चाँद शर्मा

66 – आरक्षण की राजनीति


बटवारे के पश्चात हिन्दू समाज की सब से अधिक हानि काँग्रेसी सरकार की आरक्षण नीति से हुई है। वैसे तो संविधान में सभी नागरिकों को ‘बराबरी’ का दर्जा दिया गया था किन्तु कुछ वर्गों ने आरक्षण की मांग इस लिये उठाई थी कि जब तक वह ‘अपने यत्न से’ अन्य वर्गों के साथ कम्पीटीशन करने में सक्षम ना हो जायें उन्हें कुछ समय के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया जाये। हिन्दू विरोधी गुटों के दुष्प्रचार के कारण वह अपने आप को हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण ‘शोषित’ या ‘दलित’ समझ बैठे थे। अब हिन्दू समाज का विघटन करने के लिये आरक्षण को ऐक राजनैतिक अस्त्र की तरह प्रयोग किया जा रहा है।  

विशिष्ट वर्ग

वैधानिक तौर पर अब कोई भी वर्ग भारत में ‘शोषित’, ‘दलित,’ या ‘उपेक्षित’ नहीं है। पहले भी नहीं था। सभी को अपनी प्रगति के लिये परिश्रम तो स्वयं करना ही होगा किन्तु जाति के आधार पर अब आरक्षित वर्ग दूसरे वर्गों की अपेक्षा ‘विशिष्ट वर्ग’ बनते चले जा रहै हैं। अधिक से अधिक वर्ग अपने आप को शोषित तथा उपेक्षित साबित करने में जुट रहै हैं और आरक्षित बन कर विशिष्ट व्यवहार की मांग करने लग पडे हैं।

आरम्भ में शिक्षालयों तथा निम्न श्रेणी के पदों में जन्म जाति के आधार पर कुछ प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये थे। उस के लिये समय सीमा 1950 से आगे दस वर्ष (1960) तक थी। राजनेताओं ने अपने लिये ‘वोट बैंक’ बनाने के लिये समय सीमा समाप्त होने के पश्चात ना केवल समय सीमा आगे बढा दी बल्कि संख्या तथा आरक्षण पाने वाले वर्गों में वृद्धि की मांग भी निरन्तर करनी आरम्भ कर दी।

इस के अतिरिक्त पदोन्नति के क्षेत्र में भी जिन पदों के लिये निशचित कार्य क्षमता के आधार पर पदोन्नति की व्यव्स्था होनी चाहिये, उन्हें भी आरक्षण के आधार से भरा जाने लगा। इस का सीधा तात्पर्य योग्यता के माप दण्डों को गिरा कर कुछ विशेष लोगों को जाति के आधार पर पुरस्किरत करना मात्र रह गया है। समय के के साथ साथ भारत में ऐक ऐसा वर्ग पैर पसारने लगा है जो अपने आप को शोषित, उपेक्षित तथा पिछडा हुआ बता कर योग्यता के बिना ही विश्ष्टता की श्रेणी में घुसने लगा है। 

अब तो मुस्लिम तथा इसाई भी अपने लिये आरक्षण की मांग करने लगे हैं। वह भूल गये हैं कि बीते कल तक वह हिन्दू धर्म को जातिवादी वर्गीकरण के कारण बदनाम कर रहै थे तथा हिन्दूओं को अपने धर्म परिवर्तन का प्रलोभन इसी आधार पर दे रहे थे कि उन के धर्म में सभी बराबर हैं। यह दोगली चाल आरक्षण नीति की उपज है जिस के कारण हिन्दू समाज को अकसर बलैकमेल किया जाता रहा है। 

आधार हीन दुष्प्रचार    

अहिन्दू धर्म धडल्ले से प्रचार करते रहै हैं कि उन के धर्म में जाति के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया जाता। यदि उन के इसी प्रचार को ‘सत्य’ माने तो जो कोई भी अहिन्दू धर्म को मानता है या जो हिन्दू अपना धर्म छोड कर इसाई या मुस्लिम परिवर्तित हों जाते हैं उन को आरक्षण का लाभ बन्द हो जाना चाहिये क्यों कि उन्हें तथाकथित ‘हिन्दू शोषण’ से मुक्ति मिल जाती है और नये धर्म में जाने के पश्चात उन की प्रगति ‘अपने आप ही बिना परिश्रम किये’ होती जाये गी। इस से दुष्प्रचार की वास्तविक्ता अपने आप उजागर हो जाये गी।

इसाई तथा इस्लामी देशों के पास जमीन तथा संसाधन बहुत हैं। यदि वास्तव में वह हिन्दू शोषितों के लिये ‘चिन्तित’ हैं तो उन्हें शोषितों का धर्म परिवर्तन करवाने के बाद अपने देशों में बसा लेना चाहिये। इस प्रकार के धर्म परिवर्तन से किसी हिन्दू को कोई आपत्ति नहीं हो गी। अमेरिका, योरुप, आस्ट्रेलिया, मध्य ऐशिया आदि देशों में उन लोगों को बसाने की व्यव्स्था करी जा सकती है जहाँ पर इसाई तथा इस्लाम धर्मों ने जन्म लिया था। परन्तु धर्मान्तरण करने वाले वैसा नहीं करते। वह तो भारत से हिन्दू वर्ग को कम करके यहां इसाई और इस्लामी संख्या बढा कर भारत की धरती पर अपना अधिकार करना चाहते हैं।

भेद-भाव रहित वातावरण

 वैधानिक दृष्टि से भारत में सभी नागरिक अपनी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किसी भी शैक्षिक संस्थान में प्रवेश पा सकते हैं। यदि आरक्षण पूर्णत्या समाप्त कर दिये जायें तो सभी शिक्षार्थी समान शुल्क दे कर समान परिक्रिया से उच्च शिक्षा पा सकें गे। यदि संस्थानों की संख्या बढा दी जाये तो कोई भी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रहे गा। अगर पिछडे इलाकों में संस्थानों की संख्या में वृद्धि करी जाये तो प्रत्येक नागरिक बिना भेदभाव के अपनी योग्यता के आधार पर प्रगति कर सकता है। आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्राकृतिक असमान्तायें

