हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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69 – हिन्दूओं की दिशाहीनता


आज का हिन्दू दिशाहीनता के असमंजस में उदासीन, असुरक्षित और ऐकाकी जीवन जी रहा है। अपने आप को अकेला और लाचार समझ कर या तो देश से भाग जाना चाहता है या मानसिक पलायनवाद की शरण में खोखला आदर्शवादी और धर्म-निर्पेक्ष बना बैठा है। “हम क्या कर सकते हैं” हिन्दूओं के निराश जीवन का सारंश बन चुका है।

कोई भी व्यक्ति या समाज अपने पर्यावरण और घटनाओं के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। सुरक्षित रहने के लिये सभी को आने वाले खतरों से सजग रहना जरूरी है। विभाजन के पश्चात हिन्दू या तो पाकिस्तान में मार डाले गये थे या उन्हें इस्लाम कबूल करना पडा था। जिन्हें धर्म त्यागना मंज़ूर नहीं था उन्हें अपना घर बार छोड कर हिन्दुस्तान की ओर पलायन करना पडा था। पहचान के लिये प्रधानता धर्म की थी राष्ट्रीयता की नहीं थी। यदि आगे भी देश की राजनीति को कुछ स्वार्थी धर्म-निर्पेक्ष नेताओं के सहारे छोड दें गे और अपने धर्म को सुरक्षित नहीं करें गे तो भविष्य में भी हिन्दू डर कर पलायन ही करते रहैं गे।

इतिहास की अवहेलना

इतिहास अपने आप को स्दैव क्रूर ढंग से दोहराता है। आज से लगभग 450 वर्ष पहले मुस्लमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दू गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दू आज भी कशमीर से पलायन कर के शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। उन्हों ने ऐकता और कर्मयोग के मार्ग को नहीं अपनाया।

मुन्शी प्रेम चन्द ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने का जो चित्रण किया है वही दशा आज हिन्दूओं की भी है। उस समय लखनऊ के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे कि अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये अवध की रियासत पर अधिकार कर लिया था। आज हम क्रिकेट मैच, रोने धोने वाले घरेलू सीरयल और फिल्मी खबरें देखने में अपना समय नष्ट कर रहे हैं और अपने देश-धर्म की सुरक्षा की फिकर करने की फुर्सत किसी हिन्दू को नहीं। इटली मूल की ऐक महिला ने तो साफ कह दिया है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। हम ने चुप-चाप सुन लिया है और सह भी लिया है। हिन्दूओं का हिन्दूस्तान अल्पसंख्यकों के अधिकार में जा रहा है और देश के प्रधानमन्त्री ने भी कहा है कि देश के साधनों पर उन्हीं का ही “पहला अधिकार” है।

हिन्दूओं की भारत में अल्पसंख्या

हिन्दूओं की जैसी दशा कशमीर में हो चुकी है वैसी ही शीघ्र केरल, कर्नाटक, आन्ध्र, बंगाल, बिहार तथा उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में भी होने वाली है। यदि वह समय रहते जागृत और संगठित नहीं हुये तो उन्हें वहाँ से भी पलायन करना पडे गा। वहाँ मुस्लिम और इसाई जनसंख्या दिन प्रतिदिन बढ रही है। शीघ्र ही वह हिन्दू जनगणना से कहीं आगे निकल जाये गे। इन विदेशी घर्मों ने धर्म-निर्पेक्षता को हृदय से नहीं स्वीकारा है और धर्म-र्निर्पेक्षता का सरकारी लाभ केवल अपने धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये उठा रहै हैं। वह अपनी राजनैतिक जडें कुछ स्वार्थी हिन्दू राजनेताओं के सहयोग से भारत में मजबूत कर रहै हैं। उन के सक्ष्म होते ही भारत फिर से मुस्लमानों और इसाईयों के बीच बट कर उन के आधीन हो जाये गा। हिन्दूओं के पास अब समय और विकल्प थोडे ही बचे हैं।  

प्राकृतिक विकल्प

सृष्टि में यदि पर्यावरण अनुकूल ना हो तो सभी प्राणियों की पास निम्नलिखित तीन विकल्प होते हैं- 

  • प्रथम – किसी अन्य अनुकूल स्थान की ओर प्रस्थान कर देना।
  • दूतीय – वातावरण के अनुसार अपने आप को बदल देना।
  • तीसरा – वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना।

