हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

58 – क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?

हिन्दू धर्म का विग्रह

ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर ‘सुधार’ स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।

बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था – बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।

कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।

ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।

हिन्दू धर्म का मध्यान्ह

सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 

कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।

अति सर्वत्र वर्ज्येत

भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।

विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।

विनाश की ओर

हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन – अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है –  को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

ईस्लामी विनाश की आँधी

इस्लाम की स्थापना कर के जब मुहमम्द ने आपस में स्दैव लडते रहने वाले रक्त पिपासु अनुयाईयों को उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक दुनियाँ को फतेह कर के अल्लाह का पैगाम फैला देने का आदेश दिया तो जहाँ कहीं भी सभ्य मानव समुदाय अपने अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहै थे वहाँ मुजाहिदों ने जिहाद आरम्भ कर दिया। शान्ति से जीवन काटते लोगों को जिहादियों की क्रूरता और बरबर्ता का अनुमान ही नहीं था। आन की आन में ही वहशियों ने उन्हें तथा उन की सभ्यताओं को तहस नहस कर के रख दिया।

मुहमम्द ने अपने आप को खुदा का इकलौता रसूल (प्रतिनिधि) घोषित किया था तथा अपने बन्दों को हुक्म दे रखा था कि उस के बताये उसूलों को तर्क की कसौटी पर मत परखें। केवल मुहमम्द पर इमान लाने के बदले में सभी को मुस्लिम समाज में मुस्सावियत (बराबरी) का हक़ दिया जाता था जिस के बाद उन क परम कर्तव्य था कि वह इस्लाम के ना मानने वालों को अल्लाह के नाम से कत्ल कर डालें। इस्लाम की विचारधारा में ‘जियो और जीने दो’ के बजाय ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ का ही प्रवधान था। अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने अपनी निजि पकड अरबवासियों पर कायम रखने के लिये उन्हें आदेश दिये किः-

              तुम अल्लाह और उस के भेजे गये रसूल (मुहम्मद), और कुरान पर यकीन करो। जो भी व्यक्ति अल्लाह, अल्लाह के फरिशतों, अल्लाह की किताब (कुरान),  अल्लाह के (मुहम्मद के जरिये दिये गये) आदेशों और अक़ाबत पर यकीन ना करे वह मुनक्कर (भटका हुआ) है। (4.136)

मुहम्माद ने अल्लाह के नाम पर अपने समर्थकों को काफिरों के वास्ते आदेश दियेः-

  • (याद रखो जब) अल्लाह ने अपना ‘आदेश’ फरिशतों से कहा-“ बेशक मैं तुम विशवस्नीयों के साथ हूँ, मैं काफिरों के दिल में खौफ पैदा करूँगा, और तुम उन की गर्दन के ऊपर, उंगलियों के छौरों और पैरों के अंगूठों पर सख्ती से वार करना।”(8.12)
  • उन के (काफिरों के) खिलाफ जितनी ताकत जुटा सको वह ताकतवर घोडों के समेत जुटाओ ताकि अल्लाह और तुम्हारे दुशमनों और उन के साथियों (जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है) के दिल में खौफ पैदा हो। तुम अल्लाह के लिये जो कुछ भी करो गे उस की भरपाई अल्लाह तुम्हें करे गा और तुम्हारे साथ अन्याय नहीं हो गा।(8.60)

अपने साथियों का मनोबल बढाने के लिये मुहम्मद ने उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन जन्नत में वादा कियेः-

  • अल्लाह तमाम मुस्लमानों को जन्नत में स्थान देगा जो कि खास उन्हीं के लिये बनाय़ी गयी है। (47.6)
  • काफिरों के लिये जहन्नुम की आग में जलना और यातनायें सहना ही है। (47.8)
  • ऐ रसूल (मुहम्मद)! मुस्लमानों को जंग के लिये तौय्यार करो। अगर तुम्हारी संख्या बीस है तो वह दो सौ काफिरों पर फतेह पाये गी और अगर ऐक सौ है तो ऐक हजार काफिरों पर फतेह पाये गी क्यों कि काफिरों को कुछ समझ नहीं होती। (8.65)

इस्लाम में काफिरों के साथ हर प्रकार के विवाहित सम्बन्ध वर्जित थे। मुहम्मद ने मृत्यु से कुछ महीने पहले अपना अंतिम फरमान स प्रकार दियाः-

मेरे बाद कोई रसूल, संदेशवाहक, और कोई नया मजहब नहीं होगा।… मैं तुम्हेरे पास खुदा की किताब (कुरान) और निजि सुन्ना (निजि जीवन चरित्र) अपनाते रहने के लिये छोड कर जा रहा हूँ। 

अतः मुहम्मद ने इस प्रकार का मजहबी आदेश और मानसिक्ता दे कर मुस्लमानो को दुनियाँ में जिहाद के जरिये इस्लाम फैलाने का फरमान दिया जो प्रत्येक मुस्लिम के लिये किसी भी गैर मुस्लिम को कत्ल करना उन के धर्मानुसार न्यायोचित मानता है। यदि कोई मुस्लिम काबा की जियारत (तीर्थयात्रा) करे तो वह ‘हाजी’ कहलाता है, लेकिन हाजी कहलाने से भी अधिक ‘पुण्य-कर्म’ हे किसी काफिर का गला काटना जिस के फलस्वरूप वह ‘गाजी’ कहला कर जन्नत में जगह पाये गा जहाँ प्रत्येक मुस्लमान के लिये 72 ‘हूरें’ (सुन्दरियाँ) उस की सभी वासनाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये हरदम तैनात रहैं गी।

सभ्यताओं का विनाश

इस मानसिक्ता और जोश के कारण इस्लाम नें लगभग आधे विश्व को तलवार के ज़ोर से फतेह कर

ऐक ऐक कर के अनेकों सभ्यतायें, जातियाँ और देश इस्लामी जिहादियों की तलवार की भैन्ट चढ गये। जिहादी वास्तव में सभ्यता से कोसों दूर केवल भेडों और ऊँटों को पालने का काम करते रहे थे। कोई भी देश उस प्रकार की तत्कालिक हिंसात्मक विनाश का सामना नहीं कर पाया जो असभ्य खूनियों ने विस्तरित संख्या में फैला दी थी। इस्लाम  के फतेह किये गये इलाकों में रक्तपात तभी रुका जब स्थानीय लोग या तो ईस्लामी धर्म में परिवर्तित हो गये या फिर कत्ल कर डाले गये। इस्लाम के जिहादियों ने स्थानीय लोगों को कत्ल तो किया ही, उन के पूजा स्थल भी ध्वस्त कर दिया और उन के धार्मिक ग्रन्थों तथा साहित्य को जला डाला, उन की परम्पराओं पर प्रतिबन्ध लगाये ताकि स्थानीय लोगों की पहचान का कोई भी चिन्ह बाकी ना रहै। बचे खुचे लोग या तो दुर्गम स्थलों पर जा कर रहने लगे, या इस्लाम में परिवर्तित हो कर मुसलमानों के गुलाम बना दिये गये। 