विकसित सभ्यताओं में ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक योग्दान, समर्थ तथा क्षमता के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का होना प्रगतिशीलता की निशानी है। सामाजिक प्रधानतायें प्रत्येक समाज में उत्तराधिकार स्वरुप अगली पीढियों को हस्तान्तरित भी करी जाती है। सामाजिक वर्गीकरण प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने के लिये उत्साहित करता है ताकि वह मेहनत कर के अपने स्तर से और ऊपर उठने का प्रयत्न करें। य़दि मेहनती के बराबर ही अयोग्य, आलसी तथा नकारे व्यक्ति को भी योग्य के जैसा ही सम्मान दे दिया जाय गा तो मेहनत कोई भी नहीं करेगा। प्रतिस्पर्धा के वातावरण में सक्षम ही आगे निकल सकता है। केवल पशु जगत में ही कुछ सीमा तक समानताये होती हैं क्योंकि देखने में सभी पशु ऐक जैसे ही दिखते हैं परन्तु विषमताये भी प्राकृतिक हैं। ऐक ही माता पिता की संतानों में भी समानता नहीं होती।

स्वास्थ्य समबन्धी व्यक्तिगत कारण

यदि कुछ वर्ग स्वास्थ की दृष्टि से ‘दूषित’ वातावरण में काम करते हैं तो उन के साथ सम्पर्क के लिये स्वास्थ की दृष्टि से प्रतिबन्ध लगाना भी उचित है। इस प्रतिबन्ध का आधार उन की जाति नहीं बल्कि कर्म क्षेत्र का वातावरण है। इस प्रकार का प्रावधान भी सभी विकसित देशों और जातियों में है। आत्मिक दृष्टि से सभी मानव और पशु ऐक जैसे हैं परन्तु शारीरिक दृष्टि से वह ऐक जैसे नहीं हैं। स्त्री-पुरुष, भाई-भाई में भी शारीरिक, तथा भावात्मिक भेद प्रकृति ने बनाये हैं। ऐक ही माता-पिता की संतान होते हुये भी उन का रक्तवर्ग समान नहीं होता। ऐक का रक्त दूसरे को नहीं चढाया जा सकता। यह मानवी विषमताओं का वैज्ञानिक कारण है जिस के कारण उन के सोचविचार और व्यवहार में भी परिवर्तन स्वाभाविक हैं। विषमताओं का धर्म अथवा जाति से कोई सम्बन्ध नहीं। 

निजि पहचान का महत्व

परिचय तथा व्यव्हार के लिये व्यक्ति का चेहरा, उस का चरित्र, निजि स्वच्छता, सरलता, सभ्यता और व्यवहार आदि ही प्रयाप्त होते हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति की पहचान को ‘विस्तरित’ करने के लिये आवश्यक हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति के माता पिता से पिछली पीढी के सम्बन्धों को जोडती है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के लिये अपनी जाति को नाम के साथ जोडना अनिवार्य नहीं है। यदि किसी को अपनी जाति बताने में कोई मानसिक असुविधा लगती है तो वह किसी भी अन्य जाति नाम को अपने साथ जोड सकता है या छोड सकता है।

उच्च शिक्षा की सुविधायें

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में किसी ना किसी ढंग से आज भी लगे हुये हैं। ‘रुचि-परीक्षण’(ऐप्टीच्यूड टेस्ट) भी ऐक प्रतिबन्ध है जिस के आधार पर सम्बन्धित विषय की शिक्षा से प्रत्याशी को वंचित होना पडता है या स्वीकृति मिल जाती है। उच्च शिक्षा के साधनों के सीमित होने के कारण इस प्रकार के प्रतिबन्ध आवश्यक हो जाते हैं। जिन के पास उच्च शिक्षा को समझ सकने के बेसिक माप दण्ड नही होते उन पर साधन और समय बरबाद करने का समाज को कोई लाभ नहीं। सभी देशों में उन को उस विशेष शिक्षा से वंचित रहना पडता है। आज कितने ही मेधावी छात्रों को आरक्षण की वजह से निराश हो कर अन्य देशों की तरफ पलायन करना पड रहा है या उच्च शिक्षा से वंचित रहना पडता है क्यों कि स्थान अयोग्य प्रत्याशियों से भरे रहते हैं जो केवल आरक्षण का आर्थिक लाभ उठाते रहते हैं। 

भारत में कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उस का जाति बताने के लिये बाध्य नहीं करता। यदि कोई किसी विशिष्ट विषय के बारे में ज्ञान पाना चाहे तो वह निजि साधनो से उस विषय के ग्रंथ खरीद कर पढ सकता है। इसी प्रकार हर कोई किसी भी देवी-देवता की आराधना भी कर सकता है, मनोरंजन स्थल पर सामान्य शुल्क दे कर जा सकता है उस के मार्ग में कोई भी सरकारी, धार्मिक अथवा सामाजिक बाधा कोई नहीं है। वास्तव में कुछ व्यक्ति आरक्षण लाभ पाने कि लिये अपना जाति का प्रमाण पत्र स्वयं ही दूसरों को दिखाते हैं।

वोट बेंक की राजनीति

कुछ नेता पिछडे वर्गों की नुमायन्दगी करने के लिये अपने आप को दलित, शोषित और पता नहीं क्या क्या कहने लगे हैं। स्वार्थी नेताओं को अपनी प्रगति और समृद्धि के लिये वोट बेंक बनाने के लिये दलित अथवा उसी श्रेणी के अनुयायी भी चाहियें । इसलिये वह उकसा कर हिन्दू समाज को बलैकमेल करने में स्दैव जुटे रहते हैं। वही उन को धर्म परिवर्तन के लिये भी भडकाते रहते हैं। किसी भी नेता ने पिछडे वर्गों को शिक्षशित करने में, या परिश्रम कर के आगे बढने के बारे में कोई योग्दान नहीं दिया है। ऐसे नेता देश, धर्म और पिछडे लोगों के साथ अपने स्वार्थों के लिये सरासर गद्दारी कर रहै हैं।

