हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘औरंगजेब’

62 – कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद


देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। वैसे तो इतिहास के पृष्टों पर इस्लामिक  तथा इसाई अत्याचारों की, और देश भक्तों की कुर्बानियों की अनगिनित अमानवीय घटनायें दर्ज हैं किन्तु यहाँ केवल उन शहीदों का संक्षिप्त उल्लेख है जिन्हें आज भी “धर्म-निर्पेक्ष” हिन्दू समाज ने मुस्लमानों की नाराजगी के कारण से उपेक्षित कर रखा है और आने वाली पीढियाँ उन के नामों से ही अपरिचित होती जा रही हैं।

1 – सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय

प्रारम्भिक जीवन – हेम चन्द्र का जन्म सन 1501 में ऐक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन के पिता राय पूर्ण दास यजमानों के लिये कर्म काण्ड तथा पूजा पाठ कर के अपनी जीविका दारिद्रता से चलाते थे।आखिरकार उन्हों ने जाति व्यवसाय के बन्धन तोड दिये और ब्राह्मण जीविका के बदले रिवाडी के समीप कुतबपुर शहर में व्यापार दूारा अपने परिवार की जीविका चलाने लगे। उन के पुत्र ‘हेमू’ (हेम चन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उस ने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुडसवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरु किया। पिता सुलतान शेरशाह सूरी के लशकर को अनाज बेचते थे। अपनी योग्यता तथा इमानदारी से हेमू ने भी वहीं अपनी पहचान बना ली।

यह वह समय था जब शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पराजित कर के ईरान पलायन के लिये मजबूर कर दिया था। शेरशाह सूरी की मृत्यु 1545 में हो गयी। उस के पश्चात उस का पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस्लामशाह ने हेम चन्द्र को अपना सलाहकार तथा दारोग़ा चौकी तैनात कर दिया।

इस्लामशाह का उत्तराधिकारी आदिलशाह सूरी था। योग्यता तथा इमानदारी के कारण हेंम चन्द्र आदिलशाह सूरी का भी अति विशवसनीय बन गया था। उस ने हेमचन्द्र को अपना ‘वजीर-ए-आला’ नियुक्त किया और साथ ही उसे अफगान फौज का सिपहसालार भी बना दिया। आदिलशाह सूरी आराम प्रस्त, व्यसनी, और विलासी था इस लिये प्रशासन का पूरा कार्यभार हेमचन्द्र ही सम्भालता था। आदिलशाह सूरी के कई अफगान सरदारों ने विद्रोह किये जिसे दबाने के लिये हेमचन्द्र उत्तरी भारत के कई प्राँतों में गया। वह हिन्दूओं के अतिरिक्त अफगानों में लोकप्रिय था।

हिन्दू साम्राज्य की पुनर्स्थापना – हुमायूँ ने ईरान के बादशाह की मदद से 15 वर्ष के निष्कासन के बाद जुलाई 1555 में पंजाब, देहली और आगरा पर पुनः कब्जा कर लिया किन्तु छः महीने पश्चात 26 जनवरी 1556 को उस की मृत्यु हो गयी। उस समय हेमचन्द्र बँगाल में था। अफगान अपने आप को स्थानीय तथा मुगलों को अक्रान्ता समझते थे। हुमायूँ की अकस्माक मृत्यु ने हेमचन्द्र को अफगानों की अगुवाई करते हुये मुगल सत्ता को उखाड फैंकने का अवसर प्रदान कर दिया। उस ने बँगाल से दिल्ली की ओर कूच किया और मार्ग में सभी छोटे बडे युद्ध विजय करता आया। मुगल किलेदार घबरा कर इधर उधर भाग गये। ऐक के बाद ऐक, हेमचन्द्र ने 22 विजय प्राप्त कीं तथा समस्त मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश उस की आधीनता में आ गये। 6 अकतूबर 1556 को हेमचन्द्र ने दिल्ली पर भी अपना अधिकार कर लिया और मुगल सैना अपने सेनापति ताडदी बैग के साथ दिल्ली छोड कर भाग गयी।    

