हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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65 – हिन्दू-विरोधी गुटबन्दी


बटवारे से पहले हिन्दूओं को बाहरी देशों से आये इस्लाम और इसाई धर्मों से अपने देश को बचाने के लिये संघर्ष करना पडता था किन्तु बटवारे के पश्चात विदेशी धर्मो के अतिरिक्त विदेशी आर्थिक शक्तियों से भी जूझना पड रहा है जो हिन्दू जीवन शैली की विरोधी हैं। 

बाहरी विचार धाराओं का प्रभाव

भारत के बटवारे से पूर्व विश्व दो शक्तिशाली तथा परस्पर विरोधी गुटों में बटा हुआ था और हम ने अपने आप को साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) तथा पूजीँवादी (केपिटालिस्ट) देशों के दो स्दैव संघर्ष-रत पाटों के बीच फसे हुये पाया। दोनो ही हमें हडप लेने के लिये मुहँ खोले खडे थे। दोनो परस्पर विरोधी विचारधारायें मानवी सामाजिक बन्धनों को प्रभावित करने में सशक्त थीं क्यों कि उन का प्रत्यक्ष प्रभाव केवल दैहिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति से ही सम्बन्धित था।

आज दोनो विचार धारायें भारतीय हिन्दू जीवन पद्धति के मौलिक ताने बाने पर आघात कर रही हैं। बाहरी विचार धाराओं के दुष्परिणाम को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र का समर्थन और सक्रिय योजना की आवश्यक्ता पडती है किन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी तन्त्र के नेता दोनो विचारधाराओं के प्रलोभनो के माध्यम से बिक चुके हैं और दोनों विचार धाराओं के संरक्षकों को भारत में पैर पसारने की सुविधायें प्रदान कर रहै हैं। देश के साथ गद्दारी और दगाबाजी करने की कमिशन राजनेताओं के नाम विदेशी बेंकों में सुरक्षित हो जाती है।

प्रत्येक देश के सरकारी तन्त्र की सोच विचार नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र, आस्थाओं, और जीवन के मूल्यों से प्रभावित होती है। यदि उन की विचारधारा नैतिक मूल्यों पर टिकी होगी तो देश बाहरी विचारधाराओं का सामना कर सकता है परन्तु यदि नेता धर्म-निर्पेक्ष, अस्पष्ट और स्वार्थहित प्रधान हों तो सरकार विदेशी शक्तियों की कठपुतली बन जाती है। बटवारे के बाद हिन्दुस्तान में अभी तक देश हित के प्रतिकूल ही होता रहा है।

साम्यवाद  

साम्यवाद इसाईमत की ‘धूर्तता’ और मुस्लिम मत की ‘क्रूरता’ का मिश्रण है जिसे लक्ष्य प्राप्ति चाहिये साधन चाहे कुछ भी हों। उन की सोचानुसार जो कुछ पुरातन है उसे उखाड फैंको ताकि साम्यवाद उस के स्थान पर पनप सके। भारत की दारिद्रमयी स्थिति, अशिक्षित तथा अभावग्रस्त जनता और धर्म-निर्पेक्ष दिशाहीन सरकार, भ्रष्ट ऐवं स्वार्थी नेता, लोभी पूंजीपति, अंग्रेजी पद्धतियों से प्रभावित वरिष्ट सरकारी अधिकारी – यह सभी कुछ साम्यवाद के पौधे के पनपने तथा अतिशीघ्र फलने फूलने के लिये पर्याप्त वातावरण प्रदान करते रहै हैं। भारत में बढता हुआ नकस्लवाद सम्पूर्ण विनाश के आने की पूर्व सुचना दे रहा है। तानाशाही की कोई सीमा नहीं होती। तानाशाह के स्वार्थों की दिशा ही देश की दशा और दिशा निर्धारित करती है।

सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में कम्यूनिस्ट अपनी विचारधारा तथा आचरण से आदि मानवों से भी गये गुजरे हैं। निजि शरीरिक अवश्यक्ताओं के पूर्ति के अतिरिक्त अध्यात्मिक बातें उन के जीवन में कोई मूल्य नहीं रखतीं। पूंजीपति देशों की तुलना में साम्यवादी रूस और चीन में जनसाधारण का जीवन कितना नीरस और आभाव पूर्ण है वह सर्व-विदित है। आज वह देश निर्धनता के कगार पर खडे हैं। अपने आप को पुनर्स्थापित करने के लिये वह अपने प्रचीन पदचिन्हों के सहारे धार्मिक आस्थाओं को टटोल रहे हैं। मानसिक शान्ति के लिये उन के युवा फिर से चर्च की ओर जा रहे हैं या नशों का प्रयोग कर रहे हैं।

