62 – कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद
देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। वैसे तो इतिहास के पृष्टों पर इस्लामिक तथा इसाई अत्याचारों की, और देश भक्तों की कुर्बानियों की अनगिनित अमानवीय घटनायें दर्ज हैं किन्तु यहाँ केवल उन शहीदों का संक्षिप्त उल्लेख है जिन्हें आज भी “धर्म-निर्पेक्ष” हिन्दू समाज ने मुस्लमानों की नाराजगी के कारण से उपेक्षित कर रखा है और आने वाली पीढियाँ उन के नामों से ही अपरिचित होती जा रही हैं।
1 – सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय
प्रारम्भिक जीवन – हेम चन्द्र का जन्म सन 1501 में ऐक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन के पिता राय पूर्ण दास यजमानों के लिये कर्म काण्ड तथा पूजा पाठ कर के अपनी जीविका दारिद्रता से चलाते थे।आखिरकार उन्हों ने जाति व्यवसाय के बन्धन तोड दिये और ब्राह्मण जीविका के बदले रिवाडी के समीप कुतबपुर शहर में व्यापार दूारा अपने परिवार की जीविका चलाने लगे। उन के पुत्र ‘हेमू’ (हेम चन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उस ने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुडसवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरु किया। पिता सुलतान शेरशाह सूरी के लशकर को अनाज बेचते थे। अपनी योग्यता तथा इमानदारी से हेमू ने भी वहीं अपनी पहचान बना ली।
यह वह समय था जब शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पराजित कर के ईरान पलायन के लिये मजबूर कर दिया था। शेरशाह सूरी की मृत्यु 1545 में हो गयी। उस के पश्चात उस का पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस्लामशाह ने हेम चन्द्र को अपना सलाहकार तथा दारोग़ा चौकी तैनात कर दिया।
इस्लामशाह का उत्तराधिकारी आदिलशाह सूरी था। योग्यता तथा इमानदारी के कारण हेंम चन्द्र आदिलशाह सूरी का भी अति विशवसनीय बन गया था। उस ने हेमचन्द्र को अपना ‘वजीर-ए-आला’ नियुक्त किया और साथ ही उसे अफगान फौज का सिपहसालार भी बना दिया। आदिलशाह सूरी आराम प्रस्त, व्यसनी, और विलासी था इस लिये प्रशासन का पूरा कार्यभार हेमचन्द्र ही सम्भालता था। आदिलशाह सूरी के कई अफगान सरदारों ने विद्रोह किये जिसे दबाने के लिये हेमचन्द्र उत्तरी भारत के कई प्राँतों में गया। वह हिन्दूओं के अतिरिक्त अफगानों में लोकप्रिय था।
हिन्दू साम्राज्य की पुनर्स्थापना – हुमायूँ ने ईरान के बादशाह की मदद से 15 वर्ष के निष्कासन के बाद जुलाई 1555 में पंजाब, देहली और आगरा पर पुनः कब्जा कर लिया किन्तु छः महीने पश्चात 26 जनवरी 1556 को उस की मृत्यु हो गयी। उस समय हेमचन्द्र बँगाल में था। अफगान अपने आप को स्थानीय तथा मुगलों को अक्रान्ता समझते थे। हुमायूँ की अकस्माक मृत्यु ने हेमचन्द्र को अफगानों की अगुवाई करते हुये मुगल सत्ता को उखाड फैंकने का अवसर प्रदान कर दिया। उस ने बँगाल से दिल्ली की ओर कूच किया और मार्ग में सभी छोटे बडे युद्ध विजय करता आया। मुगल किलेदार घबरा कर इधर उधर भाग गये। ऐक के बाद ऐक, हेमचन्द्र ने 22 विजय प्राप्त कीं तथा समस्त मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश उस की आधीनता में आ गये। 6 अकतूबर 1556 को हेमचन्द्र ने दिल्ली पर भी अपना अधिकार कर लिया और मुगल सैना अपने सेनापति ताडदी बैग के साथ दिल्ली छोड कर भाग गयी।
हेमचन्द्र ने अपने आप को सम्राट घोषित किया तथा ‘विक्रमादूतीय’ की उपाधि धारण की। इन्द्रप्रस्थ (पुराने किला) के सिंहासन पर उस का राज्याभिषेक समारोह 7 अकतूबर 1556 को हुआ जिस में हिन्दू तथा अफगान सैनापति ऐकत्रित हुये थे। इस प्रकार सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पश्चात सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने चार शताब्दी पुराने मुसलिम शासन को समाप्त कर के ऐक बार फिर दिल्ली में हिन्दू साम्रज्य की स्थापना की।
