हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘मीडिया’

अभिव्यक्ति की आज़ादी


 

अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या हिन्दू धर्म के खिलाफ बकवास करने से ही मिलती है? अगर सिरफिरा मकबूल हुसैन हिन्दू देवी देवताओं के अशलील चित्र बना कर बेचे तो वह हमारे बिकाऊ हिन्दू विरोधी मीडिया और देश द्रोहियों के अनुसार चित्रकार की कलात्मिक स्वतन्त्रता गिनी जाती है लेकिन अगर तसलीमा नसरीन इस्लाम के खिलाफ कुछ लिख दे तो उस की कृति देश में पढी जाने से पहले ही बैन कर दी जाती है। छत्रपति शिवाजी के खिलाफ कुछ भी झूट लिखा जा सकता है लेकिन नेहरू गांधी परिवारों के बारे में सच्ची बातें भी बैन हो जाती हैं। यह दोहरे माप दण्ड केवल हिन्दूओं के खिलाफ ही अपनाये जाते हैं और केवल उन्हें ही सहनशीलता की नसीहत भी करी जाती है। मीडिया चैनल दोचार जाने माने चापलूसों को लेकर बहस करने बैठ जाते हैं और गलियों में निन्दा चुगली करने वालों की तरह दिन भर यह खेल हमारे राष्ट्रीय कार्यक्रमों का प्रमुख भाग बन जाता है।

फिल्म “PK”

फिल्म “PK” पर बैन की मांग को लेकर लोगों का सडकों पर आक्रोश तो देखा जा सकता है लेकिन उन का लक्ष्य सही नहीं है। लोगों का आक्रोश फिल्म के निर्माता, निर्देशक, कलाकारों, सिनेमा घरों तथा सैंसर बोर्ड के विरुध है जिन्हों ने जानबूझ कर हिन्दूओं की भावनाओं की अनदेखी करते हुये फिल्म बनाई और उसे दिखाने की इजाज़त दे डाली। इन लोगों के अडियल रवैये के कारण अब तो हिन्दूओं का इन संस्थानों से विशवास ही उठ चुका है जिस का प्रमाण धर्माचार्यों का खुल कर बैन का समर्थन करना है। आशा और अपेक्षा है कि आनेवाले दिनों में अन्य हिन्दू-सिख धर्मगुरु भी इस धर्मयुद्ध में जुडें गे और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये आर-पार के संघर्ष का नेतृत्व करें गे।

शंकराचार्य

कुछ महीने पूर्व शंकराचार्य जी ने साईं की मूर्तियां हिन्दू मन्दिरों से हटवाने के लिये अखाडों को इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये चुना था लेकिन अधिकांश हिन्दूओं ने अपना संयम बनाये रखा था। अब लगता है कि अगर सरकार हिन्दूओं के स्वाभिमान की रक्षा के लिये ठोस कारवाई नहीं करती तो अपने स्वाभिमान की रक्षा का भार हिन्दू धर्म नेता स्वयं उठायें। हिन्दू समाज इकतरफा सरकारी धर्म निर्पेक्षता से ऊब चुका हैं और नेताओं के खोखले वादों तथा लच्चर कानूनों के कारण पानी सिर से ऊपर जा चुका है।

भारतीय संस्कृति

नरेन्द्र मोदी केवल कानूनों के ज्ञाताओं को विदेशों से भी मंगवा कर अपने देश में जज बना सकते हैं लेकिन वह ऐक्सपर्ट देश की संस्कृति की रक्षा करने के योग्य नहीं हो सकते। इसलिये हमारी मांग है कि संवैधानिक पदों पर जिन लोगों का चैयन किया जाता है उन्हें भारत की संस्कृति की केवल जानकारी ही नहीं होनी चाहिये बल्कि उन्हें भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा भी होनी चाहिये। उन्हें अब यह भी विदित करवाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति की परिभाषा में वह समुदाय कदापि नहीं आते जिन का मूल देश के बाहर हुआ है। जो केवल हिन्दूओं को परिवर्तित करने या गुलाम बनाने के लिये भारत को लूटते रहै थे। मोदी भले ही अपने लिये धर्म निर्पेक्ष रह कर वोट बटोरने की राजनीति करते रहैं मगर यह भी याद रखे कि अगर वह भारत में ही हिन्दूओं के स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकें गे तो फिर अपनी सरकार के दिन भी गिनने शूरू कर दें।