साम्यवाद जहाँ भी फैला उस ने स्थानीय धर्म, नैतिक मूल्यों और परम्पराओं को तबाह किया है। चीन, तिब्बत, और अब नेपाल इस तथ्य के प्रमाण हैं। किन्तु भारतीय कम्यूनिस्ट अपने गुरूओं से भी ऐक कदम आगे हैं। वह भारतीय परम्परा के प्रत्येक चिन्ह को मिटा देने में गौरव समझते हैं। जिस थाली में खायें गे उसी में छेद करने की सलाह भी दें गे। चलते उद्योगों को हडताल करवा कर बन्द करवाना, उन में आग लगवाना आदि उन की मुख्य कार्य शैलि रही हैं।

भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ साम्यवादी संगठन राजकीय सत्ता के दलालों के रूप में उभर रहै हैं और उन्हों ने अपना हिंसात्मिक रूप भी दिखाना आरम्भ कर दिया है। वह चुनी हुई सरकारों को चुनौतियाँ देने में सक्ष्म हो चुके है। हिन्दूधर्म को धवस्त करने का संदेश अपने स्दस्यों को प्रसारित कर चुके हैं और देश की दिशाहीन घुटने-टेक सरकार उन के सामने असमंजस की स्थिति में लाचार खडी दिखती है। भारत के लिये अब साम्यवाद, नकस्लवाद तथा पीपल्स वार ग्रुप जैसे संगठनो का दमन करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है।

साम्यवाद का अमेरिकन संस्करण मफलर की नकाब पहन कर भारत को चुनावी हथियार से तबाह करने का षटयंत्र है ताकि भारत में राष्ट्रवादी सरकार ना बन सके। आम आदमी पार्टी के बहकावे में डाला गया हर वोट अपने पाँव पर कुल्हाडी मारने के बराबर है।

पाशचात्य देशों का आर्थिक उपनेष्वाद

साम्यवाद के विपरीत, पाश्चात्य देशों की पूंजीवादी सरकारें भी भारत को भावी आर्थिक उपलब्द्धि मान कर निगल लेने की ताक में हैं। उन सब में प्रमुख अमेरिका का आर्थिक उपनेष्वाद है। प्रत्यक्ष युद्ध करने के बजाय परोक्ष रूप से अमेरिका तथा उस के सहयोगी देशों का अभिप्राय भारत को घेर कर आन्तरिक तौर पर कमजोर करना है ताकि वह स्दैव उन की आर्थिक नीतियों के सहारे चलता रहै और प्रदेशिक राज्यों में बट जाये ताकि वह प्रत्येक राज्य के साथ अलग अलग शर्तों पर आर्थिक अंकुश लगा सकें। उन्हों ने भारत के विघटन की दिशा में कई बीज जमाये थे जिन में से कई अंकुरित हो चुके हैं। यहां भी वर्तमान भारत सरकार उसी तरह दिशाहीन है जैसी साम्यवादियों के समक्ष रहती है। हम लोग अपना विनाश लाचार खडे देख रहे हैं और विचार कर रहै हैं कि ‘कोई’ हमें बचा ले गा। उन की विनाश लीला के यंत्र इस प्रकार हैः-

