हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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60 – हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।

असमानताओं का संघर्ष

भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।

इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।

समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।

हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ

कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 

कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।

मन्दिरों का विध्वंस

समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।

कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।

विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।

ईस्लामीकरण का दौर

सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।

बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।

हिन्दूओं की बचाव नीति

मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 

हिन्दूओं की बचाव नीति

अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-

पलायनवाद – बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार – निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।

वंशावली पंजीकरण की प्रथा

इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।

ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।

सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 

कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।

जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

44 – भारत की वास्तु कला


भाषा, भोजन, भेष और भवन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने त्रेता युग में समुद्र पर पुल बाँधा था, महाभारत काल में लाक्षा ग्रह का निर्माण किया था, पाटली पुत्र से ले कर तक्षशिला तक भव्य राज मार्ग का निर्माण कर दिखाया और विश्व के प्राचीनत्म व्यवस्थित नगरों को बसाया था, लेकिन आज उन्हीं के देश में विश्व की अन्दर अपनी पहचान के लिये प्राचीन इमारत केवल ताजमहल है जिस में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की हड्डियाँ दफन हैं। हमारे सभी प्राचीन हिन्दू स्मार्क या तो ध्वस्त कर दिये गये हैं या उन की मौलिक पहचान नष्ट हो चुकी है। अधिकाँश इमारतों के साथ जुडे गौरवमय इतिहास की गाथायें भी विवादस्पद बनी हुई हैं। हमारा अतीत उपेक्षित हो रहा हैं परन्तु हम धर्म-निर्पेक्ष बनने के साथ साथ अब शर्म-निर्पेक्ष भी हो चुके हैं।

वास्तु शास्त्र

वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन आरोग्यदायक, आर्थिक दृष्टी से सम्पन्नयुक्त, आध्यात्मिक विकास के लिये  प्राकृति के अनुकूल, और सामाजिक दृष्टी से बाधा रहित होने चाहियें। तकनीक, कलाकृति तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भारत की निर्माण कला का आदि ग्रन्थ ‘वास्तु-शास्त्र’ है जिसे मय दानव ने रचा था। रावण की स्वर्णमयी लंकापुरी का निर्माण मय दानव ने किया था। नगर स्थापित्य, विस्तार, रूपरेखा तथा भवन निर्माण के बारे में वास्तु शास्त्र में चर्चित जानकारी आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रासंगिक है। इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज के ‘वैज्ञानिक-युग’ में भी भारत के बाहर रहने वाले हिन्दू आज भी अपने घरों, कर्म-शालाओं, दफतरों आदि को वास्तु शास्त्र के अनुकूल बनवाते हैं और भारी खर्चा कर के उन में परिवर्तित करवाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता

जब विश्व में अन्य स्थानों पर मानव गुफाओं में सिर छिपाते थे तब विश्व में आधुनिक रहवास और नगर प्रबन्ध का प्रमाण  सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से मिलता है। वहाँ के अवशेषों से प्रमाणित होता है कि भारतीय नगर व्यवस्था पूर्णत्या विकसित थी। नगरों के भीतर शौचालयों की व्यव्स्था थी और निकास के बन्दोबस्त भी थे। भूतल पर बने स्नानागारों में भट्टियों में सेंकी गयी पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। नालियाँ 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर बनी थीं। चौडी गलियाँ और समकोण पर चौराहे नगर की विशेषता थे। घरों के मुख्य भवन नगर की चार दिवारी के अन्दर सुरक्षित थे। इन के अतिरिक्त नगर में पानी की बावडी और नहाने के लिये सामूहिक स्नान स्थल भी था। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष हडप्पा और अन्य स्थानों पर मिले हैं परन्तु संसार के प्राचीनतम् नगर काशी, प्रयाग, अयोध्या, मथुरा, कशयपपुर (मुलतान), पाटलीपुत्र, कालिंग आदि पूर्णत्या विकसित महा नगर थे।

कृषि का विकास ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार में देखे जा सकते हैं। कृषि के लिये सर्वप्रथम जल संग्रह बाँध सौराष्ट्र में बना था जिसे शक महाराज रुद्रामणि प्रथम ने ईसा से 150 वर्ष पूर्व बनवाया था। पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस के साथ रैवाटिका पहाडी पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

मोइनजोदाडो नगर में ऐक विस्तरित स्नान स्थल था जिस में जल रिसाव रोकने के पर्याप्त बन्दोबस्त थे। स्थल ऐक कूऐं से जुडा था जहाँ से जल का भराव होता था। निकास के लिये पक्की ईंटों की नाली था। नीचे उतरने कि लिये सीढियाँ थीं, परकोटे के चारों ओर वस्त्र बदलने के लिये कमरे बने थे और ऊपरी तल पर जाने कि लिये सीढियाँ बनाई गयीं थीं। लगभल सात सौ कूऐँ मोइनजोदाडो नगर की जल आपूर्ति करते थे और प्रत्येक घर जल निकास व्यव्स्था से जुडा हुआ था। नगर में ऐक आनाज भण्डार भी था। समस्त प्रबन्ध प्रभावशाली तथा नगर के केन्द्रीय संस्थान के आधीन क्रियात्मक था। मनुस्मृति में स्थानिय सार्वजनिक स्थलों की देख रेख के बारे में पर्याप्त उल्लेख हैं। यहाँ कहना भी प्रसंगिक होगा कि जिस प्रकार बन्दी मजदूरों पर कोडे बरसा कर भव्य इमारतों का निर्माण विदेशों में किया गया था वैसा कुकर्म भारत के किसी भवन-निर्माण के साथ जुडा हुआ नहीं है।

