हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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68 – अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू


बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।

बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।

प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता

शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।

दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-

  • अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
  • हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
  • भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।

युवा वर्ग की उदासीनता

इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।

लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।

आत्म सम्मान हीनतता 

इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।

जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।

आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।

हिन्दू ग्रन्थो का विरोध

जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।

इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है। 

व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।

ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।

अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।

संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता 

प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।

इतिहास का विकृतिकरण

अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।

धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।

हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।

हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य 

पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।

उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।

हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।

चाँद शर्मा

64 – बटवारे के पश्चात भारत


15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया। जिन मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तलवार के साये में स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी, उन्हीं के लिये भारत का ऐक तिहाई भाग मूल वासियों से छीन कर मुस्लमानों को दे दिया गया। आक्रान्ताओं ने शताब्दियों पुराने हिन्दुस्तानी मूल वासियों को उन के रहवासों से भी खदेड दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की इण्डियन नेशनेलिटीके बावजूद उन्हें पाकिस्तान से  हिन्दू धर्म के कारण स्दैव के लिये निकालना पडा। कितने ही स्त्री-पुरुषों और बच्चों को उन के परिवार जनों के सामने ही कत्ल कर दिया गया और कितनी ही अबलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किये गये लेकिन उस समय और उस के बाद भी मानव अधिकारों पर भाषण देने वाले आज भी चुप्पी साधे हुये हैं। अतः यह प्रमाणित है कि व्यक्तिगत धर्म की पहचान ‘राष्ट्रीयता’ की खोखली पहचान पर हमैशा भारी पडती है।

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर 

य़ह दोहराना प्रासंगिक होगा कि “राष्ट्रीयता” जीवन में कई बार बदली जा सकती है किन्तु पूर्वजों का “धर्म” जीवन पर्यन्त और जीवन के बाद भी पहचान स्वरूप रहता है। धर्म के कारण ही हिन्दूओं को भारत के ऐक भाग से अपने बसे बसाये घरों को छोड कर दूसरे भाग में जा कर बे घर होना पडा था क्यों कि बटवारे के बाद वह भाग ‘पाकिस्तानी राष्ट्र’ बन गया था। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने धर्म की खातिर अपने घर-बार और जीवन के सुखों को त्याग कर गर्व से कहा था कि ‘हम जन्म से अन्त तक केवल हिन्दू हैं और हिन्दू ही रहें गे ’। लेकिन बदले में हिन्दूओं के साथ काँग्रेसी नेताओं ने फिर छल ही किया।

हिन्दूओं के लिये स्वतन्त्रता भ्रम मात्र

15 अगस्त 1947 को केवल ‘सत्ता का बदालाव’ हुआ था जो अंग्रेजों के हाथों से उन्हीं के ‘पिठ्ठुओं’ के हाथ में चली गयी थी। गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं के साथ विचार विमर्श करने में अंग्रेजी प्रशासन को ‘अपनापन’ प्रतीत होता था। उन्हें अंग्रेजी पत्रकारों ने विश्व पटल पर ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ प्रसारित कर रखा था। साधारण भारतीयों के सामने वह अंग्रेजी शासकों की तरह के ही ‘विदूान’ तथा ‘कलचर्ड लगते थे। जब वह भारत के नये शासक बन गये तो उन्हों ने अंग्रेजी परम्पराओं को ज्यों का त्यों ही बना रहने दिया। अंग्रेजों के साथ तोल-मोल करते रहने के फलस्वरूप शहीदों के खून से सींची तथाकथित ‘आजादी’ की बागडोर काँग्रेसी नेताओं के हाथ लग गयी। 

काँग्रेसी नेताओं ने दिखावटी तौर पर बटवारे को ‘स्वीकार नहीं किया’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे’ की दुहाई देते रहे। उन्हों ने बटवारे की जिम्मेदारी का ठीकरा मुहमम्द अली जिन्हा तथा हिन्दूवादी नेताओं के सिर पर फोडना शुरु कर दिया और उन्हें ‘फिरकापरस्त’ कह कर स्वयं ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’  के राग अलापते रहे। उसी प्रकार वह आज तक अपने दिखावटी आदर्शवाद से यथार्थ को छिपाने का असफल प्रयत्न करते रहे हैं। भारत वासियों को भ्रम में डालने के लिये काँग्रेस ने भारत को ऐक ‘धर्म-निर्पेक्ष’ देश घोषित कर दिया और हिन्दुस्तान में रहने वाले आक्रान्ताओं को बचे खुचे हिन्दू भाग का फिर से हिस्सेदार बना दिया।

