हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

66 – आरक्षण की राजनीति


बटवारे के पश्चात हिन्दू समाज की सब से अधिक हानि काँग्रेसी सरकार की आरक्षण नीति से हुई है। वैसे तो संविधान में सभी नागरिकों को ‘बराबरी’ का दर्जा दिया गया था किन्तु कुछ वर्गों ने आरक्षण की मांग इस लिये उठाई थी कि जब तक वह ‘अपने यत्न से’ अन्य वर्गों के साथ कम्पीटीशन करने में सक्षम ना हो जायें उन्हें कुछ समय के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया जाये। हिन्दू विरोधी गुटों के दुष्प्रचार के कारण वह अपने आप को हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण ‘शोषित’ या ‘दलित’ समझ बैठे थे। अब हिन्दू समाज का विघटन करने के लिये आरक्षण को ऐक राजनैतिक अस्त्र की तरह प्रयोग किया जा रहा है।  

विशिष्ट वर्ग

वैधानिक तौर पर अब कोई भी वर्ग भारत में ‘शोषित’, ‘दलित,’ या ‘उपेक्षित’ नहीं है। पहले भी नहीं था। सभी को अपनी प्रगति के लिये परिश्रम तो स्वयं करना ही होगा किन्तु जाति के आधार पर अब आरक्षित वर्ग दूसरे वर्गों की अपेक्षा ‘विशिष्ट वर्ग’ बनते चले जा रहै हैं। अधिक से अधिक वर्ग अपने आप को शोषित तथा उपेक्षित साबित करने में जुट रहै हैं और आरक्षित बन कर विशिष्ट व्यवहार की मांग करने लग पडे हैं।

आरम्भ में शिक्षालयों तथा निम्न श्रेणी के पदों में जन्म जाति के आधार पर कुछ प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये थे। उस के लिये समय सीमा 1950 से आगे दस वर्ष (1960) तक थी। राजनेताओं ने अपने लिये ‘वोट बैंक’ बनाने के लिये समय सीमा समाप्त होने के पश्चात ना केवल समय सीमा आगे बढा दी बल्कि संख्या तथा आरक्षण पाने वाले वर्गों में वृद्धि की मांग भी निरन्तर करनी आरम्भ कर दी।

इस के अतिरिक्त पदोन्नति के क्षेत्र में भी जिन पदों के लिये निशचित कार्य क्षमता के आधार पर पदोन्नति की व्यव्स्था होनी चाहिये, उन्हें भी आरक्षण के आधार से भरा जाने लगा। इस का सीधा तात्पर्य योग्यता के माप दण्डों को गिरा कर कुछ विशेष लोगों को जाति के आधार पर पुरस्किरत करना मात्र रह गया है। समय के के साथ साथ भारत में ऐक ऐसा वर्ग पैर पसारने लगा है जो अपने आप को शोषित, उपेक्षित तथा पिछडा हुआ बता कर योग्यता के बिना ही विश्ष्टता की श्रेणी में घुसने लगा है। 

अब तो मुस्लिम तथा इसाई भी अपने लिये आरक्षण की मांग करने लगे हैं। वह भूल गये हैं कि बीते कल तक वह हिन्दू धर्म को जातिवादी वर्गीकरण के कारण बदनाम कर रहै थे तथा हिन्दूओं को अपने धर्म परिवर्तन का प्रलोभन इसी आधार पर दे रहे थे कि उन के धर्म में सभी बराबर हैं। यह दोगली चाल आरक्षण नीति की उपज है जिस के कारण हिन्दू समाज को अकसर बलैकमेल किया जाता रहा है। 

आधार हीन दुष्प्रचार    

अहिन्दू धर्म धडल्ले से प्रचार करते रहै हैं कि उन के धर्म में जाति के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया जाता। यदि उन के इसी प्रचार को ‘सत्य’ माने तो जो कोई भी अहिन्दू धर्म को मानता है या जो हिन्दू अपना धर्म छोड कर इसाई या मुस्लिम परिवर्तित हों जाते हैं उन को आरक्षण का लाभ बन्द हो जाना चाहिये क्यों कि उन्हें तथाकथित ‘हिन्दू शोषण’ से मुक्ति मिल जाती है और नये धर्म में जाने के पश्चात उन की प्रगति ‘अपने आप ही बिना परिश्रम किये’ होती जाये गी। इस से दुष्प्रचार की वास्तविक्ता अपने आप उजागर हो जाये गी।

