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35. भारत का भौतिक ज्ञान


दार्शिनक्ता और वैज्ञानिक्ता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ‘दार्शनिक’ आविष्कारों की कल्पना करता है जिसे ‘वैज्ञानिक’ साकार कर देता है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के जन्मदाता अरस्तु आदि भी दार्शनिक ही थे। विचार आविष्कारों से पूर्व उजागर होते हैं तथा दीर्घायु होते हैं। तकनीक विचारों को साकार करती है किन्तु उस में बदलाव तेजीं से आते हैं। नयी तकनीकें पुरानी तकनीकों का स्थान ले लेती हैं जैसे कि ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये आवाज को विद्युत तरंगों में बदल देने का विचार आज भी पुरातन है किन्तु उसे भेजने की तकनीक तार से आरम्भ हो कर, बेतार, मोबाईल फोन, सैटेलाईट चैनल आदि के कितने ही रूप ले चुकी है। दार्शनिक विचारों की कल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं।

भौतिक ज्ञान का आरम्भ 

आज भौतिक शास्त्र की पुस्तकों में पढाया जाता है कि “पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें ठोस, तरल, और गैस की श्रेणी में में रखा जा सकता है”। यह पदार्थों का केवल दिखावटी तथ्य है। आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है। 

वैदिक साहित्य में भौतिक ज्ञान

प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (प्रापरटीज), का वर्णन भी दिया गया है।

अथर्व वेद के अनुसार जगत में सात ‘तत्व’ – धरा, जल, तेज, वायु, क्षितिज, तन्मात्रा, और घमण्ड हैं। उन के अतिरिक्त तीन ‘गुण’ सत्तव, रज और तम हैं। इन्हीं सात पदार्थों और तीन गुणों के मिश्रण से 21 ‘पदार्थों’ की रचना होती है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, और मन, यह नौ ‘द्रव्य’ हैं जिन की विशेषतायें भौतिक शास्त्र की वैज्ञानिक भाषा में ही इस प्रकार से व्यक्त की गयी हैं –

पृथ्वी पृथ्वी में गन्ध, रस, रुप और स्पर्श चार गुण (प्रापरटीज) हैं जिन में से गन्ध मुख्य है।

जल – जल में रस, रूप और स्पर्श तीन गुण हैं जिन में से रस मुख्य है। जल की पहचान शीत स्पर्श है। जल में जो ऊष्णता होती है वह अग्नि की है।

अग्नि अग्नि की पहचान स्पर्श है, रूप और स्पर्श दो गुण हैं जिन में से रूप मुख्य है।

वायु – वायु की पहचान ऐक विलक्षण स्पर्श हैं।

आकाश – आकाश की पहचान शब्द है। जहाँ शब्द है वहाँ आकाश भी है। आकाश का कोई शरीर नहीं। कर्ण छिद्र के अन्दर का आकाश स्रोत्र है।

काल काल सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है जैसे – ‘यह जल्दी हो गया’ और ‘वह देर से हुआ’ आदि। व्यवहार के लिये पल, घडी, दिन, महीना, वर्ष, युग, भूत भविष्य और वर्तमान आदि अनेक भेद कल्पना से कर लिये जाते हैं।

दिशा व्यवहार के लिये दिशायें दस प्रकार की हैं जो काल की तरह ही सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होती हैं।

आत्मा आत्मा की पहचान चैतन्य ज्ञान है। ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं क्यों कि किसी इन्द्री के नष्ट हो जाने पर भी उस के पहले अनुभव किये हुए विषय की समृति रहती है। अनुभव करने वाला इन्द्रियों से भिन्न है। इच्छा, देूष, प्रयत्न, सुख दुःख भी शरीर से अलग हो कर आत्मा की पहचान कराते हैं।

मन मन इन्द्रियों की तरह सुख दुःख के ज्ञान का साधन है।

शुष्क वैज्ञानिक तथ्यों को मनोरंजक कथाओं के माध्यम से जन साधारण तक पहुँचाना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैं जैसे किः-