ऐशिया तथा योरूप के देशों ने मृत्यु के सामने साधारणत्या इस्लाम कबूल कर लिया किन्तु भारत में वातावरण वैसा नहीं था। भारत में मुहमम्द के जन्म से सदियों पहले ही सभ्यता का अंकुर फूट कर अब ऐक विशाल वृक्ष का रुप ले चुका था। हिन्दूओं ने इस्लाम को नहीं स्वीकारा और इस लिये भारत में इस्लाम का कडा विरोध निश्चित ही था। भारतवासियों के लिये वह प्रश्न गौरव के साथ जीने और गौरव के साथ ही मरने से जुडा था। भारत में भी गाँव और नगर आग से फूंक डाले गये, जनता का कत्ले आम किया गया फिर भी हिन्दू स्दैव इस्लाम की विरोध करते रहै।

चाँद शर्मा

57 – पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।

भारत की ज्ञान गाथा

ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 

सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।

योरुप का वातावरण

पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  

योरुप में रिनेसाँ

योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।

योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।

चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता

रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।

धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा

राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।

इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।

भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था – कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।

आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।

योरुप का अतिकर्मण

इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।

स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।

उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता

योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।

यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 

रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।

मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।

भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।

जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।

चाँद शर्मा

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

41– विश्व को साहित्यिक देन


भारत कथा साहित्य का जनक देश है। भारत रचित कथायें  आज विश्व के दूर दराज़ देशों की सभी भाषाओं और शैलियों में प्रचिलित हैं, लेकिन सुनने और पढने वालों को उन के मूल के बारे में कोई जानकारी नहीं होती।  पाश्चात्य साहित्यकारों को संस्कृत भाषा की औपचारिक जानकारी अठाहरवीं शताब्दी में मिली थी जिस के पश्चात उन को भारत की साहित्यक प्रतिभाओं का ज्ञान हुआ था। लेकिन साहित्य का हस्तान्तरण श्रुति के आधार पर इस से पूर्व ही हो चुका था। किस सीमा तक हमारी मौलिक साहित्यिक विरास्त बाहर जा चुकी है इस का कोपी-राईट के युग में आंकलन करना अब शौध का विषय है। अंग्रेजी साहित्य के जन्म से कई शताब्दियों पूर्व भारत के कथा संग्रह अपने उत्थान पर पहुँच चुके थे। अठाहरवीं शताब्दी से पूर्व विश्व साहित्य में ऐसी कोई लेखन शैलि नहीं थी जिस का जन्म भारत में नहीं हुआ था।

भारतीय लोक कथा शैलियाँ 

बैलेड सिंगिंग – रामायण, महाभारत तथा पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त, भारत के लोक गायक नल-दमयन्ती, राजा भर्तरि, आल्हा-उदल आदि के प्रेम, विरह, और शौर्य की गाथायें ऐकत्रित जन समूहों में गा कर सुनाया करते थे। इसी रिवाज से प्रेरणा ले कर सदियों बाद पाश्चात्य जगत में भी बैलैड सिंगिंग की शुरुआत हुई। पुराण ऐतिहासिक ग्रन्थ होने के साथ साथ कथा साहित्य के प्राचीनत्म ग्रन्थ हैं जो जन जीवन की कथायें अपनें में समेटे हुये हैं। उन कथाओं में जन जीवन चित्रण के साथ समस्या का समाधान भी दिया जाता था। भारतीय लेखक समाज सुधारक पहले भी थे और आज भी उसी परम्परा पर चल रहै हैं। उन की लेखन शैलि में नैतिकता की प्रधानता आदिकाल से रही है।

पंचतंत्र – शताब्दियों पूर्व भारत की लोक कथाओं ने योरुप, अरब तथा पूर्व ऐशिया में लोकप्रियता हासिल कर ली थी। पँचतन्त्र की कथायें, हितोपदेश तथा जातक कथाओं को यात्री अपने देशों में सुनाते रहै थे। मानव कथा साहित्य में पँचतन्त्र से अधिक किसी अन्य कथा ग्रन्थ का योगदान नहीं है। अधिकाँश भारतीयों को शायद पता भी नहीं कि बाईबल के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में यदि कोई पुस्तक सर्वाधिक लोकप्रिय हुई है तो वह विष्णु शर्मा रचित भारतीय साहित्य की अनमोल कृति पँचतन्त्र ही है।

जातक कथायें –  हिन्दू आस्थाओं में पुनर्जन्म का प्रावधान अति महत्वशाली है। जातक कथाओं में भगवान बुध (बोधिसत्वः) बार बार कभी बन्दर, हिरण, हाथी, अथवा मानव के रूप में अवतरित होते हैँ और कथा के माध्यम से कोई शिक्षाप्रद संदेश देते हैं। प्रत्येक कथानाक के साराँश में शिक्षात्मक रहस्य अपने आप ही पाठकों को समझ आ जाता है। पंचतंत्र और जातक कथाओं में कई कथायें मिलती जुलती हैं, केवल इतना फर्क है कि जहां जातक कथाओं में बोधिसत्वः सूत्रधार की भूमिका में आते हैं तो पंच तंत्र में सूत्रधार भगान राम हैं। राम तथा ऋषभ देव दोनो को विष्णु का अवतार माना जाता है। जातक कथायें पाली भाषा में लिखी गयीं थीं।

हितोपदेश – हितोपदेश में तत्कालिक सामाजिक अवस्थाओं और जन जीवन की दैनिक घटनाओं का शिक्षाप्रद चित्रण किया गया है, जैसे कि जीवन में मित्रों का चुनाव किस प्रकार करना चाहिये, आदि। यह कथायें व्यवहारिक जीवन में सकारात्मिक मूल्यों तथा चरित्र निर्माण का श्रेष्ट स्त्रोत्र हैं।

बैताल पच्चीसी – बैताल पच्चीसी में पच्चीस कथायें हैं। बैताल राजकुमार विक्रम को प्रति रात्रि ऐक कथा सुना कर अन्त में कथा से सम्बन्धित ऐक विश्ष्ट प्रश्न पूछता है जो किसी महत्वपूण नैतिकता के बारे में होता है।

सिहासन बत्तीसी – इसी प्रकार का अन्य संग्रह सिहासन बत्तीसी है जिस में महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बनी बत्तीस पुतलियाँ बारी बारी से महाराज विक्रम के न्याय, शौर्य, या धैर्य से सम्बन्धित कोई वृतानत सुनाती हैं।

शुक-रम्भा – ऐक अन्य कथा संग्रह शुक-रम्भा है जिस में तोता और मैना स्त्री पुरुषों के प्रस्पर प्रेम सम्बन्धों, षटयन्त्रों, ईर्षा, व्याभिचार आदि की कथायें प्रति दिन सुना कर शिक्षा देने हेतु कोई प्रश्न पुछ कर समस्या का समाधान सुझाते हैं। इसी ग्रंथ का उर्दू रुपान्तर किस्सा ‘तोता-मैना ’ है।