प्रशासनिक सुधार – शेरशाह सूरी के काल से ही हेमचन्द्र प्रशासनिक सुधारों के साथ संलग्न थे जिन का श्रेय इतिहासकार शारशाह सूरी को देते हैं। सत्ता सम्भालते ही सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने प्रशासन के तन्त्र में तुरन्त सुधार करने की योजनाओं को पुनः क्रियावन्त किया तथा दोषियों को दण्डित किया। उन्हीं के बनाये हुये तन्त्र को मुगल बादशाह अकबर ने कालान्तर अपनाया था।
हिन्दूओं की अदूरदर्शिता – जब दिल्ली में हुमायूँ की मृत्यु हुई थी, उस समय उस का 16 वर्षीय पुत्र अकबर अपने उस्ताद बैरमखाँ के साथ कलानौर पँजाब में था। बैरमखाँ ने कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी कर दी और स्वयं को उस का संरक्षक नियुक्त कर के दिल्ली की ओर सैना के साथ कूच कर दिया। उस की सैना को रोकने के लिये सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने राजपूतों से संयुक्त हो कर सहयोग करने को कहा किन्तु दुर्भाग्यवश राजपूतों ने अदूरदर्श्कता से यह कह कर इनकार कर दिया कि वह किसी ‘बनिये’ के आधीन रह कर युद्ध नहीं करें गे।
दूःखद परिणाम – पानीपत की दूसरी लडाई हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय और मुगल आक्रान्ता अकबर के मध्य हुई। अकबर की पराजय निशिचित थी परन्तु ऐक तीर हेमचन्द्र की आँख में जा लगा और वह बेहोश हो गये जिस के फलस्वरूप उन की सैना में भगदड मच गयी। हिन्दूओं की पराजय और अकबर की विजय हुई। हेमचन्द्र को अकबर की उपस्थिति में बैरम खाँ और अली कुली खाँ, (कालान्तर नूरजहाँ का पति) ने कत्ल कर दिया था। सम्राट हेमचन्द्र का सिर मुग़ल हरम की स्त्रियों को दिखाने के लिये काबुल भेजा गया था और उन के शरीर को दिल्ली में जलूस निकाल कर घुमाया गया था। मुगल राज पुनः स्थापित हो गया।
पिता का बलिदान – बैरमखाँ ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुस्लमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि ‘जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूं गा’। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था।
हिन्दू समाज के लिय़े शर्म – दिल्ली पहुँच कर अकबर ने ‘कत्ले-आम’ करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का ऐक चित्र आज भी हिन्दूओं की दुर्दशा के समारक के रूप मे सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिय़े शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय का समृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है। इस से शर्मनाक और क्या होगा कि फिल्म ‘जोधा-अकबर’ में अकबर को महान और सम्राट हेमचन्द्र को खलनायक की तरह दिखाया गया था।
2 – बन्दा बहादुर सिहं
प्रारम्भिक जीवन – लच्छमन दास का जन्म 1670 ईस्वी में ऐक राजपूत परिवार में हुा था। उसे शिकार का बहुत शौक था। ऐक दिन उस ने ऐक हिरणी का शिकार किया । मरने से पहले लच्छमन दास के सामने ही हिरणी ने दो शावकों को जन्म दे दिया। इस घटना से वह स्तब्द्ध रह गया और उस के मन में वैराग्य जाग उठा। संसार को त्याग कर वह बैरागी साधू ‘माधवदास’ बन गया तथा नान्देड़ (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर कुटिया बना कर रहने लगा।