  • कृषि, चिकित्सा, खगोल तथा गणित, अंकगणित, और साँक्रमिक आदि से सम्बन्धित तथ्यों का भौतिक ज्ञान ऋगवेद 1-71-9,4-57-5 तथा सामवेद 121 में संकलित है। इस ज्ञान के प्रयोग से जन साधारण के दुःख दूर किये जा सकते हैं। (ऋगवेद 1-34-1 से 5, 5-77-4)
  • जल, वायु तथा अग्नि की विशेषतायें तथा विमानों और वाहनों के निर्माण के लिये उन के प्रयोग के बारे में उल्लेख किया गया है। (ऋगवेद 1-3-1,2,1-34-1,1-140-1)
  • अणु कणों, ईश्वर्य शक्ति तथा उस के गुणों के पदार्थों में समावेश के बारे में ऋगवेद 5-47-2 तथा सामवेद 222 में उल्लेख किया है।
  • भौतिक ज्ञान सम्बन्धी परिभाषायें तथा गुण यजुर्वेद 18-25 में उल्लेखित हैं।
  • आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का मत है कि सूर्य कि किरणें सीधी रेखा के विपरीत कमान की भाँति धरती पर उतरती हैं। यही तथ्य हमारे पूर्वजों ने कलात्मिक ढंग से बताया है – भुजंगनः मितः सप्तः तुर्गः – कि सूर्य  के रथ को सर्पों से बन्धे हुये सात घोडे खींच कर चलते हैं। सर्प सीधी लाईन में नहीं चलते टेढें मेढे़ चलते हैं।
  • सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। इसी प्रकार उन्हों ने रौशनी के सम्बन्ध में कहा है कि सूर्य की श्वेत किरणों में ही सात रंग छिपे होते हैं। अथर्व वेद में कहा है सप्तः सूर्य्स रसम्यः।
  • ऋगवेद’ में सूर्य के प्रकाश की गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य का प्रकाश आधे निमिष में 2 ,202 योजन की यात्रा करता है। एक योजन लगभग 9 मील के बराबर है जिस के अनुसार यह गति 185793.75 मील होती है जब कि सूर्य के प्रकाश की आधुनिक वैज्ञानिक गणना 187372 मील है।  
  • तरल रूप में जल, गैस रूप में बादल बन कर वर्षा करता है। पर्वत शिखरों पर ठोस रूप में बर्फ भी जल का परिवर्तित रूप है – यजुर्वेद
  • अग्नि दृष्यमान है। पृथ्वी पर अग्नि ज्वाला, लावा, और भस्म के रूप में स्थित है। आकाश में सूर्य, बादलों में विद्युत तथा जल में बडवा नल, वृक्षों में दावानल तथा देह में जीवन का रूप है। शक्ति रूप और स्थान बदलती है। अग्नि सभी वस्तुओं को शुद्ध करती है। (यजुर्वेद)
  • यद्यपि तम (अन्धेरा) काले रंग का है और चलता हुआ प्रतीत होता है तथापि उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। ‘प्रकाश का अभाव’ ही तम है। प्रकाश के ना होने से न दीखना ही उस में कालापन है। प्रकाश के आगे आगे चलने से ही अन्धेरा चलता हुआ प्रतीत होता है जैसे मानव के चलने से उस की छाया चलती हुई प्रतीत होती है।

भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान

भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।

अणु शक्ति – वैशिसिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु (ऐटम) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता ऐक ही स्त्रोत्र से हैं केवल मात्रा में फर्क है। जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु ऐक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

ध्वनि और रौशनी – सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते रहै कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। छटी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें  अलग अलग गति से निकलती हैं।

चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (इको) भी रहती है। वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।

आकर्षण शक्ति की खोज

यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।

  1. आर्य भट्ट सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को जानकारी दी थी  किः-
  • कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  • तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  • पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  • उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।
  • आर्य भट्ट में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन उल्लेख की है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। ऐक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञायानिकों की गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञायानिकों की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
  1. ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी)  ने नेगेटिव अंकों  तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
  2. वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है स्दैव चमकता है और शेष आधा भाग स्दैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
  3. भास्कर आचार्य भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः –

            मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

                      आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या

                                आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से ऐक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व ‘सिद्धान्त-शिरोमणि’ में दर्शाया जा चुका था।

ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है। 

चाँद शर्मा

16. मानव इतिहास – पुराण


पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख करी गयी हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः  पुराण समर्पित किये गये हैं।  इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-