स्वामी रामदेव

बी जे पी समर्थक स्वामी रामदेव और दवारका के कांग्रेसी समर्थक शंकराचार्य फिल्म “PK” के विरोध में अब आये हैं – जब सांप हिन्दूओं को काट कर जा चुका है। बाद में “सांप-सांप” चिल्ला कर लकीर पीटने से क्या फायदा? फिल्म “PK”  के निर्माता ने जो कमाना था उस से कहीं ज्यादा उस ने तो कमा लिया और कमाई का हिस्सा पाकिस्तान को भी दे दे गा। फिल्म की प्बलिसिटी भी अब जरूरत से ज्यादा हो चुकी है। अब इस की सी-डी भी  पाकिस्तान और मुस्लिम देशों में खूब बिके गी। यह कमाई फिल्म “PK” ने हिन्दूओं के देश में ही हिन्दूओं के मूहं पर थूक कर हिन्दूओं से ही करी है।

हिन्दूओं का आक्रोश

अब हिन्दू जाग रहै हैं। आस्थाओं का घोर अपमान होने के कारण हिन्दूओं का आक्रोश अब पूर्णत्या तर्क संगत है। उन्हें सहनशीलता के खोखले सलाहकारों की ज़रूरत नहीं। लेकिन विरोध उन लोगों के होना चाहिये जो व्यक्तिगत तौर पर इस के मुख्य कारण हैं। यह नहीं होना चाहिये की अपमान तो कोई दूर बैठा राजेन्द्र करे, और क्रोध में चांटा पास खडे धर्मेन्द्र को जड दिया जाये। अगर अब हिन्दूओं को अपनी साख बचानी है तो इतना तीव्र आन्दोलन होना चाहिये कि निर्माता की पूरी कमाई जब्त करी जाये, फिल्म पर टोटल प्रतिबन्ध लगे। फिल्म की सी-डी भी जब्त हों। निर्माता और निर्देशक और लेखक को औपचारिक नहीं – वास्तविक जेल हो, तथा सैंसर बोर्ड के सदस्यों को भी देश द्रोह के लिये जेल की सज़ा हो ताकि भविष्य में किसी कुत्ते को हिन्दूओं की भावनाओं से खेलने की हिम्मत ना हो।

जले पर सरकारी नमक

लेकिन हमारी चुनी हुयी सरकारों ने अब तो हिन्दूओं की जली हुयी भावनाओं पर नमक छिड़क दिया है।

  • सैंसर बोर्ड की अध्यक्षा शीला सैम्सन ने फिल्म को दोबारा चैक करने से इनकार कर दिया है।
  • उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐक कदम आगे बढ कर फिल्म पर मनोरंजन टेक्स ही माफ कर दिया है। इसे आग में घी डालना कहते हैं।
  • महाराष्ट्र में हिन्दूओं की अगवाई का दावा करने वाली शिव सैना ने इस फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने के लिये चुप्पी क्यों साध रखी है। क्या मन्त्री मण्डल में कुर्सी पाने का बाद उन का सैकूलरिज़म जाग उठा है।

यह भी याद रखना चाहिये की थर्ड फर्न्ट की सरकार नें आते ही सैंसर बोर्ड बोर्ड के अध्यक्ष पद से अनुपम खैर को बर्खास्त किया था और तमाम धार्मिक सीरियलों के ऐकस्टेंशन पर रोक लगवा दी थी। मोदी सरकार ने हिन्दूओं के घाव पर मरहम लगाने के बजाये आमिर खां को अपनी प्रोग्रामों में ब्रांड ऐम्बेसडर बना दिया है। साफ जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी की अगवाई में बी जे पी भी अब सत्ता के मोह में कांग्रेस के रास्ते पर ही चल पडी है। जरूरत है हिन्दू नरेन्द्र मोदी से अपनी अपेक्षाओं के बारे में दोबारा सोचना शुरु कर दें।