आरक्षण निति के दुष्परिणाम

आरक्षण नीति पूर्णत्या असफल तथा हानिकारक सिद्ध हुई है। आरक्षण के लाभों ने उत्तराधिकार का रूप ले लिया है। आरक्षण के आरम्भ से आज तक ऐक भी उदाहरण सामने नहीं आया जब किसी आरक्षित ने यह कहा हो कि आरक्षण के कारण उस की सामाजिक ऐवं मानसिक प्रगति हो चुकी है जिस के फलस्वरूप उसे और उस की संतान को अब आगे आरक्षण के माध्यम से कोई लाभ नहीं चाहिये। किसी ऐक ने भी नहीं कहा कि उस का परिवार आरक्षण की बैसाखियों के बिना प्रगति के मार्ग पर चलने के लिये अब सक्षम हो चुका है अतः उस के वापिस किये आरक्षण लाभांश अब किसी अन्य जरूरतमन्द को दे दिये जायें।

आरक्षण पाने वालों की सूची में कई केन्द्रीय मन्त्री, भूतपूर्व राष्ट्रपति, उच्च अधिकारी तथा उद्योगपति भी शामिल हैं किन्तु उन में से भी किसी के परिवार ने उन्नति कर के आरक्षण के लाभांश को किसी दूसरे के लिये नही छोडा है। इसी से प्रमाणित होता है कि आरक्षण नीति असफल रही है। इस के विपरीत कई उच्च जाति के लोग भी अब आरक्षण की कतार में खडे हो कर लाभांश की मांग करने लगे हैं। वह तो यहाँ तक धमकी देते हैं कि उन्हें आरक्षण नहीं दिया गया तो वह हिन्दू धर्म छोड कर कुछ और बन जायें गे। इसी से पता चलता है कि आरक्षण नीति कितनी बेकार और घातक सिद्ध हुई है।

और तो और अब भारत की पढी लिखी और अशिक्षशित स्त्रियों ने अपने लिये संसद तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में आरक्षण की मांग करने लगीं हैं। उन्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि अगर इटली से ऐक साधरण अंग्रेजी जानने वाली महिला भारत के शासन तन्त्र में सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है तो भारत की महिलाओं को अपने ही देश में निर्वाचित होने के लिये क्यों आरक्षण चाहिये? निस्संदेह आरक्षणवादी मानसिक्ता ने उन का स्वाभिमान और गौरव ध्वस्त कर दिया हैं।

आरक्षण का आर्थिक आधार

आज कल कुछ धर्म-निर्पेक्ष लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की भी वकालत करने लगे हैं। किन्तु उस के परिणाम भी हिन्दूओं के लिये घातक ही हों गेः-

  • योग्यता, सक्ष्मता तथा कार्य कुशलता की पहचान मिट जाये गी।
  • आर्थिक आधार से आरक्षण के सभी लाभ अल्पसंख्यकों की झोली में जा पडें गे जिस से सारा सरकारी तन्त्र केवल अल्संख्यकों से ही भर जाये गा। शासन तन्त्र में अयोग्यता के अतिरिक्त निष्ठा को भी हानि होगी।
  • दारिद्रता को कसौटी मान कर उसे लाभप्रद नहीं बनाया जा सकता। केवल दारिद्र होने के कारण किसी को परिश्रम के बिना उन्नत नहीं किया जा सकता। यदि वैसा किया गया तो कोई परिश्रम कर के धन नहीं कमाये गा।

सर्वत्र आत्म विशवास का विनाश

आरक्षण के कारण परिश्रम करने वालों और योग्य व्यक्तियों का मनोबल क्षीण हुआ है। शैक्षशिक संस्थानों में रिक्त स्थान उपयुक्त शिक्षार्थी ना मिलने के कारण या तो रिक्त पडे रहते हैं या अयोग्य लोगों से भरे जाते हैं। उन पर किया गया खर्च बेकार हो जाता है। इस प्रकार के स्वार्थवादी ढाँचे को तोडना मुशकिल हो चला है किन्तु इस का लाभ इसाई और मुस्लिम समुदाय उठा रहै हैं और हानि हिन्दू कर दाता।

आरक्षण नीति के विकल्प

यदि हम चाहते तो बटवारे के तुरन्त पश्चात ही आरक्षण के विकल्प ढूंड सकते थे। हमें शिक्षा को पूर्णत्या निशुल्क बनाना चाहिये था। शिक्षा सम्बन्धी खर्चों को भी सस्ता करना चाहिये था जिस में पुस्तकें, होस्टल का किराया और शिक्षार्थियों के लिये भोजन आदि शामिल था। शिक्षा के साथ साथ उन्हें व्यवसायक पर्शिक्षशण देना चाहिये था जिस से विद्यार्थियों में आरक्षण की हीनता के स्थान पर स्वालम्बन की भावना उत्पन्न होती। उच्च शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को आसान शर्तों पर कर्ज दिये जा सकते थे जो लम्बे काल में लौटाये जा सकें। इस प्रकार के विकल्प विकसित देशों में सफलता पूर्वक अपनाये गये हैं।

पिछडे वर्गों के लिये सस्ते दरों पर भोजन, पुस्तकों, आदि का प्रावधान कर देना उचित है। उन को अपने परिश्रम से आगे बढने के अवसर देने चाहियें शिक्षण तथा व्यवसायिक परिशिक्षण के संस्थान अधिकतर अविकसित क्षेत्रों में खोलने चाहियें परन्तु वह केवल बेकवर्ड लोगों के लिये ही नहीं होने चाहियें।

धर्म निर्पोक्षता की डींग मारने वाली सरकार के लिये निशुल्क या सस्ती हज यात्रा के प्रावधान के बदले छात्रों को निशुल्क पुस्तकें, वस्त्र, भोजन, तथा होस्टल आदि प्रदान करवाना देश हित में होता। सरकार इसाईयों तथा मुस्लमानों को आरक्षण दे कर हिन्दूओं को धर्म परिवर्तन के लिये उकसा रही है और हिन्दूओं में विघटन करवा रही है। 

चाँद शर्मा

63 – अंग्रेजों की बन्दर बाँट


अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी स्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की अपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के विपरीत भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी, जो इस्लाम की देन थी।