  1. ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय  तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  2. पद्म पुराण – पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।
  3. विष्णु पुराण – विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।
  4. शिव पुराण शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।
  5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।
  6. नारद पुराण – नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।
  7. मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।
  8. अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।
  9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण,  भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।
  10. ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
  11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
  12. वराह पुराण –  वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।
  13. सकन्द पुराण – सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।
  14. वामन पुराण – वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।
  15. कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।
  16. मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
  17. गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके। 
  18. ब्रह्माण्ड पुराण – ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

10 – हिन्दूओं के प्राचीन ग्रंथ


हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। हिन्दू धर्म ग्रंथों की सूची बहुत विस्तरित है। यह प्रत्येक हिन्दू की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, या कुछ एक को, अथवा सभी को पड़े, और चाहे तो किसी को भी ना पढे़। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है। सारांश यह कि हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठना बाध्य नहीं है।

संक्षिप्त समझने के लिये हिन्दूओं की प्राचीन पुस्तकों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता हैः –

  • यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ
  • महा काव्य तथा इतिहास
  • सामाजिक ग्रंथ

1.    यथार्थ विज्ञान के मौलिक ग्रंथ


चार वेद ऋगवेद, यजुर्वेद, अथर्व-वेद तथा साम वेद स्नातन धर्म के मूल ग्रंथ हैं जो किसी एक ग्रंथाकार ने नहीं लिखे, अपितु कई परम ज्ञानी ऋषि मुनियों के अनुसंधान तथा उन की अनुभूतियों के संकलन हैं। वैदिक ज्ञान ऋषियों पर ईश्वर कृपा से उसी प्रकार प्रगट हुआ था जैसे साधारण मानव कुछ लिखने के लिये जब ऐकाग्र हो कर विचार करते हैं तो विचार अपने आप ही प्रगट होने लगते हैं। इस अवस्था को ईश्वरीय प्रेरणा कहा जाता है।

हिन्दूओं की आस्था है कि वैदिक ज्ञान ऋषियों को लिपि के स्वरूप में प्राप्त हुआ था। हो सकता है ऐसा विशवास किसी को अटपटा भी लगे किन्तु आज के युग में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कम्पयूटरों के माध्यम से साधारण मानव भी सम्पादित लेख लिपि की शक्ल में एक साथ कई स्थानों पर भेज सकते हैं तथा उस का छपा हुआ संस्करण प्राप्त भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटरों का साईज़ भी दिन प्रति दिन छोटा होता जा रहा है। टच स्क्रीन पर तो केवल छू कर ही वाँच्छित ज्ञान फारमेटिड रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अतः वैदिक ऋषियों को यदि लिपि के स्वरूप में ज्ञान प्राप्त हुआ था तो यह अविशवास की बात भी नहीं। तकनीक बदलती रहती है लेकिन कानसेप्ट तो आज भी वही है। कुछ और समय पश्चात हिन्दूओं की वैदिक आस्था अपने आप ही और स्पष्ट हो जाये गी क्यों कि सर्व शक्तिमान ईश्वर के शब्द कोष में वैज्ञयानिकों वाला असम्भव शब्द नहीं होता।

वैदिक ज्ञान पहले तो श्रुति के रूप में गुरू-शिष्य सम्पर्क से वितरित होता रहा, पश्चात मर्हृषि वेद व्यास ने उस ज्ञान को लिखित रूप में संकलित किया। लिखित ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। कमप्यूटर की भाषा में आज कल वेद हार्ड कापी में भी उपलब्द्ध हैं।

वैदिक ज्ञान केवल अध्यात्मिक ही नहीं अपितु उन सभी विषयों के बारे में था जो जीवन को प्रभावित करते हैं। वेदों में भौतिक, रसायन, राजनीति, कला-संस्कृति तथा अन्य कई विषय़ों पर मौलिक ज्ञान संचित है जो ऋषियों ने निजि अविष्कारिक यत्नों तथा अनूभूतियो सें संचित किया था। यह ज्ञान सूत्रों में उपलब्ध कराया गया है। आज की भाषा के एक्रोनिम्स की तरह सूत्रों की शैली सूक्ष्म होती है तथा स्मर्ण रखने के लिये सहायक होती है। किन्तु सूत्रों को विस्तार से पुनः व्याख्या कर के समझना पड़ता है।

वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औषधियों को सम्बोधन कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग कालान्तर अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जान कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था। संक्षेप में चार वेदों का मुख्य विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैः –

  • ऋगवेद ऋगवेद में अध्यात्मिक (स्पिरचुअल), मौलिक ज्ञान (फन्डामेंटल साईंस), विज्ञान (एप्लाईड साईंस), सृष्टि का भौतिक ज्ञान ( एस्ट्रो-फिज़िक्स) तथा प्रशासनिक (गवर्नेंस) आदि विषय वर्णित हैं।
  • यजुर्वेद यजुर्वेद में संसारिक, सामाजिक नीतियों, परम्पराओं, अधिकारों तथा कर्तव्य़ों की मौलिक रूप रेखा है। ऐक प्रकार से यह प्रोसीजुरल विषयों का ग्रंथ है।
  • साम वेद सामवेद में आराधना, दार्शनिक्ता, योग ज्ञान, तथा कलात्मिक विषय जैसे कि संगीत आदि वर्णित हैं।
  • अथर्व-वेद अथर्व वेद में चिकित्सा तथा शरीर सम्बन्धी विषय वर्णित हैं।

उप वेद प्रत्येक वेद के एक या एक से अधिक कई उप वेद हैं जिन में मूल अथवा अन्य विषयों पर अतिरिक्त ज्ञान है। उप वेदों के अतिरिक्त छः वेद-अंग भी हैं जो वेदों को समझने में सहायक हैं।

उपनिष्द – वेदों के संकलन के पश्चात भी कई ऋषियों ने  अपनी अनुभूतियों से ज्ञान कोष में वृद्धि की है। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना तथा उस में संशोधन भी किया है। इस प्रकार के ज्ञान को उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित किया गया है। उपनिष्दों की मूल संख्या लग भग 108 – 200 तक थी, किन्तु यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं की धर्मान्धता के कारण नष्ट कर दिया गया था। आज केवल 10 उपनिष्द ही उपलबद्ध हैं।

षट-दर्शन सृष्टि के आरम्भ से ही मानव निजि पहचान, सृष्टि, एवं सृष्टि कर्ता के बारे में जिज्ञासु रहा है और उन से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर ढूंडता रहा है। इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों की खोज ने ही हिन्दू आध्यात्मवाद की दार्शनिक्ता को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने अपनी अन्तरात्मा में झांका तथा सूक्ष्मता से गूढ मंथन कर के तथ्यों का दर्शन किया। प्रथक – प्रथक ऋषियों ने जो संकलन किया था उसी के आधार पर छः प्रमुख विचार धाराओं को षट-दर्शन कहा जाता है, जो भारतीय दार्शनिक्ता की अमूल्य धरोहर हैं। दर्शन शास्त्रों में बहुत सी समानतायें हैं क्योकि उन का मूल स्त्रोत्र उपनिष्द ही हैं।

2.    महा काव्य तथा इतिहास

प्राचीन काल में कवि ही महाकाव्यों के माध्यम से इतिहास का संरक्षण भी करते थे। भारत में कई महाकाव्य लिखे गये हैं। उन में रामायण तथा महाभारत का विशेष स्थान है। क्योंकि रामायण तथा महाभारत ने भारत के जन जीवन तथा उस की विचार धारा को अत्याधिक प्रभावित किया है।

रामायण – रामायण  की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की है तथा यह विश्व साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महा काव्य है। रामायण की कथा भगवान विष्णु के राम अवतार की कथा है। राम का चरित्र कर्तव्य पालन में एक आदर्श पुत्र, पति, पिता तथा राजा के कर्तव्य पालन का प्रत्येक स्थिति के लिये एक कीर्तिमान है।  महा काव्य में केवल राम का पात्र ही मर्यादा पुरुषोत्तम का है और रामायण के अन्य पात्र मानव गुणों तथा अवगुणों की दृष्ठि से सामान्य हैं। वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा ले कर कई कवियों ने राम कथा पर महाकाव्यों की रचना की जिन में से गोस्वामी तुलसीदास कृत हिन्दी महा काव्य राम चरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय है। रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही एकमात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है। रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है तथा भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो।

