हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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42- स्मृद्ध भारतीय जन-जीवन


आज विकसित कहे जाने वाले देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और भोजन कि लिये कच्चे पक्के माँस पर ही निर्वाह करते थे तब से भी सैंकडों वर्ष पूर्व भारत को ऐक विकसित महाशक्ति के रूप में जाना जाता था। सिकन्दर के गुरु अरस्तु के अनुसार ‘भारत-विजय’ का अर्थ ही ‘विश्व-विजय’ था। भारत धरती पर जीता जागता स्वर्ग था। तब भारत के लोग विदेश जाने को तत्पर नहीं होते थे बल्कि विदेशी भारत आने के लिये ललायत रहते थे।

पुरुषार्थ से जी भर के जियो

हिन्दू जीवन का लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चल कर कर्तव्यों का पालन करते हुये जीवन में ‘अर्थ’ और ‘काम’ की तृप्ति कर के जीवन काल में ही ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करना था। मृत्यु के पश्चात मोक्ष का कोई अर्थ नहीं रहता। मोक्ष की प्राप्ति संन्यास से पूर्व ही होनी चाहिये नहीं तो संन्यासी बनने के पश्चात घोटालों में फंस जाने के कारण सब किया कराया भी नष्ट हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति की होड में ‘धर्म’ की स्थानीय मर्यादाओं का उलंघन और किसी चीज़ की इति नहीं होनी चाहिये।

बिना गृहस्थाश्रम का धर्म निभाये वानप्रस्थाश्रम या संन्यासाश्रम में प्रवेश लेना उचित नहीं समझा जाता। हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को ही संतान रहित होने पर ‘अधूरा’ समझा जाता है क्यों कि उन्हों ने ईश्वर के प्रति सृष्टी क्रम को प्रवाहित रखने के लिये निजि उत्तरदाईत्व का निर्वाह नहीं किया। जो स्त्री-पुरुष अपने पुरुषार्थ के भरोसे अपनी स्वाभाविक इन्द्रीय सुखों से वँचित रहे हों वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।

अर्थ के बिना भी कुछ सार्थक नहीं हो सकता केवल अनर्थ ही होता है। जीवन के साधन अर्जित करना सभी का कर्तव्य है। वन में रहने वाले संन्यासी को भी कम से कम बीस-तीस वस्तुओं की आवशयक्ता निरन्तर पडती रहती है जिन की आपूर्ति का भार गृहस्थी ही उठाते हैं। अतः संसाधनों के बिना कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

धर्म, अर्थ, और काम – जीवन में तीनों का महत्व है। केवल धर्म के मार्ग पर चल कर, अर्थ और काम से वँचित रह कर मोक्ष प्राप्ति कर लेना अति कठिन है। भारत के ऋषि अपनी अपनी पत्नियों के संग ही आश्रमों में रह कर संन्यास धर्म का पालन करते रहै हैं। स्वेच्छा से संन्यासी हो जाना ऐक मानसिक अवस्था है तथा संन्यास का भौतिक दिखावा करते रहना केवल नाटकबाजी है।   

विदेशी धर्मों के मतानुसार वैवाहिक सम्बन्ध का लक्ष्य संतान उपन्न करना ही है। इस की तुलना में हिन्दू जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ दूारा धर्म (कर्तव्यों का निर्वाह), अर्थ (संसाधनों का सदोप्योग तथा आपूर्ति), काम (सभी प्रकार के सुख भोगना) तथा मोक्ष ( पूर्ण सँतुष्टि) की प्राप्ति है। इन सभी का समान महत्व है। किसी अवस्था में यदि धर्म, अर्थ और काम समान मात्रा में अर्जित ना किये जा सकते हों तो क्रमशाः काम, अर्थ को छोडना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी अवस्था में नहीं किया जा सकता क्यों कि केवल धर्म का पालन ही मोक्ष प्राप्ति करवा सकता है। निजि कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है।