मौर्य काल

मौर्य कालीन वास्तु कला काष्ट के माध्यम पर रची गयी है। लकडी को पालिश करने की कला इतनी विकसित थी कि उस की चमक में अपना चेहरा देखा जा सकता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने काष्ट के कई भवन, महल और भव्य स्थल बनवाये थे। उस ने बिहार में गंगा के किनारे ऐक दुर्ग 14.48 किलोमीटर लम्बा, और 2.41 किलोमीटर चौडा था। किन्तु आज किले के केवल कुछ शहतीर ही अवशेष स्वरूप बचे हैं। 

ईसा से 3 शताब्दी पूर्व सम्राट अशोक ने प्रस्तर के माध्यम से अपनी कलात्मिक पसन्द को प्रगट किया था। उन के काल की पत्थर में तराशे स्तम्भ, जालियाँ, स्तूप, सिंहासन तथा अन्य प्रतिमायें उन के काल की विस्तरित वास्तुकला के प्रमाण स्वरूप भारत में कई स्थलों पर खडे हैं।  छोटी से छोटी कला कृतियों पर सुन्दरता से पालिश करी गयी है और वह दर्पण की तरह चमकती हैं।

सारनाथ स्तम्भ अशोक काल की उत्कर्श उपलब्द्धि है। अशोक ने कई महलों का निर्माण भी करवाया किन्तु उन में अधिकतर ध्वस्त हो चुके हैं। अशोक का पाटलीपुत्र स्थित महल विशिष्ट था। उस के चारों ओर ऊची ईँट की दीवार थी तथा सब से अधिक भव्य 76.2 मीटर ऊंचा तिमंजिला महल था। इस महल से प्रभावित चीनी यात्री फाह्यान ने कहा था कि इसे तो देवताओं ने ही बनाया होगा क्यों कि ऐसी पच्चीकारी कोई मानव हाथ नहीं कर सकता। अशोक के समय से ही बुद्ध-शैली की वास्तु कला का प्रचार आरम्भ हुआ।  

गुप्त काल

गुप्त काल को भारत का सु्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में एलोरा तथा अजन्ता गुफाओं का भव्य चित्रों का निर्माण हुआ। एलोरा की विस्तरित गुफाओं के मध्य में स्थित कैलास मन्दिर एक ही चट्टान पर आधारित है। एलिफेन्टा की गुफाओं में ‘त्रिमूर्ति’ की भव्य प्रतिमा तथा विशाल खम्भों के सहारे खडी गुफा की छत के नीचे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशाल मूर्ति प्राचीन भव्यता का परिचय देती है। इस मन्दिर का मार्ग ऐक ऊचे दूार से है। अतः कितनी मेहनत के साथ चट्टान और मिट्टी के संयोग से कारीगरों ने इस का निर्माण किया हो गा वह स्वयं में आश्चर्यजनक है और आस्था तथा दृढनिश्चय का ज्वलन्त उदाहरण है।

पश्चिमी तट पर काली चट्टान पर बना बुद्ध-मन्दिर प्रथम शताब्दी काल का है। यह मन्दिर दुर्गम चोटी पर निर्मित है तथा इस का मुख दूार अरब सागर की ओर है और दक्षिणी पठार और तटीय घाटी से पृथक है। 

यद्यपि दक्षिण पठार पर निर्मित अधिक्तर मन्दिर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ध्वस्त या कुरूप कर दिये थे परन्तु सौभाग्य से भारत की प्राचीन वास्तु कला की भव्यता और उस के विनाश की कहानी सुनाने के लिये दक्षिण भारत में कुछ मन्दिरों के अवशेष बचे हुये हैं।

मीनाक्षी मन्दिर मदुराई –शिव पार्वती को समर्पित सातवी शताब्दी में निर्मितमीनाक्षी मन्दिरहै जिस का विस्तार 45 ऐकड में फैला हुआ था। इस मन्दिर का वर्गाकारी निर्माण रेखागणित की दृष्टी से अपने आप में ही ऐक अचम्भा है। मन्दिर स्वर्ण तथा रत्नों से सम्पन्न था। इसी मन्दिर में शिव की नटराज मूर्ति स्थित है। दीवारों तथा स्तम्भों पर मूर्तिकला के उत्कर्श नमूने हैं। इसी मन्दिर से जुडा हुआ ऐक सहस्त्र स्तम्भों (वास्तव में 985) का प्रांगण है और प्रत्येक स्तम्भ केवल हाथ से आघात करने पर ही संगीत मयी ध्वनि देकर इस मन्दिर की भव्यता के विनाश की करुणामयी गाथा कहता है। इस को 1310 में सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी के हुक्म से मलिक काफूर ने तुडवा डाला था।

भारत के सूर्य मन्दिर 

भारत में सूर्य को आनादि काल से ही प्रत्यक्ष देवता माना गया है जो विश्व में उर्जा, जीवन, प्रकाश का स्त्रोत्र और जीवन का आधार है। अतः भारत में कई स्थलों पर सूर्य के  भव्य मन्दिर बने हुये थे जिन में मुलतान (पाकिस्तान), मार्तण्ड मन्दिर (कशमीर), कटरामाल (अलमोडा), ओशिया (राजस्थान) मोढेरा (गुजरात), तथा कोणार्क (उडीसा) मुख्य हैं। सभी मन्दिरों में उच्च कोटि की शिल्पकारी तथा सुवर्ण की भव्य मूर्तियाँ थीं और सभी मन्दिर मुस्लिम आक्राँताओं ने लूट कर ध्वस्त कर डाले थे।