इसाई तथा इस्लामी देशों के पास जमीन तथा संसाधन बहुत हैं। यदि वास्तव में वह हिन्दू शोषितों के लिये ‘चिन्तित’ हैं तो उन्हें शोषितों का धर्म परिवर्तन करवाने के बाद अपने देशों में बसा लेना चाहिये। इस प्रकार के धर्म परिवर्तन से किसी हिन्दू को कोई आपत्ति नहीं हो गी। अमेरिका, योरुप, आस्ट्रेलिया, मध्य ऐशिया आदि देशों में उन लोगों को बसाने की व्यव्स्था करी जा सकती है जहाँ पर इसाई तथा इस्लाम धर्मों ने जन्म लिया था। परन्तु धर्मान्तरण करने वाले वैसा नहीं करते। वह तो भारत से हिन्दू वर्ग को कम करके यहां इसाई और इस्लामी संख्या बढा कर भारत की धरती पर अपना अधिकार करना चाहते हैं।

भेद-भाव रहित वातावरण

 वैधानिक दृष्टि से भारत में सभी नागरिक अपनी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किसी भी शैक्षिक संस्थान में प्रवेश पा सकते हैं। यदि आरक्षण पूर्णत्या समाप्त कर दिये जायें तो सभी शिक्षार्थी समान शुल्क दे कर समान परिक्रिया से उच्च शिक्षा पा सकें गे। यदि संस्थानों की संख्या बढा दी जाये तो कोई भी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रहे गा। अगर पिछडे इलाकों में संस्थानों की संख्या में वृद्धि करी जाये तो प्रत्येक नागरिक बिना भेदभाव के अपनी योग्यता के आधार पर प्रगति कर सकता है। आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्राकृतिक असमान्तायें

विकसित सभ्यताओं में ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक योग्दान, समर्थ तथा क्षमता के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का होना प्रगतिशीलता की निशानी है। सामाजिक प्रधानतायें प्रत्येक समाज में उत्तराधिकार स्वरुप अगली पीढियों को हस्तान्तरित भी करी जाती है। सामाजिक वर्गीकरण प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने के लिये उत्साहित करता है ताकि वह मेहनत कर के अपने स्तर से और ऊपर उठने का प्रयत्न करें। य़दि मेहनती के बराबर ही अयोग्य, आलसी तथा नकारे व्यक्ति को भी योग्य के जैसा ही सम्मान दे दिया जाय गा तो मेहनत कोई भी नहीं करेगा। प्रतिस्पर्धा के वातावरण में सक्षम ही आगे निकल सकता है। केवल पशु जगत में ही कुछ सीमा तक समानताये होती हैं क्योंकि देखने में सभी पशु ऐक जैसे ही दिखते हैं परन्तु विषमताये भी प्राकृतिक हैं। ऐक ही माता पिता की संतानों में भी समानता नहीं होती।

स्वास्थ्य समबन्धी व्यक्तिगत कारण

यदि कुछ वर्ग स्वास्थ की दृष्टि से ‘दूषित’ वातावरण में काम करते हैं तो उन के साथ सम्पर्क के लिये स्वास्थ की दृष्टि से प्रतिबन्ध लगाना भी उचित है। इस प्रतिबन्ध का आधार उन की जाति नहीं बल्कि कर्म क्षेत्र का वातावरण है। इस प्रकार का प्रावधान भी सभी विकसित देशों और जातियों में है। आत्मिक दृष्टि से सभी मानव और पशु ऐक जैसे हैं परन्तु शारीरिक दृष्टि से वह ऐक जैसे नहीं हैं। स्त्री-पुरुष, भाई-भाई में भी शारीरिक, तथा भावात्मिक भेद प्रकृति ने बनाये हैं। ऐक ही माता-पिता की संतान होते हुये भी उन का रक्तवर्ग समान नहीं होता। ऐक का रक्त दूसरे को नहीं चढाया जा सकता। यह मानवी विषमताओं का वैज्ञानिक कारण है जिस के कारण उन के सोचविचार और व्यवहार में भी परिवर्तन स्वाभाविक हैं। विषमताओं का धर्म अथवा जाति से कोई सम्बन्ध नहीं। 

निजि पहचान का महत्व

परिचय तथा व्यव्हार के लिये व्यक्ति का चेहरा, उस का चरित्र, निजि स्वच्छता, सरलता, सभ्यता और व्यवहार आदि ही प्रयाप्त होते हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति की पहचान को ‘विस्तरित’ करने के लिये आवश्यक हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति के माता पिता से पिछली पीढी के सम्बन्धों को जोडती है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के लिये अपनी जाति को नाम के साथ जोडना अनिवार्य नहीं है। यदि किसी को अपनी जाति बताने में कोई मानसिक असुविधा लगती है तो वह किसी भी अन्य जाति नाम को अपने साथ जोड सकता है या छोड सकता है।