काम-सूत्र  

ऋषि वात्सायन दूारा लिखित काम-सूत्र शरीरिक सुखों के विषय पर सम्पूर्ण गृन्थ है। हिन्दू धर्म में वैवाहिक काम सम्बन्ध किसी ‘ईश्वरीय-आज्ञा’ का उलन्धन नहीं माने जाते। वह ईश्वर के प्रति मानव कर्तव्यों के निर्वाह के निमित हैं और सृष्टि के क्रम को चलाये रखने की श्रंखला के अन्तर्गत आते हैं। कामदेव को देवता माना जाता है ना कि शैतान। काम-सूत्र गृन्थ का लग भग सभी विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और भारतीय अध्यात्मिकता की तरह अपने क्षेत्र में यह गृन्थ भी सर्वत्र प्रेरणादायक है। इस से प्रेरणा ले कर शिल्पियों और चित्रकारों ने अपनी कला से विश्व भर के पर्यटकों को चकित किया है। चन्देल राजाओं दूारा निर्मित खजुरोहो के तीस मन्दिर काम-कला कृतियों को ही समर्पित हैं जो इस विषय में मानव कल्पनाओ की पराकाष्ठा दर्शाती हैं। काम को धर्म शास्त्रों की पूर्ण स्वीकृति है अतः शिल्प कृतियों में अधिकतर देवी – देवताओ को ही नायक नायकाओं के रूप में दिखाया गया है।     

हिन्दू समाज में कोई ‘तालिबानी ’ ढंग का अंकुश नहीं है। केवल धर्म और सार्वजनिक स्थलों पर सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह करना ही आवश्यक है।  खजुरोहो कृतियों के पीछे छिपा अध्यात्मवाद और इतिहास शायद तथाकथित ओवर-लिबरल विदेशी पर्यटकों को समझ नहीं आये गा फिर भी उन्हें स्वीकारना पडे गा कि काम-कला प्रदर्शन में भी आज से दस शताब्दी पूर्व भारतवासी योरूप्यिन लोगों से कहीं आगे थे। 

काम का क्षेत्र केवल शरीरिक सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है। इस के अन्तर्गत सहचर्य के अतिरिक्त अच्छा भोजन, वस्त्र, आभूषण, रहन-सहन, कला, मनोरंजन, आराम, सुगन्धित वातावरण आदि जीवन के सभी भौतिक ऐश्वर्यों के आकर्षण आ जाते हैं। धर्म की सीमा के प्रतिबन्ध के अन्तर्गत सभी कुछ हिन्दू समाज में स्वीकृत है। यही वास्तविक ‘लिबरलज़िम है।

वाल्मीकि रामायण में कई भौतिक सुखों की परम्पराओ के उल्लेख देखे जा सकते हैं। ऱाजा दशरथ को प्रातः जगाने का विधान अयोध्या नगरी की भव्यता तथा ऐश्वर्य  का भान कराता है। ऋषि भारदूाज चित्रकूट मार्ग पर राजकुमार भरत तथा अयोध्या वासियों के सत्कार में ऐक भोज का प्रबन्ध अपने आश्रम में ही करते है जो किसी भी पाँचतारा होटल की ‘बैंक्विट’ से कम नहीं। ऱावण के अन्तःपुर में सीता की खोज में जब हनुमान प्रवेष करते हैं तो वहाँ के वातावरण का चित्रण अमेरिका के किसी भी नाईटकल्ब को पीछे छोड दे गा। किन्तु ऋषि वालमीकि कहीं भी वर्णन चित्रण करते समय भव्यता और शालीनता की रेखा को नहीं लाँघते।

भारतीय खान-पान 

हिन्दू धर्म शास्त्रों में, कर्म क्षेत्र के अनुसार, समाज के सभी वर्गों के लिये, भोजन का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया गया है जिसे सात्विक, राजसिक, तथा तामसिक भोजन कहते हैं। य़ह वर्गीकरण आधुनिक डायटीशियनों के विचारों से आज भी पूर्णत्या प्रमाणित हो रहा है। मनुस्मृति में भोजन परोसने, खाने तथा अन्त में हाथ और दाँत साफ करने तक की क्रियाओं का लिखित वर्णन है जैसा कि आधुनिक आई ऐस ओ मानकशास्त्री आजकल कम्पनियों में करवाते हैं।