दासता का जाल

योरपीय व्यापारिक कम्पनियाँ सैनिक क्षमता के साथ छद्म भेष में भारत आईं थी। उन के पास उत्तम हथि्यार, तोपें, गोला बारूद तथा अनुशासित सैनिक और कर्मठ कर्मचारी थे। परस्परिक ईर्षा और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होते हुये भी इसाई धर्म नें उन को ऐक सूत्र में बाँधे रखा। अब उन के पास अपने आप को भारतियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और सभ्य कहलाने का मनोबल भी था जिस का योरुपीय आगन्तुकों ने पूरा फायदा उठाया। लोभ और भय का प्रयोग कर के उन्हों ने इसाई धर्म का प्रचार किया और स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन किये। अपने अधिकार क्षेत्रों को सुदृढ करने के पश्चात उन्हों ने मूर्ख और स्वार्थी शासकों की आपसी कलह को विस्तार देना आरम्भ किया। ऐक को दूसरे से लड़वा कर स्वयं न्यायकर्ता के रूप में ढलते गये। भूखी बिल्लियों के झगडे में मध्यस्तता करते करते बन्दर पूरी रोटी के मालिक बन बैठे। अन्ततः ब्रिटेन ने अन्य योरुपीय देशों से बाझी मार ली। भारत में इंगलैण्ड की व्यवसासिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘कम्पनी-बहादुर’ के नाम से सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बन कर भारत के मूर्ख, झगडालू, तथा ईर्षालू शासकों को पालतु कुत्तों की तरह पीठ थप-थपा कर शासन करने लगी। 

‘कम्पनी बहादुर’ ने 1857 तक भारत पर राज्य किया। उस के पश्चात सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गयी। हिन्दूओं की अपेक्षा मुस्लमान कई स्थानों पर सत्ता में बने हुये थे। इसाईयों के लिये उन का धर्म परिवर्तन करवाना कठिन था क्यों कि कट्टरपंथी मानसिक्ता के कारण धर्म परिवर्तन करने से मुस्लिम समाज परवर्तितों का बहिष्कार कर देता था। हिन्दूओं के पास ना तो सत्ता थी ना ही कट्टरपंथी मानसिक्ता। अतः वह धर्म परिवर्तन का सुगम लक्ष्य बनते रहै।

अंग्रेज़ी पिठ्ठुओं का उदय

1857 के ‘स्वतन्त्रता-संग्राम’ के युद्ध की घटनाओं को दोहराने की आवश्यक्ता नहीं जो कि जन साधारण की ओर से ‘इसाईकरण’ का विरोध था। कुछ ऐक को छोड कर अधिकतर राजाओं के ‘व्यक्तिगत कारण’ थे जिन की वजह से उन्हों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाय़ी थी। भारतीयों की आपसी फूट, तालमेल की कमी और अधिकाँश राजघरानों की देश के प्रति गद्दारी के कारण 1857 का जन आन्दोलन संगठित अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विफल हो गया। उस के पश्चात अंगेजी शासक अधिक सावधान हो गये और उन्हों ने अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये नाम मात्र ‘सुधारों’ की आड ले ली।

भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ‘सलतनते इंग्लिशिया’ (महारानी विक्टोरिया) के अधिकार में चला गया। अपने शासन को भारत में स्वीकृत करवाने के लिये अंग्रेजों ने मिथ्या प्रचार किया कि जैसे मध्य ऐशिया से भारत आये आर्यों ने ‘स्थानीय द्राविड लोगों को दास बना कर’ अपना शासन कायम किया था, उसी प्रकार अंग्रेज भी यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे हैं और उन का जीवन ‘सुधार’ रहै हैं। इस मिथ्याप्रचार की सफलता में हिन्दू धर्म ही ऐक मात्र बाधक था जिसे मिटाना अंग्रेजों के लिये जरूरी था।

मैकाले शिक्षा पद्धति 

इस्लामी शासन के समय में हिन्दूओं का पठनपाठन बिखर गया था। मुस्लिम जन साधारण को ज्ञान के अन्दर कोई दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजों ने भारतियों को अपनी सोच विचार के अनुरूप ढालने के लिये नयी शिक्षा प्रणाली लागू की जिस का मूल जनक लार्ड मैकाले था। उस शिक्षा पद्धति का मुख्य उद्देश्य हिन्दूओं में अपने प्राचीन ग्रन्थों और पूर्वजों के प्रति अविशवास जगाना था तथा अंग्रेजी सभ्यता, सोच विचार, रहन सहन के प्रति भारतियों को लुभाना था ताकि जीवन के हर क्षेत्र में वह अपने स्वाभिमान को स्वयं ही त्याग कर अंग्रेजी मानसिक दासता सहर्ष स्वीकार कर लें और उसे आगे फैलायें। उस शिक्षा प्रणाली को ‘धर्म-निर्पेक्ष वैज्ञिानिक सोच’ का नाम दे दिया गया। जो कुछ भारतीय था वह ‘रूढी-वाद’ और दकियानूसी घोषित कर दिया गया। 

काँग्रेस का छलावा

ऐक अन्य अंग्रेज ऐ ओ ह्यूम ने मैकाले पद्धति से पढे भारतियों के लिये ऐक नया अर्ध राजनैतिक संगठन इंडियन नेशनल काँग्रेस के नाम से आरम्भ किया जिस का मुख्य उद्देश्य मामूली पढे लिखे भारतियों को सलतनते इंग्लिशिया के स्थानीय सरकारी तन्त्र का ‘हिस्सा’ बना कर साधारण जन-जीवन से दूर रखना था ताकि वह अपनी राजनैतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति अंग्रेजी खिलौनों से कर के संतुष्ट रहैं। अंग्रेजों के संरक्षण में बने इस राजनैतिक संगठन से उन्हें कोई भय नहीं था और उन का अनुमान सही निकला।

‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर अंग्रेजों ने कुछ औपचारिक ‘सुधार’ भी किये थे जिन का मूल उद्देश्य उपनेष्वादी तन्त्र को मजबूत करना था। लिखित कानून लागू किये गये। स्थानीय रीति रिवाज अंग्रेजी मुनसिफों को समझाने के लिये ब्राह्मण तथा मौलवी सलाहकारों (ऐमिक्स-क्यूरी) की नियुक्ति का प्रावधान न्यायालयों में किया गया था। ब्राह्मणों के पास परिवार चलाने के लिये रीति-रिवाज करवाने की दक्षिणा के अतिरिक्त आमदनी का कोई साधन नहीं रहा था। अतः उन्हों ने अपने स्वार्थ हित में रीतिरिवाजों को अधिक जटिल तथा खर्चीला बना दिया। जन साधारण रीति रिवाजों को आडम्बर और बोझ समझ कर उन से विमुख होने लगे। परिणाम अंग्रेजों के लिये हितकर था। उन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने के और भी बहाने मिलने लगे। ग़रीब लोग हिन्दू धर्म को त्याग कर इसाई बनने लगे। इस्लामी शासन के समय चली हुई बाल विवाह, सती प्रथा, तथा कन्या हत्या (दुख्तर कशी) इत्यादि कुरीतियों को निषेध करवाने हिन्दू समाज सुधारक आगे आये परन्तु अंग्रेजी पद्धति से शिक्षशित लोगों ने उन सुधारों का श्रेय भी अंग्रेजों को ही दिया।

इतिहास से छेड-छाड

भारत का प्रचीन इतिहास तो इस्लामी आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था। पौराणिक प्रयाग का नाम अकबर ने ‘इलाहबाद’ रखवा दिया था, महाभारत का पाँचाल ‘फरुखाबाद’ बन चुका था। ऱाम की अयोध्या नगरी में राम मन्दिर के मल्बे से बाबरी मस्जिद बनवा कर उस का नाम ‘फैजाबाद’ रख दिया गया था। अधिकतर हिन्दू नगरों और पूजा स्थलों को नष्ट कर के उन्हीं के स्थान पर इस्लामी स्मारक बन चुके थे। भारतीय इतिहास का पुनर्वालोकन करने कि लिये लंका, बर्मा, तिब्बत, चीन तथा कुछ अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों से अंग्रजों ने कुछ बचे खुचे ग्रन्थों को आधार बनाया। टूटी कडियों को जोडने के लिये उन्हों ने ‘अंग्रेजी हितों के अनुरूप’ मन घडंत तथ्यों का समावेश भी किया।

वैचारिक दासता

मानसिक आधीनता के कारण हमारी वैचारिक स्वतन्त्रता नष्ट हो चुकी थी। हम ने प्रत्येक तथ्य को अंग्रेजी मापदण्डों के अनुसार परखना शुरु कर दिया था। जो कूछ योरुप वासियों को नहीं पता था या जिस तथ्य का अनुमोदन वह नहीं करते थे वह हमारे ‘देसी बुद्धिजीवियों’ को भी ‘स्वीकृत’ नहीं था चाहे वही तथ्य हमारे सम्मुख अपने स्थूल रूप में विद्यमान खडा हो। लन्दन में ब्रिटिश संग्रहालय ज्ञान का विश्ष्ट मन्दिर बन चुका था जहाँ दुनिया भर से लूटे और चुराये गये पुरात्त्वों को सजा कर रखा जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र में “ग्रेट ब्रिटैन विश्व की इकलौती महा शक्ति बन चुका था। उन्हों ने भारत में भी अपने समर्थक बुद्धिजीवियों की ऐक सशक्त टोली खडी कर ली थी जो उन की राजनैतिक सत्ता और वैचारिक प्रभुत्व को सुदृढ करने में जुट चुकी थी।  

सामाजिक, वेष-भूषा, खान-पान, आमोद-प्रमोद, शिक्षा और विचारधारा के हर क्षेत्र में इस्लामी परम्पराओं की अपेक्षा हिन्दूओं का ब्रिटिश सभ्यता से अधिक प्रभावित होना स्वाभाविक था क्योंकि वास्तव में वह हिन्दू परम्पराओं के मूल रूप का ही ‘विकृत संस्करण’ थीं। सहज में ही अंग्रेजी प्रशासनिक क्रिया पद्धति, शिक्षण-प्रणाली, तथा दैनिक काम-काज में नापतोल, कैलेँडर, समय सारिणी, खेल-कूद, कानूनी परिभाषाये, व्यापारिक रीतिरिवाजों ने स्थानीय परम्पराओं को स्थगित कर के अपनी जगह बना ली। चमक दमक के कारण अंग्रेजी पद्धतियां प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान हो गयी।

यह व्यंगात्मक है कि हिन्दूओं ने यद्यपि अंग्रेजी माध्यम से अपने ही पूर्वजों के लगाये हुये पौधों के फलों पर मोहित होना स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह योरुप की चमकीली पालिश के नीचे छुपे तथ्यों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके जो उन्हीं के अपने ही पूर्वजों के लगाये गये बीज थे। हिन्दू चिन्ह मिट चुकने के कारण अन्तिम उत्पाद पर योरोपियन मुहर लग चुकी थी जिस कारण आज अंग्रेज प्रगति और विज्ञान के जन्मदाता समझे जाते हैं।

हिन्दू गौरव का पुनरोत्थान

हालात सुधरे तो धीरे धीरे सत्यता भी उभरी। उन्नीसवी शताब्दी में कई हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन शुरु हुये  जिन के कारण अन्धेरी सुरंग के पार कुछ रौशनी दिखायी पडने लगी। भारत वासियों ने अधुनिक विश्व को पुनः देखना आरम्भ किया। बीसवीं शताब्दी में भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध तथा दिूतीय विश्व युद्ध में भाग लिया और अपने रक्त से विदेशी शासन को सींचा। उस का सकारात्मिक प्रभाव भारत के हित में था। भारतीय तब तक तत्कालिक शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों से दूर रहे थे। विश्व युद्धों के कारण भारत के जन साधारण ने योरुप तथा अन्य देशों की प्रगति को जब अपनी आँखों से देखा तो उन के अन्दर भी अपने देश को आगे बढाने की भावना पुनः जागृत हुई। उन्हों ने दूसरे देशों के नागरिकों को स्वतन्त्र राष्ट्र के रुप में देखा तो उन की स्वतन्त्र रहने की भावना ने चिंगारी का रूप लिया जिस के फलस्वरूप ही लोगों में स्वतन्त्रता के लिये चेतना की भावना उमड कर तीव्र होती गयी। 