हिन्दूओं की अनदेखी

मोदी सरकार के नेताओं ने अपने अपने पेज तो सोशल मीडिया पर खोल दिये हैं लेकिन वह सभी इकतरफा हैं। आप कुछ भी पोस्ट कर दें कोई उत्तर या प्रतिक्रिया नहीं आती। यह सिर्फ छलावा मात्र हैं। दिल्ली में चुनाव होने वाले हैं। नरेन्द्र मोदी समेत सभी बी जे पी के छोटे बडे सभी नेता अल्प-संख्यकों के तुष्टिकरण में लगे हैं। आमिर खान से ले कर कामेडियन कपिल शर्मा तक को मोदी जी अपने साथ किसी ना किसी बहाने की भीड को जोडने में लगे है और हिन्दूओं को भूल चुके हैं। इसलिये हिन्दूओं की अनदेखी करने के लिये ऐक झटका बी जे पी को भी लगना चाहिये। जब तक आमिर खान और से जुडे लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जाता मेरा तो निजि फैसला है कि फेसबुक या किसी अन्य स्थान पर बी जे पी के पक्ष में कुछ नहीं लिखूं गा। सभी हिन्दू साथियों से मेरा अनुरोध है कि हो सके तो वह अपने निजि योग्दान को स्थगित कर दें। जब बी जे पी के नेता दिल्ली में वोट मांगने आयें तो उन्हें हिन्दूओं की चेतावनी याद रहनी चाहिये। फूलों के हार के बदले हिन्दू भावनाओं की अनदेखी करने का कलंक बी जे पी की हार के रूप में उन के माथे पर चिपक जाना चाहिये।

लगातार चुनावी विजय में धुत मोदी सरकार को अब याद रहै कि भावनाओं की अभिव्यक्ति की आज़ादी हिन्दूओं को भी है। अगर आप सहमत हैं तो कृप्या शेयर करें।

चाँद शर्मा

मर्दानी लडकियां-बेचारे पुरुष


हरियाणा की मर्दानी लडकियों ने ऐक बार तो सभी पुरुषों की रीढ़ की हड्डी तक को झिंझोड के रख दिया है। हरियाणा सरकार ने छानबीन और प्रशासनिक सुधार करने से पहले उन्हें पुरस्करित कर के युवतियों को अपने आर्थिक पैरों पर खडे होने के लिये ऐक नयी दिशा भी प्रदान कर दी है। जनता का पुलिस प्रशासन और न्यायलयों की क्षमता पर से विशवास गुरुत्व आकर्ष्ण से भी ज्यादा तेजी के साथ नीचे गिरता जा रहा था लेकिन अब उस विशवास की पुनर्स्थापित करने की जरूरत ही नहीं रही।

नारी स्शक्तिकरण

जंगल न्याय रोज मर्रा की बात हो गयी है। कहीं भी दो चार युवतियां ऐक जुट हो कर किसी भी राहचलते मनचलों को ना सिर्फ घेर कर पीट सकती हैं बल्कि उन से वसूली कर सकती हैं। सभी पुरुष रेप और यौन शोशष्ण के आरोपी हो सकते हैं क्योंकि महिलाओं की तरफ झुकी हुयी कानून की शक्ति अब महिलाओं के पास है । बस ऐफ़ आई आर ही काफ़ी है। किसी छान बीन की ज़रूरत नहीं। महिलायें 5 वर्ष से 95 वर्ष तक के किसी भी पुरुष को आरोपित कर के आजीवन कारावास दिलवा सकती हैं। मुकदमें का फैसला आरोपित पुरुष के अगले जन्म से पहले नहीं आये गा और अपीलों में उन के भी दो तीन जन्म और निकल जायें गे।