भारत का बटवारा किसी ‘नस्ल’ अथवा ‘रंग-भेद’ के आधार पर नहीं हुआ था। बटवारे का कारण मुस्लमानों की हिन्दू परम्पराओं के प्रति घृणा और परस्परिक अविशवास था। चतुराई से पाकिस्तान ने हिन्दूओं को अपने देश से निकाल कर, या फिर उन्हें जबरदस्ती मुस्लमान बना कर हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हमेशा के लिये समाधान कर लिया किन्तु भारत के काँग्रेसी नेताओं ने समस्या को कृत्रिम ढंग से छुपा कर उसे फिर से जटिल बनने दिया। सरकार धर्म-निर्पेक्ष होने का ढोंग तो करती रही किन्तु निजि जीवन में हिन्दू और मुस्लमान अपने अपने धर्म तथा उन से जुडी आस्थाओं, परम्पराओं से विमुख नहीं हुए थे। गाँधी जी नित्य “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का राग अपनी प्रार्थना सभाओं में आलापते थे। हिन्दूओं ने तो इस गीत को मन्दिरों में गाना शुरू कर दिया था परन्तु किसी मुस्लमान को आज तक मस्जिद में “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का गीत गाते कभी नहीं देखा गया। यथार्थ में स्वतन्त्रता के बदले हिन्दूओं की भारत में बसे हुए मुस्लमानों को संतुष्ट रखने की ऐक ज़िम्मेदारी और बढ गयी थी।

बटवारे पश्चात दूरगामी भूलें

हिन्दूओं ने स्वतन्त्रता के लिये कुर्बानियाँ दीं थी ताकि ऐक हजार वर्ष की गुलामी से मुक्ति होने के पश्चात वह अपनी आस्थाओं और अपने ज्ञान-विज्ञान को अपने ही देश में पुनः स्थापित कर के अपनी परम्पराओॆ के अनुसार जीवन व्यतीत करें। किन्तु आज बटवारे के सात दशक पश्चात भी हिन्दूओं को अपने ही देश में सिमिट कर रहना पड रहा है ताकि यहाँ बसने वाले अल्प-संख्यक नाराज ना हो जायें। हिन्दू धर्म और हिन्दूओं का प्राचीन ज्ञान आज भी भारत में उपेक्षित तथा संरक्षण-रहित है जैसा मुस्लिम और अंग्रेजों के शासन में था। हिन्दूओं की वर्तमान समस्यायें उन राजनैतिक कारणों से उपजी हैं जो बटवारे के पश्चात भारत के काँग्रेसी शासकों ने अपने निजि स्वार्थ के कारण पैदा किये।

पूर्वजों की उपेक्षा

इस्लामी शासकों के समय भी हमारे देश को ‘हिन्दुस्तान’ के नाम से जाना जाता था।  बटवारे के पश्चात नव जात पाकिस्तान नें अपने ‘जन्म-दाता’ मुहमम्द अली जिन्नाह को “कायदे आजिम” की पदवी दी तो उस की नकल कर के जवाहरलाल नेहरू ने भी मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत के “राष्ट्रपिता” की उपाधि दे डाली। भारत बीसवी शताब्दी के पाकिस्तान की तरह का कोई नव निर्मित देश नहीं था। हमारी राष्ट्रीयता तो हिमालय से भी प्राचीन थी। किन्तु नेहरू की उस ओछी और असंवैधानिक हरकत के कारण भारत वासियों के प्राचीन काल के सभी सम्बन्ध मानसिक तौर पर टूट गये और हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह नये राष्ट्रपिता का परिचय ले कर घुटनों के बल चलने लगे। पूर्वजों के ज्ञान क्षेत्र की उपलब्द्धियों को नेहरू ने “गोबरयुग” (काऊडंग ऐज) की उपाधि दे डाली। वह ऐक सोची समझी साजिश थी जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