  • कोणार्क के भव्य मन्दिर का निर्माण 1278 ईस्वी में हुआ था। मन्दिर सूर्य के 24 पहियों वाले रथ को दर्शाता है जिस में सात घोडे जुते हैं। रथ के पहियों का व्यास 10 फुट का है और प्रत्येक पहिये में 12 कडियाँ हैं जो समय गणना की वैज्ञानिक्ता समेटे हुये हैं। मन्दिर के प्रवेश दूार पर दो सिहं ऐक हाथी का दलन करते दिखाये गये हैं।  ऊपर जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। मन्दिर के चारं ओर पशु पक्षियों, देवी देवताओं तथा स्त्री पुरुषों की भव्य आकृतियाँ खजुरोहो की भान्ति नक्काशी गयी हैं। मूर्ति स्थापना की विशेषता है कि बाहर से ही सूर्य की किरणेसूर्य देवता की प्रतिमा कोप्रातः, सायं और दोपहर को पूर्णत्या प्रकाशित करती हैं। इस भव्य मन्दिर के अवशेष आज भी अपनी लाचारी बयान कर रहै हैं।
  • मोढेरा सूर्य मन्दिर गुजरात में पशुपवती नदी के तट पर स्थित है जिस की पवित्रता और भव्यता का वर्णन सकन्द पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। इस स्थान का नाम धर्मारण्य था। रावण वध के पश्चात भगवान राम ने यहाँ पर यज्ञ किया था और कालान्तर 1026 ईस्वी में सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम नें मोढेरा सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था। मन्दिर में कमल के फूल रूपी विशाल चबूतरे पर सूर्य की ऱथ पर आरूढ सुवर्ण की प्रतिमा थी। मन्दिर परिसर में ऐक विशाल सरोवर तथा 52 स्तम्भों पर टिका ऐक मण्डप था। 52 स्तम्भ वर्ष के सप्ताहों के प्रतीक हैं। स्तम्भों तथा दीवारों पर खुजुरोहो की तरह की आकर्षक शिल्पकला थी। शिल्पकला की सुन्दरता का आँकलन देख कर ही किया जा सकता है। आज यह स्थल भी हिन्दूओं की उपेक्षा का प्रतीक चिन्ह बन कर रह गया है।
  • मुलतान (पाकिस्तान) में भी कभी भव्य सूर्य मन्दिर था। मुलतान विश्व के प्राचीनतम् दस नगरों में से ऐक था जिस का नाम कश्यप ऋषि के नाम से कश्यपपुर था। इस नगर को प्रह्लाद के पिता दैत्य हरिण्यकशिपु ने स्थापित किया था। इसी नगर में हरिण्यकशिपु की बहन होलिका ने प्रह्लाद गोद में बिठा कर उसे जलाने का यत्न किया था परन्तु वह अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। कश्यपपुर महाभारत काल में त्रिग्रतराज की राजधानी थी जिसे अर्जुन ने परास्त किया था। पश्चात इस नगर का नाम मूल-स्थान पडा और फिर अपभ्रंश हो कर वह मुलतान बन गया। सूर्य के भव्य मन्दिर को महमूद गज़नवी ने ध्वस्त कर दिया था।

भारत से बाहर भी कुछ अवशेष भारतीय वास्तु कला की समृद्धि की दास्तान सुनाने के लिये प्रमाण स्वरूप बच गये थे। अंगकोर (थाईलैण्ड) मन्दिर ऐक विश्व स्तर का आश्चर्य स्वरूप है। भारतीय सभ्यता ने छः शताब्दियों तक ईरान से चीन सागर, साईबेरिया की बर्फानी घाटियों से जावा बोरनियो, और सुमात्रा तक फैलाव किया था और अपनी भव्य वास्तुकला, परम्पराओं, और आस्थाओ से धरती की ऐक चौथाई जनसंख्या को विकसित कर के प्रभावित किया था। 

राजपूत काल

झाँसी तथा ग्वालियार के मध्य स्थित दतिया और ओरछा के राजमहल राजपूत काल के उत्कर्ष नमूने हैं। यह भवन सिंगल यूनिट की तरह हैं जो तत्कालिक मुग़ल परम्परा के प्रतिकूल है। दतिया के नगर में यह भव्य महल प्राचीन काल की भव्यता के साक्षी हैं। महल की प्रत्येक दीवार 100 गज लम्बी चट्टान से सीधी खडी की गयी है। यह निर्णय करना कठिन है कि मानवी कला और प्राकृति के बीच की सीमा कहाँ से आरम्भ और समाप्त होती है। सभी ओर महानता तथा सुदृढता का आभास होता है। क्षतिज पर गुम्बजों की कतार उभर कर इस स्थान के छिपे खजानों के रहिस्यों का प्रमाण देती है। 

ओरछा के समीप खजुरोहो के मन्दिर विश्व से पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह भारत की अध्यात्मिक्ता, भव्यता, तथा विलास्ता के इतिहास के मूक साक्षी हैं। हाल ही में ऐक देश भक्त ने निजि हेलीकोप्टर किराये पर ले कर महरोली स्थित कुतुब मीनार के ऊपर से फोटो लिये थे और उन चित्रों को कई वेबसाईट्स पर प्रसारित किया था। ऊपर से कुतुब मीनार ऐक विकसित तथा खिले हुये कमल की तरह दिखता है जिसे पत्थर में तराशा गया है। उस की वास्तविक परिकल्पना पूर्णत्या हिन्दू चिन्ह की है।

समुद्र पर पुल बाँधने का विचार भारत के लोगों ने उस समय किया जब अन्य देश वासियों को विश्व के मभी महा सागरों का कोई ज्ञान नहीं था।  इस सेतु को अमेरिका ने चित्रों को माध्यम से प्रत्यक्ष भी कर दिखाया है और इस को ऐडमेस-ब्रिज (आदि मानव का पुल) कहा जाता है किन्तु विश्व की प्राचीनत्म धरोहर रामसेतु को भारत के ही कुछ कलंकित नेता घ्वस्त करने के जुगाड कर रहै थे। भारत सरकार में इतनी क्षमता भी नहीं कि जाँच करवा कर कह सके कि राम सेतु मानव निर्मित है य़ा प्रकृतिक। हमारी धर्म-निर्पेक्ष सरकार मुगलकालीन मसजिदों के सौंदर्यकरण पर खर्च कर सकती है लेकिन हिन्दू मन्दिरों पर खर्च करते समय ‘धर्मनिर्पेक्षी-विवशता’ की आड ले लेती है।

चाँद शर्मा

 