अभी तो महिला आरक्षण बाकी है। अगर यही क्रम चलता रहा तो मृत पुरुष का दाह संस्कार करवाने से पहले पुलिस से प्रमाण पत्र लेना भी अनिवार्य हो जाये गा कि मृत के खिलाफ मृत्यु से ऐक घन्टा पूर्व तक यौन शोशण की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुयी। प्रमाण पत्र प्रस्तुत ना कर सकने की अवस्था में मृत के शरीर की फोरंसिक जांच होनी ज़रूरी हो जाये गी कि यौन अपराध के कोई सबूत उस के शरीर पर नहीं मिले – तभी दाह संस्कार हो सके गा। इस लिये पुरुषो को चाहिये कि अपनी सुरक्षा के लिये आम-आदमी सुरक्षा दल बनायें। 

कानूनी वर्गीकरण

समान आचार संहिता तो दूर, जिस तेजी से हमारे राजनेता समाज में लिंग-भेद पर भी समाज में कानूनी वर्गीकरण कर के आये दिन नये नये कानून बनाते जा रहै हैं और हमारी अदालतें आंखें मूंदे उन की वैधता को मंजूरी देती जा रही हैं उस अवस्था में अब जरूरी हो गया है कि पुरुषों के बारें में भी कुछ विशेष कानून और व्यवस्थायें होनी चाहियें।

पुरुषों को चाहिये कि अपने इलाके के राजनेता से पुरुष रक्षा कानून, दलित पुरुष रक्षा कानून तथा केन्द्र और हर राज्य में पुरुष आयोग, पुरुष बस सेवा, पुरुष थाने आदि की नयीं मांगे करनी शुरु कर दें।

हरियाणा की महिलायों से प्रेरणा पा कर अब युवतियां जीन्स पर कोई रोक स्वीकार नहीं करें गी क्यों कि बेल्ट कारगर साबित हुयी है। ‘घर की चार दिवारी में कैद पुराने जमाने की महिलायें’ सोने चाँदी या किसी अन्य धातु की जंजीरों में बंधी रहती थीं। हाथ पाँव में मोटे मोटे कडे पहनती थीं ताकि बिना आवाज किये कहीं भाग ना सकें लेकिन अब यवतियां चाव के साथ उन्हीं भारी कडों और जंजीरों को अपनी रक्षा के लिये और पुरुषों के दांत तोडने के लिये अपने आप पहनने लगें गी।

पुरुष-रक्षा के उपाय

जबतक पुरुषों की रक्षा के लिये विशेष उपाय कार्यरत नहीं हो जाते, पुरुषों को अपनी रक्षा के लिये नीचे लिखे उपाय अपने आप ही अपना लेने चाहियेः-

  • अपने अपने इलाकों में राहुल सुरक्षा ब्रिगेड या केजरीवाल सुरक्षा केन्द्र गठित करें।
  • अगर कहीं भी 4-5 समार्ट लडकियों के संदिग्ध हालत में घूमते देखें तो पुलिस, आम आदमी सुरक्षा दल को तुरन्त सम्पर्क करें।
  • अकेले निर्जन पार्कों, सडकों, लाईबरेरियों, होटलों आदि स्थानों पर ना जायें।
  • शाम को अन्धेरा होने से पहले घर वापिस आ जायें।
  • रात को भोजन के बाद घर से अकेले बाहर नहीं निकलें। अपनी सुरक्षा के लिये जूडो-कराटे आदि सीखें, और नित्य व्यायाम करें।
  • अपने कपडों में गुप्त तरीके से छुपा कर ऐक फुट लम्बी सुरक्षा-झाडू हमेशा अपने साथ रखें।
  • दफ्तर के बाद कभी भी ओवर-टाईम नहीं करें।
  • अकेले किसी टायलेट वगैरा में भी नहीं जायेँ।
  • भीड वाले इलाकों में सुरक्षित जाने आने के लिये हमेशा अपने शरीर को पूरा ढक कर रखें और स्त्रियों के से हाव भाव भी अपनायें।
  • जहाँ कहीं भी 3-4 महिलायें दिखाई पडें तो तुरन्त किसी सुरक्षित स्थान पर तेज़ी से चले जायें।