मैकाले की शिक्षा नीति के क्रम को आगे बढाते हुये, नेहरू ने मौलाना अबुअल कलाम आज़ाद को देश का शिक्षा मन्त्री नियुक्त दिया। हिन्दू ग्रन्थ तो इस्लामी मौलानाओं की दृष्टी में पहले ही ‘कुफर’ की श्रेणी में आते थे इस लिये धर्म निर्पेक्षता का बहाना बना कर काँग्रेसी सरकार ने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को शैक्षशिक प्रतिष्ठानों से ‘निष्कासित’ कर दिया। नेहरू की दृष्टि में नेहरू परिवार के अतिरिक्त कोई शिक्षशित और प्रगतिशील कहलाने के लायक नहीं था इसी लिये मौलाना आज़ाद के पश्चात हुमायूँ कबीर और नूरुल हसन जैसे शिक्षा मन्त्रियों की नियुक्ति से हमारे अपने ज्ञान-विज्ञान के प्राचीन ग्रन्थ केवल ‘साम्प्रदायक हिन्दू साहित्य’ बन कर शिक्षा के क्षेत्र में उपेक्षित हो गये।

इतिहास से छेड़ छाड़

मुस्लमानों ने भारत के ऐतिहासिक पुरातत्वों को नष्ट किया था। उन से ऐक कदम आगे चल कर अँग्रेजों ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण हमारे इतिहास का भ्रमात्मिक सम्पादन भी किया था – किन्तु बटवारे के पश्चात काँग्रेसी शासकों ने इतिहास को ‘धर्म-निर्पेक्ष बनाने के लिये’  ऐतिहासिक तथ्यों से छेड छाड करनी भी शुरू कर दी। प्राचीन ज्ञान विज्ञान के ग्रन्थों, वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों और पौराणिक साहित्य को हिन्दूओं का अन्धविशवास बता कर शिक्षा के क्षेत्र से निष्कासित कर के पुजारियों के हवाले कर दिया गया। देश भक्त हिन्दू वीरों तथा महानायकों के आख्यानों को साम्प्रदायक साहित्य की श्रेणी में रख दिया गया और उन के स्थान पर मुस्लिम आक्रान्ताओं को उदारवादी, धर्म निर्पोक्ष और राष्ट्रवादी की छवि में रंगना पोतना शुरु कर दिया ताकि धर्म निर्पेक्षता का सरकारी ढोंग चलता रहे। इतना ही नहीं गाँधी-नेहरू परिवार को छोडकर सभी शहीदों के योगदान की इतिहास में अनदेखी होने लगी। जहाँ तहाँ नेहरू-गाँधी परिवारों के समारक ही उभरने लगे। उन्ही के नाम से बस्तियों, नगरों, मार्गों, और सरकारी योजनाओं का नामाकरण होने लग गया और वही क्रम आज भी चलता जा रहा है।

मुस्लिमों के साधारण योगदान को ‘महान’ दिखाने की होड में तथ्यों को भी तोडा मरोडा गया ताकि वह राष्ट्रवादी और देश भक्त दिखें। आखिरी मुगल बहादुरशाह ज़फ़र को 1857 का ‘महानायक’ घोषित कर दिया गया जब कि वास्तविकता इस के उलट थी। जब सैनिक दिल्ली की रक्षा करते हुये अपना बलिदान दे रहे थे तो बहादुरशाह जफर अपने मुन्शी रज्जब अली को मध्यस्थ बना कर अपने निजि बचाव की याचना करने के लिये गुप्त मार्ग से हुमायूँ के मकबरे जा पहुँचा था और अंग्रेजों ने उसे गिरफ्तार कर लिया था।

बौद्धिक सम्पदा की उपेक्षा

अंग्रेजी तथा धर्म निर्पेक्ष शिक्षा नीति के कारण आज हिन्दू नव युवकों की नयी पीढी अपने पूर्वजों की कुर्बानियों और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्द्धियों से बिलकुल अनजान बन चुकी है। दुष्प्रचार के कारण हिन्दू युवा पीढी अपने पूर्वजों को अन्धविशवासी और दकियानूस ही समझती है। सरकारी धर्म निर्पेक्ष बुद्धिजीवियों का शैक्षिक संस्थानों पर ऐकाधिकार है किन्तु उन का भारतीय संस्कृति के प्रति कोई लगाव नहीं। उन के मतानुसार अंग्रेजी शिक्षा से पहले भारत में कोई शिक्षा प्रणाली ही नहीं थी। कानवेन्टों तथा अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों से प्रशिक्षित स्भ्रान्त वर्ग, भारतीय जीवन शैली तथा प्रम्पराओं की अवहेलना और आलोचना करनें को ही अपनी ‘प्रगतिशीलता’ मानता है और हिन्दू धारणाओं का उपहास करना अपनी शान समझता है। 