37 – ज्योतिष विज्ञान


ज्योतिष विद्या को वेदाँग माना गया है। सौर मण्डल के ग्रहों का प्रभाव हमारे शरीर, और विचारों पर पडना ऐक ऐसा वैज्ञानिक सत्य है जिस से इनकार नहीं किया जा सकता। विचारों के अनुसार ही कर्म होते हैं जिन के फल जीवन में सुख दुःख का कारण बनते हैं। ऋषियों नें ग्रहों के प्रभाव को जीवन की घटनाओं के साथ जोडने और परखने के लिये ज्योतिष ज्ञान रचा था।

कालान्तर भविष्यवाणियाँ करने का कार्य मुख्यता ब्राह्मणों का व्यवसाय बन गया। समय के साथ जीवन में सुख वृद्धि और दुःख निवार्ण के उपचार के लिये इस विद्या में सत्यता और प्रमाणिक्ता के अतिरिक्त वहम, आडम्बर और अविशवास भी जुडते  गये। आज विश्व में कोई भी सभ्यता ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, अंक विशलेष्ण, ओकल्ट (भूत प्रेत) टोरोट कार्ड, और कई प्रकार के जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, टोनें, टोटकों, तथा रत्नों के प्रयोग से अछूती नहीं है। आजकल प्रसार के सभी माध्यमों पर असला-नकली ज्योतिषियों की भरमार देखी जा सकती है।

ज्योतिष शास्त्र

भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार सभी ग्रहों का प्रभाव जीवों पर सदा ऐक जैसा नहीं रहता बल्कि जन्म समय के ग्रहों की आपसी स्थिति के अनुसार घटता बढता रहता है। ग्रह अपना सकारात्मिक या नकारात्मिक प्रभाव डालते रहते हैं। प्रत्येक मानव का व्यक्तित्व सकारात्मिक तथा नकारात्मिक प्रभावों का सम्मिश्रण बन कर विकसित होता है। ग्रहों के हानिकारक प्रभावों को ज्योतिषी उपचारों से लाभकारी प्रभाव में बदला जा सकता है। यह तर्क ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी के शरीर में होमोग्लोबिन की मात्रा कम हो तो उसे विशेष पौष्टिक आहार या व्यायाम करवा कर उस का उपचार किया जा सकता है।

भारतीय ज्योतिष की प्रमाणिक्ता

भिन्न भिन्न देशों में भविष्यवाणियों सम्बन्धी अपने अपने आधार हैं। चीन के ज्योतिषी जन्म समय के बजाय जन्म वर्ष को आधार मानते हैं। उन के अनुसार वर्षों में कई भाग भिन्न भिन्न जानवरों की मनोस्थिती को व्यक्त करते हैं और उस भाग में पैदा हुये सभी मानवों में भाग की अभिव्यक्ति करने वाले जानवरों जैसे मनोभाव हों गे। पाश्चात्य ज्योतिषी सभी गणनाओं में सूर्य को केन्द्र मान कर अन्य ग्रहों की स्थिति का विशलेषण करते हैं, किन्तु भारतीय पद्धति में सूर्य के स्थान पर चन्द्र को अधिक महत्व दिया गया है क्यों कि पृथ्वी का निकटतम ग्रह होने के काऱण चन्द्र मनोदशा पर सर्वाधिक प्रभावशाली होता है।

भारत के खगोल शास्त्रियों को ईसा से शताब्दियों पूर्व 27 नक्षत्रों, सात ग्रहों तथा 12 राशियों की जानकारी प्राप्त थी। प्रत्येक राशि में जन्में लोगों में भिन्न रुचियाँ और क्षमताये होती हैं जो अन्य राशि के लोगों को अपने अपने प्रभावानुसार आकर्शित या निष्कासित करती हैं।

पृथ्वी धीरे धीरे अपनी धुरी पर झुकती रहती है जिस कारण पृथ्वी तथा सूर्य की दूरी प्रत्येक वर्ष लगभग 1/60 अंश से कम होती है। आज कल यह झुकाव 23 अँश है जो ऐक सम्पूर्ण नक्षत्र के बराबर है। इन नक्षत्रों की गणना चन्द्र दूारा पृथ्वी की परिकर्मा पर आधारित है जो चन्द्र अन्य तारों की अपेक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गणना का आधार उस की जन्म तिथि, समय तथा स्थल पर निर्भर करता है। भारतीय ज्योतिष उन्हीं ग्रहों के प्रभाव का आँकलन मानव की प्रकृति, मानसिक्ता तथा शरीरिक क्षमताओं पर करता है। कर्म क्षमताओं के आधार पर होंते हैं और कर्मों पर भविष्य निर्भर करता है। अतः व्यक्ति के जन्म समय के नक्षत्रों की दशा जीवन के सभी अंगों को प्रभावित करती रहती है। ग्रहों के प्रभाव को अनुकूल करने में रत्न आदि उस के सहायक होते हैं।

भारत वासियों ने प्राचीन काल से ही सौर मण्डल के प्रभाव को जन जीवन की घटनाओं तथा रस्मों के साथ जोड लिया था। भारतीय ज्योतिष ज्ञान वास्तव में सृष्टि की प्राकृतिक ऊर्जाओं के प्रभावों का विज्ञान है। मानव कई ऊर्जाओं का मिश्रण ही है। परिस्थितियों पर ग्रहों के आकर्षण, भिन्न भिन्न कोणों तथा मात्राओं का प्रभाव भी पडता रहता हैं। उन्हीं असंख्य मिश्रणों के कारण ही ऐक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शरीरिक, मानसिक तथा वैचारिक क्षमताओं में भिन्न होता है। भारत का ज्योतिष शास्त्र विश्व में सर्वाधिक प्रमाणित है जिस का आधार भारतीय खगौलिक गणनायें हैं। 