याद रखिये

पुरुषों को विरोध करना है तो हरियाणा की पूजा और आरती के बजाये पहले उन कानूनों का करो जो इन्दिरा गांधी से ले कर सोनियां तक कांग्रेसी सरकारों ने अपने वोट बैंक के लिये दलितों, महिलाओ और अल्प-संख्यकों आदि का संरक्षण करने के बहाने से बनाये और अभी भी लागू हो रहै हैं। किसी भी देश में इस तरह के वाहियात कानून नहीं हैं कि खाली रिपोर्ट के आधार पर आरोपी को हवालात में बन्द कर दो और उस की जमानत भी ना हो। कानून के सामने महिला हो या परुष, दोनों के लिये अगर बराबरी है तो कानून भी ऐक जैसे होने चाहियें।

अब तो महिलाओं, दलितों और अल्प-संख्यकों को नौकरी या किसी भी तरह की मदद देने से पहले लोग दस बार सोच कर इनकार ही करें गे। बुद्धिमानी भी इसी में है कि सिर दर्द क्यों लिया जाये।

महिला, दलित या अल्प-संख्यक आयोगों का भी कोई काम नहीं जो अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार दखल देते हैं। केवल पुलिस प्रशामन और कोर्ट सक्षम होने चाहियें।

मीडिया का काम केवल खबर देने तक का होना चाहिये उस पर बहस या राय देने का नहीं। अगर खबर तथ्यों पर नहीं तो मीडिया की भी कानून के सामने अपराधी जैसी जवाबदारी होनी चाहिये।

हमारे मीडिया को सनसनीखेज़ भाषा में बहस करने और ढोल पीटने के लिये ऐक मुद्दा और मिल चुका है – “ सावधानी हटी तो पिटाई घटी – ऐफ आई आर हुयी तो… सोच लीजिये…बस सोचते ही रह जाओ गे। बिना पिटे जीना है तो जाग जाईये – चैन से रहना है तो कहीं भाग जाईये। ”

चांद शर्मा

हमारा सनसनी-खेज़ मीडिया


लद्दाख़ में चीनी सैनिकों की घुसपैठ…प्रधान मन्त्री की चुप्पी… पाकिस्तान की ओर से भारतीय सीमा पर लगातार गोला बारी…हमारे दहाडने वाले…56 ईंच का सीना रखने वाले प्रधान मन्त्री चुप्पी क्यों साधे बैठे हैं…उजडे आशियाने…कांपती जिन्दगी…हर तरफ लाचारी… …आँसू और … …… …. …. … पत्रकारों की बकबक बक बक…।

देश की इसी तरह की तसवीर मीडिया आजकल हर रोज दिखाता रहता है। इन सब बातों का कोई साकारात्मिक असर नहीं होता लेकिन देश के अन्दर निराशा-हताशा का माहौल जरूर पैदा हो जाता है। देश की जग हँसाई भी होती है। सीमाओं से दूर बसने वालों का भी मनोबल टूटता है क्योंकि उन्हें पूरी सच्चाई पता नहीं चलती। सीमाओं पर लडने वाले सिपाही अपनी ही सरकार को अविशवास से देखते हैं – जो यह सब कुछ सहते हैं उन्हें भी कोई राहत नहीं मिलती… मगर समाचार पत्र खूब बिकते हैं।

सोचने की बात है कि अगर कोई पडोसी देश हमारी सामाओं के अन्दर घुस पैठ करता है तो सरकार के पास दो रास्ते होते हैं। पहला राजनैतिक डिप्लोमेसी से समस्या का कोई हल निकाला जाये। दूसरा रास्ता ईंट का जवाब पत्थर मारना होता है।