हेमचन्द्र ने अपने आप को सम्राट घोषित किया तथा ‘विक्रमादूतीय’ की उपाधि धारण की। इन्द्रप्रस्थ (पुराने किला) के सिंहासन पर उस का राज्याभिषेक समारोह 7 अकतूबर 1556 को हुआ जिस में हिन्दू तथा अफगान सैनापति ऐकत्रित हुये थे। इस प्रकार सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पश्चात सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने चार शताब्दी पुराने मुसलिम शासन को समाप्त कर के ऐक बार फिर दिल्ली में हिन्दू साम्रज्य की स्थापना की।

प्रशासनिक सुधार – शेरशाह सूरी के काल से ही हेमचन्द्र प्रशासनिक सुधारों के साथ संलग्न थे जिन का श्रेय इतिहासकार शारशाह सूरी को देते हैं। सत्ता सम्भालते ही सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने प्रशासन के तन्त्र में तुरन्त सुधार करने की योजनाओं को पुनः क्रियावन्त किया तथा दोषियों को दण्डित किया। उन्हीं के बनाये हुये तन्त्र को मुगल बादशाह अकबर ने कालान्तर अपनाया था।

हिन्दूओं की अदूरदर्शिता –  जब दिल्ली में हुमायूँ की मृत्यु हुई थी, उस समय उस का 16 वर्षीय पुत्र अकबर अपने उस्ताद बैरमखाँ के साथ कलानौर पँजाब में था। बैरमखाँ ने कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी कर दी और स्वयं को उस का संरक्षक नियुक्त कर के दिल्ली की ओर सैना के साथ कूच कर दिया। उस की सैना को रोकने के लिये सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने राजपूतों से संयुक्त हो कर सहयोग करने को कहा किन्तु दुर्भाग्यवश राजपूतों ने अदूरदर्श्कता से यह कह कर इनकार कर दिया कि वह किसी ‘बनिये’ के आधीन रह कर युद्ध नहीं करें गे। 

दूःखद परिणाम – पानीपत की दूसरी लडाई हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय और मुगल आक्रान्ता अकबर के मध्य हुई। अकबर की पराजय निशिचित थी परन्तु ऐक तीर हेमचन्द्र की आँख में जा लगा और वह बेहोश हो गये जिस के फलस्वरूप उन की सैना में भगदड मच गयी। हिन्दूओं की पराजय और अकबर की विजय हुई। हेमचन्द्र को अकबर की उपस्थिति में बैरम खाँ और अली कुली खाँ, (कालान्तर नूरजहाँ का पति) ने कत्ल कर दिया था। सम्राट हेमचन्द्र का सिर मुग़ल हरम की स्त्रियों को दिखाने के लिये काबुल भेजा गया था और उन के शरीर को दिल्ली में जलूस निकाल कर घुमाया गया था। मुगल राज पुनः स्थापित हो गया।
पिता का बलिदान – बैरमखाँ ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुस्लमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि ‘जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूं गा’। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था।

हिन्दू समाज के लिय़े शर्म – दिल्ली पहुँच कर अकबर ने ‘कत्ले-आम’ करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का ऐक चित्र आज भी हिन्दूओं की दुर्दशा के समारक के रूप मे सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिय़े शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय का समृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है। इस से शर्मनाक और क्या होगा कि फिल्म ‘जोधा-अकबर’ में अकबर को महान और सम्राट हेमचन्द्र को खलनायक की तरह दिखाया गया था।

2 – बन्दा बहादुर सिहं

प्रारम्भिक जीवन – लच्छमन दास का जन्म 1670 ईस्वी में ऐक राजपूत परिवार में हुा था। उसे शिकार का बहुत शौक था। ऐक दिन उस ने ऐक हिरणी का शिकार किया । मरने से पहले लच्छमन दास के सामने ही हिरणी ने दो शावकों को जन्म दे दिया। इस घटना से वह स्तब्द्ध रह गया और उस के मन में वैराग्य जाग उठा। संसार को त्याग कर वह बैरागी साधू ‘माधवदास’ बन गया तथा नान्देड़ (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर कुटिया बना कर रहने लगा।  