स्वतन्त्रता की चिंगारी

भारतवासियों में सब से पहले ऐ ओ ह्यूम की बनाई काँग्रेस में ही देश की प्रशास्निक व्यवस्था में अधिकार पाने की आकाँक्षा ने जन्म लिया। किन्तु मैकाले पद्धति से प्रशिक्षित उन भारतियों की मांग केवल स्थानीय प्रशासन तक ही सीमित थी जिसे अंग्रेजी सरकार ने कुछ उल्ट फैर के साथ मान लिया। धीरे धीरे काँग्रेस में लोकमान्य तिलक जैसे स्वाभिमानी राष्ट्रवादी नेता भी जुडने लगे और उन्हों ने स्वतन्त्रता को अपना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ जता कर ब्रिटिश सरकार की नीन्द उडा दी। परिणामस्वरूप उन्हें ‘विद्रोही’ बना कर अभियोग चलाये गये और कालेपानी की घोर यातनायें दी गयीं। स्वतन्त्रता की मांग को लेकर चिंगारी तो भडक उठी थी जिस ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जब हिंसक घटनायें होने लगीं तो अंग्रेजों को बातचीत में फुसलाये रखने के लिये अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों की जरूरत आन पडी।

विश्व युद्धों पश्चात पूरे विश्व में उपनेषवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग किसी ना किसी रूप में उठने लग गयी थी। युद्धों में नष्ट हुये साधनो के कारण ब्रिटिश सरकार के लिये उपनेषवादी सरकारों को चलाये रखना कठिन होता जा रहा था। भारत में एक ओर तो उन्हों ने उग्र स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रताडित किया तो दूसरी ओर अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों के साथ बात चीत का ढोंग किया और कुछ गिने चुने गाँधी, नेहरू और जिन्नाह जैसे नेताओं को हिन्दू मुस्लमानो का प्रतिनिधि बना कर भारत का बटवारा करने की योजना बनाई ताकि किसी ना किसी तरह से विक्षिप्त भारत को अपने प्रभाव में रख कर भविष्य में भी परोक्ष रूप से उपनेषवादी लाभ उठाये जा सकें।  

भारत का बटवारा

15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत को हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया और सत्ता ‘ब्रिटिश मान्य’ हिन्दू मुस्लिम प्रतिनिधियों को सौंप दी। मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी जिस के फलस्वरूप भारत के ऐक तिहाई भाग को भारत वासियों से छीन लिया और उन्हें उन के शताब्दियों पुराने रहवासों से खदेड भी दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की ‘इण्डियन नेशनेलिटी रहने के बावजूद वह पाकिस्तान से स्दैव के लिये खदेड दिये गये।

उल्लेखनीय है कि बटवारे से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ नहीं रहना चाहते थे इसलिये पाकिस्तान की मांग के पक्ष में 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान तो किया लेकिन जब घर बार छोडकर अपने मनचाहे देश में जाने का वक्त आया तो सिर्फ 15 प्रतिशत  मुसलमान ही पाकिस्तान गये थे। 85 प्रतिशत मुस्लमानों ने पाकिस्तान मिलने के बाद भी हिन्दुस्तान में आराम से बैठे रहै थे। विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में सदियों से रहते चले आ रहे हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया। वहां लाखों हिन्दुस्तानियों को केवल हिन्दु-सिख होने के कारण अपना घर-सामान सब छोड. कर पाकिस्तान से निकल कर भारत आना पडा परन्तु भारत में पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कर के भी मुसलमान अपने घरों में सुरक्षित बने रहे।

चाँद शर्मा

60 – हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।

असमानताओं का संघर्ष

भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।

इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।

समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।

हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ

कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 

कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।

मन्दिरों का विध्वंस

समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।

कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।

विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।

ईस्लामीकरण का दौर

सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।

बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।

हिन्दूओं की बचाव नीति

मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 

हिन्दूओं की बचाव नीति

अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-

पलायनवाद – बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार – निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।

वंशावली पंजीकरण की प्रथा

इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।

ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।

सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 

कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।

जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

59 – ईस्लाम का अतिक्रमण


इस्लाम भारत में जिहादी लुटेरों और शत्रुओं की तरह आया जिन्हें हिन्दूओं से घृणा थी। मुस्लिम स्थानीय लोगों को ‘काफिर’ कहते थे और उन्हें को कत्ल करना अपना ‘धर्म’ मानते थे। उन्हों ने लाखों की संख्या में हिन्दूओं को कत्ल किया और वह सभी कुछ ध्वस्त करने का प्रयास किया जो स्थानीय लोगों को अपनी पहचान के लिये प्रिय था। इस्लामी जिहादियों का विशवास था कि अल्लाह ने केवल उन्हें ही जीने का अधिकार दिया था और अल्लाह ने मुहमम्द की मार्फत उन्हें आदेश भिजवा दिया था कि जो मुस्लमान नहीं उन्हें मुस्लमान बना डालो, ना बने तो उन्हें कत्ल कर डालो।

आदेश का पालन करने में लगभग 63000 हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त किया गया, लूटा गया, और उन में से कईयों को मस्जिदों में तबदील कर दिया गया। हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमायें तोड कर मुस्लमानों के पैरों तले रौंदी जाने के लिये उन्हें नव-निर्मत मस्जिदों की सीढियों के नीचे दबा दिया जाता था। जो दबाई या अपने स्थान से उखाडी नहीं जा सकतीं थीं उन्हें विकृत कर दिया जाता था। उन कुकर्मों के प्रमाण आज भी भारत में जगह जगह देखे जा सकते हैं। ‘इस्लामी फतेह’ को मनाने के लिये हिन्दूओं के काटे गये सिरों के ऊंचे ऊंचे मीनार युद्ध स्थल पर बनाये जाते थे। पश्चात कटे हुये सिरों को ठोकरों से अपमानित कर के मार्गों पर दबा दिया जाता था ताकि काफिरों के सिर स्दैव मुस्लमानों के पैरों तले रौंदे जाते रहैं।

खूनी नर-संहार और विधवंस  

मुस्लिम विजयों के उपलक्ष में हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मणों को मुख्यतः कत्ल करने का रिवाज चल पडा था। क्षत्रिय युद्ध भूमि पर वीर गति प्राप्त करते थे, वैश्य वर्ग को लूट लिया जाता था और अपमानित किया जाता था और शूद्रों को मुस्लमान बना कर गुलाम बना लिया जाता था।