प्रथम विकल्प हिन्दू किसी अन्य स्थान की ओर प्रस्थान कर देना

विश्व में अब कोई भी हिन्दू देश नहीं रहा जो पलायन करते हिन्दूओं की जनसंख्या को आसरा दे सके गा। ऐक ऐक कर के सभी हिन्दू देश संसार से मिट चुके हैं। इस कडी का अन्तिम हिन्दू देश नेपाल था। आने वाली पीढियों को यह विशवास दिलाना असम्भव होगा कि कभी इरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लंका, म्यनमार, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, जावा, मैक्सिको, पेरू और बाँग्लादेश आदि ‘हिन्दू देश’ थे जहाँ मन्दिर और शिवालयों में आरती हुआ करती थी। अब अगर हिन्दूस्तान भी हिन्दूओं उन से छिन गया तो कहाँ जायें गे?

सिवाय मूर्ख हिन्दूओं के कोई भी देश दूसरे देश के शर्णार्थियों को स्दैव के लिये अपनी धरती पर स्थापित नहीं कर सकता। शर्णार्थियों को स्दैव स्थानीय लोगों का शोशण और विरोध झेलना पडता है। इस लिये प्रथम विकल्प में हिन्दूओं के लिये भारत से पलायन कर के अपने लिये नया सम्मान जनक घर तलाशना असम्भव है।

दूसरा विकल्प वातावरण अनुसार अपने आप को बदल देना

भारत में कई ‘धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी’ हैं जो रात दिन प्रचार करते रहते हैं कि हमें समय के साथ चलना चाहिये। बाहर से आने वालों के लिये अपने दरवाजे खोल कर भारत को पर्यटकों, घुसपैठियों, और समलैंगिकों का धर्म-निर्पेक्ष देश बना देना चाहिये जहाँ सभी साम्प्रदायों को अपने अपने ढंग की जीवन शैली जीने का अधिकार हो। यदि उन की सलाह मान ली जाय तो हिन्दूओं को “अरब और ऊँट” वाली कथा अपने घर में दोहरानी होगी। देश के कई विभाजन भी करने पडें गे ताकि आने वाले सभी पर्यटकों को उन की इच्छानुसार जीने दिया जाये। मुस्लिम और हिन्दू, मुस्लिम और इसाई, इसाई और हिन्दू ऐक ही शैली में नहीं जीते। सभी में प्रस्पर हिंसात्मिक विरोधाभास हैं। शान्ति तभी हो सकती थी यदि सभी ऐक ही आचार संहिता के तले रहते परन्तु भारत में ‘धर्म-निर्पेक्षों’ वैसा नहीं होने दिया।

यह सोचना भी असम्भव होगा कि लाखों वर्ष की प्राचीन हिन्दू सभ्यता इस परिस्थिति से समझोता कर सकें गी और उन समुदायों के रीति रिवाजों को अपना ले गी जो अज्ञानता के दौर से आज भी पूर्णत्या निकल नहीं पाये हैं। अन्य धर्मों में पादरियों और मौलवियों के कथन पर यकीन करना लाज़मी है नहीं तो उस की सजा मृत्युदण्ड है, किन्तु स्वतन्त्र विचार के हिन्दू उन आस्थाओं पर कभी भी विशवास नहीं कर सकें गे। हिन्दूओं की संख्या भले ही शून्य की ओर जाने लगे फिर भी हिन्दू अकेले ही विश्व के किसी कोने में भी जीवित रहै गा क्यों कि यही मानवता का प्राकृतिक धर्म है। मानवता प्रलयकाल से पहले समाप्त नहीं हो सकती यह भी प्रकृति का नियम है। अतः हिन्दू पहचान मिटाने का दूसरा विकल्प भी असम्भव है।

तीसरा विकल्प वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना

हिन्दूओं के पास अब केवल यही ऐक प्रभावशाली, स्थायी, तर्क संगत तथा सम्मान जनक विकल्प है कि वह अपने प्रतिकूल धर्म-निर्पेक्ष वातावरण को बदल कर उसे अपने अनुकूल हिन्दूवादी बनाये।   