भृगु संहिता

जन्म कुण्डलियों की लगभग सभी सम्भावनाओं की गणना कर के भृगु ऋषि ने ‘भृगु-संहिता’ ग्रंथ की रचना करी थी। कालान्तर सम्पूर्ण मूल ग्रंथ लुप्त हो गया। उस ग्रंथ के कुछ पृष्ट आज भी कई भविष्यवक्ता परिवारों की पैत्रिक सम्पत्ति बन चुके हैं जो भारत में कई जगह बिखरे हुये हैं। सौभाग्यवश यदि किसी की जन्म कुण्डली के ग्रह भृगु-संहिता के अवशेष पृष्टों से मिल जायें तो ज्योतिषी उस व्यक्ति के ना केवल वर्तमान जीवन की घटनायें बता देते हैं बल्कि पूर्व और आने वाले जन्मों की भविष्यवाणी भी कर देते हैं। इस क्षेत्र में नकली पृष्टों और भविष्यवक्ताओं का होना भी स्वभाविक है।

इस सम्बन्ध में ऐक रोचक उल्लेख है। ऐक बार मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पास काशी से ऐक ज्योतिषी आया जिसे शाहजहाँ ने परखने के लिये कुछ आदेश दिये। आदेशानुसार ज्योतिषी ने गणना करी और अपनी भविष्यवाणी ऐक कागज़ पर लिख दी। वह कागज़ बिना पढे ऐक संदूक में ताला लगा कर बन्द कर दिया गया तथा ताले की चाबी शाहजहाँ नें अपने पास रख ली। इस के उपरान्त रोज़ मर्रा की तरह शाहजहाँ अपनी राजधानी दिल्ली के चारों ओर बनी ऊँची दीवार के घेरे से बाहर निकल कर हाथी पर घूमता रहा। उस ने कई बार नगर के अन्दर वापिस लौटने का उपक्रम किया परन्तु दरवाजों के समीप पहुँच कर अपना इरादा बदला और घूमता रहा। अन्त में उस ने ऐक स्थान पर रुक कर वहाँ से शहरपनाह तुडवा दी और नगर में प्रवेश किया। किले में लौटने के पश्चात तालाबन्द संदूक शाहजहाँ के समक्ष खोला गया। जब भविष्यवाणी को खोल कर पढा गया तो शाहजहाँ के आश्चर्य कि ठिकाना नहीं रहा। लिखा था – आज शहनशाह ऐक नये रास्ते से नगर में प्रवेष करें गे।   

कर्म प्रधानता का महत्व

हिन्दू धर्म कभी भी केवल भाग्य पर भरोसा कर के व्यक्ति को निष्क्रय हो जाने का उपदेश नहीं देता बल्कि व्यक्ति को सदा पुरुषार्थ करने कि लिये ही प्रोत्साहित करता है। कर्म करने पर मानव का अधिकार है परन्तु फल देने का अधिकार केवल ईश्वर का है। अतः हताश और निराश होने के बजाय जो भी फल मिले उस को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार करना चाहिये। परिश्रम करते रहना ही कर्म का मार्ग है।

हस्त रेखा विज्ञान

ज्योतिष से ही संलग्ति हस्त रेखा विज्ञान भी भारत में विकसित हुआ था। इस के जनक देवऋषि नारद थे। ऋषि गौतम, भृगु, कश्यप, अत्रि और गर्ग भी इस ज्ञान का अग्रज थे। महाऋषि वाल्मिकि ने इस ज्ञान पर 567 पद्यों की रचना भी की थी। वराहमिहिर ने भी अपने खगौलिक ग्रंथ में हस्त रेखा विज्ञान पर अपना योगदान दिया है।

हस्त रेखा विज्ञान के मुख्य प्राचीन ग्रंथ ‘सामुद्रिक-शास्त्र’, ‘रावण-संहिता’ तथा ‘हस्त-संजीवनी’ हैं जो आज भी उपलब्द्ध हैं। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व, भारत से यह विद्या चीन, तिब्बत, मिस्र, मैसोपोटामियां (इराक) तथा इरान में गयी थी। उन्हीं देशों के माध्यम से फिर आगे वह यूनान और अन्य योरुपीय देशों में फैली। सभी देशों में हस्त रेखाओं की पहचान भारत के अनुरूप ही है परन्तु विशलेषण की मान्यताओं में  भिन्नता होनी स्वाभाविक है।

अरुण-संहिता

संस्कृत के इस मूल ग्रंथ को अकसर ‘लाल-किताब’ के नाम से जाना जाता है। इस का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। मान्यता है कि इस का ज्ञान सूर्य के सार्थी अरुण ने लंकाधिपति रावण को दिया था। यह ग्रंथ जन्म कुण्डली, हस्त रेखा तथा सामुद्रिक शास्त्र का मिश्रण है और जिन व्यक्तियों को अपनी जन्म कुण्डली की सत्यता पर भरोसा ना हो तो वह अरुण-संहिता के ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की बाधाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ग्रंथ उन देशों में अधिक लोकप्रिय हुआ जहाँ जन्म कुण्डली बनाने का रिवाज नहीं था।

हाथ की लकीरों का अध्यन कर के मानव के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का सही आंकलन किया जा सकता है क्यों कि हस्त रेखाओं का उदय प्रत्येक व्यक्ति के जन्म समय नक्षत्रों के प्रभाव के अनुसार होता है। इस तथ्य को आज विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि विश्व में दो व्यक्तियों की हस्तरेखाओं में पूर्ण समानता नहीं होती। इसी लिये सुरक्षा के निमित पहचान पत्र बनाने के लिये आज बायोमैट्रिक पहचान प्रणाली को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। 

जन्म समय के ग्रहों की स्थिति और दशा हाथ पर जो प्राकृतिक मानचित्र बना देती हैं उसी के आधार पर शरीर में भावनाओं और क्षमताओं का विकास होता है। प्राकृति ने मानव के चेहरों, हाथों और शारीरिक अंगों में इतने प्रकार बना दिये हैं जिन के आधार पर ऐक मानव आचार विचार में दूसरे से भिन्न है।