लोक कथाओं का रूपान्तिकरण

अरब और ईरानी व्यापारियों के माध्यम से भारत की लोक कथायें तुर्की, रोम तथा योरुप के कई देशों में पहुँचीं। कुस्तुनतुनियाँ (कान्स्टीनोपल) से वह कथायें वेनिस और नेपल्स के व्यापारिक सूत्रों से योरुप और इंगलैंड पहुँची जहाँ वह बोकेशियो, चासर, केरवेन्टिस, शेक्सपियर, लिसेगे लाफोंटेनी तथा वोल्टायर आदि योरुपियन लेखकों की प्रेऱणा स्त्रोत्र बनीं। उस समय साहित्य सर्जन कोई व्यापार नहीं था और कोपीराईट का कोई विधान नहीं था अतः प्रत्येक विदेशी कहानी लेखक ने कहानी को नयी छवि में रुपान्तरित किया और अपने देश वासियों को सुनाया। मूल कथाओं में इतने परिवर्तन होते गये कि उन की मौलिक छवि से मेल जोल के भारतीय चिन्ह मिटते चले गये। इसी का ऐक उदाहरण प्रस्तुत है।

होलैण्ड देश में समुद्र अकसर तट लाँघ कर स्थल को डुबो देता है। सुरक्षा के लिये पानी को रोकने के लिये स्थानीय लोगों ने तट के साथ साथ मिट्टी और पत्थरों की दीवार निर्माण कर दी थी। फिर भी उस अवरोध पर हर समय नजर रखनी पडती थी कि वह कहीं टूट ना जाये। कोई छोटा सा छेद भी खतरनाक हो सकता था। कई वर्ष पहले होलैण्ड में पीटर नाम का ऐक सात वर्षीय बालक रहता था। ऐक दिन पीटर की माँ ने उस को कुछ दूरी पर किसी नेत्रहीन बूढें व्यक्ति के पास कुछ केक देने के लिये भेजा और रात्रि होने से पूर्व ही लौट आने का आदेश भी दिया । घर वापिस लौटते समय पीटर ने देखा कि समुद्र की उफानी लहरें सुरक्षा दीवार के साथ टकरा रही थीं। उस के देखते ही देखते दीवार में दरार पड गयी और पानी नगर में रिसने लगा। पीटर ने अपने यत्न से दीवार में पानी का रिसाव रोकने की कोशिश की किन्तु दरार बढती गयी और रात्रि का अन्धेरा भी छाने लगा। सर्दी भी बढने लगी थी। पीटर की सहायता के लिये आस पास में कोई नहीं था। उस ने पूरी रात वहाँ अपने हाथों से ही दरार को यथासम्भव रोके रखा और प्रातः नगरवासियों ने उसे थकान के कारण निढाल अवस्था में देखा। लोगों ने दरार को बन्द किया तथा पीटर को उस के घर पर ले गये। उस का ऐक वीर नायक की तरह सम्मान किया गया। अब जब भी सागर गर्जता है तो वहाँ के लोग बच्चों को पीटर के दृष्टाँत से सिखाते हैं कि ऐक अकेला बालक भी बहुत कुछ कर सकता है। माता पिता अपने बच्चों को सागर तट पर ले जा कर पीटर की कहानी सुनाते हैं, लोक गीत गाते है जिस ने साहस कर के अपने नगर को बचा लिया था।

अब तनिक पहचानियें कुछ वैसी ही कथा हमारे प्राचीन ग्रन्थो  में बालक उपमन्यु की भी है जो ऋषि अपाद्द्योम्य के गुरुकुल में गायों की देख भाल करता था। ऐक दिन सायंकाल उपमन्यु को वन से सूखी लकडियाँ चुनने के लिये जब भेजा गया तो उस ने देखा कि गुरुकुल के खेत में जल भरता जा रहा था। उसे आशंका हुई कि यदि जल का रिसाव ना रोका गया तो प्रातः काल होने तक खेत नष्ट हो जाये गा। उपमन्यु ने पहले तो अपने यत्न से रिस्ती हुयी मेड की मरम्मत की किन्तु जब सफलता नहीं मिली तो स्वयं मेड बन कर रात भर जल में ही लेटा रहा और खेत को नष्ट होने से बचा लिया। अगले दिन गुरु तथा गुरुकुल के विद्यार्थियों ने उसे ढूंड निकाला।

दोनों लोक कथाओं में एक बालक की कर्तव्य परायणता दर्शायी गयी है। घटनायें एक जैसी हैं केवल बैकग्राऊड बदली गयी है। इसी प्रकार शेक्सपियर के नाटक मेकबेथ में मेकडफ पात्र की मृत्यु का पटाक्षेप महाभारत से प्रेरित है। कई अन्य लोकप्रिय कथायें जैसे कि हैंस ऐन्डरसन की फेयरी-टेल्स में मैजिक मिरर, जैक एण्ड दि बीन्स स्टाक, पर्स आफ फार्चुनेटस इत्यादि का मूल स्त्रोत्र भारतीय लोक कथाओं से है। कई कथाये जातक कथाओं तथा ‘कथासरितसागर’ से ली गयी हैं। अरेबियन नाईटस की भी कई कथाओं का मूल स्त्रोत्र भारतीय है। अरब इतिहासकार अलमसूद के अनुसार सिन्दबाद की विश्व प्रसिद्ध कथा ‘किताब-एल-सिन्दबाद’ का स्त्रोत्र भी भारत से है।

विश्व साहित्य पर भारतीय प्रभाव 

कथा शैली – प्रति दिन ऐक कथा सुना कर नैतिकता दर्शाने की भारतीय कथा शैली का विश्व के सभी प्राचीन कथाकारों ने प्रयोग किया है। 1350 ईस्वी में लिखी ईंगलिश साहित्य की प्रथम पुस्तक चासर की केन्टरबरी-टेलेस हैं जहाँ कहानी सुनाने की भारतीय शैली को अपनाया गया है। केन्टरबरी जाने वाला प्रत्येक तीर्थयात्री सराय में अपनी बारी आने पर समय काटने के लिये ऐक ऐक कहानी दूसरे यात्रियों को सुनाता है।

सूत्रधार – नाटक के कथानक के वह अँश जिन को रंग मंच पर दृष्य में दिखाना सम्भव नहीं होता था उसे कालीदास तथा अन्य भारतीय नाटक कार ‘सूत्रधार’ के माध्यम से दर्शकों को अवगत कराते थे। इसी शैली का प्रयोग शेक्सपियर ने भी सोहलवीं शाताब्दी में किया। महारानी ऐलिजाबेथ प्रथम के काल के नाटक कारों ने प्रोलोग (प्रस्तावना) तथा एपिलोग (उपसंहार) का प्रयोग भी नाटकों में किया है। वास्तव में यह प्रथा कालीदास के समय की है जब इंगलैंड वासियों को रोमन लिपि का ज्ञान ही नहीं था। विलियम शेक्सपियर के समकालीन नाटककार क्रिस्टोफर मार्लो के नाटक डाक्टर फासस्टस की प्रसिद्ध प्रस्तावना (प्रोलोग) भी कालीदास प्रेरित है।