महाभारतमहाभारत विश्व साहित्य का सब से विस्तरित ऐतिहासिक महाकाव्य है। मुख्यतः इस ग्रंथ में भारत के कितने ही वंशों की कथा को पिरोया गया है जो तत्कालित समय की घटनाओं तथा जीवन शैली का चित्रण करता है। इस महाकाव्य में हर पात्र मुख्य कथानक में निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ता है तथा मानव जीवन की उच्चता और नीचता को दर्शाता है। रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। रामायण और महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। जहाँ रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्र में विचरता है वहीं महाभारत का पटाक्षेप समस्त भारतवर्ष में फैला हुआ है। इस से प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही भारत एक विस्तर्ति राष्ट्र था।

पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पौराणिक कथाओं में भी हिन्दू धर्म के विकास को भारत के राजनौतिक इतिहास तथा जन-जीवन की कथाओं के साथ संजोया गया है। पौराणिक कथायें देवी-देवताओं, महामानवों तथा जन साधारण के परस्पर सम्पर्कों का अदभुत मिश्रण हैं। कुछ कथायें यथार्थ में घटित एतिहासिक हैं तथा कुछ को बढा चढा कर भी दिखाया गया हैं। भारत का प्राचीन इतिहास आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अतः उस को पुनः ढूंडने के लिये पौराणिक इतिहास को आधार बना कर अन्य लिखित एतिहासिक कृतियों से तुलनात्मिक आंकलन किया जा सकता है। यदि हम पौराणिक कथाओं को इतिहास ना भी माने तो भी वह अपने आप में ऐक अमूल्य साहित्यक धरोहर हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिये।

3.    सामाजिक ग्रंथ

सामाजिक जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर कई मौलिक तथा विस्तरित ग्रंथ उपलब्ध हैं जैसे कि आयुर्वेद, व्याकरण, योग शास्त्र, कामसूत्र, नाट्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि। उन सभी का वर्णन इस समय प्रासंगिक नहीं अतः केवल दो ही ग्रंथों को संक्षेप में यहाँ वर्णित किया है जिन्हों ने ना केवल भारतीय जीवन को अपितु समस्त विश्व के मानव जीवन को अत्याधिक प्रभावित किया है।

श्रीमद् भागवद् गीता मानव जीवन के हर पहलू से जुड़ी श्रीमद् भागवद् गीता सब से प्राचीन दार्शनिक ग्रंथ है जो आज भी हर परिस्थिति में अपनाने योग्य है। गीता समस्त वैदिक तथा उपनिष्दों के ज्ञान का सारांश है तथा सहज भाषा में कर्तव्यपरायणता की शिक्षा देती है। यदि कोई किसी अन्य ग्रंथ को ना पढ़ना चाहे तो भी पूर्णतया सफल जीवन जीने के लिये केवल गीता की दार्शनिक्ता ही पर्याप्त है।

मनु स्मृति – मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं और संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्ष्म ग्रंथ अन्य. किसी भाषा में नहीं है।

हिन्दू ग्रंथों के कारण ही विश्व में भारत को सभ्यता का अग्रज तथा विश्व गुरू माना जाता है।  किन्तु आज अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम पद्धति से पढ़े लिखे भारतीय युवाओं को अज्ञान के कारण अपने पूर्वजों पर गर्व और विशवास नहीं, और अपने आप पर भरोसा और साहस भी नहीं कि वह इस अनमोल विरासत को पुनः विश्व पटल पर सुशोभित कर सकें। वह मानसिक तौर पर प्रत्येक तथ्य को पाश्चात्य मापदण्डों से ही प्रमाणित करने के इतने ग़ुलाम हो चुके हैं कि मौलिक ग्रन्थ को अंग्रेज़ी प्रतिलिपि के आघार पर ही प्रमाणित करने की माँग करते हैं।

चाँद शर्मा

6 – निराकार की साकार प्रस्तुति


आदि-मानव वर्षा, बाढ़, बिजली, बिमारियों, मृत्यु तथा समस्त प्राकृतिक आपदाओं का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे धीरे स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं। ऋषि मुनियों ने पहले जुटाये गये तथ्यों को विस्तारा, संवारा तथा आवश्यक्तानुसार समय समय पर नकारा भी था। क्योंकि हिन्दू धर्म में धर्म सम्बन्धी विषयों की आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रही है।