पलायनवाद से कर्म योग – आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना कर के गुरु गोबिन्दसिहँ दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उन की मुलाकात बैरागी माधवदास से हो गयी। गुरु जी ने उसे उत्तरी भारत में हिन्दूओं की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद का मार्ग छोड कर धर्म रक्षा के लिये हथियार उठाने के कर्मयोग की प्रेरणा दी, और उस का हृदय परिवर्तन कर दिया। गुरूजी ने उसे नयी पहचान ‘बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’ की दी। प्रतीक स्वरुप उसे अपने तरकश से ऐक तीर, ऐक नगाडा तथा पंजाब में अपने शिष्यों के नाम ऐक आदेश पत्र (हुक्मनामा) भी लिख कर दिया कि वह मुगलों के जुल्म के विरुद्ध बन्दा बहादुर को पूर्ण सहयेग दें। इस के पश्चात तीन सौ घुडसवारों की सैनिक टुकडी ने आठ कोस बन्दा बहादुर के पीछे चल कर उसे भावभीनी विदाई दी। बन्दा बहादुर पँजाब आ गये।
प्रतिशोध – पँजाब में हिन्दूओं तथा सिखों ने बन्दा बहादुर सिहँ का अपने सिपहसालार तथा गुरु गोबिन्द सिहं के प्रतिनिधि के तौर पर स्वागत किया। ऐक के बाद ऐक, बन्दा बहादुर ने मुगल प्रशासकों को उन के अत्याचारों और नृशंस्ता के लिये सज़ा दी। शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर को उन्हों ने अपना मुख्य स्थान बनाया। अब बन्दा बहादुर और उन के दल के चर्चे स्थानीय मुगल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन पैदा करने लगे थे। उन्हों ने गुरु गोबिन्द सिहँ के पुत्रों की शहादत के जिम्मेदार मुगल सूबेदार वज़ीर खान को सरहन्द के युद्ध में मार गिराया। इस के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिहँ के परिवार के प्रति विशवासघात कर के उसे वजीर खान को सौंपने वाले ब्राह्मणों तथा रँघरों को भी सजा दी।
अपनों की ग़द्दारी – अन्ततः दिल्ली से मुगल बादशाह ने बन्दा बहादुर के विरुध अभियान के लिये अतिरिक्त सैनिक भेजे। बन्दा बहादुर को साथियों समेत मुगल सैना ने आठ मास तक अपने घेराव में रखा। साधनों की कमी के कारण उन का जीना दूभर हो गया था और केवल उबले हुये पत्ते, पेडों की छाल खा कर भूख मिटाने की नौबत आ गयी थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने लगे थे। फिर भी बन्दा बहादुर और उन के सैनिकों ने हार नहीं मानी। आखिरकार कुछ गद्दारों की सहायता और छल कपट से मुगलों ने बन्दा बहादुर को 740 वीरों समेत बन्दी बना लिया।
अमानवीय अत्याचार – 26 फरवरी 1716 को पिंजरों में बन्द कर के सभी युद्ध बन्दियों को दिल्ली लाया गया था। लोहे की ज़ंजीरों से बन्धे 740 कैदियों के अतिरिक्त 700 बैल गाडियाँ भी दिल्ली लायी गयीं जिन पर हिन्दू सिखों के कटे हुये सिर लादे गये थे और 200 कटे हुये सिर भालों की नोक पर टाँगे गये थे। तत्कालिक मुगल बादशाह फरुखसैय्यर के आदेशानुसार दिल्ली के निवासियों नें 29 फरवरी 1716 के मनहूस दिन वह खूनी विभित्स प्रदर्शनी जलूस अपनी आँखों से देख कर उन वीर बन्दियों का उपहास किया था।
अपमानित करने के लिये बन्दा बहादुर सिहँ को लाल रंग की सुनहरी पगडी पहनाई गयी थी तथा सुनहरी रेशमी राजसी वस्त्र भी पहनाये गये थे। उसे पिंजरे में बन्द कर के, पिंजरा ऐक हाथी पर रखा गया था। उस के पीछे हाथ में नंगी तलवार ले कर ऐक जल्लाद को भी बैठाया गया था। बन्दा बहादुर के हाथी के पीछे उस के 740 बन्दी साथी थे जिन के सिर पर भेड की खाल से बनी लम्बी टोपियाँ थीं। उन के ऐक हाथ को गर्दन के साथ बाँधे गये दो भारी लकडी की बल्लियों के बीच में बाँधा गया था।
प्रदर्शन के पश्चात उन सभी वीरों को मौत के घाट उतारा गया। उन के कटे शरीरों को फिर से बैल गाडियों में लाद कर नगर में घुमाया गया और फिर गिद्धों के लिये खुले में फैंक दिया गया था। उन के कटे हुये सिरों को पेडों से लटकाया गया। उल्लेखनीय है कि उन में से किसी भी वीर ने क्षमा-याचना नहीं करी थी। बन्दा बहादुर को अभी और यतनाओं के लिये जीवित रखा हुआ था।