विदूषक – नाटकों में ऐक अन्य भारतीय प्रथा ‘विदूषक’ की भूमिका थी जिस को माध्यम बना कर नाटककार अपनी निजि टिप्पणियाँ कथानक के बीच में करते रहते थे। किसी ‘मूर्ख’ के चरित्र में विदूषक नायक या नायिका का सहयोगी पात्र होता था। विदूषक की भूमिका का अन्य लक्ष्य दुखान्त भाव को हास्यरस से क्षीण (कोमिक रिलीफ) कर के दर्शकों की भावनाओं में संतुलन बनाना होता था। ऐलिजाबेथ काल के नाटकों में से मुख्यतः शेक्सपियर के ऐतिहासिक नाटकों में विदूषक फालस्टफ इसी प्रकार के पात्र है जिस की प्रेरणा के जनक कालीदास थे।

नृत्य नाटिका – रंग मंच के सभी पक्षों पर मौलिक प्राचीनत्म ग्रंथ भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र है जो तीसरी शताब्दी में रचा गया था। महाकाव्यों और लोक कथाओं के अतिरिक्त कथाओं का गा कर या नृत्य-नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का चलन भी भारतीय है। कालीदास को ओपेरा का जनक कहना उचित होगा। भारत में सातवीं शताब्दी से पूर्व ही नृत्य-नाटिका लोकप्रियता की प्राकाष्ठा को पहुँच चुकी थी जब कि इंगलैण्ड, आस्ट्रीया आदि योरोपियन देशों में ओपेरा का कोई नामोनिशान ही नहीं था। कालीदास के अतिरिक्त भवभूति, बाणभट्ट और स्वयं महारज हर्षवर्द्धन उच्च कोटि के नाटककार थे।

संस्कृत साहित्य प्राचीन परम्परा और आधुनिक विचारधारा को जोडने में सफल रहा है। कालीदास की शकुन्तला पर आधारित शकुन्तला ओवरचर हंगरी देश के संगीतकार कार्ल गोल्डमार्क (1830-1915) की ऐक  श्रेष्य़तम संगीत कृति है। उस के मतानुसार यदि कालीदास की भाषा इतनी सशक्त ना होती तो वैसी संगीत कला कृति की रचना असम्भव होती। लेकिन कालीदास रचित नृत्य नाटिका शैली को योरूप में फलने फूलने के लिये सोहलवीं शताब्दी तक इन्तिजार करना पडा था।

नाटकीय चित्रण का ऐक उदाहरण कालीदास के प्रसिद्ध नाटक रघुवंशमहाकाव्यम् से यहाँ प्रस्तुत है
स्वयंवर में वर चुनने की प्रक्रिया में राजकुमारी इन्दुमती जयमाला लिए राजाओं की पंक्ति के बीच से गुजर रही है। चलती हुई दीपशिखा की भाँति इन्दुमती जिस–जिस राजा के पास से गुजर जाती थी वह राजा प्रकाश के आगे बढ़ जाने पर अंधेरी अट्टालिकाओं की तरह कांतिहीन हो जाता था। इस प्रकार के दृश्य का पूर्ववर्ती साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं हुआ है जब कि परवर्ती फ़िल्मों और धारावाहिकों में इससे प्रेरणा लेकर आज भी यह दृश्य प्रस्तुत किया जाता है। सदियों बाद इस प्रकार के दृष्य केवल फिल्म मुगले-आजम में ही देखने को मिले थे।

साहित्य शैली का सम्पू्र्ण विकास

साहित्य सर्जन में सभी प्रकार की लेखन शैलियों जिन में श्रव्य-काव्य (जो मौखिक सुनाये जाते हैं) तथा दृष्य-काव्य जो नाटक आदि की तरह दिखाये जाते हैं का विकास भारत में ही स्वतन्त्र रूप से हुआ था। उन्ही स्वरूपों को अन्य भाषाओं ने भी बाद में अपनाया। जैसे किः-

  • गूढ रहिस्य समझाने के लिये प्रश्न-उत्तर संवाद की शैली अधिक सक्षम मानी जाती है जिसे पुराणों, उपनिष्दों तथा गीता में अपनाया गया था।
  • महाकाव्य महामानवों सम्बन्धी घटनाओं को अलंकिृत कर के दर्शाते हैं तथा उन की लेखन शैली में उपमा, तुलना और अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग होता है जो रामायण तथा महाभारत तथा संस्कृत नाटकों में प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं। यही प्रभाव होमर कृत औडेसी (ग्रीक), दाँते कृत इलियड (लेटिन) और मिलटन रचित पैराडाईज लोस्ट (इंग्लिश) के ग्रैंडस्टाईल में देखा जा सकता है। संस्कृत भाषा के उन्हीं अलंकारों (फिगर्स आफ स्पीच) का इस्तेमाल ही अंग्रेजीं साहित्य में किया गया है जिन्हें सिमली (उपमा) कमेपेरिज़न (तुलना) और मेटाफर (अतिश्योक्ति) आदि कहा जाता है। कोई इतिहासकार या साहित्य विषेज्ञ्य यह कह कर उल्टी गंगा नहीं बहा सकता कि संस्कृत साहित्य को अलंकारों के प्रयोग की प्रेरणा अंग्रेजी साहित्यकारों ने दी थी।
  • महाकाव्यों में ‘मंगलाचरण’ दूारा प्रेरणादायक इष्ट (गणेश, सरस्वती आदि) को सर्वप्रथम अभिवादन किया जाता है। विदेशी महाकवि होमर, दाँते और मिलटन आदि ने भी उसी परम्परानुसार अपने महाकाव्यों में अपने प्रेरणादायक ‘हैवनली म्यूज की आराधना करी है।
  • वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औष्धियों को ‘सम्बोधन’ कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ओड कहा जाता है जिस का प्रयोग अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जोन कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था जैसे कि कीट्स की ओड टू नाईटिंगेल, ग्रऐशियन अर्न, मेलंकोली और शैली की ओड टू वेस्ट विंड हैं।