1.         विदेशी राजनैतिक गतिविधियाँ राजनैतिक मिशन पडोसी देशों में युद्ध की स्थितियाँ और कारण उत्पन्न करते हैं ताकि विकसित देशों के लिये उन देशों को युद्ध का सामान और हथियार बेचने की मार्किट बनी रहै। ऐक देश के हथियार खरीदने के पश्चात उस का प्रतिदून्दी भी हथियार खरीदे गा और यह क्रम चलता रहै गा। विक्रय की शर्ते विकसित देश ही तय करते हैं जिन की वजह से अविकसित देशों की निर्भरता विकसित देशों पर बढती रहती है। इस नीति के अन्तर्गत लक्ष्य किये गये देशों के अन्दर राजनैतिक मिशन अपने जासूस देश के शासन तन्त्र के महत्वपूर्ण पदों पर छिपा कर रखते हैं। लक्षित देशों की सरकारों को अपने घुसपैठियों के माध्यम से गिरवा कर, उन के स्थान पर अपने पिठ्ठुओं की सरकारें बनवाते हैं। लक्षित देश की तकनीक को विकसित नहीं होने देते और उस में किसी ना किसी तरह से रोडे अटकाते रहते हैं। देश भक्त नेताओं की गुप्त रूप से हत्या या उन के विरुध सत्ता पलट भी करवाते हैं। इस प्रकार के सभी यत्न गोपनीय क्रूरता से करे जाते हैं। उन में भावनाओं अथवा नैतिकताओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। इसी को ‘कूटनीति’ कहते हैं। कूटनीति में लक्षित देशों की युवा पीढी को देश के नैतिक मूल्यों, रहन सहन, संस्कृति, आस्थाओं के विरुध भटका कर अपने देश की संस्कृति का प्रचार करना तथा युवाओं को उस की ओर आकर्षित करना भी शामिल है, जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध (साईक्लोजिकल वारफैयर) कहा जाता है। यह बहुत सक्षम तथा प्रभावशाली साधन है। इस का प्रयोग भारत के विरुध आज धडल्ले से हो रहा है क्यों कि सरकार की धर्म-निर्पेक्ष नीति इस के लिये उपयुक्त वातावरण पहले से ही तैयार कर देती है। इस नीति से समाज के विभिन्न वर्गों में विवाद तथा विषमतायें बढने लगती है तथा देश टूटने के कगार पर पहुँच जाता है।

2.         बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ कुख्यात ईस्ट ईण्डिया कम्पनी की तरह बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ (मल्टी नेशनल कम्पनियाँ) विकसित देशों के ‘अग्रिम सैन्य दस्तों’ अथवा ‘आर्थिक गुप्तचरों’ की तरह के कार्य करती हैं। वह विकसित देश के आर्थिक उपनेष्वाद को अविकसित देशों में फैलाती हैं। बिना किसी युद्ध के समूचे देश की अर्थ व्यवस्था दूसरे देश के अधिकार में चली जाती है। यह कार्य पाश्चात्य देशों की कम्पनियाँ आज कल भारत में माल (माऱकिटंग क्षेत्र) तथा आऊट सोरसिंग की आड में कर रही हैं। विकसित देशों को अपने उत्पादन बेचने के लिये अविकसित देशों की मण्डियाँ जुटानी होती हैं जहाँ पर वह सैनिक सामान के अतिरिक्त दैनिक जीवन का सामान भी बेच सकें। इस उद्देश पूर्ति के लिये उन की कार्य शैलि कई प्रकार की होती हैः-

  • ब्राँड एम्बेस्डरों तथा रोल माडलों की सहायता से पहले अविकसित देश के उपभोक्ताओं की दिनचैर्या, जीवन पद्धति, रुचि, सोच-विचार, सामाजिक व्यवहार की परम्पराओं तथा धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन किये जाते हैं ताकि वह घरेलू उत्पाकों को नकार कर नये उत्पादकों के प्रयोग में अपनी ‘शान’ समझने लगें।
  • युवा वर्गों को अर्थिक डिस्काऊटस, उपहार (गिफ्ट स्कीम्स), नशीली आदतों, तथा आसान तरीके से धन कमाने के प्रलोभनो आदि से लुभाया जाता है ताकि वह अपने वरिष्ठ साथियों में नये उत्पादन के प्रति जिज्ञासा और प्रचार करें। इस प्रकार खानपान तथा दिखावटी वस्तुओं के प्रति रुचि जागृत हो जाती है। स्थानीय लोग अपने आप ही स्वदेशी वस्तु का त्याग कर के उस के स्थान पर बाहरी देश के उत्पादन को स्वीकार कर लेते हैं। घरेलू मार्किट विदेशियों की हो जाती है। कोकाकोला, केन्टचुकी फ्राईड चिकन, फेयर एण्ड लवली आदि कई प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों की भारत में आजकल भरमार इसी अर्थिक युद्ध के कारण है।
  • जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ‘आर्थिक-जाल’ सुदृढ हो जाता है तो वह देश के राजनैतिक क्षेत्र में भी हस्क्षेप करना आरम्भ कर देती हैं। भारत में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी का इतिहास इस का प्रमाण है। वह धन दे कर अपने पिठ्ठुओं को चुनाव में विजयी करवाती हैं और अपनी मन-मर्जी की सरकार देश में कायम करवा देती हैं। वह स्थानीय औध्योगों को बन्द करवा के स्थानीय कच्चे माल का निर्यात तथा अपनी कम्पनी के उत्पादनों का आयात करवाती हैं। हम आज विदेशी निवेश से प्रसन्न तो होते हैं परन्तु आने वाले समय में विदेशी कम्पनियाँ वह सभी कुछ करें गी जो ईस्ट ईण्डिया कम्पनी यहाँ कर के गयी थी। भारत पाश्चात्य देशों की ऐक कालोनी या उन पर निर्भर देश बन कर रह जाये गा जिस में स्वदेशी कुछ नहीं होगा।