पलायनवाद से कर्म योग – आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना कर के गुरु गोबिन्दसिहँ दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उन की मुलाकात बैरागी माधवदास से हो गयी। गुरु जी ने उसे उत्तरी भारत में हिन्दूओं की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद का मार्ग छोड कर धर्म रक्षा के लिये हथियार उठाने के कर्मयोग की प्रेरणा दी, और उस का हृदय परिवर्तन कर दिया। गुरूजी ने उसे नयी पहचान ‘बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’ की दी। प्रतीक स्वरुप उसे अपने तरकश से ऐक तीर, ऐक नगाडा तथा पंजाब में अपने शिष्यों के नाम ऐक आदेश पत्र (हुक्मनामा) भी लिख कर दिया कि वह मुगलों के जुल्म के विरुद्ध बन्दा बहादुर को पूर्ण सहयेग दें। इस के पश्चात तीन सौ घुडसवारों की सैनिक टुकडी ने आठ कोस बन्दा बहादुर के पीछे चल कर उसे भावभीनी विदाई दी। बन्दा बहादुर पँजाब आ गये। 

प्रतिशोध – पँजाब में हिन्दूओं तथा सिखों ने बन्दा बहादुर सिहँ का अपने सिपहसालार तथा गुरु गोबिन्द सिहं के प्रतिनिधि के तौर पर स्वागत किया। ऐक के बाद ऐक, बन्दा बहादुर ने मुगल प्रशासकों को उन के अत्याचारों और नृशंस्ता के लिये सज़ा दी। शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर को उन्हों ने अपना मुख्य स्थान बनाया। अब बन्दा बहादुर और उन के दल के चर्चे स्थानीय मुगल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन पैदा करने लगे थे। उन्हों ने गुरु गोबिन्द सिहँ के पुत्रों की शहादत के जिम्मेदार मुगल सूबेदार वज़ीर खान को सरहन्द के युद्ध में मार गिराया। इस के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिहँ के परिवार के प्रति विशवासघात कर के उसे वजीर खान को सौंपने वाले ब्राह्मणों तथा रँघरों को भी सजा दी।

अपनों की ग़द्दारी – अन्ततः दिल्ली से मुगल बादशाह ने बन्दा बहादुर के विरुध अभियान के लिये अतिरिक्त सैनिक भेजे। बन्दा बहादुर को साथियों समेत मुगल सैना ने आठ मास तक अपने घेराव में रखा। साधनों की कमी के कारण उन का जीना दूभर हो गया था और केवल उबले हुये पत्ते, पेडों की छाल खा कर भूख मिटाने की नौबत आ गयी थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने लगे थे। फिर भी बन्दा बहादुर और उन के सैनिकों ने हार नहीं मानी। आखिरकार कुछ गद्दारों की सहायता और छल कपट से मुगलों ने बन्दा बहादुर को 740 वीरों समेत बन्दी बना लिया। 

अमानवीय अत्याचार – 26 फरवरी 1716 को पिंजरों में बन्द कर के सभी युद्ध बन्दियों को दिल्ली लाया गया था। लोहे की ज़ंजीरों से बन्धे 740 कैदियों के अतिरिक्त 700 बैल गाडियाँ भी दिल्ली लायी गयीं जिन पर हिन्दू सिखों के कटे हुये सिर लादे गये थे और 200 कटे हुये सिर भालों की नोक पर टाँगे गये थे। तत्कालिक मुगल बादशाह फरुखसैय्यर के आदेशानुसार दिल्ली के निवासियों नें 29 फरवरी 1716 के मनहूस दिन वह खूनी विभित्स प्रदर्शनी जलूस अपनी आँखों से देख कर उन वीर बन्दियों का उपहास किया था।

अपमानित करने के लिये बन्दा बहादुर सिहँ को लाल रंग की सुनहरी पगडी पहनाई गयी थी तथा सुनहरी रेशमी राजसी वस्त्र भी पहनाये गये थे। उसे पिंजरे में बन्द कर के, पिंजरा ऐक हाथी पर रखा गया था। उस के पीछे हाथ में नंगी तलवार ले कर ऐक जल्लाद को भी बैठाया गया था। बन्दा बहादुर के हाथी के पीछे उस के 740 बन्दी साथी थे जिन के सिर पर भेड की खाल से बनी लम्बी टोपियाँ थीं। उन के ऐक हाथ को गर्दन के साथ बाँधे गये दो भारी लकडी की बल्लियों के बीच में बाँधा गया था।