गुप्त काल के विश्व प्रसिद्ध नाटककार कालीदास को इण्डियन शेक्सपियर की उपाधि से सम्मानित होते देख कर हम भारतवासी ‘गर्व’ तो महसूस करते हैं परन्तु यह उस प्रकार है जैसे कोई पिता कहे कि उस में उस के पुत्र के सभी गुण विद्यमान हैं। आजतक किसी  भारतीय ने शेक्सपियर को ‘इंग्लैण्ड का कालीदास’ कहने का साहस नहीं किया है, क्योंकि जितना प्रेम अंग्रेज अपने शेक्सपियर से करते हैं उतना भारतीय कालीदास से नहीं करते। अंग्रेजी का गुणगान करने वालों को शायद मालूम नहीं कि आज से केवल 800 वर्ष पूर्व, तेहरवीं शताब्दी तक विश्व में अंग्रेज़ी नाम की कोई भाषा नहीं थी। अंग्रेजी के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हिन्दी भाषा ने भी अपने साहित्यिक इतिहास का सवर्णमय ‘वीर-गाथा काल’  समाप्त कर के ‘भक्ति-काल’ में प्रवेश कर लिया था। पृथ्वीराज-रासो, वीसलदेव-रासो, और पद्मावत आदि महाकाव्य लिखे जा चुके थे। संत कबीर के समक्ष अंग्रेजी साहित्य में कोई भी मेटाफिजिकल कवि नहीं है। किन्तु आज भी हमारी ‘नाम-मात्र राष्ट्रभाषा’ हिन्दी भारत में ही उपेक्षित हो रही है।

चाँद शर्मा

40 – देव-वाणी संस्कृत भाषा


संस्कृत विश्व की सब से प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पू्र्णतया वैज्ञायानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण नें विश्व भर के भाषा विशेषज्ञ्यों का ध्यानाकर्षण किया है तथा उन के मतानुसार भी यह भाषा कम्पयूटर के उपयोग के लिये सर्वोत्तम भाषा है। 

मूल ग्रंथ

संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है। इस भाषा को ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना कि लिये चुना क्योंकि इस भाषा के शब्दों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था। इसी भाषा में वेद प्रगट हुये, तथा उपनिष्दों, रामायण, महाभारत और पुराणों की रचना की गयी। मानव इतिहास में संस्कृत का साहित्य सब से अधिक समृद्ध और सम्पन्न है। संस्कृत भाषा में दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, विज्ञान, ललित कलायें, कामशास्त्र, संगीतशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, हस्त रेखा ज्ञान, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, युद्ध कला, कूटनिति तथा महाकाव्य, नाट्य शास्त्र आदि सभी विषयों पर मौलिक तथा विस्तरित गृन्थ रचे गये हैं। कोई भी विषय अनछुआ नहीं बचा।

पाणनि रचित अष्याध्यायी

किसी भी भाषा के शब्दों का शुद्ध ज्ञान व्याकरण शास्त्र कराता है। पाणनि कृत अष्याध्यायी संस्कृत की व्याकरण ईसा से 300 वर्ष पूर्व रची गयी थी। स्वयं पाणनि के कथनानुसार अष्टाध्यायी से पूर्व लग भग साठ व्याकरण और भी उपलब्द्ध थे।अष्याध्यायी विश्व की सब से संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व्याकरण है। इस में भाषा का विशलेषण कर के शब्द निर्माण के मूल सिद्धान्त दर्शाये गये हैं। अंक गणित की पद्धति का प्रयोग कर के सभी शब्दों की रचना के सिद्धान्त संक्षिप्त में ही सीखे जा सकते हैं। संस्कृत में शब्द निर्माण पूर्णत्या वैज्ञानिक और तर्क संगत है। उदाहरण के लिये सिंहः शब्द हिंसा का प्रतीक है इस लिये हिंसक पशु को सिहं की संज्ञा दी गयी है। इसी प्रकार सम्पूर्ण विवरण स्पष्ट, संक्षिप्त तथा सरल हैं।

भाषा विज्ञान के क्षेत्र में पाणनि रचित अष्याध्यायी निस्संदेह ऐक अमूल्य देन है। अष्टाध्यायी के आठ अध्याय और चार हजार सूत्र हैं जिन में विस्तरित ज्ञान किसी कम्प्रेस्सड  कमप्यूटर फाईल की तरह भरा गया है। उन में स्वरों (एलफाबेट्स) का विस्तृत विशलेषण किया गया है। इस का ऐक अन्य आश्चर्यजनक पक्ष यह भी है कि अष्टाध्यायी का मूल रूप लिखित नही था अपितु मौखिक था। उसे समर्ण रखना होता था तथा श्रुति के तौर पर पीढी दर पीढी हस्तांत्रित करना होता था। अभी अष्टाध्यायी के लिखित संस्करण उपलब्द्ध हैं, और व्याख्यायें भी उपलब्द्ध हैं। किन्तु फिर भी शब्दों की मूल उत्पत्ति को स्मर्ण रखना आवश्यक है। संस्कृत व्याकरण के ज्ञान के लिये अष्टाध्याय़ी मुख्य है।

पाणनि के पश्चात कात्यायन तथा पतंजलि जैसे व्याकरण शास्त्रियों ने भी इस ज्ञान को आगे विकसित किया था। उन के अतिरिक्त योगदान से संस्कृत और सुदृढ तथा विकसित हुयी और प्राकाष्ठा तक पहुँच कर बुद्धिजीवियों की सशक्त भाषा रही है 

संस्कृत भाषा की वैज्ञ्यानिक्ता

प्राचीन काल से ही भारत का भाषा ज्ञान ग्रीक तथा इटली से कहीं अधिक श्रेष्ठ तथा वैज्ञिानिक था। भारत के व्याकरण शास्त्रियों ने योरूपियन भाषा विशेषज्ञ्यों को शब्द ज्ञान का विशलेषण करने की कला सिखायी। यह तब की बात है जब अपने आप को आज के युग में सभी से सभ्य कहने वाले अंग्रेज़ों को तो बोलना भी नहीं आता था। आज से ऐक हजार वर्ष पूर्व वह उधार में पायी स्थानीय अपभ्रंश भाषाओं में ‘योडलिंग कर के ऐक दूसरे से सम्पर्क स्थापित किया करते थे। अंग्रेजी साहित्य का इतिहास 1350 से चासर रचित ‘केन्टरबरी टेल्स के साथ आरम्भ होता है जिसे फादर आफ इंग्लिश पोयट्री कहा जाता है। विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी के साथ संस्कृत की सीमित तुलना ही कुछ इस प्रकार करें तो संस्कृत की वैज्ञ्यानिक प्रमाणिक्ता के लिये हमें विदेशियों के आगे गिडगिडाने की कोई आवश्क्ता नहीं हैः-