3.         बिकाऊ प्रसार माध्यमआजकल प्रसार माध्यम नैतिकता को त्याग कर पूर्णत्या व्यवसायिक बन चुके हैं। उन का प्रभाव माफिया की तरह का बन चुका है। बहुराष्ट्रीय प्रसार माध्यम आर्थिक तथा तकनीकी कारणों से भारत विरोधी प्रचार करने में कहीं अधिक सक्षम हैं। वह देश वासियों की विचार धारा को अपनी दिशा में मोडते हैं। आज इन प्रसार माध्यमों में हिन्दू धर्म के विरोध में जम कर प्रचार होता है और उस के कई तरीके अपनाये जाते हैं जो देखने में यथार्थ की तरह लगते हैं। भारतीय संतों के विरुध दुष्प्रचार के लिये स्टिंग आप्रेशन, साधु-संतों के नाम पर यौन शोषण के उल्लेख, नशीले पदार्थों का प्रसार और फिर ‘भगवा आतंकवाद’ का दोषारोपण किया जाता है। अकसर इन प्रसार माध्यमों का प्रयोग हमारे निर्वाचन काल में हिन्दू विरोधी सरकार बनवाने के लिये किया जाता है। भारत के सभी मुख्य प्रसार माध्यम इसाईयों, धनी अरब शेखों, या अन्य हिन्दू विरोधी गुटों के हाथ में हैं जिन का इस्तेमाल हिन्दू विरोध के लिये किया जाता है। भारत सरकार धर्म निर्पेक्षता के बहाने कुछ नहीं करती। अवैध घुसपैठ को बढावा देना, मानव अधिकारों की आड में उग्रवादियों को समर्थन देना, तथा हिन्दु आस्थाओं के विरुद्ध दुष्प्रचार करना आजकल मीडिया का मुख्य लक्ष्य बन चुका है। नकारात्मिक समाचारों को छाप कर वह सरकार और न्याय व्यवस्था के प्रति जनता में अविशवास और निराशा की भावना को भी उकसा रहै हैं। हिन्दू धर्म की विचारधारा को वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में बाधा समझते हैं। काँन्वेन्ट शिक्षशित युवा पत्रकार उपनेष्वादियों के लिये अग्रिम दस्तों का काम कर रहै हैं।

4.         हिन्दू-विरोधी गैर सरकारी संगठनकईगैर सरकारी संगठन भी इस कुकर्म मेंऐक मुख्य कडीहैं। उन की कार्य शैली कभी मानव अधिकार संरक्षण, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की सहायता, अल्पसंख्यकों का संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण आदि की परत में छुपाई जाती है। यथार्थ में इन संगठनो का लक्ष्य विघटनकारी शक्तियों का संरक्षण, हिन्दूओं का धर्मान्तरण, तथा विदेशियों के हितों की रक्षा करना होता है। अकसर यह लोग पर्यावरण की आड में विकास कार्यों में बाधा डालते हैं। यह संस्थायें विदेशों में बैठे निर्देशकों के इशारों पर चलती हैं। उन के कार्य कर्ता विदेशी मीडिया के सहयोग से छोटी-छोटी बातों को ले कर राई का पहाड बनाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाने के लिय इतना शौर करते हैं कि स्थानीय महत्वपूर्ण मुद्दे सुनाई ही नहीं पडते। नर्मदा बचाव आन्दोलन, इन्टरनेशनल ब्रदरहुड, मिशनरीज आफ चैरिटी आदि इस के उदाहरण हैं। अकसर इन्हीं संस्थाओं के स्थानीय नेताओं को विश्व विभूतियों की छवि प्रदान करने के लिये उन्हें अन्तर्राष्टरीय पुरस्कारों से अलंकृत भी कर दिया जाता है। उन्हें देश द्रोह करने के पुरस्कार स्वरुप धन राशि भी प्राप्त होती रहती है।