प्रदर्शन के पश्चात उन सभी वीरों को मौत के घाट उतारा गया। उन के कटे शरीरों को फिर से बैल गाडियों में लाद कर नगर में घुमाया गया और फिर गिद्धों के लिये खुले में फैंक दिया गया था। उन के कटे हुये सिरों को पेडों से लटकाया गया। उल्लेखनीय है कि उन में से किसी भी वीर ने क्षमा-याचना नहीं करी थी। बन्दा बहादुर को अभी और यतनाओं के लिये जीवित रखा हुआ था।

विभीत्समय अन्त – 9 जून 1716 को बन्दा बहादुर के चार वर्षीय पुत्र अजय सिहँ को उस की गोद में बैठा कर, पिता पुत्र को अपमान जनक जलूस की शक्ल में कुतब मीनार के पास ले जाया गया। बन्दा बहादुर को अपने पुत्र को कत्ल करने का आदेश दिया गया जो उस ने मानने से इनकार कर दिया। तब जल्लाद ने बन्दा बहादुर के सामने उन के पुत्र के टुकडे टुकडे कर डाले और उन रक्त से भीगे टुकडों को बन्दा बहादुर के मुहँ पर फैंका गया। उस का कलेजा निकाल कर उस के मूहँ में ठोंसा गया। वह बहादुर सभी कुछ स्तब्द्ध हो कर घटित होता सहता रहा। अंत में जल्लाद ने खंजर की नोक से बन्दा बहादुर की दोनों आँखें ऐक ऐक कर के निकालीं, ऐक ऐक कर के पैर तथा भुजायें काटी और अन्त में लोहे की गर्म सलाखों से उस के जिस्म का माँस नोच दिया। उस के शरीर के सौ टुकडे कर दिये गये।

शर्मनाक उपेक्षा – आदि काल से ले कर आज तक हिन्दू विजेताओं ने कभी इस प्रकार की क्रूरता नहीं की थी। आज भारत में औरंगजेब के नाम पर औरंगाबाद और फरुखसैय्यर के नाम पर फरुखाबाद तो हैं किन्तु बन्दा बहादुरसिंह का कोई स्मारक नहीं है।

3 – वीर हक़ीक़त राय

इस 12 वर्षीय वीर बालक ने धर्म परिवर्तन के बदले अपना सिर कटवाना पसन्द किया और शहीद हो गया। उसे नहीं पता था कि तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष नपुसंक हिन्दू ही पुनः मृतक तुल्य बना छोडें गे कि कोई उस का सार्वजनिक तौर पर नाम भी ना ले और हिन्दू मुसलिम सोहार्द का नाटक चलता रहै। आज इस वीर का नाम वर्तमान पीढी के मानसिक पटल से मिट चुका है और दिल्ली स्थित हिन्दू महासभा भवन में इस शहीद की मूक प्रतिमा उपेक्षित सी खडी है। बूढें नेहरू का जन्म तो मरणोपरान्त भी ‘बाल-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है किन्तु आज कोई भी हिन्दू बालक वीर हकीकत राय के अनुपम बलिदान को नहीं जानता।

हकीकतराय का जन्म सियालकोट में 1724 को हुआ था। उस समय वह ऐक मात्र हिन्दू बालक मुस्लमान बालकों के साथ पढता था। उस की प्रगति से सहपाठी ईर्षालु थे और अकेला जान कर उसे बराबर चिडाते रहते थे। ऐक दिन मुस्लिम बालकों ने देवी दुर्गा के बारे में असभ्य अपशब्द कहे जिस पर हकीकतराय ने आपत्ति व्यक्त की। मुस्लिम बच्चों ने अपशब्दों को दोहरा दोहरा कर हकीकतराय को भडकाया और उस ने भी प्रतिक्रिया वश मुहमम्द की पुत्री फातिमा के बारे में वही शब्द दोहरा दिये। 