समय समय पर हिन्दू समाज के ध्वस्त मनोबल को पुनर्स्थापित करने के लिये श्री कृष्ण, चाण्क्य, शिवाजी, तथा गुरू गोबिन्द सिहं जैसे महा जन नायकों ने भी यही विकल्प अपनाया था। हमारा वर्तमान संविधान और सरकार केवल धर्म-निर्पेक्षता का छलावा मात्र हैं। वास्तव में वह केवल अल्पसंख्यक तुष्टिकारक और हिन्दू विरोधी हैं। हमारे संवैधानिक प्रतिष्ठान भी अल्पसंख्यक संरक्षण और तुष्टिकरण का कार्य करते हैं। यदि इस संविधान को नहीं बदला गया तो निश्चय ही भारत का विघटन होता चला जाये गा। इस को रोकना है तो हिन्दूओं को संगठित हो कर पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत कर भारत में हिन्दू रक्षक सरकार की स्थापना करनी होगी जो संविधान में परिवर्तन करने में सक्षम हो। भारत को “हिन्दू-राष्ट्र” घोषित करना होगा और मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को कानूनी तरीके से दूर करना होगा। हिन्दू सरकार ही भारत की परम्पराओं और गौरव को पुनर्जीवित कर सकती है और यह हमारा अधिकार तथा कर्तव्य दोनों हैं।

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना

आज हिन्दूओं को अपने ही घर हिन्दूस्तान में अल्पसंख्यकों के सामने विनती करनी पडती है। इस शर्मनाक स्थिति से उबरने के लिये हिन्दूओं को वैधानिक तरीके से सरकार तथा संविधान बदलने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं है। अतः हिन्दूओं को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये राजनैतिक तौर पर संगठित हो के ऐक सशक्त वोट बैंक बनाना होगा।

  • उन्हें किसी ऐक राजनैतिक दल को सम्पूर्ण सहयोग देना पडे गा या फिर नया हिन्दू राजनैतिक दल बना कर चुनाव में उतरना हो गा। समय और वर्तमान परिस्थितियों में नया राजनैतिक दल संगठित करना ऐक कठिन और तर्कहीन विचार होगा। अतः किसी शक्तिशाली दल को समर्थन देना ही क्रियात्मक उपाय है।
  • हिन्दूओं को अपने मतों का विभाजन रोकना होगा। खोखले आदर्शवाद की चमक में हिन्दू इस खेल को समझ नहीं पा रहै अल्पसंख्यक संगठित रह कर राजनैतिक संतुलन को बिगाडते हैं ताकि हिन्दूओं को सत्ता से वंचित रखा जाय। 
  • हिन्दूओं को नियन्त्रण करना होगा कि अल्पसंख्यक और हिन्दू विरोधी तत्व अनाधिकृत ढंग से मताधिकार तो प्राप्त नहीं कर रहै। घुसपैठिये भारत में कोई कर नहीं देते किन्तु सभी प्रकार की आर्थिक सुविधायें उठाते हैं जो भारत के वैधिनिक नागरिकों पर ऐक बोझ हैं। हिन्दू नागरिकों को पुलिस से सहयोग करना चाहिये ताकि वह अतिक्रमण को हटाये।
  • हमें भारत का निर्माण उन भारतीयों के लिये ही करना होगा जिन्हें विदेशियों के बदले भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा, तथा भारतीय महानायकों से प्रेम हो।

हमें अपनी धर्म निर्पेक्षता के लिये किसी विदेशी सरकार से प्रमाणपत्र लेने की आवश्यक्ता नहीं। किसी अन्य देश को भारत में साम्प्रदायक दंगों सम्बन्धित तथ्य खोजने के लिये मिशन भेजने का कोई अधिकार नहीं है। धर्म-निर्पेक्षता स्वतन्त्र भारत का आन्तरिक मामला है। बांग्ला देश का उदाहरण हमारे सम्मुख है जो विश्व पटल पर अपनी इच्छानुसार कई बार धर्म-निर्पेक्ष से इस्लामी देश बना है। हमें बिना किसी झिझक के भारत को ऐक हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहिये। हिन्दू और भारत ऐक दूसरे के पूरक हैं। यह नहीं भूलना चाहिये कि मुस्लिम शासकों के समय भी भारत को ‘हिन्दुस्तान’ ही कहा जाता था।

हिन्दू समाज का संगठन

हिन्दू विचारकों तथा धर्म गुरूओं को हर प्रकार से विक्षिप्त हिन्दूओं को कम से कम राजनैतिक तौर पर किसी ऐक हिन्दू संस्था के अन्तरगत ऐकत्रित करना होगा। यदि अल्पसंख्यक धर्मान्तरण और जिहादी आतंकवाद को त्याग कर अपने आप को भारतीय संस्कृति के साथ जोडें और मुख्य धारा से संयुक्त हो कर अपने आप को राष्ट्र के प्रति समर्पित करें तो वह भी इस प्रकार की राष्ट्रवादी संस्था से सम्मानपूर्वक जुड सकते हैं। 