5.         आर्थिक प्रतिबन्धय़ह प्रभावशाली हथियार विकसित देश कमजोर देशों के विरुद्ध अपनी शर्ते मनवाने कि लिये प्रयोग करते हैं। भारत के परमाणु परीक्षण के बाद पाश्चात्य देशों ने इसे हमारे विरुद्ध भी प्रयोग किया था। 

6.         उपभोक्तावाद सरकारी क्षेत्र, निजि क्षेत्र तथा व्यक्तिगत तौर पर किसी को बेतहाशा खर्च करने के लिये प्ररलोभित करना भी ऐक यन्त्र है जिस में कर्ज तथा क्रेडिट कार्ड की स्कीमों से गैर ज़रूरी सामान खरीदने के लिये उकसाना शामिल है। लोभवश लोग फालतू समान खरीद कर कर्ज के नीचे दब जाते हैं और अपना निजि तथा सामाजिक जीवन नर्क बना लेते हैं। उन के जीवन में असुरक्षा, परिवारों में असंतोष, तथा समाज और देश में संघर्ष बढता हैं। यह परिक्रिया हिन्दू धर्म की विचारधारा के प्रतिकूल हैं जो संतोष पूर्वक सादा जीवन शैली और संसाधनों का संरक्षण करने का समर्थन करती है।

हिन्दूवाद विरोधी धर्म-निर्पेक्षता

हिन्दू संस्कृति इस युद्ध की सफलता में बाधा डालती है अतः उस का भेदन भी किया जाता है। भारत में वैलेन्टाईन डे ने शिवरात्री के उत्सव को गौण बना दिया है। वैलेन्टाईन डे में फूल बेचने वालों, होटलों, तथा कई प्रकार के गिफ्टस बेचने वालों का स्वार्थ छिपा है जिस के कारण वह युवाओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोडते। इन यत्नों से परमपरायें भी टुटने लगती हैं तथा सामाजिक विघटन होता है। विदेशियों के हित में नये समीकरण बनने लगते हैं जिस में कुछ स्वार्थी नेता और उन के परिवार हिन्दू विरोधी गुटबन्दी की मुख्य कडी हैं। वह आपसी मत-भेद रहने के बावजूद भी हिन्दू विरोध में ऐक साथ जुड जाते हैं ताकि हिन्दूओं को ‘साम्प्रदायक ’ बता कर धर्म-निर्पेक्षता का मखौटा पहन कर देश की सत्ता से बाहर रखा जा सके। इन का मंच अकसर ‘थर्डफ्रन्ट’ कहलाता है। सत्ता में आने के बाद यह फिर अपने विरोधाभास के कारण देश को ‘जाम’ कर देते हैं।  

दिशाहीन उदारीकरण की नीति

इन कुरीतियों को रोकने के लिये सरकारी तन्त्र तथा नीतियों की आवश्यक्ता है। इन पर नियन्त्रण करने के लिये सरकार की सोचविचार अनुकूल होनी चाहियें ताकि वह देश विरोधी गतिविधियों पर नियन्त्रण रख सके। हमें अमेरिकी प्रशासन तथा अन्य विकसित देशों से सीखना चाहिये कि वह किस प्रकार अपने देश में आने वालों पर सावधानी और सतर्कता बर्तते हैं। जो कुछ भी उन देशों की विचारधारा से मेल नहीं खाता वह उन देशों में ऩहीं प्रवेश कर सकता। उसी प्रकार हमें अपने देश में आने वालों और उन के विचारों की पडताल करनी चाहिये ताकि देश फिर से किसी की दासता के चंगुल में ना फंस जाये।

यह दुर्भाग्य है कि धर्म निर्पेक्षता तथा स्वार्थी नेताओं के कारण सरकारी सोच विचार तथा तन्त्र प्रणाली हिन्दू विरोधी है। हमारे राजनैता ‘उदारवादी’ बन कर अपने ही देश को पुनः दासता की ओर धकेल रहै हैं। 

चाँद शर्मा

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