  • वर्ण-माला – व्याकरण में किसी भी छोटी से छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं और वर्णों के समूह  वर्णमाला। अंग्रेजी में कुल 26 वर्ण (एलफाबेट्स) हैं जिस का अर्थ है कि 26 शुद्ध ध्वनियों को ही लिपिबद्ध किया जा सकता है। यह 26 ध्वनियां भी प्राकृतिक नहीं है जैसे कि ऐफ़, क्यू, डब्लयू, ऐक्स आदि एलफाबेट्स को छोटे बच्चे आसानी से नहीं बोल सकते हैं। इस की तुलना में संस्कृत वर्णमाला में 46 अक्षर हैं जो संख्या में अंग्रेज़ी से लगभग दुगने हैं और प्राकृतिक ध्वनियों पर आधारित हैं।
  • स्वर और व्यञ्जनों की संख्या – अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाओं में अक्षरों को स्वर (कान्सोनेन्ट्स) और व्यञ्जन (वोवल्स) की श्रेणी में बाँटा गया है। स्वर प्राकृतिक ध्वनियाँ होती हैं। व्यञ्जनों का प्रयोग प्राकृतिक ध्वनियों को लम्बा या किसी वाँछित दिशा में घुमाने के लिये किया जाता है जैसे का, की कू चा ची चू आदि। अंग्रेजी भाषा में केवल पाँच वोवल्स हैं जबकि संस्कृत में उन की संख्या 13 है। विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में संस्कृत के स्वर और व्यंजनो की संख्या इतनी है कि सभी प्रकार की आवाजों को वैज्ञानिक तरीके से बोला तथा लिपिबद्ध किया जा सकता है।
  • सरलता – अंग्रेज़ी भाषा में बहुत सी ध्वनियों को जैसे कि ख, ठ. ढ, क्ष, त्र, ण आदि को वैज्ञ्यानिक तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता। अंग्रेज़ी में के ऐ टी – कैट लिखना कुछ हद तक तो माना जा सकता है क्यों कि वोवल ‘ऐ’ का उच्चारण भी स्थाई नहीं है और रिवाज के आधार पर ही बदलता रहता है। लेकिन सी ऐ टी – केट लिखने का तो कोई वैज्ञ्यानिक औचित्य ही नहीं है। इस के विपरीत देवनागरी लिपि का प्रत्येक अक्षर जिस प्रकार बोला जाता है उसी प्रकार ही लिखा जाता है। अंग्रेज़ी का ‘डब्लयू किसी प्राकृतिक आवाज को नहीं दर्शाता, ना ही अन्य अक्षर ‘व्ही से कोई प्रयोगात्मिक अन्तर को दर्शाता है। दोनो अक्षरों के प्रयोग और उच्चारण का आधार केवल परम्परायें हैं, वैज्ञ्यानिक नहीं। अतः सीखने में संस्कृत अंग्रेज़ी से कहीं अधिक सरल भाषा है।
  • उच्चारण – कहा जाता है अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किन्तु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तःस्थ और ऊष्म वर्गों में बाँटा गया है। फिर शरीर के उच्चारण अंगों के हिसाब से भी दन्तर (ऊपर नीचे के दाँतों से बोला जाने वाला), तलबर (जिव्हा से), मुखोपोत्दर (ओष्ट गोल कर के), कंठर ( गले से) बोले जाने वाले वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। अंग्रेजी में इस प्रकार का कोई विशलेशण नहीं है सब कुछ रिवाजानुसार है।

यह संस्कृत भाषा की अंग्रेज़ी भाषा की तुलना में सक्ष्मता का केवल संक्षिप्त उदाहरण है। 1100 ईसवी तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोडने की प्रमुख कडी थी।

भारत की सांस्कृतिक पहचान

प्रत्येक व्यक्ति, जाति तथा राष्ट्र की पहचान उस की वाणी से होती है। आज संसार में इंग्लैण्ड जैसे छोटे से देश की पहचान ऐक साम्राज्य वादी शक्ति की तरह है तो वह अंग्रेज़ी भाषा की बदौलत है जिसे उधार ली भाषा होने के बावजूद अंग्रेज़ जाति ने राजनैतिक शक्ति का प्रयोग कर के विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित कर रखा है। इस की तुलना में इच्छा शक्ति और आत्म सम्मान की कमी के कारण संसार की ऐक तिहाई जनसंख्या होने के बावजूद भी भारतवासी अपनी तथाकथित ‘राष्ट्रभाषा’ हिन्दी को विश्व में तो दूर अपने ही देश में ही स्थापित नहीं कर सके हैं। हमारे पूर्वजों ने तो हमें बहुत कुछ सम्मानजनक विरासत में दिया था परन्तु यह ऐक शर्मनाक सच्चाई है कि हमारी वर्तमान पीढियाँ पूर्वजों दूारा अर्जित  गौरव के बोझ को सम्भाल पाने में असमर्थ रही हैं। उसी गौरव की ऐक उपलब्द्धी संस्कृत भाषा है जिस की आज भारत में ही उपेक्षा की जा रही है। 

हम मुफ्त में अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है।

रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए जुटे हैं, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय भारत में नहीं है। हमारे देश में तो इंग्लिश बोलना शान की बात मानी जाती है। इंग्लिश नहीं आने पर लोग आत्मग्लानि अनुभव करते है जिस कारण जगह जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स चल रहें है।

भारत की सरकार और लोगों को भी अब जागना चाहिए और अँग्रेजी की गुलामी से बाहर निकाल कर अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। भारत सरकार को भी ‘संस्कृत’ को नर्सरी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करके देववाणी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहिए। केवल संस्कृत ही भारत के प्राचीन इतिहास तथा विज्ञान को वर्तमान से जोडने में सक्षम है। यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने समूल को स्वयं ही नष्ट कर दें गे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है। नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पडे गा। 

चाँद शर्मा

 

7 – प्राकृति का व्यक्तिकरण


स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपनी अनुभूतियों से प्राकृति की शक्तियों को पहचान कर साधारण मानवों के बोध के लिये उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दी है। शक्तियों के परस्पर प्रभाव तथा क्षमताओं को समझाने के लिये देवी देवताओं की कथाओं के साथ साथ उन के चित्र भी बनाये गये जो लोक प्रिय हो गये। उस समय ज्ञान लिखित नहीं था – केवल सुन कर ही श्रुति के आधार पर ही याद रखा जाता था। श्रुति से स्मृति ही ज्ञान का प्रवाह था। कालान्तर जन साधारण मे स्मर्ण रखने के लिये देवी – देवताओं के चिन्हों तथा बुतों के पूजन की स्थानीय विधियां भी प्रचिलित हो गयीं। गुण दोषों का व्यक्तिकरण कर के उन पर साहित्य का सृजन होने लगा। गुण-वाचक संज्ञाओं को सांकेतिक ढंग से वर्णित तथा चित्रित कर दिया गया।

हवा तो अदृष्य होती है किन्तु यदि तेज़ हवा को सांकेतिक ढंग से दिखाना हो तो झूलते हुये पेड़, हल्के पदार्थों का हवा में उड़ना तथा  धूल से आकाश का ढक जाना चित्रित कर दिया जाता है। इसी प्रकार से महा मानवों, राक्षसों तथा देवी देवताओं का भी सांकेतिक चित्रण किया गया। उन की शक्तियां दर्शाने के लिये उन के चार या और अधिक हाथ, एक से अधिक सिर तथा अन्य तरीकों से चित्रकारों की कलपना ने उन्हे अलंकृत कर दिया। इन सब प्रथाओं की पहल भी भारत से ही हुई। सृष्टि के आरम्भ से ही सभ्यता तथा ज्ञान के विकास में भारत ही विश्व के अन्य मानव समुदायों का मार्ग दर्शक था।