घर वापसी आन्दोलन

जिन्हों ने पहले किसी भय या प्रलोभन के कारण धर्म परिवर्तन किया था और अब स्वेच्छा से हिन्दू धर्म में पुनः लौट आना चाहें तो उन का स्वाग्त करना चाहिये।

जो कोई भी ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्तानुसार जीवन शैली जीता हो, अपने भारतीय पूर्वजों का सम्मान करता हो वह चाहे किसी भी निजि पूजा पद्धति में विशवास रखता हो उसे हिन्दू मान लेना चाहिये। परन्तु उसे समान आचार संहिता, समान राष्ट्रभाषा, समान संस्कृति तथा भारत की मुख्य धारा को अपना कर अल्पसंख्यक वर्ण को त्यागना होगा।

भारत को गौरवमय बनाने का विकल्प हमारे पास अगले निर्वाचन के समय तक ही है जिस के लिये समस्त हिन्दूओं को संगठित होना पडे गा । यदि हम इस लक्ष्य के प्रति कृतसंकल्प हो जाये तो अगले चुनाव में ही भारत अपने प्राचीन गौरव के मार्ग पर दोबारा अग्रेसर हो सकता है। यदि हम प्रयत्न करें तो सर्वत्र अन्धेरा नहीं हुआ अभी उम्मीद की किरणें बाकी है – परन्तु अगर अभी नहीं तो फिर कभी नहीं होगा।

चाँद शर्मा

65 – हिन्दू-विरोधी गुटबन्दी


बटवारे से पहले हिन्दूओं को बाहरी देशों से आये इस्लाम और इसाई धर्मों से अपने देश को बचाने के लिये संघर्ष करना पडता था किन्तु बटवारे के पश्चात विदेशी धर्मो के अतिरिक्त विदेशी आर्थिक शक्तियों से भी जूझना पड रहा है जो हिन्दू जीवन शैली की विरोधी हैं। 

बाहरी विचार धाराओं का प्रभाव

भारत के बटवारे से पूर्व विश्व दो शक्तिशाली तथा परस्पर विरोधी गुटों में बटा हुआ था और हम ने अपने आप को साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) तथा पूजीँवादी (केपिटालिस्ट) देशों के दो स्दैव संघर्ष-रत पाटों के बीच फसे हुये पाया। दोनो ही हमें हडप लेने के लिये मुहँ खोले खडे थे। दोनो परस्पर विरोधी विचारधारायें मानवी सामाजिक बन्धनों को प्रभावित करने में सशक्त थीं क्यों कि उन का प्रत्यक्ष प्रभाव केवल दैहिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति से ही सम्बन्धित था।

आज दोनो विचार धारायें भारतीय हिन्दू जीवन पद्धति के मौलिक ताने बाने पर आघात कर रही हैं। बाहरी विचार धाराओं के दुष्परिणाम को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र का समर्थन और सक्रिय योजना की आवश्यक्ता पडती है किन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी तन्त्र के नेता दोनो विचारधाराओं के प्रलोभनो के माध्यम से बिक चुके हैं और दोनों विचार धाराओं के संरक्षकों को भारत में पैर पसारने की सुविधायें प्रदान कर रहै हैं। देश के साथ गद्दारी और दगाबाजी करने की कमिशन राजनेताओं के नाम विदेशी बेंकों में सुरक्षित हो जाती है।

प्रत्येक देश के सरकारी तन्त्र की सोच विचार नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र, आस्थाओं, और जीवन के मूल्यों से प्रभावित होती है। यदि उन की विचारधारा नैतिक मूल्यों पर टिकी होगी तो देश बाहरी विचारधाराओं का सामना कर सकता है परन्तु यदि नेता धर्म-निर्पेक्ष, अस्पष्ट और स्वार्थहित प्रधान हों तो सरकार विदेशी शक्तियों की कठपुतली बन जाती है। बटवारे के बाद हिन्दुस्तान में अभी तक देश हित के प्रतिकूल ही होता रहा है।

साम्यवाद  

साम्यवाद इसाईमत की ‘धूर्तता’ और मुस्लिम मत की ‘क्रूरता’ का मिश्रण है जिसे लक्ष्य प्राप्ति चाहिये साधन चाहे कुछ भी हों। उन की सोचानुसार जो कुछ पुरातन है उसे उखाड फैंको ताकि साम्यवाद उस के स्थान पर पनप सके। भारत की दारिद्रमयी स्थिति, अशिक्षित तथा अभावग्रस्त जनता और धर्म-निर्पेक्ष दिशाहीन सरकार, भ्रष्ट ऐवं स्वार्थी नेता, लोभी पूंजीपति, अंग्रेजी पद्धतियों से प्रभावित वरिष्ट सरकारी अधिकारी – यह सभी कुछ साम्यवाद के पौधे के पनपने तथा अतिशीघ्र फलने फूलने के लिये पर्याप्त वातावरण प्रदान करते रहै हैं। भारत में बढता हुआ नकस्लवाद सम्पूर्ण विनाश के आने की पूर्व सुचना दे रहा है। तानाशाही की कोई सीमा नहीं होती। तानाशाह के स्वार्थों की दिशा ही देश की दशा और दिशा निर्धारित करती है।

सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में कम्यूनिस्ट अपनी विचारधारा तथा आचरण से आदि मानवों से भी गये गुजरे हैं। निजि शरीरिक अवश्यक्ताओं के पूर्ति के अतिरिक्त अध्यात्मिक बातें उन के जीवन में कोई मूल्य नहीं रखतीं। पूंजीपति देशों की तुलना में साम्यवादी रूस और चीन में जनसाधारण का जीवन कितना नीरस और आभाव पूर्ण है वह सर्व-विदित है। आज वह देश निर्धनता के कगार पर खडे हैं। अपने आप को पुनर्स्थापित करने के लिये वह अपने प्रचीन पदचिन्हों के सहारे धार्मिक आस्थाओं को टटोल रहे हैं। मानसिक शान्ति के लिये उन के युवा फिर से चर्च की ओर जा रहे हैं या नशों का प्रयोग कर रहे हैं।

साम्यवाद जहाँ भी फैला उस ने स्थानीय धर्म, नैतिक मूल्यों और परम्पराओं को तबाह किया है। चीन, तिब्बत, और अब नेपाल इस तथ्य के प्रमाण हैं। किन्तु भारतीय कम्यूनिस्ट अपने गुरूओं से भी ऐक कदम आगे हैं। वह भारतीय परम्परा के प्रत्येक चिन्ह को मिटा देने में गौरव समझते हैं। जिस थाली में खायें गे उसी में छेद करने की सलाह भी दें गे। चलते उद्योगों को हडताल करवा कर बन्द करवाना, उन में आग लगवाना आदि उन की मुख्य कार्य शैलि रही हैं।

भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ साम्यवादी संगठन राजकीय सत्ता के दलालों के रूप में उभर रहै हैं और उन्हों ने अपना हिंसात्मिक रूप भी दिखाना आरम्भ कर दिया है। वह चुनी हुई सरकारों को चुनौतियाँ देने में सक्ष्म हो चुके है। हिन्दूधर्म को धवस्त करने का संदेश अपने स्दस्यों को प्रसारित कर चुके हैं और देश की दिशाहीन घुटने-टेक सरकार उन के सामने असमंजस की स्थिति में लाचार खडी दिखती है। भारत के लिये अब साम्यवाद, नकस्लवाद तथा पीपल्स वार ग्रुप जैसे संगठनो का दमन करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है।

साम्यवाद का अमेरिकन संस्करण मफलर की नकाब पहन कर भारत को चुनावी हथियार से तबाह करने का षटयंत्र है ताकि भारत में राष्ट्रवादी सरकार ना बन सके। आम आदमी पार्टी के बहकावे में डाला गया हर वोट अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के बराबर है।

पाशचात्य देशों का आर्थिक उपनेष्वाद

साम्यवाद के विपरीत, पाश्चात्य देशों की पूंजीवादी सरकारें भी भारत को भावी आर्थिक उपलब्द्धि मान कर निगल लेने की ताक में हैं। उन सब में प्रमुख अमेरिका का आर्थिक उपनेष्वाद है। प्रत्यक्ष युद्ध करने के बजाय परोक्ष रूप से अमेरिका तथा उस के सहयोगी देशों का अभिप्राय भारत को घेर कर आन्तरिक तौर पर कमजोर करना है ताकि वह स्दैव उन की आर्थिक नीतियों के सहारे चलता रहै और प्रदेशिक राज्यों में बट जाये ताकि वह प्रत्येक राज्य के साथ अलग अलग शर्तों पर आर्थिक अंकुश लगा सकें। उन्हों ने भारत के विघटन की दिशा में कई बीज जमाये थे जिन में से कई अंकुरित हो चुके हैं। यहां भी वर्तमान भारत सरकार उसी तरह दिशाहीन है जैसी साम्यवादियों के समक्ष रहती है। हम लोग अपना विनाश लाचार खडे देख रहे हैं और विचार कर रहै हैं कि ‘कोई’ हमें बचा ले गा। उन की विनाश लीला के यंत्र इस प्रकार हैः-