ऐसी तुच्छ मानसिक्ता के कारण विश्व में आज भारत के सिवाय अन्य कोई देश नहीं जहाँ के नागरिकों की दिनचर्या अपने देश की संस्कृति तथा पूर्वजों की उपलब्द्धियों का उपहास उडाना मात्र रह गयी हो। उन के पास स्वदेश प्रेम और स्वदेश गौरव की कोई भी समृति नहीं है। यदि कोई किसी प्राचीन भारतीय उप्लब्द्धि का ज़िक्र भी करे तो उस का वर्गीकरण फिरकापरस्ती, दकियानूसी, भगवावाद या हिन्दू शावनिज़म की परिभाषा में किया जाता है। 

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी भारतीय ग्रन्थों को बिना पढे और देखे ही नकार देना अपनी योग्यता समझते हैं जो वास्तव में उन की अनिभिज्ञ्यता और आत्महीनता का प्रमाण है। यह नितान्त दुःख की बात है कि जो भारतीय ग्रन्थ विश्वविद्यालयों की शोभा बनने लायक हैं वह बोरियों में बन्द कर के किसी ना किसी निर्धन पुजारी के घर या किसी धनी के भवन की बेसमेन्ट में रखे हों गे। कुछ ग्रन्थों को विदेशी सैलानी एनटीक बना कर जब भारत से बाहर ले जाते हैं तो कभी कभार उन में संचित ज्ञान भी विश्व पटल पर विदेशी मुहर के साथ प्रमाणित हो जाता है।

यदि धर्म निर्पेक्षता का कैंसर इसी प्रकार चलता रहा तो थोडे ही समय पश्चात भारतीय ग्रन्थों को पढने तथा संस्कृत सीखने के लिये जिज्ञासुओं को आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज आदि विश्वविद्यालयों में ही जाना पडे गा। धर्म निर्पेक्षता के बहाने विद्यालयों में हिन्दू जीवन की नैतिकता तथा दार्शनिक्ता का आज कोई महत्व नहीं रह गया है। इस की तुलना में कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों की धार्मिक शिक्षा भारत में सरकारी खर्चों पर मदरस्सों तथा अल्प संख्यक विश्वविद्यालयों में उपलब्द्ध है जिस का बोझ हिन्दू कर दाताओं पर पडता है। 

आत्म-घाती धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

भूगोलिक दृष्टि से भारत के चारों ओर कट्टरवादी मुस्लिम देश हैं जिन की सीमायें भारत के साथ लगती हैं। उन देशों में इस्लामी सरकारें हैं जहाँ धर्म निर्पेक्षता का कोई महत्व नहीं। इस्लामी सरकार का रुप-स्वरुप स्दैव हिन्दू विरोधी होता है। उन्हों ने अपने देश के दरवाजों को गैर मुस्लिमों के लिये बन्द कर रखा है। उन के सामाजिक रीति-रीवाजों तथा परम्पराओं का हिन्दू संस्कृति से कोई सम्पर्क नहीं। उन की स्दैव कोशिश रहती है कि प्रत्येक गैर मुस्लिम देश को इस्लामी देश बनाया जाये य़ा नष्ट कर दिया जाय। ऐसी स्थिति की तुलना में हिन्दूओं ने अपने इतिहास तथा अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और पुरानी गलतियों को बार बार दोहराते जा रहे हैं।

आज भी हिन्दू धर्म निर्पेक्षता की आड लेकर पलायनवाद में लिप्त हैं। हम ने अपनी सीमायें सभी के लिये खोल रखी हैं। भारत के काँग्रेसी नेताओं ने ‘वोट-बेंक’ बनाने के लिये ना केवल पाकिस्तान जाने वाले मुस्लमानों को रोक लिया था बल्कि जो मुस्लमान उधर जा चुके थे उन को भी वापिस बुला कर भारत में ही बसा दिया था। वही स्वार्थी नेता आज भी अल्पसंख्यकों को प्रलोभनों से उकसा रहै हैं कि भारत के साधनों पर हिन्दूओं से पहले उन का ‘प्रथम अधिकार’ है।