स्त्री पुरुषों के शारीरिक अंगों का विशलेषण कर के ऋषि वात्सायन ने उन का वर्गीकरण किया था। मान्यता है कि ऊँची नाक वाले लोग घमण्डी होते है, छोटे मस्तक वाले मन्द बुद्धि होते हैं। तथा इस प्रकार के अंग विशलेष्ण नाटकों, चलचित्रों आदि के माध्यम मे पात्रों के चरित्र का बखान उस के बोलने या क्रियात्मिक होने से पहले ही कर देते हैं। इस विज्ञान को अंग्रेजी में फ्रैनोलाजी का नाम दिया गया है जिस के आधार पर नाटकों और चलचित्रों में पात्र का मेकअप निर्धारित किया जाता है। 

रत्न-विज्ञान

भारत में ज्योतिष विज्ञान तथारत्न-विज्ञान दोनों साथ साथ ही विकसित हुये। विश्व में सर्व प्रथम हीरों की खदानों का काम भारत में ही आरम्भ हुआ था। महऋषि शौणिक ने हीरों की विशेषताओं के आधार पर उन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जिन के नाम खनिजः, कुलजः, शैलजः तथा कृतिकः रखे गये।

रत्न प्रदीपिका – रत्न प्रदीपिका ग्रंथ में हीरों, मोतियों तथा अन्य नगीनों की विस्तरित जानकारी दी गयी है। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में बोरेक्स, लवणों, फिटकरी तथा ओश्रा के माध्यम से कृत्रिम हीरे बनाने का भी वर्णन है।

अर्थशास्त्र – कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में हीरों की व्याख्या करते लिखा है कि हीरे आकार में बडे तथा बहुत कडे होते हैं जो समानाकार में खुरचने में सक्षम तथा आघात सहने में भी सक्षम होते हैं। वह अत्यन्त चमकदार होते हैं और धुरी (स्पिंडल) की भान्ति तेज़ी से घूम सकते

हीरों के अतिरिक्त भारतीयों को अन्य रत्नों की विशेषताओं के बारे में भी विस्तरित जानकारी थी जिन का प्रयोग आभूषण बनाने के अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जाता था। रत्नों के धारण करने से कई प्रकार की मानसिक तथा शरीरिक दुर्बलताओं का उपचार भी किया जाता था। शरीर के भिन्न भिन्न अंगों पर आभूषणों में जड कर रत्न पहनने से ग्रहों के दुष्प्रभाव को घटाया तथा अनुकूल प्रभाव को बढाया भी जा सकता था। आज भी विश्व भर में लोग कई तरह के रत्न इसी कारण पहनते हैं। महाभारत में पाँडवों ने अश्वथामा के माथे से जब नीलम मणि को दण्ड स्वरूप उखाडा था तो अश्वथामा का समस्त तेज नष्ट हो गया था। 

भिन्न भिन्न नगों को भिन्न भिन्न देवी देवताओं के प्रभाव के साथ जोडा जाता है तथा यह दुष्प्रभाव को घटा कर उचित प्रभाव को प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह ज्ञान विज्ञान तथा आस्था के क्षेत्र का संगम है।

ज्योतिष ज्ञान व्यक्ति की प्रकृति की भविष्यवाणी करता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के संस्कार मातापिता से जन्म समय ग्रहण करता है किन्तु प्रकृति को शिक्षा, ज्ञान, तप, साधना वातावरण, कर्म तथा इच्छा शक्ति से परिवर्तित भी किया जा सकता है। कर्म सुधारने से फल भी संशोधित हो जाता है। भविष्यवाणियों को चेतावनी के तौर पर मानना चाहिये और समय रहते उचित कर्म कर के आने वाली विपत्ति के असर को कम किया जा सकता है। मानव को भविष्यवाणियों के आधार पर ना तो दुस्साहसी होना चाहिये और ना ही डर कर निराश हो जाना चाहिये।

चाँद शर्मा

25 – सती तथा भ्रूण हत्या


हिन्दू समाज में प्रत्येक जीवित पतिवृता स्त्री जो अपने सतीत्व की रक्षा करती है वह ‘सती ’ कहलाती है। पौराणिक कथा नायिका सावित्री ने अपने पति सत्यवान के जीवन को यमराज से छुडवा कर अपने स्तीत्व की रक्षा की थी, जिस कारण सावित्री को उस के जीवन काल में ही सती की गौरवशाली उपाद्धि प्राप्त हो गयी थी। आदर स्वरूप हिन्दू समाज में प्रत्येक चरित्रवान पत्नि को पति के जीवन काल में ही ‘सती सावित्री ’ अथवा ‘सती-साध्वी’ कहा जाता है।

सती प्रथा

भगवान शिव की पत्नी का भी तथा-कथित सती प्रथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। संक्षिप्त में, शिवपुराण अनुसार दक्ष प्रजापति की ऐक सौ कन्यायें थीं। उन में से सब से छोटी कन्या का नाम ही ‘सती ’ था। सती ने राजा दक्ष की स्वीकृति के बिना भगवान शिव से विवाह कर लिया था जिस के कारण दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिये एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया गया था। सती शिव की स्वीकृति के बिना ही, उस यज्ञ को देखने के लिये अपने पिता राजा दक्ष की यज्ञशाला में चली गयी थी। राजा दक्ष नें यज्ञशाला में सती की पूर्णत्या अनदेखी की। यह अपमान सती से सहा नहीं गया और उस ने क्षुब्ध हो कर यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने प्राणों की आहूति दे डाली। वह पति की चिता पर जलायी नहीं गयी थी।

इस वृतान्त से प्रथम तथ्य तो यह उजागर होता है कि यदि कन्या हत्या का चलन हिन्दू धर्म में होता तो दक्ष प्रजापति की कन्याओं की संख्या ऐक सौ तक कभी ना पहुँचती। दूसरा, सती ने अपने प्राणों का अन्त अपने पति के जीवन काल में ही किया था और इसे विधवा को जलाने वाली कुप्रथा के साथ नहीं जोडा जा सकता। इस कथा का उद्देष्य केवल विवाहित स्त्रियों का मार्ग दर्शन करना है कि विवाह के पश्चात उन्हें अपने पिता के घर भी बिन बुलाये और अपने पति के बिना अकेले नहीं जाना चाहिये। यह केवल सामान्य शिष्टाचार की परम्परा निभाने की बात है।  