मुस्लिम लडकों ने मौलवी को रिपोर्ट कर दी और मौलवी ने हकीकतराय को पैगंम्बर की शान में गुस्ताखी करने के अपराध में कैद करवा दिया। हकीकतराय के मातापिता ने ऐक के बाद ऐक लाहौर के स्थानीय शासक तक गुहार लगाई। उसे जिन्दा रहने के लिये मुस्लमान बन जाने का विकल्प दिया गया जो उस वीर बालक ने अस्वीकार कर दिया। उस ने अपने माता-पिता और दस वर्षिया पत्नी के सामने सिर कटवाना सम्मान जनक समझा। अतः 20 जनवरी 1735 को जल्लाद ने हकीकत राय का सिर काट कर धड से अलग कर दिया।

उपरोक्त ऐतिहासिक वृतान्त इस्लामी क्रूरता और नृशंस्ता के केवल अंशमात्र उदाहरण हैं। किन्तु हिन्दू समाज की कृतघन्ता है कि वह अपने वीरों को भूल चुका हैं जिन्हों ने बलिदान दिये थे। आज वह उन के नाम इस लिये नहीं लेना चाहते कि कहीं भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक नाराज ना हो जायें। धर्म निर्पेक्ष भारत में अत्याचारी मुस्लिम शासकों के कई स्थल, मार्ग और मकबरे सरकारी खर्चों पर सजाये सँवारे जाते हैं। कई निम्न स्तर के राजनैताओं के मनहूस जन्म दिन और ‘पुन्य तिथियाँ’ भी सरकारी उत्सव की तरह मनायी जाती हैं परन्तु इन उपेक्षित वीरों का नाम भी लेना धर्म निर्पेक्षता का उलंघन माना जाता है।

बटवारे पश्चात हिन्दूस्तान के प्रथम हिन्दू शहीद नाथूराम गोडसे का चित्र हिन्दूस्तान के किसी मन्दिर या संग्रहालय में नहीं लगा जिस ने पाकिस्तानी हिन्दू नर-संहार का विरोध करते हुये अपना बलिदान दिया था। हिन्दुस्तान में हिन्दूओं की ऐसी अपमान जनक स्थिति आज भी है जो उन्हीं की कायरता के फलस्वरूप है क्योंकि उन की स्वाभिमान मर चुका है।  

चाँद शर्मा

60 – हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।

असमानताओं का संघर्ष

भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।

इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।

समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।

हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ

कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 

कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।

मन्दिरों का विध्वंस

समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।

कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।

विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।

ईस्लामीकरण का दौर

सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।

बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।

हिन्दूओं की बचाव नीति

मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 

हिन्दूओं की बचाव नीति

अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-

पलायनवाद – बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार – निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।

वंशावली पंजीकरण की प्रथा

इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।

ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।

सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 

कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।

जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

25 – सती तथा भ्रूण हत्या


हिन्दू समाज में प्रत्येक जीवित पतिवृता स्त्री जो अपने सतीत्व की रक्षा करती है वह ‘सती ’ कहलाती है। पौराणिक कथा नायिका सावित्री ने अपने पति सत्यवान के जीवन को यमराज से छुडवा कर अपने स्तीत्व की रक्षा की थी, जिस कारण सावित्री को उस के जीवन काल में ही सती की गौरवशाली उपाद्धि प्राप्त हो गयी थी। आदर स्वरूप हिन्दू समाज में प्रत्येक चरित्रवान पत्नि को पति के जीवन काल में ही ‘सती सावित्री ’ अथवा ‘सती-साध्वी’ कहा जाता है।

सती प्रथा

भगवान शिव की पत्नी का भी तथा-कथित सती प्रथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। संक्षिप्त में, शिवपुराण अनुसार दक्ष प्रजापति की ऐक सौ कन्यायें थीं। उन में से सब से छोटी कन्या का नाम ही ‘सती ’ था। सती ने राजा दक्ष की स्वीकृति के बिना भगवान शिव से विवाह कर लिया था जिस के कारण दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिये एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया गया था। सती शिव की स्वीकृति के बिना ही, उस यज्ञ को देखने के लिये अपने पिता राजा दक्ष की यज्ञशाला में चली गयी थी। राजा दक्ष नें यज्ञशाला में सती की पूर्णत्या अनदेखी की। यह अपमान सती से सहा नहीं गया और उस ने क्षुब्ध हो कर यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने प्राणों की आहूति दे डाली। वह पति की चिता पर जलायी नहीं गयी थी।