यही परिक्रिया दंत-कथाओं के माध्यम से अन्य मानव समुदायों में भी फैलती गयी जहाँ मानव सभ्यता क्रमशः भारत से पिछड़ी अवस्था में थी। रिक्त तथ्यों को सुनाने वालों ने या सुनने वालों ने अपनी समझ-बूझ से भर कर और आगे फैला दिया। आदि-धर्म के सभी संस्करणों में प्रकृति के सभी साधनों और क्रियायों पर किसी ना किसी देवी या देवता का अधिकार था और उन का अनुगृह पाने के लिये देवी देवताओं को बलि, कुर्बानियों तथा आराधना के माध्यम से प्रसन्न करने का विधान कई स्थानों पर चल पड़ा। एक समुदाय के देवी- देवताओं के नामों, विभागों तथा परस्परिक सम्बन्धों में दूसरे समुदायों के साथ विभिन्नता होना स्वाभाविक ही था। धर्म के उन परिवर्तित संस्करणों को कालानतर इसाईयों ने पैगनज़िम कहा और मुसलमानों ने जहालत का नाम दिया ताकि वह अपने नव निर्मित धर्मों का विस्तार आसानी से कर सकें।

विज्ञान तथा कला का संगम

हर घटना प्रमाणित होने के पश्चात इतिहास मान ली जाती है। जैसे जैसे ज्ञान और वैज्ञियानिक विचारधारा का विस्तार हुआ अन्धविश्वास पर आधारित दन्तकथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे। जो तर्क की कसौटी पर स्थिर नहीं रह सकीं वह अविशवासनीय होती गयीं। स्वार्थ वश कई धर्मों ने अपने अनुयाईयों को वश में रखने के लिये धर्म सम्बन्धी विषयों पर प्रश्न चिन्ह लगाने पर केवल  पाबन्दी ही नहीं लगाई अपितु पश्न पूछने वालों को मृत्यु दण्ड तक भी दे डाले ताकि उन की दंत-कथाओं की पोल ना खुल सके।

जब अन्य स्थानों पर मानव समुदाय जंगलों में वनजारा जीवन व्यतीत कर रहे थे या अपने अपने समुदायों में दंतकथाओं या अंधविशवास के तले जी रहे थे उस समय भारत में पूर्णतया विकसित आदि-धर्म वैज्ञानिक जिज्ञ्यासा की चुनौतियों का सामना करने के लिये तैय्यार हो चुका था। भारत का स्नातन धर्म कल्पनाशक्ति से परिपूर्ण, दार्शिनिक प्रौढ़ता समेटे अपनी आकर्षक चित्रावली के साथ समृध हो चुका था जो आज भी यथार्थ जीवन के एकदम समीप है। परम ज्ञ्यानी वैदिक ऋषियों ने उस विचारधारा को अपने निजि अनुभवों तथा अनुभूतियों से प्रमाणिक्ता प्रदान की थी और उन की सोच आज के वैज्ञ्यानिक अविष्कारों की अग्रज है।  

ऐक बालक का दिमाग़ दार्शनिक अथवा काल्पनिक विचारों को गृहण नहीं कर सकता। अतः बालक को वस्तुओं का बोध कराने के लिये उसे वस्तुओं के चित्र भी दिखाने पड़ते हैं। शाब्दों  के बजाय बालक को चित्रों से आम, बाघ, मानचित्रों से अज्ञात् स्थानों, तथा फोटोग्राफ के माघ्यम से दूरगामी रिश्तेदारों का परिचय करवाना पडता है। अतः वस्तुओं के चित्र ऐसे होने चाहियें कि बालक उन वस्तुओं की आकृति, रंग, गुण दोषों की जानकारी यथासम्भव अनुभूत कर सकें। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। अतः हिन्दू धर्म ने धार्मिक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी विशेष महत्व दिया है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जब किसी चिन्ह का शब्दों से उच्चारण किया जाता है तो उस चिन्ह और शब्द में पूर्व-स्थापित सम्बन्ध दृष्य हो जाता है। शब्द और चित्र अभिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार चिन्ह मन तथा मस्तिष्क को केन्द्रित कर के वस्तु का साक्षातकार करवाने का एक सक्ष्म साधन बन जाते हैं।