आज के युग में सभी सभ्य देश, और सभी शक्तिशाली देश भी पहले राजनैतिक डिप्लोमेसी और सूझ-बूझ वाला रास्ता ही अपनाते हैं। इस रास्ते में समय भी लगता है और समयानुसार ‘ गिवऐण्डटेक भी करना पडता है।

दूसरा रास्ता युद्ध मार्ग का है। उस में दोनो देशों की तबाही होती है। किसी की थोडी, तो किसी की ज्यादा। लडाई के साथ महंगाई हमैशा जुडी रहती है। देश के जवान तो मरते ही हैं साथ साथ में सामान्य नागरिक भी बेघर और तबाह होते हैं। इस मार्ग को भी बहुत सोच समझ कर अपनाना पडता है। सभी तरह की तैय्यारी करनी पडती है और सही वक्त का इन्तिजार भी करना पडता है। इस युद्ध मार्ग के रास्ते पर चल कर समस्या को हल करने के लिये फिर से मुड कर राजनैतिक डिप्लोमेसी का चौक भी पार करना पडता है।

यही कारण है कि सरकार किसी भी मार्ग पर चलने से पहले बहुत कुछ सोचती है। अपनी मंशा को गुप्त रखने के लिये चुप्पी भी साधे रहती है। लेकिन मीडिया को इन सभी बातों पर सोचना नहीं पडता। अगर मीडिया वाले सोचने बैठें गे तो सनसनी फैलाने का मौका हाथ से निकल जाये गा। वह सरकार और देश को भाड में झोंकने के लिये तत्पर रहते हैं क्योंकि कहीं समाचार बासी होगये तो फिर बिकें गे नहीं।

आज कल जिन उजडते घरों और सिसकती जिन्दगियों को टीवी पर दिखाया जाता है वह सीमा के साथ सटे हुये गाँवों की तसवीरें हैं। घरों और खेतों के सामने ही सीमा की बाड़ भी देखी जा सकती है। जब सीमा पार से अचानक गोलीबारी होती है तो वहाँ फूल नहीं बरसते। मौत की गोलियां बरसती हैं जिन के फलस्वरूप लोगों का घायल होना, पशुओं का मरना, घरों का तबाह होना और लोगों का बेघर होना सभी कुछ स्वाभाविक है। सिस्कते रोते-पीटते लोगों को दिखा कर मीडिया कोई नयी खबर नहीं दे रहा केवल निराश और हताशा दिखा कर सरकार को आवेश में कोई निर्णय लेने की तरफ धकेल रहा है जिस का परिणाम देश को कई बार बाद में पछता कर भी चुकाना पड सकता है।

मीडिया की जिम्मेदारी है कि निष्पक्ष तरीके और संयम की भाषा में समाचारों को दिखायें। भडकाने और उकसाने के बदले लोगों को अपना मनोबल बनाये रखने का हौसला दें। लोगों को सलाह दें कि किस तरह से वह अपनी मदद स्वयं कर के सुरक्षित रहैं गे या युद्ध-स्थल से दूर किसी दूसरे सुरक्षित स्थान पर समय रहते चले जायें। अगर वह अफरा-तफरी में घरों से भागें गे तो अपने ही लोग, स्शस्त्र सैनाओं के लिये रोड ब्लाक दूर करने की ऐक अन्य बाधा पैदा कर दें गे जिसे टाला जा सकता है।

अगर रिहायशी इलाके सीमा के निकट हैं जहां गोलाबारी या जवाबी गोलाबारी होनी है तो उस के साथ जुडी तकलीफों का आना टाला नहीं जा सकता। रोते-पीटते, घायल बेघर लोगों को दिखाना समस्या का समाधान नहीं कर सकता। अपने देश का मजाक जरूर बनाया जा सकता है। शत्रु-सैना का मनोबल बढाया जा सकता है और अपने सैनिकों का मनोबल गिराया जा सकता है।