1.         विदेशी राजनैतिक गतिविधियाँ राजनैतिक मिशन पडोसी देशों में युद्ध की स्थितियाँ और कारण उत्पन्न करते हैं ताकि विकसित देशों के लिये उन देशों को युद्ध का सामान और हथियार बेचने की मार्किट बनी रहै। ऐक देश के हथियार खरीदने के पश्चात उस का प्रतिदून्दी भी हथियार खरीदे गा और यह क्रम चलता रहै गा। विक्रय की शर्ते विकसित देश ही तय करते हैं जिन की वजह से अविकसित देशों की निर्भरता विकसित देशों पर बढती रहती है। इस नीति के अन्तर्गत लक्ष्य किये गये देशों के अन्दर राजनैतिक मिशन अपने जासूस देश के शासन तन्त्र के महत्वपूर्ण पदों पर छिपा कर रखते हैं। लक्षित देशों की सरकारों को अपने घुसपैठियों के माध्यम से गिरवा कर, उन के स्थान पर अपने पिठ्ठुओं की सरकारें बनवाते हैं। लक्षित देश की तकनीक को विकसित नहीं होने देते और उस में किसी ना किसी तरह से रोडे अटकाते रहते हैं। देश भक्त नेताओं की गुप्त रूप से हत्या या उन के विरुध सत्ता पलट भी करवाते हैं। इस प्रकार के सभी यत्न गोपनीय क्रूरता से करे जाते हैं। उन में भावनाओं अथवा नैतिकताओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। इसी को ‘कूटनीति’ कहते हैं। कूटनीति में लक्षित देशों की युवा पीढी को देश के नैतिक मूल्यों, रहन सहन, संस्कृति, आस्थाओं के विरुध भटका कर अपने देश की संस्कृति का प्रचार करना तथा युवाओं को उस की ओर आकर्षित करना भी शामिल है, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध (साईक्लोजिकल वारफैयर) कहा जाता है। यह बहुत सक्षम तथा प्रभावशाली साधन है। इस का प्रयोग भारत के विरुध आज धडल्ले से हो रहा है क्यों कि सरकार की धर्म-निर्पेक्ष नीति इस के लिये उपयुक्त वातावरण पहले से ही तैयार कर देती है। इस नीति से समाज के विभिन्न वर्गों में विवाद तथा विषमतायें बढने लगती है तथा देश टूटने के कगार पर पहुँच जाता है।

2.         बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ कुख्यात ईस्ट ईण्डिया कम्पनी की तरह बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ (मल्टी नेशनल कम्पनियाँ) विकसित देशों के ‘अग्रिम सैन्य दस्तों’ अथवा ‘आर्थिक गुप्तचरों’ की तरह के कार्य करती हैं। वह विकसित देश के आर्थिक उपनेष्वाद को अविकसित देशों में फैलाती हैं। बिना किसी युद्ध के समूचे देश की अर्थ व्यवस्था दूसरे देश के अधिकार में चली जाती है। यह कार्य पाश्चात्य देशों की कम्पनियाँ आज कल भारत में माल (माऱकिटंग क्षेत्र) तथा आऊट सोरसिंग की आड में कर रही हैं। विकसित देशों को अपने उत्पादन बेचने के लिये अविकसित देशों की मण्डियाँ जुटानी होती हैं जहाँ पर वह सैनिक सामान के अतिरिक्त दैनिक जीवन का सामान भी बेच सकें। इस उद्देश पूर्ति के लिये उन की कार्य शैलि कई प्रकार की होती हैः-