सैंकडों वर्ष पश्चात धीरे धीरे विश्व में जहाँ जहाँ भी पैगनज़िम फैला तो उस के साथ ही दंत-कथाओं के माध्यम से ऐसी ही प्रतिक्रिया अन्य स्थानों पर भी फैलती गयी। अंग्रेज़ी साहित्य में केंटरबरी टेल्स तथा अरबी साहित्य में अरेबियन नाईटस जैसे मनोरंजक और काल्पनिक कथा संग्रह भी लिखे गये किन्तु उन का कोई वैज्ञ्यानिक आधार नहीं था।

हिन्दू चित्रावली की विशेषतायें

कुछ बातों में हिन्दू व्याख्यायें अन्य धर्मों से अलग हैं जैसे किः-

भूगोलिक तथा समय सीमाओं से स्वतन्त्र  – हिन्दू चित्रावली अन्य सभी समुदायों से अधिक सुन्दर, यथार्थवादी, व्याख्या सम्पन्न तथा पूर्णत्या मौलिक और वैज्ञ्यानिक थी। वह हर प्रकार के भूगौलिक तथा समय सीमाओं से भी मुक्त थी। हिन्दूओं के पौराणिक साहित्य के पात्र ना केवल धरती पर बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पग-चिन्ह छोड़ चुके हैं। ना केवल दैविक शक्तियां बल्कि कई ऋषि-मुनि और साधारण मानव भी  एक गृह से अन्य लोकों में विचरते रहे हैं। यह तथ्य उजागर करता है कि पौराणिक युग से ही हिन्दूओं का भूगौलिक तथा अंतरीक्ष ज्ञान अन्य मानव समाजों से बहुताधिक सम्पन्न था। देवी देवताओं के अतिरिक्त कई ऋषि-मुनि और तपस्वी जन्म मरण के बन्धन से मुक्त थे और चिरंजीवी की पदवी पा चुके थे जिन मे हनुमान, परशुराम, नारद, वेदव्यास, दुर्वासा, जामावन्त तथा अशवथामा के नाम प्रमुख हैं। वह किसी भी स्थान पर प्रगट अथवा किसी भी स्थान से अदृष्य होने में भी सक्ष्म माने जाते हैं। हिन्दू धर्म का कोई भी देवी देवता दारिद्रता में लिप्त नहीं है। सभी सुन्दर तथा रत्नजडित वस्त्राभूष्णों से सुसज्जित रहते हैं और किसी भी प्राणी को वरदान दे कर उस के आभाव को दूर करने में सक्ष्म है। हर देवी देवता के पास अपराधी को दण्ड देने के लिये अस्त्र-शस्त्र तथा पुन्यकर्मी को पुरस्कृत करने के लिये पुष्प भी रहते हैं। कोई भी देवी देवता लाचार नहीं कि लोग उसे सूली पर टाँग दें और वह कुछ भी ना कर सके। जो देवता स्वयं ही लाचार और दरिद्र हो वह दूसरे का भला नहीं कर सकता। किसी को कोई साँवन्तना भी नहीं दे सकता। अतः हिन्दू देवी –देवता समृद्ध, शक्तिशाली, परम ज्ञानी होने के साथ साथ मानवी भावनायें रखते हैं।

परियावरण का प्रतिनिधित्व – हिन्दूओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया है। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखना, जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देना, बेल, पीपल, तुलसी, नीम और वट वृक्ष आदि को प्रतीक स्वरूप पूजित करना, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता के समान पूज्य मान कर प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य है। पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की ही तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना हुआ है लेकिन स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। ईश्वर को सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य को दर्शाने के लिये छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्ह और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है।

स्वर्ग और नरक – प्रत्येक धर्म ने अपने स्थानीय वातावरण अनुसार स्वर्ग और नरक की कल्पना की है। जो कुछ भी उन के स्थानीय वातावरण में सुखदायक है वह स्वर्ग के समान है और जो कुछ उन के स्थानीय वातावरण में दुखदायक है वैसा ही उन का नरक भी है। अतः तपते हुये रेगिस्तान में पनपे मुसलमानों का स्वर्ग (बहशित, जन्नत) छायादार तथा ठंडा रहता है और बहुत सारे जल स्त्रोत्रों से परिपूर्ण है क्यों कि अरब में इन्हीं वस्तुओं की कमी है। बहिशत फल-फूलों से लदा हुआ है तथा वहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ अल्लाह के विशवासनीयों की सेवा करने के लिये हरदम तैनात रहती हैं।  इसलामी नरक (दोज़ख, जहन्नुम) हमेशा आग की तरह तपता रहता है जैसा कि अरब का वास्तविक वातावरण है। दोज़ख में काफिरों (विधर्मियों) को यात्ना देने का सामान हर समय तैय्यार रहता है ताकि काफिरों और हिन्दूओं  को बुतपरस्ती करने के अपराध में जलाया जा सके। कदाचित उन्हें यह विदित नहीं कि हिन्दूओं का शरीर तो दाह संस्कार के समय से ही जल चुका होता है और आत्मा कभी नहीं जलती।

इस के विपरीत योरूप में बसे इसाईयों के स्वर्ग में सूर्योदय तो सदा सुख प्रदान करता है किन्तु उन का नरक बर्फ से हमेशा ढके रहने के कारण एकदम ठंडा है। सभी धर्मों का काल्पनिक स्वर्ग आकाश में है और नरक धरती के नीचे है। स्वर्ग का प्रशासन देवताओं, हूरों, परियों अथवा अप्सराओं के अधीन है और वह श्रंगार, गायन तथा नृत्य के माध्यम से स्वर्गवासियों का मनोरंजन करनें में पारंगत हैं। नरक क्रूर प्रशासकों के आधीन है जो देखने में क्रूर, भद्दे और बेडौल शरीर वाले हैं। स्वर्ग में जाने के लिये ईश्वर के पुत्र या प्रतिनिधि की सिफारिश होनी ज़रूरी है।

हिन्दू धर्मानुसार स्वर्ग में केवल पुन्यकर्मी ही अपने पुरषार्थ से ही रहवास पाते हैं तथा पाप करने वाले नरक में य़मराज के अधीन रह कर यातना पाते हैं। अन्य धर्मों और हिन्दू धर्म के स्वर्ग- नरक की परिकल्पना में मुख्य अन्तर यह है कि  अन्य धर्म पुनर्जन्म में विशवास नहीं रखते। इस कारण से अन्य धर्मियों के पास वर्तमान जन्म के पश्चात पुन्य कर्म करने का कोई विकल्प ही नहीं बचता है। केवल हिन्दू ही अगले जन्म में पुन्य कर्म कर के प्रायश्चित कर सकते हैं और नारकीय जीवन से मुक्ति पा कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।वह उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं, उन के पास आशा की किरण है।