हिन्दू जीवन में अधिकाँश तौर पर शाकाहारी भोजन को ही प्रोत्साहन दिया जाता है किन्तु धर्म अपने अपने कर्म क्षेत्र के उत्तरदाईत्व का निर्वाह करने के लिये सभी को शाकाहारी अथवा मांसाहारी भोजन गृहण करने की स्वतन्त्रता भी देता है। आखेट के माध्यम से मांसाहारी भोजन जुटाने की अनुमति है क्यों कि इस से जीवों की व्यवसायिक मात्रा में हत्यायें नहीं होंगी। आखेट पर प्रतिबन्ध पशु-पक्षियों के प्रजन्न काल की अवधि में पालन करना अनिवार्य होता है।

जहाँ अन्य धर्मों के कुछ लोग व्यक्तिगत स्वास्थ के कारणों से मांसाहारी भोजन त्याग कर शाकाहारी बन जाते हैं, वहीं हिन्दू जीवों के प्रति संवेदनशील हो कर जीवों की रक्षा के कारण शाकाहारी बने रहते हैं। इसी तथ्य में जियो – और जीने दो का मूलमंत्र छिपा है। 

भारतवासी कई प्रकार के अनाजों का उत्पादन करते थे जिन में अनाज, दालें और फल भी शामिल हैं। चावल, बाजरा, मक्की, गेहूँ की खेती भारत में प्राचीन काल से ही करी जाती थी। भारत में आम, केले, खरबूजे, और नारियल आदि कई प्रकार के फलों के निजि कुंज भी थे। गाय पालन गौरवशाली समझा जाता था। दूध, दही, मक्खन, घी, और पनीर आदि पदार्थ दैनिक प्रयोग के घरेलू पदार्थ थे। इन तथ्यों की तुलना में अमेरिका तथा योरूप के प्रगतिशील महिलायें आज भी दालों, मसालों तथा घी का प्रयोग नहीं जानतीं। आज भी विदेशी भोजन में प्रोटीन की प्राप्ति मांसाहार या जंक-फूड से ही पूरी करते हैं।

जंगल में शिकार को आग पर भून कर खाने, और पेट भर जाने पर वहीं नाचने-गाने की आदत को आज कल केम्प-फायर तथा बारबेक्यू कहते हैं। नुकीले तीरों या छुरियों से भुने मांस को नोच कर खाने का आधुनिक सभ्य रूप छुरी-काँटे से खाना है। इसकी तुलना में शाकाहारी खाना सभ्यता और संस्कृति की प्रगति का बोध करवाता है।  

पाक-कला

पाक-कला को चौंसठ कलाओं की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय विविध रीतियों से भोजन पकाना जानते थे जिस में उबलाना, सेंकना, भूनना, धीमी आँच पर पकाना, तलना, तथा धूप में सुखाना भी शामिल हैं। प्रत्येक गृहणी को मसालों के औषधीय गुणों की जानकारी थी तथा वह दैनिक जीवन में मसालों का यथोचित प्रयोग करती थीं। संतुलन बनाये रखने के विचार से दिन के प्रत्येक भोजन में छः मौलिक स्वादों (मीठा, कडुआ, खट्टा, नमकीन, तीखा और फीका) को सम्मिलित किया जाता था। यह परम्परा आज भी अधिकाँश घरों में है। भोजन के पश्चात सुगन्धयुक्त पान अर्पित करना विशिष्ट शिष्टाचार माना जाता था। गृहस्थाश्रम में मदिरा पान पर शालीनता में रहने के अतिरिक्त अन्य कोई रोक-टोक नहीं थी। इस की तुलना में अन्य देशों में केवल माँस, नान, पिज्जा या इस प्रकार के पदार्थों को आग पर भूनना ही मुख्यता आता था। आज भी उन्हें मसालों की जानकारी नहीं के बराबर है और उन का दैनिक भोजन स्वाद में लगभग फीका ही होता है।