उत्तरी भारत में सर्वाधिक ऐतिहासिक नरसंहार हुये जिन में से केवल कुछ का उदाहरण स्वरूप वर्णन इस प्रकार हैः- 

  • छच नामा के अनुसार 712 ईस्वी में जब मुहमम्द बिन कासिम नें सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो मुलतान शहर में 6 हजार हिन्दू योद्धा वीर गति को प्राप्त हुये थे। उन सभी के परिजनों को गुलाम बना लिया गया था।
  • 1399 ईस्वी में अमीर तैमूर नें दिल्ली विजय के पश्चात सार्वजनिक नरसंहार (कत्ले-आम) का हुक्म दिया था। उस के सिपाहियों ने ऐक ही दिन में ऐक लाख हिन्दूओं को कत्ल किया जो अन्य स्थानों के नरसंहारों और लूटमार के अतिरिक्त था।
  • 1425 ईस्वी में चन्देरी का दुर्ग जीतने के बाद मुगल आक्रान्ता बाबर ने 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी हिन्दूओं को कत्ल करवा दिया था तथा औरतों और बच्चों को गुलाम बना लिया था। चन्देरी का इलाका कई महीनों तक दुर्गन्ध से सडता रहा था।
  • 1568 ईस्वी में तथाकथित ‘उदार’ मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड के राजपूत किलेदार जयमल को उस समय गोली मार दी थी जब वह किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। उस के सिपहसालार फतेह सिहं को हाथ पाँव बाँध कर हाथी के पैरों तले कुचलवाया गया था। उसी स्थान पर उन तीस हजार हिन्दूओं को कत्ल भी किया गया था जिन्हों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था। आठ हजार महिलायें सती की अग्नि में प्रवेश कर गयीं थी।
  • 1565 ईस्वी में बाह्मनी सुलतानो ने संयुक्त तौर पर हिन्दू राज्य विजय नगर का विधवंस कत्ले आम तथा सर्वत्र लूटमार के साथ मनाया। फरिशता के उल्लेखानुसार  बाह्मनी सुलतान केवल निचले दर्जे के राजवाडे थे किन्तु वह काफिरों को सजा देने के बहाने हजारों की संख्या में हिन्दूओं का कत्ल करवा डालते थे।
  • आठारहवीं शताब्दी में नादिर शाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा, ध्वस्त किया और कत्लेआम करवाया ।

मुसलिम शासकों ने हिन्दूओ के नरसंहार का उल्लेख अभिमान स्वरूप अपने रोजनामचों (दैनिक गेजेट) में करवाया है क्यों कि वह इस को पवित्र कर्म मानते थे। काफिरों का कत्ल करवाने की संख्या के विषय में प्रत्येक अक्रान्ता और मुस्लिम शासक की अपनी अपनी धारणायें थी और परिताड़ण करने के नृशंसक तरीके थे जो सर्वथा क्रूर और अमानवीय होते थे। काफिरों को जिन्दा जलाना, आरे से चिरवा देना, उन की खाल उतरवा देना, उन्हें तेल के कडाहों में उबलवा देना आदि तो आम बातें थी जिन के चित्र संग्रहालयों में आज भी देखे जा सकते हैं।   

सर्वत्र अंधंकार मय युग

शीघ्र ही हिन्दूओं का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया, जिस के फलस्वरूपः-  

  • तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला आदि सभी विश्व विद्यालय धवस्त कर दिये गये तथा शिक्षा और ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अन्धकार छा गया।
  • बुद्धिजीवियों को चुन चुन की मार डाला जाता था। बालकों के प्रराम्भिक शिक्षण संस्थान ही बन्द हो गये। इस्लामी धार्मिक शिक्षा का काम मदरस्सों के माध्यम से कट्टरवादी मौलवियों नें शुरू कर दिया।
  • इस्लामी शासन के अन्तरगत सभी प्रकार के मौलिक भारतीय ज्ञान लुप्त हो गये। जहाँ कहीं हिन्दू प्रभाव बच पाया वहीँ संस्कृत व्याकरण, गणित, चिकित्सा तथा दर्शन और प्राचीन ग्रन्थों का पठन छिप छिपा कर बुद्धिजीवियों के निजी परिश्रमों से चलता रहा। परन्तु उन्हें राजकीय संरक्षण तथा आर्थिक सहायता देने वाला कोई नहीं था।
  • ‘जज़िया’ जैसे अधिकतर इस्लामी करों के प्रभाव से हिन्दूओं को धन का अभाव सताने लगा। हिन्दू गृहस्थियों के लिये दैनिक यज्ञ तो दूर उन के लिये परिवार का निजि खर्च चलाना भी दूभर हो गया था। वह बुद्धिजीवियों की आर्थिक सहायता करना तो असम्भव अपने बच्चों को साधारण शिक्षा भी नहीं दे सकते थे क्यों कि उन का धन, धान्य स्थानीय मुस्लिम जबरन हथिया लेते थे।
  • हिन्दूओं के लिये मुस्लमानों के अत्याचारों के विरुध न्याय, संरक्षण और सहायता प्राप्त करने का तो कोई प्रावधान ही नहीं बचा था। मुस्लमानों के समक्ष हिन्दूओं के नागरिक अधिकार कुछ नहीं थे। मानवता के नाम पर भी उन्हें जीवन का मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। न्याय के नाम से मुस्लिम की शिकायत पर मौखिक सुनवाई कर के साधारणत्या स्थानीय अशिक्षित मौलवी किसी भी हिन्दू को मृत्यु दण्ड तक दे सकते थे। हिन्दूओं के लिये केवल निराशा, हताशा, तथा भय का युग था और काली लम्बी सुरंग का कोई अन्त नहीं सूझता था।

इस कठिन और कठोर अन्धकारमय युग में भी हिन्दू बुद्धिजीवियों ने छिप छिपा कर ज्ञान की टिमटिमाती रौशनी को बुझने से बचाने के भरपूर पर्यत्न किये जिन में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य (1114 -1185) का नाम उल्लेखनीय है। ज्ञान क्षेत्र की स्वर्णमयी परम्परा को भास्कराचार्य ने आधुनिक युग के लिये अमूल्य योगदान पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त की व्याख्या कर के दिया।  