सभी नागरिकों में देश के प्रति प्रेम और एकता की भावना समान नहीं होती। कुछ नियमों की पूर्ति करने के पश्चात कोई भी व्यक्ति किसी भी देश की ‘नागरिक्ता’ तो प्राप्त कर सकता है किन्तु व्यक्ति की निजी अनुभूतियाँ, आस्थायें, परम्परायें, और नैतिक मूल्य ही उसे भावनात्मिक तौर पर उस देश की संस्कृति से जोडते हैं। हम ने कभी भी यह आंकने की कोशिश नहीं की कि अल्पसंख्यकों ने किस सीमा तक धर्म-निर्पेक्षता को अपने जीवन में अपनाया है। हमारी धर्म निर्पेक्षता इकतरफा हिन्दूओं पर ही लादी जाती रही है।

हिन्दूओं का शोषण

अतः बलिदानों के बावजूद हिन्दूओं को केवल बटवारा ही हाथ लगा, और वह अपने ही देश में राजकीय संरक्षण तथा सहयोग से वंचित हो कर परायों की तरह जी रहै हैं। ऐक तरफ उन्हें अपने ही दम पर समृद्ध इसाई धर्म के ईसाईकरण अभियान का सामना करना है तो दूसरी ओर उन्हें क्रूर इस्लामी उग्रवाद का मुकाबला करना पड रहा है जिन को पडौसी सरकारों के अतिरिक्त कुछ स्थानीय तत्व भी सहयोग देते हैं। इन का सामना करने में जहाँ धर्म निर्पेक्षता का ढोंग करने वाली भारतीय सरकार निरन्तर कतराती रही है, वहीं अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिये हिन्दूओं की मान मर्यादाओं की बलि सरकार तत्परता से देती रहती है।

यह तो ऐक कठोर सत्य है कि हिन्दू तो स्वयं ही अपनी दयानीय स्थिति के लिये ज़िम्मेदार हैं, परन्तु इस के अतिरिक्त वह हिन्दू विरोधी तत्वों की गुटबन्दी का सामना करने में भी पूर्णत्या असमर्थ हैं जिन्हें देश के स्वार्थी राजनेताओं से ही प्रोत्साहन मिल रहा है।

चाँद शर्मा

59 – ईस्लाम का अतिक्रमण


इस्लाम भारत में जिहादी लुटेरों और शत्रुओं की तरह आया जिन्हें हिन्दूओं से घृणा थी। मुस्लिम स्थानीय लोगों को ‘काफिर’ कहते थे और उन्हें को कत्ल करना अपना ‘धर्म’ मानते थे। उन्हों ने लाखों की संख्या में हिन्दूओं को कत्ल किया और वह सभी कुछ ध्वस्त करने का प्रयास किया जो स्थानीय लोगों को अपनी पहचान के लिये प्रिय था। इस्लामी जिहादियों का विशवास था कि अल्लाह ने केवल उन्हें ही जीने का अधिकार दिया था और अल्लाह ने मुहमम्द की मार्फत उन्हें आदेश भिजवा दिया था कि जो मुस्लमान नहीं उन्हें मुस्लमान बना डालो, ना बने तो उन्हें कत्ल कर डालो।

आदेश का पालन करने में लगभग 63000 हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त किया गया, लूटा गया, और उन में से कईयों को मस्जिदों में तबदील कर दिया गया। हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमायें तोड कर मुस्लमानों के पैरों तले रौंदी जाने के लिये उन्हें नव-निर्मत मस्जिदों की सीढियों के नीचे दबा दिया जाता था। जो दबाई या अपने स्थान से उखाडी नहीं जा सकतीं थीं उन्हें विकृत कर दिया जाता था। उन कुकर्मों के प्रमाण आज भी भारत में जगह जगह देखे जा सकते हैं। ‘इस्लामी फतेह’ को मनाने के लिये हिन्दूओं के काटे गये सिरों के ऊंचे ऊंचे मीनार युद्ध स्थल पर बनाये जाते थे। पश्चात कटे हुये सिरों को ठोकरों से अपमानित कर के मार्गों पर दबा दिया जाता था ताकि काफिरों के सिर स्दैव मुस्लमानों के पैरों तले रौंदे जाते रहैं।