चीनी – भारत का उतपादन

अन्य देशों नें ‘शूगर शब्द भारतीय शब्द शक्करा से ही अपनाया है। इसी को अरबी भाषा में शक्कर, लेटिन में साकारम, फरैंच में साकरे, जर्मन भाषा में ज़क्कार तथा अंग्रेज़ी में शूगर कहते हैं। चीनी का निर्माण भारत ही शूगरकेन (गन्ने) से किया था। अंग्रेजी में शूगरकेन का शब्दिक अर्थ “शूगर वाला बाँस” होता है।

हिन्दू घरों में मिष्टान को सात्विक भोजन माना जाता है। देवी देवताओं को अर्पण किये जाने वाले प्रसाद मीठे ही होते हैं। मीठे दूध में चावल पका व्यंजन क्षीर (पायसम) अति पवित्र तथा संतोष जनक माना जाता है। भारत के खान पान में विभन्न प्रकार की मिठाईयों की भरमार है जिन से विश्व के अन्य समाज आज तक भी अनिभिज्ञ्य हैं। आज  भारतीय मिठाईयाँ विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही हैं। यह भारत का दुर्भाग्य है कि कुछ मिलावटखोरों के कारण भारत में ही भारतीय मिठाईयों का स्थान चोकलेट, कुकीस और विदेशी मिठाईयों ने छीनना शुरु कर दिया है। 

भारतीय परिधान

मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उन से निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन हैं। पाँच लाख वर्ष पूर्व हडप्पा के अविशेषों में चाँदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य की प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरूप वासियों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी। तब तक योरूप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचिल्लत हुआ जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू (यहूदी भाषा) में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस

हथ-कर्घा तथा हाथ से बुने वस्त्र आज भी भारत का गौरव हैं। आज से दो हजार वर्ष पूर्व तक मिस्र के लोग मम्मियों को भारतीय मलमल में ही लपेट कर सुरक्षित करते थे। जूलियस सीज़र के काल तक भारतीय सूती वस्त्रों का कोई भी प्रतिस्पर्धी नहीं था। भारतीय वस्त्रों के कलात्मिक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से ले कर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग बिरंगे परिधान, अदृष्य लगने वाले काशमीरी शाल भारत के प्राचीन कलात्मिक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे जो ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे के में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है।

आरम्भ में योरूप वासी भारत की ओर गर्म मसालों के व्यापार की होड में आये थे किन्तु शीघ्र ही भारतीय परिधान उन का मुख्य व्यवसाय बन गये। कताई बुनाई के क्षेत्र में पाँच हजार वर्षों के अनुभव तथा अनुसंधान का जादु इंगलैण्ड वासियों पर इस कदर चढा कि वस्त्रों का मानव निर्मित होना असम्भव जान पडता था।

ढाके की मलमल

मलमल एक प्रकार का पतला कपड़ा होता है जो बहुत बारीक़ सूत से बुना जाता है। प्राचीनकाल में यह कपड़ा विशेषकर बंगाल और बिहार में बुना जाता था। ढाके की मलमल अपनी बारीकी और नफासत के लिए विश्व विख्यात थी। एक अंगूठी से सात थान मलमल आर-पार किया जा सकता था। ढाके के मलमल के आगे मैनचेस्टर में बने वस्त्र फीके पड़ जाने के भय से अंग्रेजों ने भारतीय बुनकरों की उंगलियां काटवा दीं थी।

बंगाली बुनकरों की मलमल इतनी निर्मल और महीन थी कि उसे चलता पानी (रनिंग वाटर) तथा सायंकालीन ओस (ईवनिंग डयू) की उपाधि दी जाती थी। बनारसी सिल्क पर सोने चाँदी के महीन तारों की नक्काशी विश्व चर्चित थी। कशमीर के पशमीना शाल एक अंगूठी में से निकाले जा सकते थे। परिधानों के रंग प्रत्येक धुलाई के पश्चात और निखरते थे।   