इस वृतान्त से प्रथम तथ्य तो यह उजागर होता है कि यदि कन्या हत्या का चलन हिन्दू धर्म में होता तो दक्ष प्रजापति की कन्याओं की संख्या ऐक सौ तक कभी ना पहुँचती। दूसरा, सती ने अपने प्राणों का अन्त अपने पति के जीवन काल में ही किया था और इसे विधवा को जलाने वाली कुप्रथा के साथ नहीं जोडा जा सकता। इस कथा का उद्देष्य केवल विवाहित स्त्रियों का मार्ग दर्शन करना है कि विवाह के पश्चात उन्हें अपने पिता के घर भी बिन बुलाये और अपने पति के बिना अकेले नहीं जाना चाहिये। यह केवल सामान्य शिष्टाचार की परम्परा निभाने की बात है।  

ऐतिहासिक ग्रंथों के प्रमाण

चारों वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, महाकाव्यों तथा मनुसमृति – किसी भी धर्म ग्रंथ में सती प्रथा की आड में विधवाओं को चिता में झोंकने का कोई प्रावधान नहीं है। रामायण तथा महाभारत दोनो महा काव्यों में भी सती कुप्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। निम्नलिखित तथ्य इस सत्य को प्रमाणित करते हैं –

  • राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात उन की तीन रानियों में से कोई भी सती नहीं हुयी थी।
  • किष्कन्धा नरेश बाली की मृत्यु के पश्चात उस की पत्नि – रानी तारा का विवाह बाली के छोटे भाई सुग्रीव से कर दिया गया था। अतः यह तथ्य विधवा को जला कर मारने के बजाय पुनर्विवाह कर के पत्नि को व्यवस्थापित रह कर जीने का प्रावधान दर्शाता है।
  • रावण के वध पश्चात उस की रानी मन्दोदरी या अन्य कोई भी रानी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी। 
  • हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की मृत्यु के पश्चात उस की नव-विवाहिता पत्नी सत्यवती भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • जब शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य और चित्रांगद की मृत्यु हुयी तो उन की पत्नीयां भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • महाभारत में केवल ऐक उल्लेख है – जब वनवास में राजा पान्डु की मृत्यु हुयी तो उस की छोटी रानी माद्री ने अपने आप को पान्डु की मृत्यु का कारण समझा और इसी आत्म ग्लानि के कारण ही उस ने भी पान्डु की चिता में बैठ कर अपने जीवन का अन्त कर लिया था। इस घटना को सती कहने के बजाय ‘आत्महत्या ’ कहना उचित हो गा। यदि इसे सती प्रथा का नाम दिया जाय तो बड़ी रानी कुन्ती को भी अग्नि में जल कर सती होना चाहिये था। इस उल्लेख के अतिरिक्त महाभारत में जहाँ लाखों पुरुषों ने वीरगति पायी, परन्तु पति की चिता के साथ किसी भी पत्नि के सती होने का कोई वर्णन नहीं है। एक सौ कौरव राजकुमारों में से किसी ऐक की पत्नी भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।  

ऊपरलिखित तथ्यों के प्रमाण के विपरीत सती का दुष्प्रचार केवल हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये ही किया जाता है। अगर कोई अपने निजि परिवारों को ही देखे तो पता चले गा कि वहाँ भी किसी विधवा स्त्री को जीवित नहीं जलाया गया होगा।

स्त्री जलन का चलन 

कोलम्बिया इनसायक्लोपीडिया के अनुसार मृत पति के साथ उस की चहेता पत्नी को जलाने की कुप्रथा का उल्लेख भारत से बाहर के देशों में पाया जाता है। उन उल्लेखों के अनुसार थ्रेशियन, स्किथियन, सकेनडनेवियन, प्राचीन मिस्र, चीन, ओशियाना तथा अफ्रीका में ऐसे रिवाज थे।