सामाजिक कुरीतियों का पदार्पण

अन्धकारमय वातावरण के कारण हिन्दू समाज में कई कुरीतियों ने महामारी बन कर जन्म ले लिया। प्रगति के स्थान पर अशिक्षता और अन्धविशवासों के कारण जीवन का स्वरुप और दृष्टिकोण निराशामय और नकारात्मिक हो गया था जिस के फलस्वरूपः-

  • मुस्लिम लूटमार, छीना झपटी और जजि़या जैसे विशेष करों के कारण हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे।  
  • शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। उन का व्यवसायिक प्रशिक्षण बन्द हो जाने से उन की अर्थ व्यव्स्था छिन्न भिन्न हो गयी थी। वह केवल मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमा सकते थे। उस क्षेत्र में भी ‘बेगार’ लेने का प्रचलन हो गया था तथा काम के बदले में उन्हें केवल मुठ्ठी भर अनाज ही उपलब्द्ध होता था। किसानों की जमीन शासकों ने हथिया ली थी। उन का अनाज शासक अधिकृत कर लेते थे।
  • पहले संगीत साधना हिन्दूओं के लिये उपासना तथा मुक्ति का मार्ग था। अब वही कला मुस्लिम उच्च वर्ग के प्रमोद का साधन बन गयी थी। साधना उपासना की कथक नृत्य शैली मुस्लिम हवेलियों में कामुक ‘मुजरों’ के रूप में परिवर्तित हो गयी ताकि काम प्रधान भाव प्रदर्शन से लम्पट आनन्द उठा सकें। 
  • अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ। इस में कई स्वार्थी हिन्दूओं ने भी योगदान दिया।
  • अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन भी पड गया। पुरोहितों ने यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया ।

हिन्दू समाज का विघटन 

असुरक्षित ब्राह्मण विदूान मुसलमानों से अपमानित होते थे और हिन्दूओं से उपेक्षित हो रहे थे। उन्हें अपना परम्परागत पठन पाठन, दान ज्ञान का मार्ग त्यागना पड गयाथा। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा। जीविका के लिये भी उन्हें रीतिरीवाजों के लिये अवसर और बहाने तराशने पडते थे जिस के कारण साधारण जनता के लिये संस्कार और रीति रिवाज केवल दिखावा और बोझ बनते गये। हिन्दू समाज का कोई मार्ग-दर्शक ना रहने के कारण प्रान्तीय रीति रिवाजों और परम्पराओं का फैलाव होने लगा था। जातियों में कट्टरता आ गयी तथा ऐक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को घृणा, भय, तथा अविशवास से देखने लगे थे। हिन्दू समाज का पूरा ताना बाना जो परस्पर सहयोग, विशवास और प्रेम पर निर्भर था विकृत हो गया। रीतिरिवाज जटिल, विकृत और खर्चीले हो जाने के कारण हर्ष- उल्लास देने के बजाय दुःख दायक हो गये। अन्ततः निर्धन लोग रीति रिवाजों की उपेक्षा कर के धर्म-परिवर्तन के लिये भी तत्पर हो गये। 

अपमानजनक वातावरण

हिन्दूओं के आत्म सम्मान को तोडने के लिये मुस्लमानों ने क्षत्रियों का अपने सामने घोडे पर चढना वर्जित कर दिया था। उन के सामने वह शस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। अतः कई क्षत्रियों ने परम्परागत सैनिक और प्रशासनिक जीवन छोड कर कृषि या जीविका के अन्य व्यवसाय अपना लिये। धर्म रक्षा का मुख्य कर्तव्य क्षत्रियों से छूट गया। जो कुछ क्षत्रिय बचे थे वह युद्ध भूमि पर मुस्लमानों के विरुद्ध या कालान्तर मुस्लमानों के लिये लडते लडते हिन्दू योद्धाओं के हाथों वीर गति पा चुके थे। हिन्दू राजा मुगलों की डयौहडियों पर ‘चौकीदारी’ करते थे या हाथ बाँधे दरबार में खडे रहते थे।   

सामाजिक कुरीतियों का चलन

मुस्लिम नवाबों तथा शासकों की कामुक दृष्टि सुन्दर और युवा लडके लडकियों पर स्दैव रहती थी। उन्हें पकड कर जबरन मुस्लमान बनाया जाता था तथा उन का यौन शोषण किया जाता था। इसी लिये हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिये पर्दा करने का रिवाज चल पडा। फलस्वरुप विश्षेत्या उत्तरी भारत में रात के समय विवाह करने की प्रथा चल पडी थी। वर पक्ष वधु के घर सायं काल के अन्धेरे में जाते थे, रात्रि को विवाह-संस्कार सम्पन्न कर के प्रातः सूर्योदय से पूर्व वधु को सुरक्षित घर ले आते थे। समाजिक बिखराव के कारण हिन्दू समाज में कन्या भ्रूण की हत्या, बाल विवाह, जौहर तथा विधवा जलन की कुप्रथायें भी बचावी विकल्पों के रूप में फैल गयीं।

मुस्लिम हिन्दूओं की तरह बाहर लघू-शंका के लिये नहीं जाते थे और इस चलन को ‘कुफ़र’ मानते थे। उन के समाज में लघु-शंका पर्दे में की जाती थी। गन्दगी को बाहर फैंकवाने के लिये और हिन्दूओं को अपमानित करने के लिये उन्हों ने सिरों पर मैला ढोने के लिये मजबूर किया। इस प्रथा ने हिन्दू समाज में मैला ढोने वालों के प्रति घृणा और छुआ छुत को और बढावा दिया क्यों कि हिन्दू विचार धारा में यम नियम के अन्तर्गत स्वच्छता का बहुत महत्व था। छुआ छूत का कारण स्वच्छता का अभाव था। स्वार्थी तत्वों ने इस का अत्याधिक दुषप्रचार धर्म परिवर्तन कराने के लिये और हिन्दू समाज को खण्डित करने के लिये किया जो अभी तक जारी है।   

चाँद शर्मा

 

टैग का बादल