परिधानों, आभूष्णों तथा सौंदर्य प्रसाधनों के कारण भारतीय स्त्रियों की तुलना स्वर्ग की अप्सराओं से करी जाती थी क्यों कि वह हर प्रकार के इन्द्रीय विलास के गुणों से पूर्णत्या सम्पन्न थीं। जो लोग आज विदेशी तकनीक की वकालत करते हैं उन के लिये यह कहना प्रसंगिक होगा कि भारत के उस समृद्ध वातावरण में तब तक पाश्चात्य तकनीक की कोई छाया भी नहीं पडी थी।  

चाँद शर्मा

39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

23 – वर्ण व्यवस्था का औचित्य


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, यह चारों वर्ण हिन्दू समाज के चार स्तम्भ हैं जिन पर समाज की आधार शिला टिकी हुयी है। सभी वर्णों के कार्य़ क्षेत्र का भी महत्व बराबर है। सभी का लक्ष्य पूरे समाज का कल्याण सेवा और परस्पर निर्भरता है। जो अशिक्षित हो, संस्कार हीन हो, और पाँच यम तथा पाँच नियम का पालन नहीं करते हों उन्हें ही शूद्र की श्रेणी में रखा गया है। सभी शूद्र अपने पुरुषार्थ से ज्ञान प्राप्त कर के ही, अपने कर्मों से उच्चतर वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं।

कालान्तर व्यवसाईक आधार पर बने सामाजिक वर्गीकरण में वैचारिक तथा आर्थिक वर्गीकरण भी समा गया है जिस का कुछ असर रीति रिवाजों पर भी पडा है और समाज में परिवारिक सम्बन्ध वर्णों तथा जातियों में सीमित हो गये हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी भारत के साथ साथ अन्य देशों में भी हुयी है लेकिन इस के अपवाद भी प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं।

कर्मानुसार जीवन शैली 

आधुनिक प्रशासनिक विशेज्ञ्य जिन तथ्यों को कार्य पद्धति तथा कार्य संस्कृति में शामिल करते हैं उन्हें जाब डिस्क्रिपशन तथा जाब स्पेसिफिकेशन कहा जाता है। यही तथ्य हिन्दू वर्ण व्यवस्था में पहले से ही संकलित थे। हिन्दू समाज ने प्रत्येक वर्ण के लिये कार्य शैली तथा जीवन पद्धति केवल कार्यशाला तक ही सीमित नहीं रखी थी अपितु उसे जीवन पर्यन्त अपनाने की सलाह दी है। ब्राह्मणों के लिये जीवन पर्यन्त यम-नियम पालन के साथ साधारण और सात्विक जीवन शैली निर्धारित की गयी है। जहाँ उन के लिये माँस मदिरा रहित सात्विक भोजन सुझाया गया है वहीं क्षत्रियों और वैश्यों के लिये राजसिक भोजन के साथ राग रंग के सभी प्रावधान भी नियोजित किये हैं। शूद्र वर्ग के लिये तामसिक भोजन को पर्याप्त माना है क्यों कि इस वर्ण को परिश्रम करने के लिये अतिरिक्त ऊर्जा चाहिये। स्वास्थ के प्रति जागरूक सभी आधुनिक समुदायों में भी लोग इसी प्रकार के भोजन और जीवन प्रणाली को अपनाने की सलाह देते हैं। आधुनिक प्रशासनिक सोच विचार और प्राचीन भारतीय सामाजिक गठन जीवन शैली में कोई फर्क नहीं। विश्व में सभी जगह बुद्धिजीवी सात्विक जीवन शैली अपनाते हैं, प्रशासनिक अधिकारी वर्ग और व्यापारी वर्ग राजसिक शैली तथा श्रमिक वर्ग तामसिक जीवन बिताते हैं।  

श्रम का सम्मान

हिन्दू समाज ने प्रत्येक प्रकार की सामाजिक सेवा को .यत्थोचित सम्मान दिया है जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण वानर रूपी हनुमान जी को देवतुल्य पद की प्राप्ति है। सभी कार्यों में सेवक धर्म को उच्च मानते हुये हनुमान जी को सेवक धर्म का प्रतीक माना गया है तथा उन्हें पँचदेवों में उन्हें प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था में शरीरिक श्रम को पूर्णत्या सम्मानित किया गया है।