भारत में मौर्य तथा गुप्त वंश के काल में भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुप्रथा कुशान वंश के समय भारत में विदेशों से आयी तथा मध्य काल में राजपूत वँशो तक सीमित रही। ऱाजपूत अकसर लम्बे समय तक युद्धों में व्यस्त रहते थे। विदेशी अक्रान्ता विजयी होने के पश्चात स्त्रियों के साथ जीवन पर्यन्त बलात्कार करते थे। इस दुर्दशा के विकल्प स्वरूप ‘जौहर’ की प्रथा राजपूत परिवारों में अपनायी गयी जो कि उस समय की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यक्ता थी। पति के वीरगति पाने की सम्भावना के केवल विचार मात्र से ही वीरांग्ना राजपूत पत्नियों ने स्वेच्छा से अग्नि प्रवेश कर के अपने सतीत्व की रक्षा करने में अपना गौरव समझतीं थीं। जब महलों के प्राँगण में स्त्रियाँ जौहर की रस्म करतीं थी, तो उस के साथ ही रण भूमि पर शत्रुओं की विशाल सैना के सामने राजपूत केसरिया वस्त्र पहन कर ‘साका’ की रस्म अदा करते थे और धर्म तथा स्वाभिमान की खातिर युद्ध कर के शत्रु के सामने झुकने के बजाय अपनी आत्म बलि देते थे।

रानी पद्मनी का ‘जौहर’ भी सती होना नहीं था। वह जौहर था। रानी पद्मनी किसी धार्मिक कारण से अपनी सखियों के साथ चिता में नही बैठी थीं अपितु अपने स्तीत्व और आदर्शों की रक्षा के कारण ऐसे साहसी कदम को उठाने के लिये उद्यत हुयी थीं। जौहर प्रथा को राजपूतों ने इस लिये सम्मानित करना आरम्भ किया था ताकि नव-विवाहित युवतियाँ प्रोत्साहित हो कर अग्नि में स्वेच्छा से प्रवेश कर सके और पति की मृत्यु पश्चात अपमान जनक जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से अपने आप अपने स्तीत्व की रक्षा कर सकें। वास्तव में यह उन शूरवीर पत्नियों के लिये ऐसी गौरवमयी मिसाल है जिस की तुलना विश्व इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।

सती कुप्रथा का ढोल केवल भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये पी़टा जाता है। भारत के कुछ प्राँतों में जहाँ ब्रिटिश शासन था वहाँ मृत व्यक्ति की पत्नी को पति के साथ जला कर सम्पति हडपने के लिये विधवा स्त्री को सती के नाम से जलाने की कुप्रथा चल पड़ी थी जिस का हिन्दू धर्म से कुछ सम्बन्ध नही था। लेकिन फिर भी यह हिन्दू समाज सुधारकों के लिये सांत्वना की बात है कि उस कुप्रथा को बन्द करने के लिये राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू समाज सुधारक ही आगे आये थे। बाहर के लोगों के कारण इस प्रथा का उनमूलन नहीं हुआ था। आज इस कुप्रथा का उल्लेख हि्न्दू विधवाओं के लिये केवल ऐक दुःखद स्मृति चिन्ह है।

कन्या शिशु हत्या

कन्या शिशु हत्या के दुष्प्रचार को ले कर भी हिन्दू समाज को इस प्रकार की निराधार आलोचना के कारण शर्मिन्दा होने या बचाव मुद्रा में जाने की जरूरत नहीं है क्यों कि वास्तविक तथ्य इस आरोप के विपरीत हैं।