उच्च शिक्षा की सुविधायें

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में किसी ना किसी ढंग से आज भी लगे हुये हैं। ‘रुचि-परीक्षण’(ऐप्टीच्यूड टेस्ट) भी ऐक प्रतिबन्ध है जिस के आधार पर सम्बन्धित विषय की शिक्षा से प्रत्याशी को वंचित होना पडता है या स्वीकृति मिल जाती है। उच्च शिक्षा के साधनों के सीमित होने के कारण इस प्रकार के प्रतिबन्ध आवश्यक हो जाते हैं। जिन के पास उच्च शिक्षा को समझ सकने के बेसिक माप दण्ड नही होते उन पर साधन और समय बरबाद करने का समाज को कोई लाभ नहीं। सभी देशों में उन को उस विशेष शिक्षा से वंचित रहना पडता है। आज कितने ही मेधावी छात्रों को आरक्षण की वजह से निराश हो कर अन्य देशों की तरफ पलायन करना पड रहा है या उच्च शिक्षा से वंचित रहना पडता है क्यों कि स्थान अयोग्य प्रत्याशियों से भरे रहते हैं जो केवल आरक्षण का आर्थिक लाभ उठाते रहते हैं। 

भारत में कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उस का जाति बताने के लिये बाध्य नहीं करता। यदि कोई किसी विशिष्ट विषय के बारे में ज्ञान पाना चाहे तो वह निजि साधनो से उस विषय के ग्रंथ खरीद कर पढ सकता है। इसी प्रकार हर कोई किसी भी देवी-देवता की आराधना भी कर सकता है, मनोरंजन स्थल पर सामान्य शुल्क दे कर जा सकता है उस के मार्ग में कोई भी सरकारी, धार्मिक अथवा सामाजिक बाधा कोई नहीं है। वास्तव में कुछ व्यक्ति आरक्षण लाभ पाने कि लिये अपना जाति का प्रमाण पत्र स्वयं ही दूसरों को दिखाते हैं।

वोट बेंक की राजनीति

कुछ नेता पिछडे वर्गों की नुमायन्दगी करने के लिये अपने आप को दलित, शोषित और पता नहीं क्या क्या कहने लगे हैं। स्वार्थी नेताओं को अपनी प्रगति और समृद्धि के लिये वोट बेंक बनाने के लिये दलित अथवा उसी श्रेणी के अनुयायी भी चाहियें । इसलिये वह उकसा कर हिन्दू समाज को बलैकमेल करने में स्दैव जुटे रहते हैं। वही उन को धर्म परिवर्तन के लिये भी भडकाते रहते हैं। किसी भी नेता ने पिछडे वर्गों को शिक्षशित करने में, या परिश्रम कर के आगे बढने के बारे में कोई योग्दान नहीं दिया है। ऐसे नेता देश, धर्म और पिछडे लोगों के साथ अपने स्वार्थों के लिये सरासर गद्दारी कर रहै हैं।

आरक्षण निति के दुष्परिणाम

आरक्षण नीति पूर्णत्या असफल तथा हानिकारक सिद्ध हुई है। आरक्षण के लाभों ने उत्तराधिकार का रूप ले लिया है। आरक्षण के आरम्भ से आज तक ऐक भी उदाहरण सामने नहीं आया जब किसी आरक्षित ने यह कहा हो कि आरक्षण के कारण उस की सामाजिक ऐवं मानसिक प्रगति हो चुकी है जिस के फलस्वरूप उसे और उस की संतान को अब आगे आरक्षण के माध्यम से कोई लाभ नहीं चाहिये। किसी ऐक ने भी नहीं कहा कि उस का परिवार आरक्षण की बैसाखियों के बिना प्रगति के मार्ग पर चलने के लिये अब सक्षम हो चुका है अतः उस के वापिस किये आरक्षण लाभांश अब किसी अन्य जरूरतमन्द को दे दिये जायें।

आरक्षण पाने वालों की सूची में कई केन्द्रीय मन्त्री, भूतपूर्व राष्ट्रपति, उच्च अधिकारी तथा उद्योगपति भी शामिल हैं किन्तु उन में से भी किसी के परिवार ने उन्नति कर के आरक्षण के लाभांश को किसी दूसरे के लिये नही छोडा है। इसी से प्रमाणित होता है कि आरक्षण नीति असफल रही है। इस के विपरीत कई उच्च जाति के लोग भी अब आरक्षण की कतार में खडे हो कर लाभांश की मांग करने लगे हैं। वह तो यहाँ तक धमकी देते हैं कि उन्हें आरक्षण नहीं दिया गया तो वह हिन्दू धर्म छोड कर कुछ और बन जायें गे। इसी से पता चलता है कि आरक्षण नीति कितनी बेकार और घातक सिद्ध हुई है।