त्रिमूर्ति – हिन्दू ऐक ईश्वर में विशवास रखते हैं लेकिन उसी सर्व-व्यापि, सर्व शक्तिमान एवं सर्वज्ञ्य ईश्वर को तीन प्रथक रूपों में, तीन मुख्य क्रियाओं के कर्ता के तौर पर भी निहारते है। इन तीनों रूपों को त्रिमूर्ति का संज्ञा दी गयी है। उन के चित्रों में वैज्ञिय़ानिक तथ्यों की कलात्मिक ढंग से व्याख्या दर्शायी गयी है। 

  • ब्रह्मा- ब्रह्मा के रूप में ईश्वर सृष्टि के सर्जन करता हैं। उन के चित्र में चार मुख तथा चार हाथ दर्शाये जाते हैं। प्रत्येक मुख एक एक वेद के का उच्चारण प्रतीक है. उन के हाथ में जल से भरा कमण्डल सृष्टि की सर्जन शक्ति का प्रतीक है। उन के दूसरे हाथ में माला के मनकों की गणना करते रहना सृष्टि के कालचक्र का स्वरूप है। तीसरे हाथ में वेद का ज्ञान तथा चौथे हाथ में कमल का फूल ब्रह्मशक्ति का प्रतीक है। भगवान ब्रह्मा विद्या एवं कला की देवी सरस्वती के पति हैं। विद्या एवं कला ब्रह्मा की सर्जन शक्ति का आधार हैं अतः उन का संयोग ब्रह्मा के साथ यथेष्ट है। ब्रह्मा का वाहन विवेकशील, सुन्दर तथा स्वछ पक्षी हँस होता है। ब्रह्मा का मुख्य दाईत्व सर्जन करना हैं अतः सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह सृष्टि के अन्य कामों में कोई दखल नहीं देते। ब्रह्मा को सर्जन कर्ता होने की वजह से परम पिता भी कहा जाता है तथा उन्हें अकसर वृद्ध ही दर्शाया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देष्य यह भी है कि साधनहीन बुद्धिमान व्यक्ति भी  कोई कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता और एक वृद्ध की तरह आशक्त होता है। संसार भर में ब्रह्मा की उपासना का केवल एक ही मन्दिर पुष्कर, राजस्थान में है। बुद्धि-जीवियों को चापलूसों की ज़रूरत नहीं पडती।
  • विष्णु- विष्णु के रूप में ईश्वर सृष्टि के पालक हैं। चित्रण में उन के भी चार हाथ दर्शाये जाते हैं तथा उन का शरीर नील-वरण का होता है। उन के हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं जो संसाधनों की शक्ति तथा पुरस्कार के प्रतीक हैं। वह शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं तथा धन-वैभव की देवी लक्ष्मी उन की पत्नी के रूप में स्दैव उन के चरणों के समीप रहती है। सर्व-व्यापि होते हुये भी उन का निवास क्षीर सागर में होता है क्योंकि संसार का समस्त धन वैभव सागर से ही निकला है। उन का चित्रण पूर्णत्या ऐशवर्य तथा सुख वैभव का प्रतीक है तभी तो वह सृष्टि के पालन करने में समर्थ हैं। भगवान विष्णु का वाहन महातेजस्वी पक्षी गरुड़ है। सृष्टि के भरण-पोषण तथा प्रशासन भगवान विष्णु के दाईत्व में होने के कारण जब भी सृष्टि में कोई विकट समस्या उत्पन होती है अथवा धर्म की हानि होती है और लोग अपने  कर्तव्य भूल कर मनमानी करने लगते हैं तो उस समस्या के समाधान के लिये भगवान विष्णु स्वयं अवतार ले कर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। स्पष्ट है धन – वैभव वालों के भक्त भी अधिक होते हैं।
  • महेशवर- महेशवर अथवा भगवान शिव की छवि में ईश्वर को सृष्टि के संहारक के रूप में दर्शाया जाता है। भगवान शिव स्दैव ध्यान मुद्रा में कैलास पर्वत पर विराजते हैं। उन के कंठ में विषैले सर्पों की माला, माथे पर चन्द्र तथा हाथ में त्रिशूल रहता है तथा एक हाथ आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में रहता है। सृष्टि के संहारक होते हुये भी भगवान शिव करुणामय तथा सकारात्मक शक्ति के प्रतीक हैं और वह पाप नाशक हैं। उन का वाहन नन्दी बैल है तथा उन की पत्नी शक्ति की देवी दुर्गा है जिन को कई नामों  तथा रूपों में दर्शाया जाता है। भगवान शिव को समस्त कलाओं का स्त्रोत्र भी माना जाता है तथा उन के ताँडव नृत्य को उन की संहारक क्रिया के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। स्पष्ट है शक्तिशाली का सभी आदर करते हैं, डरते हैं तथा उस का संरक्षण प्राप्त करते हैं। 

वास्तव में ईश्वर के तीनों स्वरूप एक ही सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तीन अलग अलग क्रियाओं के प्रतीक हैं। भगवान की तीनों क्रियायें – सृष्टि का सर्जन, पोषण तथा हनन उसी प्रकार हैं जैसे एक ही व्यक्ति माता-पिता के लिये पुत्र, पत्नी के लिये पति, तथा अपने बच्चों के लिये पिता होता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति तीन प्रथक प्रथक क्रियायें करता हुआ ही एक ही व्यक्ति है उसी तरह एक ही परमात्मा के तीन रूप त्रिमूर्ति में प्रगट होते हैं।

त्रिमूर्ति का विधान शक्ति के विभाजन के सिद्धान्त का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उन्नीसवीं शताब्दि में फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू ने योरूप वासियों को सिखाया था। मांटैस्क्यू का ज्ञान अधूरा था। उस ने विधि सर्जन, प्रशासन तथा न्याय पालिका को तो अलग कर दिया किन्तु उन में ताल मेल की व्यवस्था नहीं रखी जो आज सभी कुशासनों की जड है। भारतीय विधान में ऐसा दोष नहीं था। सर्व शक्तिमान ईश्वर को त्रिमूर्ति में तीन शक्तियों के तौर पर दर्शाया गया है जो सर्जन, पोष्ण तथा हनन का अलग अलग कार्य  करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं। अलग हो कर भी आपस में विचार विमर्श करती हैं। इस का सारांश यह है कि सृष्टि की सरकार शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के साथ साथ आपसी ताल-मेल को भी बनाये रखती है जिस की मानवी सरकारें अकसर अनदेखी करती हैं। प्रशासन के विभिन्न अंगों में तालमेल रखना एक अनिवार्यता है।

हिन्दू धर्मानुसार ईश्वर किसी विशेष स्थान या किसी भी समय सीमा के बन्धन से मुक्त है। ईश्वर अनादि है। उस का ना कोई आरम्भ और ना ही कोई अंत है। वह परम शाशवत है। उस की शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हो सकता।

चाँद शर्मा

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

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