खूनी नर-संहार और विधवंस  

मुस्लिम विजयों के उपलक्ष में हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मणों को मुख्यतः कत्ल करने का रिवाज चल पडा था। क्षत्रिय युद्ध भूमि पर वीर गति प्राप्त करते थे, वैश्य वर्ग को लूट लिया जाता था और अपमानित किया जाता था और शूद्रों को मुस्लमान बना कर गुलाम बना लिया जाता था।

उत्तरी भारत में सर्वाधिक ऐतिहासिक नरसंहार हुये जिन में से केवल कुछ का उदाहरण स्वरूप वर्णन इस प्रकार हैः- 

  • छच नामा के अनुसार 712 ईस्वी में जब मुहमम्द बिन कासिम नें सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो मुलतान शहर में 6 हजार हिन्दू योद्धा वीर गति को प्राप्त हुये थे। उन सभी के परिजनों को गुलाम बना लिया गया था।
  • 1399 ईस्वी में अमीर तैमूर नें दिल्ली विजय के पश्चात सार्वजनिक नरसंहार (कत्ले-आम) का हुक्म दिया था। उस के सिपाहियों ने ऐक ही दिन में ऐक लाख हिन्दूओं को कत्ल किया जो अन्य स्थानों के नरसंहारों और लूटमार के अतिरिक्त था।
  • 1425 ईस्वी में चन्देरी का दुर्ग जीतने के बाद मुगल आक्रान्ता बाबर ने 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी हिन्दूओं को कत्ल करवा दिया था तथा औरतों और बच्चों को गुलाम बना लिया था। चन्देरी का इलाका कई महीनों तक दुर्गन्ध से सडता रहा था।
  • 1568 ईस्वी में तथाकथित ‘उदार’ मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड के राजपूत किलेदार जयमल को उस समय गोली मार दी थी जब वह किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। उस के सिपहसालार फतेह सिहं को हाथ पाँव बाँध कर हाथी के पैरों तले कुचलवाया गया था। उसी स्थान पर उन तीस हजार हिन्दूओं को कत्ल भी किया गया था जिन्हों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था। आठ हजार महिलायें सती की अग्नि में प्रवेश कर गयीं थी।
  • 1565 ईस्वी में बाह्मनी सुलतानो ने संयुक्त तौर पर हिन्दू राज्य विजय नगर का विधवंस कत्ले आम तथा सर्वत्र लूटमार के साथ मनाया। फरिशता के उल्लेखानुसार  बाह्मनी सुलतान केवल निचले दर्जे के राजवाडे थे किन्तु वह काफिरों को सजा देने के बहाने हजारों की संख्या में हिन्दूओं का कत्ल करवा डालते थे।
  • आठारहवीं शताब्दी में नादिर शाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा, ध्वस्त किया और कत्लेआम करवाया ।

मुसलिम शासकों ने हिन्दूओ के नरसंहार का उल्लेख अभिमान स्वरूप अपने रोजनामचों (दैनिक गेजेट) में करवाया है क्यों कि वह इस को पवित्र कर्म मानते थे। काफिरों का कत्ल करवाने की संख्या के विषय में प्रत्येक अक्रान्ता और मुस्लिम शासक की अपनी अपनी धारणायें थी और परिताड़ण करने के नृशंसक तरीके थे जो सर्वथा क्रूर और अमानवीय होते थे। काफिरों को जिन्दा जलाना, आरे से चिरवा देना, उन की खाल उतरवा देना, उन्हें तेल के कडाहों में उबलवा देना आदि तो आम बातें थी जिन के चित्र संग्रहालयों में आज भी देखे जा सकते हैं।   

सर्वत्र अंधंकार मय युग

शीघ्र ही हिन्दूओं का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया, जिस के फलस्वरूपः-  

  • तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला आदि सभी विश्व विद्यालय धवस्त कर दिये गये तथा शिक्षा और ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अन्धकार छा गया।
  • बुद्धिजीवियों को चुन चुन की मार डाला जाता था। बालकों के प्रराम्भिक शिक्षण संस्थान ही बन्द हो गये। इस्लामी धार्मिक शिक्षा का काम मदरस्सों के माध्यम से कट्टरवादी मौलवियों नें शुरू कर दिया।
  • इस्लामी शासन के अन्तरगत सभी प्रकार के मौलिक भारतीय ज्ञान लुप्त हो गये। जहाँ कहीं हिन्दू प्रभाव बच पाया वहीँ संस्कृत व्याकरण, गणित, चिकित्सा तथा दर्शन और प्राचीन ग्रन्थों का पठन छिप छिपा कर बुद्धिजीवियों के निजी परिश्रमों से चलता रहा। परन्तु उन्हें राजकीय संरक्षण तथा आर्थिक सहायता देने वाला कोई नहीं था।
  • ‘जज़िया’ जैसे अधिकतर इस्लामी करों के प्रभाव से हिन्दूओं को धन का अभाव सताने लगा। हिन्दू गृहस्थियों के लिये दैनिक यज्ञ तो दूर उन के लिये परिवार का निजि खर्च चलाना भी दूभर हो गया था। वह बुद्धिजीवियों की आर्थिक सहायता करना तो असम्भव अपने बच्चों को साधारण शिक्षा भी नहीं दे सकते थे क्यों कि उन का धन, धान्य स्थानीय मुस्लिम जबरन हथिया लेते थे।
  • हिन्दूओं के लिये मुस्लमानों के अत्याचारों के विरुध न्याय, संरक्षण और सहायता प्राप्त करने का तो कोई प्रावधान ही नहीं बचा था। मुस्लमानों के समक्ष हिन्दूओं के नागरिक अधिकार कुछ नहीं थे। मानवता के नाम पर भी उन्हें जीवन का मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। न्याय के नाम से मुस्लिम की शिकायत पर मौखिक सुनवाई कर के साधारणत्या स्थानीय अशिक्षित मौलवी किसी भी हिन्दू को मृत्यु दण्ड तक दे सकते थे। हिन्दूओं के लिये केवल निराशा, हताशा, तथा भय का युग था और काली लम्बी सुरंग का कोई अन्त नहीं सूझता था।

इस कठिन और कठोर अन्धकारमय युग में भी हिन्दू बुद्धिजीवियों ने छिप छिपा कर ज्ञान की टिमटिमाती रौशनी को बुझने से बचाने के भरपूर पर्यत्न किये जिन में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य (1114 -1185) का नाम उल्लेखनीय है। ज्ञान क्षेत्र की स्वर्णमयी परम्परा को भास्कराचार्य ने आधुनिक युग के लिये अमूल्य योगदान पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त की व्याख्या कर के दिया।  

सामाजिक कुरीतियों का पदार्पण

अन्धकारमय वातावरण के कारण हिन्दू समाज में कई कुरीतियों ने महामारी बन कर जन्म ले लिया। प्रगति के स्थान पर अशिक्षता और अन्धविशवासों के कारण जीवन का स्वरुप और दृष्टिकोण निराशामय और नकारात्मिक हो गया था जिस के फलस्वरूपः-

  • मुस्लिम लूटमार, छीना झपटी और जजि़या जैसे विशेष करों के कारण हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे।  
  • शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। उन का व्यवसायिक प्रशिक्षण बन्द हो जाने से उन की अर्थ व्यव्स्था छिन्न भिन्न हो गयी थी। वह केवल मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमा सकते थे। उस क्षेत्र में भी ‘बेगार’ लेने का प्रचलन हो गया था तथा काम के बदले में उन्हें केवल मुठ्ठी भर अनाज ही उपलब्द्ध होता था। किसानों की जमीन शासकों ने हथिया ली थी। उन का अनाज शासक अधिकृत कर लेते थे।
  • पहले संगीत साधना हिन्दूओं के लिये उपासना तथा मुक्ति का मार्ग था। अब वही कला मुस्लिम उच्च वर्ग के प्रमोद का साधन बन गयी थी। साधना उपासना की कथक नृत्य शैली मुस्लिम हवेलियों में कामुक ‘मुजरों’ के रूप में परिवर्तित हो गयी ताकि काम प्रधान भाव प्रदर्शन से लम्पट आनन्द उठा सकें। 
  • अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ। इस में कई स्वार्थी हिन्दूओं ने भी योगदान दिया।
  • अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन भी पड गया। पुरोहितों ने यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया ।