  • हमारे महाकाव्यों, पुराणों, साहित्य, जातक कथाओं, पँचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी या किसी भी अन्य पुस्तक में ऐक भी वृतान्त उल्लेखित नही जो कन्या भ्रूण हत्या या कन्या शिशु हत्या की घटना का साक्षी हो।
  • यदि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथा हिन्दू समाज में प्रचिल्लत होती तो सीता, द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, शकुन्तला, जीजाबाई जैसी महिलायें हमारे इतिहास में ना आतीं। यह सभी कन्यायें अपने अपने माता पिता के घरों में प्यार दुलार से पाली गयीं थीं।
  • हिन्दू समाज में माता-पिता विवाह के समय कन्यादान करना ऐक पवित्र और पुन्य कर्म मानते हैं। अतः इस प्रकार की मानसिक्ता रखने वाले हिन्दू माता-पिता कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप का समर्थन कदापि नहीं कर सकते।
  • परिवार नियोजन के लिये हिन्दू धर्म तो गर्भपात का ही विरोध करता रहा है और संयम पर बल देता रहा है। पुत्री तथा पुत्रियों को अनचाहे कह कर गर्भपात के तरीके से हत्या की कुप्रथा पाश्चात्य समाज की देन है जो संयम में विशवास नही रखते  और अपने आप को माडर्न समझते हैं।
  • महिलाओं के लिये विविध प्रकार के प्राचीन कालिक वस्त्राभूष्ण, सौन्दर्य प्रसाधन, सुगन्धित द्रव्य इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को प्रेम दुलार से सजा कर पाला जाता था और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घृणित बात सोचना भी कठिन था।
  • माता पिता विवाह के समय अपनी बेटियों को स्वेच्छा से दहेज में धन, सम्पत्ति आदि देते हैं। वह किसी आर्थिक कारण से भी बेटी को बोझ नहीं समझते। कुछ नीच लोग दहेज की माँग करते हैं परन्तु हिन्दू धर्म उन का समर्थन कभी नहीं करता।
  • रक्षाबन्घन का पर्व समस्त भारत में भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है। ऐसा त्योहार किसी अन्य मानवी समाज में नहीं मनाया जाता। फिर इन परम्पराओं को स्वेच्छा से मानने वाला समाज कन्या भ्रूण हत्या का समर्थन कभी नहीं करे गा।

कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा भारत के कुछ भागों में इस्लामी शासन काल में उभरी थी। ‘महान’ कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह अकबर ने जब अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण राजपूत परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ किये तो बदले में मुग़लों को भी राजपूत परिवारों में बेटियाँ ब्याहनी ज़रूरी थीं। यदि मुगल शाहजादियों के विवाह राजपूतों के साथ होते तो मुगल बादशाहों को राजपूत जमाईयों के लिये मुगल शाहजादों के समान दर्जा भी देना पडना था। इस से बचने के लिये धूर्त ‘अकबर महान’ ने मुगल शाहजादियों के विवाह पर ही रोक लगा दी थी। मुगल शाहजादियों के विवाह पर प्रतिबन्ध अकबर के काल से आरम्भ हो कर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक रहा क्यों कि अकबर की तरह राजपूतों से इकतरफा वैवाहिक सम्बन्ध उन्हों ने भी बनाये रखे थे। शाहजहाँ की दोनों पुत्रियाँ जहाँ आरा और रौशन आरा अविवाहित जीवन जीती रहीं थी। औरंगजेब को राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध रखने की चाह नहीं थी अतः उस ने मुगल शाहजादियों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया था। ‘अकबर महान’ का निर्णय अमानवी और धूर्ततापूर्ण था। सम्भव है कि कई मुगल शाहजादियों की जन्म समय हत्या भी किले के तहखानों में करी जाती होगी जिस से प्रेरणा पा कर कुछ राजपूत सामन्तों ने भी बेटी मुगलों को देने के बजाये उन की हत्या करना आधिक सम्मान जनक समझा हो। कुछ भी हो हिन्दू समाज इस प्रकार की घृणित प्रथा का समर्थन नहीं करता।

आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण गर्भपात जैसी अमानवीय कुप्रथाओं का चलन है। कुछ कमीने लोग लिंग जाँच करवाने के पश्चात कन्या भ्रूण की हत्या भी करवाते हैं किन्तु इस प्रकार की कुप्रथाओं का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म प्रचारक इस का स्दैव विरोध करते हैं। इन कुकर्मों को हिन्दू समाज का धार्मिक या सामाजिक समर्थन नहीं है।  

विश्व सभ्यता का सूत्रधार  

हिन्दू समाज को दुष्प्रचार से भयभीत अथवा त्रास्त होने के बजाये तथ्यों के आधार पर दुष्प्रचार का खण्डन करना चाहिये और यदि कोई हिन्दू इस प्रकार का घृणित काम निजि तौर पर करे तो उस का पूर्णत्या बहिष्कार भी करना चाहिये।

चाँद शर्मा

 

 

टैग का बादल