  • ब्राँड एम्बेस्डरों तथा रोल माडलों की सहायता से पहले अविकसित देश के उपभोक्ताओं की दिनचैर्या, जीवन पद्धति, रुचि, सोच-विचार, सामाजिक व्यवहार की परम्पराओं तथा धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन किये जाते हैं ताकि वह घरेलू उत्पाकों को नकार कर नये उत्पादकों के प्रयोग में अपनी ‘शान’ समझने लगें।
  • युवा वर्गों को अर्थिक डिस्काऊटस, उपहार (गिफ्ट स्कीम्स), नशीली आदतों, तथा आसान तरीके से धन कमाने के प्रलोभनो आदि से लुभाया जाता है ताकि वह अपने वरिष्ठ साथियों में नये उत्पादन के प्रति जिज्ञासा और प्रचार करें। इस प्रकार खानपान तथा दिखावटी वस्तुओं के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। स्थानीय लोग अपने आप ही स्वदेशी वस्तु का त्याग कर के उस के स्थान पर बाहरी देश के उत्पादन को स्वीकार कर लेते हैं। घरेलू मार्किट विदेशियों की हो जाती है। कोकाकोला, केन्टचुकी फ्राईड चिकन, फेयर एण्ड लवली आदि कई प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों की भारत में आजकल भरमार इसी अर्थिक युद्ध के कारण है।
  • जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ‘आर्थिक-जाल’ सुदृढ हो जाता है तो वह देश के राजनैतिक क्षेत्र में भी हस्क्षेप करना आरम्भ कर देती हैं। भारत में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी का इतिहास इस का प्रमाण है। वह धन दे कर अपने पिठ्ठुओं को चुनाव में विजयी करवाती हैं और अपनी मन-मर्जी की सरकार देश में कायम करवा देती हैं। वह स्थानीय औध्योगों को बन्द करवा के स्थानीय कच्चे माल का निर्यात तथा अपनी कम्पनी के उत्पादनों का आयात करवाती हैं। हम आज विदेशी निवेश से प्रसन्न तो होते हैं परन्तु आने वाले समय में विदेशी कम्पनियाँ वह सभी कुछ करें गी जो ईस्ट ईण्डिया कम्पनी यहाँ कर के गयी थी। भारत पाश्चात्य देशों की ऐक कालोनी या उन पर निर्भर देश बन कर रह जाये गा जिस में स्वदेशी कुछ नहीं होगा।

3.         बिकाऊ प्रसार माध्यमआजकल प्रसार माध्यम नैतिकता को त्याग कर पूर्णत्या व्यवसायिक बन चुके हैं। उन का प्रभाव माफिया की तरह का बन चुका है। बहुराष्ट्रीय प्रसार माध्यम आर्थिक तथा तकनीकी कारणों से भारत विरोधी प्रचार करने में कहीं अधिक सक्षम हैं। वह देश वासियों की विचार धारा को अपनी दिशा में मोडते हैं। आज इन प्रसार माध्यमों में हिन्दू धर्म के विरोध में जम कर प्रचार होता है और उस के कई तरीके अपनाये जाते हैं जो देखने में यथार्थ की तरह लगते हैं। भारतीय संतों के विरुध दुष्प्रचार के लिये स्टिंग आप्रेशन, साधु-संतों के नाम पर यौन शोषण के उल्लेख, नशीले पदार्थों का प्रसार और फिर ‘भगवा आतंकवाद’ का दोषारोपण किया जाता है। अकसर इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग हमारे निर्वाचन काल में हिन्दू विरोधी सरकार बनवाने के लिये किया जाता है। भारत के सभी मुख्य प्रसार माध्यम इसाईयों, धनी अरब शेखों, या अन्य हिन्दू विरोधी गुटों के हाथ में हैं जिन का इस्तेमाल हिन्दू विरोध के लिये किया जाता है। भारत सरकार धर्म निर्पेक्षता के बहाने कुछ नहीं करती। अवैध घुसपैठ को बढावा देना, मानव अधिकारों की आड में उग्रवादियों को समर्थन देना, तथा हिन्दु आस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आजकल मीडिया का मुख्य लक्ष्य बन चुका है। नकारात्मिक समाचारों को छाप कर वह सरकार और न्याय व्यवस्था के प्रति जनता में अविशवास और निराशा की भावना को भी उकसा रहै हैं। हिन्दू धर्म की विचारधारा को वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में बाधा समझते हैं। काँन्वेन्ट शिक्षशित युवा पत्रकार उपनेष्वादियों के लिये अग्रिम दस्तों का काम कर रहै हैं।

4.         हिन्दू-विरोधी गैर सरकारी संगठनकईगैर सरकारी संगठन भी इस कुकर्म मेंऐक मुख्य कडीहैं। उन की कार्य शैली कभी मानव अधिकार संरक्षण, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की सहायता, अल्पसंख्यकों का संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण आदि की परत में छुपाई जाती है। यथार्थ में इन संगठनो का लक्ष्य विघटनकारी शक्तियों का संरक्षण, हिन्दूओं का धर्मान्तरण, तथा विदेशियों के हितों की रक्षा करना होता है। अकसर यह लोग पर्यावरण की आड में विकास कार्यों में बाधा डालते हैं। यह संस्थायें विदेशों में बैठे निर्देशकों के इशारों पर चलती हैं। उन के कार्य कर्ता विदेशी मीडिया के सहयोग से छोटी-छोटी बातों को ले कर राई का पहाड बनाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाने के लिय इतना शौर करते हैं कि स्थानीय महत्वपूर्ण मुद्दे सुनाई ही नहीं पडते। नर्मदा बचाव आन्दोलन, इन्टरनेशनल ब्रदरहुड, मिशनरीज आफ चैरिटी आदि इस के उदाहरण हैं। अकसर इन्हीं संस्थाओं के स्थानीय नेताओं को विश्व विभूतियों की छवि प्रदान करने के लिये उन्हें अन्तर्राष्टरीय पुरस्कारों से अलंकृत भी कर दिया जाता है। उन्हें देश द्रोह करने के पुरस्कार स्वरुप धन राशि भी प्राप्त होती रहती है।