अब यह सोच कर देखिये कि हमारा मीडिया देश हित में प्रचार कर रहा है या देश द्रोह कर के सनसनी बेच कर पैसा कमा रहा है। पत्रकारिता के अन्दर अगर देश भक्ति की मात्रा नहीं है तो ऐसी पत्रकारिता पर प्रतिबन्ध लगना देश हित में है। पत्रकारों की शिक्षा दीक्षा में देश भक्ति और देश के हितों का ख्याल अगर नहीं रखा जाता और मीडिया के बक-बक करने पर अगर लगाम नहीं डाली जाती तो ऐसी स्वतन्त्रता केवल ऐक कलंक मात्र है।

चाँद शर्मा

मीडिया की माफ़ियागिरी


मैं संत आसाराम या किसी भी धर्मगुरू का औपचारिक शिष्य नहीं हूँ। आसाराम आज कल अपने अभिमान और छिछोरेपन की वजह से अपमानित हो रहै हैं तथा घृणा और उपहास के पात्र बन गये हैं। उन का सब से बडा अपराध है कि उन्हों ने गुरू परम्परा को कलंकित किया है। उन के लिये अब ऐक ही रास्ता है कि चरित्र-हीनता के जो कुछ दोष उन पर लगे हैं उन सभी से अपने आप को कोर्ट में निरापराधी साबित करें या फिर कडी सजा भुगतने के लिये तैय्यार रहैं।

लेकिन आसाराम के गुनाहों से कहीं अधिक हमारा मीडिया गुनाहगार है जो केवल आरोपों की सूची के आधार पर कम से कम अब तक के ऐक जन-मान्य संत का चरित्र हनन करने में गैर कानूनी ढंग से मनमानी कर रहा है। जब तक आसाराम के विरुद्ध कोर्ट में कोई आरोप परमाणित नहीं हो जाता तब तक हमारे देश के कानून अनुसार आसाराम और उन का परिवार निरापराध ही माना जाये गा। मीडिया को कोई हक नहीं कि वह दिन रात उस व्यक्ति के चरित्र पर कीचड उछालता रहै जिस को देश के हजारों लोग संत मानते रहै हैं और कई आज भी मानते हैं।

अगर मीडिया को पीडित महिलाओं की सहायता करनी है तो उन्हें आर्थिक सहायता दे दें ताकि वह अपने लिये वकील कर सकें, उन महिलाओं को आश्रय दे दें जिन की सुरक्षा को खतरा है या जिन का पास साधन नहीं हैं – ताकि वह कोर्ट में जा कर अपराधी के विरूद्ध सबूत पेश कर सके। उन पीडितों के चेहरे ढक कर टी वी चैनलों पर अपनी वर्षों पुरानी व्यथा सुनाना नाटकबाजी के सिवाय और कुछ नहीं।

आज कल दो तीन आर्थिक तौर से बीमार किसम के टी वी सुबह से शाम तक आसाराम और उस के परिवार के विरुद्ध जो आनाप शनाप बकवास करते रहते हैं उन पर अंकुश लगना चाहिये और उन के खिलाफ कडी कारवाई होनी चाहिये। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ है कुछ धर्मान्त्रण करवाने वाले हिन्दू विरोधी तत्व ऐक हिन्दू संत को अपमानित करने का यत्न कर रहै हैं और हमारा समाज तथा सरकारी तन्त्र यह सब कुछ खामोशी का आवरण ओढ कर देख रहा है। पहले स्वामी नित्या नन्द को, और फिर निर्मल बाबा को टीवी चैनलों के माध्यम मे दुष्प्रचार से बदनाम किया जा चुका है। अब आसाराम इस का शिकार हो रहा है । फिर स्वामी रामदेव का नम्बर लगेगा। शर्म की बात है कि ईर्षालु किस्म के कुछ बिकाऊ संत भी आसाराम के विरुद्ध इस घिनौने खेल में जुडे हुये हैं।