क्षमतानुसार श्रम विभाजन

बनजारा जीवन पद्धति में सभी बराबर थे, परन्तु सभी सभ्य समाजों में शिक्षा, समृद्धि तथा व्यवसाय के आधार पर आज भी सामाजिक वर्गीकरण है। लार्डस् और कामनर्स इंगलैण्ड में भी हैं। अमेरिका में श्वेत और ‘ब्लैक्स’ हैं, आका और गुलाम इस्लाम में चले आ रहे हैं, किन्तु श्रम विभाजन पर आधारित भारतीय समाज रंग या नस्ल भेद पर आधारित विश्व के अन्य समाजों से बेहतर है। मल्टी नेशनल कम्पनियों में भी प्रशासनिक सुविधा के लिये श्रमिकों को पृथक पृथक विभागों, ग्रेडों तथा श्रेणियों में बाँटा जाता है।

वर्ण व्यवस्था में कर्तव्य विभाजन किसी वर्ण के अन्तर्गत जन्म लेने के आधार पर नहीं था। प्राचीन काल के समाज में जितने भी काम किये जाते थे, उन से सम्बन्धित कर्तव्यों का बटवारा मनु महाराज ने वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्यों की मनोदशा तथा रुचि के अनुसार किया था। विश्व में कोई भी देश, जाति, या समाज ऐसा नहीं है जिस में सामाजिक वर्गीकरण और असामानतायें ना हों। यहाँ तक कि वह सोशोलिस्ट ’ देश, जो अपने देश की व्यवस्था को पूर्णत्या जाति हीन रख कर सभी के लिये बराबरी का दावा करते हैं वहाँ भी कुछ लोग दूसरों से अधिक प्रभावशाली होते हैं।

व्यवसायिक वातावर्ण

सामान्य स्थितियों के लिये परिवारिक अथवा पैत्रिक व्यवसाय का चुनाव यथार्थपूर्ण एवमं उचित है क्योंकि पैत्रिक व्यवसाय के गुणों का प्रभाव बालक में होना स्वाभाविक है। परम्परानुसार सभी देशों में संतान अपने माता पिता की सम्पति के साथ अपना पैत्रिक व्यवसाय भी अपनाती आयी है। इंगलैण्ड में और कई देशों में आज भी राजा का पद राज परिवार के ज्येष्ट पुत्र को ही प्रदान किया जाता है। ऐसा करने का मुख्य कारण यह है कि होश सम्भालने के साथ ही बालक अपने पैत्रिक व्यवसाय के वातावरण से परिचित होना शुरु कर देता है और व्यस्क होने पर उसे ही अपने माता पिता की विरासत समझ कर सहज में अपना लेता है। परिवारिक वातावर्ण का प्रभाव दक्षता प्राप्त करने में भी सहायक होंता हैं।

बाल्यकाल से किसी भी बालक की रुचि जान लेना कठिन है। इसलिये परिवारिक व्यवसाय को ही अस्थायी तौर पर चुनने का रिवाज चला आ रहा है। जो बालक परिवारिक गुण, वातावरण तथा व्यवसाय चुन लेते हैं उन्हे उस व्यवसाय से जुड़े उपकरण, अनुभव तथा व्यावसायिक सम्बन्ध सहजता में ही प्राप्त हो जाते हैं जो निजि तथा व्यवसाय की सफलता के मार्ग खोल देने में सहायक होते हैं। किन्तु जन्मजात व्यवसाय के विरुध अन्य व्यवसाय क्षमता और रुचि के आधार पर प्राप्त करने में किसी विरोध का कोई औचित्य नहीं। 

जन्म-जात का अपवाद

हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं – अपनी जन्म जाति से नहीं। इस में कोई शक नहीं कि पैत्रिक व्वसाय के बदले दूसरा व्यवसाय अपनाने के लिये उन्हें कड़ा परिश्रम भी करना पडा था।

केवल किसी वर्ण में जन्म पाने से कोई भी छोटा या बड़ा नहीं बन जाता। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति मे उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राह्णण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे ऐक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राह्णणों का वध करना भी उचित था।

      आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणानां च संगरे।

             स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ चघ्नन्धर्मण न दुष्यति।।

      गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

             आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। (मनु स्मृति 8- 349-350)

(जब स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। ऐसे समय धर्मतः हिंसा करने में दोष नहीं है। गुरु, ब्राह्मण, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी हो कर मारने के लिये आये तो उसे बे-खटके मार डाले।)

उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध

वैज्ञानिक जन्म-जात (जैनेटिक) असमानताओं पर विचार करें तो सभी मानव ऐक समान नहीं होते। साधारणत्या जो फल जिस पेड पर लगता है वह उसी के नाम से पहचाना जाता है उस के गुण बाद में दिखते हैं। जैसे कहने मात्र के लिये कबूतर और बाज ‘पक्षियों’ की श्रेणी में आते हैं, शेर और बैल दोनो चौपाये हैं। लेकिन कबूतर के अण्डों से बाज नहीं पैदा होते। इसी तरह यदि शेर के शावकों को बचपन से ही गाय का दूध पिला कर घरेलू पशूओं के साथ ही पाला जाय तो भी बडे होने पर उन्हें हल या में बैलगाडी में नहीं जोता जा सकता।

प्रकृति ने ही मानव मस्तिष्क में असमान्तायें बनायी हैं। ऐक ही माता पिता की सन्ताने बुद्धि, विचारों तथा रुचि में ऐक दूसरे से भिन्न होती हैं। मनुष्य की बुद्धि का विकास जन्म तथा पालन पोषण के वातावरण पर निर्भर करता है। उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिये उत्तम बुद्धि की आवश्यक्ता पड़ती है। उच्च शिक्षा के साधन सीमित तथा महंगे होने के कारण उन को ऐसे विद्यार्थियों पर बर्बाद नहीं किया जा सकता जिन में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की तथा कड़ी मेहनत करने की कमी हो।  उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लगते रहे हैं और आज भी लगते है। उच्च शिक्षा की योग्यता परखने के लिये विद्यार्थियों को रुचि परीक्षा (एप्टीच्यूट टैस्ट) में उत्तीर्ण होना पड़ता है। जो इस परीक्षा में निर्धारित स्तर तक के अंक प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाता।

समाज हित में प्रतिबन्ध

ज्ञान की शक्ति दुधारी तलवार की तरह होती है। उस का प्रयोग सृजन तथा विनाश दोनो के लिये किया जा सकता है। जैसे जिस व्यक्ति के संस्कार होंगे वैसे ही वह ज्ञान को प्रयोग में लाये गा। जो लोग कमप्यूटर-वायरस बनाते हैं वह भी कमप्यूटर विशेज्ञ होते हैं। जो रक्त तथा किडनी चुरा कर बेचते हैं वह भी डाक्टर होते हैं। वह अपने बुरे संस्कारों के कारण ऐसे घृणित काम करते हैं।  महाभारत में ज्ञान के दुर्प्योग का ऐक उदाहरण है। जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या से ऐक कुत्ते का मुहँ बन्द करते देखा तो उन्हों नें एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में माँग कर उस की धनुर्विद्या को निष्क्रिय करवा कर क्रूरता का अपयश अपने सिर ले लिया था। और भी कई उल्लेख मिलते हैं जब उच्च ज्ञान का दुर्प्योग होने की सम्भावना का विचार कर के ऋषि अपने ही शिष्य के ज्ञान को शाप दे कर सीमित अथवा निष्क्रिय कर देते थे। 

आज अमेरिका और संयुक्त राष्ट्रपरिष्द भी गुरु द्रोणाचार्य की नीति अपनाते हैं। य़दि अमेरिका अथवा विकसित योरूपीय देश प्रमाणु शक्ति का परीक्षण करता है तो उस में उन्हें कोई आपत्ति नहीं दिखती, परन्तु यदि कोई अविकसित देश प्रमाणु परीक्षण करे तो उन्हें वह आपत्तिजनक लगता है क्योंकि अविकसित होने के कारण वह देश शक्ति का दुर्प्योग करें गा।

