हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

64 – बटवारे के पश्चात भारत


15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया। जिन मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तलवार के साये में स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी, उन्हीं के लिये भारत का ऐक तिहाई भाग मूल वासियों से छीन कर मुस्लमानों को दे दिया गया। आक्रान्ताओं ने शताब्दियों पुराने हिन्दुस्तानी मूल वासियों को उन के रहवासों से भी खदेड दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की इण्डियन नेशनेलिटीके बावजूद उन्हें पाकिस्तान से  हिन्दू धर्म के कारण स्दैव के लिये निकालना पडा। कितने ही स्त्री-पुरुषों और बच्चों को उन के परिवार जनों के सामने ही कत्ल कर दिया गया और कितनी ही अबलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किये गये लेकिन उस समय और उस के बाद भी मानव अधिकारों पर भाषण देने वाले आज भी चुप्पी साधे हुये हैं। अतः यह प्रमाणित है कि व्यक्तिगत धर्म की पहचान ‘राष्ट्रीयता’ की खोखली पहचान पर हमैशा भारी पडती है।

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर 

य़ह दोहराना प्रासंगिक होगा कि “राष्ट्रीयता” जीवन में कई बार बदली जा सकती है किन्तु पूर्वजों का “धर्म” जीवन पर्यन्त और जीवन के बाद भी पहचान स्वरूप रहता है। धर्म के कारण ही हिन्दूओं को भारत के ऐक भाग से अपने बसे बसाये घरों को छोड कर दूसरे भाग में जा कर बे घर होना पडा था क्यों कि बटवारे के बाद वह भाग ‘पाकिस्तानी राष्ट्र’ बन गया था। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने धर्म की खातिर अपने घर-बार और जीवन के सुखों को त्याग कर गर्व से कहा था कि ‘हम जन्म से अन्त तक केवल हिन्दू हैं और हिन्दू ही रहें गे ’। लेकिन बदले में हिन्दूओं के साथ काँग्रेसी नेताओं ने फिर छल ही किया।

हिन्दूओं के लिये स्वतन्त्रता भ्रम मात्र

15 अगस्त 1947 को केवल ‘सत्ता का बदालाव’ हुआ था जो अंग्रेजों के हाथों से उन्हीं के ‘पिठ्ठुओं’ के हाथ में चली गयी थी। गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं के साथ विचार विमर्श करने में अंग्रेजी प्रशासन को ‘अपनापन’ प्रतीत होता था। उन्हें अंग्रेजी पत्रकारों ने विश्व पटल पर ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ प्रसारित कर रखा था। साधारण भारतीयों के सामने वह अंग्रेजी शासकों की तरह के ही ‘विदूान’ तथा ‘कलचर्ड लगते थे। जब वह भारत के नये शासक बन गये तो उन्हों ने अंग्रेजी परम्पराओं को ज्यों का त्यों ही बना रहने दिया। अंग्रेजों के साथ तोल-मोल करते रहने के फलस्वरूप शहीदों के खून से सींची तथाकथित ‘आजादी’ की बागडोर काँग्रेसी नेताओं के हाथ लग गयी। 

काँग्रेसी नेताओं ने दिखावटी तौर पर बटवारे को ‘स्वीकार नहीं किया’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे’ की दुहाई देते रहे। उन्हों ने बटवारे की जिम्मेदारी का ठीकरा मुहमम्द अली जिन्हा तथा हिन्दूवादी नेताओं के सिर पर फोडना शुरु कर दिया और उन्हें ‘फिरकापरस्त’ कह कर स्वयं ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’  के राग अलापते रहे। उसी प्रकार वह आज तक अपने दिखावटी आदर्शवाद से यथार्थ को छिपाने का असफल प्रयत्न करते रहे हैं। भारत वासियों को भ्रम में डालने के लिये काँग्रेस ने भारत को ऐक ‘धर्म-निर्पेक्ष’ देश घोषित कर दिया और हिन्दुस्तान में रहने वाले आक्रान्ताओं को बचे खुचे हिन्दू भाग का फिर से हिस्सेदार बना दिया।