और तो और अब भारत की पढी लिखी और अशिक्षशित स्त्रियों ने अपने लिये संसद तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में आरक्षण की मांग करने लगीं हैं। उन्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि अगर इटली से ऐक साधरण अंग्रेजी जानने वाली महिला भारत के शासन तन्त्र में सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है तो भारत की महिलाओं को अपने ही देश में निर्वाचित होने के लिये क्यों आरक्षण चाहिये? निस्संदेह आरक्षणवादी मानसिक्ता ने उन का स्वाभिमान और गौरव ध्वस्त कर दिया हैं।

आरक्षण का आर्थिक आधार

आज कल कुछ धर्म-निर्पेक्ष लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की भी वकालत करने लगे हैं। किन्तु उस के परिणाम भी हिन्दूओं के लिये घातक ही हों गेः-

  • योग्यता, सक्ष्मता तथा कार्य कुशलता की पहचान मिट जाये गी।
  • आर्थिक आधार से आरक्षण के सभी लाभ अल्पसंख्यकों की झोली में जा पडें गे जिस से सारा सरकारी तन्त्र केवल अल्संख्यकों से ही भर जाये गा। शासन तन्त्र में अयोग्यता के अतिरिक्त निष्ठा को भी हानि होगी।
  • दारिद्रता को कसौटी मान कर उसे लाभप्रद नहीं बनाया जा सकता। केवल दारिद्र होने के कारण किसी को परिश्रम के बिना उन्नत नहीं किया जा सकता। यदि वैसा किया गया तो कोई परिश्रम कर के धन नहीं कमाये गा।

सर्वत्र आत्म विशवास का विनाश

आरक्षण के कारण परिश्रम करने वालों और योग्य व्यक्तियों का मनोबल क्षीण हुआ है। शैक्षशिक संस्थानों में रिक्त स्थान उपयुक्त शिक्षार्थी ना मिलने के कारण या तो रिक्त पडे रहते हैं या अयोग्य लोगों से भरे जाते हैं। उन पर किया गया खर्च बेकार हो जाता है। इस प्रकार के स्वार्थवादी ढाँचे को तोडना मुशकिल हो चला है किन्तु इस का लाभ इसाई और मुस्लिम समुदाय उठा रहै हैं और हानि हिन्दू कर दाता।

आरक्षण नीति के विकल्प

यदि हम चाहते तो बटवारे के तुरन्त पश्चात ही आरक्षण के विकल्प ढूंड सकते थे। हमें शिक्षा को पूर्णत्या निशुल्क बनाना चाहिये था। शिक्षा सम्बन्धी खर्चों को भी सस्ता करना चाहिये था जिस में पुस्तकें, होस्टल का किराया और शिक्षार्थियों के लिये भोजन आदि शामिल था। शिक्षा के साथ साथ उन्हें व्यवसायक पर्शिक्षशण देना चाहिये था जिस से विद्यार्थियों में आरक्षण की हीनता के स्थान पर स्वालम्बन की भावना उत्पन्न होती। उच्च शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को आसान शर्तों पर कर्ज दिये जा सकते थे जो लम्बे काल में लौटाये जा सकें। इस प्रकार के विकल्प विकसित देशों में सफलता पूर्वक अपनाये गये हैं।

पिछडे वर्गों के लिये सस्ते दरों पर भोजन, पुस्तकों, आदि का प्रावधान कर देना उचित है। उन को अपने परिश्रम से आगे बढने के अवसर देने चाहियें शिक्षण तथा व्यवसायिक परिशिक्षण के संस्थान अधिकतर अविकसित क्षेत्रों में खोलने चाहियें परन्तु वह केवल बेकवर्ड लोगों के लिये ही नहीं होने चाहियें।

धर्म निर्पोक्षता की डींग मारने वाली सरकार के लिये निशुल्क या सस्ती हज यात्रा के प्रावधान के बदले छात्रों को निशुल्क पुस्तकें, वस्त्र, भोजन, तथा होस्टल आदि प्रदान करवाना देश हित में होता। सरकार इसाईयों तथा मुस्लमानों को आरक्षण दे कर हिन्दूओं को धर्म परिवर्तन के लिये उकसा रही है और हिन्दूओं में विघटन करवा रही है। 

चाँद शर्मा

टैग का बादल