ऐतिहासिक ग्रंथों के प्रमाण

चारों वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, महाकाव्यों तथा मनुसमृति – किसी भी धर्म ग्रंथ में सती प्रथा की आड में विधवाओं को चिता में झोंकने का कोई प्रावधान नहीं है। रामायण तथा महाभारत दोनो महा काव्यों में भी सती कुप्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। निम्नलिखित तथ्य इस सत्य को प्रमाणित करते हैं –

  • राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात उन की तीन रानियों में से कोई भी सती नहीं हुयी थी।
  • किष्कन्धा नरेश बाली की मृत्यु के पश्चात उस की पत्नि – रानी तारा का विवाह बाली के छोटे भाई सुग्रीव से कर दिया गया था। अतः यह तथ्य विधवा को जला कर मारने के बजाय पुनर्विवाह कर के पत्नि को व्यवस्थापित रह कर जीने का प्रावधान दर्शाता है।
  • रावण के वध पश्चात उस की रानी मन्दोदरी या अन्य कोई भी रानी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी। 
  • हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की मृत्यु के पश्चात उस की नव-विवाहिता पत्नी सत्यवती भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • जब शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य और चित्रांगद की मृत्यु हुयी तो उन की पत्नीयां भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • महाभारत में केवल ऐक उल्लेख है – जब वनवास में राजा पान्डु की मृत्यु हुयी तो उस की छोटी रानी माद्री ने अपने आप को पान्डु की मृत्यु का कारण समझा और इसी आत्म ग्लानि के कारण ही उस ने भी पान्डु की चिता में बैठ कर अपने जीवन का अन्त कर लिया था। इस घटना को सती कहने के बजाय ‘आत्महत्या ’ कहना उचित हो गा। यदि इसे सती प्रथा का नाम दिया जाय तो बड़ी रानी कुन्ती को भी अग्नि में जल कर सती होना चाहिये था। इस उल्लेख के अतिरिक्त महाभारत में जहाँ लाखों पुरुषों ने वीरगति पायी, परन्तु पति की चिता के साथ किसी भी पत्नि के सती होने का कोई वर्णन नहीं है। एक सौ कौरव राजकुमारों में से किसी ऐक की पत्नी भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।  

ऊपरलिखित तथ्यों के प्रमाण के विपरीत सती का दुष्प्रचार केवल हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये ही किया जाता है। अगर कोई अपने निजि परिवारों को ही देखे तो पता चले गा कि वहाँ भी किसी विधवा स्त्री को जीवित नहीं जलाया गया होगा।

स्त्री जलन का चलन 

कोलम्बिया इनसायक्लोपीडिया के अनुसार मृत पति के साथ उस की चहेता पत्नी को जलाने की कुप्रथा का उल्लेख भारत से बाहर के देशों में पाया जाता है। उन उल्लेखों के अनुसार थ्रेशियन, स्किथियन, सकेनडनेवियन, प्राचीन मिस्र, चीन, ओशियाना तथा अफ्रीका में ऐसे रिवाज थे।

भारत में मौर्य तथा गुप्त वंश के काल में भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुप्रथा कुशान वंश के समय भारत में विदेशों से आयी तथा मध्य काल में राजपूत वँशो तक सीमित रही। ऱाजपूत अकसर लम्बे समय तक युद्धों में व्यस्त रहते थे। विदेशी अक्रान्ता विजयी होने के पश्चात स्त्रियों के साथ जीवन पर्यन्त बलात्कार करते थे। इस दुर्दशा के विकल्प स्वरूप ‘जौहर’ की प्रथा राजपूत परिवारों में अपनायी गयी जो कि उस समय की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यक्ता थी। पति के वीरगति पाने की सम्भावना के केवल विचार मात्र से ही वीरांग्ना राजपूत पत्नियों ने स्वेच्छा से अग्नि प्रवेश कर के अपने सतीत्व की रक्षा करने में अपना गौरव समझतीं थीं। जब महलों के प्राँगण में स्त्रियाँ जौहर की रस्म करतीं थी, तो उस के साथ ही रण भूमि पर शत्रुओं की विशाल सैना के सामने राजपूत केसरिया वस्त्र पहन कर ‘साका’ की रस्म अदा करते थे और धर्म तथा स्वाभिमान की खातिर युद्ध कर के शत्रु के सामने झुकने के बजाय अपनी आत्म बलि देते थे।

रानी पद्मनी का ‘जौहर’ भी सती होना नहीं था। वह जौहर था। रानी पद्मनी किसी धार्मिक कारण से अपनी सखियों के साथ चिता में नही बैठी थीं अपितु अपने स्तीत्व और आदर्शों की रक्षा के कारण ऐसे साहसी कदम को उठाने के लिये उद्यत हुयी थीं। जौहर प्रथा को राजपूतों ने इस लिये सम्मानित करना आरम्भ किया था ताकि नव-विवाहित युवतियाँ प्रोत्साहित हो कर अग्नि में स्वेच्छा से प्रवेश कर सके और पति की मृत्यु पश्चात अपमान जनक जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से अपने आप अपने स्तीत्व की रक्षा कर सकें। वास्तव में यह उन शूरवीर पत्नियों के लिये ऐसी गौरवमयी मिसाल है जिस की तुलना विश्व इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।