भले ही इसाई तथा मुसलिम धर्म चिन्हों के बहिष्कार का दावा करते हों परन्तु हिन्दूओं की देखा देखी उन के धर्म भी कई चिन्हों का सम्मान करते हैं। इसाई अपने घरों को क्रिसमिस ट्री से सजाते हैं, बच्चों को बहलाने के लिये सांटाक्लाज़ बनाते हैं तथा नकली सांटाक्लाज़ से अपने बच्चों को उपहार भी बटवाते हैं। इसाई मूर्तियों के आगे और मृतकों की कबरों पर मोम-बत्ती भी जलाते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम भी काबा की दिशा की ओर सिजदा करते हैं, काबा की तसवीर घरों में लगाते है, 786 को शुभ अंक मान कर उसे तावीज़ बना कर पहनते हैं तथा अरबी भाषा में मुहम्मद या अल्लाह लिख कर घरों में रखना शुभ समझते हैं। सारांश यह है कि हर धर्म में किसी ना किसी रूप में चिन्ह प्रयोग किये जाते हैं। अन्तर केवल उन्नीस बीस का ही है। सभी आराधक पहले तो मन के अन्दर कलपित लक्ष्य की धारणा करते हैं फिर उस पर ध्यान लगाते हैं। अतः चिन्ह या मूर्ति पूजा आराधना का आरम्भ मात्र है, अंत नहीं। स्नातन धर्म ने मूर्ति पूजन को अपनाया किन्तु शून्य में ध्यान लगा कर अनन्त पर मन को केन्द्रित करना भी सिखाया है। यह सब आराधना के भिन्न भिन्न स्तर हैं।

मूर्तियाँ केवल शिल्पकारियों की कला की प्रदर्शन ही नहीं करातीं अपितु ईश्वर से सम्पर्क का सक्ष्म साधन भी हैं। बाहरी तौर पर तो मूर्ति का पूजन होता है किन्तु आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। दुकान में रखे हुये बुत को शिल्प कारी और सजावट की वस्तु कहा जा सकता है लेकिन जब उसी बुत को श्रद्धा और पूजा भाव के साथ स्थापित कर दिया जाता है तो उसी बुत में देव दर्शन कराने की क्षमता आराधक को अपने आप ही दिखायी पड़ने लगती है।

जब हम दूरदर्शन के माध्यम से दूर गामी स्थानों की आवाज़ तथी छवि को निहार सकते हैं तो मूर्ति के माध्यम से सर्व-व्यापी ईश्वर के साथ भी सम्पर्क बना सकते हैं क्यों कि ईश्वर तो सर्ष्टि के हर कण में विध्यमान है। किसी भी राष्ट्र का झण्डा रंग बिरंगे कपड़ों का टुकड़ा होता है लेकिन जब उसी झण्डे के साथ भावनायें जुड़ जाती हैं तो सिपाही उसी कपडे के टुकडे को  बचाने के लिये अपनी जान पर भी खेल जाते हैं। जिस प्रकार झण्डा रूपी कपडे का टुकडा ऐक सिपाही के अन्दर अद्भुत वीरता का संचार कर देता है उसी प्रकार ऐक मूर्ति ईश्वरीय शक्ति का प्रकाश आराधक पर डाल देती है।   

पूजा की विधि

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने को एक निशचित तरीके से करने के लिये कार्य विधि निर्धारित कर दी जाती है ताकि वह कार्य बिना किसी त्रुटि के सुचारु ढंग से सम्पन्न हो सके। इस प्रकार आरम्भिक क्रिया से ले कर समाप्ति की क्रिया तक का सभी ब्योरा क्रिया में भाग लेने वालों को निश्चित तौर पर मालूम हो जाता है। किसी से कोई भूल होने की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार जलती हुयी मोमबत्ती को बुझाना और केक काटना जन्मदिन उत्सव के अभिन्न अंग बन गये हैं उसी प्रकार ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की विधि जैसी ही निश्चित हो गयी है।

मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं –

सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। आराध्य को स्नान कराया जाता है, वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य की विदाई भी की जाती है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है, क्यों कि ईश्वर जैसी महाशक्ति जो स्वयं सागरों को ऐक ही क्षण में भर सकती है तथा समूची सृष्टि को प्रकाशित कर सकने में सक्ष्म है वही महाशक्ति आराधक के स्नान और भोजन पर निर्भर नहीं हो सकती।