भारत का बटवारा किसी ‘नस्ल’ अथवा ‘रंग-भेद’ के आधार पर नहीं हुआ था। बटवारे का कारण मुस्लमानों की हिन्दू परम्पराओं के प्रति घृणा और परस्परिक अविशवास था। चतुराई से पाकिस्तान ने हिन्दूओं को अपने देश से निकाल कर, या फिर उन्हें जबरदस्ती मुस्लमान बना कर हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हमेशा के लिये समाधान कर लिया किन्तु भारत के काँग्रेसी नेताओं ने समस्या को कृत्रिम ढंग से छुपा कर उसे फिर से जटिल बनने दिया। सरकार धर्म-निर्पेक्ष होने का ढोंग तो करती रही किन्तु निजि जीवन में हिन्दू और मुस्लमान अपने अपने धर्म तथा उन से जुडी आस्थाओं, परम्पराओं से विमुख नहीं हुए थे। गाँधी जी नित्य “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का राग अपनी प्रार्थना सभाओं में आलापते थे। हिन्दूओं ने तो इस गीत को मन्दिरों में गाना शुरू कर दिया था परन्तु किसी मुस्लमान को आज तक मस्जिद में “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का गीत गाते कभी नहीं देखा गया। यथार्थ में स्वतन्त्रता के बदले हिन्दूओं की भारत में बसे हुए मुस्लमानों को संतुष्ट रखने की ऐक ज़िम्मेदारी और बढ गयी थी।

बटवारे पश्चात दूरगामी भूलें

हिन्दूओं ने स्वतन्त्रता के लिये कुर्बानियाँ दीं थी ताकि ऐक हजार वर्ष की गुलामी से मुक्ति होने के पश्चात वह अपनी आस्थाओं और अपने ज्ञान-विज्ञान को अपने ही देश में पुनः स्थापित कर के अपनी परम्पराओॆ के अनुसार जीवन व्यतीत करें। किन्तु आज बटवारे के सात दशक पश्चात भी हिन्दूओं को अपने ही देश में सिमिट कर रहना पड रहा है ताकि यहाँ बसने वाले अल्प-संख्यक नाराज ना हो जायें। हिन्दू धर्म और हिन्दूओं का प्राचीन ज्ञान आज भी भारत में उपेक्षित तथा संरक्षण-रहित है जैसा मुस्लिम और अंग्रेजों के शासन में था। हिन्दूओं की वर्तमान समस्यायें उन राजनैतिक कारणों से उपजी हैं जो बटवारे के पश्चात भारत के काँग्रेसी शासकों ने अपने निजि स्वार्थ के कारण पैदा किये।

पूर्वजों की उपेक्षा

इस्लामी शासकों के समय भी हमारे देश को ‘हिन्दुस्तान’ के नाम से जाना जाता था।  बटवारे के पश्चात नव जात पाकिस्तान नें अपने ‘जन्म-दाता’ मुहमम्द अली जिन्नाह को “कायदे आजिम” की पदवी दी तो उस की नकल कर के जवाहरलाल नेहरू ने भी मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत के “राष्ट्रपिता” की उपाधि दे डाली। भारत बीसवी शताब्दी के पाकिस्तान की तरह का कोई नव निर्मित देश नहीं था। हमारी राष्ट्रीयता तो हिमालय से भी प्राचीन थी। किन्तु नेहरू की उस ओछी और असंवैधानिक हरकत के कारण भारत वासियों के प्राचीन काल के सभी सम्बन्ध मानसिक तौर पर टूट गये और हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह नये राष्ट्रपिता का परिचय ले कर घुटनों के बल चलने लगे। पूर्वजों के ज्ञान क्षेत्र की उपलब्द्धियों को नेहरू ने “गोबरयुग” (काऊडंग ऐज) की उपाधि दे डाली। वह ऐक सोची समझी साजिश थी जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

मैकाले की शिक्षा नीति के क्रम को आगे बढाते हुये, नेहरू ने मौलाना अबुअल कलाम आज़ाद को देश का शिक्षा मन्त्री नियुक्त दिया। हिन्दू ग्रन्थ तो इस्लामी मौलानाओं की दृष्टी में पहले ही ‘कुफर’ की श्रेणी में आते थे इस लिये धर्म निर्पेक्षता का बहाना बना कर काँग्रेसी सरकार ने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को शैक्षशिक प्रतिष्ठानों से ‘निष्कासित’ कर दिया। नेहरू की दृष्टि में नेहरू परिवार के अतिरिक्त कोई शिक्षशित और प्रगतिशील कहलाने के लायक नहीं था इसी लिये मौलाना आज़ाद के पश्चात हुमायूँ कबीर और नूरुल हसन जैसे शिक्षा मन्त्रियों की नियुक्ति से हमारे अपने ज्ञान-विज्ञान के प्राचीन ग्रन्थ केवल ‘साम्प्रदायक हिन्दू साहित्य’ बन कर शिक्षा के क्षेत्र में उपेक्षित हो गये।