5.         आर्थिक प्रतिबन्धय़ह प्रभावशाली हथियार विकसित देश कमजोर देशों के विरुद्ध अपनी शर्ते मनवाने कि लिये प्रयोग करते हैं। भारत के परमाणु परीक्षण के बाद पाश्चात्य देशों ने इसे हमारे विरुद्ध भी प्रयोग किया था। 

6.         उपभोक्तावाद सरकारी क्षेत्र, निजि क्षेत्र तथा व्यक्तिगत तौर पर किसी को बेतहाशा खर्च करने के लिये प्ररलोभित करना भी ऐक यन्त्र है जिस में कर्ज तथा क्रेडिट कार्ड की स्कीमों से गैर ज़रूरी सामान खरीदने के लिये उकसाना शामिल है। लोभवश लोग फालतू समान खरीद कर कर्ज के नीचे दब जाते हैं और अपना निजि तथा सामाजिक जीवन नर्क बना लेते हैं। उन के जीवन में असुरक्षा, परिवारों में असंतोष, तथा समाज और देश में संघर्ष बढता हैं। यह परिक्रिया हिन्दू धर्म की विचारधारा के प्रतिकूल हैं जो संतोष पूर्वक सादा जीवन शैली और संसाधनों का संरक्षण करने का समर्थन करती है।

हिन्दूवाद विरोधी धर्म-निर्पेक्षता

हिन्दू संस्कृति इस युद्ध की सफलता में बाधा डालती है अतः उस का भेदन भी किया जाता है। भारत में वैलेन्टाईन डे ने शिवरात्री के उत्सव को गौण बना दिया है। वैलेन्टाईन डे में फूल बेचने वालों, होटलों, तथा कई प्रकार के गिफ्टस बेचने वालों का स्वार्थ छिपा है जिस के कारण वह युवाओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोडते। इन यत्नों से परमपरायें भी टुटने लगती हैं तथा सामाजिक विघटन होता है। विदेशियों के हित में नये समीकरण बनने लगते हैं जिस में कुछ स्वार्थी नेता और उन के परिवार हिन्दू विरोधी गुटबन्दी की मुख्य कडी हैं। वह आपसी मत-भेद रहने के बावजूद भी हिन्दू विरोध में ऐक साथ जुड जाते हैं ताकि हिन्दूओं को ‘साम्प्रदायक ’ बता कर धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर देश की सत्ता से बाहर रखा जा सके। इन का मंच अकसर ‘थर्डफ्रन्ट’ कहलाता है। सत्ता में आने के बाद यह फिर अपने विरोधाभास के कारण देश को ‘जाम’ कर देते हैं।  

दिशाहीन उदारीकरण की नीति

इन कुरीतियों को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र तथा नीतियों की आवश्यक्ता है। इन पर नियन्त्रण करने के लिये सरकार की सोचविचार अनुकूल होनी चाहियें ताकि वह देश विरोधी गतिविधियों पर नियन्त्रण रख सके। हमें अमेरिकी प्रशासन तथा अन्य विकसित देशों से सीखना चाहिये कि वह किस प्रकार अपने देश में आने वालों पर सावधानी और सतर्कता बर्तते हैं। जो कुछ भी उन देशों की विचारधारा से मेल नहीं खाता वह उन देशों में ऩहीं प्रवेश कर सकता। उसी प्रकार हमें अपने देश में आने वालों और उन के विचारों की पडताल करनी चाहिये ताकि देश फिर से किसी की दासता के चंगुल में ना फंस जाये।

यह दुर्भाग्य है कि धर्म निर्पेक्षता तथा स्वार्थी नेताओं के कारण सरकारी सोच विचार तथा तन्त्र प्रणाली हिन्दू विरोधी है। हमारे राजनैता ‘उदारवादी’ बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। 

चाँद शर्मा

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

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