हिन्दूओं के किसी भी आराधक के लिये अर्चना पद्धति के सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आराधक निजि रुचि ऐवम् सुविधानुसार पूजा अर्चना कर सकता है। चिन्ह में आस्था रखने वाला आराधक प्रत्येक मूर्ति में ईश्वर को निहार सकता है भले ही मूर्ति  पत्थर, मिट्टी, पीतल, या स्वर्ण की बनी हो या केवल कोई चित्र हो। मूर्ति पूजा के माध्यम से आत्म ज्ञान का मार्ग सरल हो जाता है तथा इस का आधार जनसाधारण को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।  

आस्था के धार्मिक चिन्ह

मूर्तियों के अतिरिक्त सभी धर्म कई प्रकार के चिन्हों को धार्मिक आस्था का केन्द्र मानते हैं। इसाई क्रास को पवित्र मानते हैं और मुस्लिम काबा का दिशा में सजदा करते हैं तथा कलात्मिक ढंग से अल्लाह या मुहम्मद इतियादि लिखवाते हैं।  हिन्दूओं के पास बहुत से विकल्प हैं जैसे किः-

  • ऊँ का चिन्ह सृष्टि के उस अनाहत नाद का प्रतीक है जो गृहों के परिकर्मा के कारण निरन्तर गूंजती रहती है। समस्त कृतरम नाद कम से कम दो निमितों से पैदा होते हैं जैसे वाध्य यंत्रों में लगे गज और तार का घर्षण, ढोल तथा पीटने के लिये छड़ी की चोट, या वायु का किसी संकरे मार्ग से बाँसुरी की आवाज़ की तरह सुनायी देना। जो नाद इस प्रकार दो वस्तुओं के संघर्ष से उत्पन्न होते है वह भी इसी दैविक नाद से ही जन्म लेते है। किन्तु ऐसे नाद के चार अंग होते हैं। पहले तीन अंग अ ओ तथा म और चौथा अंग खामोशी से बनता है जो सुनाय़ी नहीं देता। यही खामोशी सुनाय़ी पड़ने वाली आवाज़ के आरम्भ और अंत को उजागर करती है।
  • स्वास्तिक का चिन्ह स्थिरता का प्रतीक है जो चारों दिशाओं में घूमाव के मध्य में विद्धमान रहती है। पूरी सृष्टि तेज़ी से  घूम रही है फिर भी स्थिर दिखती है। हिन्दूओं के अतिरिक्त कई योरूप के देशों में भी इसे पवित्र माना जाता रहा हैं।
  • शिव-लिंग सृष्टि में सभी प्रकार के जीवन के प्रजनन का वैज्ञानिक प्रतीक है। सभी प्राणियों की उत्पति लिंग-योनि के योग से ही हुयी है अतः यह चिन्ह दैविक शक्ति का भी प्रतीक है और दर्शाता है कि हम सभी का जीवन किसी पाप से नहीं अपितु दैविक इच्छा का फलस्वरूप है। यह ईश्वर की ओर से दिया गया दण्ड नहीं बल्कि पुरस्कार है।
  • ताँत्रिक चिन्ह – स्नातन धर्म में कई रेखागणित चिन्ह शक्ति का प्रतीक माने जाते हैं तथा ताँत्रिक यन्त्रों में प्रयोग किये जाते हैं।

वास्तव में चिन्ह पहचान के निमित मात्र होते हैं। आज भी सभी देशों की राजकीय मुद्रा सरकार की सार्वभौमिक्ता दर्शाने का प्रतीक मानी जाती है। व्यवसायी कम्पनियां भी अपने लागो की छाप अपने उत्पादकों पर अंकित करती हैं। 

यदि ईसा को क्रास पर ना चढ़ाया गया होता तो क्रास का भी इसाई धर्म में कोई महत्व ना होता। कभी कभी किसी धर्म स्थल के किसी नगर में होने के कारण ही वह नगर धार्मिक दृष्टि से महत्वशाली बन जाता है। हिन्दूओं के धार्मिक चिन्ह वैज्ञानिक्ता का प्रतीक हैं और शाशवत हैं। 

यदि किसी व्यक्ति की निजि आस्था किसी चिन्ह में नहीं तो हिन्दू धर्म में उस पर किसी भी चिन्ह को अपनाना या उस की पूजा-अर्चना करना भी बाध्य नहीं है। यही हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता का मूल-मंत्र है। मूर्तियां तथा चिन्ह हिन्दूओं के दार्शिनिक विचारों का कलात्मिक व्याखिकरण हैं।

चाँद शर्मा

 

 

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