इतिहास से छेड़ छाड़

मुस्लमानों ने भारत के ऐतिहासिक पुरातत्वों को नष्ट किया था। उन से ऐक कदम आगे चल कर अँग्रेजों ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण हमारे इतिहास का भ्रमात्मिक सम्पादन भी किया था – किन्तु बटवारे के पश्चात काँग्रेसी शासकों ने इतिहास को ‘धर्म-निर्पेक्ष बनाने के लिये’  ऐतिहासिक तथ्यों से छेड छाड करनी भी शुरू कर दी। प्राचीन ज्ञान विज्ञान के ग्रन्थों, वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों और पौराणिक साहित्य को हिन्दूओं का अन्धविशवास बता कर शिक्षा के क्षेत्र से निष्कासित कर के पुजारियों के हवाले कर दिया गया। देश भक्त हिन्दू वीरों तथा महानायकों के आख्यानों को साम्प्रदायक साहित्य की श्रेणी में रख दिया गया और उन के स्थान पर मुस्लिम आक्रान्ताओं को उदारवादी, धर्म निर्पोक्ष और राष्ट्रवादी की छवि में रंगना पोतना शुरु कर दिया ताकि धर्म निर्पेक्षता का सरकारी ढोंग चलता रहे। इतना ही नहीं गाँधी-नेहरू परिवार को छोडकर सभी शहीदों के योगदान की इतिहास में अनदेखी होने लगी। जहाँ तहाँ नेहरू-गाँधी परिवारों के समारक ही उभरने लगे। उन्ही के नाम से बस्तियों, नगरों, मार्गों, और सरकारी योजनाओं का नामाकरण होने लग गया और वही क्रम आज भी चलता जा रहा है।

मुस्लिमों के साधारण योगदान को ‘महान’ दिखाने की होड में तथ्यों को भी तोडा मरोडा गया ताकि वह राष्ट्रवादी और देश भक्त दिखें। आखिरी मुगल बहादुरशाह ज़फ़र को 1857 का ‘महानायक’ घोषित कर दिया गया जब कि वास्तविकता इस के उलट थी। जब सैनिक दिल्ली की रक्षा करते हुये अपना बलिदान दे रहे थे तो बहादुरशाह जफर अपने मुन्शी रज्जब अली को मध्यस्थ बना कर अपने निजि बचाव की याचना करने के लिये गुप्त मार्ग से हुमायूँ के मकबरे जा पहुँचा था और अंग्रेजों ने उसे गिरफ्तार कर लिया था।

बौद्धिक सम्पदा की उपेक्षा

अंग्रेजी तथा धर्म निर्पेक्ष शिक्षा नीति के कारण आज हिन्दू नव युवकों की नयी पीढी अपने पूर्वजों की कुर्बानियों और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्द्धियों से बिलकुल अनजान बन चुकी है। दुष्प्रचार के कारण हिन्दू युवा पीढी अपने पूर्वजों को अन्धविशवासी और दकियानूस ही समझती है। सरकारी धर्म निर्पेक्ष बुद्धिजीवियों का शैक्षिक संस्थानों पर ऐकाधिकार है किन्तु उन का भारतीय संस्कृति के प्रति कोई लगाव नहीं। उन के मतानुसार अंग्रेजी शिक्षा से पहले भारत में कोई शिक्षा प्रणाली ही नहीं थी। कानवेन्टों तथा अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों से प्रशिक्षित स्भ्रान्त वर्ग, भारतीय जीवन शैली तथा प्रम्पराओं की अवहेलना और आलोचना करनें को ही अपनी ‘प्रगतिशीलता’ मानता है और हिन्दू धारणाओं का उपहास करना अपनी शान समझता है। 

ऐसी तुच्छ मानसिक्ता के कारण विश्व में आज भारत के सिवाय अन्य कोई देश नहीं जहाँ के नागरिकों की दिनचर्या अपने देश की संस्कृति तथा पूर्वजों की उपलब्द्धियों का उपहास उडाना मात्र रह गयी हो। उन के पास स्वदेश प्रेम और स्वदेश गौरव की कोई भी समृति नहीं है। यदि कोई किसी प्राचीन भारतीय उप्लब्द्धि का ज़िक्र भी करे तो उस का वर्गीकरण फिरकापरस्ती, दकियानूसी, भगवावाद या हिन्दू शावनिज़म की परिभाषा में किया जाता है। 

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी भारतीय ग्रन्थों को बिना पढे और देखे ही नकार देना अपनी योग्यता समझते हैं जो वास्तव में उन की अनिभिज्ञ्यता और आत्महीनता का प्रमाण है। यह नितान्त दुःख की बात है कि जो भारतीय ग्रन्थ विश्वविद्यालयों की शोभा बनने लायक हैं वह बोरियों में बन्द कर के किसी ना किसी निर्धन पुजारी के घर या किसी धनी के भवन की बेसमेन्ट में रखे हों गे। कुछ ग्रन्थों को विदेशी सैलानी एनटीक बना कर जब भारत से बाहर ले जाते हैं तो कभी कभार उन में संचित ज्ञान भी विश्व पटल पर विदेशी मुहर के साथ प्रमाणित हो जाता है।