हिन्दू संत समाज अपने इतिहास से ही कुछ सीखे और आसाराम के विरुद्ध मीडिया प्रचार का विरोध करे। अगर पीडित महिलाओं को अपनी कहानी टीवी पर सुनानी है तो उन्हें चेहरा छुपाने के बजाये खुल कर बोलना चाहिये ताकि जनता उन की सच्चाई को भी परख सके। उन की व्यथा पर  तो अब निर्णय तो कोर्ट ने लेना है तो उन्हें अपनी कहानी जनता के बजाये कोर्ट को ही सुनानी चाहिये। ढके हुये चेहरे के पीछे जनता के सामने तो कोई भी किसी के खिलाफ कुछ भी बोल सकता है।

चांद शर्मा

भारत का रेप तन्त्र


16 वर्ष की आयु के लडके-लडकियाँ कच्ची उमर में होते है और लगभग दसवीं कक्षा तक ही पढे होते हैं। इस उम्र में युवाओं को सम्भलने के लिये निगरानी की जरूरत रहती है मगर मामूली छूट मिलने से भी भटकने के अवसर अधिक होते हैं। हमारी धर्म निर्पेक्ष सरकार और देश द्रोही मीडिया अब भारत की नैतिकता को मिटाने के लिये कटिबद्ध हैं। वह इस देश में रोमियो-ज्यूलिट की फसल तैय्यार करना चाहते हैं ताकि भारत का मानव संसाधन ही तबाह हो जाये। व्यकतिगत स्वतन्त्रता और महिला प्रोत्साहन के नाम पर अब स्वार्थी राजनेता, मल्टीनेशनल कम्पनियाँ, लव-जिहादी और देश द्रोही गुट घरों की शान्ति को बरबाद करने के लिये कमर कस चुके हैं।

धर्म निर्पेक्ष पाशचात्य वादी सरकार खुद रेप-तन्त्र को बढावा दे रही हैः-

  • देर रात तक बीयर पीने की छूट है और गाँधी वाद का ढोंग करने बाली सरकार के शासन में बीयर बार खुले रहते हैँ।
  • वैलेंटाईन डे मनाने के लिये सरकारी संरक्षण मिलता है।
  • प्रेमी जोडों को पार्कों और समुद्र तट पर ऐकान्त की आजादी है।
  • सहमति से सैक्स की आजादी भी है क्यों कि अब 16 वर्ष की आयु तक यह रेप के अन्तर्गत नहीं माना जाये गा।
  • गर्भ निरोधक उपाय और परामर्ष खुले आम मिलते हैं।
  • रेप पीडितों को बरबादी के ऐवज में मिलने वाला भारी भरकम मुआवजा भी उन्हें प्रोत्साहन देने लगे गा।
  • सूधारवाद के नाम पर जुवनाईल अपराधियों के प्रति अनचाही संवेदनशीलता उन्हें बिगडने क् लिये ही प्रोतसाहित  करे गी ।

अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के लिये और क्या चाहिये?

परिवारिक परम्पराओं और मर्यादाओं की रक्षा महिलायें सक्ष्मता से कर सकती हैँ। यदि वह स्वयं अनुशासन में हैं तो पुरुषों पर प्रतिबन्ध भी लगा सकती हैं। लेकिन आज कल कम से कम बरबादी के इस मार्ग पर तो लडकियाँ भी पुरुषों के साथ ही प्रतिस्पर्धा कर रही हैं।

इस कुचक्र से बाहर निकलना है तो कहीं ना कहीं से पहल तो करनी होगी। शुरूआत पुरुष करें या महिलायें इस में कम्पीटीशन नहीं करना है। मेरे विचार से सब से पहले युवाओं को चाहिये कि वह पतित हुयी लडकियों से विवाह ना करें। जो स्वेच्छा से स्त्री – पुरुष बराबरी के नाम पर भटकना चाहती हैं उन्हें भटक कर बरबाद हो लेने दें। शायद ठोकर खाने के बाद उन्हें होश आ जाये और दूसरों के लिये वह बरबादी का उदाहरण बनाई जा सकें।

इस कडवी दवाई को “मेल-शुवनइज्म” ना समझें।

चाँद शर्मा

टैग का बादल