हिन्दू समाज का विघटन 

असुरक्षित ब्राह्मण विदूान मुसलमानों से अपमानित होते थे और हिन्दूओं से उपेक्षित हो रहे थे। उन्हें अपना परम्परागत पठन पाठन, दान ज्ञान का मार्ग त्यागना पड गयाथा। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा। जीविका के लिये भी उन्हें रीतिरीवाजों के लिये अवसर और बहाने तराशने पडते थे जिस के कारण साधारण जनता के लिये संस्कार और रीति रिवाज केवल दिखावा और बोझ बनते गये। हिन्दू समाज का कोई मार्ग-दर्शक ना रहने के कारण प्रान्तीय रीति रिवाजों और परम्पराओं का फैलाव होने लगा था। जातियों में कट्टरता आ गयी तथा ऐक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को घृणा, भय, तथा अविशवास से देखने लगे थे। हिन्दू समाज का पूरा ताना बाना जो परस्पर सहयोग, विशवास और प्रेम पर निर्भर था विकृत हो गया। रीतिरिवाज जटिल, विकृत और खर्चीले हो जाने के कारण हर्ष- उल्लास देने के बजाय दुःख दायक हो गये। अन्ततः निर्धन लोग रीति रिवाजों की उपेक्षा कर के धर्म-परिवर्तन के लिये भी तत्पर हो गये। 

अपमानजनक वातावरण

हिन्दूओं के आत्म सम्मान को तोडने के लिये मुस्लमानों ने क्षत्रियों का अपने सामने घोडे पर चढना वर्जित कर दिया था। उन के सामने वह शस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। अतः कई क्षत्रियों ने परम्परागत सैनिक और प्रशासनिक जीवन छोड कर कृषि या जीविका के अन्य व्यवसाय अपना लिये। धर्म रक्षा का मुख्य कर्तव्य क्षत्रियों से छूट गया। जो कुछ क्षत्रिय बचे थे वह युद्ध भूमि पर मुस्लमानों के विरुद्ध या कालान्तर मुस्लमानों के लिये लडते लडते हिन्दू योद्धाओं के हाथों वीर गति पा चुके थे। हिन्दू राजा मुगलों की डयौहडियों पर ‘चौकीदारी’ करते थे या हाथ बाँधे दरबार में खडे रहते थे।   

सामाजिक कुरीतियों का चलन

मुस्लिम नवाबों तथा शासकों की कामुक दृष्टि सुन्दर और युवा लडके लडकियों पर स्दैव रहती थी। उन्हें पकड कर जबरन मुस्लमान बनाया जाता था तथा उन का यौन शोषण किया जाता था। इसी लिये हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिये पर्दा करने का रिवाज चल पडा। फलस्वरुप विश्षेत्या उत्तरी भारत में रात के समय विवाह करने की प्रथा चल पडी थी। वर पक्ष वधु के घर सायं काल के अन्धेरे में जाते थे, रात्रि को विवाह-संस्कार सम्पन्न कर के प्रातः सूर्योदय से पूर्व वधु को सुरक्षित घर ले आते थे। समाजिक बिखराव के कारण हिन्दू समाज में कन्या भ्रूण की हत्या, बाल विवाह, जौहर तथा विधवा जलन की कुप्रथायें भी बचावी विकल्पों के रूप में फैल गयीं।

मुस्लिम हिन्दूओं की तरह बाहर लघू-शंका के लिये नहीं जाते थे और इस चलन को ‘कुफ़र’ मानते थे। उन के समाज में लघु-शंका पर्दे में की जाती थी। गन्दगी को बाहर फैंकवाने के लिये और हिन्दूओं को अपमानित करने के लिये उन्हों ने सिरों पर मैला ढोने के लिये मजबूर किया। इस प्रथा ने हिन्दू समाज में मैला ढोने वालों के प्रति घृणा और छुआ छुत को और बढावा दिया क्यों कि हिन्दू विचार धारा में यम नियम के अन्तर्गत स्वच्छता का बहुत महत्व था। छुआ छूत का कारण स्वच्छता का अभाव था। स्वार्थी तत्वों ने इस का अत्याधिक दुषप्रचार धर्म परिवर्तन कराने के लिये और हिन्दू समाज को खण्डित करने के लिये किया जो अभी तक जारी है।   

चाँद शर्मा

 

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

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