यदि धर्म निर्पेक्षता का कैंसर इसी प्रकार चलता रहा तो थोडे ही समय पश्चात भारतीय ग्रन्थों को पढने तथा संस्कृत सीखने के लिये जिज्ञासुओं को आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज आदि विश्वविद्यालयों में ही जाना पडे गा। धर्म निर्पेक्षता के बहाने विद्यालयों में हिन्दू जीवन की नैतिकता तथा दार्शनिक्ता का आज कोई महत्व नहीं रह गया है। इस की तुलना में कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों की धार्मिक शिक्षा भारत में सरकारी खर्चों पर मदरस्सों तथा अल्प संख्यक विश्वविद्यालयों में उपलब्द्ध है जिस का बोझ हिन्दू कर दाताओं पर पडता है। 

आत्म-घाती धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

भूगोलिक दृष्टि से भारत के चारों ओर कट्टरवादी मुस्लिम देश हैं जिन की सीमायें भारत के साथ लगती हैं। उन देशों में इस्लामी सरकारें हैं जहाँ धर्म निर्पेक्षता का कोई महत्व नहीं। इस्लामी सरकार का रुप-स्वरुप स्दैव हिन्दू विरोधी होता है। उन्हों ने अपने देश के दरवाजों को गैर मुस्लिमों के लिये बन्द कर रखा है। उन के सामाजिक रीति-रीवाजों तथा परम्पराओं का हिन्दू संस्कृति से कोई सम्पर्क नहीं। उन की स्दैव कोशिश रहती है कि प्रत्येक गैर मुस्लिम देश को इस्लामी देश बनाया जाये य़ा नष्ट कर दिया जाय। ऐसी स्थिति की तुलना में हिन्दूओं ने अपने इतिहास तथा अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और पुरानी गलतियों को बार बार दोहराते जा रहे हैं।

आज भी हिन्दू धर्म निर्पेक्षता की आड लेकर पलायनवाद में लिप्त हैं। हम ने अपनी सीमायें सभी के लिये खोल रखी हैं। भारत के काँग्रेसी नेताओं ने ‘वोट-बेंक’ बनाने के लिये ना केवल पाकिस्तान जाने वाले मुस्लमानों को रोक लिया था बल्कि जो मुस्लमान उधर जा चुके थे उन को भी वापिस बुला कर भारत में ही बसा दिया था। वही स्वार्थी नेता आज भी अल्पसंख्यकों को प्रलोभनों से उकसा रहै हैं कि भारत के साधनों पर हिन्दूओं से पहले उन का ‘प्रथम अधिकार’ है।

सभी नागरिकों में देश के प्रति प्रेम और एकता की भावना समान नहीं होती। कुछ नियमों की पूर्ति करने के पश्चात कोई भी व्यक्ति किसी भी देश की ‘नागरिक्ता’ तो प्राप्त कर सकता है किन्तु व्यक्ति की निजी अनुभूतियाँ, आस्थायें, परम्परायें, और नैतिक मूल्य ही उसे भावनात्मिक तौर पर उस देश की संस्कृति से जोडते हैं। हम ने कभी भी यह आंकने की कोशिश नहीं की कि अल्पसंख्यकों ने किस सीमा तक धर्म-निर्पेक्षता को अपने जीवन में अपनाया है। हमारी धर्म निर्पेक्षता इकतरफा हिन्दूओं पर ही लादी जाती रही है।

हिन्दूओं का शोषण

अतः बलिदानों के बावजूद हिन्दूओं को केवल बटवारा ही हाथ लगा, और वह अपने ही देश में राजकीय संरक्षण तथा सहयोग से वंचित हो कर परायों की तरह जी रहै हैं। ऐक तरफ उन्हें अपने ही दम पर समृद्ध इसाई धर्म के ईसाईकरण अभियान का सामना करना है तो दूसरी ओर उन्हें क्रूर इस्लामी उग्रवाद का मुकाबला करना पड रहा है जिन को पडौसी सरकारों के अतिरिक्त कुछ स्थानीय तत्व भी सहयोग देते हैं। इन का सामना करने में जहाँ धर्म निर्पेक्षता का ढोंग करने वाली भारतीय सरकार निरन्तर कतराती रही है, वहीं अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिये हिन्दूओं की मान मर्यादाओं की बलि सरकार तत्परता से देती रहती है।

यह तो ऐक कठोर सत्य है कि हिन्दू तो स्वयं ही अपनी दयानीय स्थिति के लिये ज़िम्मेदार हैं, परन्तु इस के अतिरिक्त वह हिन्दू विरोधी तत्वों की गुटबन्दी का सामना करने में भी पूर्णत्या असमर्थ हैं जिन्हें देश के स्वार्थी राजनेताओं से ही प्रोत्साहन मिल रहा है।

चाँद शर्मा

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