विभीत्समय अन्त – 9 जून 1716 को बन्दा बहादुर के चार वर्षीय पुत्र अजय सिहँ को उस की गोद में बैठा कर, पिता पुत्र को अपमान जनक जलूस की शक्ल में कुतब मीनार के पास ले जाया गया। बन्दा बहादुर को अपने पुत्र को कत्ल करने का आदेश दिया गया जो उस ने मानने से इनकार कर दिया। तब जल्लाद ने बन्दा बहादुर के सामने उन के पुत्र के टुकडे टुकडे कर डाले और उन रक्त से भीगे टुकडों को बन्दा बहादुर के मुहँ पर फैंका गया। उस का कलेजा निकाल कर उस के मूहँ में ठोंसा गया। वह बहादुर सभी कुछ स्तब्द्ध हो कर घटित होता सहता रहा। अंत में जल्लाद ने खंजर की नोक से बन्दा बहादुर की दोनों आँखें ऐक ऐक कर के निकालीं, ऐक ऐक कर के पैर तथा भुजायें काटी और अन्त में लोहे की गर्म सलाखों से उस के जिस्म का माँस नोच दिया। उस के शरीर के सौ टुकडे कर दिये गये।
शर्मनाक उपेक्षा – आदि काल से ले कर आज तक हिन्दू विजेताओं ने कभी इस प्रकार की क्रूरता नहीं की थी। आज भारत में औरंगजेब के नाम पर औरंगाबाद और फरुखसैय्यर के नाम पर फरुखाबाद तो हैं किन्तु बन्दा बहादुरसिंह का कोई स्मारक नहीं है।
3 – वीर हक़ीक़त राय
इस 12 वर्षीय वीर बालक ने धर्म परिवर्तन के बदले अपना सिर कटवाना पसन्द किया और शहीद हो गया। उसे नहीं पता था कि तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष नपुसंक हिन्दू ही पुनः मृतक तुल्य बना छोडें गे कि कोई उस का सार्वजनिक तौर पर नाम भी ना ले और हिन्दू मुसलिम सोहार्द का नाटक चलता रहै। आज इस वीर का नाम वर्तमान पीढी के मानसिक पटल से मिट चुका है और दिल्ली स्थित हिन्दू महासभा भवन में इस शहीद की मूक प्रतिमा उपेक्षित सी खडी है। बूढें नेहरू का जन्म तो मरणोपरान्त भी ‘बाल-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है किन्तु आज कोई भी हिन्दू बालक वीर हकीकत राय के अनुपम बलिदान को नहीं जानता।
हकीकतराय का जन्म सियालकोट में 1724 को हुआ था। उस समय वह ऐक मात्र हिन्दू बालक मुस्लमान बालकों के साथ पढता था। उस की प्रगति से सहपाठी ईर्षालु थे और अकेला जान कर उसे बराबर चिडाते रहते थे। ऐक दिन मुस्लिम बालकों ने देवी दुर्गा के बारे में असभ्य अपशब्द कहे जिस पर हकीकतराय ने आपत्ति व्यक्त की। मुस्लिम बच्चों ने अपशब्दों को दोहरा दोहरा कर हकीकतराय को भडकाया और उस ने भी प्रतिक्रिया वश मुहमम्द की पुत्री फातिमा के बारे में वही शब्द दोहरा दिये।
मुस्लिम लडकों ने मौलवी को रिपोर्ट कर दी और मौलवी ने हकीकतराय को पैगंम्बर की शान में गुस्ताखी करने के अपराध में कैद करवा दिया। हकीकतराय के मातापिता ने ऐक के बाद ऐक लाहौर के स्थानीय शासक तक गुहार लगाई। उसे जिन्दा रहने के लिये मुस्लमान बन जाने का विकल्प दिया गया जो उस वीर बालक ने अस्वीकार कर दिया। उस ने अपने माता-पिता और दस वर्षिया पत्नी के सामने सिर कटवाना सम्मान जनक समझा। अतः 20 जनवरी 1735 को जल्लाद ने हकीकत राय का सिर काट कर धड से अलग कर दिया।
उपरोक्त ऐतिहासिक वृतान्त इस्लामी क्रूरता और नृशंस्ता के केवल अंशमात्र उदाहरण हैं। किन्तु हिन्दू समाज की कृतघन्ता है कि वह अपने वीरों को भूल चुका हैं जिन्हों ने बलिदान दिये थे। आज वह उन के नाम इस लिये नहीं लेना चाहते कि कहीं भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक नाराज ना हो जायें। धर्म निर्पेक्ष भारत में अत्याचारी मुस्लिम शासकों के कई स्थल, मार्ग और मकबरे सरकारी खर्चों पर सजाये सँवारे जाते हैं। कई निम्न स्तर के राजनैताओं के मनहूस जन्म दिन और ‘पुन्य तिथियाँ’ भी सरकारी उत्सव की तरह मनायी जाती हैं परन्तु इन उपेक्षित वीरों का नाम भी लेना धर्म निर्पेक्षता का उलंघन माना जाता है।
बटवारे पश्चात हिन्दूस्तान के प्रथम हिन्दू शहीद नाथूराम गोडसे का चित्र हिन्दूस्तान के किसी मन्दिर या संग्रहालय में नहीं लगा जिस ने पाकिस्तानी हिन्दू नर-संहार का विरोध करते हुये अपना बलिदान दिया था। हिन्दुस्तान में हिन्दूओं की ऐसी अपमान जनक स्थिति आज भी है जो उन्हीं की कायरता के फलस्वरूप है क्योंकि उन की स्वाभिमान मर चुका है।
चाँद शर्मा