सती कुप्रथा का ढोल केवल भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये पी़टा जाता है। भारत के कुछ प्राँतों में जहाँ ब्रिटिश शासन था वहाँ मृत व्यक्ति की पत्नी को पति के साथ जला कर सम्पति हडपने के लिये विधवा स्त्री को सती के नाम से जलाने की कुप्रथा चल पड़ी थी जिस का हिन्दू धर्म से कुछ सम्बन्ध नही था। लेकिन फिर भी यह हिन्दू समाज सुधारकों के लिये सांत्वना की बात है कि उस कुप्रथा को बन्द करने के लिये राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू समाज सुधारक ही आगे आये थे। बाहर के लोगों के कारण इस प्रथा का उनमूलन नहीं हुआ था। आज इस कुप्रथा का उल्लेख हि्न्दू विधवाओं के लिये केवल ऐक दुःखद स्मृति चिन्ह है।

कन्या शिशु हत्या

कन्या शिशु हत्या के दुष्प्रचार को ले कर भी हिन्दू समाज को इस प्रकार की निराधार आलोचना के कारण शर्मिन्दा होने या बचाव मुद्रा में जाने की जरूरत नहीं है क्यों कि वास्तविक तथ्य इस आरोप के विपरीत हैं।

  • हमारे महाकाव्यों, पुराणों, साहित्य, जातक कथाओं, पँचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी या किसी भी अन्य पुस्तक में ऐक भी वृतान्त उल्लेखित नही जो कन्या भ्रूण हत्या या कन्या शिशु हत्या की घटना का साक्षी हो।
  • यदि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथा हिन्दू समाज में प्रचिल्लत होती तो सीता, द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, शकुन्तला, जीजाबाई जैसी महिलायें हमारे इतिहास में ना आतीं। यह सभी कन्यायें अपने अपने माता पिता के घरों में प्यार दुलार से पाली गयीं थीं।
  • हिन्दू समाज में माता-पिता विवाह के समय कन्यादान करना ऐक पवित्र और पुन्य कर्म मानते हैं। अतः इस प्रकार की मानसिक्ता रखने वाले हिन्दू माता-पिता कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप का समर्थन कदापि नहीं कर सकते।
  • परिवार नियोजन के लिये हिन्दू धर्म तो गर्भपात का ही विरोध करता रहा है और संयम पर बल देता रहा है। पुत्री तथा पुत्रियों को अनचाहे कह कर गर्भपात के तरीके से हत्या की कुप्रथा पाश्चात्य समाज की देन है जो संयम में विशवास नही रखते  और अपने आप को माडर्न समझते हैं।
  • महिलाओं के लिये विविध प्रकार के प्राचीन कालिक वस्त्राभूष्ण, सौन्दर्य प्रसाधन, सुगन्धित द्रव्य इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को प्रेम दुलार से सजा कर पाला जाता था और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घृणित बात सोचना भी कठिन था।
  • माता पिता विवाह के समय अपनी बेटियों को स्वेच्छा से दहेज में धन, सम्पत्ति आदि देते हैं। वह किसी आर्थिक कारण से भी बेटी को बोझ नहीं समझते। कुछ नीच लोग दहेज की माँग करते हैं परन्तु हिन्दू धर्म उन का समर्थन कभी नहीं करता।
  • रक्षाबन्घन का पर्व समस्त भारत में भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है। ऐसा त्योहार किसी अन्य मानवी समाज में नहीं मनाया जाता। फिर इन परम्पराओं को स्वेच्छा से मानने वाला समाज कन्या भ्रूण हत्या का समर्थन कभी नहीं करे गा।

कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा भारत के कुछ भागों में इस्लामी शासन काल में उभरी थी। ‘महान’ कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह अकबर ने जब अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण राजपूत परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ किये तो बदले में मुग़लों को भी राजपूत परिवारों में बेटियाँ ब्याहनी ज़रूरी थीं। यदि मुगल शाहजादियों के विवाह राजपूतों के साथ होते तो मुगल बादशाहों को राजपूत जमाईयों के लिये मुगल शाहजादों के समान दर्जा भी देना पडना था। इस से बचने के लिये धूर्त ‘अकबर महान’ ने मुगल शाहजादियों के विवाह पर ही रोक लगा दी थी। मुगल शाहजादियों के विवाह पर प्रतिबन्ध अकबर के काल से आरम्भ हो कर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक रहा क्यों कि अकबर की तरह राजपूतों से इकतरफा वैवाहिक सम्बन्ध उन्हों ने भी बनाये रखे थे। शाहजहाँ की दोनों पुत्रियाँ जहाँ आरा और रौशन आरा अविवाहित जीवन जीती रहीं थी। औरंगजेब को राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध रखने की चाह नहीं थी अतः उस ने मुगल शाहजादियों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया था। ‘अकबर महान’ का निर्णय अमानवी और धूर्ततापूर्ण था। सम्भव है कि कई मुगल शाहजादियों की जन्म समय हत्या भी किले के तहखानों में करी जाती होगी जिस से प्रेरणा पा कर कुछ राजपूत सामन्तों ने भी बेटी मुगलों को देने के बजाये उन की हत्या करना आधिक सम्मान जनक समझा हो। कुछ भी हो हिन्दू समाज इस प्रकार की घृणित प्रथा का समर्थन नहीं करता।

आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण गर्भपात जैसी अमानवीय कुप्रथाओं का चलन है। कुछ कमीने लोग लिंग जाँच करवाने के पश्चात कन्या भ्रूण की हत्या भी करवाते हैं किन्तु इस प्रकार की कुप्रथाओं का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म प्रचारक इस का स्दैव विरोध करते हैं। इन कुकर्मों को हिन्दू समाज का धार्मिक या सामाजिक समर्थन नहीं है।  

विश्व सभ्यता का सूत्रधार  

हिन्दू समाज को दुष्प्रचार से भयभीत अथवा त्रास्त होने के बजाये तथ्यों के आधार पर दुष्प्रचार का खण्डन करना चाहिये और यदि कोई हिन्दू इस प्रकार का घृणित काम निजि तौर पर करे तो उस का पूर्णत्या बहिष्कार भी करना चाहिये।

चाँद शर्मा

 

 

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