सार्वजनिक स्वास्थ हित में प्रतिबन्ध

 
समाज में कई कार्यक्षेत्र ऐसे भी होते हैं जहाँ का वातावरण दुष्कर और दुर्गन्ध पूर्ण होता है। अतः सार्वजनिक स्वास्थ हित में यह आवश्यक है कि संक्रामिक वातावर्ण में काम करने वाले लोगों को सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत रखा जाये। जैसे आप्रेशन थियेटर तथा इसी प्रकार के अन्य स्थल सभी लोगों के लिये वर्जित होते हैं उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति जो प्रदूष्णयुक्त स्थलों से जुडे रहते हैं उन को रसोईयों, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजिक सुविधाओं से निष्कासित रखने का प्रावधान है। यह हिन्दू समाज के स्वास्थ के प्रति जागरुकता का प्रमाण है तथा आज भी ज़रूरी है। आधुनिक देशों तथा समुदायों मे भी प्रदूष्णयुक्त व्यक्तियों के साथ स्मपर्क पर पाबन्दी लगी रहती है।

हिन्दू समाज के विघटन की राजनीति  

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यकाल में कुछ लोगों ने छुआछूत की प्रथा को अनुचित ढंग से बढ़ावा भी दिया और हिन्दू समाज को बाँटने की दिशा में विकृत योगदान दिया जिस के कारण हिन्दू समाज को बदनामी और इसाईयों तथा मुसलमानों को दुष्प्रचार कर के धर्मान्तरण करने के का बहाना भी मिला। कुछ अयोग्य राजनेताओं को अपने लिये वोट बैंक भी प्राप्त हुये हैं जिन के सहारे वह अपने लिये उच्च पदवियाँ तलाशते रहते हैं। सत्यता यह है कि शूद्र हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं और सामाजिक आधारशिला का चौथा पाया। उन के प्रति छुआ छूत की प्रथा केवल प्रदूष्ण निग्रह के निमित थी जो आधुनिक उपकरणों के आजाने से अब अप्रासंगिक हो चुकी है।

प्राचीन काल में शूद्रों, वैश्यों तथा क्षत्रियों ने अपनी अपनी उन्नति कर के अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारा तथा ऐक से दूसरे वर्ण में प्रवेश किया। कालान्तर वर्ण व्यवस्था जन्मजात बनती गयी। जिस प्रकार एक बालक व्यस्क होने पर पिता की सम्पत्ति गृहण करता है उसी प्रकार उसे वर्ण संज्ञा भी विरासत में ही मिलने लगी थी। इस से बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि भारत की प्रजा तन्त्र और धर्म निर्पेक्ष शासन व्यवस्था में प्रधान मन्त्री पद के दावेदार आज भी केवल ऐक ही राजनैतिक परिवार से आते हैं और समाज जागरण छोड समाचार पत्र उन के प्रसार में जुट जाते हैं। आज कल कोई नेता पिछडे वर्ण के लोगों को परिश्रम कर के आगे बढने के लिये प्रेरित नहीं करता केवल आरक्षण की मांग ही करता है ताकि वह स्दैव पिछडे ही रहैं।

यह दुर्भाग्य है कि आजकल भी यही सिद्धान्त सरकारी नियमों में अपनाया जा रहा है। आज भी जाति का प्रमाण पत्र जन्म के आधार पर ही दिया जाता है कर्म के आधार पर नहीं। जैसे विद्यालय और महाविद्यालय योग्यता के आधार पर प्रमाण पत्र देते हैं उसी प्रकार सरकारी विभाग जन्म के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र दे देते हैं – यथार्थ की ओर कोई नहीं देखता। यह विडम्बना है कि आज के हिन्दू ज्ञानी बनने के बजाय अज्ञानता और पिछड़ेपन का प्रमाण पत्र पाने की होड़ में लगे हुये है। आज जरूरत इस बात की है आरक्षण का लालच दे कर कुछ वर्गों को स्दैव के लिये पिछडा बना कर रखने के बजाय उन को परिश्रम तथा ज्ञान के माध्यम से समाज में उन्नत किया जाये।

 

चाँद शर्मा

 

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